इलेक्ट्रोनिक मीडिया के दर्जन भर से अधिक फ्लैश एकसाथ चमकने लगे. मंत्रीजी के पीछे खड़े आधा दर्जन थोबड़े मुसकराहट से फैलते गए. वे अपने पोज लगातार बदलते रहे. तभी बराबर में बैठे शंभु कहने लगे, ‘‘एनटीआर को देख रहे हैं न?’’

बात मेरी समझ में नहीं आई. वह धीरे से बतिया रहे थे. कुछ देर सोचने में लगी और फिर बात समझ में आ गई. एनटीआर माने नथिंग टु रिपोर्ट. मतलब साफ कि लिखना कुछ नहीं. बस, टीवी चैनलों के आगे मौकेबेमौके अपने थोबड़े दिखाते रहो ताकि 24 घंटे के समाचारों में कईकई चैनलों में दीखते रहो. घर वालों को फोन कर दो, आज टीवी न्यूज चैनल देख लेना. मित्रों को भी खबर कर दो, ‘‘अरे, यार, आज जरा न्यूज चैनल देख लेना, फलाने मंत्री के साथ अपन भी मौजूद हैं.’’ इस से धाक भी जमती है और धंधे करने में सहूलियत भी होती है. अब देखिए न, हर पार्टी के नियमित पत्रकार सम्मेलन होते हैं, सो उन का समय पहले से ही करीबकरीब तय होता है. समय से काफी पहले फोकस वाली सारी कुरसियां घिर जाती हैं, जो पहले पहुंच जाते हैं अपने मित्रों के लिए कुरसियां घेर लेते हैं. फिर सवाल पूछने में सब से आगे और लिखने के मामले में कलम जेब से बाहर नहीं निकलती.

एक पत्रकार हैं, उम्र में भी वरिष्ठ हैं पर अब एनटीआर हो गए हैं. कहीं भी बैठे हों फोन घुमाने लगते हैं और बताते हैं, ‘संसद भवन में बैठा हूं.’ चाहे वह चाय की कोई दुकान ही क्यों न हो. काम क्या करते हैं, उन के अलावा शायद ही किसी को पता हो. अचानक विनोद मिल गए. छूटते ही कहने लगे, ‘‘एक प्रेस कान्फ्रेंस कराई थी पर अनुभव अच्छा नहीं रहा.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ मैं ने पूछा तो बताने लगे, ‘‘तुम्हें तो पता ही है, अपना काम विज्ञापन का है. एक कंपनी ने नई गारमेंट लांच की. पब्लिसिटी का जिम्मा मुझे दे दिया. टाइम कम था, फिर भी निमंत्रणपत्र गिनेचुने अखबारों को भेज दिए. बुलाया 15 को था, वहां पहुंच गए 50. गिफ्ट के लिए खूब हंगामा किया. कौन कहां से आया, कुछ पता नहीं. एक साहब तो कहने लगे, ‘मेरा पर्स रास्ते में कहीं गायब हो गया, 500 रुपए दे दो, घर जाऊं.’ आयोजक ने मरता क्या न करता की हालत में चुपचाप उन्हें 500 रुपए का नोट पकड़ा दिया. फिर कहने लगे, ‘घर तो छुड़वा दीजिए या फिर टैक्सी के लिए 200 रुपए दीजिए.’ किसी तरह उन से पिंड छुड़वाया.’’ ‘‘और क्या हुआ?’’ मैं ने मुसकराते हुए पूछा.

विनोद रोंआसे हो कर कहने लगे, ‘‘10 दिन हो गए पर खबर कहीं भी नहीं लगी. आयोजक मुझ से नाराज. अच्छे संबंध थे, बिजनेस भी मिल जाता था, सो भी हाथ से गया.’’

विनोद के साथ एक और सज्जन थे, मैं उन्हें नहीं जानता था. विनोद चुप हुए तो वह बोलने लगे, ‘‘कभी प्रगति मैदान के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले में गए हैं. कई सीजनल पत्रकार वहीं दिखाई देते हैं. हर जगह कैटलाग से ले कर जो भी मिलता है, बटोर कर ले जाते हैं. सुबह से शाम तक वहीं मंडराते रहते हैं. कहीं लंच तो कहीं ब्रेकफास्ट. एक साहब तो अपने साथ सहायक ले कर चलते हैं और दोपहर तक जुटाए माल के साथ उसे घर भेज देते हैं. मीडिया सेंटर में एक से एक चेहरे दिखाई दे जाएंगे, जो साल भर कहीं नहीं दिखाई देते.’’ फिर स्वयं ही कहने लगे, ‘‘पर अब आयोजक भी चतुर हो गए हैं. खिला तो देते हैं पर बरसाती मेंढकों को गिफ्ट नहीं देते. फिर भी कुछ का खानेपीने का गुजारा तो चल ही जाता है.’’

इसी बीच मुझे एक बुजुर्ग पत्रकार की याद आ गई. वह मीडिया सेंटर में दिन भर बैठे रहते. उन की आलीशान कोठी थी, 2-3 कारें, इतने ही फोन. ऐसा वह बताते थे. सच ही कहते होंगे. पर दिन भर मीडिया सेंटर के फोन पर चिपके रहते. उन्होंने अपने चाहने वालों को दिन में बात करने का फोन नंबर भी मीडिया सेंटर का ही दिया हुआ था. एक बार उन के साथ कहीं जाना हुआ. सब से पहले हम 2 ही पहुंचे थे. पत्रकारों के स्वागत में सिगरेट के पैकेट रखे हुए थे, शायद कोई विदेशी सिगरेट थी, सो उन्होंने फौरन एक पैकेट उठा कर जेब के हवाले कर दिया. मुझे गुस्सा तो बहुत आया. बाद में अकेले में मिले तो मुझ से रहा नहीं गया, उन के हाथ की सफाई का बखान करते हुए बोला, ‘‘उस मौके पर फोटोग्राफर नहीं था, आता तो फोटो खींच लेता.’’

‘‘किस की?’’ वह बोले. ‘‘सिगरेट जेब में रखते हुए आप की?’’ मैं ने धीरे से कहा तो वह कहने लगे, ‘‘सिगरेट तो मैं अपने ड्राइवर के लिए ले जा रहा हूं.’’

‘कितने महान हैं, ड्राइवर का बड़ा ध्यान रखते हैं,’ यह सोच कर मैं श्रद्धा से झुक गया. महीनों बाद वह ऐसे ही किसी कार्यक्रम में दोबारा मिल गए पर उस दिन सिगरेट के पैकेट को उन्होंने हाथ नहीं लगाया. मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘सर, आप के ड्राइवर ने नौकरी छोड़ दी या सिगरेट?’’

‘‘अरे, तुम्हें कैसे पता? सचमुच वह ड्राइवर अब नहीं है,’’ बहुत भोलेपन से उन्होंने जवाब दिया.

एनटीआर हर जगह मिल जाते हैं. उन का अपना गिरोह है. एक को किसी आयोजन की खबर मिलती है तो पूरे गिरोह को ही वायरलैस हो जाता है और सारे हाजिर भी हो जाते हैं. वैसे कई बार भीड़ जुटाने में इन का बड़ा योगदान होता है. एनटीआर न हों तो पूरा कान्फ्रेंस हाल खालीखाली लगता है. एक स्थानीय निकाय के जनसंपर्क निदेशक के कमरे में बैठा था. तभी धड़धड़ाते हुए एक सज्जन घुसे और बिगड़ने लगे, ‘‘पत्रकारों की आप के यहां बेइज्जती हो रही है और आप कुछ नहीं करते. आप के सिक्योरिटी वाले स्कूटर तक नहीं लाने देते. कहते हैं कि पास नहीं है तो बाहर खड़ा करो.’’

‘‘आखिर हुआ क्या?’’ निदेशक ने बिना गरदन उठाए फाइल में आंखें गड़ाए पूछा तो वह गुस्से से तमतमाने लगे. फिर गुस्से में बोलने लगे, ‘‘पता नहीं कैसेकैसे ऐरेगैरों को पार्किंग पास दे देते हैं और जो पत्रकार हैं उन की बेइज्जती कराते हैं.’’ फिर मेरी तरफ देखते हुए बोले, ‘‘आप भी शायद पत्रकार बंधु हैं. क्या यह सब ठीक है?’’

मैं ने कहा, ‘‘कानून तो सब के लिए है.’’ वह विफरते हुए कहने लगे, ‘‘शर्म आनी चाहिए आप को. आप जैसे लोगों की वजह से ही ऐसा हो रहा है. आप भी गलत लोगों का साथ देते हैं.’’

मेरे पास कोई उत्तर नहीं था. वह जिस तेजी से आए थे उसी तेजी से चले गए. उन के जाने के बाद मैं ने निदेशक से पूछा, ‘‘ये पत्रकार महोदय कौन हैं?’’ निदेशक कहने लगे, ‘‘अरे, है एक टुटपुंजिया. 4 पेज का साप्ताहिक निकालता है जिस में हर हफ्ते किसी न किसी की बखिया उधेड़ता रहता है. अब अगले हफ्ते मेरी बारी है, ऐसा लगता है.’’

कमरे में कुछ और लोग भी बैठे थे. सब अपनेअपने अनुभव बांटने लगे. इलेक्ट्रोनिक मीडिया तब था ही नहीं और अखबार भी गिनती के ही थे. कुछ धाकड़ किस्म के लोग तब भी धंधा करने का रास्ता खोज निकालते थे. कई धंधों के चलते ही खूब मालामाल हो गए. कुछ तो आज के जानेमाने पत्रकारों में गिने जाते हैं. एक पत्रकार महोदय का किस्सा तो खासा चर्चित है. एक बार किसी थाने में घुस गए. सीधे एस.एच.ओ. से मिले. वह उन्हें जानता था. जाते ही कहने लगे, ‘‘यहां भीड़ में किसी ने मेरा पर्स उड़ा दिया, उस में हजार रुपए पड़े थे. आप के इलाके में उठाईगीरों का राज है.’’ एस.एच.ओ. ने कहा, ‘‘आप के साथ ऐसा हुआ, इस का मुझे अफसोस है. हम छानबीन करते हैं. कोशिश करेंगे कि आप का पर्स रुपए समेत मिल जाए.

शाम को एक सिपाही बंद लिफाफा ले कर उस धाकड़ पत्रकार के दफ्तर पहुंच गया और कहने लगा, ‘‘जनाब, यह लिफाफा एस.एच.ओ. साहब ने आप को भिजवाया है. पर्स तो मिला नहीं पर आप के हजार रुपए बरामद हो गए हैं.’’

तब उन का वेतन भी 250-300 से ज्यादा नहीं था. बाद में उन्होंने अपने किसी खास पत्रकार मित्र को यह घटना बताई और कहने लगे कि पर्स तो मेरे पास था नहीं. पुलिस वालों को आजमा रहा था. उन्होंने कौन से अपनी जेब से दिए, कहीं से वसूले ही होंगे. कई दशक पहले एक पत्रकार तो खासे चर्चित रहे. पदोन्नति और तबादला कराने में उन की खूब चलती थी. अगर उन की इच्छा से काम नहीं होता तो कई दिनों तक उस महकमे का कच्चा चिट्ठा छापते रहते. उन के एक ही फोन से काम हो जाता था, पर वह एनटीआर नहीं थे, रिपोर्ट धड़ल्ले से लिखते थे. जिस से नाराज हो जाते उस की शामत आ जाती और जो उन का काम कर देता उस की तारीफों की खबर छपती रहती.

एनटीआर के चक्कर में जानेमाने अखबारों के पत्रकारों की भी कई बार फजीहत हो जाती है, जो खबरें लिखते हैं वे कोई और काम नहीं करते. जो कुछ नहीं लिखते वे बहुत कुछ करते हैं. नियमित रूप से लोगों से मिलतेमिलते वे राजनीतिक गलियारों में घुस जाते हैं. फिर उन के वारेन्यारे हो जाते हैं. कुछ महिला पत्रकार भी कुछ कर गुजरने के चक्कर में एनटीआर के चक्कर में फंस जाती हैं. रिपोर्टिंग से ले कर देहदान तक का सफर करने के लिए विख्यात कुछ ऐसे पत्रकारों के बारे में कई किस्से खासे चर्चित भी हुए हैं, जिन में चुनाव में टिकट लेने तक की घटनाएं हैं. कुछ ही सफल राजनीतिज्ञ बन पाई हैं लेकिन कुछ राजनीतिबाजों की खास बन गईं.

एनटीआर की संख्या लगातार बढ़ रही है. हर कहीं एनटीआर दिखाई दे जाते हैं. हाथ में कागजों का पुलिंदा लिए खोजी पत्रकारिता की कपालक्रिया करतेकरते वे सिर्फ एनटीआर बन कर सुख भोगने में विश्वास करते हैं. कई तो इस चक्कर में राजनीति का सुख भोग रहे हैं, उन की आज खूब तूती बोल रही है.

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