‘‘सुनो भाई, मैं तुम्हारी बेटी को तालीम तो दे सकता हूं, पर एक बात है कि समय मुझे शाम की नमाज के बाद ही मिल सकेगा, चूंकि मदरसे में मुझे दूसरे बच्चों को तालीम देनी पड़ती है.’’
‘‘हांहां, ठीक बात है मुल्लाजी. दरअसल, मेरी बच्ची बड़ी हो गई है. बाहर भेजना मेरी शान के खिलाफ है. लड़कियां बाहर जाने से बेपरदा हो जाती हैं...
‘‘घर पर उस की अम्मी रहती हैं. मेरी एक ही बेटी है. कौन सा मुझे उस से नौकरी करानी है,’’ मियां जावेद अली ने कहा.
‘‘ठीक है, मैं कल शाम को आ रहा हूं,’’ मुल्ला नसरूल ने कहा.
शाम को सजधज कर कपड़ों में इत्र लगा कर मुल्लाजी मियां जावेद अली के घर जा पहुंचे.
‘‘क्या नाम है आप का मोहतरमा?’’ मुल्ला नसरूल ने पूछा.
‘‘जी, उलफत.’’
‘‘बड़ा प्यारा नाम है. चलो, सबक सीखें.’’
उलफत की उम्र 15 बरस रही होगी. मुल्ला नसरूल उसे रोज पढ़ाने आते. वह धीरेधीरे पढ़ने में दिलचस्पी लेने लगी.
मुल्ला नसरूल अब उस के लिए घर जैसे बन गए. वे पूरी ईमानदारी से जावेद अली की बेटी को तालीम दे रहे थे. इसी में एक साल पूरा हो गया.
मुल्ला नसरूल की शादी हो चुकी थी. उन के 2 बच्चे थे. बीवी सुसराल में रह कर ससुर व देवर के साथ खेतीबारी का काम देखती. मुल्लाजी भी महीने में 1-2 दिन के लिए बच्चों से मिल आते.
धीरेधीरे उलफत को तालीम देने का तीसरा साल शुरू हो गया. मुल्ला नसरूल को उलफत से उलफत हो गई थी, लेकिन डर की वजह से वे अपने दिल की बात नहीं कर पा रहे थे.
जवानी की यही शुरुआत लड़कियों के लिए संभलने की होती है. बाहर के मर्दों से उलफत का सामना नहीं होता था, पर इस साल उस के अब्बू ने घर पर टैलीविजन लगवा दिया था, जिस में सिर्फ मजहबी चैनल था.
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