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माता-पिता दोनों सुवास के साथ गए. कोटा में सप्ताहभर रुक कर अच्छे कोचिंग सैंटर की फीस भर कर बेटे को दाखिला दिलवाया. अच्छे होस्टल में उस के रहने-खाने की व्यवस्था की गई. पतिपत्नी ने बेटे को कोई तकलीफ न हो, सो, एक बैंक खाते का एटीएम कार्ड भी उसे दे दिया.

बेटे सुवास को छोड़ कर जब वे वापस लौट रहे थे तो दोनों का मन भारी था. मैत्री की आंखें भी भर आईं. जब सुवास साथ था, तो उस के कितने बड़ेबड़े सपने थे. जितने बड़े सपने उतनी बड़ी बातें. पूरी यात्रा उस की बातों में कितनी सहज हो गई थी.

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नकुल और मैत्री का दर्द तो एक ही था, बेटे से बिछुड़ने का दर्द, जिस के लिए वे मानसिक रूप से तैयार नहीं थे. फिर भी नकुल ने सामान्य होने का अभिनय करते हुए मैत्री को समझाया था, ‘देखो मैत्री, कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. बच्चों को योग्य बनाना हो तो मांबाप को यह दर्द सहना ही पड़ता है. इस दर्द को सहने के लिए हमें पक्षियों का जीवन समझना पड़ेगा.

‘जिस दिन पक्षियों के बच्चे उड़ना सीख जाते हैं, बिना किसी देर के उड़ जाते हैं. फिर लौट कर नहीं आते. मनुष्यों में कम से कम यह तो संतोष की बात है कि उड़ना सीख कर भी बच्चे मांबाप के पास आते हैं, आ सकते हैं.’

मैत्री ने भी अपने मन को समझाया. कुछ खो कर कुछ पाना है. आखिर सुवास को जीवन में कुछ बन कर दिखाना है तो उसे कुछ दर्द तो बरदाश्त करना ही पड़ेगा.

कमोबेश मातापिता हर शाम फोन पर सुवास की खबर ले लिया करते थे. सुवास के खाने को ले कर दोनों चिंतित रहते. मैस और होटल का खाना कितना भी अच्छा क्यों न हो, घर के खाने की बराबरी तो नहीं कर सकता और वह संतुष्टि भी नहीं मिलती.

पतिपत्नी दोनों ही माह में एक बार कोटा शहर चले जाते थे. कोटा की हर गली में कुकुरमुत्तों की तरह होस्टल, मैस, ढाबे और कोचिंग सैंटरों की भरमार है. हर रास्ते पर किशोर उम्र के लड़के और लड़कियां सपनों को अरमान की तरह पीठ पर किताबों के नोट्स का बोझ उठाए घूमतेफिरते, चहचहाते, बतियाते दिख जाते.

जगहजगह कामयाब छात्रों के बड़ेबड़े होर्डिंग कोचिंग सैंटर का प्रचार करते दिखाई पड़ते. उन बच्चों का हिसाब किसी के पास नहीं था जो संख्या में 95 प्रतिशत थे और कामयाब नहीं हो पाए थे.

टैलीफोन पर बात करते हुए मैत्री अपने बेटे सुवास से हर छोटीछोटी बात पूछती रहती. दिनमहीने गुजरते गए. सावन का महीना आ गया. चारों तरफ बरसात की झमाझम और हरियाली का सुहावना दृश्य धरती पर छा गया.

ऐसे मौसम में सुवास मां से पकौड़े बनवाया करता. मैत्री का बहुत

मन हो रहा था अपने बेटे को पकौड़े खिलाने का. शाम को उस के पति नकुल ने भी जब पकौड़े बनाने की मांग की तो मैत्री ने कह दिया, ‘बच्चा तो यहां है नहीं. उस के बगैर उस की पसंद की चीज खाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है.’ तब नकुल ने भी उस की बात मान ली थी.

मैत्री की स्मृतिशृंखला का तारतम्य टूटा, क्योंकि रेलगाड़ी को शायद सिगनल नहीं मिला था और वह स्टेशन से बहुत दूर कहीं अंधेरे में खड़ी हो गई थी.

ऐसा ही कोई दिन उगा था जब बरसात रातभर अपना कहर बरपा कर खामोश हुई थी. नदीनाले उफान पर थे. अचानक घबराया हुआ रोंआसा नकुल घर आया. साथ में दफ्तर के कई फ्रैंड्स और अड़ोसीपड़ोसी भी इकट्ठा होने लगे.

मैत्री कुछ समझ नहीं पा रही थी. चारों तरफ उदास चेहरों पर खामोशी पसरी थी. घर से दूर बाहर कहीं कोई बतिया रहा था. उस के शब्द मैत्री के कानों में पड़े तो वह दहाड़ मार कर चीखी और बेहोश हो गई.

कोई बता रहा था, कोटा में सुवास अपने मित्रों के साथ किसी जलप्रपात पर पिकनिक मनाने गया था. वहां तेज बहाव में पांव फिसल गया और पानी में डूबने से उस की मृत्यु हो गई है.

हंसतेखेलते किशोर उम्र के एकलौते बेटे की लाश जब घर आई, मातापिता दोनों का बुरा हाल था. मैत्री को लगा, उस की आंखों के आगे घनघोर अंधेरा छा रहा है, जैसे किसी ने ऊंचे पर्वत की चोटी पर से उसे धक्का दे दिया हो और वह गहरी खाई में जा गिरी हो.

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मैत्री की फुलवारी उजड़ गई. बगिया थी पर सुवास चली गई. यह सदमा इतना गहरा था कि वह कौमा में चली गई. लगभग 15 दिनों तक बेहोशी की हालत में अस्पताल में भरती रही.

रिश्तेदारों की अपनी समयसीमा थी. कहते हैं कंधा देने वाला श्मशान तक कंधा देता है, शव के साथ वह जलने से रहा.

सुवास की मौत को लगभग 3 माह हो गए पर अभी तक मैत्री सामान्य नहीं हो पाई. घर के भीतर मातमी सन्नाटा छाया था. नकुल का समय तो दफ्तर में कट जाता. यों तो वह भी कम दुखी नहीं था पर उसे लगता था जो चीज जानी थी वह जा चुकी है. कितना भी करो, सुवास वापस कभी लौट कर नहीं आएगा. अब तो किसी भी तरह मैत्री के जीवन को पटरी पर लाना उस की प्राथमिकता है.

इसी क्रम में उस को सूझा कि अकेले आदमी के लिए मोबाइल बिजी रहने व समय गुजारने का बहुत बड़ा साधन हो सकता है. एक दिन नकुल ने एक अच्छा मोबाइल ला कर मैत्री को दे दिया.

पहले मैत्री ने कोई रुचि नहीं दिखाई, लेकिन नकुल को यकीन था कि यह एक ऐसा यंत्र है जिस की एक बार सनक चढ़ने पर आदमी इस को छोड़ता नहीं है. उस ने बड़ी मानमनुहार कर उस को समझाया. इस में दोस्तों का एक बहुत बड़ा संसार है जहां आदमी कभी अकेला महसूस नहीं करता बल्कि अपनी रुचि के लोगों से जुड़ने पर खुशी मिलती है.

नकुल के बारबार अपील करने? और यह कहने पर कि फौरीतौर पर देख लो, अच्छा न लगे, तो एकतरफ पटक देना, मैत्री ने गरदन हिला दी. तब नकुल ने सारे फंक्शंस फेसबुक, व्हाट्सऐप, हाइक व गूगल सर्च का शुरुआती परिचय उसे दे दिया.

कुछ दिनों तक तो मोबाइल वैसे ही पड़ा रहा. धीरेधीरे मैत्री को लगने लगा कि नकुल बड़ा मन कर के लाया है, उस का मान रखने के लिए ही इस का इस्तेमाल किया जाए.

एक बार मैत्री ने मोबाइल को इस्तेमाल में क्या लिया कि वह इतनी ऐक्सपर्ट होती चली गई कि उस की उंगलियां अब मोबाइल पर हर समय थिरकती रहतीं.

फेसबुक के मित्रता संसार में एक दिन उस का परिचय उमंग कुमार यानी मिस्टर यू के से होता है.

अकसर मैत्री अपने दिवंगत बेटे सुवास को ले कर कुछ न कुछ पोस्ट करती रहती थी. फीलिंग सैड, फीलिंग अनहैप्पी, बिगैस्ट मिजरी औफ माय लाइफ आदिआदि.

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निराशा के इस अंधकार में आशा की किरण की तरह उमंग के पोस्ट, लेख, टिप्पणियां, सकारात्मक, सारगर्भित, आशावादी दृष्टिकोण से ओतप्रोत हुआ करते थे. नकुल को लगा मैत्री का यह मोबाइलफ्रैंडली उसे सामान्य होने में सहयोग दे रहा है. उस का सोचना सही भी था.

फेसबुक पर उमंग के साथ उस की मित्रता गहरी होती चली गई. मैत्री को एहसास हुआ कि यह एक अजीब संसार है जहां आप से हजारों मील दूर अनजान व्यक्ति भी किस तरह आप के दुख में भागीदार बनता है. इतना ही नहीं, वह कैसे आप का सहायक बन कर समस्याओं का समाधान सुझाता है.

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