गीता को काम करते हुए 2 महीने ही हुए थे. देवरदेवरानी बच्चों के साथ आए. सुबहसुबह हौल में पूरा परिवार इकट्ठा धमाचौकड़ी मचा रहा था, तभी गीता दाखिल हुई. देवर सोफे पर लेटे थे, हड़बड़ा कर उठ बैठे. मैं आंखों से उन्हें मना कर रही थी तब तक उन्होंने हाथ जोड़ कर उसे नमस्ते कर दिया. सब अपनी हंसी दबाए बैठे रहे. बाद में तो बच्चों ने जम कर उन की खिंचाई की.
ऐसे तो गीता पर दोनों वक्त खाना बनाने के साथसाथ सुबह नाश्ते की भी जिम्मेदारी थी, लेकिन इन्हें साढ़े 8 बजे निकलना होता और दीपू की स्कूल बस तो 8 बजे ही आ जाती थी. इसी कारण सुबह मुझे रसोई में घुसना पड़ता. गीता ने सब्जी काट कर मुझे पकड़ाई और आटा निकालने गई तब तक मैं ने एकतरफ सब्जी छौंकी, दूसरी तरफ चाय चढ़ा दी.
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‘‘आज फिर उस ने मारपीट की,’’ गीता बोली.
‘‘बच्चों ने?’’ मैं ने सहजता से पूछा.
‘‘नहीं, मेरे आदमी ने, पुलिस पकड़ कर ले गई.’’
‘‘क्या, अब क्या होगा?’’ मेरे स्वर में चिेंता थी.
‘‘होगा क्या, मालिक जाएंगे छुड़ाने. साल में 3 बार का यही धंधा है.’’ गूंधे आटे को मुट्ठी से और चोट दे कर मुलायम करती हुई उस ने बेफिक्री से कहा.
‘‘मालिक कौन?’’
‘‘वही, जिन के यहां रहती हूं.’’
‘‘किराए में रहती हो?’’
‘‘हां, यही समझ लीजिए. उन के दोनों बच्चों की देखभाल, घर का काम, खानाकपड़ा सब करती हूं.’’
‘‘तब उन की बीवी क्या करती है?’’ मैं ने चिढ़ते हुए पूछा.
‘‘नहीं है. 5 साल पहले मर गई. शुरूशुरू में गांव से बूढ़ी मां आई थी, मन नहीं लगा. तब से मैं ही संभाल रही हूं.’’