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लेखिका- रेनू ‘अंशुल’

देखते ही देखते हफ्ता निकल गया. पार्टी का दिन भी आ गया. लौन में ही पार्टी का इंतजाम किया था. पहली बार मिशिका ने पार्टी का जिम्मा अपने सिर पर लिया था. बोली, ‘‘ममा, अभी परीक्षा की कोई टेंशन नहीं है, इस बार मैं देखूंगी सारा इंतजाम.’’

सुन कर पहली बार एहसास हुआ कि बेटी बड़ी हो गई है. पार्थ का खयाल एक बार फिर दिमाग में आ गया. मगर मेरी मजबूरी थी कि मैं चाह कर भी यह रिश्ता नहीं कर सकती थी. मुझे इस समय अपनी भतीजी के गुस्से में कहे शब्द याद आ रहे थे.

घर में मेहमान आने शुरू हो गए थे. मैं ने अपनी सोच को दरकिनार करने की कोशिश की और मेहमानों की आवभगत में लग गई. जज साहब के कुछ करीबी जल्दी ही आ गए थे. अत: वह उन्हें पीने व पिलाने में व्यस्त हो गए. मैं और मिशिका मेहमानों के स्वागत में लगे थे. बेटी पर बारबार नजरें जा कर ठहर जातीं क्योंकि आज वाकई वह बहुत सुंदर लग रही थी. अचानक दिल में खयाल आया कि अगर आज की पार्टी में पार्थ उसे देख ले और पसंद कर ले या उस की मम्मी ही मिशिका को अपने बेटे के लिए मांग लें तो...

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अचानक ही वह परिवार आंखों के सामने आ गया. श्रीमती सक्सेना अपने पति व दोनों बेटों के साथ चेहरे पर मुसकान लिए आती दिखाई दीं. समर्थ को तो उस दिन मौल में ही देख लिया था पर पार्थ तो उस से भी चार कदम आगे था. यह लड़का इतना हैंडसम होगा यह तो मैं ने सोचा भी नहीं था. उस पर आईएएस भी. मुझे फिर लगा कि मेरी चाहत मेरी सोच पर हावी हो गई है. फिर से मेरी चाहत जोर पकड़ने लगी कि यह लड़का तो बस, मेरा दामाद हो जाए. तभी नजदीक आ कर दोनों भाइयों ने मेरे और जज साहब के पैर छुए. मन कहीं अंदर तक उन्हें अपना मान गया.

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