आवश्यकता आविष्कार की जननी है. बचपन में मास्टर साहब ने यह सूत्रवाक्य रटाया था मगर इस का अर्थ अब समझ में आया है. दरअसल, लोकतंत्र में बाबू, अफसर, नेता सभी आम जनता की सेवा कर मेवा खा रहे हैं. लेकिन बेचारे फौजी अफसर क्या करें? उन की तो तैनाती ही ऐसी जगह होती है जहां न तो ‘आम रास्ता’ होता है न ‘आम जनता’ होती है. ऐसे में बेचारे कैसे करें किसी की सेवा और कैसे खाएं मेवा? मगर भला हो उस वैज्ञानिक का जिस ने ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ नामक फार्मूला बनाया था. फौजियों के बीवीबच्चे भी खुशहाल जिंदगी जी सकें, इस के लिए जांबाजों ने मलाई जीमने के नएनए फार्मूले ईजाद कर डाले. ऐसेऐसे जो ‘न तो भूतो और न भविष्यति’ की श्रेणी में आएं.

एक बहादुर अफसर ने तो अपने ही जवानों को टमाटर का लाल कैचअप लगा कर लिटा दिया और फोटो खींचखींच कर अकेले दम दुश्मनों से मुठभेड़ का तमगा जीत लिया. वह तो बुरा हो उन विभीषणों का जिन्होंने चुगली कर दी वरना अब तक वीरता के सारे पुरस्कार अगले की जेब में होते. कुछ लोगों को इस मामले में बुराई नजर आती है. मगर मुझे तो इस में ढेरों अच्छाइयां नजर आती हैं (जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी वाला मामला). भारतीय जवानों की वीरता, अनुशासन, वफादारी और फरमांबरदारी के किस्से तो पुराने जमाने से मशहूर हैं. वे अपने अफसरों के हुक्म पर हंसतेहंसते प्राण निछावर कर देते हैं. कभी उफ नहीं करते. अब अफसर ने कहा, प्राण निछावर करने की जरूरत नहीं, बस, लाल कैचअप लगा कर मुरदा बन जाओ. बेचारों ने उफ तक नहीं की और झट से मुरदा बन फोटो खिंचवा ली. है किसी और सेना में अनुशासन की इतनी बड़ी मिसाल?

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