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पर कालिंदी उस की बात ही नहीं मान रही थी, मानो वह अपने बाड़े से निकलना ही नहीं चाह रही हो. सुहानी देवी कुछ देर तक यह सब देखती रही, पर जब उस से नहीं रहा गया तो खुद उस नौजवान के पास गई और बोली, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है और इसे क्यों घसीट रहे हो?’’ ‘‘मालकिन, मेरा नाम बातुल है. मालिक ने मुझे जानवरों की साफसफाई के लिए रखा है.’’ ‘‘यह क्या कर रहे हो?’’ उस नौजवान ने बड़े अदब से जवाब दिया, ‘‘दरअसल, कालिंदी ने इस रस्सी को अपने गले में उलझा लिया है. हम इसे बाहर ला कर इस के बंधन को सुलझाना चाहते हैं, पर यह है कि अपने फंदे में ही फंसी रहना चाह रही है. यह खुद भी परेशान है, पर फिर भी निकलना नहीं चाहती.’’ बातुल की बातें सुहानी देवी के कानों से टकराईं और सीधा उस के मन में उतरती चली गईं. ‘‘ठीक है, ठीक है… पर यह नाम बड़ा अजीब सा है, बातुल…’’ बोलते हुए हंस पड़ी थी सुहानी. बातुल ने बताया कि उसे बचपन से ही बहुत बोलने की आदत है,

इसलिए गांव में सब उसे ‘बातुल’ कह कर ही बुलाते हैं. बातोंबातों में बातुल ने यह भी बताया कि गांव वापस आने से पहले वह शहर में भी काम कर चुका है. बातुल के मुंह से शहर का नाम सुन कर सुहानी देवी के मन में जैसे कुछ जाग उठा था. बातुल के रूप में ठकुराइन को बात करने वाला कोई मिल गया था. ठाकुर भवानी सिंह के जाने के बाद सुहानी देवी अपनी सास से कुछ बहाना कर के हवेली की छत पर चली जाती और बातुल को काम करते देखती रहती और फिर खुद ही बातुल से कुछ न कुछ काम बताती. आज ठाकुर साहब सुबहसुबह ही शहर चले गए और बातुल को शाम के लिए मछली लाने को बोल गए. दोपहर में बातुल अपने कंधे पर मछली पकड़ने वाला जाल ले कर आता दिखा. उस में कई सारी मछलियां फंसी हुई थीं और तड़प रही थीं. बातुल ने जाल जमीन पर पटक दिया और सभी मछलियों को निकाल कर पास ही बने एक कच्चे गड्ढे में डाल दिया और उस में ऊपर तक पानी भर दिया, ताकि वे सब शाम तक जिंदा रहें और ठाकुर साहब के आने पर उन्हें पकाया जा सके.

सुहानी देवी ने देखा कि जो मछलियां अब तक पानी के बिना तड़प रही थीं, वे पानी पाते ही कितनी तेज तैर रही थीं मानो उन्होंने जिंदगी ही पा ली हो. सुहानी देवी अभी मछलियों को देख ही रही थी कि तेज बारिश शुरू हो गई. सुहानी देवी ने आवाज लगा कर बातुल को हवेली के अंदर आने को कहा और खुद बारिश का मजा लेने लगी. बारिश मूसलाधार हो रही थी. चारों तरफ पानी भर गया था और उस मछली वाले गड्ढे और बाहर आंगन में पानी का लैवल बराबर हो जाने के चलते गड्ढे की मछलियां जलधारा के साथ बाहर बह चली थी. यह सीन देख कर सुहानी देवी भूल गई थी कि वह एक ठकुराइन है. वह खुश हो कर ताली बजाने लगी और बातुल के कंधे पर हाथ रख दिया. एक ठकुराइन के छुए जाने के चलते एकसाथ कई सवाल बातुल की आंखों में तैर गए थे और उस की नसों में दौड़ते खून की तेजी में उतारचढ़ाव आने लगा था. बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी.

सुहानी देवी का मन किया कि वह बाहर आंगन में जा कर भीगे, अपने सारे गहने उतार कर नहाए, पर ठकुराइन की मर्यादा ने उसे रोके रखा था. ठाकुर शहर से वापस नहीं लौटेंगे, क्योंकि बारिश तेज है और बातुल को भी इसी वजह से आज हवेली में ही रुकना होगा. सास सो गई थीं. बातुल खाना खा कर हवेली के नीचे वाले हिस्से में सोने चला गया था. सुहानी देवी ने सोने से पहले अपने कमरे का दरवाजा जानबूझ कर क्यों खुला छोड़ दिया था, इस का जवाब खुद उस के पास भी नहीं था. उसी दरवाजे से दबे पैर कोई आया और सीधा सुहानी देवी से लिपट गया. वह भी किसी लता की तरह लिपट गई और फुसफुसाते हुए बोली, ‘‘कौन हो तुम?’’ ‘‘हां, जैसे तुम जानती नहीं…’’ उस की यह बात सुन कर सुहानी देवी ने बातुल का सिर अपने सीने के बीचोंबीच भींच लिया और दोनों सैक्स का मजा लेने लगे. एक बार, 2 बार… 3 बार… न जाने कितनी बार हवेली के उस कमरे में ज्वालामुखी का उबाल आया था. आज वहां ऊंचनीच और जातिधर्म की दीवार गिर गई थी. सुहानी देवी को बातुल से प्यार हो गया था. उस दिन के बाद से तो न जाने कितनी बार बातुल और सुहानी देवी ने अपने इस प्यार को भोगा था. अगले दिन सुहानी देवी फिर से भारी गहनों और कपड़ों में लदी हुई थी. बातुल आया, तो उस के एक हाथ में सांप की केंचुली थी.

‘‘यह क्या है?’’ सुहानी ने पूछा. ‘‘केंचुली है ठकुराइन… जब यह पुरानी हो जाती है, तो सांप इस में एक बंधन महसूस करता है और ठीक समय पर वह पुरानी केंचुली को उतार फेंक छुटकारे का अहसास करता है.’’ सुहानी देवी बातुल की बातों को सुन रही थी. उस के दिमाग में बंधन, मुक्ति जैसे शब्द लगातार गूंज रहे थे. 2 दिन बाद ठाकुर भवानी सिंह शहर से लौटे थे. वे सुहानी देवी के लिए सच्चे मोतियों का एक हार लाए थे. उन्होंने वह हार सुहानी देवी के गले में डाल दिया, पर उस के चेहरे को देखा तक नहीं. ठाकुर भवानी सिंह अपने चमचों के बीच बैठ कर रैडलाइट एरिया की बातें करते रहते. इस बार उन के मुंह से कुछ औरतों के नाम भी निकल रहे थे. एक अनजाने सौतिया डाह में जल उठी थी सुहानी देवी. ‘‘अगर गंदे एरिया में जा कर रासरंग ही करना था ठाकुर को तो फिर मुझ से ब्याह ही क्यों रचाया? मैं परंपरा निभाने और दिखावे के लिए मात्र एक गुडि़या की तरह हूं,’’ गुस्से की ज्वाला धधक उठी थी सुहानी देवी के मन में.

ठाकुर भवानी सिंह का शहर जा कर रैडलाइट एरिया में मजे करना बदस्तूर जारी रहा, पर अब सुहानी देवी को भी इस बात की कोई चिंता नहीं थी. उसे तो बातुल के रूप में एक प्यार करने वाला मिल गया था, जिस से वह अपने मन का हर दर्द कह सकती थी और उस की बांहों में अपने अंदर की औरत को महसूस कर सकती थी. पर, आज पूरे 3 दिन बीत गए थे, बातुल हवेली की दहलीज पर सलाम बजाने भी नहीं आया था. ‘कहीं कुछ गलत तो नहीं हो गया बातुल के साथ?’ सुहानी देवी का बेचैन मन बारबार हवेली के दरवाजे की तरफ देख रहा था. रात हो चली थी.

ठाकुर को तो आज आना नहीं था. बातुल से बात करने का मन कर रहा था, उस की खैरियत की भी चिंता हो रही थी. लिहाजा, सास के सो जाने के बाद सुहानी देवी पिछले दरवाजे से बाहर निकली और सीधा बातुल के घर के बाहर जा पहुंची. दरवाजा अंदर से बंद था, पर भीतर से बातुल की आवाज बाहर तक आ रही थी. सुहानी देवी ने दरवाजे की झिर्री से आंख सटा दी. अंदर का सीन देख कर वह दंग रह गई थी. बातुल किसी दूसरी औरत से मजे ले रहा था. ‘‘ठकुराइन ने मुझे बहुत मजा दिया, बहुत मस्त थी उस की जवानी… ठाकुर की रैडलाइट एरिया में मुंह मारने की आदत का मैं ने खूब फायदा उठाया…’’ ‘‘इस का मतलब… तुम नमकहराम हो. जिस थाली में खाया, उसी में छेद किया,’’ बातुल की बांहों में लेटी औरत ने कहा. ‘‘नहीं, मैं एक व्यापारी हूं… जिसे जो चाहिए था, मैं ने उसे वह दिया और फिर ठाकुर भी तो शहर में जा कर मुंह मारता है, तो मैं नमकहराम कैसे?’’

 

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