अपर्णा समझ गई थी कि बेटी के रिक्त स्थान ने अपनी जगह शून्य तो बनाया हुआ है, पर बाबूजी और अम्मां, बहू के नाज की डोलियां भी बड़े लाड़ से उठा रहे हैं.
बाबूजी की मृत्यु के बाद बहुत कुछ बदल गया. उन 13 दिनों में ही अम्मां बेहद थकीथकी सी रहने लगी थीं. नीरा और अजय अम्मां का बेहद ध्यान रख रहे थे पर आनेजाने वाले लंबी सांस भर कर, अम्मां को चेतावनी जरूर दे जाते थे.
‘पति के जाने के बाद पत्नी का सबकुछ छिन जाता है. अधिकार, आधिपत्य सबकुछ,’ दूसरी, पहली के सुर में सुर मिला कर सर्द आह भरती.
जितने मुंह उतनी बातें. ऐसी नकारात्मक सोच से कहीं उन के हंसतेखेलते परिवार का वातावरण दूषित न हो जाए, अम्मां ने 4 दिनों में ही बाबूजी का उठाला कर दिया.
लोगों ने आलोचना में कहा, ‘बड़ी माडर्न हो गई है लीलावती,’ पर अम्मां तो अम्मां ठहरीं. अपने परिवार की खुशियों के लिए रूढि़यों और परंपराओं का त्याग, सहर्ष ही करती चली गईं.
लोगों की आवाजाही बंद हुई तो दिनचर्या पुराने ढर्रे पर लौट आई. अम्मां हर समय इसी कोशिश में रहतीं कि घर का वातावरण दूषित न हो. उसी तरह बच्चों के साथ हंसतीखेलतीं, घर का कामकाज भी करतीं लेकिन 9 बजे के बाद वह जग नहीं पाती थीं और कमरे का दरवाजा भेड़ कर सो जातीं. अजय अच्छी तरह समझता था कि 12 बजे तक जागने वाली अम्मां 9 बजे कभी सो ही नहीं सकतीं. आखिर उन्हीं की गोद में तो वह पलाबढ़ा था.
एक रात 12 बजे, दरवाजे की दरार में से पतली प्रकाश की किरण बाहर निकलती दिखाई दी तो अजय उन के कमरे में चला गया. अम्मां लैंप के मद्धिम प्रकाश में स्वामी विवेकानंद की कोई पुस्तक पढ़ती जा रही थीं और रोती भी जा रही थीं. अजय ने धीरे से उन के हाथ से पुस्तक ली और बंद कर के पास ही स्टूल पर रख कर उन की बगल में बैठ गया. अम्मां उठ कर पलंग पर बैठ गईं और बोलीं, ‘तू सोया नहीं?’