मेघा सही स्थिति का आकलन कर पाने की स्थिति में नहीं है. मां को देखती है तो कलेजा कट के रह जाता है वहीं रिश्तेदारों की चाशनी में लिपटी बेतुकी सलाहें सुनती है तो कटे कलेजे को सिल कर ढाल बनाने को जी चाहता है उस का.
मेघा के लिए आने वाली परिस्थितियां आसान नहीं होंगी, इस का एहसास उसे बखूबी है. लेकिन इन से पार पाने की कोई रणनीति उस के दिमाग में अभी नहीं आ रही है. उस की मां तो साधारण घरेलू महिला रही हैं, पेट के रास्ते से पति के दिल में उतरने की कवायद से आगे कभी कुछ सोच ही नहीं पाईं. पता नहीं वे खुद नहीं सोच पाई थीं या फिर समाज ने इस से अधिक सोचने का अधिकार उन्हें कभी दिया ही नहीं था. जो कुछ भी हो, अच्छीभली गृहस्थी की गाड़ी लुढ़क रही थी. कोई भी कहां जानता था कि ऊंट कभी इस करवट भी बैठ सकता है. लेकिन अब तो बैठ ही चुका है. और यही सच है.
राहत की बात यह थी कि पिता सरकारी कर्मचारी थे और सरकार की यही अदा सब को लुभाती भी है कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल हो जाएं लेकिन सरकार अपने सेवारत कर्मचारी और उस के बाद उस के आश्रितों का अंतिम समय तक साथ निभाती है. लिहाजा, परिवार के किसी एक सदस्य को अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल ही जाएगी. और यही नौकरी उन के आगे की लंगड़ाती राह में लकड़ी की टेक बनेगी.
15 बरस की छुटकी माला और 20 साल की मेघा. मां को चूंकि दुनियादारी की अधिक समझ नहीं थी और माला ने अभी अपनी स्कूली पढ़ाई भी पूरी नहीं की है, इसलिए यह नौकरी मेघा ही करेगी, यह तय ही था लेकिन मेघा जानती थी कि परिवार की जिम्मेदारी लेना बिना पैरों में चप्पल पहने कच्ची सड़क पर चलने से कम नहीं होगा.
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