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अभी हम फाइलें देख ही रहे थे कि ललिताजी वापस चली आईं और अपने साथ नेहा को भी लेती आई थीं.

‘‘बहुत तेज बुखार है इसे. मैं साथ ही ले आई हूं. बारबार उधर भी तो नहीं न जाया जाता.’’

ललिताजी नेहा को दूसरे कमरे में सुला आई थीं और अब शर्माजी को समझा रही थीं,  ‘‘देखिए न, अकेली बच्ची वहां पड़ी रहती तो कौन देखता इसे. बेचारी के मांबाप भी दूर हैं न…’’

‘‘दूर कहां हैं…हम हैं न उस के मांबाप…हर शहर में हमारी कम से कम एक औलाद तो है ही ऐसी जिसे तुम ने गोद ले रखा है. इस शहर में नहीं थी सो वह कमी भी दूर हो गई.’’

‘‘नाराज क्यों हो रहे हैं…जैसे ही बुखार उतर जाएगा वह चली जाएगी. आप भी तो बीमार हैं न…आप का खानापीना भी देखना है. 2-2 जगह मैं कै से देखूं.’’

मैं ने भी उसी पल उन्हें ध्यान से देखा था. बहुत ममतामयी लगी थीं वह मुझे. बहुत प्यारी भी थीं.

लगभग 4 घंटे उस दिन मैं शर्माजी के घर पर रहा था और उन 4 घंटों में शर्मा दंपती का चरित्र पूरी तरह मेरे सामने चला आया था. बहुत प्यारी सी जोड़ी है उन की.  ललिताजी तो ऐसी ममतामयी कि मानो पल भर में किसी की भी मदद करने को तैयार. शर्माजी पत्नी की इस आदत पर ज्यादातर खुश ही रहते.

मेरे साथ भी मां जैसा नाता बांध लिया था ललिताजी ने. सचमुच कुछ लोग इतने सीधेसरल होते हैं कि बरबस प्यार आने लगता है उन पर.

‘‘देखो बेटा, मनुष्य को सदा इस  भावना के साथ जीना चाहिए कि मेरा नाम कहीं लेने वालों की श्रेणी में तो नहीं आ रहा.’’

‘‘मांजी, मैं समझा नहीं.’’

‘‘मतलब यह कि मुझे किसी का कुछ देना तो नहीं है न, कोई ऐसा तो नहीं जिस का कर्ज मेरे सिर पर है, रात को जब बिस्तर पर लेटो तब यह जरूर याद कर लिया करो. किसी से कुछ लेने की आस कभी मत करो. जब भी हाथ उठें देने के लिए उठें.’’

मंत्रमुग्ध सा देखता रहता मैं  ललिताजी को. जब भी उन से मिलता था कुछ नया ही सीखता था. और उस से भी ज्यादा मैं यह सीखने लगा था कि नेहा के करीब कैसे पहुंचा जाए. नेहा अपना कोई न कोई काम लिए ललिताजी के पास आ जाती और मैं उस के लिए कुछ सोचने लगता.

‘‘बहुत अच्छी लड़की है, पढ़ीलिखी है, मेरा जी चाहता है उस का घर पुन: बस जाए.’’

‘‘मांजी, उस का पति वापस आ गया तो. ऐसी कोई तलाक जैसी प्रक्रिया तो नहीं गुजरी न दोनों में. पुन: शादी के बारे में कैसे सोचा जा सकता है.’’

शर्माजी के घर से शुरू हुई हमारी जानपहचान उन के घर के बाहर भी जारी रही और धीरेधीरे हम अच्छे दोस्त बन गए.

ललिताजी से मिलना कम हो गया और हर शाम मैं और नेहा साथसाथ रहने लगे. मार्च का महीना था जिस वजह से आयकर रिटर्न का काम भी नेहा ने मुझे सौंप दिया. कभी नया राशन कार्ड बनाना होता और कभी पैन कार्ड का चक्कर. उस के घर की किस्तें भी हर महीने मेरे जिम्मे पड़ने लगीं. 2-3 महीने में नेहा के सारे काम हो गए. कभीकभी मुझे लगता, मैं तो उस का नौकर ही बन गया हूं.

कुछ दिन और बीते. एक दिन पता चला कि ललिताजी को भारी रक्तस्राव की वजह से आधी रात को अस्पताल में भरती कराना पड़ा. शर्माजी छुट्टी पर चले गए. उन के  बच्चे दूर थे इसलिए उन्हें परेशान न कर वह पतिपत्नी सारी तकलीफ खुद ही झेल रहे थे.

मेरा परिवार भी दूर था सो कार्यालय के बाद मैं भी अस्पताल चला आता था, उन के पास.

नेहा अस्पताल में नहीं दिखी तो सोचा, हो सकता है वह ललिताजी का घर संभाल रही हो. ललिताजी का आपरेशन हो गया. मैं छुट्टी ले कर उन के आसपास ही रहा. नेहा कहीं नजर नहीं आई. एक दिन शर्माजी से पूछा तो वह हंस पड़े और बताने लगे :

‘‘जब से तुम उस के काम कर रहे हो तब से वह मुझ से या ललिता से मिली कब है, हमें तो अपनी सूरत भी दिखाए उसे महीना बीत गया है. बड़ी रूखी सी है वह लड़की.’’

मुझ में काटो तो खून नहीं. क्या सचमुच नेहा अब इन दोनों से मिलती- जुलती नहीं. हैरानी के साथसाथ अफसोस भी होने लगा था मुझे.

ललिताजी अभी बेहोशी में थीं और शर्माजी उन का हाथ पकड़े बैठे थे.

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