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‘‘नेहा, क्या तुम ने कभी यह सोचा है कि तुम अकेली क्यों हो? हर इनसान तुम से दूर क्यों भागता है?’’

नेहा चुपचाप मेरा चेहरा देखने लगी.

‘‘किसी भी रिश्ते को निभाने में तुम्हारा कितना योगदान होता है, क्या तुम ने कभी महसूस किया है? जहां कहीं भी तुम्हारी दोस्ती होती है वहां तुम्हारा समावेश उतना ही होता है जितना तुम पसंद करती हो. कोई तुम्हारे काम आता है तो उसे तुम अपना अधिकार ही मान कर चलने लगती हो. जिन से तुम दोस्ती करती हो उन्हें अपनी जरूरत के अनुसार इस्तेमाल करती हो और काम हो जाने के बाद धन्यवाद बोलना भी जरूरी नहीं समझती हो…लोग तुम्हारे काम आएं पर तुम किसी के काम आओ यह तुम्हें पसंद नहीं है, क्योंकि तुम्हें लोगों से ज्यादा मिलनाजुलना पसंद नहीं है. जो तुम्हारे काम आते हैं उन से तुम हफ्तों नहीं मिलतीं तो सिर्फ इसलिए कि स्कूल के बाद तुम्हें अपने घर को साफ करवाना जरूरी होता है.

‘‘अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारे घर में कितने लोग हैं जो रोज इतनी साफसफाई करवाती हो. साफ घर हर रोज इस तरह साफ करती हो मानो दीवाली आने वाली हो. आता कौन है तुम्हारे घर पर? न तुम्हारे मांबाप आते हैं न सासससुर…पति न जाने किस के साथ कहां चला गया, तुम खुद भी नहीं जानतीं.’’ आंखें और भी फैल गईं नेहा की.

‘‘जरा सोचो, नेहा, तुम कब किसी के काम आती हो. कब तुम अपने कीमती समय में से समय निकाल कर किसी का सुखदुख पूछती हो…कितना बनावटी आचरण है तुम्हारा. मुंह पर जिस की तारीफ करती हो पीठ पीछे उसी की बुराई करने लगती हो. क्या तुम्हें प्रकृति से डर नहीं लगता? सोने से पहले क्या कभी यह सोचती हो कि आज रात अगर तुम मर जाओ तो क्या तुम कोई कर्ज साथ नहीं ले जाओगी?’’

‘‘किस का कर्ज है मेरे सिर पर? मुझे तो किसी का कोई रुपयापैसा नहीं देना है.’’

‘‘रुपएपैसे के आगे भी कुछ होता है, जो कर्ज की श्रेणी में आता है.

‘‘रुपएपैसे के एहसान को तो इनसान पैसे से चुका सकता है मगर उन लोगोें का बदला कैसे चुकाया जा सकता है जहां  लगाव, हमदर्दी और अपनत्व का कर्ज हो. जिस ने मुसीबत में तुम्हें सहारा दिया उस का कभी हालचाल भी नहीं पूछती हो तुम.’’

‘‘किस की बात कर रहे हो तुम?’’

‘‘इस का मतलब तुम पर किस के एहसान का कर्ज है यह भी तुम्हें याद नहीं.’’

मैं नेहा का मित्र हूं और हमारी मित्रता का कोई भी भविष्य मुझे अब नजर नहीं आ रहा. मित्रता तो एक तरह का निवेश है. प्यार दो तो प्यार मिलेगा. आज तुम किसी के काम आओ तो कल कोई तुम्हारे काम आएगा. नेहा तो सूखी रेत है जिस पर चाहो तो मन भर पानी बरसा दो वह फिर भी गीली नहीं हो सकती.

अफसोस हो रहा है मुझे खुद पर और नेहा पर भी. खुद पर इसलिए कि मैं  नेहा का मित्र हूं और नेहा पर इसलिए कि क्या उसे कोई किनारा मिल पाएगा कभी? क्या वह रिश्ता निभाना सीख पाएगी कभी?

नेहा से मेरी जानपहचान शर्माजी के घर हुई थी. शर्माजी हमारे विभाग में वरिष्ठ अधिकारी हैं और बड़े सज्जन पुरुष हैं. शर्माजी की पत्नी ललिताजी भी बड़ी मिलनसार और ममतामयी महिला हैं. मैं कुछ फाइलें उन्हें दिखाने उन के घर गया था, क्योंकि वह कुछ दिन से बीमार चल रहे थे.

हम दोनों के सामने चाय रख कर ललिताजी जल्दी से निकल गई थीं. टिफिन था उन के हाथ में.

‘‘भाभीजी बच्चों को टिफिन देने गई हैं क्या?’’

‘‘अरे, बच्चे कहां हैं यहां हमारे,’’ शर्माजी बोले, ‘‘दोनों बेटे अपनीअपनी नौकरी पर बाहर हैं. यहां तो हम बुड्ढाबुढि़या ही हैं. तुम्हें क्या हमारी उम्र इतनी छोटी लग रही है कि हमारे बच्चे स्कूल जाते होंगे.

‘‘मेरी पत्नी समाज सेवा में भी विश्वास करती है. यहां 2 घर छोड़ कर कोई बीमार है…उसी को खाना देने गई है. अकेली लड़की है. बीमार है, बस, उसी की देखभाल करती रहती है. क्या करे बेचारी? अपने बच्चे तो दूर हैं न. उन की ममता उसी पर लुटा कर खुश हो लेती है.’’

तब पहली बार नेहा के बारे में जाना था. स्कूल में टीचर है और पति कुछ समय पहले कहीं चला गया था. शादी को 2-3 साल हो चुके हैं. कोई बच्चा नहीं है. अकेली रहती है, इसलिए ललिताजी उस से दोस्ती कर के उस की मदद करती रहती हैं और समय का सदुपयोग भी.

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