Hindi Family Story, लेखिका - प्रगति त्रिपाठी

‘‘अम्मां, तुम दादी और बड़ी मां की तरह बिंदी, सिंदूर और महावर क्यों नहीं लगातीं? चूड़ी और पायल क्यों नहीं पहनतीं?’’ 7 साल की रानी ने अपनी मां महुआ से सवाल किया.

महुआ भला उसे क्या जवाब देती. वह टालती रही और वहीं खड़ी सास और जेठानी को मनिहारिन से चूड़ी पहनते हुए देखती रही.

महुआ यह कैसे कहे कि वह विधवा है. समाज के नियमकानून विधवा औरत को साजसिंगार करने का हक नहीं देते. विधवा... यह नाम उस औरत को देते हैं, जिस का पति मर जाता है और अपने साथ ही उस की जिंदगी से साजसिंगार के साथसाथ सारे रंग भी हमेशा के लिए ले कर चला जाता है.

वह औरत न तो खुल कर हंस सकती है, न ही पर्वत्योहार का हिस्सा बन सकती है. ऐसी औरत अपनी ख्वाहिशों की पुडि़या बना कर मन के संदूक में बंद कर के बड़ा सा ताला लगा देती है और चाबी कहीं दूर सागर की गहराइयों में फेंक देती है, जिस का कभी भी पता नहीं चलता.

लेकिन है तो वह भी इनसान, तिस पर औरत. कभी उस का भी मन करता होगा कि वह मांग में सिंदूर न सही माथे पर एक छोटी बिंदी ही लगा ले, दर्जनभर चूडि़यां न सही, पर हाथों में 2-2 चूडि़यां ही पहन ले.
मांजी महुआ का दर्द जानती थीं, लेकिन समाज के नियमों के खिलाफ जाना भी ठीक नहीं समझती थीं.

परंपरा और नियमों को आगे बढ़ाने का ठेका घर की औरतों ने ही ले रखा है न. मर्दों के दबदबे वाले समाज का पोषण वही तो करती आई हैं, आगे भी करती रहेंगी.

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