Family Story, लेखक - एस. अग्रवाल

‘‘मां जी, ओ मांजी, कुछ खाने के लिए दे दो, बहुत भूखा हूं. सुबह से कुछ भी खाया नहीं है.’’

बाहर से आती इस आवाज ने मेरा ध्यान खींचा. जो किताब मैं पढ़ रही थी, उसे मेज पर रख कर मैं ने खिड़की से बाहर झांका. 9-10 साल का एक हट्टाकट्टा एक लड़का बेचारे की तरह खड़ा था.

ऐसे भिखारियों को देख कर मैं नफरत से भर उठती हूं. देश की देह पर मुझे कोढ़ जैसे दिखते हैं. ये ही तो हैं, जो देश को खाए जा रहे हैं. निठल्ला रह कर पेट भरते रहना ही इन का काम है और फिर हमारे देश में भिखारियों को भीख दे कर ‘पुण्य’ कमाने वाले लोग जब मौजूद हों, तो ये लोग बिना काम किए क्यों नहीं खाना चाहेंगे?

गुस्सा तो तब और आता है, जब मैं किसी भिखारी को नसीहत देती हूं. यह समझाने की कोशिश करती हूं कि वह काम कर के क्यों पेट नहीं भरता, तो वह बड़े ढीठपन से जवाब देता है, ‘देना है तो दो नहीं तो भाषण मत झाड़ो...’ और बड़ी बेशर्मी से गालियां देते वह आगे बढ़ जाता है. किसी दूसरे के सामने हाथ फैला देता है.

इसी गुस्से से भर कर मैं ने खिड़की के पास से ही उस लड़के से कह दिया, ‘‘शर्म नहीं आती भीख मांगते हुए? काम क्यों नहीं करते?’’

वह लड़का बोला, ‘‘मांजी, आप किवाड़ तो खोलिए. मैं भिखारी नहीं हूं.’’

न जाने क्यों उस की आवाज सुन कर मैं ने चाहा कि उस बच्चे के बारे में जानूं. मैं ने दरवाजा खोला और थोड़ी कड़क आवाज में पूछा, ‘‘क्या है?’’

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