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लेखिका- सुधा आदेश

अल्पना की यह दशा देख कर एक दिन मिस सुजाता ने उसे बुला कर कहा था, ‘बेटा, तुम्हें देख कर मुझे अपना बचपन याद आता है...यही अकेलापन, यही सूनापन...मैं ने भी सबकुछ भोगा है...अपने मातापिता के मरने के बाद चाचाचाची के ताने, चचेरे भाईबहनों की नफरत...सब झेली है मैं ने. पर मैं कभी जीवन से निराश नहीं हुई बल्कि जितनी भी मन में चोटें पड़ती गईं, उतनी ही विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का साहस मन में पैदा होता गया.

‘जीवन से भागना बेहद आसान है बेटा, लेकिन कुछ सार्थक करना बेहद कठिन...पर तुम ने तो आसान राह ढूंढ़ ली है...न जाने तुम ने यह कैसी ग्रंथि पाल ली है कि तुम्हारे मातापिता तुम्हें प्यार नहीं करते हैं...हो सकता है उन की कुछ मजबूरी रही हो जिसे तुम अभी समझ नहीं पा रही हो.

‘तुम्हारे मातापिता तो हैं पर जरा उन बच्चों के बारे में सोचो जो अनाथ हैं, बेसहारा हैं या दूसरों की दया पर पल रहे हैं...फिर ऐसा कर के तुम किसे कष्ट दे रही हो, अपने मातापिता को या खुद को...जीवन तो तुम्हारा ही बरबाद होगा...जीवन बहुत बहुमूल्य है बेटा, इसे व्यर्थ न होने दो.’

दूसरों की तरह वार्डन का समझाना भी उसे बेहद नागवार गुजरा था...पर उन की एक बात उस के दिमाग में रहरह कर गूंज रही थी...जीवन से भागना बेहद आसान है बेटा, पर कुछ सार्थक करना बेहद कठिन...उस ने सोच लिया था कि अब से वह दूसरों के बारे में न कुछ कहेगी और न ही कुछ सोचेगी...जीएगी तो सिर्फ अपने लिए...आखिर जिंदगी उस की है.

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