उस समय भैया नाश्ता कर रहे थे. शायद कौर गले में अटक गया था, क्योंकि उसी क्षण उन्होंने मुझ से पानी मांगा.
उस दिन निशा अपने घर गई हुईर् थी. मां बोलीं, ‘‘इस लड़की ने तो मुझे अपाहिज बना दिया है, किसी काम को हाथ ही नहीं लगाने देती. इस के जाने के बाद मैं घर का कामकाज कैसे करूंगी.’’
पिताजी बोले, ‘‘उसे यहीं रख लो, मुझे भी बहुत प्यारी लगती है.’’
तभी अनायास मैं बोल उठी, ‘‘वह किसी और को पसंद करती है. उस का ब्याह वहीं होना चाहिए, जहां वह चाहे, यह बिना सिरपैर की इच्छा उस से मत बांधो.’’
‘‘किसी और को, पर किसे? उस ने हमें तो कुछ नहीं बताया.’’
‘‘बताया तो उस ने अपने पिता को भी नहीं था. मुझे भी नहीं बताया. परंतु उस से क्या होता है. सत्य तो सत्य ही है न.’’
‘‘तुम ने उसे किसी के साथ देखा है क्या?’’ हाथ का काम छोड़ मां समीप चली आईं. वे सचमुच उसे बहू बनाने को आतुर थीं.
‘‘भैया ने देखा है. और मैं इसे बुरा भी नहीं मानती. निशा वहीं जाएगी, जहां वह चाहेगी.’’
उस समय भैया के चेहरे पर कई रंग आजा रहे थे.
‘‘ऐसी बात है तो मैं आज ही निशा से बात करता हूं,’’ पिताजी बोले.
‘‘नहीं, उस से बात मत कीजिए. वैसे, विजय भी अच्छा लड़का है.’’
‘‘अगर विजय अच्छा लड़का है तो आप कौन से बुरे हैं. आप क्यों नहीं? साफसाफ बताइए भैया, वह लड़का कौन है, जिस के साथ आप ने उसे
देखा था?’’ मैं ने तनिक ऊंचे स्वर
में पूछा.
‘‘बोलो कर्ण, कुछ तो बताओ?’’ पिताजी ने भी उन का कंधा हिलाया.