उस के समीप जा कर मैं ने उस का हाथ पकड़ा, ‘‘पिताजी की आखिरी तनख्वाह इस तरह उड़ा दी.’’
‘‘मेरे पिताजी कहीं नहीं गए. वे यहीं तो हैं,’’ उस ने मेरे पिता की ओर इशारा किया, ‘‘इस घर में मुझे सब मिल गया है. आज जब मैं देर से आई तो इन्होंने मुझे बहुत डांटा. मेरी नौकरी की बात सुन रोए भी और हंसे भी. पिताजी होते तो वे भी ऐसा ही करते न.’’
‘‘हां,’’ स्नेह से मैं ने उस का माथा चूम लिया.
‘‘बहुत भूख लगी है, दोपहर को क्या बनाया था?’’ निशा के प्रश्न पर मैं कुछ कहती, इस से पहले ही पिताजी बोल पड़े, ‘‘आज तुम नहीं थीं तो कुछ नहीं बना, सब भूखे रहे. जाओ, देखो, रसोई में. देखोदेखो जा कर.’’
निशा रसोई की तरफ लपकी. जब वहां कुछ नहीं मिला तो हड़बड़ाई सी बाहर चली आई, ‘‘क्या आज सचमुच सभी भूखे रहे? मेरी वजह से इतने परेशान रहे?’’
‘‘जाओ, अब दोनों मिल कर कुछ बना लो और इस नालायक को भी खिलाओ. इस ने भी कुछ नहीं खाया.’’
निशा ने गहरी नजरों से भैया की ओर देखा.
उस रात हम चारों ही सोच में डूबे थे. खाने की मेज पर एक वही थी, जो चहक रही थी.
‘‘बेटे, तुम्हारे उपहार हमें बहुत पसंद आए,’’ सहसा पिताजी बोले, ‘‘परंतु हम बड़े, हैं न. बच्ची से इतना सब कैसे ले लें. बदले में कुछ दे दें, तभी हमारा मन शांत होगा न.’’
‘‘जी, यह घर मेरा ही तो है. आप सब मेरे ही तो हैं.’’
‘‘वह तो सच है बेटी, फिर भी तुम्हें कुछ देना चाहते हैं.’’
‘‘मैं सिरआंखों पर लूंगी.’’