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वे क्रोध से भनभना उठते. दिलदिमाग सब सुन्न हो जाते. किस मुंह से उन के आरोपों का खंडन करते, जबकि वे स्वयं जानते थे कि इंद्रा के चरित्र को ले कर शहरभर में जो चर्चाएं होती थीं वे नितांत कपोलकल्पित नहीं थीं. अकसर आधीआधी रात को, अनजान अपरिचित लोगों की गाडि़यां इंद्रा को छोड़ने आती थीं. एक से एक खूबसूरत और बढि़या साडि़यां उस के शरीर की शोभा बढ़ातीं, जिन्हें वह लोगों के दिए उपहार बताती. क्यों आते थे वे लोग? क्यों देते थे वे सब कीमती उपहार? किस मुंह से लोगों के व्यंग्य और तानों को काटने का साहस करते?

इंद्रा को वे समझाने का यत्न करते तो पत्थर की तरह झनझनाता स्वर कानों से टकराता, ‘दुनिया के पास काम ही क्या है सिवा बकने के. लोगों की बकवास से डर कर मैं अपना मानवसेवा का काम नहीं छोड़ सकती.’

‘तुम जिसे मानवसेवा कहती हो, इंद्रा, वह तुम्हारी नाम और प्रशंसा की भूख है. जिन के पास करने को कुछ नहीं होता, उन धनी लोगों के ये चोंचले हैं. हमारीतुम्हारी असली मानवसेवा है अपने विनोद, प्रमोद और अचला को पढ़ालिखा कर कर इंसान बनाना, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना, उन्हें सभ्य और सुसंस्कृत नागरिक बनाना. पहले इंसान को अपना घर संवारना चाहिए. यह नहीं कि अपने घर में आग लगा कर दूसरों के घरों में प्रकाश फैलाओ.’

‘उफ, किस कदर संकीर्ण विचार हैं तुम्हारे, अपना घर, अपने बच्चे, अपना यह, अपना वह...तुम्हें तो सोलहवीं सदी में पैदा होना चाहिए था जब औरतों को सात कोठरियों में बंद कर के रखा जाता था. मुझे तो शर्म आती है किसी को यह बताते हुए कि मैं तुम जैसे मेढक की पत्नी हूं.’

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