लेखक- सिराज फारूकी
‘‘लोग सऊदी अरब जा रहे हैं, तुम भी चले जाओ…’’ एक दिन मुबीना ने अपने शौहर के होंठों पर अपनी उंगलियां फिराते हुए मशवरा दिया.
मुबीना 25-26 साल की, दरमियाना कद, गोरी रंगत, गोल चेहरा, बड़ीबड़ी आंखें, सुतवां नाक, सुराहीदार गरदन, लंबे बालों वाली औरत थी. मांसलता और मादकता उस के पोरपोर में समाई हुई थी.
30-32 साला अकील जिस का कद लंबा, गेहुआं रंग, छोटीछोटी आंखें, चौड़ा चेहरा, जिस पर मर्दानगी को नई ऊंचाइयां देती लंबी घनेरी मूंछें और दाढ़ी से पाक चेहरा, ने माथे को चिंता से सिकोड़ते हुए कहा, ‘‘हां, मैं भी यही सोचता हूं. एक बार हो आऊं, तो हालात सुधर जाएं.
‘‘अब देखो न, आसिफ 2 साल के लिए गया था. कैसा चकाचक हो कर आया है. यहां आ कर एक गाला भी खरीद लिया है और 700 स्क्वायर फुट का फ्लैट भी. लौरी ले कर किस शान से कारोबार कर रहा है…?’’
मुबीना ने अकील के सीने पर अपना सिर रखते हुए कहा, ‘‘आसिफ को ही क्यों देख रहे हो? इस्माईल को भी देखो न. पहले क्या था उस के पास? और लतीफ को भी ले लीजिए, उस की भी पौबारह हो गई है…’’
‘‘हां, पहले सब फटीचर ही थे…’’ अकील ने मुबीना के गुलाबी गालों को सहलाया. मुबीना ने आंखें मूंद कर उस की छुअन का लुत्फ लेते हुए कहा, ‘‘और अब इज्जतदार…’’
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‘‘दौलत जो आ गई है…’’
मुबीना अकील के पास लेटी हुई थी. वह शोख नजरों से उस की गदराई जवानी और सुडौल जिस्म को देख कर बोला, ‘‘लेकिन, तू मेरे बिना रह पाएगी…’’ और उसे खींच कर अपने ऊपर ले लिया.
‘‘क्यों…?’’ वह उस के ऊपर आ कर शरारत से देखते हुए बोली.
‘‘क्योंकि, तेरे को हर रात मर्द जो लगता है…’’
‘‘अब ऐसी भी बात नहीं है… है तो ठीक, वरना कोई बात नहीं…’’ मुबीना की नजरों में नाराजगी के भाव थे.
‘‘चलेगा न…?’’ अकील ने मुबीना को सवालिया निगाहों से घूरा.
‘‘हां, फिर… कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है…’’
‘‘बहुत समझदार है…’’ अकील ने प्यार की चपत उस के गाल पर जड़ी और सीने में भींच लिया.
दोनों में यह तय हो गया कि अकील को सऊदी अरब जाना ही चाहिए. उरण नाके पर उन की एक छोटी सी किराने की दुकान थी, जो बहुत कम चलती थी या इतनी चलती थी कि गुजारा होना मुश्किल था. 2 छोटेछोटे बच्चे थे. उन का भी भविष्य सामने था.
अकील का मन तो विदेश जाने के लिए नहीं होता था, मगर विदेशी दीनार और रियाल की चमकदमक उसे अपनी ओर बराबर खींचती रहती थी, क्योंकि वह जानता था कि आज जमाना रुपएपैसे वालों का है. जिस के पास रुपएपैसे नहीं हैं, समाज में उस की इज्जत नहीं है. इसलिए उस ने मन में इरादा कर लिया कि वह विदेश जा कर खूब दौलत कमाएगा.
लेकिन अकील के सामने एक बड़ा मसला था, उस की बीवी और बच्चों का. अगर वह चला गया तो इन का रखवाला कौन होगा? अगर कुछ ऊंचनीच हो गई तो सोचतेसोचते उस की नजरें तौफीक पर गईं, जो उस का खास दोस्त था और विश्वासी भी. उस ने उस से बात की तो उस ने कहा, ‘‘जाओ…बेफिक्र हो कर…मैं हूं न… सब संभाल लूंगा…’’
‘‘यार, तेरा ही तो सहारा है…’’ अकील ने खुश होते हुए उस का हाथ गर्मजोशी से पकड़ लिया, ‘‘तेरी ही वजह से मैं ऐसा कर रहा हूं, वरना मेरी हिम्मत नहीं होती…’’
‘‘बिंदास जाओ यार, मैं हूं न… अरे, वह दोस्त ही क्या, जो दोस्त के काम न आए…’’ तौफीक ने हौसला बढ़ाया.
अकील उस की बातों से खुश हो गया और फिर एक दिन मुबीना और तौफीक उसे एयरपोर्ट तक छोड़ने आए.
अकील के चले जाने के बाद मुबीना आंख में आए आंसुओं को पोंछने लगी, तो तौफीक ने दिलासा दिया, ‘‘भाभी, रोइए मत… मैं हूं न…’’ और उस ने उस के छोटे बेटे अदील को गोद में उठा लिया.
अकील के जाने के बाद तौफीक हर रोज उस के घर जाता और हालचाल पूछ आता. आनाजाना तो उस का पहले भी था, मगर इतना नहीं, जितना अब. शायद वह फर्ज की अदायगी के लिए इसे जरूरी समझता था.
मुबीना उसे जानती थी. वह उस के पति का खास दोस्त है. मगर उस की बेतकल्लुफी न थी. लेकिन, जब शौहर हुक्म दे गया, ‘जो सुखदुख होगा, बिना खौफ उस से कहना. मेरे बाद यही तुम्हारा मददगार है. यही समझना कि अब यह तुम्हारा छोटा भाई है. इस के सिवा किसी पर यकीन मत करना…’ तो अब उस से झिझक कैसी? और इस शहर में कोई और है भी नहीं, इसलिए अब वह अपनी हर छोटीबड़ी बात उस से शेयर करती और वह भी उस के हुक्म की तामील करता.
धीरेधीरे उन दोनों में नजदीकियां बढ़ती गईं. तौफीक घर में आता तो बच्चों के साथ घंटों बैठा रहता. ऐसी हालत में मुबीना चाय बना कर दे जाती. अब किस के दिल में क्या है, किसी को क्या मालूम. समय आहिस्ताआहिस्ता रेंगता रहा.
एक रात मुबीना ने महसूस किया, उसे मर्द की जरूरत है. यह जज्बा इतना जोर पकड़ा कि वह खुद को कोसने लगी. नाहक ही उन्हें भेजा. बड़ी गलती हुई. नहीं भेजना चाहिए था. पैसे का तो सुख मिल रहा है, मगर जिंदगी का. मर्द नहीं तो औरत की जिंदगी क्या है? उस ने करवट बदलते हुए विचार किया. औरतें 2-2 साल बिना मर्दों के कैसे रह लेती हैं? अभी तो अपने को सिर्फ
6 महीने हुए हैं और यह हालत हुई
जाती है.
एक रात फोन पर मुबीना ने इस बात की शिकायत की, तो अकील ने कहा, ‘‘मैं जल्दी ही वापस आऊंगा. बस, थोड़े दिनों की बात है. जब अच्छे दिन नहीं रहते तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे…’’
‘‘ठीक है…’’ मुबीना ने अपने मचलते हुए आंसुओं को उंगलियों की पोरों पर लेते हुए सर्द आह भरी और फिर अलमारी के पास जा कर नोटों की गड्डियों को देख कर कहा, ‘‘इन का क्या करूं? अचार डालूं या चाटूं?’’
न जाने फिर क्या खयाल कर के उस ने अपने सारे कपड़े उतार डाले और नोटों के बंडलों को बिस्तर पर फैला कर बोली, ‘‘आओ… मेरे साथ सोओ…’’ और वह बिस्तर पर लेट कर उन नोटों के बंडलों को अपने जिस्म के ऊपर रखरख कर ठंडीठंडी आहें भरने लगी, ‘‘यह सच है, जो काम एक मर्द से हो सकता है, रुपएपैसों से नहीं. और यह भी सच है कि जो रुपएपैसों से हो सकता है, वह इनसान भी नहीं कर सकता…’’
यह बुदबुदा कर मुबीना रोने लगी और बिन जल मछली की तरह तड़पने लगी. उस के तनमन में एक ज्वाला सी उठने लगी. ऐसा लगा जैसे उस का खूबसूरत, नाजुक बदन इस बेरहम आग में जल कर राख हो जाएगा और वह रहरह कर उन नोटों को अपने शरीर पर सजाती रही, ‘‘आओ…आओ, मेरा दिल बहलाओ… मेरे शौहर गए हैं तुम्हारे लिए… तुम आ गए, मगर वे नहीं आए हैं…जब तक वे नहीं आते हैं… तुम ही मेरी सेवा करो…’’ और वह उन्हें चूमचूम कर सीने से लगाती, चेहरे से रगड़ती और जिस्म के दूसरे अंगों से घिसड़ती रही, मगर जिस्म की आग शांत होने के बजाय और भड़कती जाती थी.
आखिरकार खीझ कर रोते हुए वह उन बंडलों को उठाउठा कर फेंकने लगी, ‘‘हटो…तुम मेरी नजरों से दूर हो जाओ… नहीं चाहिए मुझे ये नोट… ये बंडल… नहीं चाहिए.’’
जब सुबह हुई तो मुबीना ने जिस्म की अकड़नजकड़न निकालते हुए बिस्तर को छोड़ा. बिस्तर छोड़ने का दिल तो नहीं कर रहा था, मगर उठना भी जरूरी था. वह शर्मसार सी कपड़े पहनने लगी और जमीन पर पड़े हुए नोटों के बंडलों को उठाने लगी.
अभी मुबीना उन बंडलों को चुन कर अलमारी में रख ही रही थी कि तौफीक आ गया.
उस की आंखों के सुर्ख डोरों को देख कर उस ने कहा, ‘‘क्या हुआ भाभी…? तबीयत तो ठीक है न…?’’
‘‘कहां रे…’’ और वह टूटते बदन के साथ बैड पर गिर गई.
‘‘क्या हुआ…?’’ तौफीक ने हैरान लहजे में कहा, ‘‘डाक्टर को बुलाऊं…?’’
‘‘नहीं रे… यह मर्ज अलग है…’’ और उस का हाथ पकड़ कर सीने पर रख लिया.
‘‘तो दवा भी अलग होगी…’’ तौफीक ने थोड़ा मुसकरा कर कहा.
‘‘हां…’’ इतना कह कर मुबीना ने आंखें बंद कर लीं.
तौफीक इतना नादान तो नहीं था, वह समझ गया. उस की भी कब से इस पर नजर थी. मगर कह नहीं सका था. या यों कहें कि मर्यादा के कच्चे धागे में बंधा हुआ था. मगर इस आस में जरूर था. कभी न कभी तो सिगनल मिलेगा और गंगा नहा लेगा.
आज शायद वही दिन था. वह जल्दी से किवाड़ बंद कर आया और शर्ट के बटन खोलते हुए बोला, ‘‘भाभी, इलाज शुरू करूं…’’
‘‘नेकी वह भी पूछपूछ…’’ मुबीना ने आंखें बंद किए हुए मादक लहजे में जवाब दिया.
उस के बाद पवित्रता की एक नाव हवस के गहरे समंदर में गर्क हो गई.
विदेश से पैसा तो आ रहा था, अब उस में तौफीक का भी हिस्सा हो गया था. मुबीना अब उस का पूरा खर्च चलाती थी. उस ने उसे मोटरसाइकिल भी खरीद कर दे दी थी.
अब वह उसी के साथ मोटरसाइकिल पर सवार घूमने निकल जाती. होटल में खाना खाती. एक तरह से वह शौहर को भूल सी गई थी. याद था तो बस इतना कि वह रियाल कमाने वाला एक गुलाम है.
अब उस का फोन आता है तो वह उस से दर्देदिल की शिकायत नहीं करती है और जल्दी से आ जाने की गुजारिश भी नहीं करती है, बल्कि वह कहती है कि और कमाओ, अभी मत आओ…
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दिन पूरे हो रहे हैं तो वीजा की तारीख बढ़वा लो. अभी एक फ्लैट लिया है. एक दुकान भी मेन मार्केट में ले लूं तो आना. बालबच्चों का भविष्य सुरक्षित करना है. उन्हें इंगलिश मीडियम स्कूल में दाखिल करवा रही हूं.
पति समझदार था. सोचा, बीवी ठीक कहती है. उसे और कमाना चाहिए. एक बार आ गया है तो कमा कर ही जाए. उसे अपनी बीवी पर पूरा भरोसा था और वह वीजा की तारीख बढ़वा कर और कमाने लगा.
एक दिन मुबीना और तौफीक एक गार्डन में इश्कबाजी कर रहे थे और दोनों बच्चे जरा दूर हट कर खेल रहे थे. मुबीना ने पूछा, ‘‘तुझ से से मेरी शादी क्यों नहीं हुई रे…?’’
‘‘हट…छोड़ शादी को…’’ तौफीक नखरा दिखाते हुए बोला, ‘‘क्या शादी करती तो इतना लुत्फ आता…?’’
‘‘शायद नहीं…’’ मुबीना हंस कर बोली.
एक दिन मुबीना ने उस की बाजुओं में झूलते हुए कहा था, ‘‘मुझे कभीकभी बड़ा डर लगता है.’’
‘‘सच…’’ तौफीक मखौल उड़ाने के लहजे में बोला.
‘‘हां…’’ मुबीना ने इकरार किया.
‘‘एक बात कहूं…?’’ तौफीक ने उसे घूर कर देखा.
‘‘हां, कहो…’’
‘‘मुझे भी डर लगता है… सोचता हूं कि अगर अकील को मालूम हो गया तो क्या होगा…?’’
‘‘वही तो…’’ मुबीना थोड़ा चिंतित हुई, ‘‘मैं औरत हूं… फंस जाऊंगी… और तू मर्द है… निकल जाएगा…’’
‘‘नहीं रे… तू औरत है निकल जाएगी… और मैं मर्द हूं… फंस जाऊंगा…’’
‘‘क्यों…?’’
‘‘औरत के त्रियाचरित्र होते हैं…’’
‘‘लेकिन, मेरे पास तो नहीं हैं…’’
‘‘फिर मुझे फंसाया कैसे…?’’
‘‘वही है…’’ मुबीना मासूमियत से बोली.
‘‘हां…’’
‘‘एक बात कहूं? मैं ने तुझे फंसाया नहीं… तू पहले से ही फंसा था…’’
‘‘गलत…’’
‘‘सच कह, मेरे सिर की कसम खा कि तू मुझे चाहता नहीं था…’’ और उस ने उस का हाथ अपने सिर पर रख
लिया.
‘‘सच कहूं…’’ तौफीक उस की झील सी गहरी आंखों में झांकते हुए बोला, ‘‘तुझे जब मैं ने पहली बार देखा था, तब से ही मेरे दिल में तेरी खूबसूरती और जवानी का कांटा चुभ गया था…’’
‘‘देखा, मैं न कहती थी… तू पहले से ही फंसा था…’’ मुबीना बुलबुल सी चहक कर बोली थी, ‘‘बस, मेरे इशारे की देर थी… पके हुए फल की तरह गिर गया…’’
‘‘सच बोली…’’ तौफीक हंस पड़ा.
‘‘यानी, हम दोनों बराबर के गुनाहगार हैं…’’
‘‘गुनाह कैसा…’’ तौफीक के माथे पर परेशानी के बल पड़ गए कि तू मुझे चाहती है और मैं तुझे. कोई जोरजबरदस्ती है क्या…?
‘‘नहीं…’’
‘‘तो फिर गुनाह कैसा…?’’ तौफीक ने उस की कोमल उंगलियों को सहलाते हुए जोर से दबा दिया.
‘‘लेकिन, बीच में जो अकील है…’’ मुबीना के सामने चिंता का चांद प्रकट हो गया.
‘‘यही बात तो है…’’ तौफीक ने मस्ती से उसे अपने करीब खींचते हुए कहा, ‘‘चल छोड़, ये सब बातें कल की हैं. जब तक मौका है, मजा कर लिया जाए. बाद में देखा जाएगा…’’
‘‘लेकिन, इस का अंजाम क्या होगा…?’’
‘‘ऊपर वाला जाने…’’
‘‘और हम क्या जानते हैं…?’’
‘‘कुछ भी तो नहीं…’’
‘‘लेकिन, मेरा दिल कभीकभी डरता है…’’ यह कहतेकहते मुबीना ने अपना हाथ सीने पर रख लिया.
‘‘रोजरोज नहीं न…’’ तौफीक मखौल उड़ाने के लहजे में बोला था.
‘‘नहीं…’’
‘‘तो डरने वाली कोई बात नहीं है. गब्बर सिंह क्या बोला है, जो डर गया, समझो मर गया…’’ और उस ने हंस कर मुबीना की गरदन में हाथ डाल कर उसे अपनी ओर खींच लिया.
दोनों बच्चे हरीहरी घास में खेल रहे थे. तौफीक उन्हें देखते हुए बोला, ‘‘सोचता हूं, तुझ से मेरी भी कोई औलाद हो जाए तो अच्छा रहे…’’
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‘‘नामुमकिन…’’ वह जैसे चौंक गई और जल्दी से खड़ी हो कर कपड़े ठीक करने लगी.
तौफीक ने हंसते हुए कहा, ‘‘क्या हुआ रानी…?’’
‘‘कुछ नहीं…’’ वह थोड़ा मुसकरा कर बोली, ‘‘अब कोई किसी के खेत को चर ले, यह और बात है, मगर कोई कहे कि उस के खेत में फसल भी उगा ले तो नामुमकिन…’’
‘‘अच्छा…’’
‘‘और क्या…?’’ मुबीना ने शोखी से उसे देखा, ‘‘बड़े चालाक हैं…’’
‘‘तुझ से जरा कम…’’ तौफीक खड़ा हो कर मुसकराया और उसे खींच कर अपनी बांहों में भर लिया.
अकील ने तौफीक को फोन किया. उस समय तौफीक उसी के नए फ्लैट में उस की बीवी के साथ रंगरलियां मना रहा था. उस ने अपनी सांसों पर काबू पा कर फोन उठा लिया, ‘‘हैलो अकील, कैसे हो…’’
‘अच्छा हूं… क्या हुआ सांसें क्यों फूल रही हैं…?’
‘‘घर से बाहर खड़ा था. आप का फोन आया तो भाग कर आया हूं…’’
‘अच्छा… सब खैरियत तो है न…? अकील नरम लहजे में बोला.’
‘‘हां.’’
‘मेरी बीवीबच्चों का खयाल रखना…’
‘‘वह तो रखता ही हूं…’’ उस के दिल में आया कह दे कि अभी खातिरदारी में मसरूफ हूं, मगर चुप रहा.
‘मेरी बीवी तुम्हारी बहुत तारीफ करती है…’
उस के दिल में आया कि कह दे कि हूं न इस काबिल, लेकिन ऐसा नहीं कह सका. बस इतना सा कहा, ‘‘यह उन की जर्रानवाजी है…’’ और अपने नीचे बिस्तर सी बिछी उस की बीवी के नाजुक अंगों को चिकोटी काट ली.
मुबीना के मुंह से ‘सी’ की आवाज निकल गई.
फिर मुबीना के गुलाबी होठों को मसल कर बोला, ‘‘आप की बीवी बहुत अच्छी हैं…’’
अकील अपनी बीवी की तारीफ सुन कर खुश हो गया और बोला, ‘हां, यह बात तो है…’ फिर थोड़ा रुक कर बोला, ‘उस का खयाल रखना…’
‘‘वह तो रख ही रहा हूं…’’ उस ने मुबीना के शरीर से फिर छेड़छाड़ की.
‘तौफीक…’ उधर से गमगीन सी आवाज आई, ‘सोचता हूं, अब वतन आ जाऊं… बहुत दिन हो गए हैं… अब बीवीबच्चों की बहुत याद सताती है… बहुत कमा लिया… क्या करेंगे ज्यादा कमा कर…?’