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लेखक- सिराज फारूकी

यह खयाल कर के वह बाग में इधर से उधर टहलते हुए तौफीक से बोली, ‘‘आज से हम यह रिश्ता नहीं रखेंगे...’’

‘‘फिर कौन सा रखेंगे...?’’

‘‘वह पहले वाला...’’

‘‘मुमकिन है...?’’

‘‘मुमकिन नहीं है... लेकिन, मुमकिन बनाया जा सकता है...’’ मुबीना ने बड़े ही आत्मविश्वास से कहा.

‘‘देखेंगे...’’ तौफीक ने लापरवाही से कहा.

‘‘देखेंगे नहीं...’’ मुबीना ने तौफीक की खुली शर्ट का बटन लगाते हुए कहा, ‘‘देखो तौफीक, वह तुम्हारा भी जिगरी दोस्त है और मेरा तो शौहर ही है. हम को इस चीज पर गंभीरता से सोचना होगा. इस में तुम्हारी भी इज्जत का सवाल है और मेरी भी.

‘‘आज तक जो हम लोगों ने किया, अब भूल जाएं. मुझे अब बहुत डर लग रहा है. वह कह रहा था कि उस की कंपनी बंद होने वाली है. अब तो वह कभी भी आ सकता है...’’

‘‘आने दो...’’ तौफीक ने सीना फुला कर कहा.

‘‘नहीं, ऐसा मत कहो... जुदा हो जाओ...’’ मुबीना के चेहरे पर खौफ का साया आ गया था.

‘‘अरे, हम तो जुदा ही हैं...’’ तौफीक ने उस के कान से मुंह लगा कर शरारती लहजे में कहा, ‘‘आने दो उसे...चांस मारते रहेंगे गाहेबगाहे... क्या वह तुम्हारे साथ चौबीसों घंटे रहेगा...?’’

‘‘नहीं, अब छोड़ो भी. मुझे डर लगने लगा है...’’ मुबीना ने उस से दूरी बनाई.

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‘‘तुम बुजदिल हो...’’ तौफीक उसे घूरते हुए बोला.

मुबीना को जैसे यह बात बुरी लगी. उस ने नाक सिकोड़ कर कहा, ‘‘नहीं, दमदार हूं. तभी तो यह रिश्ता रखा और इतने दिनों तक निभाया... लेकिन, अब नहीं होता है. किसी को उतना ही छलो, जितना वह समझ न सके...’’

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