योग वाले अपने संभावित ग्राहक को अभिभूत करने के लिए आमतौर पर 2 रास्तों का सहारा लेते हैं. एक तो वे इस की अति प्राचीनता की दुहाई देते हैं, दूसरे, इस के आसनों के परिमाण की बहुलता का भारी प्रचार करते हैं.
यद्यपि पतंजलि ने अपने योगसूत्रों में स्थिर हो कर सुखपूर्वक बैठने को ही ‘आसन’ कहा है और किसी भी आसन विशेष का न उल्लेख किया है न वर्णन फिर भी उस के प्राचीनतम भाष्य (व्यासभाष्य) में 11 आसनों का उल्लेख मिलता है.
तद्यथा पद्मासनं वीरासनं भद्रासनं स्वस्तिकं दण्डासनं सोपाश्रयं पर्यंकं, क्रौंचनिषदनं,
हस्तिनिषदनमुष्ट्रनिषदनं समसंस्थानं स्थिरसुखं यथासुखं चेत्येवमादीनि.
(योगसूत्र 2/46 पर व्यासभाष्य)
[पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वस्तिक, दंडासन, सोपाश्रय, पर्यंकासन, क्रौंचासन, हस्तिनिषदन (हाथी आसन) उष्ट्रनिषदन (ऊंट आसन) और समसंस्थान-ये आसन स्थिर करने वाले तथा सुख देने वाले हैं.]
वैसे यदि योगसूत्रों के अलावा विशाल योगसाहित्य पर एक नजर डालें तो पता चलेगा कि किसी ग्रंथ में एक आसन का वर्णन है तो किसी में 2 का. एक ग्रंथ में 32 आसनों का वर्णन है. जैसे, त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद् में एक आसन का; योगचूडामणि उपनिषद में 2 आसनों का; योगकुंडल्युपनिषद् व अमृतनाद उपनिषद् में 3 आसनों का; ध्यानबिंदु उपनिषद्, योगतत्त्व उपनिषद् और शिवसंहिता में 4 आसनों का; शांडिल्य उपनिषद् में 8 आसनों का; दर्शन उपनिषद् में 9 आसनों का; वाराह उपनिषद् में 11 आसनों का, हठयोगप्रदीपिका में 15 आसनों का; त्रिशिख ब्राह्मण उपनिषद् (मंत्रभाग) में 17 आसनों का और घेरंड संहिता में 32 आसनों का वर्णन है.
इस विवरण से स्पष्ट है कि व्यासभाष्य, वाराह उपनिषद् तक के 10 ग्रंथों के रचे जाने के बाद लिखा गया, तभी उस में 11 आसनों का उल्लेख है.
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