यों तो भगत सिंह अपने शहीदी दिवस या फिर जन्मशताब्दी आदि के मौकों पर स्कूलों में याद कर लिए जाते हैं. कुछ सरकारी व निजी संस्थाएं कार्यक्रम कर के उन की स्मृतियों की इतिश्री कर लेती हैं. लेकिन बीते दिनों भगत सिंह का जिक्र 2 रोचक घटनाओं के जरिए सुनने को मिला.

हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली विधानसभा में नारे लगाने और परचे फेंकने वाले 2 लोगों से, डपटते हुए, सवाल किया है कि आप लोग स्वतंत्र देश में रहते हैं तो भगत सिंह की तरह व्यवहार क्यों कर रहे थे. भगत सिंह ने जो भी किया, उसे दोहराने का क्या मकसद है?

दरअसल यह मामला तब का है जब इन दोनों को दिल्ली विधानसभा अध्यक्ष रामनिवास गोयल ने 30 दिनों के लिए सश्रम कारावास की सजा के लिए भेजने का आदेश दिया था.

बाद में सदन के अध्यक्ष के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर अदालत ने सवाल उठाते हुए यह कहा है. अदालत इसे ध्यान खींचने वाला स्टंट इसलिए भी मान रही है क्योंकि तब भगत सिंह ने यह कारनामा अंगरेजों की मुखालफत में किया था और आज की यह हरकत महज राजनीतिक तमाशा है.

भगत सिंह से जुड़ी दूसरी खबर यह भी है कि जब लाहौर में वे जेल में थे तब उन्होंने लगभग 404 पेज की एक डायरी लिखी थी. अब उस ऐतिहासिक डायरी को हिंदी में अनुवादित कर प्रकाशित करने की तैयारी चल रही है. इस काम में उन के वंशज यादवेंद्र संधु, इतिहासकार डा. मोहन चंद्र और प्रो. पी एन सिंह मोरचा संभाले हैं. अंगरेजी व उर्दू में लिखी गई इस डायरी का हिंदी में आना सुखद समाचार है.

बहरहाल, आज भी गाहेबगाहे चाहेअनचाहे भगत सिंह की प्रासंगिकता सामने आ ही जाती है. अभी स्वतंत्रता दिवस के मौके पर भी उन्हें याद किया जाएगा. उन पर बनी फिल्मों के गीत सुनाए जाएंगे.

सो, उन्हें याद करने व उन के प्रति सम्मान व्यक्त करने के अनेक कार्यक्रम किए जाते हैं – कुछ सरकारी, कुछ अर्धसरकारी और कुछ गैरसरकारी. इन्हीं कार्यक्रमों के दौरान भगत सिंह के स्वरूप और धर्म को ले कर चर्चाएं भी होती रहती हैं. कुछ उन के केशधारी स्वरूप को आगे लाने की कोशिश करते दिखेंगे तो दूसरे उन के हैटधारी स्वरूप को. जब उन के नाम पर सिक्का या टिकट जारी करने की बात चली तब भी यही विवाद उठा था.

सांप्रदायीकरण और विवाद

प्रश्न पैदा होता है कि ऐसा सब क्यों? इस का सीधासादा उत्तर तो यही है कि जब कुछ लोग शहीद का सांप्रदायीकरण करने का प्रयास करते हैं तो दूसरे उस का विरोध करते हैं. इस से विवाद का उपजना स्वाभाविक ही है.

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भगत सिंह का जन्म सिख परिवार में हुआ, यह निर्विवाद है. परंतु वह परिवार विचारधारा की दृष्टि से आर्यसमाजी था. यह बात स्वयं भगत सिंह ने लिखी है. परंतु बाद में भगत सिंह आर्यसमाजी के स्थान पर बुद्घिवादी व वैज्ञानिक विचारधारा के हो गए और उन के लिए सिख या आर्यसमाजी होना बेमाने हो गया. यह उन की सच्ची महानता थी.

वे यदि महान हैं तो इसलिए नहीं कि वे कभी केशधारी थे. वे इसलिए भी महान नहीं हैं कि वे कभी आर्यसमाजी विचारधारा के पक्षधर थे. उन की महानता उन की उस स्पष्टमानवी, बुद्धिवादी और वैज्ञानिक विचारधारा में निहित है, जिस पर वे जीवन के अंतिम क्षणों तक चले और अटल बने रहे.

भगत सिंह जब जेल में बंद थे और उन के केस का फैसला आने वाला था, तभी उन्हें मालूम पड़ चुका था कि अंगरेज सरकार उन्हें जीवित छोड़ने वाली नहीं. उन्होंने 5 और 6 अक्तूबर, 1930 को एक लेख के रूप में अपनी विचारधारा को अंगरेजी में लिपिबद्ध किया, जो 27 सिंतबर, 1931 को लाहौर से प्रकाशित होने वाले ‘द पीपल’ में ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ शीर्षक से छपा था. ध्यान रहे 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत ने उन्हें फांसी की सजा सुना दी थी.

लेख में भगत सिंह ने इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर दिया है कि मैं नास्तिक क्यों हूं. अपने बारे में चर्चा करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘मेरे दादा, जिन के प्रभाव

में मेरा पालनपोषण हुआ, कट्टर आर्यसमाजी हैं… मैं लाहौर के डीएवी स्कूल में सुबह और शाम की प्रार्थनाओं के अलावा भी घंटों गायत्री मंत्र जपता रहा… आगे चल कर मैं अपने पिता के साथ रहने लगा… वे उदारवादी हैं… अब, मैं बिना कटेछंटे दाढ़ी और केश रखने लगा था, मगर मैं सिख मत या किसी अन्य धर्म के मिथकों व सिद्धांतों में विश्वास कभी नहीं कर पाया. फिर भी ईश्वर के अस्तित्व में मेरी पक्की आस्था थी.’’

(भगत सिंह और उन के साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज, पृ. 457)

भगत सिंह जब क्रांतिकारी दल में शामिल हुए तो अनेक क्रांतिकारी नेताओं से उन का संपर्क हुआ. वे लिखते हैं, ‘‘मैं पहलेपहल जिस नेता के संपर्क में आया, वह ईश्वर को मानता तो नहीं था लेकिन उस के अस्तित्व को नकारने का साहस भी उस में नहीं था. जब मैं उस से ईश्वर के बारे में लगातार प्रश्न करता तो वह कह दिया करता था ‘जब तुम्हारा मन करे, प्रार्थना कर लिया करो.’ ’’

इस के बाद भगत सिंह शचींद्रनाथ सान्याल के संपर्क में आए, जो आस्तिक थे. उन्होंने अपनी एकमात्र किताब ‘बंदीजीवन’ के पहले पृष्ठ से ही ईश्वर की महिमा का जबरदस्त गुणगान किया है.

भगत सिंह लिखते हैं कि काकोरी कांड के चारों विख्यात शहीदों ने अपना अंतिम दिन प्रार्थनाएं करते हुए बिताया था. रामप्रसाद बिस्मिल कट्टर आर्यसमाजी थे. समाजवाद और साम्यवाद के अपने विस्तृत अध्ययन के बावजूद राजेंद्र लाहिड़ी उपनिषदों और गीता के श्लोकों का पाठ करने की अपनी इच्छा को दबा नहीं सके. उन लोगों में मैं ने सिर्फ एक आदमी ऐसा देखा जो कभी प्रार्थना नहीं करता था, लेकिन ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस वह भी कभी नहीं जुटा सका.

वे लिखते हैं कि ऐसे में जब आगे चल कर क्रांतिकारी आंदोलन की पूरी जिम्मेदारी मुझे अपने कंधों पर उठाने का मौका मिला तो मेरे दिमाग के हर कोने-अंतरे से एक ही आवाज रहरह कर उठती ‘अध्ययन करो, स्वयं को विरोधियों के तर्कों का सामना करने लायक बनाने के लिए अध्ययन करो’, ‘अपने मत के समर्थन में तर्कों से लैस होने के लिए अध्ययन करो.’

आतंकवाद से मुंह मोड़ा

भगत सिंह के शब्दों में, ‘‘मैं ने अध्ययन करना शुरू किया. उस से मेरी पूर्ववर्ती आस्थाओं और मान्यताओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए. केवल हिंसात्मक उपायों में विश्वास करने का रूमानीपन जाता रहा. रहस्यवाद और अंधविश्वास के लिए अब कोई गुंजाइश नहीं रही. यथार्थवाद हमारा मत बन गया.’’

अपने अध्ययन का संक्षिप्त सा परिचय देते हुए भगत सिंह लिखते हैं, ‘‘मैं ने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, थोड़ा सा साम्यवाद के जनक कार्ल मार्क्स को पढ़ा और अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति करने वाले लेनिन, त्रात्सकी और अन्य लोगों को खूब पढ़ा. ये सब नास्तिक थे. बाकुनिन की पुस्तक ‘ईश्वर और राज्य’ अधूरीसी होने के बावजूद इस विषय का एक रोचक अध्ययन है. बाद में निर्लम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मेरे पढ़ने में आई.

‘‘अध्ययन के फलस्वरूप 1926 के अंत तक मैं इस बात का कायल हो गया कि सारी दुनिया को बनाने, चलाने और निमंत्रित करने वाली कथित सर्वशक्तिमान परमसत्ता का अस्तित्व निराधार है. मैं ने अपने अविश्वास के बारे में दूसरों को बता भी दिया था. मित्रों के साथ मैं इस विषय पर बहस करने लगा. मैं घोषितरूप से नास्तिक बन चुका था.’’

(भगत सिंह और उन के साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज, पृ. 459).

मई 1927 में भगत सिंह की गिरफ्तारी हुई उस घटना के लिए जिस के लिए वे जिम्मेदार नहीं थे. 1926 के दशहरे के दिन भीड़ पर किसी द्वारा फेंके बम केस में उन्हें धमकाया, फुसलाया गया. सीआईडी के तत्कालीन वरिष्ठ अधीक्षक मि. न्यूमैन ने उन से कहा, ‘मेरे पास तुम्हें सजा दिलाने और फांसी पर चढ़ाने के लिए पर्याप्त सुबूत हैं.’

भगत सिंह लिखते हैं, ‘‘मैं पूरी तरह बेकुसूर था, फिर भी मुझे पता था कि पुलिस चाहे तो मुझे किसी भी केस में फंसा कर सजा दिला सकती है.’’

उन दिनों कुछ पुलिस अफसरों ने भगत सिंह को सुबहशाम दोनों समय नियमपूर्वक प्रार्थना करने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया. भगत सिंह ने अपने मन में सोचा कि क्या वे सुखशांति के दिनों में ही नास्तिक होने की शेखी बघारते हैं या ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी अपने सिद्धांतों पर अटल रह सकते हैं. वे लिखते हैं, ‘‘बहुत सोचविचार करने के बाद मैं ने यह निश्चय किया कि मैं स्वयं को ईश्वर में विश्वास करने और उस की प्रार्थना करने के लिए तैयार नहीं कर सकता और मैं ने प्रार्थना नहीं की.’’

आत्मविश्वास बनाम अहंमन्यता

भगत सिंह से उन के साथी कहते रहे कि ईश्वर को न मानना उन की अहंमन्यता है, अहंकार है. साथियों की बात को काटते हुए भगत सिंह लिखते हैं, ‘‘आदमी ईश्वर में बड़ी राहत और दिलासा पा सकता है, जबकि उस (ईश्वर) के बिना आदमी को अपने ऊपर ही भरोसा करना होता है और आंधियोंतूफानों के बीच अपने पैरों पर खड़े रहना बच्चों का खेल नहीं है. परीक्षा की ऐसी घडि़यों में अहंमन्यता (वेनिटी) अगर हो भी, तो कपूर की तरह उड़ जाती है और आदमी प्रचलित विश्वासों को ठुकराने की हिम्मत नहीं कर पाता, अगर करता है तो हमें कहना पड़ेगा कि उस में निरी अहंमन्यता के अलावा और ताकत है.’’

भगत सिंह आगे लिखते हैं, ‘‘सब लोग अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे मुकदमे का फैसला क्या होना है. (जिस दिन भगत सिंह ने यह वाक्य लिखा उस के तीसरे दिन 7 अक्तूबर को उन्हें फांसी की सजा हो गई थी.) हफ्तेभर में वह सुना भी दिया जाएगा. मेरे लिए इस खयाल के अलावा और क्या राहत हो सकती है कि मैं एक उद्देश्य के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने जा रहा हूं. ईश्वर में विश्वास करने वाला हिंदू राजा के रूप में पुनर्जन्म लेने की आशा कर सकता है, मुसलमान या ईसाई जन्नत में मिलने वाले मजे लूटने और अपनी मुसीबतों व कुरबानियों के बदले ईनाम हासिल करने के सपने देख सकता है. मगर मैं किस चीज की उम्मीद करूं?

‘‘मैं जानता हूं कि जब मेरी गरदन में फांसी का फंदा डाल कर मेरे पैरों के नीचे से तख्ते खींचे जाएंगे, सबकुछ समाप्त हो जाएगा. वही मेरा अंतिम क्षण होगा. मेरा, अथवा आध्यात्मिक शब्दावली में कहूं तो, मेरी आत्मा का, संपूर्ण अंत उसी क्षण हो जाएगा. बाद के लिए कुछ नहीं बचेगा. अगर मुझ में इस दृष्टि से देखने का साहस है तो एक छोटा सा संघर्षमय जीवन ही, जिस का अंत भी कोई शानदार अंत नहीं, अपनेआप में मेरा पुरस्कार होगा. बस, और कुछ नहीं.’’

वे आगे लिखते हैं, ‘‘किसी स्वार्थपूर्ण इरादे के बिना, इहलोक या कथित परलोक में कोई पुरस्कार पाने की इच्छा के बिना, बिलकुल अनासक्त भाव से मैं ने अपना जीवन आजादी के उद्देश्य के लिए अर्पित किया क्योंकि मैं ऐसा किए बिना रह नहीं सका.’’

अहंमन्यता नहीं, आत्मविश्वास

भगत सिंह के सिद्धांत को अहंमन्यता नहीं कहा जा सकता. यह आत्मविश्वास है. जो लोग इसे अहंमन्यता कहते हैं, उस का कारण दूसरा है. ‘‘आप जब भी लकीर से हट कर चलेंगे, किसी प्रचलित विश्वास का विरोध करेंगे अथवा किसी नायक या महान व्यक्ति की आलोचना करेंगे तो आप के तर्कों से पराजित व मजबूर हो कर लोग आप को अहंकारी कह कर आप का मजाक उड़ाएंगे. इस का कारण मानसिक जड़ता है,’’ भगत सिंह लिखते हैं.

क्रांतिकारी के गुण

क्रांतिकारी में, भगत सिंह के अनुसार, 2 गुण अनिवार्य होते हैं- आलोचना और स्वतंत्र चिंतन. उन के अनुसार, ‘‘क्रांतिकारी यह नहीं मानता कि महात्माजी महान हैं, सो किसी को उन की आलोचना नहीं करनी चाहिए. चूंकि वे पहुंचे हुए आदमी हैं इसलिए राजनीति, धर्म, अर्थशास्त्र या नीतिशास्त्र पर वे जो कुछ भी कह देंगे, वह सही ही होगा, आप सहमत हों या न हों, आप को कहना ही होगा कि यही सत्य है. यह मानसिकता प्रगति की ओर नहीं ले जा सकती.’’

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘इसी तरह ईश्वर में विश्वास है. हमारे पूर्वजों ने किसी परमसत्ता में, ईश्वर में, विश्वास बना लिया था. उस के विरोध में जब तर्क दिया जाता तो उस का जवाब देने में अपने को असमर्थ पा कर ईश्वरवादी कभी उस के कोप के कारण आने वाली मुसीबतों का भय दिखाते और कभी उसे तर्क देने वाले को काफिर, गद्दार, नास्तिक आदि कह कर दबाते और कभी उसे अहंकारी, अहंमन्य आदि कह कर उस का मजाक उड़ाते. परंतु यह सब इस बात का प्रमाण था कि ईश्वरवादियों के पास विरोधी तर्कों का न जवाब था और न उन के तर्क विरोधियों को कायल करने वाले थे.’’

यथार्थ का सामना

भगत सिंह जीवन के यथार्थ का सामना बिना किसी नशे के, वह चाहे भक्ति का हो या परलोक में मिलने वाले बताए जाते स्वर्ग या रहस्यवाद आदि का, करने के पक्षधर थे. कई बार संभव है, आदमी फिसल जाए, परंतु यह तो एक अपवाद है और अपवाद को नियम नहीं बनाना चाहिए. इसलिए भगत सिंह कहते हैं, ‘‘मैं अपनी नियति का सामना करने के लिए किसी नशे का सहारा लेना नहीं चाहता. मैं यथार्थवादी हूं. मैं अपनी सहजवृत्ति पर विवेक से विजय पाने की कोशिश करता रहा हूं. मैं इस कोशिश में हमेशा कामयाब नहीं रहता हूं. मगर इंसान का फर्ज है कि वह कोशिश करे.’’

प्रगति के लिए आलोचना अनिवार्य

भगत सिंह से पहले के क्रांतिकारी बहुत से मामलों में लकीर के फकीर थे, सिर्फ आजादी के मामले में वे क्रांतिकारी थे. बाकी मामलों में आम आदमी के समान ही दकियानूसी विचार ढोते रहते थे.

सो, भगत सिंह कहते हैं, ‘‘प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से संबंधित हर बात की आलोचना करे, उस में अविश्वास करे और उसे चुनौती दे. प्रचलित विश्वास की एकएक बात के हर कोने-अंतरे की विवेककपूर्ण जांचपड़ताल उसे करनी होगी. यदि कोई विवेकपूर्ण ढंग से पर्याप्त सोचविचार के बाद किसी सिद्घांत या दर्शन में विश्वास करता है तो उस के विश्वास का स्वागत है… मगर कोरा विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक होता है, क्योंकि वह दिमाग को कुंद करता है और आदमी को प्रतिक्रियावादी बना देता है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘यथार्थवादी होने का दावा करने वाले को तो समूचे पुरातन विश्वास को चुनौती देनी होगी. यदि विश्वास विवेक की आंच बरदाश्त नहीं कर सकता तो ध्वस्त हो जाएगा. यथार्थवादी आदमी को सब से पहले उस विश्वास के ढांचे को पूरी तरह गिरा कर उस की जगह एक नया दर्शन खड़ा करने के लिए जमीन साफ करनी होगी.’’

सकारात्मक कार्य

भगत सिंह कहते हैं कि कईर् बार पुराने विश्वास की कुछ सामग्री पुनर्निर्माण के लिए भी इस्तेमाल की जा सकती है यदि वह किसी काम की हो, जैसे भौतिकवादी दृष्टि या आलोचनात्मक दृष्टि के लिए प्राचीन चार्वाक दर्शन का कुछ हद तक आज भी उपयोग किया जा सकता है.

हमारा दर्शन

अपने दर्शन का सारांश प्रस्तुत करते हुए भगत सिंह कहते हैं कि हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और प्रकृति को मानव की सेवा में नियोजित करने के लिए उसे मनुष्य की वशवर्ती बनाना समूचे प्रगतिशील आंदोलन का लक्ष्य है. उसे चलाने वाली कोई चेतनाशक्ति उस के पीछे नहीं है. यही हमारा दर्शन है.

क्यों नहीं है?

भगत सिंह ईश्वर नामक चेतनाशक्ति के अस्तित्व से इनकार करते हैं तो अकारण नहीं. वे अपने कारण प्रस्तुत करते हैं, अपने तर्क पेश करते हैं और अपने प्रश्न उठाते हैं, जिन के आज तक किसी ने संतोषजनक उत्तर नहीं दिए हैं.

ईश्वरवादियों से प्रश्न भगत सिंह ईश्वरवादियों से कहते हैं कि यदि आप के अनुसार कोई सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ ईश्वर है तो उस ने ऐसी दुनिया क्यों बनाई, जिस में तमाम दुख हैं, तकलीफें हैं, त्रासदियों का एक अनंत व निरंतर सिलसिला है और एक भी प्राणी पूरी तरह संतुष्ट नहीं?

वे कहते हैं कि आप यह मत कहना कि ईश्वर नियम का बंधा है, क्योंकि यदि उसे नियम का बंधा कहोगे तो फिर वह सर्वशक्तिमान नहीं रहेगा. तब तो वह हमजैसा ही एक गुलाम है.

शाश्वत नीरो

भगत सिंह कहते हैं कि यह भी मत कहना कि यह उस की लीला है, जिस में उसे आनंद आता है. वेदांत में उस की लीला की ही बात की जाती है. इसीलिए तो रामलीला और कृष्णलीला हैं परंतु भगत सिंह कहते हैं, ‘‘नीरो ने तो एक ही रोम को जलाया था, उस ने तो थोड़े से ही लोगों की जानें ली थीं, फिर भी इतिहास में उस की जगह कहां है? इतिहासकार उसे किस नाम से याद करते हैं? उस पर दुनियाभर की नफरतभरी लानतें बरसाई जाती हैं. अत्याचारी, हृदयहीन और दुष्ट नीरो की भर्त्सना करते हुए पृष्ठ पर पृष्ठ गालियों से भरी कटु निंदाओं से काले किए गए हैं.

‘‘एक चंगेजखां था, जिस ने हत्या का आनंद लेने के लिए कुछ हजार लोगों की जानें ली थीं और हम उस के नाम तक से नफरत करते हैं.

‘‘तब आप अपने सर्वशक्तिमान, शाश्वत नीरो को उचित कैसे ठहराएंगे जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य त्रासदियों को जन्म देता रहा है और आज भी दे रहा है? कैसे आप उस के इन कुकृत्यों का समर्थन करेंगे, जो प्रतिक्षण चंगेजखां के दुष्कृत्यों को मात करते हैं.’’

(भगत सिंह और उन के साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज, पृ. 464).

भगत सिंह आगे कहते हैं, ‘‘मैं पूछता हूं उस ने यह दुनिया बनाई ही क्यों, जो साक्षात नरक है, अनंत और तलख बेचैनी का घर है? उस कथित सर्वशक्तिमान ने मनुष्य की सृष्टि क्यों की जबकि उस के पास ऐसी सृष्टि न करने की शक्ति थी? इस सब का औचित्य क्या है?’’

परलोक का तर्क या ग्लैडिएटरों का?

ईश्वरवादी कहा करते हैं कि जो निर्दोष यहां उत्पीडि़त होते हैं, उन्हें परलोक में पुरस्कार मिलता है और जो यहां कुकर्म करते हैं, वे परलोक में दंडित होते हैं.

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘आप उस आदमी को कहां तक सही ठहराएंगे जो बाद में मुलायम और आरामदेह मरहम लगाने के लिए आप के शरीर को जख्मों से छलनी कर दे?’’ वे ग्लैडिएटरों का उदाहरण दे कर पूछते हैं, ‘‘ग्लैडिएटरों की संस्था के समर्थक और प्रबंधक, जो पहले तो लोगों को भूखे और क्रूर शेरों के सामने फेंक देते थे और बाद में अगर वे लोग जिंदा बच जाते तो उन की बड़ी अच्छी तरह देखभाल करते थे, कहां तक सही थेइ, सीलिए मैं पूछता हूं कि उस कथित चेतन परमसत्ता ने इस दुनिया की और उस में भी मनुष्य की सृष्टि क्यों की, अपने मजे के लिए तो फिर उस में और नीरो में क्या फर्क है?’’

ईसाइयों और मुसलमानों से

भगत सिंह ईसाइयों और मुसलमानों को संबोधित कर के कहते हैं कि आप के पास उपरोक्त प्रश्न का क्या उत्तर है? आप तो हिंदुओं की तरह यह तर्क भी नहीं दे सकते कि प्रत्यक्षरूप से निर्दोष लोग इसलिए दुख पा रहे हैं कि इन्होंने पिछले जन्म में बुरे कर्म किए थे, क्योंकि आप लोग तो पूर्वजन्म में विश्वास ही नहीं करते.

वे कहते हैं, ‘‘मैं आप ईसाइयों और मुसलमानों से पूछता हूं कि उस सर्वशक्तिमान ने 6 दिनों तक शब्द के द्वारा इस दुनिया को बनाने की मेहनत क्यों की और क्यों प्रतिदिन यह कहा कि ‘सब ठीक है.’

‘‘आज उसे बुलाइए, उसे पिछला इतिहास दिखाइए, उस से कहिए कि वह वर्तमान स्थिति का अध्ययन करे. देखें तब वह कैसे कहता है कि ‘सब ठीक है.’

‘‘जेलों की कालकोठरियों, गंदी बस्तियों और झुग्गीझोंपडि़यों में भूखे मरते लाखों लोगों, शोषित और जरूरतमंदों में बांटने के बजाय अतिरिक्त उत्पादन को समुद्र में फेंक देने जैसे कार्यों से ले कर नरकंकालों की नींव पर खड़े किए गए शाही महलों तक हर चीज उसे दिखाइए और जरा उस से कहलवाइए कि ‘सब ठीक है.’

‘‘यह सब क्यों और कहां से आया? यह है मेरा सवाल.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 465).

पूर्वज चालाक थे

भगत सिंह हिंदुओं से कहते हैं, ‘‘अच्छा, हिंदुओ, आप कहते हैं कि जो लोग आज दुख पा रहे हैं, वे पूर्वजन्मों के पापी हैं. ठीक, आप यह भी कहते हैं कि आज के उत्पीड़क लोग पूर्वजन्मों के धर्मात्मा हैं, इसलिए उन के हाथ में सत्ता है.’’

इस पर टिप्पणी करते हुए भगत सिंह लिखते हैं, ‘‘मानना पड़ेगा कि आप के पूर्वज बड़े चालाक थे. उन्होंने ऐसे सिद्धांत खोज निकालने का प्रयास किया जिन से विवेक और अविश्वास के आधार पर की जाने वाली तमाम कोशिशों को दबा दिया जाए.’’

वे अपराध और दंड की चर्चा करते हुए कहते हैं कि दंड का उद्देश्य या तो बदला लेना हो सकता है या सुधार करना या फिर दंड के भय से लोगों को अपराध करने से रोकना (निवारण).

बदले के लिए दंड देने को आज कोई बुद्धिमान उचित नहीं मानता. भगत सिंह कहते हैं कि निवारण के सिद्घांत का यही हश्र होने वाला है. सो, एकमात्र सुधार का सिद्घांत ही सारवान है जो मानवीय प्रगति के लिए अपरिहार्य है. इस का उद्देश्य है दोषी व्यक्ति को अत्यंत सुयोग्य व शांतिप्रिय बना कर समाज को वापस कर देना.

वे कहते हैं, ‘‘अब अगर हम सभी मनुष्यों को अपराधी मान भी लें तो ईश्वर द्वारा उन्हें दी जाने वाली सजा कैसी है? मैं पूछता हूं, इस का मनुष्य पर कौन सा सुधारात्मक प्रभाव पड़ता है? आप को ऐसे कितने लोग मिले जो कहते हों कि पाप करने के कारण पिछले जन्म में वे गधा बने थे? एक भी नहीं. अपने पुराणों के उदाहरण रहने दीजिए. आप की पौराणिक कहानियों के लिए मेरे पास फुरसत नहीं है.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 466).

गरीबी : सजा या पाप?

ईश्वरवादियों से भगत सिंह कहते हैं, ‘‘दुनिया में सब से बड़ा पाप गरीब होना है. परंतु आप के अनुसार, यह लोगों को ईश्वर द्वारा दी गई सजा है. मैं पूछता हूं कि आप उस अपराधविज्ञानी को, उस विधिवेत्ता या विधायक को कैसे उचित ठहराएंगे जो आदमी के लिए ऐसी सजाएं सुझाए व तजवीज करे जो उसे अनिवार्यतया और ज्यादा अपराध करने के लिए मजबूर करने वाली हों? गरीबी में पड़ा व्यक्ति तो और भी अपराध करने को विवश होता है. क्या आप के ईश्वर ने इस चीज पर गौर नहीं किया? या, उसे भी ऐसी बातें अनुभव से सीखनी पड़ती है?’’

विषय को स्पष्ट करते हुए वे आगे कहते हैं, ‘‘किसी गरीब, अनपढ़, अछूत परिवार में पैदा होने वाले आदमी की नियति क्या होगी? वह गरीब है, इसलिए पढ़लिख नहीं सकता. उस के इर्दगिर्द के लोग अपने को श्रेष्ठ मानते हैं क्योंकि वे तथाकथित ऊंची जातियों जन्में हैं, वे उसे अछूत मान कर अलगथलग रखते हैं.

‘‘उस का अज्ञान, उस की गरीबी और उस के साथ किया जाने वाला बरताव उसे समाज के प्रति कठोर हृदय बना देगा. अब वह यदि कोई पाप करता है, तो उस की सजा कौन भुगतेगा? ईश्वर या वह स्वयं या समाज के ज्ञानवान लोग?’’

भगत सिंह बहुत स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, ‘‘घमंडी और स्वार्थी ब्राह्मणों द्वारा जानबूझ कर अज्ञानी बना कर रखे गए उन लोगों की सजा के बारे में आप क्या कहते हैं जिन्हें आप के पवित्र ज्ञानग्रंथों, अर्थात वेदों, की कुछ पंक्तियां सुन लेने का दंड अपने कानों में पिघले हुए गरम रांगे (सीसे) की धार झेल कर भरना पड़ता था, उन का अगर कोई अपराध था भी तो उस के लिए जिम्मेदार कौन था और उस का परिणाम किस को भुगतना चाहिए था.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 466).

अमरता का सिद्धांत : लूट का लाइसैंस

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘मेरे प्यारे दोस्तो, ये सिद्धांत का विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के मनगढंत सिद्धांत हैं. इन सिद्धांतों द्वारा वे बलात हथियाई हुई अपनी शक्ति, संपन्नता और श्रेष्ठता को उचित ठहराते हैं.’’

अपटन सिंक्लैर ने कहीं लिखा है कि आदमी को अमरता में विश्वास करने वाला बना दो, फिर उस की चाहे सारी धनसंपत्ति लूट लो, वह उफ तक नहीं करेगा. यही नहीं, वह अपने को लूटने में खुद आप की मदद करेगा. धार्मिक उपदेशकों और सत्ताधारियों की मिलीभगत से ही जेलों, फांसियों, कोड़ों और इन सिद्घांतों का निर्माण हुआ है.

ईश्वर : बुराई से रोकता क्यों नहीं?

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘मैं आप से पूछता हूं कि आदमी जब पाप या अपराध करना चाहता है, तब आप का सर्वशक्तिमान ईश्वर उसे रोकता क्यों नहीं? उस के लिए तो यह बहुत आसान होना चाहिए, फिर उस ने जंगबाजों को मार कर या उन के भीतर के युद्घोन्माद को मार कर मानवता को विश्वयुद्ध की महाविपत्ति से क्यों नहीं बचाया? वह अंगरेजों के मन में कोई ऐसी भावना क्यों पैदा नहीं कर देता कि वे भारत को आजाद कर दें?’’

(ध्यान रहे ये बातें 1930 में लिखी गई हैं.)

शक्ति ईश्वर में नहीं, तोपों और फौजों में है

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘आप गोलमाल तर्क देना बंद कीजिए. वे नहीं चलेंगे. अंगरेजों का शासन यहां इसलिए नहीं है कि यह कथित ईश्वर की इच्छा है, बल्कि इसलिए है कि उन के पास ताकत है और हम उन का विरोध नहीं करते. वे ईश्वर की सहायता से नहीं, बल्कि तोपों, बंदूकों, बमों, गोलियों, पुलिस व फौज की सहायता से तथा हमारी उदासीनता के चलते हमें गुलाम बनाए हुए हैं. और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का निर्लज्ज शोषण करने का सब से घृणित पाप समाज के विरुद्घ सफलतापूर्वक करते चले जा रहे हैं.’’

इस के बाद भगतसिंह निष्कर्ष स्वरूप पूछते हैं, ‘‘कहां है ईश्वर? क्या कर रहा है वह? क्या वह मानवजाति के इन सब दुखोंकष्टों का मजा ले रहा है? तब तो वह नीरो है, चंगेजखां है, उस का नाश हो.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 467).

दुनिया व इंसान कहां से आए

यदि तुम मुझ से पूछते हो कि यदि ईश्वर नहीं है तो यह दुनिया व इंसान कहां से आए, तो मैं तुम्हें बताता हूं, तो चार्ल्स डार्विन ने इस विषय पर प्रकाश डालने की कोशिश की है. उस का अध्ययन कीजिए. निर्लम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ पढि़ए. (अब और बहुत सी पुस्तकें उपलब्ध हैं, यथा गुणाकर मूले कृत ‘ब्रह्मांड परिचय’, हाकिंज कृत ‘समय का इतिहास’, प्रगति प्रकाशन, मास्को की ‘मानव जाति की उत्पत्ति’ आदि). इन के अध्ययन से आप के सवाल का जवाब मिल जाएगा.

यह दुनिया बनना एक प्राकृतिक घटना है. विभिन्न पदार्थों के आकस्मिक संयोग से उत्पन्न नीहारिका से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई. कब? यह जानने के लिए इतिहास देखिए. इसी प्रकार जीवधारी उत्पन्न हुए और उन में से ही एक लंबे अरसे बाद मनुष्य का विकास हुआ. (ध्यान रहे, विकास हुआ, उत्पत्ति नहीं हुई.) डार्विन की पुस्तक ‘जीवों की उत्पत्ति’ (अब यह हिंदी में भी उपलब्ध है) पढि़ए.

आप का दूसरा तर्क कि जन्म से ही अंधे या लंगड़े पैदा होने वाले बच्चे यदि पूर्वजन्म के कर्मों के कारण ऐसे नहीं हैं, तो किस कारण से ऐसे हैं?

भगत सिंह कहते हैं कि इस विषय में मेरा उत्तर है कि जीवविज्ञानी इस की व्याख्या कर चुके हैं कि यह एक जीव वैज्ञानिक घटना है, न कि ईश्वरीय या कार्मिक. उन के अनुसार, इस के लिए बहुत बार मातापिता उत्तरदायी होते हैं, जो तरहतरह के नशे करते हैं या दवाइयां खाते हैं या दूसरे कई तरह के उलटेसीधे काम करते हैं चाहे वे गर्भावस्था में ही बच्चे में हो जाने वाली विकृतियों को जन्म देने वाले अपने कार्यों के प्रति सचेत हों या न हों.

ईश्वर नहीं तो विश्वास कैसे जन्मा?

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘आप पूछ सकते हैं कि यदि ईश्वर था ही नहीं तो लोग उस में विश्वास कैसे करने लग गए?’’ उत्तर में वे कहते हैं, ‘‘इस बचकाना प्रश्न के उत्तर में मैं संक्षेप में यही कहूंगा कि जिस तरह लोग भूतों और प्रेतात्माओं में विश्वास करने लगे, उसी तरह ईश्वर में विश्वास करने लगे, फर्क सिर्फ यह है कि भूतों आदि की अपेक्षा ईश्वर में विश्वास सर्वव्यापी है और इस का दर्शन बहुत विकसित है. पर चीज एक ही है.’’

ईश्वर : शोषकों की चालबाजी?

कई लोग यह कहा करते हैं कि ईश्वर की उत्पत्ति उन शोषकों की चालबाजी से हुई है जो एक परमसत्ता के अस्तित्व का प्रचार कर के और फिर उस से प्राप्त होने वाली सत्ता व विशेषाधिकारों का दावा कर के लोगों को गुलाम बनाना चाहते थे.

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘मैं यह नहीं मानता कि ईश्वर को उन्हीं लोगों ने पैदा किया, चाहे मैं इस मूल बात से सहमत हूं कि सभी विश्वास, धर्म, मत और इस प्रकार की अन्य संस्थाएं आखिरकार दमनकारी तथा शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों और वर्गों की समर्थक बन कर ही रहीं. राजा के विरुद्घ विद्रोह करना हर धर्म के मुताबिक पाप रहा है.’’

नास्तिक: आत्मविश्वास व दृढ़ता

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘ईश्वर में विश्वास के विरुद्घ उसी तरह संघर्ष करना होगा जिस तरह मूर्तिपूजा और धार्मिक संकीर्णताओं के विरुद्घ किया गया है. जब मानव अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करेगा और यथार्थवादी बनेगा, वह आदिम युग के इस अवशेष ईश्वर में विश्वास को छोड़ देगा, उसे अपनी आस्तिकता को झटक कर फेंक देना पड़ेगा. तब परिस्थितियां चाहे उसे कैसी भी मुसीबत और परेशानी में डाल दें उसे उन का मुकाबला दृढ़ता के साथ करना पड़ेगा. मेरी हालत ठीक इसी तरह की है.’’

प्रेरणास्रोत नास्तिक

वे आगे कहते हैं, ‘‘मेरे दोस्तो, यह मेरी अहंमन्यता नहीं है. यह मेरे सोचने का तरीका है, जिस ने मुझे नास्तिक बना दिया है. मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास करने और रोज प्रार्थना करने से, जिसे मैं आदमी का सब से स्वार्थपूर्ण और घटिया काम समझता हूं, मुझे राहत मिलती या मेरी हालत और भी बदतर हुई होती.’’

‘‘मैं ने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है जिन्होंने साहसपूर्वक सारी मुसीबतों का सामना किया. उन्हीं की तरह मैं भी यह कोशिश कर रहा हूं कि आखिर तक, फांसी के तख्ते पर भी, मर्द की तरह सिर ऊंचा किए खड़ा रहूं. देखिए, इस कोशिश में कहां तक कामयाब होता हूं.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 469)

आस्तिकता : स्वार्थ व पस्तहिम्मती

भगत सिंह कहते हैं कि एक मित्र ने उन से प्रार्थना करने के लिए कहा था. लेकिन जब उसे पता चला कि मैं नास्तिक हूं तो उस ने कहा, ‘अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे.’ मैं ने उत्तर में कहा, ‘नहीं जनाब, यह नहीं होगा. मैं इसे अपने लिए अपमान और पस्तहिम्मती का काम समझूंगा. स्वार्थपूर्ण इरादों से प्रार्थना हरगिज नहीं करूंगा.’

अंत में भगत सिंह कहते हैं, ‘‘पाठकों और मित्रो, क्या यह अहंमन्यता है? अगर है, तो मैं इस का हामी हूं.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज पृ. 469)

इतिहास गवाह है कि भगत सिंह को जब फांसी पर लटकाने के लिए जेल के अधिकारी व संतरी गए तो वे कालकोठरी में लेनिन के बारे में एक किताब पढ़ रहे थे.

वीरेंद्र सिंधू ने अपनी पुस्तक में उस समय का जो चित्र, संतरी के कहे के अनुसार, चित्रित किया है, वह कुछ इस प्रकार है :

भगत सिंह अपने मित्र व वकील प्राणनाथ मेहता से मंगवाईर् लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे जब दरवाजा खुला. दहलीज पर अफसर खड़ा था.

‘‘सरदारजी,’’ उस ने कहा, ‘‘फांसी लगाने का हुक्म आ गया है. तैयार हो जाइए.’’

भगत सिंह के दाएं हाथ में किताब थी. उस से नजरें उठाए बिना ही उन्होंने बायां हाथ उठा कर कहा, ‘‘ठहरिए. यहां एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है.’’

कुछ पंक्तियां और पढ़ कर उन्होंने किताब एक तरफ रख दी और उठ खड़े हुए तथा बोले, ‘‘चलिए.’’

इस तरह के थे भगत सिंह. उन्होंने जिस नास्तिक दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया, जीवन के अंतिम क्षण तक फांसी के फंदे को चूमने तक उस पर दृढ़ रहे. न कोई पूजा, न पाठ, बल्कि उन क्षणों में एकदूसरे नास्तिक व्यक्तित्व लेनिन की पुस्तक का अध्ययन किया.

जो लोग आज भगत सिंह के समागमों क अवसर पर धार्मिक पाखंड करते हैं, वे दरअसल उस शहीद का घोर अपमान करते हैं. यदि हमें भगत सिंह के प्रति जरा भी लगाव है, उन के प्रति हमारे अंदर यदि जरा भी सम्मान है, तो हमें उन्हें उसी रूप में स्वीकार करना होगा जो उन का अपना असली स्वरूप है. यदि उन के विचार हम में से किसी को अच्छे नहीं लगते, तो उसे उन्हें पूजने, उन के समागम करने की क्या विवशता है? हमें उन्हें अपनी इच्छा या पसंद के अनुरूप विकृत करने का, उन का कार्टून बनाने का कोई अधिकार नहीं है.

भगत सिंह तभी तक भगत सिंह  हैं जब हम उन की कथनी और करनी को एकसाथ उसी रूप में स्वीकार करते हैं जिस क दर्शन उन के लेख और कालकोठरी के अंदर के उन के जीवन में पाते हैं. यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम उन की पैरोडी बनाने का जघन्य कुकृत्य कर रहे होंगे, जो एक अक्षम्य अपराध होगा.

सशक्त प्रेरणास्रोत

आज 21वीं शताब्दी में जब भारत, धर्म के नाम पर पाखंड के साथसाथ आतंकवाद की मार भी झेल रहा है, दूरदर्शन के विभिन्न चैनल जब धर्म के नाम पर हर तरह की संकीर्णता, अंधविश्वास, क्रूरता और अवैज्ञानिकता को निरंतर परोस रहे हैं, चारों ओर भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता और उत्तरदायित्वहीनता का बोलबाला है, धर्म के अनेक स्वयंभू ठेकेदारों व धर्मध्वजियों के घिनौने चेहरों पर से परदा उठ रहा है और युवा पीढ़ी राजनीतिबाजों व धर्म के धंधेबाजों से निराश व हताश हो कर उद्देश्यहीनता के चौराहे पर पहुंच गई है.

तब, आशा है कि शहीद ए आजम भगत सिंह के ये विचार व उन का बलिदान उसे वैज्ञानिक विचारधारा अपनाने, देश के लिए निस्वार्थभाव से कुछ कर गुजरने और अपना दायित्व पहचानने के लिए सशक्त प्रेरणास्रोत सिद्ध होंगे.

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