हम बचपन में जब कहानियों की कोई भी किताब पढ़ा करते थे, उन में एक कहानी इस टाइप की जरूर होती थी कि एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था. एक दानवीर राजा था, जो सवेरेसवेरे राज्य के 100 ब्राह्मणों को सोने की 100 मोहरें और 100 गाएं दान दिया करता था वगैरह.
सवाल उठता है कि रोजरोज इतना सोना, इतनी गाएं कहां से आती थीं? मकसद सिर्फ एक था कि कैसे भी कर के ब्राह्मण को ‘बेचारा’ साबित कर दो, ताकि वह लोगों की दया का पात्र बना रहे और जितना हो सके कहानियों के जरीए दान की महिमा गाओ, ताकि सवेरेसवेरे जब ब्राह्मण किसी के घर की चौखट पर भिक्षा मांगने जाए तो उसे मंगता समझ कर दुत्कारें नहीं, बल्कि ब्राह्मण देवता समझ कर एक मुट्ठी की जगह 2 मुट्ठी आटा, दाल, चावल और दहीघी दे दें. तथाकथित धर्मग्रंथों में सबकुछ वही लिखा है, जो इन के लिए फायदे का सौदा था.
फायदे का धंधा
धर्म को धंधा बना कर चालाक लोगों द्वारा गरीबों, दलितों, पिछड़ों का शोषण करने की महज एक सोचीसमझी चाल है. यह एकतरफा वसूली है. आमजन के साथसाथ पूरे देश के भविष्य के लिए
यह खतरनाक है. मुफ्त में ठग कर खाने वाली आदत बड़ी खराब होती है. खुद तो निठल्ले हो कर खा ही रहे हैं, आम जनता की तरक्की को भी रोक देते हैं.
सालासर बालाजी मंदिर का पुजारी अपनी बेटी की शादी में 11 किलो सोना दे और करोड़ों रुपए खर्च कर डाले, तो इसे क्या कहेंगे, जबकि मंदिर की देखरेख के लिए एक ट्रस्ट बना हुआ है और ट्रस्ट में शामिल पुजारियों को तनख्वाह दी जाती है? 30,000 रुपए महीना तनख्वाह लेने वाला पुजारी इतना पैसा अपनी बेटी पर कहां से खर्च करेगा? यकीनी तौर पर चंदेचढ़ावे में हेराफेरी हुई होगी, नहीं तो इतना खर्चा इस समय 30,000 रुपए कमाने वाले के बूते में तो कतई नहीं है.
आजकल पुराने मंदिरों पर करोड़ों रुपए खर्च कर के उन्हें भव्य बनाया जा रहा है. दिलचस्प बात तो यह है कि इन मंदिरों पर किसानों की कड़ी मेहनत की पूंजी इस्तेमाल की जा रही है. चाहे किसान फटे कपड़े पहने, उस के बच्चे भूखे रहें, वे पढ़ाई छोड़ दें, लेकिन मंदिर के लिए तो कमाई दान करनी ही होगी, वरना धर्म के ठेकेदार नाराज हो जाएंगे और स्वर्ग जाने का सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा.
जब कोई इस तरह की लूटखसोट पर सवाल उठाता है, तो यह प्रचार किया जाता है कि तुम तो हिंदू विरोधी हो, कम्यूनिस्ट हो, देशद्रोही हो वगैरह. तो क्या करें? इस एक सवाल का जवाब इन का बड़ा हैरान करने वाला होता है कि लोग अपनी मरजी से देते हैं, तेरा मन नहीं है तो मत दे.
क्या आप को भी ऐसा ही लगता है कि लोग दान अपनी मरजी से देते हैं? नमूने के तौर पर, जब कोई औरत पेट से होती है, तो इन का प्रतिनिधि यह बताने आ जाता है कि आप का होने वाला बच्चा बड़ा काबिल होगा, बस थोड़ा
राहू का प्रकोप है. पैदा होने के 7वें दिन बला आएगी, जिसे कुछ मंत्र पढ़ कर और दान दे कर टाला जा सकता है. आप
10 ब्राह्मणों को खाना खिला कर कुछ दान दे दो, तो बुरा समय टल जाएगा.
अब 9 महीने तक पीड़ा झेलने वाली वह औरत क्या करेगी? उस के पास 2 ही रास्ते होते हैं. एक तो पंडितजी के कहे हिसाब से चल कर बच्चे को बचा ले या बच्चा पैदा करने के बाद 7वें दिन उसे मरने के लिए छोड़ दे. कोई भी मां अपने बच्चे को मरने के लिए नहीं छोड़ सकती, तो वह पहला रास्ता अपनाएगी और ढोंग पर अपनी मेहनत की कमाई लुटाएगी.
तो क्या हम यह मान लें कि उस मां ने डर कर नहीं, बल्कि अपनी इच्छा से यह खर्चा कर डाला? क्या 90 फीसदी लूट के ढोंग का बोझ उठा रहे इस बूढ़े धर्म की सफाई नहीं होनी चाहिए? कोई मर गया तो वह भूत बन कर परेशान न करे, इसलिए पंडितजी के कहे मुताबिक उधार ले कर ही सही, लेकिन झोलीझंडा उठा कर गंगा में अस्थि बहाने के लिए हरिद्वार की तरफ निकलना ही पड़ेगा, चाहे जिंदगी में कभी भूत देखा ही नहीं हो, लेकिन पंडितजी ने डराया है तो डरना ही पड़ेगा. मासूमों की अज्ञानता और नासमझी का इस तरह नाजायज फायदा उठाना क्या धर्म के हिसाब से सही हो सकता है? बिलकुल नहीं.
सीधी सी बात है कि या तो आप वैज्ञानिक शिक्षा व तार्किकता ला कर दुनिया के साथ मानव सभ्यता की दौड़ में साथ हो जाएं या ललाट पर भंवरें, कान के पीछे तिल या हथेली की खाज को खुजलातेखुजलाते किसी अनहोनी से डरते रहिए या धन खोजते रहिए.
आप चाहें तो पुराने काले जादू से भी चमत्कार की उम्मीद कर सकते हैं, क्योंकि ये लोग सब समस्याओं का समाधान ज्योतिष व जादू से करने का दावा जो करते हैं. हर गलीनुक्कड़ पर इन की दुकानें सजी हुई हैं.
गरीब लोगों का लुटना तकरीबन तय माना जाता है, चाहे वह मालीतौर से गरीब हो या मानसिक रूप से. मानसिक गरीब ज्यादा खतरनाक होते हैं, क्योंकि इन का लूट के अड्डों पर आनाजाना बहुत बड़ी आबादी पर असर डालता है. ये वे अमीर और पढ़ेलिखे लोग होते हैं, जिन्हें देख कर गरीब लोग भी अपना मानसिक आपा खो देते हैं.
साइरस मिस्त्री मंत्रों के बूते टाटा ग्रुप पर कब्जा जमाने की कोशिश करे तो इस का बहुत बड़ा असर पड़ता है, क्योंकि गरीब लोगों के दिमाग में भी यह घर कर जाता है कि शायद तिरुपति के दर्शन से अमिताभ बच्चन इतने बड़े स्टार बने होंगे या श्रीनाथजी को सोने का मुकुट चढ़ाने से ही अंबानी इतने बड़े उद्योगपति बने हैं.
मेरे एक दोस्त हैं. काफी समय बाद उन से मिला तो वे ललाट पर हाथ फेरते हुए कुछ इस तरह बताने लगे, ‘‘मेरा तीसरा नेत्र खुलता है, मैं मोहमाया
से बहुत दूर हो चुका हूं, मैं नौकरी छोड़ कर हरिद्वार जाऊंगा, भजन करूंगा…’’
तभी उन का 12 साल का बेटा पानी का गिलास ले कर आ गया. उस के पीछेपीछे 7 साल की बेटी भी आ गई. मैं बच्चों का मासूम चेहरा देख कर सहम सा गया. इन बच्चों का क्या होगा? था तो मैं भी जल्दी में, लेकिन उन बच्चों की मासूमियत ने मुझे रोक लिया. फिर 3 घंटे तक साइकोथैरेपी का दौर चला. वे दोस्त बिलकुल ठीक हो गए.
धर्म के धंधे का खेल
धर्म के धंधे का खेल समझना है, तो पितृपक्ष श्राद्ध और इस के कर्मकांडों को देखिए. आप को इस से बढि़या केस स्टडी दुनिया के किसी भी कोने में नहीं मिलेगी. ऐसी भयानक रूप से बेवकूफी से भरी बात सिर्फ ‘विश्वगुरु’ भारत के पास ही मिल सकती है.
एक तरफ तो यह माना जाता है कि पुनर्जन्म होता है. मतलब, घर के बुजुर्ग के मरने के बाद अगले जन्म में कहीं पैदा हो गए होंगे, तो दूसरी तरफ यह भी मानेंगे कि वे अंतरिक्ष में लटक रहे हैं और खीरपूरी के लिए तड़प रहे हैं.
अब सोचिए कि अगर पुनर्जन्म होता है, तो अंतरिक्ष में लटकने के लिए वे उपलब्ध ही नहीं हैं? किसी स्कूल में नर्सरी में पढ़ रहे होंगे या मिडडे मील वाले स्कूलों में खिचड़ी खा रहे होंगे.
अगर उन का अंतरिक्ष में लटकना सच है, तो पुनर्जन्म गलत हुआ. लेकिन हमारे पोंगा पंडित दोनों हाथ में लड्डू चाहते हैं, इसलिए मरने के पहले अगले जन्म को सुधारने के नाम पर भी उस आदमी से कर्मकांड करवाएंगे और मरने के बाद उस के बच्चों को पितरों का डर दिखा कर उन से भी खीरपूरी का इंतजाम जारी रखेंगे.
अब मजा यह है कि कोई कहनेपूछने वाला भी नहीं कि महाराज इन दोनों बातों में कोई एक ही सच हो सकती है. उस पर दावा यह कि ऐसा करने से खुशहाली आएगी, लेकिन इतिहास गवाह है कि हजारों साल तक यह सब करने के बावजूद यह देश गरीब और गुलाम बना रहा है. बावजूद इस कि हर घरपरिवार में श्राद्ध का ढोंग बहुत गंभीरता से निभाया जाता है.
हर कदम पर लूट
2 दिन की छुट्टी थी. मथुरा और वृंदावन 2 दिन में घूम सकते हैं. बृजभूमि है… कृष्ण से जुड़ी तमाम लीलाएं… यमुना का तीर… यह सब सोच कर मन में कौतूहल भी था. पर वहां जो देखा और अनुभव किया उस का धर्म और कर्म से कम और छल और छलावे से लेनादेना ज्यादा था.
मथुरा में प्रवेश करते ही खुद को पंडे या गाइड कहने वाले लोग आप को घेर लेंगे. कहेंगे कि महज 551 रुपए में दर्शन कराएंगे. आप की गाड़ी का दरवाजा अगर खुला मिल गया, तो आप के हां या न कहने के पहले आप की गाड़ी में बैठ भी जाएंगे.
दूरदराज से आए और इलाके से अपरिचित लोग आसानी से इन की बातों में आ जाते हैं, लेकिन बाद में पता चलता है कि ये 551 रुपए आप को काफी महंगे पड़ने वाले हैं. दरअसल, यह पूरा रैकेट है. गाइड आप को मंदिर के बाहर तक ले जाता है और अंदर मौजूद किसी पंडित के हवाले कर देता है.
मथुरा में ऐसा ही एक पंडानुमा गाइड हमें मथुरा से गोकुल ले गया, बिना हमें ठीक से बताए कि वह हमें कहां ले जा रहा है. रास्ते में वह कुछ बातें बारबार दोहराता रहा, जैसे गाय को दान देना चाहिए, इस से उद्धार होगा वगैरह.
मंदिर में गाइड ने सब को पंडित के हवाले कर दिया. पंडितजी भी आते ही समझाने लगे कि गाय के नाम पर दान देना कितने पुण्य की बात होती है. तब समझ में आया कि वह गाइड दिमाग में बातें पहले से ही भर रहा था, ताकि पंडितजी की बात मानने में हमें आसानी हो.
यहां तक तो ठीक था. इस के बाद तो पंडितजी ने कमाल ही कर दिया. कहा, पूजा के बाद दान देना होगा. इस ‘दान देना होगा’ में आग्रह नहीं, बल्कि आदेश था. उस पर तुर्रा यह कि दान उन की बताई राशि के अनुसार देना पड़ेगा, जिस में न्यूनतम स्तर तय था. उस से ज्यादा दे पाए तो कहना ही क्या. दान न हुआ मानो इनकम टैक्स हो गया कि न्यूनतम कर देना लाजिमी है. भावनात्मक दबाव बनाने के लिए पंडितजी बोले, ‘‘मंदिर में संकल्प करो कि बाहर दानपात्र में कितने पैसे दोगे, तभी बाहर जाओ.’’
क्या इस के लिए आप के मन में धार्मिक ब्लैकमेल के अलावा कोई शब्द उभरता है? मन दुखी था कि कैसी लूटखसोट है? धार्मिक लूट का रैकेट बना रखा है.
वापस लौटने पर एक सहयोगी ने बताया कि जगन्नाथपुरी जैसी जगहों पर तो हालात इस से भी बुरे हैं. इस तरह ठगने वाले लोग धर्मधर्म में फर्क नहीं करते, क्योंकि एक दोस्त ने बताया कि अजमेर शरीफ व पुष्कर जैसी जगहों पर भी लोगों को कुछ ऐसे ही अनुभवों से गुजरना पड़ता है.
धर्मगुरु और उन के ग्राहक
धर्म एक ऐसा नशा है, अगर सिर पर चढ़ जाए तो आप ऐसे तथाकथित धर्म के वशीभूत हो कर अनेक तरीके से उन तथाकथित निठल्ले बाबाओं के लिए भरपूर सुखसुविधा का इंतजाम खुद
ही करने लग जाते हैं. जैसे दानपुण्य, धार्मिक भवन वगैरह बनाने में पैसे की मदद देना. यहां तक कि धर्म के नाम पर इनसान इनसान की हत्या तक करने के लिए उग्र हो जाते हैं. इस वजह से देश में कई सांप्रदायिक झगड़े और दंगे हो चुके हैं.
क्या कभी आप ने सोचा है कि धार्मिक संगठनों ने समाज का कोई कल्याण किया है आज तक? बात थोड़ी कड़वी है, लेकिन सच है. आज भी हमारे समाज में इतनी गरीबी, अनाथ बच्चे और लाचार लोग क्यों हैं? क्या कभी ऐसे धार्मिक संगठन के लोग अपने समाज की बदहाली के बारे में सोचते हैं? नहीं न?
लेकिन जब आस्था और धर्म की बात आती है, तो हम लोग लोकलिहाज के चलते भी पैसे से मदद करने के लिए तैयार हो जाते हैं. जितने भी धार्मिक संस्थान आप देखते हैं या कोई धार्मिक संगठन आप भारत में देखते हैं, क्या उन के पास दान के अलावा दूसरा कोई आमदनी का जरीया होता है? नहीं न? फिर भी उन के पास पैसे की कोई कमी नहीं होती. जो लोग उन संगठनों के कर्ताधर्ता हैं, क्या आप ने उन्हें फटेहाल देखा है? आखिर सोनेचांदी के सिंहासन पर विराजमान हो कर धर्म का उपदेश देने वाले गरीब कैसे हो सकते हैं? यह सब आप के अंधभक्ति द्वारा दिए गए दान के पैसे से आता है.
इस वजह से आजकल कई ऐसे तथाकथित ढोंगी सीधेसरल लोगों को अपने धार्मिक प्रपंच के मायाजाल में फंसा कर उन से खूब पैसा इकट्ठा करते हैं और अपनेआप को ‘अवतार पुरुष’ तक घोषित कर देते हैं और भोलीभाली धर्मभीरु औरतों का जिस्मानी शोषण तक कर डालते हैं.
पिछले कुछ सालों में इस तरह के कई बाबाओं पर भारतीय दंड संहिता के तहत बलात्कार और हत्या के केस दायर किए गए हैं और वे अपराध साबित भी हुए. पिछले सालों में न जाने कितने फर्जी बाबा पकड़े गए और वे सब जेल की हवा खा रहे हैं.
इस में हम दोष किस को दें? वजह यह है कि हर किसी के अंदर ही भक्ति भरी होती है और जब कोई फर्जी बाबा या फर्जी गुरु दोचार प्रवचन दे देता है, तो लोग उन की ओर खिंच जाते हैं और फिर धीरेधीरे उन के छलप्रपंच मे फंस कर उन के अनुयायी बनने लगते हैं.
धर्म और आस्था के नाम पर मंच से दान देने या सहायता राशि देने की अपील कर दी जाए, तो हर कोई अपनी जेब से कुछ न कुछ जरूर दे ही देता है, जिस से ऐसे संगठनों को आमदनी हो जाती है. फिर ऐसे संगठन घोषणा करते हैं कि अगला प्रोग्राम फलां जगह पर होगा. ऐसे आयोजकों द्वारा पूरे प्लान के साथ भक्तों को बेचने के लिए नईनई चीजों को आयोजन के जरीए बेचा जाता है. इस तरह पूरा कारोबार ही खड़ा किया जाता है.
आज ऐसे कई फर्जी बाबा पैसों के साथसाथ राजनीतिक शक्तियां भी खूब हासिल कर रहे हैं. बड़ेबड़े नेता उन फर्जी बाबाओं के आशीर्वाद भी खूब लेने जाते हैं, ताकि उन से राजनीतिक फायदा लिया जा सके.
आज हमारा देश अगर थोड़ाबहुत तरक्की की ओर आगे बढ़ रहा है, तो इस का क्रैडिट विज्ञान और पढ़ाईलिखाई को दिया जाना चाहिए, न कि अंधभक्ति और तथाकथित बाबाओं को. सच तो यह है कि आज के समय में धर्म का समावेश देश की राजनीति के साथ होना बहुत खतरनाक बात है.