भारतीय रेल यात्रा में जिस तरह से जानमाल का खतरा बना हुआ है और उस के ‘बुरे दिन’ हैं, ऐसे में किसी शायर की ये चंद लाइनें व भाजपा का नारा ‘सब का साथ सब का विकास’ के बजाय ‘स्टाफ का विकास, मुसाफिरों का विनाश’ बहुत मौजूं है.
यहां की रेल व्यवस्था राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और नकारा स्टाफ की वजह से भारी बुरे दौर से गुजर रही है, मगर फिर भी बुलेट ट्रेन चलाए जाने का थोथा शोर है. मुसाफिरों की जान की हिफाजत का कोई खास जोर नहीं है, क्योंकि सरकार और उस के मुलाजिम दोनों मन, कर्म और वचन से चोर हैं.
सरकारी आंकड़े चीख रहे हैं कि रेलवे में होने वाले हादसों में आधे से भी ज्यादा हादसे सिर्फ स्टाफ की लापरवाही से होते हैं, फिर भी सरकार है कि उन कुसूरवार रेल अफसरों, मुलाजिमों पर कोई आपराधिक कार्यवाही करने से बचती रहती है. महज अनुशासनात्मक कार्यवाही कर अगली बार फिर मौत पर मातम मनाती है, आखिर में मौत के मुलाजिमों को छोड़ देती है. यही वजह है कि अब तक स्टाफ की कमी से हुए रेल हादसों में कार्यवाही का कोई बड़ा उदाहरण नहीं दिखा है, जिस से स्टाफ सहमा हो और रेल हादसे रुके हों.
सरकार संसद के भीतर तो यह स्वीकार करती है कि रेल हादसों में रेलवे मुलाजिम कुसूरवार हैं, मगर उन को गिरफ्तार किए जाने, कठोर सजा दिलवाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाती.
ध्यान देने वाली बात यह है कि रेलवे के कुसूरवार अफसरों, मुलाजिमों पर कोई कठोर कार्यवाही न करने के चलते हादसों के साथ इस से होने वाला माली नुकसान भी बढ़ता चला जा रहा है, जो जनता की गाढ़ी कमाई है.