विकासशील देशों के लिए विकसित पश्चिमी देश सपना हैं और पश्चिमी सभ्यता अत्यानुकरणीय. चमकदमक स्वाभाविक रूप से आकृष्ट करती है. जो देखने में सुंदर है, मस्तीभरा है उस की ओर मन अपनेआप खिंचता है. एक कहावत है कि ‘हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती.’ पर जो चमकता है उस में चुंबकीय शक्ति जरूर होती है.
तनावपूर्ण जीवन में मौज के कुछक्षण राहत ही देते हैं. हां, केवल मौज ही जीवन का ध्येय हो जाए तो मुश्किल है. कालेज के जीवन से ही शराब के अलावा और भी तरह के नशे, डेटिंग वगैरह हमारी तरह की प्रगतिशीलता की स्वाभाविक उपलब्धियां हैं. आज का मध्यवर्ग दालरोटी की चिंता में कम घुलता है, पार्टियों में शराब का इंतजाम कैसे हो, इस की चिंता उसे अधिक सताती है.
पश्चिम में मात्र शराब, शोर मचाने वाला संगीत, कूल्हे मटकाने वाला नृत्य और स्त्रीपुरुष के बीच स्वतंत्र संबंध ही नहीं हैं, वहां और भी बहुतकुछ है. हम अपनी पुरातन सभ्यता का राग अलापते पश्चिम के पीछे दौड़ लगा रहे हैं, हमारी समस्त ज्ञानेंद्रियां पश्चिम वालों के वैभव और उन के उन्मुक्त जीवन के प्रति लालायित रही हैं. सतही लहरों से जलाशय की गहराई का पता विरले ही लगा पाते हैं. इसलिए उन की सभ्यता में कहां, क्या अनुकरणीय है, यह जानने के लिए उन के बीच कुछ समय बिताना या उन के बारे में अध्ययन करना जरूरी है और अनुकरण के लिए विवेक की जरूरत है.
‘अतिथि देवो भव:’ हमारी पुरातन सभ्यता का गौरवशाली अंग है जिसे हम आज भी किसी तरह निभा रहे हैं. महंगाई आसमान छू रही है, ऐसे में मेहमान बोझ लगने लगे हैं. फिर भी, मन ही मन कुढ़ते व ऊपर से मुसकराते, आने वाले की आवभगत में कोई कसर नहीं छोड़ते. आज की गृहस्थी, न नौकर, न कोई मदद, ऊपर से रुपए का अवमूल्यन, गृहिणी की चिंताएं शैतान की आंत की तरह अनंत, फिर भी घर आए मेहमान को चाय, नाश्ता, शरबत न पेश किया जाए तो हमारी सभ्यता को ठेस पहुंचती है. खुशी का मौका हो तो कहना ही क्या, हारीबीमारी हो, किसी का हाथपांव टूट गया हो या कोई और मुसीबत आन पड़ी हो, बेटी भाग गई हो या घर में चोरी हो गई हो, संवेदना जताने आए मेहमान को चाय न मिले, ऐसा भी कभी हो सकता है.
इस के ठीक विपरीत पश्चिम में यदि बिना बुलाए आप किसी से मिलने जाते हैं तो आमतौर पर वह पानी तक को नहीं पूछता. पर मुसीबत पड़ने पर एकदूसरे के प्रति पश्चिमवासियों का और हमारा व्यवहार बिलकुल अलग होता है. उदाहरण आप के सामने है.
सीखें मदद का जज्बा
अमेरिका में हमारी भयंकर कार दुर्घटना हुई जिस में चोटें तो सब ही को आईं पर हमारी बेटी, जिस से मिलने हम वहां गए थे, बहुत बुरी तरह घायल हो गई. मेरे पति और मेरी बेटी 6 सप्ताह अस्पताल में पड़े रहे. जब हम अस्पताल से छुट्टी पा कर अपनी बेटी के घर पहुंचे तो सच मानिए गृहस्थी का भार संभालने लायक स्थिति हमसब में से किसी की भी नहीं थी क्योंकि इस भयानक हादसे में मेरी बेटी की आंखों का तारा 3 वर्षीय हंसताखेलता बेटा हम से छिन गया था.
जो भी हो, भारी मन से ही सही, घर के काम तो संभालने ही होते हैं. पर वाह, पश्चिमी समाज, हमारे घर पहुंचते ही सारे पड़ोसी एकएक कर, ठंड और गिरती बर्फ की परवा किए बगैर आ पहुंचे. शायद वे अपनी खिड़कियों से हमारे आने की प्रतीक्षा में आंख लगाए ही बैठे थे. सहानुभूति और संवेदना के शब्दों के स्थान पर मुसकराते हुए छोटा सा ‘वैलकम होम’ और इसी के साथ सारे पड़ोसी 6 सप्ताह से बंद पड़े घर को साफ करने में जुट गए. किसी ने वैक्यूम क्लीनर चालू कर दिया, कोई मैले कपड़े वौश्ंिग मशीन में धोने चल दिया, कुछ ने बिस्तर झाड़े, चादरतकिए के गिलाफ बदले. तभी एक लड़की अपने घर से थर्मस में चाय भर कर ले आई.
हम चाय पी ही रहे थे कि एक अन्य पड़ोसी हमारे लिए खाना ले कर पहुंच गए. हमारे लिए मेज पर प्लेट और कांटाछुरी सजा कर ही वे लोग गए और जातेजाते कह गए कि जब तक आप की बेटी घर का काम संभालने लायक नहीं हो जाती, सप्ताह में हर रोज एक पड़ोसी आ कर वैक्यूम क्लीनिंग कर जाएगा, दूसरा आ कर वौश्ंिग मशीन से कपड़े धो जाएगा. रोज के दोनों वक्त के खाने का बंटवारा भी पड़ोसियों ने आपस में कर लिया. वे तो चायकौफी तक पहुंचाने को तैयार थे पर हमारे बहुत आग्रह से मना करने पर मान गए. इस बीच सहानुभूति का न तो एक शब्द कहा, न ही हमें उदास होने दिया. हां, सप्ताहांत पर जो ‘नेबरहुड न्यूज’ अखबार में हमें छप कर मिला उस में पूरा एक पैराग्राफ इस दुर्घटना के प्रति संवेदना से भरा था.
संवेदना या वेदना
अब देखिए एक और अनुभव. हमारे एक संबंधी की कार दुर्घटनाग्रस्त हुई. कोई घातक चोट किसी को भी नहीं लगी, माना कि एकाध हड्डी टूटी, दोएक जगह कटफट गया, प्लास्टर और टांके लगा कर अस्पताल से छुट्टी मिल गई. दुर्घटना में पति के पैर की हड्डी टूटी थी, पत्नी के दाहिने हाथ में प्लास्टर था और मां की नाक की हड्डी चटख गई थी जिस पर प्लास्टर भी नहीं चढ़ सकता था. जिस मित्र या रिश्तेदार को खबर मिली, खबर अच्छी हो या बुरी, बड़ी तेजी से फैलती है, यदि संकटग्रस्त परिवार से मिलने न आए तो दोस्ती, दुश्मनी में बदल सकती है. इसलिए औपचारिक सहानुभूति का सिलसिला शुरू होता है. ‘उस की माया अपरंपार’, ‘सुखदुख भरा यह संसार’, ‘फिर भी बड़ा भारी संकट टल गया’, ‘बुरे ग्रहों से मुक्ति मिली’ आदि व ऐसे अवसरों पर कहने योग्य जो और भी कुछ कहा जाता है वही सब कहने हर कोई पहुंचा, संवेदना के साथ.
हम भी पहुंचे. ड्राइंगरूम में दीवान पर माताजी अधलेटी अपने दर्द के बीच आसपास बैठी महिलाओं की ‘हाय बेचारी’ और ‘हाय बेचारा’ वाली सहानुभूति ग्रहण करती साहसपूर्वक मुसकराने का प्रयत्न कर रही थीं. पास की कुरसी पर प्लास्टर चढ़ा पांव स्टूल पर धरे पति महोदय शायद 50वीं बार दुर्घटना का ब्योरा दे रहे थे. उन की पत्नी को अनुपस्थित पा मैं ने इधरउधर दृष्टि दौड़ाई. रसोई की ओर से कुछ हलचल सुन मैं वहीं चली गई तो देखती क्या हूं कि बेचारी गृहस्वामिनी बड़े यत्न से बाएं
हाथ से चाय बनाने के प्रयास में जुटी हैं क्योंकि उन के दाहिने हाथ में प्लास्टर है. अधिकतर चाय प्याले के बाहर गिरती देख मैं ने लपक कर केतली संभाल ली और चाय बना कर बाहर बैठे मेहमानों को पकड़ा आई.
ये लोग चाय पी कर गए ही थे कि अन्य मेहमान आ गए और एक हाथ से भाभी कैसे चाय बनाएंगी, इसी चक्कर में 10 मिनट को मिलने आए हम किसी तरह निकल ही नहीं पाए. चाय तो कुछ भी नहीं, गाजियाबाद व फरीदाबाद से मिलने आए रिश्तेदारों को खाना भी चाहिए. सबकुछ निबटा कर ही मेरा लौटना हो सका. मेरे मन में एक प्रश्न कचोटता रहा. आखिर ये रिश्तेदार मन में क्या सोच कर आए थे? मैं न होती तो क्या टूटे हाथ वाली भाभी से खाना बनवाते? और न बनवाने का प्लान था तो क्या इरादा था यह मेरी समझ में कतई नहीं आया क्योंकि इस बीच रसोई में झांकने और भाभी से सहानुभूति जताने तो सब आए पर काम में हाथ बंटाने को कोई आगे नहीं बढ़ा. एकाध ने यह अवश्य कहा, ‘मैं कुछ करवा दूं क्या?’ पर करने को इतना कुछ होते हुए किसी ने कुछ किया नहीं.
दिन का खाना खापी कर वे सब दिल्ली घूमने निकल गए. संवेदना जताने की खानापूरी भी हो गई, ‘अरे तुम क्यों परेशान होती हो’ के साथ मजे से खानापीना भी हो गया, ऊपर से उन्हें दिल्ली दर्शन और खरीदारी का मौका भी मिल गया.
ये दोनों आपबीती, आंखोंदेखी व शतप्रतिशत सत्य घटनाएं हैं. इन दोनों अनुभवों को देख कर क्या आप को भारतीयों और पश्चिमी देशों के लोगों की मानसिकता में फर्क नजर नहीं आता? क्या आप को नहीं लगता कि आवश्यकता भारतीयों की मानसिकता को बदलने की है? क्या इस पाश्चात्य अनुभव में कुछ भी अनुकरणीय नहीं है?
हम पाश्चात्य सभ्यता के पीछे लगे हुए ‘डेटिंग’ से ले कर स्त्रीपुरुष के बिना विवाह साथ रहने के इकरारनामे तक प्रगति कर चुके हैं, हम जो कांटेछुरी से दक्षतापूर्वक खाने को ही सभ्य समाज की पहचान मानने लगे हैं, हम जो अंगरेजी बोलने की क्षमता को ही ऊंचे समाज का प्रवेशपत्र मानते हैं, हम जो देशी ठर्रा पीने वाले को शराबी और व्हिस्की पीने को फैशन मानते हैं, क्या हम एक बहुत ही खोखली सभ्यता की संरचना नहीं कर रहे जिस में न तो भारतीय संस्कृति की उत्कृष्टता है और न ही पश्चिम की अच्छी बातों का अनुकरण.