हमारे देश की यह बलिहारी है की हम अच्छाई में भी बुराई ढूंढ लेते हैं और बुराई में भी अच्छाई. दीपावली का पर्व हर एक दृष्टिकोण से पावन और पवित्र है अंधेरे में भी उजाला इस भारतीय पर्व का निचोड़ है.
मगर दीपावली पर्व में अमावस्या पर तंत्र मंत्र साधना और बलि की कहानियां सच्चे किस्सों में शामिल है तो दूसरी तरफ दीपावली में जुआ खेलना एक ऐसी परंपरा है जो अंधविश्वासों से भरी हुई है कि इस दिन तो जुआ खेलना ही चाहिए. जो यह बताती है कि भारतीय समाज किस तरह आधुनिक युग में भी अंधविश्वास में डूबा हुआ है और इसके लिए आवश्यकता है निचले तबके तक जन जागरूकता अभियान की.
दरअसल दीपावली यह संदेश देती है कि हमें जीवन को उज्जवल कैसे बनाना चाहिए. दूसरी तरफ मुंढ मगज लोगों का एक बहुत बड़ा तबका तरह-तरह के अंधविश्वास में जी रहा है.
चाहे उत्तर प्रदेश हो या बिहार या फिर संपूर्ण देश दीपावली को लेकर के हर समाज और प्रदेश में कुछ गहरे अंधविश्वास फैले हुए हैं.
इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि जब दीपावली में पटाखों के प्रदूषण के कारण उन पर रोक लगाने का आदेश हुआ तो मानो धर्म पर संकट आ गया. हिंदुत्व का सिहासन हिलने लगा.
यह सब देख कर के शर्म आती है कि भारत जैसे महान राष्ट्र में कैसी क्षुद्र बुद्धि के लोग कैसी कैसी बातें प्रसारित करते जाते हैं.
अगर हम बात दक्षिण भारत की करें तो दीपावली के समय दक्षिण भारत की यह परंपरा है जिसका कि कथित तौर पर दाक्षडात्य ब्रित और रावण संहिता नामक शास्त्रों में उल्लेख है कि उल्लू की बलि दिए जाने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं...!
अगर धार्मिक ग्रंथों का ही उदाहरण दिया जाए रामायण चाहे वह वाल्मीकि की हो या तुलसीदास की उनमें भी कुछ ऐसी ऐसी बातें लिखी गई है जो अंधविश्वास को बढ़ावा देती हैं और वैज्ञानिक चेतना से दूर है.

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