उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में दलितों और मुसलिमों के वोट पाने के लिए जम कर भागदौड़ हुई. जो लोग सदियों से इन दोनों जमातों को अछूत, पराया, गरीब, बेसहारा, बेचारा और ध्यान न देने लायक मानते रहे हैं, इन के वोट पाने के लिए दड़बेनुमा, बदबूदार महल्लों में भी गए और गंदी तिरपाल की या फूस की झुग्गी बस्तियों में भी. लेकिन इन नेताओं को दलितों और मुसलिमों के सिर्फ वोट चाहिए थे, उन के भले से इन का कोई मतलब नहीं. इन लोगों की अपनी सी पार्टियां बहुजन समाज पार्टी या आल इंडिया मुसलिम लीग भी अपने माने जाने वाले वोटरों का कल सुधारने की कोई बात नहीं करती दिखीं. हर बार ‘हम तुम्हारे साथ हैं’ जैसे बेमतलबी नारे लगा कर वोट ले लिए जाते हैं और अगले चुनावों तक दलितों को भुला दिया जाता है.

उत्तर प्रदेश के दलित और मुसलिम एक ही सी जातियों से आते हैं. इन्हें सवर्ण हिंदू समाज ने शास्त्रों के कहे के हिसाब से सैकड़ों सालों से नीचा समझा है. जब भी विदेशी लोगों ने राज किया, इन पर अत्याचार कम हुए, पर जहां अपने लोगों का राज हुआ, इन्हें जोरजबरदस्ती का सामना करना पड़ा.

सदियों की गुलामी का हाल यह है कि आज उत्तर प्रदेश ही नहीं, दूसरी जगह का भी दलित या मुसलिम सिर उठा कर चलने में घबराता है. जिन्हें आरक्षण के कारण कुछ नौकरियां मिल गईं, वे भी अपनी जमातों के लिए लंबाचौड़ा जागरण नहीं कर पा रहे. जो आगे निकल गया, उसे हर समय डर लगा रहता है कि ऊंची जमातें उसे फिर जंजीरें न पहना दें. आम दलित को तो लगता है कि उस के गले में आज भी तख्ती लटकी है कि वह पाप योनि का है. चुनाव हों या न हों, उस के दिनों पर कुछ असर नहीं पड़ रहा है.

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