‘पद्मावती’ फिल्म को ले कर खड़ा किया विवाद अब थम जाएगा, क्योंकि एक तो ‘पद्मावती’ को रिलीज करने की तारीख बदल दी गई है और दूसरे, भारतीय जनता पार्टी गुजरात चुनावों में व्यस्त हो गई है. ‘पद्मावती’ को भाजपाई, भगवाई कट्टरों ने गुजरात में कट्टरपंथियों को एकजुट करने के लिए उकसाया था, जैसे 1991 में राममंदिर के नाम पर देशभर को उकसाया गया था. पहले जहां मुसलमान निशाने पर होते थे, इस बार भंसाली, दीपिका पादुकोण और रणवीर सिंह निशाने पर हैं.

राजपूती शान का नाम ले कर जो हल्ला मचाया गया वह निरर्थक व निरुद्देश्य था. फिल्म चाहे कोई भी, कैसा भी विषय हो, इस पर विवाद करना निरर्थक ही होता है. फिल्म बनाने पर कोई आपत्ति खड़ी करने का हक किसी को नहीं दिया जा सकता क्योंकि बनने के बाद अगर फिल्म से सहमत न हों तो उसे न देखने का हक हर किसी के पास है. फिल्मों के निर्माण पर इतना पैसा और इतनी मेहनत लगती है कि उस के न चलने का जोखिम हर कोई नहीं लेना चाहेगा.

फिल्मों को निशाना बनाना असल में नई सोच वालों पर अंकुश लगाना है. सरकार और धर्म के ठेकेदार नहीं चाहते कि फिल्मों या किताबों के जरिए कोई सच सामने आए या किसी सच की पोल खोली जाए. वे उसे देखने का हक छीनने की कोशिश करते हैं. फिल्म केवल निर्मातानिर्देशक का अपनी बात कहने का जरिया होती है. इस पर अंकुश लगाना वैसा ही है जैसा किसी हिंदू युवा का किसी मुसलिम युवती से विवाह करने की पेशकश करना.

नएपन से घबराने की कोशिश हर पुरानी सोच वाला करता है क्योंकि इसी में उस की शक्ति होती है. प्रौढ़ और वृद्ध कुछ भी, कहीं भी नया नहीं चाहते, क्योंकि उन्हें लगता है इस से कहीं उन का एकछत्र राज हिल न जाए. राजपूती गौरव की हांकने वालों को यह लग रहा था कि ‘पद्मावती’ में कुछ ऐसे राज न खुल जाएं जो राजपूती शौर्य और वीरता की पोल खोलते हैं. इतिहास को खंगालें तो यह बात साफ हो जाती है कि राजपूती आनबानशान के कसीदे फालतू में कढ़े जाते हैं वरना वे आम लोगों की तरह ही हैं जिन का समाज, रीतिरिवाजों, सोच, साहित्य, परंपराओं में गलत ज्यादा है सही कम, पर उन्होंने हल्ला कुछ ज्यादा मचा रखा है.

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