मुंबई में मूसलाधार बारिश का कहर हो, राम रहीम को ले कर पंचकूला का दंगा हो, गोरखपुर के अस्पताल में बच्चों की मौतें हों, शहरों की गंदगी हो, चारों ओर अस्तव्यस्तता हो, इन सब से यह लगता है हमें शहरों में जीना न आया है और न ही हम सीख रहे हैं. नरेंद्र मोदी का शौचालय व स्वच्छ अभियान अच्छा प्रयास था पर ज्यादातर लोगों ने इसे संजय गांधी की नसबंदी का सा सरकारी कार्यक्रम मान कर फोटो खिंचवाया और इसे छोड़ दिया.

हम अभी भी शहरों में रहने लायक नहीं हुए हैं. शहरी जीवन के सामान्य तौरतरीके हमें नहीं आते. जो जमीन अपनी नहीं है वह सब की है, यह मूल सिद्घांत तक हम नहीं समझ पा रहे हैं. जो सब का है उस पर कोई भी कब्जा कर ले, कोई भी कूड़ा फेंक दे, कोई भी सामान रख दे, कोई भी आड़ीतिरछी गाडि़यां खड़ी कर दे, इसे हम अपना हक मानते हैं. कौर्पोरेशन नाम की कोई संस्था है, यह हमें मालूम ही नहीं क्योंकि वह दिखती भी नहीं है.

शहर में रहने का मतलब है कि थोड़ी सी जगह में सब हिलमिल कर रहें. अपनी सुविधाओं के साथ दूसरों की समस्याओं का भी खयाल रखना होता है. लेकिन हमें लगता है कि हमारे पास पैसे या जगह कम है तो दूसरों का फर्ज बनता है कि वे हमारे जरिए पैदा हुईं असुविधाओं को सहें.

मुंबई में इस साल बारिश में फिर कहर इसलिए बरपा क्योंकि पूरे साल मुंबई वाले इस की तैयारी करते हैं. नालियां बंद करते हैं. नालों को घर बनाते हैं. मकानों के कूड़े से नदियों को भरते हैं. सीवर साफ नहीं कराते. छतों, छज्जों पर सामान भरते हैं जो बरसात में बह कर सड़कों पर आ जाता है. सीवरों के ढक्कन चुरा लेते हैं. वे टूट जाएं तो ठीक कराने के लिए संबंधित विभाग का दरवाजा नहीं खटखटाते.

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