गुजरात चुनाव ने जो घाव चुनावी भाषा पर छोड़े हैं उन का नासूर सालों तक रहेगा. हारजीत किसी की भी हो, शब्द जो दोनों तरफ से बोले गए, गंभीर थे क्योंकि इन्हें बोलने वाले एक तरफ नरेंद्र मोदी और उन के सहयोगी व दूसरी तरफ कांग्रेस के कई नामी नेता थे. सड़कछाप नेता तो हर चुनाव में असभ्य बोल बोलते ही रहते हैं.
सोशल मीडिया ने छोटीछोटी बातों को खूब उछाला. टीवी ऐंकरों ने कागजों से बेबात के मुद्दे निकाल कर इतना दोहराए कि मानो वे कहीं अशोक की लाट पर लिखे शब्द हों. चुनावी भाषणों का स्तर हमेशा ही नीचा होता है पर चूंकि प्रधानमंत्री ने न केवल हर अपशब्द को लपक लिया, बल्कि उस पर और गंद जमा कर वापस फेंक दिया. यह चाहे चुनावी तिकड़म हो, पर यह मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह व अमेरिकी चुनावों की तरह दुर्गंध छोड़ गई है.
चुनावों में जीत की छटपटाहट लगभग अद्भुत थी और हर नेता तनाव में था. राहुल गांधी ने लगातार आक्रमण कर के और गुड्स एवं सर्विसेज टैक्स को गब्बर सिंह टैक्स कह कर एक गंभीर मामले को सड़क पर लाने का काम किया तो प्रधानमंत्री ने बेपर की पाकिस्तानी सुपारी की बात कह डाली और खुद को गुजरात की अस्मिता का इकलौता नमूना घोषित कर डाला. अगर कभी ‘इंदिरा इज इंडिया’ कहा गया तो नरेंद्र मोदी ने खुद नरेंद्र मोदी ही गुजरात है जैसा घोषित कर दिया, जिस की देखादेखी उन के प्रवक्ता संबित पात्रा ने नरेंद्र मोदी को देश का बाप घोषित कर डाला.
गलीछाप औरतों की सी तूतूमैंमैं, जिस में 3 पीढि़यों का इतिहास उधेड़ा गया, विशाल पंडालों और स्क्रीनों से हुईं. गनीमत यह रही कि राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी का आमनासामना अमेरिकी व यूरोपीय चुनावी परंपरा के अनुसार नहीं हुआ वरना शायद दोनों हाथापाई तक पर उतर आते.