सुखेंदु दास और रीता मुखर्जी पतिपत्नी तो थे ही, दोनों न्यायाधीश भी थे. उन का काम दूसरों के मामले सुलझाने का था. पर अफसोस, उन्होंने अपना विवाद सुलटाने में 17 साल लगा दिए और वह भी तब सुलटा जब सुप्रीम कोर्ट ने रीता मुखर्जी की गैरहाजिरी में 24 साल की बेटी के पिता के मां से तलाक होने पर मुहर लगा दी जो 17 वर्षों से अलग रह रही थीं.

उन दोनों का विवाह प्रेमविवाह ही था क्योंकि दोनों ने स्पैशल मैरिज एक्ट में विवाह किया था जिस में या तो भागे हुए प्रेमीप्रेमिका विवाह करते हैं या अलग धर्मों के. 1993 के विवाह से एक बेटी पैदा हुई पर 2000 आने तक दोनों के संबंध में खटास पैदा हो गई और पत्नी घर छोड़ कर चली गईं. सुखेंदु दास ने जज पत्नी के खिलाफ दूसरी अदालत में गुहार लगाई. पर 2009 के फैसले में अदालत ने तलाक नहीं होने दिया.

उच्च न्यायालय ने भी अर्जी खारिज कर दी पर उस अदालत में रीता मुखर्जी न हाजिर हुईं, न उन का वकील आया. तब तक दोनों की नियुक्तियां अलगअलग शहरों में हो रही थीं. 2012 के फैसले में भी उच्च न्यायालय ने तलाक मंजूर नहीं किया जबकि दोनों ही 2000 से अलग रह रहे थे.

सुखेंदु दास को हार कर सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा. वहां 2017 में उन्हें न्याय मिला और सुप्रीम कोर्ट ने इसी बात को घर छोड़ना यानी डैजर्शन मान लिया कि पत्नी अदालतों में भी खुद या वकील के माध्यम से पेश नहीं हुई.

तलाक के मामलों में एक पक्ष के जिद पर उतर आने पर मामला, महीनों नहीं, वर्षों तक अदालतों की धूल चाटता रहता है. यह हमारे विवाह कानून की सब से बड़ी ट्रैजिडी है. शायद हमारी अदालतों को लगता है कि तलाक आसानी से दे देंगे तो हिंदू संस्कारों का जनाजा निकल जाएगा जहां विवाह को देवत--?ाओं की उपस्थिति में सात जन्मों का बंधक माना जाता है. असल में विवाह भी एक समझौता मात्र है और यदि एक पक्ष न माने तो दूसरा कुछ ज्यादा नहीं कर सकता.

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