देश की राजनीति बड़े उबाऊ दौर से गुजर रही है, जिससे लगता ऐसा है कि अब गाय, दलित और नव राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों से सभी ने समझौता कर एक बड़े बहुमत वाली सरकार के सामने घुटने टेक दिये हैं. हताश बसपा प्रमुख मायावती राज्यसभा से इस्तीफा देकर लखनऊ लौट गईं हैं, ममता बनर्जी की दहाड़ रिरियाहट में बदलती जा रही है, लालू यादव अपने कुनबे को लेकर चिंतित हैं तो मुलायम सिंह भगवा खेमे की शरण में हैं. और तो और बात बात पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की उद्योगपतियों से सांठ गांठ को हवा देकर विपक्षी चूल्हे में आंच बनाए रखने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के कहीं अते पते नहीं हैं. वे आखिरी बार कब क्या बोले थे शायद ही किसी को याद हो.
लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका एक सचेतक की होती है, जिसे कम से कम केजरीवाल तो प्रभावी ढंग से निभा रहे थे. जिन लोगों को केजरीवाल का बोलना खटकता था, वे तक उनकी हैरान कर देने वाली सियासी गुमशुदगी पर सकते में हैं. राजनीति की रंगीन मसालेदार फिल्म को ब्लेक एंड व्हाइट डाक्यूमेंटरी में तब्दील होते देखना जरूर यह एहसास कराता है कि कहीं सचमुच तो आपातकाल नहीं लग गया. अरविंद केजरीवाल की खामोशी रहस्यमयी इस लिहाज से भी है कि बीते दिनों कई ऐसी घटनाएं और हादसे हो गए जिन पर अपना मुंह सिल पाना उनके लिए असंभव सी बात थी. किसान आंदोलन पर वे चुप रहे, रामनाथ कोविंद की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के पेंच पर भी वे खामोश रहे और तो और जीएसटी लागू हो जाने जैसे अहम मुद्दे पर भी उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.