क्यों का प्रश्न नहीं : भाग 3

‘17 साल की उम्र में फौज में गया तो वहां भी इस क्यों ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा. सही होता तो भी क्यों का प्रश्न किया जाता और सही न होता तो भी. 11 साल तक तन, मन, धन से घर वालों की सेवा की. परिवार छूटते समय मेरे समक्ष फिर यह क्यों का प्रश्न था कि मैं ने अपने लिए क्यों कुछ बचा कर नहीं रखा. तुम से शादी हुई, पहली रात तुम्हें कुछ दे नहीं पाया, मुझे पता ही नहीं था कि कुछ देना होता है. पता होता भी तो दे नहीं पाता. मेरे पास कुछ था ही नहीं. 2 महीने की छुट्टी में मिले पैसे से मैं ने शादी की थी. मैं तुम्हें सब कैसे बताता और तुम क्यों सुनतीं? बताने पर शायद कहतीं, ऐसा था तो शादी क्यों की?

‘‘तुम्हारे समक्ष मेरी इमेज क्या थी? मैं बड़ी अच्छी तरह जानता हूं. तुम ने इस इमेज को कभी सुधरने का मौका नहीं दिया, अफसर बनने पर भी. उलटे मुझे ही दोष देती रहीं. तुम्हारे रिश्तेदार मेरे मुंह पर मुझे आहत कर के जाते रहे, कभी तुम ने इस का विरोध नहीं किया. मुझे याद है, तुम्हारी बहन रचना की नईनई शादी हुई थी. रचना और उस के पति को अपने यहां बुलाना था. तुम चाहती थीं, शायद रचना भी चाहती थी कि इस के लिए मैं उस के ससुर को लिखूं.

‘‘मैं ने साफ कहा था, मेरा लिखना केवल उस के पति को बनता है, उस के ससुर को नहीं. जैसे मैं साहनी परिवार का दामाद हूं, वैसे वह है. मैं उस का ससुर नहीं हूं. बात बड़ी व्यावहारिक थी परंतु तुम ने इस को अपनी इज्जत का सवाल बना लिया था. मन के भीतर अनेक क्यों के प्रश्न होते हुए भी मैं तुम्हारे सामने झुक गया था. मैं ने इस के लिए उस के ससुर को लिखा था.

‘‘जीवन में तुम ने कभी मेरे साथ समझौता नहीं किया. हमेशा मैं ने वह किया जो तुम चाहती थीं. रचना और उस का पति आए तो मिलन के लिए वे रात तक इंतजार नहीं कर सके थे. हमें दिन में ही उन के लिए एकांत का प्रबंध करना पड़ा. मुझे बहुत बुरा लगा था.

‘‘मैं समझ नहीं पाया था कि ऐसा कर के वे हमें क्या बताना चाहते थे? यदि हम उन के यहां जाते तो क्या वे ऐसा कह और कर सकते थे?

‘‘तुम्हें याद होगा, अपनी सीमा से अधिक हम ने उन को दिया था. रचना ने क्या कहा था, वह अपने ससुराल में अपनी ओर से इतना और कह देगी कि यह दीदीजीजाजी ने दिया है. जिस का साफ मतलब था कि जो कुछ दिया गया है, वह कम था. मैं मन से बड़ा आहत हुआ था.

‘‘रचना को इस प्रकार आहत करने, बेइज्जत करने और इस कमी का एहसास दिलाने का कोई हक नहीं था. मैं ने तुम्हारी ओर देखा था, शायद तुम इस प्रकार उत्तर दो पर तुम्हें अपने रिश्तेदारों के सामने मेरे इस प्रकार आहत और बेइज्जत होने का कभी एहसास नहीं हुआ.

‘‘क्यों, मैं इस का उत्तर कभी ढूंढ़ नहीं पाया. रचना को मैं ने उत्तर दिया था, ‘तुम्हें कमी लगी थी तो कह देतीं, जहां इतना दिया था, वहां उसे भी पूरा कर देते पर तुम्हें इस कमी का एहसास दिलाने का कोई अधिकार नहीं था. तुम अपने ससुराल में अपनी और हमारी इज्जत बनाना चाहती थीं न? मजा तब था कि बिना एहसास दिलाए इस कमी को पूरा कर देतीं. पर इस झूठ की जरूरत क्या है? क्या इस प्रकार तुम हमारी इज्जत बना पातीं? मुझे नहीं लगता, क्योंकि झूठ, झूठ ही होता है. कभी न कभी खुल जाता. उस समय तुम्हारी स्थिति क्या होती, तुम ने कभी सोचा है?’

‘‘रचना मेरे इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाई थी. जो बात तुम्हें कहनी चाहिए थी, उसे मैं ने कहा था. उन के जाने के बाद कई दिनों तक तुम ने मेरे साथ बात नहीं की थी. उस रोज तो हद हो गई थी जब मैं अपने एक रिश्तेदार की मृत्यु पर गया था. वे केवल मेरे रिश्तेदार नहीं थे बल्कि उन के साथ तुम्हारा भी संबंध था. उन्होंने किस तरह मुझ से तुम्हारे ब्याह के लिए प्रयत्न किया था, तुम भूल गईं. उसी परिवार ने बाऊजी के मरने पर भी सहयोग किया था.

‘‘वहां मुझ से 500 रुपए खर्च हो गए थे. उस के लिए तुम ने किस प्रकार झगड़ा किया था, कहने की जरूरत नहीं है. तुम ने तो यहां तक कह दिया था कि तुम मेरे पैसे को सौ जूते मारती हो. मेरे पैसे को सौ जूते मारने का मतलब मुझे भी सौ जूते मारना.

‘‘मैं तुम्हारे किन रिश्तेदारों की मौत के सियापे करने नहीं गया. उन्हीं रिश्तेदारों ने माताजी के मरने पर आना तो दूर, किसी ने फोन तक नहीं किया. किसी को डिप्रैशन था, किसी के घुटनों में दर्द था. तुम्हारी भाषा की कड़वाहट आज भी भीतर तक कड़वाहट से भर देती है. पर अब इन सब बातों का क्या फायदा? मैं तो केवल इतना जानता हूं कि आप लोगों के सामने मैं हमेशा गरीब बना रहा. किसी बाप को गरीब नहीं होना चाहिए. गरीब हो तो उस में ताने सुनने की ताकत होनी चाहिए. अगर सुनने की ताकत न हो तो उस की हालत घर के कुत्ते से भी बदतर होती है.

‘‘घर के कुत्ते को जितना मरजी दुत्कारो, वह घर की ओर ही आता है. घर को छोड़ कर न जाना उस की मजबूरी होती है. यह मजबूरी जीवनभर चलती है. काश, मैं पहले ही घर को छोड़ कर चला आया होता. मैं खुद ही अपने आत्मसम्मान को रख नहीं पाया था. यदि ऐसा करता तो मेरे उन कर्मों का क्या होता जो मुझे हर हाल में भुगतने थे.’’

‘‘गलतियां हुई हैं, मैं मानती हूं. क्या इन सब को भूल कर आगे की जिंदगी अच्छी तरह से नहीं जी जा सकती,’’ इतनी देर से चुप मेरी पत्नी ने कहा.

‘‘हर रोज यही कोशिश करता हूं कि सब भूल जाऊं. भूल जाऊं कि जिंदगी के हर मोड़ पर मुझे लताड़ा गया है. हर कदम पर मैं ने आत्मसम्मान को खोया है. भूल जाऊं कि हर गलती के लिए मुझे ही दोषी ठहराया जाता रहा है. चाहे वह सोफे के खराब होने की बात हो या कुरसियों के टूटने की. मैं कैसे कहता कि ये बच्चों की उछलकूद से हुआ है. अगर कहता भी तो इसे कौन मानता.

‘‘मैं ने बड़ी मुश्किल से अपनेआप को संभाला है, अपने ढंग से जिंदगी को सैट किया है. चाहे पहले की यादें मुझे हर रोज पीडि़त करती हैं तो भी मुझे यहां राजी के साथ से कोई एतराज नहीं है परंतु इसे अपनी जिंदगी के दिन दूसरे कमरे में गुजारने होंगे. इस की पूरी सेवा होगी. इस की सारी जरूरतों का ध्यान रखा जाएगा. इस की तकलीफों के बारे में हर रोज पूछा जाएगा और इलाज करवाया जाएगा. इस ने चाहे मुझे हजार रुपया महीना देना स्वीकार न किया हो पर मैं इसे 5 हजार रुपए महीना दूंगा.

‘‘24 घंटे टैलीफोन इस के सिरहाने रहेगा, चाहे जिस से बात करे. पर मेरे जीवन में इस का कोई दखल नहीं होगा. मैं कहां जाता हूं, क्या करता हूं, इस पर कोई क्यों का प्रश्न नहीं होगा. मुझे कोई भी फौरमैलिटी बरदाश्त नहीं होगी. बस, इतना ही.’’

वे दोनों चुप रहे. शायद उन को मेरी बातें मंजूर थीं. मैं ने बेबे से कह कर राजी का सामान दूसरे कमरे में रखवा दिया.

 

क्यों का प्रश्न नहीं : भाग 2

‘अब इस का क्या फायदा. तब तो मैं कहता ही रह गया था कि मैं ने ऐसा कुछ नहीं किया. मैं ऐसा कर ही नहीं सकता था, पर किसी ने मेरी एक न सुनी. किस प्रकार आप सब ने मुझे धक्के दे कर घर से बाहर निकाला, मुझे कहने की जरूरत नहीं है. मैं आज भी उन धक्कों की, उन दुहत्थड़ों की पीड़ा अपनी पीठ पर महसूस करता हूं. मैं इस पीड़ा को कभी भूल नहीं पाया. भूल पाऊंगा भी नहीं.

‘‘मुझे आज भी सर्दी की वह उफनती रात याद है. बड़ी मुश्किल से कुछ कपड़े, फौज के डौक्यूमैंट, एक डैबिट कार्ड, जिस में कुछ रुपए पड़े थे, घर से ले कर निकला था. बाहर निकलते ही सर्दी के जबरदस्त झोंके ने मेरे बूढ़े शरीर को घेर लिया था. धुंध इतनी थी कि हाथ को हाथ दिखाई नहीं देता था. सड़क भी सुनसान थी. दूरदूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा था. रात, मेरे जीवन की तरह सुनसान पसरी पड़ी थी. रिश्तों के टूटन की कड़वाहट से मैं निराश था.फिर मैं ने स्वयं को संभाला और पास के

एटीएम से कुछ रुपए निकाले. अभी सोच ही रहा था कि मुख्य सड़क तक कैसे पहुंचा जाए कि पुलिस की जिप्सी बे्रक की भयानक आवाज के साथ मेरे पास आ कर रुकी. उस में बैठे एक इंस्पैक्टर ने कहा, ‘क्यों भई, इतनी सर्द रात में एटीएम के पास क्या कर रहे हो? कोई चोरवोर तो नहीं हो?’ मैं पुलिस की ऐसी भाषा से वाकिफ था.

‘‘‘नहीं, इंस्पैक्टर साहब, मैं सेना का रिटायर्ड कर्नल हूं. यह रहा मेरा आई कार्ड. इमरजैंसी में मुझे कहीं जाना पड़ रहा है. एटीएम से पैसे निकालने आया था. मुख्य सड़क तक जाने के लिए कोई सवारी ढूंढ़ रहा था कि आप आ गए.’

‘‘‘घर में सड़क तक छोड़ने के लिए कोई नहीं है?’ इंस्पैक्टर की भाषा बदल गई थी. वह सेना के रिटायर्ड कर्नल से ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता था.

‘‘‘नहीं, यहां मैं अकेले ही रहता हूं,’ मैं कैसे कहता, घर से मैं धक्के दे कर निकाला गया हूं.

‘‘इंस्पैक्टर ने कहा, ‘आओ साहब, मैं आप को सड़क तक छोड़ देता हूं.’ उन्होंने न केवल सड़क तक छोड़ा बल्कि स्टेशन जाने वाली बस को रोक कर मुझे बैठाया भी. ‘जयहिंद’ कह कर सैल्यूट भी किया, कहा, ‘सर, पुलिस आप की सेवा में हमेशा हाजिर है.’ कैसी विडंबना थी, घर में धक्के और बाहर सैल्यूट. जीवन की इस पहेली को मैं समझ नहीं पाया था.

‘‘स्टेशन पहुंच कर मैं सैनिक आरामगृह में गया. वहां न केवल मुझे कमरा मिला बल्कि नरमगरम बिस्तर भी मिला. तुम्हारे जैसे हृदयहीन लोग इस बात का अनुमान ही नहीं लगा सकते कि उस ठिठुरती रात में बेगाने यदि मदद नहीं करते तो मेरी क्या हालत होती. मैं खुद के जीवन से त्रस्त था. मन के भीतर यह विचार दृढ़ हो रहा था कि ऐसी स्थिति में मैं कैसे जी पाऊंगा. मन में यह विचार भी था, मैं एक सैनिक हूं. मैं अप्राकृतिक मौत मर ही नहीं सकता. मैं डेरे में पनाह मिलने के प्रति भी अनिश्चित था. पर डेरे ने मुझे दोनों हाथों से लिया. पैसे की तंगी ने मुझे बहुत तंग किया. डेरे के लंगर में खाते समय मुझे जो आत्मग्लानि होती थी, उस से उबरने के लिए मुझे दूरदूर तक कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. आप ने मुझे मेरी पैंशन में से हजार रुपया महीना देना भी स्वीकार नहीं किया तो मेरे पास इस के अलावा और कोई चारा नहीं था कि पहले का पैंशन डेबिट कार्ड कैंसिल करवा कर नया कार्ड इश्यू करवाऊं. मेरे जीतेजी पैंशन पर केवल मेरा अधिकार था.

‘‘मैं जीवनभर ‘क्यों’ के प्रश्नों का उत्तर देतेदेते थक गया हूं. बचपन में, ‘खोता हो गया है, अभी तक बिस्तर में शूशू क्यों करता हूं? अच्छा, अब फैशन करने लगा है. पैंट में बटन के बजाय जिप क्यों लगवा ली? अरे, तुम ने नई पैंट क्यों पहन ली? मौडल टाउन में मौसी के यहां दरियां देने ही तो जाना है. नई पैंट आनेजाने के लिए क्यों नहीं रख लेता? चल, नेकर पहन कर जा.’

‘‘काश, उस रोज मैं नेकर पहन कर न गया होता. मैं अभी भंडारी ब्रिज चढ़ ही रहा था कि साइकिल पर आ रहे लड़के ने मुझे रोका. ‘काम करोगे?’ मुझे उस की बात समझ नहीं आई, इसलिए मैं ने पूछा था, ‘कैसा काम?’ ‘घर का काम, मुंडू वाला.’ उस ने मेरे हुलिए, बिना प्रैस किए पहनी कमीज, बिना कंघी के बेतरतीब बाल, ढीली नेकर, कैंची चप्पल, बगल में दरियां उठाए किसी घर में काम करने वाला मुंडू समझ लिया था.

‘‘मैं ने उसे कहा था, ‘नहीं, मैं ने नहीं करना है, मैं 7वीं में पढ़ता हूं.’ फिर उस ने कहा था, ‘अरे, अच्छे पैसे मिलेंगे. खाना, कपड़ा, रहने की जगह मिलेगी. तुम्हारी जिंदगी बन जाएगी.’ जब मैं ने उसे सख्ती से झिड़क कर कहा कि मैं पढ़ रहा हूं और मुझे मुंडू नहीं बनना है तब जा कर उस ने मेरा पीछा छोड़ा था. बाद में शीशे में अपना हुलिया देखा तो वह किसी मुंडू से भी गयागुजरा था. मेरे कपड़े ऐसे क्यों थे? मेरे पास इस का भी उत्तर नहीं था. बाऊजी के अतिरिक्त सभी मेरा मजाक उड़ाते रहे.

‘‘मेरे दूसरे उपनामों के साथ ‘मुंडू’ उपनाम भी जुड़ गया था. उस भाई से कभी ‘क्यों’ का प्रश्न नहीं पूछा गया जो गली की एक लड़की के लिए पागल हुआ था. अफीम खा कर उस की चौखट पर मरने का नाटक करता रहा. गली में उसे दूसरी चौखट मिलती ही नहीं थी. उस बहन से भी कभी क्यों का प्रश्न नहीं पूछा गया जो संगीत के शौक के विपरीत लेडी हैल्थविजिटर के कोर्स में दाखिला ले कर कोर्स पूरा नहीं कर सकी, पैसा और समय बरबाद किया और परिवार को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया. उस भाई से भी क्यों का प्रश्न नहीं किया गया जो पहले नेवी में गया. छोड़ कर आया पढ़ने लगा, किसी बात पर झगड़ा किया तो फौज में चला गया. वहां बीमार हुआ, फौज से छुट्टी हुई, फिर पढ़ने लगा. पढ़ाई फिर भी पूरी नहीं की. सब से छोटे ने तो परिवार की लुटिया ही डुबो दी. मैं ने बाऊजी को चुपकेचुपके रोते देखा था. मैं पढ़ने में इतना तेज नहीं था. मुझ पर प्रश्नों की बौछार लगा दी जाती. पढ़ना नहीं आता तो इस में पैसा क्यों बरबाद कर रहे हो? इस क्यों का उत्तर उस समय भी मेरे पास नहीं था और आज भी नहीं है.

बच्चे की चाह में : भौंरा ने कैसे सिखाया सबक

भौंरा की शादी हुए 5 साल हो गए थे. उस की पत्नी राजो सेहतमंद और खूबसूरत देह की मालकिन थी, लेकिन अब तक उन्हें कोई औलाद नहीं हुई थी. भौंरा अपने बड़े भाई के साथ खेतीबारी करता था. दिनभर काम कर के शाम को जब घर लौटता, सूनासूना सा घर काटने को दौड़ता.

भौंरा के बगल में ही उस का बड़ा भाई रहता था. उस की पत्नी रूपा के 3-3 बच्चे दिनभर घर में गदर मचाए रखते थे. अपना अकेलापन दूर करने के लिए राजो रूपा के बच्चों को बुला लेती और उन के साथ खुद भी बच्चा बन कर खेलने लगती. वह उन्हीं से अपना मन बहला लेती थी.

एक दिन राजो बच्चों को बुला कर उन के साथ खेल रही थी कि रूपा ने न जाने क्यों बच्चों को तुरंत वापस बुला लिया और उन्हें मारनेपीटने लगी.

उस की आवाज जोरजोर से आ रही थी, ‘‘तुम बारबार वहां मत जाया करो. वहां भूतप्रेत रहते हैं. उन्होंने उस की कोख उजाड़ दी है. वह बांझ है. तुम अपने घर में ही खेला करो.’’

राजो यह बात सुन कर उदास हो गई. कौन सी मनौती नहीं मानी थी… तमाम मंदिरों और पीरफकीरों के यहां माथा रगड़ आई, बीकमपुर वाली काली माई मंदिर की पुजारिन ने उस से कई टिन सरसों के तेल के दीए में मंदिर में जलवा दिए, लेकिन कुछ नहीं हुआ.

बीकमपुर वाला फकीर जबजब मंत्र फुंके हुए पानी में राख और पता नहीं कागज पर कुछ लिखा हुआ टुकड़ा घोल कर पीने को देता. बदले में उस से 100-100 के कई नोट ले लेता था. इतना सब करने के बाद भी उस की गोद सूनी ही रही… अब वह क्या करे?

राजो का जी चाहा कि वह खूब जोरजोर से रोए. उस में क्या कमी है जो उस की गोद खाली है? उस ने किसी का क्या बिगाड़ा है? रूपा जो कह रही थी, क्या सचमुच उस के घर में भूतप्रेत रहते हैं? लेकिन उस के साथ तो कभी ऐसी कोई अनहोनी घटना नहीं घटी, तो फिर कैसे वह यकीन करे?

राजो फिर से सोच में डूब गई, ‘लेकिन रूपा तो कह रही थी कि भूतप्रेत ही मेरी गोद नहीं भरने दे रहे हैं. हो सकता है कि रूपा सच कह रही हो. इस घर में कोई ऊपरी साया है, जो मुझे फलनेफूलने नहीं दे रहा है. नहीं तो रूपा की शादी मेरे साथ हुई थी. अब तक उस के 3-3 बच्चे हो गए हैं और मेरा एक भी नहीं. कुछ तो वजह है.’

भौंरा जब खेत से लौटा तो राजो ने उसे अपने मन की बात बताई. सुन कर भौंरा ने उसे गोद में उठा लिया और मुसकराते हुए कहा, ‘‘राजो, ये सब वाहियात बातें हैं. भूतप्रेत कुछ नहीं होता. रूपा भाभी अनपढ़गंवार हैं. वे आंख मूंद कर ऐसी बातों पर यकीन कर लेती हैं. तुम चिंता मत करो. हम कल ही अस्पताल चल कर तुम्हारा और अपना भी चैकअप करा लेते हैं.’’

भौंरा भी बच्चा नहीं होने से परेशान था. दूसरे दिन अस्पताल जाने के लिए भाई के घर गाड़ी मांगने गया. भौंरा के बड़े भाई ने जब सुना कि भौंरा राजो को अस्पताल ले जा रहा है तो उस ने भौंरा को खूब डांटा. वह कहने लगा, ‘‘अब यही बचा है. तुम्हारी औरत के शरीर से डाक्टर हाथ लगाएगा. उसे शर्म नहीं आएगी पराए मर्द से शरीर छुआने में. तुम भी बेशर्म हो गए हो.’’

‘‘अरे भैया, वहां लेडी डाक्टर भी होती हैं, जो केवल बच्चा जनने वाली औरतों को ही देखती हैं,’’ भौंरा ने समझाया.

‘‘चुप रहो. जैसा मैं कहता हूं वैसा करो. गांव के ओझा से झाड़फूंक कराओ. सब ठीक हो जाएगा.’’

भौंरा चुपचाप खड़ा रहा.

‘‘आज ही मैं ओझा से बात करता हूं. वह दोपहर तक आ जाएगा. गांव की ढेरों औरतों को उस ने झाड़ा है. वे ठीक हो गईं और उन के बच्चे भी हुए.’’

‘‘भैया, ओझा भूतप्रेत के नाम पर लोगों को ठगता है. झाड़फूंक से बच्चा नहीं होता. जिस्मानी कमजोरी के चलते भी बच्चा नहीं होता है. इसे केवल डाक्टर ही ठीक कर सकता है,’’ भौंरा ने फिर समझाया.

बड़ा भाई नहीं माना. दोपहर के समय ओझा आया. भौंरा का बड़ा भाई भी साथ था. भौंरा उस समय खेत पर गया था. राजो अकेली थी. वह राजो को ऊपर से नीचे तक घूरघूर कर देखने लगा.

राजो को ओझा मदारी की तरह लग रहा था. उस की आंखों में शैतानी चमक देख कर वह थोड़ी देर के लिए घबरा सी गई. साथ में बड़े भैया थे, इसलिए उस का डर कुछ कम हुआ.

ओझा ने ‘हुं..अ..अ’ की एक आवाज अपने मुंह से निकाली और बड़े भैया की ओर मुंह कर के बोला, ‘‘इस के ऊपर चुड़ैल का साया है. यह कभी बंसवारी में गई थी? पूछो इस से.‘‘

‘‘हां बहू, तुम वहां गई थीं क्या?’’ बड़े भैया ने पूछा.

‘‘शाम के समय गई थी मैं,’’ राजो ने कहा.

‘‘वहीं इस ने एक लाल कपडे़ को लांघ दिया था. वह चुड़ैल का रूमाल था. वह चुड़ैल किसी जवान औरत को अपनी चेली बना कर चुड़ैल विद्या सिखाना चाहती है. इस ने लांघा है. अब वह इसे डायन विद्या सिखाना चाहती है. तभी से वह इस के पीछे पड़ी है. वह इस का बच्चा नहीं होने देगी.’’

राजो यह सुन कर थरथर कांपने लगी.

‘‘क्या करना होगा?’’ बड़े भैया ने हाथ जोड़ कर पूछा.

‘‘पैसा खर्च करना होगा. मंत्रजाप से चुड़ैल को भगाना होगा,’’ ओझा ने कहा.

मंत्रजाप के लिए ओझा ने दारू, मुरगा व हवन का सामान मंगवा लिया. दूसरे दिन से ही ओझा वहां आने लगा. जब वह राजो को झाड़ने के लिए आता, रूपा भी राजो के पास आ जाती.

एक दिन रूपा को कोई काम याद आ गया. वह आ न सकी. घर में राजो को अकेला देख ओझा ने पूछा, ‘‘रूपा नहीं आई?’’

राजो ने ‘न’ में गरदन हिला दी.

ओझा ने अपना काम शुरू कर दिया. राजो ओझा के सामने बैठी थी. ओझा मुंह में कुछ बुदबुदाता हुआ राजो के पूरे शरीर को ऊपर से नीचे तक हाथ से छू रहा था. ऐसा उस ने कई बार दोहराया, फिर वह उस के कोमल अंगों को बारबार दबाने की कोशिश करने लगा.

राजो को समझते देर नहीं लगी कि ओझा उस के बदन से खेल रहा है. उस ने आव देखा न ताव एक झटके से खड़ी हो गई.

यह देख कर ओझा सकपका गया. वह कुछ बोलता, इस से पहले राजो ने दबी आवाज में उसे धमकाया, ‘‘तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, मैं समझ रही हूं. तुम्हारी भलाई अब इसी में है कि चुपचाप यहां से दफा हो जाओ, नहीं  सचमुच मेरे ऊपर चुड़ैल सवार हो रही है.’’

ओझा ने चुपचाप अपना सामान उठाया और उलटे पैर भागा. उसी समय रूपा आ गई. उस ने सुन लिया कि राजो ने अभीअभी अपने ऊपर चुड़ैल सवार होने की बात कही है. वह नहीं चाहती थी कि राजो को बच्चा हो.

रूपा के दिमाग में चल रहा था कि राजो और भौंरा के बच्चे नहीं होंगे तो सारी जमीनजायदाद के मालिक उस के बच्चे हो जाएंगे.

भौंरा के बड़े भाई के मन में खोट नहीं था. वह चाहता था कि भौंरा और राजो के बच्चे हों. राजो को चुड़ैल अपनी चेली बनाना चाहती है, यह बात गांव वालों से छिपा कर रखी थी लेकिन रूपा जानती थी. उस की जबान बहुत चलती थी. उस ने राज की यह बात गांव की औरतों के बीच खोल दी.

धीरेधीरे यह बात पूरे गांव में फैलने लगी कि राजो बच्चा होने के लिए रात के अंधेरे में चुड़ैल के पास जाती है. अब तो गांव की औरतें राजो से कतराने लगीं. उस के सामने आने से बचने लगीं. राजो उन से कुछ पूछती भी तो वे उस से सीधे मुंह बात न कर के कन्नी काट कर निकल जातीं. पूरा गांव उसे शक की नजर से देखने लगा. राजो के बुलाने पर भी रूपा अपने बच्चों को उस के पास नहीं भेजती थी.

2-3 दिन से भौंरा का पड़ोसी रामदा का बेटा बीमार था. रामदा की पत्नी जानती थी कि राजो डायन विद्या सीख रही है. वह बेटे को गोद में उठा लाई और तेज आवाज में चिल्लाते हुए भौंरा के घर में घुसने लगी, ‘‘कहां है रे राजो डायन, तू डायन विद्या सीख रही है न… ले, मेरा बेटा बीमार हो गया है. इसे तू ने ही निशाना बनाया है. अगर अभी तू ने इसे ठीक नहीं किया तो मैं पूरे गांव में नंगा कर के नचाऊंगी.’’

शोर सुन कर लोगों की भीड़ जमा हो गई.

एक पड़ोसन फूलकली कह रही थी, ‘‘राजो ने ही बच्चे पर कुछ किया है, नहीं तो कल तक वह भलाचंगा खापी रहा था. यह सब इसी का कियाधरा है.’’

दूसरी पड़ोसन सुखिया कह रही थी, ‘‘राजो को सबक नहीं सिखाया गया तो वह गांव के सारे बच्चों को इसी तरह मार कर खा जाएगी.’’

राजो घर में अकेली थी. औरतों की बात सुन कर वह डर से रोने लगी. वह अपनेआप को कोसने लगी, ‘क्यों नहीं उन की बात मान कर अस्पताल चली गई. जेठजी के कहने में आ कर ओझा से इलाज कराना चाहा, मगर वह तो एक नंबर का घटिया इनसान था. अगर मैं उस की चाल में फंस गई होती तो भौंरा को मुंह दिखाने के लायक भी न रहती.’’

बाहर औरतें उसे घर से निकालने के लिए दरवाजा पीट रही थीं. तब तक भौंरा खेत से आ गया. अपने घर के बाहर जमा भीड़ देख कर वह डर गया, फिर हिम्मत कर के भौंरा ने पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी, राजो को क्या हुआ है?’’

‘‘तुम्हारी औरत डायन विद्या सीख रही है. ये देखो, किशुना को क्या हाल कर दिया है. 4 दिनों से कुछ खायापीया भी नहीं है इस ने,’’ रामधनी काकी ने कहा.

गुस्से से पागल भौंरा ने गांव वालों को ललकारा, ‘‘खबरदार, किसी ने राजो पर इलजाम लगाया तो… वह मेरी जीवनसंगिनी है. उसे बदनाम मत करो. मैं एकएक को सचमुच में मार डालूंगा. किसी में हिम्मत है तो राजो पर हाथ उठा करदेख ले,’’ इतना कह कर वह रूपा भाभी का हाथ पकड़ कर खींच लाया.

‘‘यह सब इसी का कियाधरा है. बोलो भाभी, तुम ने ही गांव की औरतों को यह सब बताया है… झूठ मत बोलना. सरोजन चाची ने मुझे सबकुछ बता दिया है.’’ सरोजन चाची भी वहां सामने ही खड़ी थीं. रूपा उन्हें देख कर अंदर तक कांप गई. उस ने अपनी गलती मान ली. भौंरा ओझा को भी पकड़ लाया, ‘‘मक्कार कहीं का, तुम्हारी सजा जेल में होगी.’’

दूर खड़े बड़े भैया की नजरें झुकी हुई थीं. वे अपनी भूल पर पछतावा कर रहे थे.

कौन जिम्मेदार किशोरीलाल की मौत का

‘‘किशोरीलाल ने खुदकुशी कर ली…’’ किसी ने इतना कहा और चौराहे पर लोगों को चर्चा का यह मुद्दा मिल गया.

‘‘मगर क्यों की…?’’  भीड़ में से सवाल उछला.

‘‘अरे, अगर खुदकुशी नहीं करते, तो क्या घुटघुट कर मर जाते?’’ भीड़ में से ही किसी ने एक और सवाल उछाला.

‘‘आप के कहने का मतलब क्या है?’’ तीसरे आदमी ने सवाल पूछा.

‘‘अरे, किशोरीलाल की पत्नी कमला का संबंध मनमोहन से था. दुखी हो कर खुदकुशी न करते तो वे क्या करते?’’

‘‘अरे, ये भाई साहब ठीक कह रहे हैं. कमला किशोरीलाल की ब्याहता पत्नी जरूर थी, मगर उस के संबंध मनमोहन से थे और जब किशोरीलाल उन्हें रोकते, तब भी कमला मानती नहीं थी,’’ भीड़ में से किसी ने कहा.

चौराहे पर जितने लोग थे, उतनी ही बातें हो रही थीं. मगर इतना जरूर था कि किशोरीलाल की पत्नी कमला का चरित्र खराब था. किशोरीलाल भले ही उस के पति थे, मगर वह मनमोहन की रखैल थी. रातभर मनमोहन को अपने पास रखती थी. बेचारे किशोरीलाल अलग कमरे में पड़ेपड़े घुटते रहते थे. सुबह जब सूरज निकला, तो कमला के रोने की आवाज से आसपास और महल्ले वालों को हैरान कर गया. सब दौड़ेदौड़े घर में पहुंचे, तो देखा कि किशोरीलाल पंखे से लटके हुए थे.

यह बात पूरे शहर में फैल गई, क्योंकि यह मामला खुदकुशी का था या कत्ल का, अभी पता नहीं चला था. इसी बीच किसी ने पुलिस को सूचना दे दी. पुलिस आई और लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले गई.

यह बात सही थी कि किशोरीलाल और कमला के बीच बनती नहीं थी. कमला किशोरीलाल को दबा कर रखती थी. दोनों के बीच हमेशा झगड़ा होता रहता था. कभीकभी झगड़ा हद पर पहुंच जाता था. यह मनमोहन कौन है? कमला से कैसे मिला? यह सब जानने के लिए कमला और किशोरीलाल की जिंदगी में झांकना होगा. जब कमला के साथ किशोरीलाल की शादी हुई थी, उस समय वे सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर थे. किशोरीलाल की कम तनख्वाह से कमला संतुष्ट न थी. उसे अच्छी साडि़यां और अच्छा खाने को चाहिए था. वह उन से नाराज रहा करती थी.

इस तरह शादी के शुरुआती दिनों से ही उन के बीच मनमुटाव होने लगा था. कुछ दिनों के बाद कमला किशोरीलाल से नजरें चुरा कर चोरीछिपे देह धंधा करने लगी. धीरेधीरे उस का यह धंधा चलने लगा. वैसे, कमला ने लोगों को बताया था कि उस ने अगरबत्ती बनाने का घरेलू धंधा शुरू कर दिया है. इसी बीच उन के 2 बेटे हो गए, इसलिए जरूरतें और बढ़ गईं. मगर चोरीछिपे यह धंधा कब तक चल सकता था. एक दिन किशोरीलाल को इस की भनक लग गई. उन्होंने कमला से पूछा, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूं?’

‘क्या सुन रहे हो?’ कमला ने भी अकड़ कर कहा.

‘क्या तुम देह बेचने का धंधा कर रही हो?’ किशोरीलाल ने पूछा.

‘तुम्हारी कम तनख्वाह से घर का खर्च पूरा नहीं हो पा रहा था, तो मैं ने यह धंधा अपना लिया है. कौन सा गुनाह कर दिया,’ कमला ने भी साफ बात कह कर अपने अपराध को कबूल कर लिया.

यह सुन कर किशोरीलाल को गुस्सा आया. वे कमला को थप्पड़ जड़ते हुए बोले, ‘बेगैरत, देह धंधा करती हो तुम?’

‘तो पैसे कमा कर लाओ, फिर छोड़ दूंगी यह धंधा. अरे, औरत तो ले आया, मगर उस की हर इच्छा को पूरा नहीं करता है. मैं कैसे भी कमा रही हूं, तेरे से तो नहीं मांग रही हूं,’ कमला भी जवाबी हमला करते हुए बोली और एक झटके से बाहर निकल गई.

किशोरीलाल कुछ नहीं कर पाए. इस तरह कई मौकों पर उन दोनों के बीच झगड़ा होता रहता था. इसी बीच शिक्षा विभाग से शिक्षकों की भरती हेतु थोक में नौकरियां निकलीं. कमला ने भी फार्म भर दिया. उसे सहायक टीचर के पद पर एक गांव में नौकरी मिल गई.

चूंकि गांव शहर से दूर था और उस समय आनेजाने के इतने साधन न थे, इसलिए मजबूरी में कमला को गांव में ही रहना पड़ा. गांव में रहने के चलते वह और आजाद हो गई. कमला ने 10-12 साल इसी गांव में गुजारे, फिर एक दिन उस ने अपने शहर के एक स्कूल में ट्रांसफर करवा लिया. मगर उन की लड़ाई अब भी नहीं थमी.

बच्चे अब बड़े हो रहे थे. वे भी मम्मीपापा का झगड़ा देख कर मन ही मन दुखी होते थे, मगर उन के झगड़े के बीच न पड़ते थे. जिस स्कूल में कमला पढ़ाती थी, वहीं पर मनमोहन भी थे. उन की पत्नी व बच्चे थे, मगर सभी उज्जैन में थे. मनमोहन यहां अकेले रहा करते थे. कमला और उन के बीच खिंचाव बढ़ा. ज्यादातर जगहों पर वे साथसाथ देखे गए. कई बार वे कमला के घर आते और घंटों बैठे रहते थे.

कमला भी धीरेधीरे मनमोहन के जिस्मानी आकर्षण में बंधती चली गई. ऐसे में किशोरीलाल कमला को कुछ कहते, तो वह अलग होने की धमकी देती, क्योंकि अब वह भी कमाने लगी थी. इसी बात को ले कर उन में झगड़ा बढ़ने लगा. फिर महल्ले में यह चर्चा चलती रही कि कमला के असली पति किशोरीलाल नहीं मनमोहन हैं. वे किशोरीलाल को समझाते थे कि कमला को रोको. वह कैसा खेल खेल रही है. इस से महल्ले की दूसरी लड़कियों और औरतों पर गलत असर पड़ेगा. मगर वे जितना समझाने की कोशिश करते, कमला उतनी ही शेरनी बनती.

जब भी मनमोहन कमला से मिलने घर पर आते, किशोरीलाल सड़कों पर घूमने निकल जाते और उन के जाने का इंतजार करते थे.

पिछली रात को भी वही हुआ. जब रात के 11 बजे किशोरीलाल घूम कर बैडरूम के पास पहुंचे, तो भीतर से खुसुरफुसुर की आवाजें आ रही थीं. वे सुनने के लिए खड़े हो गए. दरवाजे पर उन्होंने झांक कर देखा, तो शर्म के मारे आंखें बंद कर लीं.

सुबह किशोरीलाल की पंखे से टंगी लाश मिली. उन्होंने खुद को ही खत्म कर लिया था. घर के आसपास लोग इकट्ठा हो चुके थे. कमला की अब भी रोने की आवाज आ रही थी. इस मौत का जिम्मेदार कौन था? अब लाश के आने का इंतजार हो रहा था. शवयात्रा की पूरी तैयारी हो चुकी थी. जैसे ही लाश अस्पताल से आएगी, औपचारिकता पूरी कर के श्मशान की ओर बढ़ेगी.

एक रात की उजास

नाजुक गुंडे : कौन थे वो नाजुक गुंडे

मुंबई से कुशीनगर ऐक्सप्रैस ट्रेन चली, तो गयादीन खुश हुआ. उस ने पत्नी को नए मोबाइल फोन से सूचना दी कि गाड़ी चल दी है और वह अच्छी तरह बैठ गया है.

गयादीन को इस घड़ी का तब से बेसब्री से इंतजार था, जब उस ने 2 महीने पहले टिकट रिजर्व कराया था. वह रेल टिकट को कई बार उलटपलट कर देखता था और हिसाब लगाता था कि सफर के कितने दिन बचे हैं.

सफर में सामान ज्यादा, खुद बुलाई मुसीबत होती है. गयादीन इस मुसीबत से बच नहीं पाता है. कितना भी कम करे, पर जब भी गांव जाता है, तो सामान बढ़ ही जाता है. इस स्लीपर बोगी में उस के जैसे सालछह महीने में कभीकभार घर जाने वाले कई मुसाफिर हैं. उन के साथ भी बहुत सामान है.

इस गाड़ी के बारे में कहा जाता है, आदमी कम सामान ज्यादा. पर आदमी कौन से कम होते हैं. हर डब्बे में ठसाठस भरे होते हैं, क्या जनरल बोगी, क्या स्लीपर बोगी.

गयादीन इस बार अपने गांव में तो मुश्किल से एकाध दिन ही ठहरेगा. पत्नी को ले कर ससुराल जाना होगा. एकलौते साले की शादी है. इस वजह से भी सामान ज्यादा हो गया है.

एक बड़ी अटैची, 2 बड़े बैग, एक प्लास्टिक की बड़ी बोरी और खानेपीने के सामान का एक थैला, जिसे उस ने खिड़की के पास लगी खूंटी पर टांग दिया था.

वैसे तो इस ट्रेन में पैंट्री कार होती है और चलती ट्रेन में ही खानेपीने का सामान बिकता है, लेकिन रेलवे की खानपान सेवा पर खर्च कर के खाली पैसे गंवाना है. पछतावे के अलावा कुछ नहीं मिलता. खानेपीने का सामान साथ हो, तो परेशानी नहीं उठानी पड़ती.

इस बार गयादीन मां के लिए 20 लिटर वाली स्टील की टंकी ले जा रहा था, जिस के चलते एक अदद बोरी का बोझ बढ़ गया था. हालांकि बोरी में बहुत सा छोटामोटा सामान भी रख लिया है. एक बैग तो वहां के मौसम को ध्यान में रखते हुए बढ़ा है.

मुंबई जैसा मौसम तो हर कहीं नहीं होता. सफर लंबा है. पहली रात तो सादा कपड़ों में कट जाएगी, पर अगले दिन और रात के लिए तो गरम कपड़ों की जरूरत होगी. कंबल भी बाहर निकालना होगा.

सुबहसुबह जब गाड़ी गोरखपुर पहुंचेगी, तो कुहरे भरी ठंड से हाड़ ही कांप जाएंगे. फिर गांव तक का खुले में बस का सफर. वहां कान भी बांधने पड़ते हैं, फिर भी सर्दी पीछा नहीं छोड़ती. लेकिन उसी पल पत्नी से मिलन और ससुराल में एकलौते साले की शादी में मिलने वाले मानसम्मान का खयाल आते ही गयादीन जोश से भर गया.

सामान ज्यादा होने की वजह से गयादीन को 2 दोस्त ट्रेन में बिठाने आए थे और वे ही बर्थ के नीचे सामान रखवा कर चले गए थे. उस की नीचे की ही बर्थ थी. कोच में सिर्फ रिजर्व टिकट वाले मुसाफिर थे. रेलवे स्टाफ ने कंफर्म टिकट वाले मुसाफिरों को ही कोच में सफर करने की इजाजत दी थी.

गयादीन ने चादर बिछाई. तकिए में हवा भरी और खिड़की की तरफ बैठ कर एक पतली सी पत्रिका निकाली. समय काटने के लिए उस ने रेलवे बुक स्टौल से कम कीमत की पत्रिका खरीद ली थी, जिस के कवर पर छपी लड़की की तसवीर ने उस का ध्यान खींचा था.

गयादीन अधलेटा हो कर पत्रिका के पन्ने पलटने लगा. सामने की बर्थ पर लेटे एक मुसाफिर ने उसे टोकते हुए सलाह दे दी, ‘‘भाई, रात बहुत हो गई है. लाइट बुझा कर सोने दो. आप भी सोओ. लंबा सफर है, दिन में पढ़ लेना.’’

साथी मुसाफिर की बात उसे ठीक लगी. पत्रिका बंद कर के पानी पी कर लाइट बुझाते हुए वह लेट गया.

दिनभर की आपाधापी के बावजूद उस की आंखों में नींद नहीं थी. एक तो घर जाने की खुशी, दूसरे सामान की चिंता.

नासिक रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रुकी, तो भीड़ का एक रेला डब्बे में घुस आया. लोग कहते रहे कि रिजर्वेशन वाला डब्बा है, पर किसी ने नहीं सुनी. वे तीर्थ यात्री मालूम पड़ते थे और समूह में थे. उन में औरतें भी थीं.

गयादीन चादर ओढ़ कर बर्थ पर पूरा फैल कर लेट गया, ताकि उस की बर्थ पर कोई बैठ न सके, फिर भी ढीठ किस्म के 1-2 लोग यह कहते हुए थोड़ी देर का सफर है, उस के पैरों की तरफ बैठ ही गए.

गयादीन सफर में झगड़ेझंझट से बचना चाहता था, इसलिए ज्यादा विरोध नहीं किया, पर मन ही मन वह कुढ़ता रहा कि रिजर्वेशन का कोई मतलब नहीं. किसी की परेशानी को लोग समझते नहीं हैं. वह कच्ची नींद में अपने सामान पर नजर रखे रहा. हालांकि सामान को उस ने लोहे की चेन से अच्छी तरह बांध रखा था, लेकिन चोरों का क्या, चेन भी काट लेते हैं.

खैर, मनमाड़ और भुसावल स्टेशन आतेआते वे सब उतर गए. उस ने राहत की सांस ली और पूरी तरह सोने की कोशिश करने लगा. उसे नींद भी आ गई. बुरहानपुर स्टेशन पर चाय और केले बेचने वालों की आवाज से उस की नींद टूटी.

सुबह हो चुकी थी. बुरहानपुर स्टेशन का उसे इंतजार भी था. वहां मिलने वाले सस्ते और बड़े केले वह घर के लिए खरीदना चाहता था.

पर यह क्या, फिर भीड़ बढ़ने लगी. अब कंधे पर बैग टांगे या खाली हाथ दैनिक मुसाफिर ट्रेन में चढ़ आए थे. उस का अच्छाखासा तजरबा है, दैनिक मुसाफिर किसी तरह का लिहाज नहीं करते, सोते हुए को जगा देते हैं कि सवेरा हो गया और बैठ जाते हैं. एतराज करने पर भी नहीं मानते.

ट्रेन चली तो सामने वाले मुसाफिर को जगा कर गयादीन शौचालय गया. लौटा तो बीच की बर्थ खोल दी गई थी और नीचे उस की बर्थ पर कई लोग डटे थे. यही हाल सामने वाली बर्थ का था. वह कुछ देर खड़ा रहा तो एक दैनिक मुसाफिर ने उस पर तरस दिखाते हुए थोड़ा खिसक कर खिड़की की तरफ बैठने की जरा सी जगह बना दी, जहां उस का तकिया व चादर सिमटे रखे थे.

गयादीन झिझकते हुए सिकुड़ कर बैठ गया और अपने सामान पर नजर डाली. सामान महफूज था. चादर और तकिया जांघों पर रख कर खिड़की के बाहर देखने लगा. गाड़ी तेज रफ्तार से चल रही थी.

गयादीन गाल पर हाथ धरे उगते हुए सूरज को देख रहा था कि एकाएक किसी के धीमे से छूने का आभास हुआ. पलट कर देखा तो चमकती नीली सलवार और पीली कुरती वाली बहुत करीब थी. उस की कलाइयों में रंगबिरंगी चूडि़यां थीं व एक हाथ में 10-20 रुपए के कुछ नोट थे.

यह देख गयादीन अचकचा गया. उस ने मुंह ऊपर उठा कर देखा. लिपस्टिक से पुते हुए होंठों की फूहड़ मुसकराहट का वह सामना न कर सका और निगाहें नीचे कर लीं. उस ने खाली हाथ बढ़ाते हुए मर्दानी आवाज में रुपए की मांग की, ‘‘निकालो.’’

‘‘खुले पैसे नहीं हैं,’’ गयादीन ने झुंझलाहट से कहा और लापरवाही से खिड़की के बाहर देखने लगा.

‘‘कितना बड़ा नोट है राजा? सौ का, 5 सौ का, हजार का? निकालो तो सब तोड़ दूंगी,’’ भारी सी आवाज में उस ने तंज कसा.

‘‘जाओ, पैसे नहीं हैं.’’

‘‘अभी तो बड़े नोट वाले बन रहे थे और अब कहते हो कि पैसे नहीं हैं. रेल में सफर ऐसे ही कर रहे हो…’’ उस ने बेहयाई से हाथ भी मटकाया. इस बीच उस का एक साथी पास आ कर खड़ा हो गया, जो मर्दाने बदन पर साड़ी लपेटे था.

गयादीन को लगा कि अब इन से पार पाना मुश्किल है. बेमन से कमीज की जेब से 10 रुपए का एक नोट निकाला और बढ़ाया.

‘‘हायहाय, 10 का नोट… क्या आता है 10 रुपए में.’’

गयादीन ने 10 का एक और नोट निकाल कर चुपचाप बढ़ा दिया. वह उन से छुटकारा पाना चाहता था.

सलवारकुरती वाले ने दोनों नोट झट से लपक लिए और आगे बढ़ गए. वह अपने को ठगा सा महसूस करते हुए शर्मिंदा सा उन्हें देखता रह गया.

वे दूसरे मुसाफिरों से तगादा करने में लग गए थे. कोई उन का विरोध नहीं कर रहा था. सब अपने को बचा सा रहे थे.

कुछ दैनिक मुसाफिर उतरे, तो दूसरे आ गए. कुछ बिना रिजर्वेशन वाले और गुटका, तंबाकू, पेपर सोप बेचने वाले चढ़ आए. भीड़ इतनी बढ़ गई थी कि रिजर्व डब्बा जनरल डब्बे की तरह हो गया. इस बीच टिकट चैकर भी आया, पर उसे इन सब से कोई मतलब नहीं.

जब दिन चढ़ आया, तो दैनिक मुसाफिरों की आवाजाही तो जरूर कम हुई, पर बिना रिजर्व मुसाफिर बढ़ते रहे. हां, चैकिंग स्टाफ का दस्ता डब्बे में चढ़ा, तो उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वे उन से जुर्माना वसूल कर रसीद पकड़ा गए.

रात में ठीक से नींद न आ पाने से गयादीन की सोने की इच्छा हो आई, पर वह लेट नहीं सकता था. वह बैठेबैठे ही ऊंघने लगा. सामने वाले मुसाफिर ने उसे जगा दिया, ‘‘अपने डब्बे में फिर गुंडे चढ़ आए हैं.’’

‘‘गुंडे, फिर से,’’ वह चौंका.

‘‘हां, हां, यह अपनेअपने इलाके के गुंडे ही तो हैं… नाजुक गुंडे.’’

अब की बार वे 4 थे. पहले वालों के मुकाबले ज्यादा हट्टेकट्टे और ढीठ. ताली बजाबजा कर बड़ी बेशर्मी से मुसाफिरों से रुपयों की मांग कर रहे थे. किसीकिसी से तो 50 के नोट तक झटक लिए थे. गयादीन के पास भी आए और ताली बजाते हुए मांग की.

गयादीन बोला, ‘‘पीछे वालों को दे चुके हैं.’’

‘‘दे चुके होंगे. लेकिन यह हमारा इलाका है.’’

‘‘इलाका तो गुंडों का होता है,’’ सामने वाले मुसाफिर ने कहा.

गयादीन को लगा कि गुंडा कहने से बुरा मान जाएंगे, पर बुरा नहीं माना. एक भौंहें मटकाते हुए बोला, ‘‘वे एमपी वाले थे. हम यूपी वाले हैं. हमारा रेट भी उन से ज्यादा है.’’

और वह दोनों से 50 का नोट लेकर ही माना. जब वे दूसरे डब्बे में चले गए, तो सामने वाला मुसाफिर बोला, ‘‘इन से पार पाना मुश्किल है. ये नंगई पर उतर आते हैं और छीनाझपटी भी कर सकते हैं. मुसाफिर बेचारा क्या करे.झगड़ाझंझट तो कर नहीं सकता.’’

‘‘इन का कोई इलाज नहीं? रेलवे पुलिस इन्हें नहीं रोकती?’’

‘‘पुलिस चाहे तो क्या नहीं कर सकती, पर आप तो जानते ही हैं. खैर,  रात के सफर में कोई परेशान नहीं करेगा. इन की शराफत है कि ये रात के सफर में मुसाफिरों को परेशान नहीं करते.’’

दोनों ने राहत की सांस ली.

क्यों का प्रश्न नहीं : भाग 1

सुबह के 10 बजे थे. डेरे के अपने औफिस में आ कर मैं बैठा ही था. लाइजन अफसर के रूप में पिछले 2 साल से मैं सेवा में था. हाल से गुजरते समय मैं ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि बाहर मिलने के लिए कौनकौन बैठा है. 10 और 12 बजे के बीच मिलने का समय था. सभी मिलने वाले एक पर्ची पर अपना नाम लिख कर बाहर खड़े सेवादार को दे देते और वह मेरे पास बारीबारी भेजता रहता. 12 बजे के करीब मेरे पास जिस नाम की पर्ची आई उसे देख कर मैं चौंका.

यह जानापहचाना नाम था, मेरे एकमात्र बेटे का. मैं ने बाहर सेवादार को यह जानने के लिए बुलाया कि इस के साथ कोई और भी आया है.

‘‘जी, एक बूढ़ी औरत भी साथ है.’’

मैं समझ गया, यह बूढ़ी औरत और कोई नहीं, मेरी धर्मपत्नी राजी है. इतने समय बाद ये दोनों क्यों आए हैं, मैं समझ नहीं पाया. मेरे लिए ये अतीत के अतिरिक्त और कुछ नहीं थे. संबंध चटक कर कैसे टूट गए, कभी जान ही नहीं पाया. मैं ने इन के प्रति अपने कर्तव्यों को निश्चित कर लिया था.

‘‘साहब, इन दोनों को अंदर भेजूं?’’ सेवादार ने पूछा तो मैं ने कहा, ‘‘नहीं, ड्राइवर सुरिंदर को मेरे पास भेजो और इन दोनों को बाहर इंतजार करने को कहो.’’

वह ‘जी’ कह कर चला गया.

सुरिंदर आया तो मैं ने दोनों को कोठी ले जाने के लिए कहा और कहलवाया, ‘‘वे फ्रैश हो लें, लंच के समय बात होगी.’’

बेबे, जिस के पास मेरे लिए खाना बनाने की सेवा थी, इन का खाना बनाने के लिए भी कहा. वे चले गए और मैं दूसरे कामों में व्यस्त हो गया.

लंच हम तीनों ने चुपचाप किया. फिर मैं उन को स्टडीरूम में ले आया. दोनों सामने की कुरसियों पर बैठ गए और मैं भी बैठ गया. गहरी नजरों से देखने के बाद मैं ने पूछा, ‘‘तकरीबन 2 साल बाद मिले हैं, फिर भी कहिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

भाषा में न चाहते हुए भी रूखापन था. इस में रिश्तों के टूटन की बू थी. डेरे की परंपरा को निभा पाने में शायद मैं फेल हो गया था. सब से प्यार से बोलो, मीठा बोलो, चाहे वह तुम्हारा कितना ही बड़ा दुश्मन क्यों न हो. देखा, राजी के होंठ फड़फड़ाए, निराशा से सिर हिलाया परंतु कहा कुछ नहीं.

बेटे ने कहा, ‘‘मैं मम्मी को छोड़ने आया हूं.’’

‘‘क्यों, मन भर गया? जीवन भर पास रखने और सेवा करने का जो वादा और दावा, मुझे घर से निकालते समय किया था, उस से जी भर गया या अपने ऊपर से मां का बोझ उतारने आए हो या मुझ पर विश्वास करने लगे हो कि मैं चरित्रहीन नहीं हूं?’’

थोड़ी देर वह शांत रहा, फिर बोला, ‘‘आप चरित्रहीन कभी थे ही नहीं. मैं अपनी पत्नी सुमन की बातों से बहक गया था. उस ने अपनी बात इस ढंग से रखी, मुझे यकीन करना पड़ा कि आप ने ऐसा किया होगा.’’

‘‘मैं तुम्हारा जन्मदाता था. पालपोस कर तुम्हें बड़ा किया था. पढ़ायालिखाया था. बचपन से तुम मेरे हावभाव, विचारव्यवहार, मेरी अच्छाइयों और कमजोरियों को देखते आए हो. तुम ने कल की आई लड़की पर यकीन कर लिया पर अपने पिता पर नहीं. और राजी, तुम ने तो मेरे साथ 35 वर्ष गुजारे थे. तुम भी मुझे जान न पाईं? तुम्हें भी यकीन नहीं हुआ. जिस लड़की को बहू के रूप में बेटी बना कर घर में लाया था, क्या उस के साथ मैं ऐसी भद्दी हरकत कर सकता था? सात जन्मों का साथ तो क्या निभाना था, तुम तो एक जन्म भी साथ न निभा पाईं. तुम्हारी बहनें तुम से और सुमन से कहीं ज्यादा खूबसूरत थीं, मैं उन के प्रति तो चरित्रहीन हुआ नहीं? उस समय तो मैं जवान भी था. तुम्हें भी यकीन हो गया…?’’

‘‘शायद, यह यकीन बना रहता, यदि पिछले सप्ताह सुमन को अपनी मां से यह कहते न सुना होता, ‘एक को तो उस ने झूठा आरोप लगा कर घर से निकलवा दिया है. यह बुढि़या नहीं गई तो वह उसे जहर दे कर मार देगी,’’’ बेटे ने कहा, ‘‘तब मुझे पता चला कि आप पर लगाया आरोप कितना झूठा था. मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई. मैं ने मम्मी को भी इस बारे में बताया. तब से ये रो रही हैं. मन में यह भय भी था कि कहीं सचमुच सुमन, मम्मी को जहर न दे दे.’’

एक रात की उजास : भाग 3

उस किशोर की तरह वह खुशकिस्मत तो थी नहीं कि लेटते ही नींद आ जाती. दृश्य जागती आंखों में किसी दुखांत फिल्म की तरह जीवन के कई टुकड़ोंटुकड़ों में चल रहे थे कि तभी उन्हें हलका कंपन महसूस हुआ. खिड़की, दरवाजों की आवाज से उन्हें तुरंत समझ में आया कि यह भूकंप का झटका है.

‘‘उठो, उठो…भूकंप आया है,’’ उन्होंने किशोर को झकझोर कर हिलाया. और दोनों हाथ पकड़ कर तेज गति से बाहर भागीं.

उन के जागते रहने के कारण उन्हें झटके का आभास हो गया. झटका लगभग 30 सेकंड का था लेकिन बहुत तेज नहीं था फिर भी लोग चीखते- चिल्लाते बाहर निकल आए थे. कुछ सेकंड बाद  सबकुछ सामान्य था लेकिन दिल की धड़कन अभी भी कनपटियों पर चोट कर रही थी.

जब भूकंप के इस धक्के से वह उबरीं तो अपनी जिजीविषा पर उन्हें अचंभा हुआ. वह तो सोच रही थीं कि उन्हें जीवन से कतई मोह नहीं बचा लेकिन जिस तेजी से वह भागी थीं, वह इस बात को झुठला रही थी. 82 साल की उम्र में निपट अकेली हो कर भी जब वह जीवन का मोह नहीं त्याग सकतीं तो यह किशोर? इस ने अभी देखा ही क्या है, इस की जिंदगी में तो भूकंप का भी यह पहला ही झटका है. उफ, यह क्या करने जा रही थीं वह. किस हक से उस मासूम किशोर को वे मृत्युदान करने जा रही थीं. क्या उम्र और अकेलेपन ने उन की दिमागी हालत को पागलपन की कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है?

मालतीजी ने मिचमिची आंखों से किशोर की ओर देखा, वह उन से लिपट गया.

‘‘दादी, मैं अपने घर जाना चाहता हूं, मैं मरना नहीं चाहता…’’ आवाज कांप रही थी.

वह उस के सिर पर प्यार भरी थपकियां दे रही थीं. लोग अब साहस कर के अपनेअपने घरों में जा रहे थे. वह भी उस किशोर को संभाले भीतर आ गईं.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘उदय जयराज.’’

अभी थोड़ी देर पहले तक उन्हें इस परिचय की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. मृत्यु की इच्छा ने अनेक प्रश्नों पर परदा डाल दिया था, पर जिंदगी के सामने तो समस्याएं भी होती हैं और समाधान भी.

ऐसा ही समाधान मालतीजी को भी सूझ गया. उन्होंने उदय को आदेश दिया कि अपने मम्मीपापा को फोन करो और अपने सकुशल होने की सूचना दो.

उदय भय से कांप रहा था, ‘‘नहीं, वे लोग मुझे मारेंगे, सूचना आप दीजिए.’’

उन्होेंने उस से पूछ कर नंबर मिलाया. सुबह के 4 बज रहे थे. आधे घंटे बाद उन के घर के सामने एक कार रुकी. उदय के मम्मीपापा और उस का छोटा भाई बदहवास से भीतर आए. यह जान कर कि वह रेललाइन पर आत्महत्या करने चला था, उन की आंखें फटी की फटी रह गईं. रात तक उन्होेंने उस का इंतजार किया था फिर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई थी.

उदय को बचाने के लिए उन्होेंने मालतीजी को शतश: धन्यवाद दिया. मां के आंसू तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

‘‘आप दोनों से मैं एक बात कहना चाहती हूं,’’ मालतीजी ने भावनाओं का सैलाब कुछ थमने के बाद कहा, ‘‘देखिए, हर बच्चे की अपनी बौद्घिक क्षमता होती है. उस से ज्यादा उम्मीद करना ठीक नहीं होता. उस की बुद्घि की दिशा पहचानिए और उसी दिशा में प्रयत्न कीजिए. ऐसा नहीं कि सिर्फ डाक्टर या इंजीनियर बन कर ही इनसान को मंजिल मिलती है. भविष्य का आसमान हर बढ़ते पौधे के लिए खुला है. जरूरत है सिर्फ अच्छी तरह सींचने की.’’

अश्रुपूर्ण आंखों से उस परिवार ने एकएक कर के उन के पैर छू कर उन से विदा ली.

उस पूरी घटना पर वह पुन: विचार करने लगीं तो उन का दिल धक् से रह गया. जब उदय अपने घर वालों को बताएगा कि वह उसे नींद की गोलियां खिलाने वाली थीं, तो क्या गुजरेगी उन पर.

अब तो वह शरम से गड़ गईं. उस मासूम बचपन के साथ वह कितना बड़ा क्रूर मजाक करने जा रही थीं. ऐन वक्त पर उस की बेखबर नींद ने ही उन्हें इस भयंकर पाप से बचा लिया था.

अंतहीन विचारशृंखला चल पड़ी तो वह फोन की घंटी बजने पर ही टूटी. उस ओर उदय की मम्मी थीं. अब क्या होगा. उन के आरोपों का वह क्या कह कर खंडन करेंगी.

‘‘नमस्ते, मांजी,’’ उस तरफ चहकती हुई आवाज थी, ‘‘उदय के लौट आने की खुशी में हम ने कल शाम को एक पार्टी रखी है. आप की वजह से उदय का दूसरा जन्म हुआ है इसलिए आप की गोद में उसे बिठा कर केक काटा जाएगा. आप के आशीर्वाद से वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करेगा. आप के अनुभवों को बांटने के लिए हमारे इष्टमित्र भी लालायित हैं. उदय के पापा आप को लेने के लिए आएंगे. कल शाम 6 बजे तैयार रहिएगा.’’

‘‘लेकिन मैं…’’ उन का गला रुंध गया.

‘‘प्लीज, इनकार मत कीजिएगा. आप को एक और बात के लिए भी धन्यवाद देना है. उदय ने बताया कि आप उसे नींद की गोलियां खिलाने के बहाने अपने घर ले गईं. इस मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाने के कारण ही वह आप के साथ आप के घर गया. समय गुजरने के साथ धीरेधीरे उस का उन्माद भी उतर गया. हमारा सौभाग्य कि वह जिद्दी लड़का आप के हाथ पड़ा. यह सिर्फ आप जैसी अनुभवी महिला के ही बस की बात थी. आप के इस एहसान का प्रतिदान हम किसी तरह नहीं दे सकते. बस, इतना ही कह सकते हैं कि अब से आप हमारे परिवार का अभिन्न अंग हैं.’’

उन्हें लगा कि बस, इस से आगे वह नहीं सुन पाएंगी. आंखों में चुभन होने लगी. फिर उन्होंने अपनेआप को समझाया. चाहे उन के मन में कुविचार ही था पर किसी दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं था. आखिरकार परिणाम तो सुखद ही रहा न. अब वे पापपुण्य के चक्कर में पड़ कर इस परिवार में विष नहीं घोलेंगी.

इस नए सकारात्मक विचार पर उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ. कहां गए वे पश्चात्ताप के स्वर, हर पल स्वयं को कोसते रहना, बीती बातों के सिर्फ बुरे पहलुओं को याद करना.

उदय का ही नहीं जैसे उन का भी पुनर्जन्म हुआ था. रात को उन्होंने खाना खाया. पीने के पानी के बरतन उत्साह से साफ किए. हां, कल सुबह उन्हेें इन की जरूरत पड़ेगी. टीवी चालू किया. पुरानी फिल्मों के गीत चल रहे थे, जो उन्हें भीतर तक गुदगुदा रहे थे. बिस्तर साफ किया. टेबल पर नींद की गोलियां रखी हुई थीं. उन्होंने अत्यंत घृणा से उन गोलियों को देखा और उठा कर कूड़े की टोकरी में फेंक दिया. अब उन्हें इस की जरूरत नहीं थी. उन्हें विश्वास था कि अब उन्हें दुस्वप्नरहित अच्छी नींद आएगी.

अपना बेटा -भाग 2 : मामाजी को देख क्यों परेशान हो उठे अंजलि और मुकेश

अंजलि ने देखा कि मामाजी की बातों में कोई वैरभाव नहीं था. मुकेश भी अंजलि को देख रहा था, मानो कह रहा हो, देखो, हम बेकार ही डर रहे थे.

‘‘अरे, तुम्हारे दोनों बच्चे कहां हैं? क्या नाम हैं उन के?’’

‘‘गगन और रजत,’’ मुकेश बोला, ‘‘स्कूल गए हैं. वे तो जाना ही नहीं चाह रहे थे. कह रहे थे मामाजी से मिलना है. इसीलिए कार से गए हैं ताकि समय से घर आ जाएं.’’

‘‘अच्छा? तुम ने अपने बच्चों को गाड़ी भी सिखा दी. वेरी गुड. मेरे पास तो गाड़ी ही नहीं है, बच्चे सीखेंगे क्या… शादियां कर लूं यही गनीमत है. मैं तो कानवेंट स्कूल में भी बच्चों को नहीं पढ़ा सका. अगर तुम मेरे एक को भी…पढ़ा…’’ मामाजी इतना कह कर रुक गए पर अंजलि और मुकेश का हंसता चेहरा बुझ सा गया.

अंजलि वहां से उठ कर बेडरूम में चली गई.

‘‘कब आ रहे हैं बच्चे?’’ मामाजी ने बात पलट दी.

‘‘आने वाले होंगे,’’ मुकेश इतना ही बोले थे कि घंटी बज उठी. अंजलि दरवाजे की तरफ लपकी. गगनरजत थे.

‘‘मामाजी आ गए…’’ दोनों ने अंदर कदम रखने से पहले मां से पूछ लिया और कमरे में कदम रखते ही पापा के साथ एक अजनबी को बैठा देख कर उन्हें समझते देर नहीं लगी कि यही हैं मामाजी.

‘‘नमस्ते, मामाजी,’’ दोनों ने उन के पैर छू लिए. मुकेश ने हंस के कहा, ‘‘मामाजी, मेरे बेटे गगन और रजत हैं.’’

‘‘वाह, कितने बड़े लग रहे हैं. दोनों कद में बाप से ऊंचे निकल रहे हैं और शक्लें भी इन की कितनी मिलती हैं,’’  इस के आगे मामाजी नहीं बोले.

‘‘मामाजी, मैं आप के लिए आइसक्रीम लाया हूं. मम्मी, ये लो ब्रिक,’’ गगन ने अंजलि को ब्रिक पकड़ा दी.

‘‘अच्छा, तुम्हें कैसे पता कि मामाजी को आइसक्रीम अच्छी लगती है?’’ मुकेश ने पूछा.

‘‘पापा, आइसक्रीम किसे अच्छी नहीं लगती,’’ गगन बोला.

अंजलि ने सब को प्लेटों में आइसक्रीम पकड़ा दी. उस के बाद मामाजी ने दोनों बच्चों से पूछना शुरू किया कि कौन सी क्लास में पढ़ते हो? क्याक्या पढ़ते हो? किस स्कूल में पढ़ने जाते हो? वहां क्याक्या खाते हो?

‘‘बस, मामाजी, अब आप आराम कर लें,’’ अंजलि ने उठते हुए कहा, ‘‘गगनरजत, तुम दोनों कपड़े बदल लो, मैं तुम्हारे कमरे में ही खाना ले कर आती हूं.’’

‘‘मामाजी, आप अभी रहेंगे न हमारे साथ?’’ गगन ने उठतेउठते पूछा.

‘‘हां, 3-4 दिन तो रहूंगा ही.’’

अंजलि के साथ गगन और रजत अपने बेडरूम की तरफ बढ़े.

अंजलि रसोई में जाने लगी तो मामाजी ने मुकेश से पूछा, ‘‘गगन को ही एडोप्ट किया था न तुम ने…’’ मुकेश सकपका गया.

‘‘दोनों को देखने पर बिलकुल नहीं लगता कि इन में एक गोद लिया है,’’ मामाजी ने फिर बात दोहराई थी.

‘‘मामाजी, यह क्या बोल रहे हैं?’’ मुकेश ने हैरत से मामाजी को देखा, ‘‘आप को ऐसा नहीं बोलना चाहिए. वह भी बच्चों के सामने?’’

बच्चे मामाजी की बात सुन कर रुक गए थे. अंजलि के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. गगन तो सन्न ही रह गया. रजत को जैसे होश सा आया.

‘‘मम्मी, मामाजी किस की बात कर रहे हैं? कौन गोद लिया है?’’

अंजलि तो मानो बुत सी खड़ी रह गई थी. सालों पहले कहे गए मामाजी के शब्द, ‘गैर, गैर होते हैं अपने अपने, मैं ऐसा साबित कर दूंगा,’ उस की समझ में अब आ रहे थे. तो इतने सालों बाद मामाजी इसलिए मेरे घर आए हैं कि मेरा बसाबसाया संसार उजाड़ दें.

गगन अभी तक खामोश मामाजी को ही देख रहा था. अंजलि को जैसे होश आया हो, ‘‘कुछ नहीं, बेटे, किसी और गगन की बात कर रहे हैं. तुम अपने कमरे में जाओ.’’

मुकेश के पांव जड़ हो रहे थे.

‘‘अरे, अंजलि बेटे, तुम ने गगन को बताया नहीं कि इस को तुम अनाथाश्रम से लाई थीं. उस के बाद रजत पैदा हुआ था…’’ मामाजी रहस्यमय मुसकान के साथ बोले.

‘‘यह क्या कह रहे हैं, मामाजी?’’ मुकेश विचलित होते हुए बोला.

‘‘देखो मुकेश, आज नहीं तो कल किसी न किसी तरह गगन को सच का पता चल ही जाएगा तो फिर तुम क्यों छिपा रहे हो इस को.’’

गगन जहां खड़ा था वहीं बुत की तरह खड़ा रहा, पर उस की आंखें भर आईं, क्योंकि मम्मीपापा भी मामाजी को चुप कराने की ही कोशिश कर रहे थे. यानी वह जो कुछ कह रहे हैं वह सच… रजत हैरानपरेशान सब को देख रहा था. गगन पलट कर अपने बेडरूम में चला गया. रजत उस के पीछेपीछे चला आया. पूरे घर का माहौल पल भर में बदल गया था. कपड़े बदल कर गगन सो गया. उस ने खाना भी नहीं खाया.

‘‘मम्मी, गगन रोए जा रहा है, आज वह दोस्तों से मिलने भी नहीं गया. पहले कह रहा था कि मुझे एक पेपर लेने जाना है.’’

अंजलि की हिम्मत नहीं हुई गगन से कुछ भी पूछे. रात के खाने के लिए अंजलि ने ही नहीं चाहा कि गगन व रजत मामाजी के पास बैठ कर खाना खाएं. मामाजी टीवी देखने में मस्त थे. ऐसा लग रहा था कि उन का मतलब हल हो गया. मुकेश भी ज्यादा बात नहीं कर रहा था. उसे ध्यान आ रहा था उस झगड़े का, जो मम्मीपापा, मामामामी ने उस के साथ किया था. दरअसल, वे चाहते थे कि हमारा बच्चा नहीं हुआ तो मामी के छोटे बच्चे को गोद ले लें. पर अंजलि चाहती थी कि हम उस बच्चे को गोद लें जिस के मातापिता का पता न हो, ताकि कोई चांस ही न रहे कि बच्चा बड़ा हो कर अपने असली मातापिता की तरफ झुक जाए. वह यह भी चाहती थी कि जिसे वह गोद ले वह बच्चा उसे ही अपनी मां समझे.

कलंक : आखिर किसने किया रधिया की बेटी गंगा को मैला

अपनी बेटी गंगा की लाश के पास रधिया पत्थर सी बुत बनी बैठी थी. लोग आते, बैठते और चले जाते. कोई दिलासा दे रहा था तो कोई उलाहना दे रहा था कि पहले ही उस के चालचलन पर नजर रखी होती तो यह दिन तो न देखना पड़ता.

लोगों के यहां झाड़ूबरतन करने वाली रधिया चाहती थी कि गंगा पढ़ेलिखे ताकि उसे अपनी मां की तरह नरक सी जिंदगी न जीनी पड़े, इसीलिए पास के सरकारी स्कूल में उस का दाखिला करवाया था, पर एक दिन भी स्कूल न गई गंगा. मजबूरन उसे अपने साथ ही काम पर ले जाती. सारा दिन नशे में चूर रहने वाले शराबी पति गंगू के सहारे कैसे छोड़ देती नन्ही सी जान को?

गंगू सारा दिन नशे में चूर रहता, फिर शाम को रधिया से पैसे छीन कर ठेके पर जाता, वापस आ कर मारपीट करता और नन्ही गंगा के सामने ही रधिया को अपनी वासना का शिकार बनाता.

यही सब देखदेख कर गंगा बड़ी हो रही थी. अब उसे अपनी मां के साथ काम पर जाना अच्छा नहीं लगता था. बस, गलियों में इधरउधर घूमनाफिरना… काजलबिंदी लगा कर मतवाली चाल चलती गंगा को जब लड़के छेड़ते, तो उसे बहुत मजा आता.

रधिया लाख कहती, ‘अब तू बड़ी हो गई है… मेरे साथ काम पर चलेगी तो मुझे भी थोड़ा सहारा हो जाएगा.’

गंगा तुनक कर कहती, ‘मां, मुझे सारी जिंदगी यही सब करना है. थोड़े दिन तो मुझे मजे करने दे.’

‘अरी कलमुंही, मजे के चक्कर में कहीं मुंह काला मत करवा आना. मुझे तो तेरे रंगढंग ठीक नहीं लगते. यह क्या… अभी से बनसंवर कर घूमतीफिरती रहती है?

इस पर गंगा बड़े लाड़ से रधिया के गले में बांहें डाल कर कहती, ‘मां, मेरी सब सहेलियां तो ऐसे ही सजधज कर घूमतीफिरती हैं, फिर मैं ने थोड़ी काजलबिंदी लगा ली, तो कौन सा गुनाह कर दिया? तू चिंता न कर मां, मैं ऐसा कुछ न करूंगी.’

पर सच तो यही था कि गंगा भटक रही थी. एक दिन गली के मोड़ पर अचानक पड़ोस में ही रहने वाले 2 बच्चों के बाप नंदू से टकराई, तो उस के तनबदन में सिहरन सी दौड़ गई. इस के बाद तो वह जानबूझ कर उसी रास्ते से गुजरती और नंदू से टकराने की पूरी कोशिश करती.

नंदू भी उस की नजरों के तीर से खुद को न बचा सका और यह भूल बैठा कि उस की पत्नी और बच्चे भी हैं. अब तो दोनों छिपछिप कर मिलते और उन्होंने सारी सीमाएं तोड़ दी थीं.

पर इश्क और मुश्क कब छिपाए छिपते हैं. एक दिन नंदू की पत्नी जमना के कानों तक यह बात पहुंच ही गई, तो उस ने रधिया की खोली के सामने खड़े हो कर गंगा को खूब खरीखोटी सुनाई, ‘अरी गंगा, बाहर निकल. अरी कलमुंही, तू ने मेरी गृहस्थी क्यों उजाड़ी? इतनी ही आग लगी थी, तो चकला खोल कर बैठ जाती. जरा मेरे बच्चों के बारे में तो सोचा होता. नाम गंगा और काम देखो करमजली के…’

3 दिन के बाद गंगा और नंदू बदनामी के डर से कहीं भाग गए. रोतीपीटती जमना रोज गंगा को कोसती और बद्दुआएं देती रहती. तकरीबन 2 महीने तक तो नंदू और गंगा इधरउधर भटकते रहे, फिर एक दिन मंदिर में दोनों ने फेरे ले लिए और नंदू ने जमना से कह दिया कि अब गंगा भी उस की पत्नी है और अगर उसे पति का साथ चाहिए, तो उसे गंगा को अपनी सौतन के रूप में अपनाना ही होगा.

मरती क्या न करती जमना, उसे गंगा को अपनाना ही पड़ा. पर आखिर तो जमना उस के बच्चों की मां थी और उस के साथ उस ने शादी की थी, इसलिए नंदू पर पहला हक तो उसी का था.

शादी के 3 साल बाद भी गंगा मां नहीं बन सकी, क्योंकि नंदू की पहले ही नसबंदी हो चुकी थी. यह बात पता चलते ही गंगा खूब रोई और खूब झगड़ा भी किया, ‘क्यों रे नंदू, जब तू ने पहले ही नसबंदी करवा रखी थी तो मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की?’

नंदू के कुछ कहने से पहले ही जमना बोल पड़ी, ‘आग तो तेरे ही तनबदन में लगी थी. अरी, जिसे खुद ही बरबाद होने का शौक हो उसे कौन बचा सकता है?’

उस दिन के बाद गंगा बौखलाई सी रहती. बारबार नंदू से जमना को छोड़ देने के लिए कहती, ‘नंदू, चल न हम कहीं और चलते हैं. जमना को छोड़ दे. हम दूसरी खोली ले लेंगे.’

इस पर नंदू उसे झिड़क देता, ‘और खोली के पैसे क्या तेरा शराबी बाप देगा? और फिर जमना मेरी पत्नी है. मेरे बच्चों की मां है. मैं उसे नहीं छोड़ सकता.’

इस पर गंगा दांत पीसते हुए कहती, ‘उसे नहीं छोड़ सकता तो मुझे छोड़ दे.’

इस पर गंगू कोई जवाब नहीं देता. आखिर उसे 2-2 औरतों का साथ जो मिल रहा था. यह सुख वह कैसे छोड़ देता. पर गंगा रोज इस बात को ले कर नंदू से झगड़ा करती और मार खाती. जमना के सामने उसे अपना ओहदा बिलकुल अदना सा लगता. आखिर क्या लगती है वह नंदू की… सिर्फ एक रखैल.

जब वह खोली से बाहर निकलती तो लोग ताने मारते और खोली के अंदर जमना की जलती निगाहों का सामना करती. जमना ने बच्चों को भी सिखा रखा था, इसलिए वे भी गंगा की इज्जत नहीं करते थे. बस्ती के सारे मर्द उसे गंदी नजर से देखते थे.

मांबाप ने भी उस से सभी संबंध खत्म कर दिए थे. ऐसे में गंगा का जीना दूभर हो गया और आखिर एक दिन उस ने रेल के आगे छलांग लगा दी और रधिया की बेटी गंगा मैली होने का कलंक लिए दुनिया से चली गई.

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