Family Story : गर्भदान – मां इतनी निष्ठुर कैसे हो सकती है

Family Story : ‘‘नहीं, आरव, यह काम मुझ से नहीं होगा. प्लीज, मुझ पर दबाव मत डालो.’’

‘‘वीनी, प्लीज समझने की कोशिश करो. इस में कोई बुराई नहीं है. आजकल यह तो आम बात है और इस छोटे से काम के बदले में हमारा पूरा जीवन आराम से गुजरेगा. अपना खुद का घर लेना सिर्फ मेरा ही नहीं, तुम्हारा भी तो सपना है न?’’

‘‘हां, सपना जरूर है पर उस के लिए…? छि…यह मुझ से नहीं होगा. मुझ से ऐसी उम्मीद न रखना.’’

‘‘वीनी, दूसरे पहलू से देखा जाए तो यह एक नेक काम है. एक निसंतान स्त्री को औलाद का सुख देना, खुशी देना क्या अच्छा काम नहीं है?’’

‘‘आरव, मैं कोई अनपढ़, गंवार औरत नहीं हूं. मुझे ज्यादा समझाने की कोई आवश्यकता नहीं.’’

‘‘हां वीनी, तुम कोई गंवार स्त्री नहीं हो. 21वीं सदी की पढ़ी हुई, मौडर्न स्त्री हो. अपना भलाबुरा खुद समझ सकती हो. इसीलिए तो मैं तुम से यह उम्मीद रखता हूं. आखिर उस में बुरा ही क्या है?’’

‘‘यह सब फालतू बहस है, आरव, मैं कभी इस बात से सहमत नहीं होने वाली हूं.’’

‘‘वीनी, तुम अच्छी तरह जानती हो. इस नौकरी में हम कभी अपना घर खरीदने की सोच भी नहीं सकते. पूरा जीवन हमें किराए के मकान में ही रहना होगा और कल जब अपने बच्चे होंगे तो उन को भी बिना पैसे हम कैसा भविष्य दे पाएंगे? यह भी सोचा है कभी?’’

‘‘समयसमय की बात है, आरव, वक्त सबकुछ सिखा देता है.’’

‘‘लेकिन वीनी, जब रास्ता सामने है तो उस पर चलने के लिए तुम क्यों तैयार नहीं? आखिर ऐसा करने में कौन सा आसमान टूट पड़ेगा? तुम्हें मेरे बौस के साथ सोना थोड़े ही है?’’

‘‘लेकिन, फिर भी 9 महीने तक एक पराए मर्द का बीज अपनी कोख में रखना तो पड़ेगा न? नहींनहीं, तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो?’’

‘‘कभी न कभी तुम को बच्चे को 9 महीने अपनी कोख में रखना तो है ही न?’’

‘‘यह एक अलग बात है. वह बच्चा मेरे पति का होगा. जिस के साथ मैं ने जीनेमरने की ठान रखी है. जिस के बच्चे को पालना मेरा सपना होगा, मेरा गौरव होगा.’’

‘‘यह भी तुम्हारा गौरव ही कहलाएगा. किसी को पता भी नहीं चलेगा.’’

‘‘लेकिन मुझे तो पता है न? नहीं, आरव, मुझ से यह नहीं होगा.’’

पिछले एक हफ्ते से घर में यही एक बात हो रही थी. आरव वीनी को समझाने की कोशिश करता था. लेकिन वीनी तैयार नहीं हो रही थी.

बात कुछ ऐसी थी. मैडिकल रिपोर्ट के मुताबिक आरव के बौस की पत्नी को बच्चा नहीं हो सकता था. और साहब को किसी अनाथ बच्चे को गोद लेने का विचार पसंद नहीं था. न जाने किस का बच्चा हो, कैसा हो. उसे सिर्फ अपना ही बच्चा चाहिए था. साहब ने एक बार आरव की पत्नी वीनी को देखा था. साहब को सरोगेट मदर के लिए वह एकदम योग्य लगी थी. इसीलिए उन्होंने आरव के सामने एक प्रस्ताव रखा. यों तो अस्पताल किसी साधारण औरत को तैयार करने के लिए तैयार थे पर साहब को लगा था कि उन औरतों में बीमारियां भी हो सकती हैं और वे बच्चे की गर्भ में सही देखभाल न करेंगी. प्रस्ताव के मुताबिक अगर वीनी सरोगेट मदर बन कर उन्हें बच्चा देती है तो वे आरव को एक बढि़या फ्लैट देंगे और साथ ही, उस को प्रमोशन भी मिलेगा.

बस, इसी लालच में आरव वीनी के पीछे पड़ा था और वीनी को कैसे भी कर के मनाना था. यह काम आरव पिछले एक हफ्ते से कर रहा था. लेकिन इस बात के लिए वीनी को मनाना आसान नहीं था. आरव कुछ भी कर के अपना सपना पूरा करना चाहता था. लेकिन वीनी मानने को तैयार ही नहीं थी.

‘‘वीनी, इतनी छोटी सी बात ही तो है. फिर भी तुम क्यों समझ नहीं रही हो?’’

‘‘आरव, छोटी बात तुम्हारे लिए होगी. मेरे लिए, किसी भी औरत के लिए यह छोटी बात नहीं है. पराए मर्द का बच्चा अपनी कोख में रखना, 9 महीने तक उसे झेलना, कोई आसान बात नहीं है. मातृत्व का जो आनंद उस अवस्था में स्त्री को होता है, वह इस में कहां? अपने बच्चे का सपना देखना, उस की कल्पना करना, अपने भीतर एक रोमांच का एहसास करना, जिस के बलबूते पर स्त्री प्रसूति की पीड़ा हंसतेहंसते झेल सकती है, यह सब इस में कहां संभव है? आरव, एक स्त्री की भावनाओं को आप लोग कभी नहीं समझ सकते.’’

‘‘और मुझे कुछ समझना भी नहीं है,’’ आरव थोड़ा झुंझला गया.

‘‘फालतू में छोटी बात को इतना बड़ा स्वरूप तुम ने दे रखा है. ये सब मानसिक, दकियानूसी बातें हैं. और फिर जीवन में कुछ पाने के लिए थोड़ाबहुत खोना भी पड़ता है न? यहां तो सिर्फ तुम्हारी मानसिक भावना है, जिसे अगर तुम चाहो तो बदल भी सकती हो. बाकी सब बातें, सब विचार छोड़ दो. सिर्फ और सिर्फ अपने आने वाले सुनहरे भविष्य के बारे में सोचो. अपने घर के बारे में सोचो. यही सोचो कि कल जब हमारे खुद के बच्चे होंगे तब हम उन का पालन अच्छे से कर पाएंगे. और कुछ नहीं तो अपने बच्चे के बारे में सोचो. अपने बच्चे के लिए मां क्याक्या नहीं करती है?’’ आरव साम, दाम, दंड, भेद कोई भी तरीका छोड़ना नहीं चाहता था.

आखिर न चाहते हुए भी वीनी को पति की बात पर सहमत होना पड़ा. आरव की खुशी का ठिकाना न रहा. अब बहुत जल्द सब सपने पूरे होने वाले थे.

अब शुरू हुए डाक्टर के चक्कर. रोजरोज अलग टैस्ट. आखिर 2 महीनों की मेहनत के बाद तीसरी बार में साहब के बीज को वीनी के गर्भाशय में स्थापित किए जाने में कामयाबी मिल गई. आईवीएफ के तीसरे प्रयास में आखिर सफलता मिली.

वीनी अब प्रैग्नैंट हुई. साहब और उन की पत्नी ने वीनी को धन्यवाद दिया. वीनी को डाक्टर की हर सूचना का पालन करना था. 9 महीने तक अपना ठीक से खयाल रखना था.

वीनी के उदर में शिशु का विकास ठीक से हो रहा था, यह देख कर सब खुश थे. लेकिन वीनी खुश नहीं थी. रहरह कर उसे लगता था कि उस के भीतर किसी और का बीज पनप रहा है, यही विचार उस को रातदिन खाए जा रहा था. जिंदगी के पहले मातृत्व का कोई रोमांच, कोई उत्साह उस के मन में नहीं था. बस, अपना कर्तव्य समझ कर वह सब कर रही थी. डाक्टर की सभी हिदायतों का ठीक से पालन कर रही थी. बस, उस के भीतर जो अपराधभाव था उस से वह मुक्ति नहीं पा रही थी. लाख कोशिशें करने पर भी मन को वह समझा नहीं पा रही थी.

आरव पत्नी को समझाने का, खुश रखने का भरसक प्रयास करता रहता पर एक स्त्री की भावना को, उस एहसास को पूरी तरह समझ पाना पुरुष के लिए शायद संभव नहीं था.

वीनी के गर्भ में पलबढ़ रहा पहला बच्चा था, पहला अनुभव था. लेकिन अपने खुद के बच्चे की कोई कल्पना, कोई सपना कहां संभव था? बच्चा तो किसी और की अमानत था. बस, पैदा होते ही उसे किसी और को दे देना था. वीनी सपना कैसे देखती, जो अपना था ही नहीं.

बस, वह तो 9 महीने पूरे होने की प्रतीक्षा करती रहती. कब उसे इस बोझ से मुक्ति मिलेगी, वीनी यही सोचती रहती. मन का असर तन पर भी होना ही था. डाक्टर नियमितरूप से सारे चैकअप कर रहे थे. कुछ ज्यादा कौंप्लीकेशंस नहीं थे, यह अच्छी बात थी. साहब और उन की पत्नी भी वीनी का अच्छे से खयाल रखते. जिस से आने वाला बच्चा स्वस्थ रहे. लेकिन भावी के गर्भ में क्या छिपा है, कौन जान सकता है. होनी के गर्भ से कब, कैसी पल का प्रसव होगा, कोई नहीं कह सकता है.

वीनी और आरव का पूरा परिवार खुश था. किसी को सचाई कहां मालूम थी?

सातवें महीने में बाकायदा वीनी की गोदभराई भी हुई. जिस दिन की कोई भी स्त्री उत्साह के साथ प्रतीक्षा करती है, उस दिन भी वीनी खुश नहीं हो पा रही थी. अपने स्वजनों को वह कितना बड़ा धोखा दे रही थी. यही सोचसोच कर उस की आंखें छलक जाती थीं.

गोदभराई की रस्म बहुत अच्छे से हुई. साहब और उन की पत्नी ने उसी दिन नए फ्लैट की चाबी आरव के हाथ में थमाई. आरव की खुशी का तो पूछना ही क्या?

आरव पत्नी की मनोस्थिति नहीं समझता था, ऐसा नहीं था. उस ने सोचा था, बस 2 ही महीने निकालने हैं न. फिर वह वीनी को ले कर कहीं घूमने जाएगा और वीनी धीरेधीरे सब भूल जाएगी. और फिर से वह नौर्मल हो जाएगी.

आरव फ्लैट देख कर खुशी से उछल पड़ा था. उस की कल्पना से भी ज्यादा सुंदर था यह फ्लैट. बारबार कहने पर भी वीनी फ्लैट देखने नहीं गई थी. बस, मन ही नहीं हो रहा था. उस मकान की उस ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी, ऐसा उस को प्रतीत हो रहा था. बस, जैसेतैसे

2 महीने निकल जाएं और वह इन सब से मुक्त हो जाए. नियति एक स्त्री की भावनाओं के साथ यह कैसा खेल खेल रही थी, यही खयाल उस के दिमाग में आता रहता था. इसी बीच, आरव का प्रमोशन भी हो चुका था. साहब ने अपना वादा पूरी ईमानदारी से निभाया था.

लेकिन 8वां महीना शुरू होते ही वीनी का स्वास्थ्य बिगड़ा. उस को अस्पताल में भरती होना पड़ा. और वहां वीनी ने एक बच्ची को जन्म दिया. बच्ची 9 महीना पूरा होने से पहले ही आ गई थी, इसीलिए बहुत कमजोर थी. बड़ेबड़े डाक्टरों की फौज साहब ने खड़ी कर दी थी.

बच्ची की स्थिति धीरेधीरे ठीक हो रही थी. अब खतरा टल गया था. अब साहब ने बच्ची मानसिकरूप से नौर्मल है या नहीं, उस का चेकअप करवाया. तभी पता चला कि बच्ची शारीरिकरूप से तो नौर्मल है लेकिन मानसिकरूप से ठीक नहीं है. उस के दिमाग के पूरी तरह से ठीक होने की कोई संभावना नहीं है.

यह सुनते ही साहब और उन की पत्नी के होश उड़ गए. वे लोग ऐसी बच्ची के लिए तैयार नहीं थे. साहब ने आरव को एक ओर बुलाया और कहा कि बच्ची का उसे जो भी करना है, कर सकता है. ऐसी बच्ची को वे स्वीकार नहीं कर सकते. अगर उस को भी ऐसी बच्ची नहीं चाहिए तो वह उसे किसी अनाथाश्रम में छोड़ आए. हां, जो फ्लैट उन्होंने उसे दिया है, वह उसी का रहेगा. वे उस फ्लैट को वापस मांगने वाले नहीं हैं.

आरव को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या करना चाहिए? साहब और उन की पत्नी तो अपनी बात बता कर चले गए. आरव सुन्न हो कर खड़ा ही रह गया.

वीनी को जब पूरी बात का पता चला तब एक पल के लिए वह भी मौन हो गई. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे?

तभी नर्स आ कर बच्ची को वीनी के हाथ में थमा गई. बच्ची को भूख लगी थी. उसे फीड कराना था. बच्ची का मासूम स्पर्श वीनी के भीतर को छू गया. आखिर अपने ही शरीर का एक अभिन्न हिस्सा थी बच्ची. उसी के उदर से उस ने जन्म लिया था. यह वीनी कैसे भूल सकती थी. बाकी सबकुछ भूल कर वीनी ने बच्ची को अपनी छाती से लगा लिया. सोई हुई ममता जाग उठी.

दूसरे दिन आरव ने वीनी के पास से बच्ची को लेना चाहा और कहा, ‘‘साहब, उसे अनाथाश्रम में छोड़ आएंगे और वहां उस की अच्छी देखभाल का बंदोबस्त भी करेंगे. मुझे भी यही ठीक लगता है.’’

‘‘सौरी आरव, यह मेरी बच्ची है, मैं ने इसे जन्म दिया है. यह कोई अनाथ नहीं है,’’ वीनी ने दृढ़ता से जवाब दिया.

‘‘पर वीनी…’’

‘‘परवर कुछ नहीं, आरव.’’

‘‘पर वीनी, यह बच्ची मैंटली रिटायर्ड है. इस को हम कैसे पालेंगे?’’

‘‘जैसी भी है, मेरी है. मैं ही इस की मां हूं. अगर हमारी बच्ची ऐसी होती तो क्या हम उसे अनाथाश्रम भेज देते?’’

‘‘लेकिन वीनी…’’

‘‘सौरी आरव, आज कोई लेकिनवेकिन नहीं. एक दिन तुम्हारी बात मैं ने स्वीकारी थी. आज तुम्हारी बारी है. यह हमारे घर का चिराग बन कर आई है. हम इस का अनादर नहीं कर सकते. जन्म से पहले ही इस ने हमें क्याक्या नहीं दिया है?’’

आरव कुछ पल पत्नी की ओर, कुछ पल बच्ची की ओर देखता रहा. फिर उस ने बच्ची को गोद में उठा लिया और प्यार करने लगा.

‘‘वीनी, हम इस का नाम क्या रखेंगे?’’

वीनी बहुत लंबे समय के बाद मुसकरा रही थी.

Short Story : कर्मकांडों के नाम पर दावतें

Short Story : शोकाकुल मीना, आंसुओं में डूबी, सिर घुटनों में लगाए बैठी थी. उस के आसपास रिश्तेदारों व पड़ोसियों की भीड़ थी. पर मीना की ओर किसी का ध्यान नहीं था. सब पंडितजी की कथा में मग्न थे. पंडितजी पूरे उत्साह से अपनी वाणी प्रसारित कर रहे थे- ‘‘आजकल इतनी महंगाई बढ़ गई है कि लोगों ने दानपुण्य करना बहुत ही कम कर दिया है. बिना दान के भला इंसान की मुक्ति कैसे होगी, यह सोचने की बात है. शास्त्रोंपुराणों में वर्णित है कि स्वयं खाओ न खाओ पर दान में कंजूसी कभी न करो. कलियुग की यही तो महिमा है कि केवल दानदक्षिणा द्वारा मुक्ति का मार्ग खुद ही खुल जाता है. 4 दिनों का जीवन है, सब यहीं रह जाता है तो…’’ पंडितजी का प्रवचन जारी था.

गैस्ट हाउस के दूसरे कक्ष में भोज का प्रबंध किया गया था. लड्डू, कचौड़ी, पूड़ी, सब्जी, रायता आदि से भरे डोंगे टेबल पर रखे थे. कथा चलतेचलते दोपहर को 3 बज रहे थे. अब लोगों की अकुलाहट स्पष्ट देखी जा सकती थी. वे बारबार अपनी घड़ी देखते तो कभी उचक कर भोज वाले कक्ष की ओर दृष्टि उठाते.

पंडितजी तो अपनी पेटपूजा, घर के हवन के समाप्त होते ही वहीं कर आए थे. मनोहर की आत्मा की शांति के लिए सुबह घर में हवन और 13 पंडितों का भोजन हो चुका था. लोगों यानी रिश्तेदारों आदि ने चाय व प्रसाद का सेवन कर लिया था पर मीना के हलक के नीचे तो चाय का घूंट भी नहीं उतरा था. माना कि दुख संताप से लिपटी मीना सुन्न सी हो रही थी पर उस के चेहरे पर थकान, व्याकुलता पसरी हुई थी. ऐसे में कोई तो उसे चाय पीने को बाध्य कर सकता था, उसे सांत्वना दे कर उस की पीड़ा को कुछ कम कर सकता था. पर, ये रीतिपरंपराएं सोच व विवेक को छूमंतर कर देती हैं, शायद.

इधर, पंडितजी ने मृतक की तसवीर पर, श्रद्धांजलिस्वरूप पुष्प अर्पित करने के लिए उपस्थित लोगों को इशारा किया. पुष्पांजलि के बाद लोग जल्दीजल्दी भोजकक्ष की ओर बढ़ चले थे. देखते ही देखते हलचल, शोर, हंसी आदि का शोर बढ़ता गया. लग रहा था कि कोई उत्सव मनाया जा रहा है. ‘‘अरे भई, लड्डू तो लाना, यह कद्दू की सब्जी तो कमाल की बनी है. तुम भी खा कर देखो,’’ एक पति अपनी पत्नी से कह रहा था, ‘‘कचौड़ी तो एकदम मथुरा शहर में मिलने वाली कचौडि़यों जैसी बनी है वरना यहां ऐसा स्वाद कहां मिलता है.’’

ये सब रिश्तेदार और परिचितजन थे जो कुछ ही समयपूर्व मृतक की पत्नी से अपनी संवेदना प्रकट कर, अपना कर्तव्य पूरा कर चुके थे.

मैं विचारों के भंवर में फंसी, उस रविवार को याद करने लगी जब मीना अपने पति मनोहर व बच्चों के साथ मौल में शौपिंग करती मिली थी. हर समय चहकती मीना का चेहरा मुसकान से भरा रहता. एक हंसताखेलता परिवार जिस में पतिपत्नी के प्रेमविश्वास की छाया में बच्चों की जिंदगी पल्लवित हो रही थी. अचानक वह घातक सुबह आई जो दफ्तर जाते मनोहर को ऐक्सिडैंट का जामा पहना कर इस परिवार से बहुत दूर हमेशा के लिए ले गई.

मीना अपने घर पति व बच्चों की सुखी व्यवस्था तक ही सीमित थी. कहीं भी जाना होता, पति के साथ ही जाती. बाहरी दुनिया से उसे कुछ लेनादेना नहीं था. पर अब बैंक आदि का कार्य…और भी बहुतकुछ…

मेरी विचारशृंखला टूटी और वर्तमान पर आ गई. अब कैसे, क्या करेगी मीना? खैर, यह तो उसे करना ही होगा. सब सीखेगी धीरेधीरे. समय की धारा सब सिखा देगी.

तभी दाहिनी ओर से शब्द आए, ‘‘यह प्रबंध अच्छा किया है. किस ने किया है?’’

‘‘यह सब मीना के भाई ने किया है. उस की आर्थिक स्थिति सामान्य सी है. पर देखो, उस ने पूरी परंपरा निभाई है. यही तो है भाई का कर्तव्य,’’ प्रत्युत्तर था.

3 दिनों पूर्व की बातें मुझे फिर याद हो आई थीं. भोजन प्रबंध का जिम्मा मैं ने व मेरे पति ने लेना चाहा था. तब घर के बड़ों ने टेढ़ी दृष्टि डालते हुए एक प्रश्न उछाला था, ‘तुम क्या लगती हो मीना की? 2 वर्षों पुरानी पहचान वाली ही न. यह रीतिपरंपरा का मामला है, कोई मजाक नहीं. क्या हम नहीं कर सकते भोज का प्रबंध? पर यह कार्य मीना के मायके वाले ही करेंगे. अभी तो शय्यादान, तेरहवीं का भोज, पंडितों को दानदक्षिणा, पगड़ी रस्म आदि कार्य होंगे. कृपया आप इन सब में अपनी सलाह दे कर टांग न अड़ाएं.’

‘और क्या, ये आजकल की पढ़ीलिखी महिलाओं की सोच है जो पुराणों की मान्यताओं पर भी उंगली उठाती हैं,’ उपस्थित एक बुजुर्ग महिला का तीखा स्वर उभरा. इस स्वर के साथ और कई स्वर सम्मिलित हो गए थे.

मेरे कारण मीना को कोई मानसिक क्लेश न पहुंचे, इसीलिए मैं निशब्द हो, चुप्पी साध गई थी. पर आज एक ही शब्द मेरे मन में गूंज रहा था, यहां इस तरह गम नहीं, गमोत्सव मनाया जा रहा है. मीना व उस के बच्चों के लिए किस के मन में दर्द है, कौन सोच रहा है उस के लिए? चारों तरफ की बातें, हंसीभरे वाक्य- एक उत्सव ही तो लग रहे थे.

Family Story : नसबंदी

Family Story : साल 1976 की बात रही होगी, उन दिनों मैं मैडिकल कालेज अस्पताल के सर्जरी विभाग में सीनियर रैजिडैंट के पद पर काम कर रहा था. देश में इमर्जैंसी का दौर चल रहा था. नसबंदी आपरेशन का कुहराम मचा हुआ था. हम सभी डाक्टरों को नसबंदी करने का टारगेट दे दिया गया था और इसे दूसरे सभी आपरेशनों के ऊपर प्राथमिकता देने का भी निर्देश था. टारगेट पूरा नहीं होने पर तनख्वाह और प्रमोशन रोकने की चेतावनी दे दी गई थी.

हम लोगों की ड्यूटी अकसर गांवों में कराए जा रहे नसबंदी कैंपों में भी लग जाती थी. कैंप के बाहर सरकारी स्कूलों के मुलाजिमों की भीड़ लगी रहती थी. उन्हें लोगों को नसबंदी कराने के लिए बढ़ावा देने का काम दिया गया था और तय कोटा नहीं पूरा करने पर उन की नौकरी पर भी खतरा था. कोटा पूरा करने के मकसद से वे बूढ़ों को भी पटा कर लाने में नहीं हिचकते थे. वहां लाए गए लोग कुछ तो बहुत कमउम्र के नौजवान रहते थे, जिन का आपरेशन करने में गड़बड़ी हो जाने का डर बना रहता था.

कैंप इंचार्ज आमतौर पर सिविल सर्जन रहा करते थे. मरीजों से हमारी पूछताछ उन्हें अच्छी नहीं लगती थी. बुजुर्ग मुलाजिमों की हालत बहुत खराब थी. उन से यह काम नहीं हो पाता था, लेकिन रिटायरमैंट के पहले काम न कर पाने के लांछन से अपने को बचाए रखना भी उन के लिए जरूरी रहता था. वे इस जुगाड़ में रहते थे कि अगर कोई मरीज खुद स्वयं टपक पड़े, तो उस के प्रेरक के रूप में अपना नाम दर्ज करवा लें या कोटा पूरा कर चुके दूसरे मुलाजिम की मिन्नत करने से शायद काम बन जाए.

एक दिन एक देहाती बुजुर्ग एक नौजवान को दिखाने लाए. उस नौजवान का नाम रमेश था और उम्र 20-22 साल के आसपास रही होगी. उसे वे बुजुर्ग अपना भतीजा बता रहे थे. उसे हाइड्रोसिल की बीमारी थी. यह बीमारी बड़ी तो नहीं थी, लेकिन आपरेशन किया जा सकता था.

वे बुजुर्ग आपरेशन कराने पर बहुत जोर दे रहे थे, इसलिए यूनिट इंचार्ज के आदेशानुसार उसे भरती कर लिया गया.

आपरेशन से पहले की जरूरी जांच की प्रक्रिया पूरी की गई और 4 दिनों के बाद उस के आपरेशन की तारीख तय की गई. इस तरह के छोटे आपरेशनों की जिम्मेदारी मेरी रहती थी.

आपरेशन के 2 दिन पहले वे बुजुर्ग चाचा मुझे खोजते हुए मेरे घर तक पहुंच गए. मिठाई का एक पैकेट भी वे अपने साथ लाए थे, जिसे मैं ने लेने से साफतौर पर मना कर दिया और उन्हें जाने को कहा. फिर भी वे बैठे रहे. फिर उन्होंने धीरे से कहा, ‘‘रमेश को 3 बच्चे हो चुके हैं, इसलिए वे नसबंदी करवा देना चाहते हैं.’’

जातेजाते उन्होंने रमेश से इस बात का जिक्र नहीं करने की बात कही. वजह, उसे नसबंदी से डर लगता है.

मेरे यह कहने पर कि इजाजत के लिए तो उसे दस्तखत करना पड़ेगा, तो उन्होंने कहा कि कागज उन्हें दे दिया जाए, वे उसे समझा कर करा लेंगे. आपरेशन कामयाब होने पर वे मेरी सेवा से पीछे नहीं हटेंगे.
मैं ने उन्हें घर से बाहर करते हुए दरवाजा बंद कर दिया.

एक दिन रात को अस्पताल से लौटते समय रास्ते में मुझे रमेश सिगरेट पीता हुआ दिखाई दे गया. देखते ही उस ने सिगरेट फेंक दी.

सिगरेट न पीने की नसीहत देने के खयाल से मैं ने उसे सिगरेट से होने वाले नुकसानों को बताते हुए कहा कि अपने तीनों बच्चों का खयाल करते हुए वह इस लत को तुरंत छोड़ दे.

हैरान होते हुए उस ने पूछा, ‘‘कौन से 3 बच्चे…?’’

‘‘तुम्हारे और किस के?’’

मेरे इस जवाब को सुन कर वह हैरान रह गया और फिर बोला, ‘‘डाक्टर साहब, मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है, फिर बच्चे कहां से आ गए? अभी तो छेका हुआ है और 6 महीने बाद शादी होने वाली है, इसीलिए चाचा को मैं ने अपनी बीमारी के बारे बताया था तो वे यहां लेते आए.’’

अब मेरे चौंकने की बारी थी. उस की बातों को सुन कर मुझे दाल में कुछ काला लगा और इस राज को जानने की इच्छा होने लगी.

मेरे पूछने पर रमेश ने अपने परिवार का पूरा किस्सा सुनाया.

वे लोग गांव के बड़े किसान हैं. उन लोगों की तकरीबन 20 एकड़ जमीन है. ये चाचा उस के पिता के, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, सब से बड़े भाई?हैं. बीच में 4 बुआ भी हैं, जो अपनेअपने घर में हैं. चाचा के 4 लड़के हैं. सब की शादी, बालबच्चे सब हैं.

रमेश अपने पिता की अकेली औलाद है. बचपन में ही उस के पिता ट्रैक्टर हादसे में मारे गए थे. वे सभी संयुक्त परिवार में रहते हैं. चाचा और चाची उसे बहुत मानते हैं. पढ़ालिखा कर मजिस्ट्रेट बनाना चाहते थे, लेकिन इम्तिहान में 2 बार फेल हो जाने के बाद उस ने पढ़ाई छोड़ दी और खेतीबारी में जुट गया.

चाचा ही घर के मुखिया हैं. गांव में उन की धाक है.

पूरी बात सुन कर मेरा कौतूहल और बढ़ गया कि आखिर इस लड़के की वे शादी के पहले ही नसबंदी क्यों कराना चाहते हैं?

कुछ सोचते हुए मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम्हारे हिस्से में कितनी जमीन आएगी?’’

थोड़ा सकपकाते हुए उस ने बताया, ‘‘तकरीबन 10 एकड़.’’

पूछने में मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा था, लेकिन फिर भी पूछ ही लिया, ‘‘मान लो, तुम्हें बालबच्चे न हों और मौत हो जाए तो वह हिस्सा कहां जाएगा?’’

थोड़ी देर सोचने के बाद वह बोला, ‘‘फिर तो वह सब चाचा के ही हिस्से में जाएगा.’’

मेरे सवालों से वह थोड़ा हैरान था और जानना चाहता था कि यह सब क्यों पूछा जा रहा है.

बात टालते हुए सवेरे अस्पताल के अपने कमरे में अकेले आने को कहते हुए मैं आगे बढ़ गया.

रोकते हुए उस ने कहा, ‘‘चाचा जरूरी काम से गांव गए हैं. वजह, गांव में झगड़ा हो गया है. मुखिया होने के नाते उन्हें वहां जाना जरूरी था. कल शाम तक वे आ जाएंगे. अगर कोई खास बात है, तो उन के आने का इंतजार मैं कर लूं क्या?’’

‘‘तब तो और भी अच्छी बात है. तुम्हें अकेले ही आना है,’’ कहते हुए मैं चल पड़ा.

इस पूरी बातचीत से मैं इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि इस के चाचा ने एक गंदे खेल की योजना बना ली है. वह इसे बेऔलाद बना कर आने वाले दिनों में इस के हिस्से की जायदाद को अपने बेटों के लिए रखना चाहता है. मैं ने ठान लिया कि मुझे इस नाइंसाफी से इसे बचाना होगा, साथ ही मैं इस संयुक्त परिवार में एक नए महाभारत का सूत्रपात भी नहीं होने देना चाहता था.

सवेरे अस्पताल में मेरे कमरे के आगे रमेश मेरे इंतजार में खड़ा था. मैं ने दोबारा जांच का नाटक करते हुए उसे बताया, ‘‘अभी तुम्हें आपरेशन की कोई जरूरत नहीं है. इस में नस इतनी सटी हुई है कि आपरेशन करने में उस के कट जाने का खतरा है. साथ ही, तुम्हारे खून की रिपोर्ट के मुताबिक खून ज्यादा बहने का भी खतरा है. इतना छोटा हाइड्रोसिल दवा से ठीक हो जाएगा और अगर तुम्हारे चाचा आपरेशन कराने के लिए फिर किसी दूसरे अस्पताल में तुम्हें ले जाएं, तो हरगिज मत जाना. इस नसबंदी के दौर में तुम्हारा भी शिकार हो जाएगा.’’

झूठ का सहारा लेते हुए मैं ने उस से कहा, ‘‘शादी के बाद भी कई बार छोटा हाइड्रोसिल अपनेआप ठीक हो जाता है. दवा का यह पुरजा लो और चुपचाप तुरंत भाग जाओ. बस से तुम्हारे गांव का 2 घंटे का रास्ता है.’’

उसे जाते हुए देख कर मुझे तसल्ली हुई.

बात आईगई हो गई. प्रमोशन पाते हुए विभागाध्यक्ष के पद से साल 2003 में रिटायर होने के बाद मैं अपने निजी अस्पताल के जरीए मरीजों की सेवा में जुड़ गया था.

एक दिन एक बूढ़े होते आदमी एक बूढ़ी औरत को दिखाने के लिए मेरे कमरे में दाखिल हुआ. बूढ़ी औरत सफेद कपड़ों में, तुलसी की माला पहने हुए, साध्वी सी लग रही थी.

अपना परिचय देते हुए उस आदमी ने 28 साल पहले की घटना को याद दिलाया.

सारा घटनाक्रम मेरी आंखों के सामने तैर गया और आगे की घटना जानने की उत्सुकता जाग गई.

रमेश ने बताया कि अस्पताल से जाने के बाद चाचा ने उस का आपरेशन कराने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन नहीं करवाने की उस की जिद के आगे उन की एक न चली. चाचा उस को बराबर अपने साथ रखते थे. शादी के पहले उस के ऊपर जानलेवा हमला भी हुआ था. भाग कर उस ने किसी तरह जान बचा ली.

हल्ला था कि यह हमला चाचा ने ही करवाया था. 4 साल बाद ही चाचा की किसी ने हत्या कर दी थी. वे राजनीति में बहुत उलझ गए थे. उन्होंने बहुतों से दुश्मनी मौल ले ली थी.’’

उन दिनों उस गांव में लगने वाले नसबंदी कैंपों में मुझे कई बार जाने का मौका मिला था. मुझे वह गांव बहुत अच्छा लगता था. खुशहाल किसानों की बस्ती थी. खूब हरियाली थी. सारे खेत फसलों से लहलहाते रहते थे, इसलिए मैं ने रमेश से वहां का हाल पूछा.

उस ने कहना शुरू किया, ‘‘वह अब गांव नहीं रहा. छोटामोटा शहर बन गया है. पहले बारिश अनुकूल रहती थी. अब मौसम बदल गया है. सरकारी सिंचाई की कोई व्यवस्था अभी तक नहीं हो पाई है. पंप है तो बिजली नहीं. जिस किसान के पास अपना जनरेटर पंप जैसे सभी साधन हैं, उस की पैदावार ठीक है. खेती के लिए मजदूर नहीं मिलते, सब गांव छोड़ रहे हैं. उग्रवाद का बोलबाला हो गया है. उन के द्वारा तय लेवी दे कर छुटकारा मिलता है. जो थोड़े अमीर हैं, वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए बाहर भेज देते हैं और फिर वे किसी शहर में भले ही छोटीमोटी नौकरी कर लें, लेकिन गांव आना नहीं चाहते.’’

हैरानी जताते हुए मैं ने कहा, ‘‘मुझे तो तुम्हारा गांव इतना अच्छा लगा था कि मैं ने सोचा था कि रिटायरमैंट के बाद वहीं जा कर बसूंगा.’’

यह सुनते ही रमेश चेतावनी देने की मुद्रा में बोला, ‘‘भूल कर भी ऐसा नहीं करें सर. डाक्टरों के लिए वह जगह बहुत ही खतरनाक है. ब्लौक अस्पताल तो पहले से था ही, बाद में रैफरल अस्पताल भी खुल गया.

शुरू में सर्जन, लेडी डाक्टर सब आए थे, पर माहौल ठीक नहीं रहने से अब कोई आना नहीं चाहता है. जो भी डाक्टर आते हैं, 2-4 महीने में बदली करवा लेते हैं या नौकरी छोड़ कर चल देते हैं.

‘‘सर्जन लोगों के लिए तो फौजदारी मामला और भी मुसीबत है. इंजरी रिपोर्ट मनमाफिक लिखवाने के लिए उग्रवादी डाक्टर को ही उड़ा देने की धमकी देते हैं. वहां ढंग का कोई डाक्टर नहीं है. 2 झोलाछाप डाक्टर हैं, जो अंगरेजी दवाओं से इलाज करते हैं.

‘‘हम लोगों को तब बहुत खुशी हुई थी, जब हमारे गांव के ही एक परिवार का लड़का डाक्टरी पढ़ कर आया था. उस की पत्नी भी डाक्टर थी. दोनों में ही सेवा का भाव बहुत ज्यादा था. सब से ज्यादा सुविधा औरतों को हो गई थी.

2 साल में ही उन का बहुत नाम हो गया था. मां तो उन की पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थीं और बाद में पिता भी नहीं रहे. जमीन बेच कर अपने मातापिता की याद में एक अस्पताल भी बनवा रहा था. लेकिन उन से भी लेवी की मांग शुरू हो गई, तो वे औनेपौने दाम में सब बेच कर विदेश चले गए.’’

शहर के नजदीक इतने अच्छे गांव को भी चिकित्सा सुविधा की कमी का दंश झेलने की बात सुन कर सिवा अफसोस के मैं और कर क्या सकता था? बात बदलते हुए मैं ने कहा, ‘‘अच्छा, घर का हाल बताओ.’’

उस ने बताया, ‘‘चाचा के जाने के बाद घर में कलह बहुत बढ़ गई थी. हम लोगों के हिस्से की कमाई भी वे ही लोग उठा रहे थे, इसलिए वे जायदाद का बंटवारा नहीं चाहते थे.

‘‘मेरे मामा वकील हैं. उन के दबाव से बंटवारा हुआ. चाचा ने धोखे से मां के दस्तखत के कुछ दस्तावेज भी बनवा लिए थे. उस के आधार पर मेरे हिस्से में कम जायदाद आई.’’

मां अब तक आंखें बंद कर के सुन रही थीं, लेकिन अब चुप्पी तोड़ते हुए वे बोलीं, ‘‘हां डाक्टर साहब, वे मेरे पिता के समान थे. वे भी बेटी की तरह मानते थे. बैंक के कागज, लगान के कागज, तो कभी कोई सरकारी नोटिस आता रहता था. मैं मैट्रिक पास हूं, फिर भी मैं उन की इज्जत करते हुए, जहां वे कहते दस्तखत कर देती थी. कब उन्होंने उस दस्तावेज पर दस्तखत करवा लिए, पता नहीं.

‘‘मैं ने अपने बेटे को उस समय शांत रखा, नहीं तो कुछ भी हो सकता था. उसे बराबर समझाती थी कि संतोष धन से बड़ा कुछ नहीं होता है. है तो वह मेरा ही परिवार, लेकिन कहने में दुख लगता है कि चारों बेटे थोड़े भी सुखी नहीं हैं. पूरे परिवार में दिनरात कलह रहती है. उन में भी आपस में बंटवारा हो गया है. उन की खेतीगृहस्थी सब चौपट हो गई है. उन का कोई बालबच्चा भी काम लायक नहीं निकला.

‘‘एक पोता राशन की कालाबाजारी के आरोप में जेल में है, वहीं एक घर से भाग कर उग्रवादी बन गया है. कहने में शर्म आती है कि एक पोती भी घर से भाग गई. मुझे कोई बैर नहीं है उन से. मैं उन के परिवार के अभिभावक का फर्ज निभाती हूं. जो बन पड़ता है, हम लोग बराबर मदद करते रहते हैं. सब से छोटा बेटा, जो रमेश से 2 साल बड़ा है, हम लोगों से बहुत सटा रहता था. वह बीए तक पढ़ा भी. उस को हम लोगों ने खेतीबारी के सामान की दुकान खुलवा दी है.’’

फिर उन्होंने मुझे नसीहत देते हुए कहा, ‘‘डाक्टर साहब, सुखी रहने के लिए 3 बातों पर ध्यान देना जरूरी है. कभी भी किसी का हक नहीं मारना चाहिए. दूसरे का सुख छीन कर कभी कोई सुखी नहीं हो सकता.

दूसरी बात, किसी दूसरे का न तो बुरा सोचो और न बुरा करो. और तीसरी बात है स्वस्थ जीवनचर्या का पालन. सेहतमंद आदमी ही अपने लिए, समाज के लिए और देश के लिए कुछ कर सकता है…’’ इतना कह कर वे चुप हो गईं.

हाइड्रोसिल के आपरेशन के बारे में मेरे पूछने पर रमेश ने बताया कि अभी तक उस ने नहीं करवाया?है, लेकिन अब करवाना चाहता है. पहले धीरेधीरे बढ़ रहा था, लेकिन पिछले 2 साल में बहुत बड़ा हो गया है.

उस के 3 बच्चे भी हैं. 1 बेटा और 2 बेटी. सभी सैटल कर चुके हैं. बेटा एग्रीकल्चर पास कर के उन्नत वैज्ञानिक खेती में जुट गया है. पत्नी का बहुत पहले ही आपरेशन हो चुका है. फिर हंसते हुए वह बोला, ‘‘अब नस कट जाने की भी कोई चिंता नहीं है.’’

मैडिकल कालेज अस्पताल से मेरे बारे में जानकारी ले कर अपनी मां को दिखाने वह यहां तक पहुंच पाया है. उस की मां तकरीबन 70 साल की थीं. उन्हें पित्त में पथरी थी, जिस का आपरेशन कर दिया गया.

छुट्टी होने के बाद मांबेटा धन्यवाद देने मेरे कमरे में दाखिल हुए. रमेश ने अपने आपरेशन के लिए समय तय किया. फिर उस समय आपरेशन न करने और उस तरह की कड़ी हिदायत देने की वजह जानने की जिज्ञासा प्रकट की.

मैं ने कहा, ‘‘तो सुनो, तुम्हारे चाचा उस आपरेशन के साथ तुम्हारी नसबंदी करने के लिए मुझ पर दबाव डाल रहे थे. काफी पैसों का लालच भी दिया था. उन्होंने मुझे गलत जानकारी दी थी कि तुम्हारे 3 बच्चे हैं.

उस शाम तुम से बात होने के बाद मुझे अंदाजा हो गया था कि उन की नीयत ठीक नहीं थी. वे तुम्हें बेऔलाद बना कर तुम्हारे हिस्से की जायदाद को हड़पने की योजना बना रहे थे.’’

मेरी बात सुन कर दोनों ही सन्न रह गए. माताजी तो मेरे पैरों पर गिर पड़ीं, ‘‘डाक्टर साहब, आप ने मेरे वंश को बरबाद होने से बचा लिया.’’

मैं ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘‘बहनजी, आप मेरे से बहुत बड़ी हैं. पैर छू कर मुझे पाप का भागी न बनाएं. मुझे खुशी है कि एक डाक्टर की सामाजिक जिम्मेदारी निभाने का मुझे मौका मिला और आप के आशीर्वाद से मैं कामयाब हो पाया.’’

लेखक – डा. मधुकर एस. भट्ट

Family Story : निकम्मा बाप

Family Story : जसदेव जब भी अपने गांव के बाकी दोस्तों को दूसरे शहर में जा कर नौकरी कर के ज्यादा पैसे कमाते हुए देखता तो उस के मन में भी ऐसा करने की इच्छा होती.

एक दिन जसदेव और शांता ने फैसला कर ही लिया कि वे दोनों शहर जा कर खूब मेहनत करेंगे और वापस अपने गांव आ कर अपने लिए एक पक्का घर बनवाएंगे.

शांता और जसदेव अभी कुछ ही महीने पहले शादी के बंधन में बंधे थे. जसदेव लंबीचौड़ी कदकाठी वाला, गोरे रंग का मेहनती लड़का था. खानदानी जायदाद तो थी नहीं, पर जसदेव की पैसा कमाने के लिए मेहनत और लगन देख कर शांता के घर वालों ने उस का हाथ जसदेव को दे दिया था.

शांता भी थोड़े दबे रंग की भरे जिस्म वाली आकर्षक लड़की थी.

अपने गांव से कुछ दूर छोटे से शहर में पहुंच कर सब से पहले तो जसदेव के दोस्तों ने उसे किराए पर एक कमरा दिलवा दिया और अपने ही मालिक ठेकेदार लखपत चौधरी से बात कर मजदूरी पर भी रखवा लिया. अब जसदेव और शांता अपनी नई जिंदगी की शुरुआत कर चुके थे.

थोड़े ही दिनों में शांता ने अपनी पहली बेटी को जन्म दिया. दोनों ने बड़े प्यार से उस का नाम रवीना रखा.

मेहनतमजदूरी कर के अपना भविष्य बनाने की चाह में छोटे गांवकसबों से आए हुए जसदेव जैसे मजदूरों को लूटने वालों की कोई कमी नहीं थी.

ठेकेदार लखपत चौधरी का एक बिगड़ैल बेटा भी था महेश. पिता की गैरहाजिरी में बेकार बैठा महेश साइट पर आ कर मजदूरों के सिर पर बैठ जाता था.

सारे मजदूर महेश से दब कर रहते थे और ‘महेश बाबू’ के नाम से बुलाया करते थे, शायद इसलिए क्योंकि महेश एक निकम्मा इनसान था, जिस की नजर हमेशा दूसरे मजदूरों के पैसे और औरतों पर रहती थी.

जसदेव की अपने काम के प्रति मेहनत और लगन को देख कर महेश ने अब उसे अपना अगला शिकार बनाने की ठानी. महेश ने उसे अपने साथ बैठा कर शराब और जुए की ऐसी लत लगवाई कि पूछो ही मत. जसदेव भी अब शहर की चमकधमक में रंग चुका था.

महेश ने धोखे से 1-2 बार जसदेव को जुए में जितवा दिया, ताकि लालच में आ कर वह और ज्यादा पैसे दांव पर लगाए.

महेश अब जसदेव को साइट पर मजदूरी नहीं करने देता था, बल्कि अपने साथ कार में घुमाने लगा था.

शराब और जुए के अलावा अब एक और चीज थी, जिस की लत महेश जसदेव को लगवाना चाहता था ‘धंधे वालियों के साथ जिस्मफरोशी की लत’, जिस के लिए वह फिर शुरुआत में अपने रुपए खर्च करने को तैयार था.

महेश जसदेव को अपने साथ एक ऐसी जगह पर ले कर गया, जहां कई सारी धंधे वालियां जसदेव को अपनेअपने कमरों में खींचने को तैयार थीं, पर जसदेव के अंदर का आदर्श पति अभी बाकी था और शायद इसी वजह से उस ने इस तोहफे को ठुकरा दिया.

महेश को चिंता थी कि कहीं नया शिकार उस के हाथ से निकल न जाए, यही सोच कर उस ने भी जसदेव पर ज्यादा दबाव नहीं डाला.

उस रात घर जा कर जसदेव अपने साथ सोई शांता को दबोचने की कोशिश करने लगा कि तभी शांता ने उसे खुद से अलग करते हुए कहा, ‘‘आप भूल गए हैं क्या? मैं ने बताया था न कि मैं फिर पेट से हूं और डाक्टर ने अभी ऐसा कुछ भी करने को मना ही किया है.’’

जसदेव गुस्से में कंबल ताने सो गया.

अगले दिन जसदेव फिर महेश बाबू के पास पहुंचा और कल वाली जगह पर चलने को कहा.

महेश मन ही मन खुश था. एक बार धंधे वाली का स्वाद चखने के बाद जसदेव को अब इस की लत लग चुकी थी. इस बीच महेश बिचौलिया बन कर मुनाफा कमा रहा था.

जसदेव की तकरीबन ज्यादातर कमाई अपनी इस काम वासना में खर्च हो जाती थी और बाकी रहीसही जुए और शराब में.

जसदेव के दोस्तों को महेश बाबू की आदतों के बारे में अच्छी तरह से मालूम था. उन्होंने जसदेव को कई बार सचेत भी किया, पर महेश बाबू की मीठीमीठी बातों ने जसदेव का विश्वास बहुत अच्छी तरह से जीत रखा था.

पैसों की कमी में जसदेव और शांता के बीच रोजाना झगड़े होने लगे थे. शांता को अब अपना घर चलाना था, अपने बच्चों का पालनपोषण भी करना था.

10वीं जमात में पढ़ने वाली रवीना के स्कूल की फीस भी कई महीनों से नहीं भरी गई थी, जिस के लिए उसे अब जसदेव पर निर्भर रहने के बजाय खुद के पैरों पर खड़ा होना ही पड़ा.

शांता ने अपनी चांदी की पायल बेच कर एक छोटी सी सिलाई मशीन खरीद ली और अपने कमरे में ही एक छोटा सा सिलाई सैंटर खोल दिया. आसपड़ोस की औरतें अकसर उस से कुछ न कुछ सिलवा लिया करती थीं, जिस के चलते शांता और उस के परिवार की दालरोटी फिर से चल पड़ी.

जसदेव की आंखों में शांता का काम करना खटकने लगा. वह शांता के बटुए से पैसे निकाल कर ऐयाशी करने लगा और कभी शांता के पैसे न देने पर उसे पीटपीट कर अधमरा भी कर दिया करता था.

शांता इतना कुछ सिर्फ अपनी बेटी रवीना की पढ़ाई पूरी करवाने के लिए सह रही थी, क्योंकि शांता नहीं चाहती थी कि उस की बेटी को भी कोई ऐसा पति मिल जाए जैसा उसे मिला है.

बेटी रवीना के स्कूल की फीस पिछले 10 महीनों से जमा नहीं की गई थी, जिस के चलते उस का नाम स्कूल से काट दिया गया.

स्कूल छूटने के गम और जसदेव और शांता के बीच रोजरोज के झगड़े से उकताई रवीना ने सोच लिया कि अब वह अपनी मां को अपने बापू के साथ रहने नहीं देगी.

अभी जसदेव घर पर नहीं आया था. रवीना ने अपनी मां शांता से अपने बापू को तलाक देने की बात कही, पर गांव की पलीबढ़ी शांता को छोटी बच्ची रवीना के मुंह से ऐसी बातें अच्छी नहीं लगीं.

शांता ने रवीना को समझाया, ‘‘तू अभी पाप की इन बातों पर ध्यान मत दे. वह सब मैं देख लूंगी. भला मुझे कौन सा इस शहर में जिंदगीभर रहना है. एक बार तू पढ़लिख कर नौकरी ले ले, फिर तो तू ही पालेगी न अपनी बूढ़ी मां को…’’

‘‘मैं अब कैसे पढ़ूंगी मां? स्कूल वालों ने तो मेरा नाम भी काट दिया है. भला काटे भी क्यों न, उन्हें भी तो फीस चाहिए,’’ रवीना की इस बात ने शांता का दिल झकझोर दिया.

रात के 11 बजे के आसपास अभी शांता की आंख लगी ही थी कि किसी ने कमरे के दरवाजे को पकड़ कर जोरजोर से हिलाना शुरू कर, ‘‘शांता, खोल दरवाजा. जल्दी खोल शांता… आज नहीं छोड़ेंगे मुझे ये लोग शांता…’’

दरवाजे पर जसदेव था. शांता घबरा गई कि भला इस वक्त क्या हो गया और कौन मार देगा.

शांता ने दरवाजे की सांकल हटाई और जसदेव ने फौरन घर में घुस कर अंदर से दरवाजे पर सांकल चढ़ा दी और घर की कई सारी भारीभरकम चीजें दरवाजे के सामने रखने लगा.

जसदेव के चेहरे की हवाइयां उड़ी हुई थीं. वह ऊपर से नीचे तक पसीने में तरबतर था. जबान लड़खड़ा रही थी, मुंह सूख गया था.

‘‘क्या हुआ? क्या कर दिया? किस की जेब काटी? किस के गले में झपट्टा मारा?’’ शांता ने एक के बाद एक कई सवाल दागने शुरू कर दिए.

जसदेव पर शांता के सवालों का कोई असर ही नहीं हो रहा था, वह तो सिर्फ अपनी गरदन किसी कबूतर की तरह इधर से उधर घुमाए जा रहा था, मानो चारदीवारी में से बाहर निकलने के लिए कोई सुरंग ढूंढ़ रहा हो.

‘‘क्या हुआ? बताओ तो सही? और कौन मार देगा?’’ शांता ने चिंता भरी आवाज में पूछा.

जसदेव ने शांता के मुंह पर अपना हाथ रख कर उसे चुप रहने को कहा.

शांता को इस से पहले कि कुछ समझ में आता, इस बार कई सारे आदमी शांता के दरवाजे को उखाड़ने की कोशिश में लग गए. उन की बातों से यह तो साफ था कि वह जसदेव को अपने साथ उठा ले जाने आए थे या फिर मारने.

दरवाजे की सांकल टूट गई, पर उस के आगे रखे ढेर सारे भारीभरकम सामान ने अभी तक दरवाजे को थामा हुआ था और शायद जसदेव की सांसों को भी.

जसदेव को कुछ समझ में नहीं आया कि शांता से क्या बताए, ऊपर से इतना शोर सुन कर उसे अपना हर एक पल अपना आखिरी पल दिखाई पड़ने लगा.

‘‘अरे, बता न क्या कर के आया है आज? इतने लोग तेरे पीछे क्यों पड़े हैं?’’ अब शांता की आवाज में गुस्सा और चिंता दोनों दिखाई पड़ रही थी, जिस के चलते जसदेव ने अपना मुंह खोला, ‘‘मैं ने कुछ नहीं… मैं ने कुछ नहीं किया शांता, मुझे क्या पता था कि वह…’’ जसदेव फिर चुप हो गया.

अब शांता जसदेव का गरीबान पकड़ कर झकझोरने लगी, ‘‘कौन है वह?’’

शांता पति से बात करने का अब अदब भी भूल चुकी थी.

‘‘आज जब मैं महेश बाबू के यहां जुआ खेलने बैठा था कि एक लड़की मुझे जबरदस्ती शराब पिलाने लगी. मैं नशे में धुत्त था कि इतने में उस लड़की ने मुझे इशारे से अपने पास बुलाया.

‘‘मैं कुछ समझ न पाया और बहाना बना कर जुए के अड्डे से उठ गया और सीधा उस लड़की के पास चला गया.

‘‘वह मेरा हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गई और नंगधड़ंग हो कर मुझ से सारे पाप करवा डाले, जिस का अंदाजा तुम लगा सकती हो.’’

‘‘फिर…?’’ शांता ने काफी गुस्से में पूछा.

‘‘उसी वक्त न जाने कहां से महेश बाबू उस कमरे में आ गए और गेट खटखटाना शुरू कर दिया.

‘‘जल्दी दरवाजा न खुलने की वजह से उन्होंने लातें मारमार कर दरवाजा तोड़ दिया.

‘‘दरवाजा खुलते ही वह लड़की उन से जा लिपटी और मेरे खिलाफ इलजाम लगाने लगी. मैं किसी तरह से अपनी जान बचा कर यहां आ पाया, पर शायद अब नहीं बचूंगा.’’

शांता को अब जसदेव की जान की फिक्र थी. उस ने जसदेव को दिलासा देते हुए कहा, ‘‘तुम पीछे के रास्ते से भाग जाओ और अब यहां दिखना भी मत.’’

‘‘तेरा, रवीना और तेरे पेट में पल रहे इस मासूम बच्चे का क्या…? मैं नहीं मिला, तो वे तुम लोगों को मार डालेंगे,’’ जसदेव को अब अपने बीवीबच्चों की भी फिक्र थी.

शांता ने फिर जसदेव पर गरजते हुए कहा, ‘‘तुम पागल मत बनो. वे मुझ औरत को कितना मारेंगे और मारेंगे भी तो जान से थोड़े ही न मार देंगे. अगर तुम यहां रहोगे, तो हम सब को ले डूबोगे.’’

जसदेव पीछे के दरवाजे से चोरीछिपे भाग निकला. जसदेव भाग कर कहां गया, इस का ठिकाना तो किसी को नहीं पता.

तकरीबन 2 साल बीत चुके थे. जसदेव को अब अपने बीवीबच्चों की फिक्र सताने लगी थी. उस ने सोचा कि काफी समय हो गया है और अब तक तो मामला शांत भी हो गया होगा और जो रहीसही गलतफहमी होगी, वह महेश बाबू के साथ बैठ कर सुलझा लेगा.

जसदेव ने 2 साल से अपनी दाढ़ी नहीं कटवाई थी और बाल भी काफी लंबे हो चुके थे. जसदेव ने इसे अपना नया भेष सोच कर ऐसे ही अपनी शांता और रवीना के पास जाने की योजना बनाई.

जसदेव ने शहर पहुंच कर कुछ मिठाइयां साथ ले लीं. सोचा कि बच्चों और शांता से काफी दिन बाद मिल रहा है, खाली हाथ कैसे जाए और अब तो वे नन्हा मेहमान भी राह देख रहा होगा उस की.

जसदेव ने अपने दोनों हाथों में मिठाइयों का थैला पकड़े शांता का दरवाजा खटखटाया. कमरे के बाहर नया पेंट और सजावट देख कर उसे लगा कि शांता अब अच्छे पैसे कमाने लगी है शायद.

हलका सा दरवाजा खुला और एक अनजान औरत दरवाजे से मुंह बाहर निकाल कर जसदेव से सवाल करने लगी, ‘‘आप कौन…?’’

‘‘जी, मुझे शांता से मिलना था. वह यहां रहती है न?’’ जसदेव ने पूछा.

‘‘शांता, नहीं तो भाई साहब, यहां तो कोई शांता नहीं रहती. हम तो काफी दिनों से यहां रह रहे हैं,’’ उस औरत ने हैरानी से कहा.

‘‘बहनजी, आप यहां कब आई हैं?’’ जसदेव ने उस औरत से पूछताछ करते हुए पूछा.

‘‘तकरीबन 2 साल पहले.’’

जसदेव वहां से उलटे पैर निकल गया. उस के मन में कई बुरे विचार भी आए, पर अपनेआप को तसल्ली देते हुए खुद से ही कहता रहा कि शायद शांता गांव वापस चली गई होगी. जसदेव शांता की खबर लेने शहर में रह रहे अपने दोस्तों के पास पहुंचा.

पहली नजर में तो जसदेव के बचपन का दोस्त फगुआ भी उसे पहचान नहीं पाया था, पर आवाज और कदकाठी से उसे पहचानने में ज्यादा देर नहीं लगी.

जसदेव ने समय बरबाद करना नहीं चाहा और सीधा मुद्दे पर आ कर फगुआ से शांता के बारे में पूछा, ‘‘मेरी शांता कहां है? मुझे सचसच बता.’’

फगुआ ने उस से नजरें चुराते हुए चुप रहना ही ठीक समझा. पर जसदेव के दवाब डालने पर फगुआ ने उसे अपने साथ आने को कहा. फगुआ अंदर से चप्पल पहन कर आया और जसदेव उस के पीछेपीछे चलने लगा.

कुछ दूरी तक चलने के बाद फगुआ ने जसदेव को देख कर एक घर की तरफ इशारा किया, फिर फगुआ वापस चलता बना.

फगुआ ने जिस घर की ओर इशारा किया था, वह वही कोठा था, जहां जसदेव पहले रोज जाया करता था. पर जसदेव को समझ में नहीं आया कि फगुआ उसे यहां ले कर क्यों आया है.

अगले ही पल उस ने जो देखा, उसे देख कर जसदेव के पैरों तले जमीन खिसक गई. कोठे की सीढि़यों से उतरता एक अधेड़ उम्र का आदमी रवीना की बांहों में हाथ डाले उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बैठ कर कहीं ले जाने की तैयारी में था. जसदेव भाग कर गया और रवीना को रोका. वह नौजवान मोटरसाइकिल चालू कर उस का इंतजार करने लगा.

रवीना ने पहले तो अपने बापू को इस भेष में पहचाना ही नहीं, पर फिर समझाने पर वह पहचान ही गई.

उस ने अपने बापू से बात करना भी ठीक नहीं समझा. रवीना के दिल में बापू के प्रति जो गुस्सा और भड़ास थी, उस का ज्वालामुखी रवीना के मुंह से फूट ही गया.

रवीना ने कहा, ‘‘यह सबकुछ आप की ही वजह से हुआ है. उस दिन आप तो भाग गए थे, पर उन लोगों ने मां को नोच खाया, किसी ने छाती पर झपट्टा मारा, किसी ने कपड़े फाड़े और एकएक कर मेरे सामने ही मां के साथ…’’ रवीना की आंखों से आंसू आ गए.

‘‘मां कहां है बेटी?’’ जसदेव ने चिंता भरी आवाज में पूछा.

‘‘मां तो उस दिन ही मर गईं और उन के पेट में पल रहा आप का बच्चा भी…’’ रवीना ने कहा, ‘‘मां ने मुझे भागने को कहा, पर उस से पहले ही आप के महेश बाबू ने मुझे इस कोठे पर बेच दिया.’’

रवीना इतना ही कह पाई थी कि मोटरसाइकिल वाला ग्राहक रवीना को आवाज देने लगा और जल्दी आने को कहने लगा.

रवीना उस की मोटरसाइकिल पर उस से लिपट कर निकल गई और एक बार भी जसदेव को मुड़ कर नहीं देखा.

जसदेव का पूरा परिवार ही खत्म हो चुका था और यह सब महेश बाबू की योजना के मुताबिक हुआ था, इसे समझने में भी जसदेव को ज्यादा समय नहीं लगा. बीच रोड से अपनी कीमती कार में महेश बाबू को जब उस लड़की के साथ जाते हुए देखा, जिस ने उसे फंसाया था, तब जा कर जसदेव को सारा माजरा समझ में आया कि यह महेश बाबू और इस लड़की की मिलीभगत थी, पर अब बहुत देर हो चुकी थी और कुछ
भी वापस पहले जैसा नहीं किया जा सकता था.

लेखक – हेमंत कुमार

Love Story : प्यार का धागा

Love Story : सांझ ढलते ही थिरकने लगते थे उस के कदम. मचने लगता था शोर, ‘डौली… डौली… डौली…’ उस के एकएक ठुमके पर बरसने लगते थे नोट. फिर गड़ जाती थीं सब की ललचाई नजरें उस के मचलते अंगों पर. लोग उसे चारों ओर घेर कर अपने अंदर का उबाल जाहिर करते थे.

…और 7 साल बाद वह फिर दिख गई. मेरी उम्मीद के बिलकुल उलट. सोचा था कि जब अगली बार मुलाकात होगी, तो वह जरूर मराठी धोती पहने होगी और बालों का जूड़ा बांध कर उन में लगा दिए होंगे चमेली के फूल या पहले की तरह जींसटीशर्ट में, मेरी राह ताकती, उतनी ही हसीन… उतनी ही कमसिन…

लेकिन आज नजारा बदला हुआ था. यह क्या… मेरे बचपन की डौल यहां आ कर डौली बन गई थी.

लकड़ी की मेज, जिस पर जरमन फूलदान में रंगबिरंगे डैने सजे हुए थे, से सटे हुए गद्देदार सोफे पर हम बैठे हुए थे. अचानक मेरी नजरें उस पर ठहर गई थीं.

वह मेरी उम्र की थी. बचपन में मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे अपने साथ स्कूल ले कर जाती थी. उन दिनों मेरा परिवार एशिया की सब से बड़ी झोंपड़पट्टी में शुमार धारावी इलाके में रहता था. हम ने वहां की तंग गलियों में बचपन बिताया था.

वह मराठी परिवार से थी और मैं राजस्थानी ब्राह्मण परिवार का. उस के पिता आटोरिकशा चलाते थे और उस की मां रेलवे स्टेशन पर अंकुरित अनाज बेचती थी.

हर शुक्रवार को उस के घर में मछली बनती थी, इसलिए मेरी माताजी मुझे उस दिन उस के घर नहीं जाने देती थीं.

बड़ीबड़ी गगनचुंबी इमारतों के बीच धारावी की झोंपड़पट्टी में गुजरे लमहे आज भी मुझे याद आते हैं. उगते हुए सूरज की रोशनी पहले बड़ीबड़ी इमारतों में पहुंचती थी, फिर धारावी के बाशिंदों के पास.

धारावी की झोंपड़पट्टी को ‘खोली’ के नाम से जाना जाता है. उन खोलियों की छतें टिन की चादरों से ढकी रहती हैं.

जब कभी वह मेरे घर आती, तो वापस अपने घर जाने का नाम ही नहीं लेती थी. वह अकसर मेरी माताजी के साथ रसोईघर में काम करने बैठ जाती थी.

काम भी क्या… छीलतेछीलते आधा किलो मटर तो वह खुद खा जाती थी. माताजी को वह मेरे लिए बहुत पसंद थी, इसलिए वे उस से बहुत स्नेह रखती थीं.

हम कल्याण के बिड़ला कालेज में थर्ड ईयर तक साथ पढे़ थे. हम ने लोकल ट्रेनों में खूब धक्के खाए थे. कभीकभार हम कालेज से बंक मार कर खंडाला तक घूम आते थे. हर शुक्रवार को सिनेमाघर जाना हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया था.

इसी बीच उस की मां की मौत हो गई. कुछ दिनों बाद उस के पिता उस के लिए एक नई मां ले आए थे.

ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद मैं और पढ़ाई करने के लिए दिल्ली चला गया था. कई दिनों तक उस के बगैर मेरा मन नहीं लगा था.

जैसेतैसे 7 साल निकल गए. एक दिन माताजी की चिट्ठी आई. उन्होंने बताया कि उस के घर वाले धारावी से मुंबई में कहीं और चले गए हैं.

7 साल बाद जब मैं लौट कर आया, तो अब उसे इतने बड़े महानगर में कहां ढूंढ़ता? मेरे पास उस का कोई पताठिकाना भी तो नहीं था. मेरे जाने के बाद उस ने माताजी के पास आना भी बंद कर दिया था.

जब वह थी… ऐसा लगता था कि शायद वह मेरे लिए ही बनी हो. और जिंदगी इस कदर खुशगवार थी कि उसे बयां करना मुमकिन नहीं.

मेरा उस से रोज झगड़ा होता था. गुस्से के मारे मैं कई दिनों तक उस से बात ही नहीं करता था, तो वह रोरो कर अपना बुरा हाल कर लेती थी. खानापीना छोड़ देती थी. फिर बीमार पड़ जाती थी और जब डाक्टरों के इलाज से ठीक हो कर लौटती थी, तब मुझ से कहती थी, ‘तुम कितने मतलबी हो. एक बार भी आ कर पूछा नहीं कि तुम कैसी हो?’

जब वह ऐसा कहती, तब मैं एक बार हंस भी देता था और आंखों से आंसू भी टपक पड़ते थे.

मैं उसे कई बार समझाता कि ऐसी बात मत किया कर, जिस से हमारे बीच लड़ाई हो और फिर तुम बीमार पड़ जाओ. लेकिन उस की आदत तो जंगल जलेबी की तरह थी, जो मुझे भी गोलमाल कर देती थी.

कुछ भी हो, पर मैं बहुत खुश था, सिवा पिताजी के जो हमेशा अपने ब्राह्मण होने का घमंड दिखाया करते थे.

एक दिन मेरे दोस्त नवीन ने मुझ से कहा, ‘‘यार पृथ्वी… अंधेरी वैस्ट में ‘रैडक्रौस’ नाम का बहुत शानदार बीयर बार है. वहां पर ‘डौली’ नाम की डांसर गजब का डांस करती है. तुम देखने चलोगे क्या? एकाध घूंट बीयर के भी मार लेना. मजा आ जाएगा.’’

बीयर बार के अंदर के हालात से मैं वाकिफ था. मेरा मन भी कच्चा हो रहा था कि अगर पुलिस ने रेड कर दी, तो पता नहीं क्या होगा… फिर भी मैं उस के साथ हो लिया.

रात गहराने के साथ बीयर बार में रोशनी की चमक बढ़ने लगी थी. नकली धुआं उड़ने लगा था. धमाधम तेज म्यूजिक बजने लगा था.

अब इंतजार था डौली के डांस का. अगला नजारा मुझे चौंकाने वाला था. मैं गया तो डौली का डांस देखने था, पर साथ ले आया चिंता की रेखाएं.

उसे देखते ही बार के माहौल में रूखापन दौड़ गया. इतने सालों बाद दिखी तो इस रूप में. उसे वहां देख

कर मेरे अंदर आग फूट रही थी. मेरे अंदर का उबाल तो इतना ज्यादा था कि आंखें लाल हो आई थीं.

आज वह मुझे अनजान सी आंखों से देख रही थी. इस से बड़ा दर्द मेरे लिए और क्या हो सकता था? उसे देखते ही, उस के साथ बिताई यादों के झरोखे खुल गए थे.

मुझे याद हो आया कि जब तक उस की मां जिंदा थीं, तब तक सब ठीक था. उन के मर जाने के बाद सब धुंधला सा गया था.

उस की अल्हड़ हंसी पर आज ताले जड़े हुए थे. उस के होंठों पर दिखावे की मुसकान थी.

वह अपनेआप को इस कदर पेश कर रही थी, जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं. वह रात को यहां डांसर का काम किया करती थी और रात की आखिरी लोकल ट्रेन से अपने घर चली जाती थी. उस का गाना खत्म होने तक बीयर की पूरी 2 बोतलें मेरे अंदर समा गई थीं.

मेरा सिर घूमने लगा था. मन तो हुआ उस पर हाथ उठाने का… पर एकाएक उस का बचपन का मासूम चेहरा मेरी आंखों के सामने तैर आया.

मेरा बीयर बार में मन नहीं लग रहा था. आंखों में यादों के आंसू बह रहे थे. मैं उठ कर बाहर चला गया. नवीन तो नशे में चूर हो कर वहीं लुढ़क गया था.

मैं ने रात के 2 बजे तक रेलवे स्टेशन पर उस के आने का इंतजार किया. वह आई, तो उस का हाथ पकड़ कर मैं ने पूछा, ‘‘यह सब क्या है?’’

‘‘तुम इतने दूर चले गए. पढ़ाई छूट गई. पापी पेट के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम तो करना ही था. मैं क्या करती?

‘‘सौतेली मां के ताने सुनने से तो बेहतर था… मैं यहां आ गई. फिर क्या अच्छा, क्या बुरा…’’ उस ने कहा.

‘‘एक बार माताजी से आ कर मिल तो सकती थीं तुम?’’

‘‘हां… तुम्हारे साथ जीने की चाहत मन में लिए मैं गई थी तुम्हारी देहरी पर… लेकिन तुम्हारे दर पर मुझे ठोकर खानी पड़ी.

‘‘इस के बाद मन में ही दफना दिए अनगिनत सपने. खुशियों का सैलाब, जो मन में उमड़ रहा था, तुम्हारे पिता ने शांत कर दिया और मैं बैरंग लौट आई.’’

‘‘तुम्हें एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया. कुछ और काम भी तो कर सकती थीं?’’ मैं ने कहा.

‘‘कहां जाती? जहां भी गई, सभी ने जिस्म की नुमाइश की मांग रखी. अब तुम ही बताओ, मैं क्या करती?’’

‘‘मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन मैला नहीं है. कल से तुम यहां नहीं आओगी. किसी को कुछ कहनेसमझाने की जरूरत नहीं है. हम दोनों कल ही दिल्ली चले जाएंगे.’’

‘‘अरे बाबू, क्यों मेरे लिए अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो?’’

‘‘खबरदार जो आगे कुछ बोली. बस, कल मेरे घर आ जाना.’’

इतना कह कर मैं घर चला आया और वह अपने घर चली गई. रात सुबह होने के इंतजार में कटी. सुबह उठा, तो अखबार ने मेरे होश उड़ा दिए. एक खबर छपी थी, ‘रैडक्रौस बार की मशहूर डांसर डौली की नींद की ज्यादा गोलियां खाने से मौत.’

मेरा रोमरोम कांप उठा. मेरी खुशी का खजाना आज लुट गया और टूट गया प्यार का धागा.

‘‘शादी करने के लिए कहा था, मरने के लिए नहीं. मुझे इतना पराया समझ लिया, जो मुझे अकेला छोड़ कर चली गई? क्या मैं तुम्हारा बोझ उठाने लायक नहीं था? तुम्हें लाल साड़ी में देखने की मेरी इच्छा को तुम ने क्यों दफना दिया?’’ मैं चिल्लाया और अपने कानों पर हथेलियां रखते हुए मैं ने आंखें भींच लीं.

बाहर से उड़ कर कुछ टूटे हुए डैने मेरे पास आ कर गिर गए थे. हवा से अखबार के पन्ने भी इधरउधर उड़ने लगे थे. माहौल में फिर सन्नाटा था. रूखापन था. गम से भरी उगती हुई सुबह थी वह.

Social Story : लक्ष्मी ने कैसे लिया इज्जत का बदला

Social Story : ‘‘अरे ओ लक्ष्मी…’’ अखबार पढ़ते हुए जब लक्ष्मी ने ध्यान हटा कर अपने पिता मोड़ीराम की तरफ देखा, तब वह बोली, ‘‘क्या है बापू, क्यों चिल्ला रहे हो?’’ ‘‘अखबार की खबरें पढ़ कर सुना न,’’ पास आ कर मोड़ीराम बोले.

‘‘मैं तुम्हें नहीं सुनाऊंगी बापू?’’ चिढ़ाते हुए लक्ष्मी अपने बापू से बोली. ‘‘क्यों नहीं सुनाएगी तू? अरे, मैं अंगूठाछाप हूं न, इसीलिए ज्यादा भाव खा रही है.’’

‘‘जाओ बापू, मैं तुम से नहीं बोलती.’’ ‘‘अरे लक्ष्मी, तू तो नाराज हो गई…’’ मनाते हुए मोड़ीराम बोले, ‘‘तुझे हम ने पढ़ाया, मगर मेरे मांबाप ने मुझे नहीं पढ़ाया और बचपन से ही खेतीबारी में लगा दिया, इसलिए तुझ से कहना पड़ रहा है.’’

‘‘कह दिया न बापू, मैं नहीं सुनाऊंगी.’’ ‘‘ऐ लक्ष्मी, सुना दे न… देख, दिनेश की खबर आई होगी.’’

‘‘वही खबर तो पढ़ रही थी. तुम ने मेरा ध्यान भंग कर दिया.’’ ‘‘अच्छा लक्ष्मी, पुलिस ने उस के ऊपर क्या कार्यवाही की?’’

‘‘अरे बापू, पुलिस भी तो बिकी हुई है. अखबार में ऐसा कुछ नहीं लिखा है. सब लीपापोती है.’’ ‘‘पैसे वालों का कुछ नहीं बिगड़ता है बेटी,’’ कह कर मोड़ीराम ने अफसोस जताया, फिर पलभर रुक कर बोला, ‘‘अरे, मरना तो अपने जैसे गरीब का होता है.’’

‘‘हां बापू, तुम ठीक कहते हो. मगर यह क्यों भूल रहे हो, रावण और कंस जैसे अत्याचारियों का भी अंत हुआ, फिर दिनेश जैसा आदमी किस खेत की मूली है,’’ बड़े जोश से लक्ष्मी बोली. मगर मोड़ीराम ने कहा, ‘‘वह जमाना गया लक्ष्मी. अब तो जगहजगह रावण और कंस आ गए हैं.’’

‘‘अरे बापू, निराश मत होना. दिनेश जैसे कंस को मारने के लिए भी किसी न किसी ने जन्म ले लिया है.’’ ‘‘यह तू नहीं, तेरी पढ़ाई बोल रही है. तू पढ़ीलिखी है न, इसलिए ऐसी बातें कर रही है. मगर यह इतना आसान नहीं है. जो तू सोच रही है. आजकल जमाना बहुत खराब हो गया है.’’

‘‘देखते जाओ बापू, आगेआगे क्या होता है,’’ कह कर लक्ष्मी ने अपनी बात कह दी, मगर मोड़ीराम की समझ में कुछ नहीं आया, इसलिए बोला, ‘‘ठीक है लक्ष्मी, तू पढ़ीलिखी है, इसलिए तू सोचती भी ऊंचा है. मैं खेत पर जा रहा हूं. तू थोड़ी देर बाद रोटी ले कर वहीं आ जाना.’’ ‘‘ठीक है बापू, जाओ. मैं आ जाऊंगी,’’ लक्ष्मी ने बेमन से कह कर बात को खत्म कर दिया.

मोड़ीराम खेत पर चला गया. लक्ष्मी फिर से अखबार पढ़ने लगी. मगर उस का ध्यान अब पढ़ने में नहीं लगा. उस का सारा ध्यान दिनेश पर चला गया. दिनेश आज का रावण है. इसे कैसे मारा जाए? इस बात पर उस का सारा ध्यान चलने लगा. उस ने खूब घोड़े दौड़ाए, मगर कहीं से हल मिलता नहीं दिखा. काफी सोचने के बाद आखिरकार लक्ष्मी ने हल निकाल लिया. तब उस के चेहरे पर कुटिल मुसकान फैल गई.

दिनेश और कोई नहीं, इस गांव का अमीर किसान है. उस के पास ढेर सारी खेतीबारी है. गांव में उस की बहुत बड़ी हवेली है. उस के यहां नौकरचाकर हैं. खेत नौकरों के भरोसे ही चलता है. रकम ले कर ब्याज पर पैसे देना उस का मुख्य पेशा है. गांव के जितने गरीब किसान हैं, उन को अपना गुलाम बना रखा है. गांव की बहूबेटियों की इज्जत से खेलना उस का काम है. पूरे गांव में उस की इतनी धाक है कि कोई भी उस के खिलाफ नहीं बोलता है.

इस तरह इस गांव में दिनेश नाम के रावण का राज चल रहा था. उस के कहर से हर कोई दुखी था. ‘‘लक्ष्मी, रोटियां बन गई हैं, बापू को खेत पर दे आ,’’ मां कौशल्या ने जब आवाज लगाई, तब वह अखबार एक तरफ रख कर मां के पास रसोईघर में चली गई.

लक्ष्मी बापू की रोटियां ले कर खेत पर जा रही थी, मगर विचार उस के सारे दिनेश पर टिके थे. आज के अखबार में यहीं खबर खास थी कि उस ने अपने फार्म पर गांव के मांगीलाल की लड़की चमेली की इज्जत लूटी थी. गांव में यह खबर आग की तरह फैल गई थी, मगर ऊपरी जबान से कोई कुछ नहीं कह रहा था कि चमेली की इज्जत दिनेश ने ही लूटी है. जब लक्ष्मी खेत पर पहुंची, तब बापू खेत में बने एक कमरे की छत पर खड़े हो कर पक्षी भगा रहे थे, वह भी ऊपर चढ़ गई. देखा कि वहां से उस की पूरी फसल दिख रही थी.

लक्ष्मी बोली, ‘‘बापू, रोटी खाओ. लाओ, गुलेल मुझे दो, मैं पक्षी भगाती हूं.’’ ‘‘ले बेटी संभाल गुलेल, मगर किसी पक्षी को मार मत देना,’’ कह कर मोड़ीराम ने गुलेल लक्ष्मी के हाथों में थमा दी और खुद वहीं पर बैठ कर रोटी खाने लगा.

लक्ष्मी थोड़ी देर तक पक्षियों को भगाती रही, फिर बोली, ‘‘बापू, आप ने यह कमरा बहुत अच्छा बनाया है. अब मैं यहां पढ़ाई करूंगी.’’ ‘‘क्या कह रही है लक्ष्मी? यहां तू पढ़ाई करेगी? क्या यह पढ़ाई करने की जगह है?’’

‘‘हां बापू, जंगल की ताजा हवा जब मिलती है, उस हवा में दिमाग अच्छा चलेगा. अरे बापू, मना मत करना.’’ ‘‘अरे लक्ष्मी, मैं ने आज तक मना किया है, जो अब करूंगा. अच्छा पढ़ लेना यहां. तेरी जो इच्छा है वह कर,’’ हार मानते हुए मोड़ीराम बोला.

लक्ष्मी खुश हो गई. उस का कमरा इतना बड़ा है कि वहां वह अपनी योजना को अंजाम दे सकती है. इस मकान के चारों ओर मिट्टी की दीवारें हैं और दरवाजा भी है. एक खाट भीतर है. रस्सी और बिजली का इंतजाम भी है. फसलें जब भरपूर होती हैं, तब बापू कभीकभी यहां पर सोते हैं. मतलब वह सबकुछ है, जो वह चाहती है. इस तरह दिन गुजरने लगे. लक्ष्मी दिन में आ कर अपने खेत वाले कमरे में पढ़ाई करने लगी, क्योंकि इस समय फसल में अंकुर फूट रहे थे, इसलिए बापू भी खेत पर बहुत कम आते थे. पढ़ाई का तो बहाना था, वह रोजाना अपने काम को अंजाम देने के लिए काम करती थी.

अब लक्ष्मी सारी तैयारियां कर चुकी थी, फिर मौके का इंतजार करने लगी. इसी दौरान बापू का उस ने पूरा भरोसा जीत लिया था. इसी बीच एक घटना हो गई.

बापू के गहरे दोस्त, जो उज्जैन में रहते थे, उन की अचानक मौत हो गई. तब बापू 13 दिन के लिए उज्जैन चले गए. तब लक्ष्मी का मिशन और आसान हो गया. लक्ष्मी का खेत ऐसी जगह पर था, जहां कोई भी बाहरी शख्स आसानी से नहीं देख सकता था. अब वह आजाद हो गई, इसलिए इंतजार करने लगी दिनेश का. बापू के न होने के चलते लक्ष्मी अपना ज्यादा समय खेत में बने कमरे पर बिताने लगी. सुबह कालेज जाती थी, दोपहर को वापस गांव में आ जाती थी. और फिर खेत में फसल की हिफाजत के बहाने पक्षियों को भगाती और खुद अपने शिकार का इंतजार करती.

अचानक लक्ष्मी का शिकार खुद ही उस के बुने जाल में आ गया. वह कमरे की छत पर बैठ कर गुलेल से पक्षियों को भगा रही थी, तभी गुलेल का पत्थर उधर से गुजर रहे दिनेश को जा लगा. दिनेश तिलमिलाता हुआ पास आ कर बोला, ‘‘अरे लड़की, तू ने पत्थर क्यों मारा?’’ ‘‘अरे बाबू, मैं ने तुम पर जानबूझ कर पत्थर नहीं मारा. खेत में बैठे पक्षियों को भगा रही थी, अब आप को लग गया, तो इस में मेरी क्या गलती है?’’

‘‘चल, नीचे उतर. अभी बताता हूं कि तेरी क्या गलती है?’’ ‘‘मैं कोई डरने वाली नहीं हूं आप से. आती हूं, आती हूं नीचे,’’ पलभर में लक्ष्मी कमरे की छत से नीचे उतर गई, फिर बोली, ‘‘हां बाबू, बोलो. कहां चोट लगी है तुम्हें? मैं उस जगह को सहला दूंगी.’’ ‘‘मेरे दिल पर,’’ दिनेश उस का हाथ पकड़ कर बोला.

‘‘हाथ छोड़ बाबू, किसी पराई लड़की का हाथ पकड़ना अच्छा नहीं होता है,’’ लक्ष्मी ने हाथ छुड़ाने की नाकाम कोशिश की. ‘‘हम जिस का एक बार हाथ पकड़ लेते हैं, फिर छोड़ते नहीं,’’ दिनेश ने उस का हाथ और मजबूती से पकड़ लिया.

लक्ष्मी ने देखा कि उस ने खूब शराब पी रखी है. उस के मुंह से शराब का भभका आ रहा था. लक्ष्मी बोली, ‘‘यह फिल्मी डायलौग मत बोल बाबू, सीधेसीधे मेरा हाथ छोड़ दे.’’ ‘‘यह हाथ तो अब हवेली जा कर ही छूटेगा… चल हवेली.’’

‘‘अरे, हवेली में क्या रखा है? आज इस गरीब की कुटिया में चल,’’ लक्ष्मी ने जब यह कहा, तो दिनेश खुद ही कमरे के भीतर चला आया. उस ने खुद दरवाजा बंद किया और पलंग पर बैठ गया. ज्यादा नशा होने के चलते उस की आंखों में वासना के डोरे तैर रहे थे. लक्ष्मी बोली, ‘‘जल्दी मत कर. मेरी झोंपड़ी भी तेरे महल से कम नहीं है. देख, अब तक तो तू ने हवेली की शराब पी, आज तू झोंपड़ी की शराब पी कर देख. इतना मजा आएगा कि तू आज मस्त हो जाएगा.’’

इस के बाद लक्ष्मी ने पूरा गिलास उस के मुंह में उड़ेल दिया. हलक में शराब जाने के बाद वह बोला, ‘‘तू सही कहती है. क्या नाम है तेरा?’’ ‘‘लक्ष्मी. ले, एक गिलास और पी,’’ लक्ष्मी ने उसे एक गिलास और शराब पिला दी. इस बार शराब के साथ नशीली दवा थी. वह चाहती थी कि दिनेश शराब पी कर बेहोश हो जाए, फिर उस ने 2-3 गिलास शराब और पिला दी. थोड़ी देर में वह बेहोश हो गया. जब लक्ष्मी ने अच्छी तरह देख लिया कि अब पूरी तरह से दिनेश बेहोश है, इस को होश में आने में कई घंटे लगेंगे, तब उस ने रस्सी उठाई, उस का फंदा बनाया और दिनेश के गले में बांध कर खींच दिया. थोड़ी देर बाद ही वह मौत के आगोश में सो गया.

लक्ष्मी ने पलंग के नीचे पहले से एक गड्ढा खोद रखा था. उस ने पलंग को उठाया और लाश को गड्ढे में फेंक दिया. लक्ष्मी ने गड्ढे में रस्सी और शराब की खाली बोतलें भी हवाले कर दीं. फिर फावड़ा ले कर वह मिट्टी डालने लगी.

मिट्टी डालते समय लक्ष्मी के हाथ कांप रहे थे. कहीं दिनेश की लाश जिंदा हो कर उस पर हमला न कर दे. जब गड्ढा मिट्टी से पूरा भर गया, तब उस ने उस जगह पर पलंग को बिछा दिया. फिर कमरे पर ताला लगा कर वह जीत की मुसकान लिए बाहर निकल गई.

Family Story 2025 : अनोखा बदला

Family Story 2025 : ‘‘तुम क्या क्या काम कर लेती हो?’’ केदारनाथ की बड़ी बेटी सुषमा ने उस काम वाली लड़की से पूछा. सुषमा ऊधमपुर से अपने बाबूजी का हालचाल जानने के लिए यहां आई थी.

दोनों बेटियों की शादी हो जाने के बाद केदारनाथ अकेले रह गए थे. बीवी सालभर पहले ही गुजर गई थी. बड़ा बेटा जौनपुर में सरकारी अफसर था. बाबूजी की देखभाल के लिए एक ऐसी लड़की की जरूरत थी, जो दिनभर घर पर रह सके और घर के सारे काम निबटा सके.

‘‘जी दीदी, सब काम कर लेती हूं. झाड़ूपोंछा से ले कर खाना पकाने तक का काम कर लेती हूं,’’ लड़की ने आंखें मटकाते हुए कहा. ‘‘किस से बातें कर रही हो सुषमा?’’ केदारनाथ अपनी थुलथुल तोंद पर लटके गीले जनेऊ को हाथों से घुमाते हुए बोले. वे अभीअभी नहा कर निकले थे. उन के अधगंजे सिर से पानी टपक रहा था.

‘‘एक लड़की है बाबूजी. घर के कामकाज के लिए आई है, कहो तो काम पर रख लें?’’ सुषमा ने बाबूजी की तरफ देखते हुए पूछा. केदारनाथ ने उस लड़की की तरफ देखा और सोचने लगे, ‘भले घर की लग रही है. जरूर किसी मजबूरी में काम मांगने चली आई है. फिर भी आजकल घरों में जिस तरह चोरियां हो रही हैं, उसे देखते हुए पूरी जांचपड़ताल कर के ही काम पर रखना चाहिए.’

‘‘बेटी, इस से पूछ कि यह किस जाति की है?’’ केदारनाथ ने थोड़ी देर बाद कहा. ‘‘अरी, किस जाति की है तू?’’ सुषमा ने बाबूजी के सवाल को दोहराया.

‘‘मुझे नहीं मालूम. मां से पूछ कर बता दूंगी. वैसे, मां ने मेरा नाम बेला रखा है,’’ वह लड़की हर सवाल का जवाब फुरती से दे रही थी. ‘‘ठीक है, कल अपनी मां को ले आना,’’ सुषमा ने कहा.

‘‘जी दीदी, मैं कल सुबह ही मां को ले कर आ जाऊंगी,’’ बेला ने कहा और तेजी से वहां से चल पड़ी. ‘‘मां, मुझे काम मिल गया,’’ खुशी से चीखते हुए बेला अपनी मां राधिका से लिपट गई और बोली, ‘‘बहुत अच्छी हैं सुषमा दीदी.’’

बेला को जन्म देने के बाद राधिका अपने गांव को छोड़ कर शहर में आ गई थी. बेला को पालनेपोसने में उसे बहुत मेहनत करनी पड़ी थी. उसे दूसरों के घरों की सफाई से ले कर कपड़े धोने तक का काम करना पड़ा था, तब कहीं जा कर वह अपना और बेला का पेट पाल सकी थी.

जब राधिका पेट से थी, तब से अपने गांव में उसे खूब ताने सुनने पड़े थे पर उस ने हिम्मत नहीं हारी थी. वह अपने पेट में खिले फूल को जन्म देने का इरादा कर बैठी थी. ‘अरे, यह किस का बीज अपने पेट में डाल लाई है? बोलती क्यों नहीं करमजली? कम से कम बाप का नाम ही बता दे ताकि हम बच्चे के हक के लिए लड़ सकें,’ राधिका की मां ने उसे बुरी तरह पीटते हुए पूछा था.

मार खाने के बाद भी राधिका ने अपनी मां को कुछ नहीं बताया क्योंकि वह आदमी पैसे वाला था. समाज में उस की बहुत इज्जत थी और फिर राधिका के पास कोई सुबूत भी तो नहीं था. वह किस मुंह से कहेगी कि वह शादीशुदा है, किसी के बच्चे का बाप है. ‘एक तो हम गरीब, ऊपर से बिनब्याही मां का कलंक… हम किसकिस को जवाब देंगे, किसकिस का मुंह बंद करेंगे,’ राधिका की मां ने खीजते हुए कहा था.

‘क्या सोचा है तू ने, चलेगी सफाई कराने को?’ मां ने उस की चोटी मरोड़ते हुए पूछा था. ‘नहीं मां, मैं कहीं नहीं जाऊंगी. मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी. चाहो तो तुम लोग मुझे जान से मार दो, पर जीतेजी मैं इस बेकुसूर की हत्या नहीं होने दूंगी,’ राधिका ने रोते हुए अपनी मां से कहा था.

मां की बातों से तंग आ कर राधिका उसे बिना बताए अपने नानानानी के पास चली गई और उन्हें सबकुछ बता दिया. राधिका की बातें सुन कर नानी पिघल गईं और गांव वालों के तानों को अनसुना कर उस का साथ देने को तैयार हो गईं.

राधिका की मां व नानी यह नहीं जान पाईं कि आखिर वह चाहती क्या है? बच्चे को जन्म देने के पीछे उस का इरादा क्या था? ‘‘मां, चलना नहीं है क्या? सुबह हो गई है,’’ बेला ने सुबहसुबह मां को नींद से जगाते हुए कहा.

‘‘हां बेटी, चलना तो है. पहले तू तैयार हो जा, फिर मैं भी तैयार हो जाती हूं,’’ यह कह कर राधिका झटपट तैयार होने लगी. सुषमा ने दरवाजा खोल कर उन दोनों को भीतर बुला लिया. केदारनाथ अभी तक सो रहे थे.

‘‘तो तुम बेला की मां हो?’’ सुषमा ने राधिका की ओर देखते हुए पूछा. ‘‘जी मालकिन, हम ही हैं,’’ राधिका ने जवाब दिया.

‘‘तुम्हारी बेटी समझदार तो लगती है. वैसे, घर का सारा काम कर लेती है न?’’ राधिका ने फौरन जवाब दिया, ‘‘बिलकुल मालकिन, मैं ने इसे सारा काम सिखा रखा है.’’

‘‘तो ठीक है, रख लेते हैं. सारा दिन यहीं रहा करेगी. रात को भले ही अपने घर चली जाए.’’ सुषमा ने बेला को हर महीने 500 रुपए देने की बात तय कर ली.

‘‘कौन आया है बेटी? सुबहसुबह किस से बात कर रही हो?’’ केदारनाथ जम्हाई ले कर उठते हुए बोले. ‘‘कोई नहीं बाबूजी, काम वाली लड़की आई है, उसी से बात कर रही थी,’’ सुषमा ने जवाब दिया.

केदारनाथ बाहर निकले तो राधिका के लंबा सा घूंघट निकालने पर सुषमा को अजीब सा लगा. ‘‘अच्छा तो अब हम चलते हैं,’’ राधिका उठते हुए बोली.

‘‘तो ठीक है, कल से भेज देना बेटी को,’’ सुषमा ने बात पक्की कर के बेला को आने के लिए कह दिया. राधिका ने राहत की सांस ली. उसे लगा कि वह कीड़ा जो इतने सालों से उस के जेहन में कुलबुला रहा था, उस से छुटकारा पाने का समय आ गया है.

सुषमा को भी राहत मिली कि बाबूजी की देखभाल के लिए अच्छी लड़की मिल गई है. वह दूसरे दिन ही ससुराल लौट गई. ‘‘ऐ छोकरी, जरा मेरे बदन की मालिश कर दे. सारा बदन दुख रहा है,’’ केदारनाथ ने बादाम के तेल की शीशी बेला के हाथों में पकड़ाते हुए कहा.

बेला ने उन के उघड़े बदन पर तेल से मालिश करनी शुरू कर दी. ‘‘तेरे गाल बहुत फूलेफूले हैं. क्या खिलाती है तेरी मां?’’ केदारनाथ ने अकेलेपन का फायदा उठाते हुए पूछा.

‘‘मां,’’ बेला ने चीख कर अपनी मां को आवाज दी. राधिका वहीं थी. ‘‘शर्म करो केदार,’’ राधिका ने जोर से दरवाजा खोलते हुए कहा, ‘‘अपनी ही बेटी के साथ कुकर्म. बेटी, हट वहां से…’’

राधिका बोलती रही, ‘‘हां केदारनाथ, बरसों पहले जो कुकर्म तुम ने मेरे साथ किया था, उसी का नतीजा है यह बेला. तुम ने सोचा होगा कि राधिका चुप बैठ गई होगी, पर मैं चुप नहीं बैठी थी. मैं ने इसे जन्म दे कर तुम तक पहुंचाया है. ‘‘यह मेरी सोचीसमझी चाल थी ताकि तुम्हारी बेटी भी तुम्हारी करतूत को अपनी आंखों से देख सके.’’

केदारनाथ एक मुजरिम की तरह सिर झुकाए सबकुछ सुनता रहा. राधिका ने बोलना बंद नहीं किया, ‘‘हां केदार, अब भी तुम्हारे सिर से वासना का भूत नहीं उतरा है, तो ले तेरी बेटी तेरे सामने खड़ी है. उतार दे इस की भी इज्जत और पूरी कर ले अपनी हवस.

‘‘मैं भी बरसों पहले तुम्हारी हवस का शिकार हुई थी. तब मैं इज्जत की खातिर कितना गिड़गिड़ाई थी, पर तुम ने मुझे नहीं छोड़ा था. मैं तभी जवाब देती, पर मालकिन ने मेरे पैर पकड़ लिए थे, इसीलिए मैं चुप रह गई थी. ‘‘यह तो अच्छा हुआ कि बेला ने तुम्हारी नीयत के बारे में मुझे पहले ही सबकुछ बता दिया. इस बार बाजी मेरे हाथ में है.

‘‘क्या कहते हो केदार? शोर मचा कर भीड़ में तुम्हारा तमाशा बनाऊं,’’ राधिका सुधबुध खो बैठी थी और लगातार बोले जा रही थी. केदारनाथ की अक्ल मानो जवाब दे गई थी. अपनी इज्जत की धज्जियां उड़ती देख वे छत की तरफ भागे और वहां से कूद कर अपनी जिंदगी खत्म कर ली.

Short Story 2025 : आखिर क्यूं लगाया उसने मौत को गले

Short Story 2025 : सोनिया तब बच्ची थी. छोटी सी मासूम. प्यारी, गोलगोल सी आंखें थीं उस की. वह बंगाली बाबू की बड़ी बेटी थी. जितनी प्यारी थी वह, उस से भी कहीं मीठी उस की बातें थीं. मैं उस महल्ले में नयानया आया था. अकेला था. बंगाली बाबू मेरे घर से 2 मकान आगे रहते थे. वे गोरे रंग के मोटे से आदमी थे. सोनिया से, उन से तभी परिचय हुआ था. उन का नाम जयकृष्ण नाथ था.

वे मेरे जद्दोजेहद भरे दिन थे. दिनभर का थकामांदा जब अपने कमरे में आता, तो पता नहीं कहां से सोनिया आ जाती और दिनभर की थकान मिनटों में छू हो जाती. वह खूब तोतली आवाज में बोलती थी. कभीकभी तो वह इतना बोलती थी कि मुझे उस के ऊपर खीज होने लगती और गुस्से में कभी मैं बोलता, ‘‘चलो भागो यहां से, बहुत बोलती हो तुम…’’

तब उस की आंखें डबडबाई सी हो जातीं और वह बोझिल कदमों से कमरे से बाहर निकलती, तो मेरा भावुक मन इसे सह नहीं पाता और मैं झपट कर उसे गोद में उठा कर सीने से लगा लेता. उस बच्ची का मेरे घर आना उस की दिनचर्या में शामिल था. बंगाली बाबू भी कभीकभी सोनिया को खोजतेखोजते मेरे घर चले आते, तो फिर घंटों बैठ कर बातें होती थीं.

बंगाली बाबू ने एक पंजाबी लड़की से शादी की थी. 3 लोगों का परिवार अपने में मस्त था. उन्हें किसी बात की कमी नहीं थी. कुछ दिन बाद मैं उन के घर का चिरपरिचित सदस्य बन चुका था. समय बदला और अंदाज भी बदल गए. मैं अब पहले जैसा दुबलापतला नहीं रहा और न बंगाली बाबू ही अधेड़ रहे. बंगाली बाबू अब बूढ़े हो गए थे. सोनिया भी जवान हो गई थी. बंगाली बाबू का परिवार भी 5 सदस्यों का हो चुका था. सोनिया के बाद मोनू और सुप्रिया भी बड़े हो चुके थे.

सोनिया ने बीए पास कर लिया था. जवानी में वह अप्सरा जैसी खूबसूरत लगती थी. अब वह पहले जैसी बातूनी व चंचल भी नहीं रह गई थी. बंगाली बाबू परेशान थे. उन के हंसमुख चेहरे पर अकसर चिंता की रेखाएं दिखाई पड़तीं.

वे मुझ से कहते, ‘‘भाई साहब, कौन करेगा मेरे बच्चों से शादी? लोग कहते हैं कि इन की न तो कोई जाति है, न धर्म. मैं तो आदमी को आदमी समझता हूं… 25 साल पहले जिस धर्म व जाति को समुद्र के बीच छोड़ आया था, आज अपने बच्चों के लिए उसे कहां से लाऊं?’’ जातपांत को ले कर कई बार सोनिया की शादी होतेहोते रुक गई थी. इस से बंगाली बाबू परेशान थे. मैं उन्हें विश्वास दिलाना चाहता था, लेकिन मैं खुद जानता था कि सचमुच में समस्या उलझ चुकी है.

एक दिन बंगाली बाबू खीज कर मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, यह दुनिया बहुत ढोंगी है. खुद तो आदर्शवाद के नाम पर सबकुछ बकेगी, लेकिन जब कोई अच्छा कदम उठाने की कोशिश करेगा, तो उसे गिरा हुआ कह कर बाहर कर देगी… ‘‘आधुनिकता, आदर्श, क्रांति यह सब बड़े लोगों के चोंचले हैं. एक

60 साल का बूढ़ा अगर 16 साल की दूसरी जाति की लड़की से शादी कर ले, तो वह क्रांति है… और न जाने क्याक्या है? ‘‘लेकिन, यह काम मैं ने अपनी जवानी में ही किया. किसी बेसहारा को कुतुब रोड, कमाठीपुरा या फिर सोनागाछी की शोभा बनाने से बचाने की हिम्मत की, तो आज यही समाज उस काम को गंदा कह रहा है.

‘‘आज मैं अपनेआप को अपराधी महसूस कर रहा हूं. जिन बातों को सोच कर मेरा सिर शान से ऊंचा हो जाता था, आज वही बातें मेरे सामने सवाल बन कर रह गई हैं. ‘‘क्या आप बता सकते हैं कि मेरे बच्चों का भविष्य क्या होगा?’’ पूछते हुए बंगाली बाबू के जबड़े भिंच गए थे.

इस का जवाब मैं भला क्या दे पाता. हां, उन के बेटे मोनू ने जरूर दे दिया. जीवन बीमा कंपनी में नौकरी मिलने के 7 महीने बाद ही वह एक लड़की ले आया. वह एक ईसाई लड़की थी, जो मोनू के साथ ही पढ़ती थी और एक अस्पताल में स्टाफ नर्स थी. कुछ दिन बाद दोनों ने शादी कर ली, जिसे बंगाली बाबू ने स्वीकार कर लिया. जल्द ही वह घर के लोगों में घुलमिल गई. मोनू बहादुर लड़का था. उसे अपना कैरियर खुद चुनना था. उस ने अपना जीवनसाथी भी खुद ही चुन लिया. पर सोनिया व सुप्रिया तो लड़कियां हैं. अगर वे ऐसा करेंगी, तो क्या बदनामी नहीं होगी घर की? बातचीत के दौर में एक दिन बंगाली बाबू बोल पड़े थे.?

लेकिन, जिस बात का उन्हें डर था, वह एक दिन हो गई. सुप्रिया एक दिन एक दलित लड़के के साथ भाग गई. दोनों कालेज में एकसाथ पढ़ते थे. उन दोनों पर नए जमाने का असर था. सारा महल्ला हैरान रह गया.

लड़के के बाप ने पूरा महल्ला चिल्लाचिल्ला कर सिर पर उठा लिया था, ‘‘यह बंगाली न जात का है और न पांत का है… घर का न घाट का. इस का पूरा खानदान ही खराब है. खुद तो पंजाबी लड़की भगा लाया, बेटा ईसाई लड़की पटा लाया और अब इस की लड़की मेरे सीधेसादे बेटे को ले उड़ी.’’ लड़के के बाप की चिल्लाहट बंगाली बाबू को भले ही परेशान न कर सकी हो, लेकिन महल्ले की फुसफुसाहट ने उन्हें जरूर परेशान कर दिया था. इन सब घटनाओं से बंगाली बाबू अनापशनाप बड़बड़ाते रहते थे. वे अपना सारा गुस्सा अब सोनिया को कोस कर निकालते.

बेचारी सोनिया अपनी मां की तरह शांत स्वभाव की थी. उस ने अब तक 35 सावन इसी घर की चारदीवारी में बिताए थे. वह अपने पिता की परेशानी को खूब अच्छी तरह जानती थी. जबतब बंगाली बाबू नाराज हो कर मुझ से बोलते, ‘‘कहां फेंकूं इस जवान लड़की को, क्यों नहीं यह भी अपनी जिंदगी खुद जीने की कोशिश करती. एक तो हमारी नाक साथ ले कर चली गई. उसे अपनी बड़ी बहन पर जरा भी तरस नहीं आया.’’

इस तरह की बातें सुन कर एक दिन सोनिया फट पड़ी, ‘‘चुप रहो पिताजी.’’ सोनिया के अंदर का ज्वालामुखी उफन कर बाहर आ गया था. वह बोली, ‘‘क्या करते मोनू और सुप्रिया? उन के पास दूसरा और कोई रास्ता भी तो नहीं था. जिस क्रांति को आप ने शुरू किया था, उसी को तो उन्होंने आगे बढ़ाया. आज वे जैसे भी हैं, जहां भी हैं, सुखी हैं. जिंदगी ढोने की कोशिश तो नहीं करते. उन की जिंदगी तो बेकार नहीं गई.’’

बंगाली बाबू ने पहली बार सोनिया के मुंह से यह शब्द सुने थे. वे हैरान थे. ‘‘ठीक है बेटी, यह मेरा ही कुसूर है. यह सब मैं ने ही किया है, सब मैं ने…’’ बंगाली बाबू बोले.

सोनिया का मुंह एक बार खुला, तो फिर बंद नहीं हुआ. जिंदगी के आखिरी पलों तक नहीं… और एक दिन उस ने जिंदगी से जूझते हुए मौत को गले लगा लिया था. उस की आंखें फैली हुई थीं और गरदन लंबी हो गई थी. सोनिया को बोझ जैसी अपनी जिंदगी का कोई मतलब नहीं मिल पाया था, तभी तो उस ने इतना बड़ा फैसला ले लिया था.

मैं ने उस की लाश को देखा. खुली हुई आंखें शायद मुझे ही घूर रही थीं. वही आंखें, गोलगोल प्यारा सा चेहरा. मेरे मानसपटल पर बड़ी प्यारी सी बच्ची की छवि उभर आई, जो तोतली आवाज में बोलती थी. खुली आंखों से शायद वह यही कह रही थी, ‘चाचा, बस आज तक ही हमारा तुम्हारा रिश्ता था.’ मैं ने उस की खुली आंखों पर अपना हाथ रख दिया था.

Love Story 2025 : मजुरिया का सपना

Love Story 2025 : ‘‘बहनजी, इन का भी दाखिला कर लो. सुना है कि यहां रोज खाना मिलता है और वजीफा भी,’’ 3 बच्चों के हाथ पकड़े, एक बच्चा गोद में लिए एक औरत गांव के प्राइमरी स्कूल में बच्चों का दाखिला कराने आई थी.

‘‘हांहां, हो जाएगा. तुम परेशान मत हो,’’ मैडम बोली. ‘‘बहनजी, फीस तो नहीं लगती?’’ उस औरत ने पूछा.

‘‘नहीं. फीस नहीं लगती. अच्छा, नाम बताओ और उम्र बताओ बच्चों की. कौन सी जमात में दाखिला कराओगी?’’ ‘‘अब बहनजी, लिख लो जिस में ठीक समझो.

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‘‘बड़ी बेटी का नाम मजुरिया है. इस की उम्र 10 साल है. ये दोनों दिबुआ और शिबुआ हैं. छोटे हैं मजुरिया से,’’ बच्चों की मां ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘नाम मंजरी. उम्र 8 साल. देव. उम्र 7 साल और शिव. उम्र 6 साल. मजुरिया जमात 2 में और देव व शिव का जमात एक में दाखिला कर लिया है. अब मैं तुम्हें मजुरिया नहीं मंजरी कह कर बुलाऊंगी,’’ मैडम ने कहा.

मजुरिया तो मानो खुशी से कूद पड़ी, ‘‘मंजरी… कितना प्यारा नाम है. अम्मां, अब मुझे मंजरी कहना.’’ ‘‘अरे बहनजी, मजुरिया को मंजरी बना देने से वह कोई रानी न बन जाएगी. रहेगी तो मजदूर की बेटी ही,’’ मजुरिया की अम्मां ने दुखी हो कर कहा.

‘‘नहीं अम्मां, मैं अब स्कूल आ गई हूं, अब मैं भी मैडम की तरह बनूंगी. फिर तू खेत में मजदूरी नहीं करेगी,’’ मंजरी बनते ही मजुरिया अपने सपनों को बुनने लगी थी. मजुरिया बड़े ध्यान से पढ़ती और अम्मां के काम में भी हाथ बंटाती.

मजुरिया पास होती गई. उस के भाई धक्का लगालगा कर थोड़ाबहुत पढ़े, पर मजुरिया को रोकना अब मुश्किल था. वह किसी को भी शिकायत का मौका नहीं देती थी और अपनी मैडम की चहेती बन गई थी. ‘‘मंजरी, यह लो चाबी. स्कूटी की डिक्की में से मेरा लंच बौक्स निकाल कर लाना तो. पानी की बोतल भी है,’’ एक दिन मैडम ने उस से कहा.

मजुरिया ने आड़ीतिरछी कर के डिक्की खोल ही ली. उस ने बोतल और लंच बौक्स निकाला. वह सोचने लगी, ‘जब मैं पढ़लिख कर मैडम बनूंगी, तो मैं भी ऐसा ही डब्बा लूंगी. उस में रोज पूरी रख कर लाया करूंगी. ‘मैं अम्मां के लिए साड़ी लाऊंगी और बापू के लिए धोतीकुरता.’

मजुरिया मैडम की बोतल और डब्बा हाथ में लिए सोच ही रही थी कि मैडम ने आवाज लगाई, ‘‘मंजरी, क्या हुआ? इतनी देर कैसे लगा दी?’’ ‘‘आई मैडम,’’ कह कर मजुरिया ने मैडम को डब्बा और बोतल दी और किताब खोल कर पढ़ने बैठ गई.

अब मजुरिया 8वीं जमात में आ गई थी. वह पढ़ने में होशियार थी. उस के मन में लगन थी. वह पढ़लिख कर अपने घर की गरीबी दूर करना चाहती थी. उस की मां मजुरिया को जब नए कपड़े नहीं दिला पाती, तो वह हंस कर कहती, ‘‘तू चिंता मत कर अम्मां. एक बार मैं नौकरी पर लग जाऊं, फिर सब लोग नएनए कपड़े पहनेंगे.’’

‘‘अरे, खुली आंख से सपना न देख. अब तक तो तेरी फीस नहीं जाती है. कौपीकिताबें मिल जाती हैं. सो, तू पढ़ रही है. इस से आगे फीस देनी पड़ेगी.’’ अम्मां मजुरिया की आंखों में पल रहे सपनों को तोड़ना नहीं चाहती थी, पर उस के मजबूत इरादों को थोड़ा कम जरूर करना चाहती थी. वह जानती थी कि अगर सपने कमजोर होंगे, तो टूटने पर ज्यादा दर्द नहीं देंगे.

और यही हुआ. मजुरिया की 9वीं जमात की फीस उस की मैडम ने अपने ही स्कूल के सामने चल रहे सरकारी स्कूल में भर दी. मजुरिया तो खुश हो गई, लेकिन कोई भी मजुरिया आज तक इस स्कूल

में पढ़ने नहीं आई थी. एक दिन जब मजुरिया स्कूल पढ़ने गई और वहां के टीचरों ने उस की पढ़ाई की तारीफ की, तो वहां के ठाकुर बौखला गए. ‘‘ऐ मजुरिया की अम्मां, उधार बहुत बढ़ गया है. कैसे चुकाएगी?’’

‘‘मालिक, हम दिनरात आप के खेत पर काम कर के चुका देंगे.’’ ‘‘वह तो ठीक है, पर अकेले तू कितना पैसा जमा कर लेगी? मजुरिया को क्यों पढ़ने भेज रही है? वह तुम्हारे काम में हाथ क्यों नहीं बंटाती है?’’ इतना कह कर ठाकुर चले गए.

मजुरिया की अम्मां समझ गई कि निशाना कहां था. लेकिन इन सब से बेखबर मजुरिया अपनी पढ़ाई में खुश थी. पर कोई और भी था, जो उस के इस ख्वाब से खुश था. पल्लव, बड़े ठाकुर का बेटा, जो मजुरिया से एक जमात आगे गांव से बाहर के पब्लिक स्कूल में पढ़ता था. वह मजुरिया को उस के स्कूल तक छोड़ कर आगे अपने स्कूल जाता था.

‘‘तू रोज इस रास्ते से क्यों स्कूल जाता है? तुझे तो यह रास्ता लंबा पड़ता होगा न?’’ मजुरिया ने पूछा. ‘‘हां, सो तो है, पर उस रास्ते पर तू नहीं होती न. तू उस रास्ते से आने लगे, तो मैं भी उसी से आऊंगा,’’ पल्लव ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘न बाबा न, वहां तो सारे ठाकुर रहते हैं. बड़ीबड़ी मूंछें, बाहर निकली हुई आंखें,’’ मजुरिया ने हंस कर कहा. ‘‘अच्छा, तो तू ठाकुरों से डरती है?’’ पल्लव ने पूछा.

‘‘हां, पर मुझे ठकुराइन अच्छी लगती हैं.’’

‘‘तू ठकुराइन बनेगी?’’ ‘‘मैं कैसे बनूंगी?’’

‘‘मुझ से शादी कर के,’’ पल्लव ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘तू पागल है. जा, अपने स्कूल. मेरा स्कूल आ गया है,’’ मजुरिया ने पल्लव को धकेलते हुए कहा और हंस कर स्कूल भाग गई.

उस दिन मजुरिया के घर आने पर उस की अम्मां ने कह दिया, ‘‘आज से स्कूल जाने की जरूरत नहीं है. ठाकुर का कर्ज बढ़ता जा रहा है. अब तो तुझे स्कूल में खाना भी नहीं मिलता है. कल से मेरे साथ काम करने खेत पर चलना.’’ मजुरिया टूटे दिल से अम्मां के साथ खेत पर जाने लगी.

वह 2 दिन से स्कूल नहीं गई, तो पल्लव ने खेत पर आ कर पूछा, ‘‘मंजरी, तू स्कूल क्यों नहीं जा रही है? क्या मुझ से नाराज है?’’ ‘‘नहीं रे, ठाकुर का कर्ज बढ़ गया है. अम्मां ने कहा है कि दिनरात काम करना पड़ेगा,’’ कहते हुए मजुरिया की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘तू परेशान मत हो. मैं तुझे घर आ कर पढ़ा दिया करूंगा,’’ पल्लव ने कहा, तो मजुरिया खुश हो उठी. अम्मां जानती थी कि ठाकुर का बेटा उन के घर आ कर पढ़ाएगा, तो हंगामा होगा. पर वह छोटे ठाकुर की यह बात काट नहीं सकी.

पल्लव मजुरिया को पढ़ाने घर आने लगा. लेकिन उन के बीच बढ़ती नजदीकियों से अम्मां घबरा गई. अम्मां ने अगले दिन पल्लव से घर आ कर पढ़ाने से मना कर दिया. मजुरिया कभीकभी समय मिलने पर स्कूल जाती थी. पल्लव रास्ते में उसे मिलता और ढेर सारी बातें करता. कब

2 साल गुजर गए, पता ही नहीं चला. आज मजुरिया का 10वीं जमात का रिजल्ट आएगा. उसे डर लग रहा था.

पल्लव तेजी से साइकिल चलाता हुआ गांव में घुसा, ‘‘मजुरिया… मजुरिया… तू फर्स्ट आई है.’’ मजुरिया हाथ में खुरपी लिए दौड़ी, उस का दुपट्टा उस के कंधे से उड़ कर दूर जा गिरा. उस ने पल्लव के हाथ से अखबार पकड़ा और भागते हुए अम्मां के पास आई, ‘‘अम्मां, मैं फर्स्ट आई हूं.’’

अम्मां ने उस के हाथ से अखबार छीना और हाथ पकड़ कर घर ले गई. पर उस की आवाज बड़े ठाकुर के कानों तक पहुंच ही गई. ‘‘मजुरिया की मां, तेरी लड़की जवान हो गई है. अब इस से खेत पर काम मत करवा. मेरे घर भेज दिया कर…’’ ठाकुर की बात पूरी नहीं हो पाई थी, उस से पहले ही अम्मां ने उसे घूर कर देखा, ‘‘मालिक, हम खेतिहर मजदूर हैं. किसी के घर नहीं जाते,’’ इतना कह कर अम्मां घर चली गई.

घर पर अम्मां मजुरिया को कमरे में बंद कर प्रधान के घर गई. उन की पत्नी अच्छी औरत थीं और उसे अकसर बिना सूद के पैसा देती रहती थीं. ‘‘मालकिन, मजुरिया के लायक कोई लड़का है, तो बताओ. हम उस के हाथ पीले करना चाहते हैं.’’

प्रधानजी की पत्नी हालात भांप गईं. ‘‘हां मजुरिया की अम्मां, मेरे मायके में रामदास नौकर है. पुरखों से हमारे यहां काम कर रहे हैं. उस का लड़का है. एक टांग में थोड़ी लचक है, उस से शादी करवा देते हैं. छठी जमात पास है.

‘‘अगर तू कहे, तो आज ही फोन कर देती हूं. मेरे पास 2-3 कोरी धोती रखी हैं. तू परेशान मत हो, बाकी का इंतजाम भी मैं कर दूंगी.’’ मजुरिया की अम्मां हां कह कर घर आ गई.

7वें दिन बैलगाड़ी में दूल्हे समेत 3 लोग मजुरिया को ब्याहने आ गए. बिना बाजे और शहनाई के मजुरिया

को साड़ी पहना कर बैलगाड़ी में बैठा दिया गया. मजुरिया कुछ समझ पाती, तब तक बैलगाड़ी गांव से बाहर आ गई. उस ने इधरउधर नजर दौड़ाई और बैलगाड़ी से कूद कर गांव के थाने में पहुंच गई.

‘‘कुछ लोग मुझे पकड़ कर ले जा रहे हैं,’’ मजुरिया ने थानेदार को बताया. पुलिस ने मौके पर आ कर उन्हें बंद कर दिया. मजुरिया गांव वापस आ गई. जब सब को पता चला, तो उसे बुराभला कहने लगे. मां ने उसे पीट कर घर में बंद कर दिया.

मजुरिया के घर पर 2 दिन से न तो चूल्हा जला और न ही वे लोग घर से बाहर निकले. पल्लव छिप कर उस के लिए खाना लाया. उस ने समझाया, ‘‘देखो मंजरी, तुम्हें ख्वाब पूरे करने के लिए थोड़ी हिम्मत दिखानी पड़ेगी. बुजदिल हो कर, रो कर तुम अपने सपने पूरे नहीं कर सकोगी…’’

पल्लव के इन शब्दों ने मजुरिया को ताकत दी. वह अगले दिन अपनी मैडम के घर गई. उन्होंने उसे 12वीं जमात का फार्म भरवाया. इस के बाद पल्लव मंजरी को रास्ता दिखाता रहा और उस ने बीए कर लिया. पल्लव की नौकरी लग गई.

‘‘मंजरी, मैं अहमदाबाद जा रहा हूं. क्या तुम मुझ से शादी कर के मेरी ठकुराइन बनोगी?’’ पल्लव ने मंजरी का हाथ पकड़ कर कहा. ‘‘अगर मैं ने दिल की आवाज सुनी और तुम्हारे साथ चल दी, तो फिर कभी कोई मजुरिया दोबारा मंजरी बनने का ख्वाब नहीं देख पाएगी. फिर कभी कोई टीचर किसी मजुरिया को मंजरी बनाने की कोशिश नहीं करेगी.

‘‘एक मंजरी का दिल टूटने से अगर हजार मजुरियों के सपने पूरे होते हैं, तो मुझे यह मंजूर है,’’ मजुरिया ने कड़े मन से अपनी बात कही. पल्लव समझ गया और उसे जिंदगी में आगे बढ़ने की प्रेरणा दे कर वहां से चला गया.

Family Story 2025 : जवानी का हिसाब लगाती शालिनी

Family Story 2025 : शालिनी ने हिसाब लगाया. उस ने पूरी रात खन्ना, तिवारी और शर्मा के साथ गुजारी है. सुबह होते ही उस ने 10 हजार रुपए झटक लिए. वे तीनों उस के रंगरूप, जवानी के दीवाने हैं. शहर के माने हुए रईस हैं. तीनों की शहर में और शहर से बाहर कईकई प्लाईवुड की फैक्टरियां हैं. तीनों के पास माल आता भी 2 नंबर में है. तैयार प्लाई भी 2 नंबर में जाती है. वे सरकार को करोड़ों रुपए के टैक्स का चूना लगाते हैं. शालिनी ने उन तीनों के साथ रात गुजारने के 25 हजार रुपए मांगे थे. सुबह होने पर तिवारी के पास ही 10 हजार रुपए निकले. खन्ना और शर्मा खाली जेबों में हाथ घुमाते नजर आए. कमबख्त तीनों रात को 5 हजार रुपए की महंगी शराब पी गए थे. उस ने जब अपने बाकी के 15 हजार रुपए के लिए हंगामा किया, तो खन्ना ने वादा किया कि वह दोपहर को आ कर उस के दफ्तर से पैसे ले जाए.

सुबह के 10 बजने को थे. शालिनी ने पहले तो सस्ते से होटल पर ही पेट भर कर नाश्ता किया. कमरे पर जाना उस ने मुनासिब नहीं समझा. सोचा कि अगर कमरे पर गई, तो चारपाई पर लेटते ही नींद आ जाएगी. फिर तो बस्ती के कमरे से इंडस्ट्रियल एरिया आने का मन नहीं करेगा. पूरे 7 किलोमीटर दूर है. अभी खन्ना के दफ्तर से 15 हजार भी वसूल करने थे. गरमी बहुत हो रही थी. शालिनी ने सोचा कि रैस्टोरेंट में जा कर आइसक्रीम खाई जाए. एसी की ठंडक में घंटाभर गुजारा जाए. इतने में दोपहर हो जाएगी, फिर वह अपने रुपए ले कर ही कमरे पर जा कर आराम करेगी. रेस्टोरैंट में अगर कोई चाहने वाला मिल गया, तो खाना भी मुफ्त में हो जाएगा. अगली रात भी 5-10 हजार रुपए में बुक हो जाएगी. वैसे तो उस ने अपना मोबाइल नंबर 5-6 दलालों को दे रखा था.

शालिनी आइसक्रीम खा कर पूरे 2 घंटे के बाद रैस्टोरैंट से निकली. अगली 2 रातों के लिए एडवांस पैसा भी मिल गया था. पूरे 5 हजार रुपए. मोबाइल में समय देखा, तो दोपहर के एक बजने को था. शालिनी रिकशा पकड़ कर खन्ना के दफ्तर पहुंचना चाहती थी. शहर के चौराहे पर रिकशे के इंतजार में थी कि तभी थानेदार जालिम सिंह ने उस के सामने गाड़ी रोक दी. थानेदार जालिम सिंह को देख शालिनी ने निगाहें घुमा लीं, मानो उस ने पुलिस की गाड़ी को देखा ही न हो. वह जालिम सिंह को अच्छी तरह जानती थी. अपने नाम जैसा ही उस का बरताव था. रात में मजे लूटने को तो बुला लेगा, पर सुबह जाते समय 50 रुपए का नोट तक नहीं निकालता. उलटा दारू भी पल्ले से पिलानी पड़ती है. बेवजह अपना जिस्म कौन तुड़वाए. शालिनी वहां से आगे जाने लगी, तो जालिम सिंह ने रुकने को कहा.

शालिनी ने बहाना बनाया, ‘‘आज तबीयत ठीक नहीं है. रातभर बुखार से तपती रही हूं. किसी डाक्टर के पास दवा लेने जा रही हूं. अच्छा हुआ कि आप मिल गए. एक हजार रुपए चाहिए मुझे. अगर आप…’’ जालिम सिंह ने शालिनी की बाजू पकड़ी और उस के चेहरे को गौर से देखते हुए बड़ी बेशर्मी से गुर्राया, ‘‘हम पुलिस वालों को बेवकूफ बना रही है. रातभर मजे लूटे हैं. गाल पर दांत गड़े नजर आ रहे हैं. हमें बता रही है कि बीमार है. तुझे शहर में धंधा करना है या भागना है?’’

‘‘ठीक ही तो कह रही हूं. कभी 10-20 रुपए तो हम मजदूरों पर तुम खर्च नहीं करते,’’ शालिनी बोली. ‘‘तुझे धंधा करने की इजाजत दे दखी है, वरना हवालात में तड़पती नजर आएगी. आज हमारे लिए भी मजे लूटने वाला काम कर. पूरे 5 सौ रुपए दूंगा, लेकिन काम पूरा होने पर,’’ जालिम सिंह ने अपना इरादा जाहिर किया.

शालिनी समझ गई कि यह कमबख्त कोई खतरनाक साजिश रचने वाला है, तभी तो 5 सौ रुपए खर्च करने को कह रहा है, वरना 10 रुपए जेब से खर्च नहीं करता. शालिनी ने सोचा कि काम के बदले मोटी रकम की मांग करे. शायद मुरगा फंस जाए. मौका हाथ आया था.

शालिनी के पूछने पर थानेदार जालिम सिंह ने कहा, ‘‘तुम को एक प्रैस फोटोग्राफर अर्जुन की अक्ल ठिकाने लगानी है. उसे अपनी कातिल अदाओं का दीवाना बना कर अपने कमरे पर बुला लेना. नशा वगैरह पिला कर तुम वीडियो फिल्म बना कर उस की प्रैस पत्रकारिता पर फुल स्टौप लगाना है.’’ ‘‘अर्जुन ने ऐसा क्या कर दिया, जो आप इतना भाव खा रहे हैं?’’ शालिनी ने शरारत भरी अदा से जालिम सिंह की आंखों में झांकते हुए पूछा.

शालिनी के चाहने वाले बताया करते हैं कि उस की बिल्लौरी आंखों में जाद है. जिसे भी गहरी नजरों से देखती है, चारों खाने चित हो जाता है. जालिम सिंह भी उस के असर में आ गया था. ‘‘अरे, रात को अग्रसेन चौक पर नाका लगा रख था. 2 नंबर वाली गाडि़यों से थोड़ा मालपानी बना रहे थे. बस, पता नहीं अर्जुन को कैसे भनक लग गई. उस ने हमारी वीडियो फिल्म बना ली. कहता है कि पहले मुख्यमंत्री को दिखाऊंगा, फिर टैलीविजन चैनल पर और अखबार में खबर देगा. हमें सस्पैंड कराने का उस ने पूरा इंतजाम कर रखा है. एक बार उसे नंगा करो, फिर मैं उसे कहीं का नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘पहले तो तुम मुझे अपनी गाड़ी में बैठा कर खन्ना के दफ्तर ले चलो. कुछ हिसाब करना है. उस के बाद तुम्हारे काम को करूंगी. अभी मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा,’’ शालिनी ने मोबाइल फोन पर समय देखते हुए अपनी बात कही. ‘‘इधर अपना समय खराब चल रहा है और तेरे भाव ऊपर आ गए हैं. आ, बैठ गाड़ी में,’’ झुंझलाते हुए जालिम सिंह बोला.

वह शालिनी को खन्ना के दफ्तर ले गया. वहां से उस ने रुपए लिए. अब वे दोनों कमानी चौक पर आ गए. ‘‘तुम अर्जुन को जानती हो न?’’ जालिम सिंह ने पूछा.

‘‘हांहां, वही प्रैस फोटोग्राफर, जिस ने पिछले महीने पुलिस चौकी में हुए बलात्कार की वीडियो फिल्मी चैनल पर दिखा कर तहलका मचा दिया था,’’ शालिनी ने मुसकराते हुए उस के कारनामे का बखान किया, तो जालिम सिंह भद्दी सी गाली बकते हुए गुर्राया, ‘‘तू पहले उसे अपने जाल में फंसा, फिर तो उस की जिंदगी जेल में कटेगी.’’ ‘‘इस काम के मैं पूरे 50 हजार रुपए लूंगी और 10 हजार रुपए एडवांस,’’ शालिनी ने अपनी मांग रखी, तो जालिम सिंह उछल पड़ा, ‘‘अरे, कुछ तो लिहाज कर. तू हमें जानती नहीं?’’

‘‘लिहाज कर के ही तो 50 हजार रुपए मांगे हैं. इस काम का मेहनताना तो एक लाख रुपए है,’’ शालिनी भी बेशर्मी से सौदेबाजी पर उतर आई. ‘‘मजाक मत कर शालिनी. यह काम 5 हजार रुपए का है. ये संभाल एक हजार रुपए.’’

‘‘10 हजार पहले लूंगी, 40 बाद में. नकद. वरना तुम्हारी सारी मेहनत पर पानी फेर दूंगी. अगर रुपए नहीं दोगे, तो मैं अर्जुन को तुम्हारी साजिश के बारे में बता सकती हूं,’’ शालिनी ने शातिराना अंदाज में थानेदार जालिम सिंह को खौफजदा कर दिया. थानेदार ने 10 हजार रुपए शालिनी को दिए और चेतावनी भी दी कि अगर उस का काम नहीं हुआ, तो उस की फिल्म खत्म हुई समझे.

इस के बाद थानेदार जालिम सिंह शालिनी को गाड़ी से उतार कर चलता बना. शालिनी अपने पर्स में पूरे 25 हजार रुपए संभाले हुए थी. उस के 15 साल के बेटे ने मोटरसाइकिल लेने की जिद पकड़ रखी थी 2-4 दिन में वह बेटे को मोटरसाइकिल ले कर देगी. शालिनी गांव की रहने वाली थी, लेकिन उस का रहनसहन, पहनावा वगैरह रईस अमीर औरतों जैसा था. उस की शादी गांव के मजदूर आदमी से हुई थी. पति उसे जरा भी पसंद नहीं था. उस की बेरुखी के चलते पति मेहनतमजदूरी कर के जो कमाता, उस रुपए की शराब पी जाता था. शालिनी देहधंधा कर के अमीर बनना चाहती थी. बेटा आवारा हो गया था. स्कूल नहीं जाता था. सारासारा दिन आवारा लड़कों के साथ नशा करता रहता था. वह छोटेमोटे अपराध भी करने लगा था.

बाप शराबी और मां बदचलन हो, तो बेटे का भविष्य इस से बढ़ कर क्या हो सकता है? शालिनी अपने बिगड़ते परिवार से बेखबर पराए मर्दों की रातें रंगीन कर रही थी. अभी शालिनी का कमरा 4 किलोमीटर दूर था. सामने पेड़ की छांव में एक रिकशे वाला सीट पर बैठा रुपए गिन रहा था. उस के हाथों में नोट देख कर शालिनी की आंखों में चमक आ गई. शालिनी ने अपने पहने कसे ब्लाउज का ऊपर वाला हुक खोला और उस के सामने आ कर खड़ी हुई.

रिकशे वाला भी शालिनी की उम्र का था. उस की कामुक निगाहें भी उस के उभारों पर ठहर गईं. उस का दिल धड़क रहा था. अपने रुपए पर्स में रखे और पर्स को पतलून की पीछे वाली जेब में लापरवाही से ठूंस दिया. उस ने शालिनी को रोमांटिक नजरों से देखते हुए पूछा, ‘‘मैडम, आप को कहां चलना है?’’ ‘‘मोती चौक चलना है. कितने रुपए लोगे?’’

‘‘जो मरजी दे देना. मुझे भी उसी तरफ जाना है. मेरा कमरा भी उसी तरफ है. अकेला रहता हूं,’’ रिकशे वाले ने जवाब दिया, तो शालिनी समझ गई कि वह उस पर मरमिटा है. वह रिकशे पर बैठ गई और रिकशे वाले से मीठीमीठी बातें करने लगी. तभी उस ने देखा, रिकशे वाले की पतलून के पीछे वाली जेब से पर्स बाहर खिसका हुआ था. उसे बातों में उलझा कर शालिनी ने पर्स खिसका लिया.

मोती चौक आ गया था. शालिनी अपने कमरे से पहले ही चौराहे पर उतर गई. उस ने रिकशे वाले को किराया देना चाहा, मगर रिकशे वाले ने तो उस के मनचले उभारों को देखते हुए पैसे लेने से इनकार कर दिया. शालिनी चोर भी थी. वह तो पलक झपकते ही कालोनी की गलियों में गुम हो गई. शालिनी आज बहुत खुश थी. उस की अच्छीखासी कमाई हो गई थी. कमरा खोला. निढाल सी चारपाई पर लेट गई. पूरी रात और दिनभर की थकी हुई थी. कुछ देर बाद वह कपड़े उतार कर पहले अच्छी तरह नहाई. भूख लगी थी. खाना बनाने की हिम्मत नहीं थी. होटल से खाना पैक करा लाई और खा कर सो गई. इतनी गहरी नींद आई कि रात कैसे गुजरी, कुछ पता न चला.

शालिनी सुबह उठी, तो चायनाश्ता करते हुए उस ने रिकशे वाले का चुराया पर्स खोला. उस में छोटेबड़े नोटों की मोटी गड्डी थी. गिनने पर पूरे 4 हजार रुपए निकले. उस का मन खुश हो गया. उन रुपयों के साथ एक चिट्ठी भी थी, जो रिकशे वाले की घरवाली ने उसे लिखी थी. उस में लिखा था कि उस का बेटा बहुत बीमार है. अस्पताल में दाखिल कराया है. जितनी जल्दी हो सके, 10 हजार रुपए ले कर फौरन गांव आ जाओ. बेटे का इलाज रुक गया है. डाक्टर का कहना है कि अगर बच्चे की जिंदगी बचानी है, तो फौरन इलाज कराओ. जो 1-2 गहने थे, वे सब बेटे के इलाज की भेंट चढ़ गए हैं. जितना जल्दी हो सके, पैसे ले कर आ जाओ.

चिट्ठी पढ़ कर शालिनी को धक्का सा लगा. उस ने यह क्या किया? लालच में आ कर उस ने एक मजदूर आदमी की जेब काट कर उस के मासूम बेटे की जिंदगी को मौत के दलदल में धकेल दिया. पता नहीं, उस के बेटे का क्या हाल होगा? वह अपने बेटे को मोटरसाइकिल ले कर देने के लिए उलटेसीधे तरीके से पैसा इकट्ठा कर रही है, यह पाप की कमाई न जाने कैसा असर दिखाएगी? शालिनी ने रिकशे वाले को तलाश कर उस के रुपए वापस देने का मन बना लिया. वह यहां तक सोच रही थी कि उस गरीब को 10 हजार रुपए देगी, ताकि उस के बेटे का इलाज हो सके.

शालिनी सारा दिन पागलों की तरह रिकशे वाले को ढूंढ़ती रही, मगर वह नहीं मिला. जैसे कि वह रिकशे वाला शहर से गायब हो गया था. थानेदार जालिम सिंह का कितनी बार फोन आ चुका था. वह बारबार धमकी दे रहा था कि उस का काम कर, नहीं तो उसे टपका दिया जाएगा. मगर शालिनी ने थानेदार जालिम सिंह की धमकी को ठोकर पर रखा. वह जानती थी कि जालिम सिंह उस का कुछ नहीं बिगाड़ सकता, उलटा प्रैस फोटोग्राफर को बलात्कार के अपराध में फंसाने की सुपारी देने का मामला बनवा देगी.

2 दिन से शालिनी ने अपना धंधापानी भी बंद कर रखा था. उस के कितने चाहने वालों के फोन आ चुके थे. उस ने सब को न में जवाब दे दिया था. उस ने तीसरे दिन भी रिकशे वाले को तलाश करने की मुहिम जारी रखी. उस दिन उस ने अखबार में खबर पढ़ी कि थानेदार जालिम सिंह को 2 नंबर का सामान लाने वाली गाडि़यों से वसूली करने के आरोप में सस्पैंड कर दिया गया. अखबार में पत्रकार अर्जुन की खोजी पत्रकारिता की तारीफ हो रही थी.

अभी शालिनी अखबार में छपी यह खबर पढ़ ही रही थी कि तभी उस की नजर सड़क पर आते हुए उसी रिकशे वाले पर पड़ी. वह लपक कर आगे बढ़ी और उस का रिकशा रुकवा कर बोली, ‘‘अरे रिकशे वाले, मुझे माफ करना. मैं ने 3 दिन पहले तेरा पर्स चुराया था. उस में तेरे 4 हजार रुपए थे. अपनी गलती मानते हुए मैं तुम्हें 10 हजार रुपए वापस दे रही हूं. फौरन जाओ और अपने बेटे का इलाज कराओ.’’ रिकशा वाला खामोशी से उस की तरफ देखता रहा. जबान से कुछ नहीं बोला. शायद उस की आंखों से बहते आंसुओं ने समूची कहानी बता दी थी. मगर शालिनी अभी तक सचाई समझ न पाई. पर वह उस की खामोशी से सहम गई थी.

‘‘देखो भैया, पुलिस में शिकायत मत करना. तुम्हारे रुपए मैं ज्यादा कर के दे रही हूं. अपने बेटे का किसी बड़े अस्पताल में इलाज कराना,’’ शालिनी ने 10 हजार रुपए उस के सामने कर दिए. ‘‘अब रुपए ले कर क्या करूंगा मैडम. मेरा बेटा तो इलाज की कमी में मर गया. उस के गम में पत्नी भी चल बसी. अब तुम इतनी मेहरबानी करो कि किसी गरीब की जेब मत काटना, वरना किसी का मासूम बेटा फिर मरेगा,’’ भर्राई आवाज में रिकशे वाले ने कहा और रुपए लिए बिना ही आगे बढ़ गया.

अब शालिनी को अपनी बुरी आदतों पर भारी पछतावा हो रहा था.

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