कर लो दुनिया मुट्ठी में : पूजा के समय क्या हुआ

गुरुदेव ने रात को भास्करानंद को एक लंबा भाषण पिला दिया था.‘‘नहीं, भास्कर नहीं, तुम संन्यासी हो, युवाचार्य हो, यह तुम्हें क्या हो गया है. तुम संध्या को भी आरती के समय नहीं थे. रात को ध्यान कक्ष में भी नहीं आए? आखिर कहां रहे? आगे आश्रम का सारा कार्यभार तुम्हें ही संभालना है.’’

भास्करानंद बस चुप रह गए.

रात को लेटते ही श्यामली का चेहरा उन की आंखों के सामने आ गया तो वे बेचैन हो उठे.

आंख बंद किए स्वामी भास्करानंद सोने का अथक प्रयास करते रहे पर आंखों में बराबर श्यामली का चेहरा उभर आता.

खीझ कर भास्करानंद बिस्तर से उठ खड़े हुए. दवा के डब्बे से नींद की गोली निकाली. पानी के साथ निगली और लेट गए. नींद कब आई पता नहीं. जब आश्रम के घंटेघडि़याल बज उठे, तब चौंक कर उठे.

‘लगता है आज फिर देर हो गई है,’ वे बड़- बड़ाए.

पूजा के समय भास्करानंद मंदिर में पहुंचे तो गुरुदेव मुक्तानंद की तेज आंखें उन के ऊपर ठहर गईं, ‘‘क्यों, रात सो नहीं पाए?’’

भास्करानंद चुप थे.

‘‘रात को भोजन कम किया करो,’’ गुरुदेव बोले, ‘‘संन्यासी को चाहिए कि सोते समय वह टीवी से दूर रहे. तुम रात को भी उधर अतिथिगृह में घूमते रहते हो, क्यों?’’

भास्करानंद चुप रहे. वे गुरुदेव को क्या बताते कि श्यामली का रूपसौंदर्य उन्हें इतना विचलित किए हुए है कि उन्हें नींद ही नहीं आती.

गुरुदेव से बिना कुछ कहे भास्करानंद मंदिर से बाहर आ गए.

तभी उन्हें आश्रम में श्यामली आती हुई दिखाई दी. उस की थाली में गुड़हल के लाल फूल रखे थे. उस ने अपने घने काले बालों को जूड़े में बांध कर चमेली की माला के साथ गूंथा था. एक भीनीभीनी खुशबू उन के पास से होती हुई चली जा रही थी. उन्हें लगा कि वे अभी, यहीं बेसुध हो जाएंगे.

‘‘स्वामीजी प्रणाम,’’ श्यामली ने भास्करानंद के चरणों में झुक कर प्रणाम किया तो उस के वक्ष पर आया उभार अचानक भास्करानंद की आंखों को स्फरित करता चला गया और वे आंखें फाड़ कर उसे देखते रह गए.

श्यामली तो प्रणाम कर चली गई लेकिन भास्करानंद सर्प में रस्सी को या रस्सी में सर्प के आभास की गुत्थी में उलझे रहे.

विवेक चूड़ामणि समझाते हुए गुरुदेव कह रहे थे कि यह संसार मात्र मिथ्या है, निरंतर परिवर्तनशील, मात्र दुख ही दुख है. विवेक, वैराग्य और अभ्यास, यही साधन है. इस विष से बचने में ही कल्याण है.

पर भास्करानंद का चित्त अशांत ही रहा.

उस रात भास्करानंद ने गुरुजी से अचानक पूछा था.

‘‘गुरुजी, आचार्य कहते हैं, यह संसार विवर्त है, जो है ही नहीं. पर व्यवहार में तो मच्छर भी काट लेता है, तो तकलीफ होती है.’’

‘‘हूं,’’ गुरुजी चुप थे. फिर वे बोले, ‘‘सुनो भास्कर, तुम विवेकानंद को पढ़ो, वे तुम्हारी ही आयु के थे जब शिकागो गए थे. गुरु के प्रति उन जैसी निष्ठा ही अपरिहार्य है.’’

‘‘जी,’’ कह कर भास्कर चुप हो गए.

घर याद आया. जहां खानेपीने का अभाव था. भास्कर आगे पढ़ना चाह रहा था, पर कहीं कोई सुविधा नहीं. तभी गांव में गुरुजी का आना हुआ. उन से भास्कर की मुलाकात हुई. उन्होेंने भास्कर को अपनी किताब पढ़ने को दी. उस के आगे पढ़ने की इच्छा जान कर, उसे आश्रम में बुला लिया. अब वह ब्रह्मचारी हो गया था.

भास्कर का कसा हुआ बदन व गोरा रंग, आश्रम के सुस्वादु भोजन व फलाहार से उस की देह भी भरने लग गई.

एक दिन गुरुजी ने कहा, ‘‘देखो भास्कर, यह इतना बड़ा आश्रम है, इस के नाम खेती की जमीन भी है. यहां मंत्री भी आते हैं, संतरी भी. यह सब इस आश्रम की देन है. यह समाज अनुकरण पर खड़ा है. मैं आज पैंटशर्ट पहन कर सड़क पर चलूं तो कोई मुझे नमस्ते भी नहीं करेगा. यहां भेष पूजा जाता है.’’

भास्कर चुप रह जाता. वेदांत सूत्र पढ़ने लगता. वह लघु सिद्धांत कौमुदी तो बहुत जल्दी पढ़ गया. संस्कृत के अध्यापक कहते कि अच्छे संन्यासी के लिए अच्छा वक्ता होना आवश्यक है और अच्छे वक्ता के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है.

कर्नाटक की तेलंगपीठ के स्वामी दिव्यानंद भी आए थे. वे कह रहे थे, ‘‘तुम अंगरेजी का ज्ञान भी लो. दुनिया में नाम कमाना है तो अंगरेजी व संस्कृत दोनों का ज्ञान आवश्यक है. धाराप्रवाह बोलना सीखो. यहां भी ब्रांड ही बिकता है. जो बड़े सपने देखते हैं वे ही बड़े होते हैं.’’

भास्कर अवाक् था. स्वामीजी की बड़ी इनोवा गाड़ी पर लाल बत्ती लगी हुई थी. पुलिस की गाड़ी भी साथ थी. उन्होंने बहुत पहले अपने ऊपर हमला करवा लिया था, जिस में उन की पुरानी एंबैसेडर टूट गई थी. सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया था. उन के भक्तों ने सरकार पर दबाव बनाया, उन्हें सुरक्षा मिल गई थी. इस से 2 लाभ, आगे पुलिस की गाड़ी चलती थी तो रास्ते में रुकावट नहीं, दूसरे, इस से आमजन पर प्रभाव पड़ता है. भेंट जो 100 रुपए देते थे, वे 500 देने लग गए.

भास्कर समझ रहा था, जितना सीखना चाहता था, उतना ही उलझता जाता था. स्वामीजी के हाथ में हमेशा अंगरेजी के उपन्यास रहते या मोटीमोटी किताबें. वे पढ़ते तो कम थे पर रखते हमेशा साथ थे.

उस दिन उन से पूछा तो बोले, ‘‘बेटा, ये सरकारी अफसर, कालेज के प्रोफेसर, सब इसी अंगरेजी भाषा को जानते हैं. जो संन्यासी अंगरेजी जानता है उस के ये तुरंत गुलाम बन जाते हैं. समझो, विवेकानंद अगर बंगला भाषा बोलते और अमेरिका जाते तो चार आदमी भी उन्हें नहीं मिलते. अंगरेजी भाषा ने ही उन्हें दुनिया में पूजनीय बनाया. तुम्हारे ओशो भी इन्हीं भक्तों की कृपा से दुनिया में पहुंचे. योग साधना से नहीं. किताबें तो वे पतंजलि पर भी लिख गए. खूब बोले भी पर खुद दुनिया भर की सारी बीमारियों से मरे. कभी किसी ने उन से पूछा कि आप ने जिस योग साधना की बातें बताईं, उन्हें आप ने क्यों नहीं अपनाया और आप का शरीर स्वस्थ क्यों नहीं रहा?

‘‘बातें हमेशा बात करने के लिए होती हैं. दूसरों को चलाओ, तुम चलने लगे तो तकलीफ होगी. इस जनता पर अंगरेजी का प्रभाव पड़ता है. तुम सीखो, तुम्हारी उम्र है.’’

भास्कर पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गांव से आया था. गुरुजी उसे योग विद्या सिखा रहे थे. ब्रह्मसूत्र पढ़वा रहे थे. स्वामी दिव्यानंद उसे अंगरेजी भाषा में दक्ष करना चाह रहे थे.

बनारस में उस के मित्र जो देहात से आए थे उन्होंने एम.बी.ए. में दाखिला लिया था. दाखिला लेते ही रात को सोते समय भी वे मुश्किल से टाई उतारते थे. वे कहते थे, हमारी पहचान ड्रेसकोड से होती है.

स्वामीजी कह रहे थे, ‘‘संन्यासी की पहचान उस की मुद्रा है. उस का ड्रेसकोड है. उत्तरीय कैसे डाला जाए, सीखो. शाल कैसे ओढ़ते हैं, सीखो. रहस्य ही संन्यासी का धन है. जो भी मिलने आए उसे बाहर बैठाओ. जब पूरी तरह व्यवस्थित हो जाओ तब उसे पास बुलाओ. उसे लगे कि तुम गहरे ध्यान में थे, व्यस्त थे. उसे बस देखो, उसे बोलने दो, वह बोलताबोलता अपनी समस्या पर आ जाएगा. उसे वहीं पकड़ लो. देखो, हर व्यक्ति सफलता चाहता है. उसी के लिए उस का सबकुछ दांव पर लगा होता है. तुम्हें क्या करना है, उस से अच्छा- अच्छा बोलो. यहां 10 आते हैं, 5 का सोचा हो जाता है. 5 का नहीं होता. जिन 5 का हो जाता है, वे अगले 25 से कहते हैं. फिर यहां 30 आते हैं. जिन का नहीं हुआ वे नहीं आएं तो क्या फर्क पड़ता है. सफलता की बात याद रखो, बाकी भूल जाओ.’’

भास्कर यह सब सुन कर अवाक् था.

स्वामी विद्यानंद यहां आए थे. गुरुजी ने उन के प्रवचन करवाए. शहर में बड़ेबड़े विज्ञापनों के बैनर लगे. उन के कटआउट लगे. काफी भक्तजन आए. भास्कर का काम था कि वह सब से पहले 100 व 500 रुपए के कुछ नोट उन के सामने चुपचाप रख आता था. वहां इतने रुपयों को देख कर, जो भी उन से मिलने आता, वह भी 100 व 500 रुपए से कम भेंट नहीं देता था.

भास्कर समझ गया था कि ग्लैमर और करिश्मा क्या होता है. ‘ग्लैमर’ दूसरे की आंख में आकर्षण पैदा करना है. स्वामीजी के कासमैटिक बौक्स में तरहतरह की क्रीम रखी थीं. वे खुशबू भी पसंद करते थे. दक्षिणी सिल्क का परिधान था. आने वाला उन के सामने झुक जाता था. पर भास्कर का मन स्वामी दिव्यानंद समझ नहीं पाए.

श्यामली के सामने आते ही भास्कर ब्रह्मसूत्र भूल जाता. वह शंकराचार्य के स्थान पर वात्स्यायन को याद करने लग जाता.

‘नहीं, भास्कर नहीं,’ वह अपने को समझाता. क्या मिलेगा वहां. समाज की गालियां अलग. कोई नमस्कार भी नहीं करेगा. 4-5 हजार की नौकरी. तब क्या श्यामली इस तरह झुक कर प्रणाम करेगी. इसीलिए भास्कर श्यामली को देखते ही आश्रम के पिछवाड़े के बगीचे में चला जाता. वह श्यामली की छाया से भी बचना चाह रहा था.

श्यामली अपने मातापिता की इकलौती संतान थी. संस्कृत में उस ने एम.ए. किया था. रामानुजाचार्य के श्रीभाष्य पर उस ने पीएच.डी. की है तथा शासकीय महाविद्यालय में प्राध्यापिका थी. मातापिता दोनों शिक्षण जगत में रहे थे. धन की कोई कमी नहीं. पिता ने आश्रम के पास के गांव में 20 बीघा कृषि योग्य भूमि ले रखी थी. वहां वे अपने फार्म पर रहा करते थे. श्यामली के विवाह को ले कर मां चिंतित थीं. न जाने कितने प्रस्ताव वे लातीं, पर श्यामली सब को मना कर देती. श्यामली तो भास्कर को ही अपने समीप पाती थी.

भास्कर मानो सूर्य हो, जिस का सान्निध्य पाते ही श्यामली कुमुदिनी सी खिल जाती थी. मां ने बहुत समझाया पर श्यामली तो मानो जिद पर अड़ी थी. वह दिन में एक बार आश्रम जरूर जाती थी.

उस दिन भास्कर दिन भर बगीचे में रहा था. वह मंदिर न जा कर पंचवटी के नीचे दरी बिछा कर पढ़ता रहा. ध्यान की अवस्था में भास्कर को लगा कि उस के पास कोई बैठा है.

‘‘कौन?’’ वह बोला.

पहले कोई आवाज नहीं, फिर अचानक तेज हंसी की बौछार के साथ श्यामली बोली, ‘‘मुझ से बच कर यहां आ गए हो संन्यासी?’’

‘‘श्यामली, मैं संन्यासी हूं.’’

‘‘मैं ने कब कहा, नहीं हो. पर मैंने श्रीभाष्य पर पीएच.डी. की है. रामानुजाचार्य गृहस्थ थे. वल्लभाचार्य भी गृहस्थ थे. उन के 7 पुत्र थे. उन की पीढ़ी में आज भी सभी महंत हैं. कहीं कोई कमी नहीं है. पुजापा पाते हैं. कोठियां हैं, जो महल कहलाती हैं. क्या वे संत नहीं हैं?’’

‘‘तुम चाहती क्या हो?’’

‘‘तुम्हें,’’ श्यामली बोली, ‘‘भास्कर, तुम मेरे लिए ही यहां आए हो. तुम जिस परंपरा में जा रहे हो वहां वीतरागता है, पलायन है. देखो, अध्यात्म का संन्यास से कोई संबंध नहीं है. यह पतंजलि की बनाई हुई रूढि़ है, जिसे बहुत पहले इसलाम ने तोड़ दिया था. हमारे यहां रामानुज और वल्लभाचार्य तोड़ चुके थे. गृहस्थ भी संन्यासी है अगर वह दूसरे पर आश्रित नहीं है. अध्यात्म अपने को समझने का मार्ग है. आज का मनोविज्ञान भी यही कहता है पर तुम्हारे जैसे संन्यासी तो पहले दिन से ही दूसरे पर आश्रित होते हैं.’’

‘‘तुम चाहती क्या हो?’’

‘‘जो तुम चाहते हो पर कह नहीं पाते हो, तभी तो मना कर रहे हो. यहां छिप कर बैठे हो?’’

भास्कर चुप सोचता रहा कि गुरुजी कह रहे थे कि इस साधना पथ पर विकारों को प्रश्रय नहीं देना है.

‘‘मैं तुम्हें किसी दूसरे की नौकरी नहीं करने दूंगी,’’ श्यामली बोली, ‘‘हमारा 20 बीघे का फार्म है. वहां योगपीठ बनेगा. तुम प्रवचन दो, किताबें लिखो, जड़ीबूटी का पार्क बनेगा. वृद्धाश्रम भी होगा, मंदिर भी होगा, एक अच्छा स्कूल भी होगा. हमारी परंपरा होगी. एक सुखी, स्वस्थ परिवार.

‘‘भास्कर, रामानुज कहते हैं चित, अचित, ब्रह्म तीनों ही सत्य हैं, फिर पलायन क्यों? हम दोनों मिल कर जो काम करेंगे, वह यह मठ नहीं कर सकता. यहां बंधन है. हर संन्यासी के बारे में सहीगलत सुना जाता है. तुम खुद जानते हो. भास्कर, मैं तुम से प्यार करती हूं. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती. मैं तुम्हारा बंधन नहीं बनूंगी. तुम्हें ऊंचे आकाश में जहां तक उड़ सको, उड़ने की स्वतंत्रता दूंगी,’’ इतना कह श्यामली भास्कर से लिपट गई थी. वृक्ष और लता दोनों परस्पर एक हो गए थे. उस पंचवटी के घने वृक्षों की छाया में, जैसे समय भी आ कर ठहर गया हो. श्यामली ने भास्करानंद को अपनी बांहों के घेरे में ले लिया था.

दोनों की सांसें टकराईं तो भास्कर सोचने लगा कि स्त्री के बिना पुरुष अधूरा है.

पंचवटी के घने वृक्षों की छाया में दोनों शरीर सुख के अलौकिक आनंद से सराबोर हो रहे थे. गहरी सांसों के साथ वे हर बार एक नई ऊर्जा में तरंगित हो रहे थे.

थोड़ी देर बाद श्यामली बोली, ‘‘भास्कर, तुम नहीं जानते, इस मठ के पूर्व गुरु की प्रेमिका की बेटी ही करुणामयी मां हैं?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘यही सच है.’’

‘‘नहीं, यह सुनीसुनाई बात है.’’

‘‘तभी तो पूर्व महंतजी ने गद्दी छोड़ी थी और अपनी संपत्ति इन को दे गए, अपनी बेटी को…’’

भास्कर चुप रह गया था. यह उस के सामने नया ज्ञान था. क्या श्यामली सही कह रही है?

‘‘भास्कर, यह हमारी जमीन है, हम यहां पांचसितारा आश्रम बनाएंगे. जानते हो मेरी दादी कहा करती थीं, ‘रोटी खानी शक्कर से, दुनिया ठगनी मक्कर से’ दुनिया तो नाचने को तैयार बैठी है, इसे नचाने वाला चाहिए. आश्रम ऐसा हो जहां युवक आने को तरसें और बूढ़े जिन के पास पैसा है वे यहां आ कर बस जाएं. मैं जानती हूं कि सारी उम्र प्राध्यापकी करने से कितना मिलेगा? तुम योग सिखाना, वेदांत पर प्रवचन देना, लोगों की कुंडलिनी जगाना, मैं आश्रम का कार्यभार संभाल लूंगी, हम दोनों मिल कर जो दुनिया बसाएंगे, उसे पाने के लिए बड़ेबड़े महंत भी तरसेंगे.’’

श्यामली की गोद में सिर रख कर भास्कर उन सपनों में खो गया था जो आने वाले कल की वास्तविकता थी.

मेरा बाबू: एक मां की दर्द भरी कहानी

जून, 1993 की बात है. मुंबई में बंगलादेशियों की धरपकड़ जारी  थी. पुलिस उन्हें पकड़पकड़ कर ट्रेनों में ठूंस रही थी.   कुछ तो चले गए, कुछ कल्याण स्टेशन से वापस मुड़ गए. किसी का बाप पकड़ा गया और टे्रेन में बुक कर दिया गया तो बीवीबच्चे छूट गए. किसी की मां पकड़ी गई तो छोटेछोटे बच्चे इधर ही भीख मांगने के लिए छूट गए. पुलिस को किसी का फैमिली डिटेल मालूम नहीं था, बस, जो मिला, धर दबोचा और किसी भी ट्रेन में चढ़ा दिया. सब के चेहरे आंसुओं से भीग गए थे.

यह धरपकड़ करवाने वाले दलाल इन्हीं में से बंगाली मुसलमान थे. रात के अंधेरे में सोए हुए लोगों पर पुलिस का कहर नाजिल होता था, क्योंकि इन्हें दिन में पकड़ना मुश्किल था. कभी तो कोई मामला लेदे कर बराबर हो जाता और कभी किसी को जबरदस्ती ट्रेन में ठूंस दिया जाता. इन की सुरक्षा के लिए कोई आगे नहीं आया, न ही बंगलादेश की सरकार और न ही मानवाधिकार आयोग.

उन दिनों मेरे पास कुछ औरतों का काम था. सब की सब सफाई पर लगा दी गई थीं. कुछ को मैं ने कब्रिस्तान में घास की सफाई पर लगा रखा था. ज्यादातर औरतें बच्चों के साथ थीं. उन के साथ जो मर्द थे, उन के पति थे या भाई, मालूम नहीं. ये भेड़बकरियों की तरह झुंड बना कर निकलती थीं और झुंड ही की शक्ल में रोड के ब्रिज के नीचे अपने प्लास्टिक के झोपड़ों में लौट जाती थीं.

उन्हीं में एक थी फरजाना. देखने में लगता था कि वह 17 या 18 साल की होगी. मुझे तब ज्यादा आश्चर्य हुआ जब उस ने बताया कि वह विधवा है और एक बच्चे की मां है. उस का 2 साल का बच्चा जमालपुर (बंगलादेश) में है.

इस धरपकड़ के दौरान एक दिन वह मेरे पास आई और बोली, ‘‘साहब, मैं यहां से वापस बंगलादेश नहीं जाना चाहती.’’

‘‘क्यों? चली जाओ. यहां अकेले क्या करोगी?’’

‘‘साहब, मेरा मर्द एक्सीडेंट में मर गया. मेरा एक लड़का है जावेद, मेरा बाबू, मैं अपनी भाभी और भाई के पास उसे छोड़ कर आई हूं. मैं अपने बाबू के लिए ढेर सारा पैसा कमाना चाहती हूं ताकि उसे अच्छे स्कूल में अच्छी शिक्षा दिला सकूं और बड़ा आदमी बना सकूं.’’

फरजाना को पुकारते समय मैं उसे ‘बेटा’ कहता था और इसी एक शब्द की गहराई ने उस को मेरे बहुत करीब कर दिया था. न जाने क्यों, जब वह मेरे पास आती तो मेरे इतने करीब आ जाती जैसे किसी बाप के पास बेटी आती है. वह मुझे ‘रे रोड’ के प्लास्टिक के झोंपड़ों की सारी दास्तान सुनाती.

उस की कई बार इज्जत खतरे में पड़ी, लेकिन वह भाग कर या तो रे रोड के रेलवे स्टेशन पर आ गई या रोड पर आ कर चिल्लाने लगी. ये इज्जत लूटने वाले या उन्हें जिस्मफरोशी के बाजार में बेचने वाले बंगलादेशी ही थे. पहले वह यहां के दलालों से मिलते थे. रात के समय औरतों को दिखाते थे और फिर सौदा पक्का हो जाता था. कितनी ही औरतें फकलैंड रोड, पीली कोठी और कमाठीपुरा में धंधा करने लगीं और कुछ तंग आ कर मुंबई से भाग गईं.

फरजाना ने एक दिन मुझे बताया कि वह बंगाली नहीं है. बंटवारे के समय उस के पिता याकूब खां जिला गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) से पूर्वी पाकिस्तान गए थे. उस के बाद 1971 के गृहयुद्ध में वह मुक्ति वाहिनी के हाथों मारे गए. इस के बाद उस के भाई ने उस की शादी कर दी. उस का पति एक्सीडेंट में मर गया. जब उस का पति मरा तो वह पेट से थी. अब यह खानदान पूरी तरह उजड़ गया था. बंगलादेश से जब बिहारी मुसलमानों  ने उर्दू भाषी पाकिस्तान की तरफ कूच करना शुरू किया तो वहां की सरकार ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया. इधर बंगलादेश सरकार भी उन्हें अपने पास रखना नहीं चाहती थी, क्योंकि इस गृहयुद्ध में इन की सारी वफादारी पाकिस्तान के साथ थी. यहां तक कि इन्होंने मुक्ति वाहिनी से लड़ने के लिए अपनी रजाकार सेना बनाई थी.

जबपाकिस्तान हार गया और एक नए देश, बंगलादेश, का जन्म हो गया तो ये सारे लोग बीच में लटक गए. न बंगलादेश के रहे न पाकिस्तान के. फरजाना उन्हीं में से एक थी. वह भोजपुरी के साथ बहुत साफ बंगला बोलती थी. एक दिन तो हद हो गई, जब वह टूटेफूटे बरतनों में मेरे लिए मछली और चावल पका कर लाई.

मैं ने अपने दिल के अंदर कई बार झांक कर देखा कि फरजाना कहां है? हर बार वही हुआ. फरजाना ठीक मेरी लड़की की तरह मेरे दिल में रही. अब वह मुझे बाबा कह कर पुकारती थी. दिल यही कहता था कि उसे इन सारे झमेलों से उठा कर क्यों न अपने घर ले जाऊं, ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि मेरी 3 के बजाय 4 लड़कियां हो जाएंगी. लेकिन उस के बाबू जावेद का क्या होगा, जिस को वह जमालपुर (बंगलादेश) में छोड़ कर आई थी और फिर मैं ने उसे इधरउधर के काम से हटा कर अपने पास, अपने दफ्तर में रख लिया. काम क्या था, बस, दफ्तर की सफाई, मुझे बारबार चाय पिलाना और कफन के कपड़ों की सफाई.

ये भी पढ़ें- Serial Story: खुशी का गम

मुंबई एक ऐसा शहर है जहां ढेर सारे ट्रस्ट, खैराती महकमे हैं, बुरे लोगों से ज्यादा अच्छे लोग भी हैं और जिस विभाग का मैं मैनेजर था वह भी एक चैरेटी विभाग था. मसजिदों की सफाई, इमामों, मोअज्जिनों की भरती, पैसों का हिसाब- किताब लेकिन इस के अलावा सब से बड़ा काम था लावारिस मुर्दों को कब्रिस्तान में दफन करना. जो भी मुसलिम लाशें अस्पताल से मिलती थीं, उन का वारिस हमारा महकमा था. हमारा काम था कि उन को नहला कर नए कपड़ों में लपेट कर उन्हें कब्रिस्तान में सुला दिया जाए.

मुंबई में कब्रिस्तानों का तो यह आलम है कि चाहे जहां भी किसी के लिए कब्र खोदी जाए, वहां 2-4 मुर्दों की हड्डियां जरूर मिलती हैं. मतलब इस से पहले यहां कई और लोग दफन हो चुके हैं, और फिर इन हड्डियों को इकट्ठा कर के वहीं दफन कर दिया जाता है. यहां कब्रिस्तानों में कब्र के लिए जमीन बिकती है और यह दो गज जमीन का टुकड़ा वही खरीद पाते हैं जिन के वारिस होते हैं.

सोनापुर के इलाके में ज्यादातर कब्रें इसलिए पुख्ता कर दी गई हैं ताकि दोबारा यहां कोई और मुर्दा दफन न हो सके. मुंबई में मुर्दों की भी भीड़ है, इन के लिए दो गज जमीन का टुकड़ा कौन खरीदे? इसलिए हमारा विभाग यह काम करता है. हमारे विभाग ने लावारिस लाशों के लिए एक जगह मुकर्रर कर रखी है. यह संस्था कफनदफन का सारा खर्च बरदाश्त करती है. बाकायदा एक मौलाना और कुछ मुसलमान इस काम पर लगा दिए गए हैें कि जब कोई लावारिस लाश आए उसे नहलाएं, कफन पहनाएं और नमाजेजनाजा पढ़ कर कब्र में उतारें. शायद ऐसा विभाग हिंदुस्तान के किसी शहर में नहीं है, लेकिन मुंबई में है और यह चैरेटी इस काम को खुशीखुशी करती है. वैसे इस दफ्तर का मुंबई की भाषा में एक दूसरा नाम भी है, ‘कफन आफिस.’

एक दिन फरजाना ने आ कर मुझे एक मुड़ीतुड़ी तसवीर दिखाई, ‘‘बाबा, यह मेरा बाबू है, ठीक अपने बाप पर गया है,’’ और फिर उस ने किसी कीमती चीज की तरह उसे अपने ब्लाउज में रख लिया. बच्चे की तसवीर बड़ी प्यारी थी. बड़ीबड़ी आंखें, उस में ढेर सारा काजल, माथे पर काजल का टीका, बाबासूट पहने फरजाना की गोद में बैठा हुआ है. मैं ने पूछा, ‘‘फरजाना, यह छोटा बच्चा तुम्हारे बगैर कैसे रहता होगा?’’

‘‘मैं वहां उसे भैयाभाभी के पास छोड़ कर आई हूं. उन के अपने 2 बच्चे हैं. यह तीसरा मेरा है. बड़े आराम से रह रहा होगा बाबा. आखिर, इस का बाप नहीं, दादा नहीं, चाचा नहीं, फिर इस के लिए कौन कमाएगा? इस को कौन बड़ा आदमी बनाएगा? मैं अपने सीने पर पत्थर रख कर आई हूं. जब किसी का बच्चा रोता है तो मेरा बाबू याद आता है. मैं अकेले में चुपके- चुपके रोती हूं. लेकिन मैं चाहती हूं, थोड़ा- बहुत पैसा कमा लूं तो वहां जाऊं, अपनेबाबू का अच्छे स्कूल में नाम लिखाऊं और फिर बड़ा हो कर मेरा बाबू कुछ बन जाए.’’

कुछ दिनों के बाद पुलिस ने इन की धरपकड़ बंद कर दी. लेकिन मैं ने उन सारी औरतों को काम से हटा दिया. वह कहां गईं, किधर से आईं, किधर चली गईं, मैं इस फिक्र से आजाद हो गया क्योंकि इन में कुछ रेडलाइट एरिया का चक्कर भी काटती थीं. मैं अपनेआप को इन तमाम झंझटों से दूर रखना चाहता था.

एक दिन जब दफ्तर की सफाई करते समय एक थैला मिला. खोल कर देखा तो उस में छोटे बच्चे के लिए नएनए कपड़े थे. मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि यह सारे कपड़े फरजाना ने अपने बाबू के लिए खरीदे होंगे और जल्दबाजी या पुलिस की धरपकड़ के दौरान वह इन्हें भूल गई होगी. अब ऐसे खानाबदोश लोगों का न घर है न टेलीफोन नंबर. फिर इन कपड़ों का क्या किया जाए?

ये भी पढ़ें- अग्निपरीक्षा: श्रेष्ठा की जिंदगी में क्या तूफान आया?

मैं ने एकएक कपड़े को गौर से देखा. बाबासूट, जींस की पैंट, जूता, मोजा और एक छोटी सी टोपी. मैं ने भी उन्हें वहीं संभाल कर रख दिया. शहर में फरजाना को तलाश करना मुश्किल था.

एक दिन अखबार पर सरसरी निगाह डालते हुए मैं ने देखा कि कुछ औरतें सोनापुर (भानडूप) के रेडलाइट एरिया से पकड़ी गई हैं और पुलिस की हिरासत में हैं. इन में फरजाना का भी नाम था. इन सारी औरतों को कमरे के नीचे तहखाने में रखा गया था. दिन में केवल एक बार खाना दिया जाता था और जबरदस्ती उन से देह व्यापार का धंधा कराया जाता था.

उस का नाम पढ़ते ही मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगा. उस का बारबार मुझे बाबा कह के पुकारना याद आने लगा. दिल नहीं माना और मैं उस की तलाश में निकल पड़़ा.

उसे ढूंढ़ने में अधिक परेशानी नहीं हुई. वह भांडूप पुलिस स्टेशन में थी और वहां की पुलिस उसे बंगलादेश भेज रही थी. मैं थोड़ी देर के लिए उस से मिला लेकिन अब वह बिलकुल बदल चुकी थी. वह मुझे टकटकी लगा कर देख रही थी. उस के चेहरे की सारी मुसकराहट गुम हो चुकी थी. मुझे मालूम था कि उस की इज्जत भी लुट चुकी है. औरत की जब इज्जत लुट जाती है तो उस का चेहरा हारे हुए जुआरी की तरह हो जाता है, जो अपना सबकुछ गंवा चुका होता है. मैं ने वह प्लास्टिक का थैला उस के हाथ में दे दिया. उस ने उसे देखा और रोते हुए बोली, ‘‘बाबा, अब इस की जरूरत नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बाबा, मेरा बाबू मर गया.’’

‘‘क्या बात कर रही हो. यह कैसे हो सकता है?’’

‘‘बाबा, वह मर गया. मैं अपने भाई और भाभी को पैसा भेजती रही और वह मेरे बाबू की मौत मुझसे छिपाए रहे. वह  उसे कमरे के बाहर सुला देते थे. रात भर वह नन्हा फरिश्ता बारिश और ठंड में पड़ा रहता था. उसे सर्दी लगी और वह मर गया. भाभी और भाई ने उस की मौत को मुझ से छिपाए रखा ताकि उन को हमेशा पैसा भेजती रहूं. वह तो एक औरत वहां से आई थी और उस ने रोरो कर मेरे बाबू की दास्तान सुनाई. अब मेरा जिस्म बाकी है. अब मुझे जिंदगी से कोई दिलचस्पी नहीं.’’

फिर वह दहाड़ मार कर रोने लगी.

उस के इस तरह रोने से पुलिस स्टेशन में हड़बड़ी मच गई. सभी अपना काम छोड़ कर उस की तरफ दौड़ पड़े. उसे पानी वगैरह पिला कर चुप कराया गया. पुलिस अपनी काररवाई कर रही थी लेकिन मुझे यकीन था कि अब वह बंगलादेश नहीं जाएगी, अलीगंज या किशनगंज से दोबारा भाग आएगी. अब वहां उस का था भी कौन? एक बच्चा था वह भी मर गया. मैं उसे पुलिस स्टेशन में छोड़ कर आ गया और अपने कफन आफिस के कामों में लग गया. रोज एक नया मुर्दा और उस का कफनदफन.

एक दिन अस्पताल से फोन आने पर वहां गया. एक लाश की पहचान नहीं हो पा रही थी. लाश लोकल ट्रेन से कट गई थी. दोनों जांघों की हड्डियां कट गई थीं. पेट की आंतें बाहर थीं. यह एक औरत की लाश थी. ब्लाउज के अंदर एक छोटे बच्चे की तसवीर खून में डूबी हुई थी. तसवीर को पानी से साफ किया. अब सबकुछ साफ था. यह फरजाना की लाश थी. उस का बाबू अपनी तसवीर में हंस रहा था. न जाने अपनी मौत पर, या अपनी मां की मौत पर या फिर इस मुल्क के बंटवारे पर. मैं उस लाश को उठा कर ले आया और तसवीर के साथ उसे कब्र में दफन कर दिया.

अपने हुए पराए : लोग क्यों खून के रिश्तों के लिए रोते है

‘‘अजय, हम साधारण इनसान हैं. हमारा शरीर हाड़मांस का बना है. कोई नुकीली चीज चुभ जाए तो खून निकलना लाजिम है. सर्दी गरमी का हमारे शरीर पर असर जरूर होता है. हम लोहे के नहीं बने कि कोई पत्थर मारता रहे और हम खड़े मुसकराते रहें.

‘‘अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल करेंगे तो शायद सामने वाले का सम्मान ही न कर पाएं. हम प्रकृति के विरुद्ध न ही जाएं तो बेहतर होगा. इनसानी कमजोरी से ओतप्रोत हम मात्र मानव हैं, महामानव न ही बनें तो शायद हमारे लिए उचित है.’’

बड़ी सादगी से श्वेता ने समझाने का प्रयास किया. मैं उस का चेहरा पढ़ता रहा. कुछ चेहरे होते हैं न किताब जैसे जिन पर ऐसा लगता है मानो सब लिखा रहता है. किताबी चेहरा है श्वेता का. रंग सांवला है, इतना सांवला कि काले की संज्ञा दी जा सकती है…और बड़ीबड़ी आंखें हैं जिन में जराजरा पानी हर पल भरा रहता है.

अकसर ऐसा होता है न जीवन में जब कोई ऐसा मिलता है जो इस तरह का चरित्र और हावभाव लिए होता है कि उस का एक ही आचरण, मात्र एक ही व्यवहार उस के भीतरबाहर को दिखा जाता है. लगता है कुछ भी छिपा सा नहीं है, सब सामने है. नजर आ तो रहा है सब, समझाने को है ही क्या, समझापरखा सब नजर आ तो रहा है. बस, देखने वाले के पास देखने वाली नजर होनी चाहिए.

‘‘तुम इतनी गहराई से सब कैसे समझा पाती हो, श्वेता. हैरान हूं मैं,’’ स्टाफरूम में बस हम दोनों ही थे सो खुल कर बात कर पा रहे थे.

‘‘तारीफ कर रहे हो या टांग खींच रहे हो?’’

श्वेता के चेहरे पर एक सपाट सा प्रश्न उभरा और होंठों पर भी. चेहरे पर तीखा सा भाव. मानो मेरा तारीफ करना उसे अच्छा नहीं लगा हो.

‘‘नहीं तो श्वेता, टांग क्यों खींचूंगा मैं.’’

‘‘मेरी वह उम्र नहीं रही अब जब तारीफ के दो बोल कानों में शहद की तरह घुलते हैं और ऐसा कुछ खास भी नहीं समझा दिया मैं ने जो तुम्हें स्वयं पता न हो. मेरी उम्र के ही हो तुम अजय, ऐसा भी नहीं कि तुम्हारा तजरबा मुझ से कम हो.’’

अचानक श्वेता का मूड ऐसा हो जाएगा, मैं ने नहीं सोचा था…और ऐसी बात जिस पर उसे लगा मैं उस की चापलूसी कर रहा हूं. अगर उस की उम्र अब वह नहीं जिस में प्रशंसा के दो बोल शहद जैसे लगें तो क्या मेरी उम्र अब वह है जिस में मैं चापलूसी करता अच्छा लगूं? और फिर मुझे उस से क्या स्वार्थ सिद्ध करना है जो मैं उस की चापलूसी करूंगा. अपमान सा लगा मुझे उस के शब्दों में, पता नहीं उस ने कहां का गुस्सा कहां निकाल दिया होगा.

‘‘अच्छा, बताओ, चाय लोगे या कौफी…सर्दी से पीठ अकड़ रही है. कुछ गरम पीने को दिल कर रहा है. क्या बनाऊं? आज सर्दी बहुत ज्यादा है न.’’

‘‘मेरा मन कुछ भी पीने को नहीं है.’’

‘‘नाराज हो गए हो क्या? तुम्हारा मन पीने को क्यों नहीं, मैं समझ सकती हूं. लेकिन…’’

‘‘लेकिन का क्या अर्थ है श्वेता, मेरी जरा सी बात का तुम ने अफसाना ही बना दिया.’’

‘‘अफसाना कहां बना दिया. अफसाना तो तब बनता जब तुम्हारी तारीफ पर मैं इतराने लगती और बात कहीं से कहीं ले जाते तुम. मुझे बिना वजह की तारीफ अच्छी नहीं लगती…’’

‘‘बिना वजह तारीफ नहीं की थी मैं ने, श्वेता. तुम वास्तव में किसी भी बात को बहुत अच्छी तरह समझा लेती हो और बिना किसी हेरफेर के भी.’’

‘‘वह शायद इसलिए भी हो सकता है क्योंकि तुम्हारा दृष्टिकोण भी वही होगा जो मेरा है. तुम इसीलिए मेरी बात समझ पाए क्योंकि मैं ने जो कहा तुम उस से सहमत थे. सहमत न होते तो अपनी बात कह कर मेरी बात झुठला सकते थे. मैं अपनेआप गलत प्रमाणित हो जाती.’’

‘‘तो क्या यह मेरा कुसूर हो गया, जो तुम्हारे विचारों से मेरे विचार मेल खा गए.’’

‘‘फैशन है न आजकल सामने वाले की तारीफ करना. आजकल की तहजीब है यह. कोई मिले तो उस की जम कर तारीफ करो. उस के बालों से…रंग से…शुरू हो जाओ, पैर के अंगूठे तक चलते जाओ. कितने पड़ाव आते हैं रास्ते में. आंखें हैं, मुसकान है, सुराहीदार गरदन है, हाथों की उंगलियां भी आकर्षक हो सकती हैं. अरे, भई क्या नहीं है. और नहीं तो जूते, चप्पल या पर्स तो है ही. आज की यही भाषा है. अपनी बात मनवानी हो या न भी मनवानी हो…बस, सामने वाले के सामने ऐसा दिखावा करो कि उसे लगे वही संसार का सब से समझदार इनसान है. जैसे ही पीठ पलटो अपनी ही पीठ थपथपाओ कि हम ने कितना अच्छा नाटक कर लिया…हम बहुत बड़े अभिनेता होते जा रहे हैं…क्या तुम्हें नहीं लगता, अजय?’’

‘‘हो सकता है श्वेता, संसार में हर तरह के लोग रहते हैं…जितने लोग उतने ही प्रकार का उन का व्यवहार भी होगा.’’

‘‘अच्छा, जरा मेरी बात का उत्तर देना. मैं कितनी सुंदर हूं तुम देख सकते हो न. मेरा रंग गोरा नहीं है और मैं अच्छेखासे काले लोगों की श्रेणी में आती हूं. अब अगर कोई मुझ से मिल कर यह कहना शुरू कर दे कि मैं संसार की सब से सुंदर औरत हूं तो क्या मैं जानबूझ कर बेवकूफ बन जाऊंगी? क्या मैं इतनी सुंदर हूं कि सामने वाले को प्रभावित कर सकूं?’’

‘‘तुम बहुत सुंदर हो, श्वेता. तुम से किस ने कह दिया कि तुम सुंदर नहीं हो.’’

सहसा मेरे होंठों से भी निकल गया और मैं कहीं भी कोई दिखावा या झूठ नहीं बोल रहा था. अवाक् सी मेरा मुंह ताकने लगी श्वेता. इतनी स्तब्ध रह गई मानो मैं ने जो कहा वह कोरा झूठ हो और मैं एक मंझा हुआ अभिनेता हूं जिसे अभिनय के लिए पद्मश्री सम्मान मिल चुका हो.

‘‘श्वेता, तुम्हारा व्यक्तित्व दूर से प्रभावित करता है. सुंदरता का अर्थ क्या है तुम्हारी नजर में, क्या समझा पाओगी मुझे?’’

मैं ने स्थिति को सहज रूप में संभाल लिया. उस पर जरा सा संतोष भी हुआ मुझे. फीकी सी मुसकान उभर आई थी श्वेता के चेहरे पर.

‘‘हम 40 पार कर चुके हैं. तुम सही कह रही थीं कि अब हमारी उम्र वह नहीं रही जब तारीफ के झूठे बोल हमारी समझ में न आएं. कम से कम सच्ची और ईमानदार तारीफ तो हमारी समझ में आनी चाहिए न. मैं तुम्हारी झूठी तारीफ क्यों करूंगा…जरा समझाओ मुझे. मेरा कोई रिश्तेदार तुम्हारा विद्यार्थी नहीं है जिसे पास कराना मेरी जरूरत हो और न ही मेरे बालबच्चे ही उस उम्र के हैं जिन के नंबरों के लिए मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ूं. 2 बच्चियों का पिता हूं मैं और चाहूंगा कि मेरी बेटियां बड़ी हो कर तुम जैसी बनें.

‘‘हमारे विभाग में तुम्हारा कितना नाम है. क्या तुम्हें नहीं पता. तुम्हारी लिखी किताबें कितनी सीधी सरल हैं, तुम जानती हो न. हर बच्चा उन्हीं को खरीदना चाहता है क्योंकि वे जितनी व्यापक हैं उतनी ही सरल भी हैं. अपने विषय की तुम जीनियस हो.’’

इतना सब कह कर मैं ने मुसकराने का प्रयास किया लेकिन चेहरे की मांसपेशियां मुझे इतनी सख्त लगीं जैसे वे मेरे शरीर का हिस्सा ही न हों.

श्वेता एकटक निहारती रही मुझे. सहयोगी हैं हम. अकसर हमारा सामना होता रहता है. श्वेता का रंग सांवला है, लेकिन गोरे रंग को अंगूठा दिखाता उस का गरिमापूर्ण व्यक्तित्व इतना अच्छा है कि मैं अकसर सोचता हूं कि सुंदरता हो तो श्वेता जैसी. फीकेफीके रंगों की उस की साडि़यां बहुत सुंदर होती हैं. अकसर मैं अपनी पत्नी से श्वेता की बातें करता हूं. जैसी सौम्यता, जैसी सहजता मैं श्वेता में देखता हूं वैसी अकसर दिखाई नहीं देती. गरिमा से भरा व्यक्तित्व समझदारी अपने साथ ले कर आता है, यह भी साक्षात श्वेता में देखता हूं मैं.

‘‘अजय, कम से कम तुम तो ऐसी बात न करो,’’ सहसा अपने होंठ खोले श्वेता ने, ‘‘अच्छा नहीं लगता मुझे.’’

‘‘क्यों अच्छा नहीं लगता, श्वेता? अपने को कम क्यों समझती हो तुम?’’

‘‘न कम समझती हूं मैं और न ही ज्यादा… जितनी हूं कम से कम उतने में ही रहने दो मुझे.’’

‘‘तुम एक बहुत अच्छी इनसान हो.’’

अपने शब्दों पर जोर दिया मैं ने क्योंकि मैं चाहता हूं मेरे शब्दों की सचाई पर श्वेता ध्यान दे. सुंदरता किसे कहा जाता है, यह तो कहने वाले की सोच और उस की नजरों में होती है न, जो सुंदरता को देखता है और जिस के मन में वह जैसी छाप छोड़ती है. खूबसूरती तो सदा देखने वाले की नजर में होती है न कि उस में जिसे देखा जाए.

‘‘तुम चाय पिओगे कि नहीं, हां या ना…जल्दी से कहो. मेरे पास बेकार बातों के लिए समय नहीं है.’’

‘‘श्वेता, अकसर बेकार बातें ही बड़े काम की होती हैं, जिन बातों को हम जीवन भर बेकार की समझते रहते हैं वही बातें वास्तव में जीवन को जीवन बनाने वाली होती हैं. बड़ीबड़ी घटनाएं जीवन में बहुत कम होती हैं और हम पागल हैं, जो अपना जीवन उन की दिशा के साथ मोड़तेजोड़ते रहते हैं. हम आधी उम्र यही सोचते रहते हैं कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते होंगे, तीनचौथाई उम्र यही सोचने में गुजार देते हैं कि वह कहीं हमारे बारे में बुरा तो नहीं सोचते होंगे.’’

धीरे से मुसकराने लगी श्वेता और फिर हंस कर बोली, ‘‘और उम्र के आखिरी हिस्से में आ कर हमें पता चलता है कि लोगों ने तो हमारे बारे में अच्छा या बुरा कभी सोचा ही नहीं था. लोग तो मात्र अपनी सुविधा और अपने सुख के बारे में सोचते हैं, हम से तो उन्हें कभी कुछ लेनादेना था ही नहीं.’’

जीवन का इतना बड़ा सत्य इतनी सरलता से कहने लगी श्वेता. मैं भी अपनी बात पूरी होते देख हंस पड़ा.

‘‘वह सब तो मैं पहले से ही समझती हूं. हालात और दुनिया ने सब समझाया है मुझे. बचपन से अपनी सूरत के बारे में इतना सुन चुकी हूं कि…’’

‘‘कि अपने अस्तित्व की सौम्यता भूल ही गई हो तुम. भीड़ में खड़ी अलग ही नजर आती हो और वह इसलिए नहीं कि तुम्हारा रंग काला है, वह इसलिए कि तुम गोरी मेकअप से लिपीपुती महिलाओं में खड़ी अलग ही नजर आती हो और समझा जाती हो कि सुंदरता किसी मेकअप की मोहताज नहीं है.

‘‘मैं पुरुष हूं और पुरुषों की नजर सुंदरता भांपने में कभी धोखा नहीं खाती. जिस तरह औरत पुरुष की नजर पहचानने में भूल नहीं करती… झट से पहचान जाती है कि नजरें साफ हैं या नहीं.’’

‘‘नजरें तो तुम्हारी साफ हैं, अजय, इस में कोई दो राय नहीं है,’’ उठ कर चाय बनाने लगी श्वेता.

‘‘धन्यवाद,’’ तनिक रुक गया मैं. नजरें उठा कर मुझे देखा श्वेता ने. कुछ पल को विषय थम सा गया. सांवले चेहरे पर सुनहरा चश्मा और कंधे पर गुलाबी रंग की कश्मीरी शाल, पारदर्शी, सम्मोहित सा करता श्वेता का व्यवहार.

‘‘अजय ऐसा नहीं है कि मैं खुश रहना नहीं चाहती. भाईबहन, रिश्तेदार, अपनों का प्यार किसे अच्छा नहीं लगता और फिर अकेली औरत को तो भाईबहन का ही सहारा होता है न. यह अलग बात है, वह सब की बूआ, सब की मौसी तो होती है लेकिन उस का कोई नहीं होता. ऐसा कोई नहीं होता जिस पर वह अधिकार से हाथ रख कर यह कह सके कि वह उस का है.’’

चाय बना लाई श्वेता और पास में बैठ कर बताने लगी:

‘‘मेरी छोटी बहन के पति मेरी जम कर तारीफ करते हैं और इस में बहन भी उन का साथ देती है. लेकिन वह जब भी जाते हैं, मेरा बैंक अकाउंट कुछ कम कर के जाते हैं. बच्चों की महंगी फीस का रोना कभी बहन रोती है और कभी भाभी. घर पर पड़ी नापसंद की गई साडि़यां मुझे उपहार में दे कर वे समझते हैं, मुझ पर एहसान कर रहे हैं. उन्हें क्या लगता है, मैं समझती नहीं हूं. अजय, मेरी बहन का पति वही इनसान है जो रिश्ते के लिए मुझे देखने आया था, मैं काली लगी सो छोटी को पसंद कर गया. तब मैं काली थी और आज मैं उस के लिए संसार की सब से सुंदर औरत हूं.’’

अवाक् रह गया था मैं.

‘‘मेरी तारीफ का अर्थ है मुझे लूटना.’’

‘‘तुम समझती हो तो लुटती क्यों हो?’’

‘‘जिस दिन लुटने से मना कर दिया उसी दिन शीशा दिख जाएगा मुझे…जिस दिन मैं ने अपने स्वाभिमान की रक्षा की, उसी दिन उन का अपमान हो जाएगा. मैं अकेली जान…भला मेरी क्या जरूरतें, जो मैं ने उन की मदद करने से मना कर दिया. मुझे कुछ हो गया तो मेरा घर, मेरा रुपयापैसा भला किस काम आएगा.’’

‘‘तुम्हें कुछ हो गया…इस का क्या मतलब? तुम्हें क्या होने वाला है, मैं समझा नहीं…’’

‘‘मेरी 40 साल की उम्र है. अब मेरी शादी करने की उम्र तो रही नहीं. किस के लिए है, जो सब मैं कमाती हूं. मैं जब मरूंगी तो सब उन का ही होगा न.’’

‘‘जब मरोगी तब मरोगी न. कौन कब जाने वाला है, इस का समय निश्चित है क्या? कौन पहले जाने वाला है कौन बाद में, इस का भी क्या पता… बुरा मत मानना श्वेता, अगर मैं तुम्हारी मौत की कामना कर तुम्हारी धनसंपदा पर नजर रखूं तो क्या मुझे अपनी मृत्यु का पता है कि वह कब आने वाली है. अपना भी खा सकूंगा इस की भी क्या गारंटी, जो तुम्हारा भी छीन लेने की आस पालूं. तुम्हारे भाई व बहन 100 साल जिएं लेकिन उन्हें तुम्हें लूटने का कोई अधिकार नहीं है.’’

पलकें भीग गईं श्वेता की. कमरे में देर तक सन्नाटा छाया रहा. चश्मा उतार कर आंखें पोंछीं श्वेता ने.

‘‘अजय, वक्त सब सिखा देता है. यह संसार और दुनियादारी बहुत बड़ा स्कूल है, जहां हर पल कुछ नया सीखने को मिलता है. बहुत अच्छा बनने की कोशिश भी इनसान को कहीं का नहीं छोड़ती. मानव से महामानव बनना आसान है लेकिन महामानव से मानव बनना आसान नहीं. किसी को सदा देने वाले हाथ मांगते हुए अच्छे नहीं लगते. मैं सदा देती हूं, जिस दिन इनकार करूंगी…’’

‘‘तुम्हें महामानव होने का प्रमाणपत्र किस ने दिया है? …तुम्हारे भाईबहन ने ही न. वे लोग कितने स्वार्थी हैं क्या तुम्हें दिखता नहीं. इस उम्र में क्या तुम्हारा घर नहीं बस सकता, मरने की बातें करती हो…अभी तुम ने जीवन जिया कहां है… तुम शादी क्यों नहीं कर लेतीं. इस काम में तुम चाहो तो मैं और मेरी पत्नी तुम्हारा साथ देने को तैयार हैं.’’

अवाक् रह गई थी श्वेता. इस तरह हैरान मानो जो सुना वह कभी हो ही नहीं सकता.

‘‘शायद तुम यह नहीं जानतीं कि हमारे घर में तुम्हारी चर्चा इसलिए भी है क्योंकि मेरी पत्नी और दोनों बेटियां भी सांवले रंग की हैं. पलपल स्वयं को दूसरों से कम समझना उन का भी स्वभाव बनता जा रहा है. तुम्हारी चर्चा कर के उन्हें यह समझाना चाहता हूं कि देखो, हमारी श्वेताजी कितनी सुंदर हैं और मैं सदा चाहूंगा कि मेरी दोनों बेटियां तुम जैसी बनें.’’

स्वर भर्रा गया था मेरा. श्वेता के अति व्यक्तिगत पहलू को इस तरह छू लूंगा मैं ने कभी सोचा भी नहीं था. चुप थी श्वेता. आंखें टपकने लगी थीं. पास जा कर कंधा थपथपा दिया मैं ने.

‘‘हम आफिस के सहयोगी हैं… अगर भाई बन कर तुम्हारा घर बसा पाऊं तो मुझे बहुत खुशी होगी. क्या हमारे साथ रिश्ता बांधना चाहोगी? देखो, हमारा खून का रिश्ता तो नहीं होगा लेकिन जैसा भी होगा निस्वार्थ होगा.’’

रोतेरोते हंसने लगी थी श्वेता. देर तक हंसती रही. चुपचाप निहारता रहा मैं. जब सब थमा तब ऐसा लगा मानो नई श्वेता से मिल रहा हूं. मेरा हाथ पकड़ देर तक सहलाती रही श्वेता. सर पर हाथ रखा मैं ने. शायद उसी से कुछ कहने की हिम्मत मिली उसे.

‘‘अजय, क्या पिता बन कर मेरा कन्यादान करोगे? मैं शादी करना चाहती हूं पर यह समझ नहीं पा रही कि सही कर रही हूं या गलत. कोई ऐसा अपना नहीं मिल रहा था जिस से बात कर पाती. ऐसा लग रहा था, कोई पाप कर रही हूं क्योंकि मेरे अपनों ने तो मुझे वहां ला कर खड़ा कर दिया है जहां अपने लिए सोचना भी बचकाना सा लगता है.’’

मैं सहसा चौंक सा गया. मैं तो बस सहज बात कर रहा था और वह बात एक निर्णय पर चली आएगी, शायद श्वेता ने भी नहीं सोचा होगा.

‘‘सच कह रही हो क्या?’’

‘‘हां. मेरे साथ ही पढ़ते थे वह. एम.ए. तक हम साथ थे. 15 साल पहले उन की शादी हो गई थी. मेरे पिताजी के गुजर जाने के बाद मुझ पर परिवार की जिम्मेदारी थी इसलिए मेरी मां ने भी मेरा घर बसा देना जरूरी नहीं समझा. भाईबहनों को ही पालतेब्याहते मैं बड़ी होती गई…ऊपर से मेरा रंग भी काला. सोने पर सुहागा.

‘‘पिछली बार जब मैं दिल्ली में होने वाले सेमिनार में गई थी तब सहायजी से वहां मुलाकात हुई थी.’’

‘‘सहायजी, वही जो दिल्ली विश्वविद्यालय में ही रसायन विभाग में हैं. हां, मैं उन्हें जानता हूं. 2 साल पहले कार एक्सीडेंट में उन की पत्नी और बेटे का देहांत हो गया था. उन की बेटी यहीं लुधियाना में है.’’

‘‘और मैं उस बच्ची की स्थानीय अभिभावक हूं,’’ धीरे से कहा श्वेता ने. एक हलकी सी चमक आ गई उस की नजरों में. मैं समझ सकता हूं उस बच्ची की वजह से श्वेता के मन में ममता का अंकुर फूटा होगा. सहाय भी बहुत अच्छे इनसान हैं. बहुत सम्मान है उन का दिल्ली में.

‘‘क्या सहाय ने खुद तुम्हारा हाथ मांगा है?’’

‘‘वह और उन की बेटी दोनों ही चाहते हैं. मैं कोई निर्णय नहीं ले पा रही हूं. मैं क्या करूं, अजय. कहीं इस में उन का भी कोई स्वार्थ तो नहीं है.’’

‘‘जरा सा स्वार्थी तो हर किसी को होना ही चाहिए न. उन्हें पत्नी चाहिए, तुम्हें पति और बच्ची को मां. श्वेता, 3 अधूरे लोग मिल कर एक सुखी घर की स्थापना कर सकते हैं. जरूरतें इनसानों को जोड़ती हैं और जुड़ने के बाद प्यार भी पनपता है. मुझे 2 दिन का समय दो. मैं अपने तरीके से सहाय के बारे में छानबीन कर के तुम्हें बताता हूं.’’

शायद श्वेता के शब्दों का ही प्रभाव होगा, एक पिता जैसी भावना मन को भिगोने लगी. माथा सहला दिया मैं ने श्वेता का.

‘‘मैं और तुम्हारी भाभी सदा तुम्हारे साथ हैं, श्वेता. तुम अपना घर बसाओ और खुश रहो.’’

श्वेता की आंखों में रुका पानी झिलमिलाने लगा था. पसंद तो मैं उस को सदा से करता था, उस से एक रिश्ता भी बंध जाएगा पता न था. उस का मेरा हाथ अपने माथे से लगा कर सम्मान सहित चूम लेना मैं आज भी भूला नहीं हूं. रिश्ता तो वह होता है न जो मन का हो, रक्त के रिश्ते और उन का सत्य अब सत्य कहां रह गया है. किसी चिंतक ने सही कहा है, जो रक्त पिए वही रक्त का रिश्तेदार.

सहाय, श्वेता और वह बच्ची मृदुला, तीनों आज मेरे परिवार का हिस्सा हैं. श्वेता के भाईबहन उस से मिलतेजुलते नहीं हैं. नाराज हैं, क्या फर्क पड़ता है, आज रूठे हैं, कल मान भी जाएंगे. आज का सत्य यही है कि श्वेता के माथे की सिंदूरी आभा बहुत सुंदर लगती है. अपनी गृहस्थी में वह बहुत खुश है. मेरा घर उस का मायका है. एक प्यारी सी बेटी की तरह वह चली आती है मेरी पत्नी के पास. दोनों का प्यार देख कभीकभी सोचता हूं लोग क्यों खून के रिश्तों के लिए रोते हैं. दाहसंस्कार करने के अलावा भला यह काम कहां आता है.

बंद लिफाफा : दिल्ली पहुंच केशव की कैसी बदली जिंदगी

केशव को दिल्ली गए 2 दिन हो गए थे और लौटने में 4-5 दिन और लगने की संभावना थी. ये चंद दिन काटने भी रजनी के लिए बहुत मुश्किल हो रहे थे. केशव के बिना रहने का उस का यह पहला अवसर था. बिस्तर पर पड़ेपड़े आखिर कोई करवटें भी कब तक बदलता रहेगा. खीज कर उसे उठना पड़ा था.

रजनी ने घड़ी में समय देखा, 9 बज गए थे और सारा घर बिखरा पड़ा था. केशव को इस तरह के बिखराव से बहुत चिढ़ थी. अगर वह होता तो रजनी को डांटने के बजाय खुद ही सामान सलीके से रखना शुरू कर देता और उसे काम में लगे देख कर रजनी सारा आलस्य भूल कर उठती और स्वयं भी काम में लग जाती. केशव की याद आते ही रजनी के गालों पर लालिमा छा गई. उस ने उठ कर घर को संवारना शुरू कर दिया.

बिस्तर की चादर उठाई ही थी कि एक बंद लिफाफे पर रजनी की नजर टिक गई. हाथ में उठा कर उसे कुछ क्षणों तक देखती रही. मां की चिट्ठी थी और पिछले 10 दिन से इसी तरह तकिए के नीचे दबी पड़ी थी. केशव ने तो कई बार कहा था, ‘‘खोल कर पढ़ लो, आखिर मां की ही तो चिट्ठी है.’’

पर रजनी का मन ही नहीं हुआ. वह समझती थी कि पत्र पढ़ कर उसे मानसिक तनाव ही होगा. फिर से उस लिफाफे को तकिए के नीचे दबाती हुई वह बिस्तर पर लेट गई और अतीत में विचरण करने लगी:

मां का नाराज होना स्वाभाविक था, परंतु इस में भी कोई शक नहीं कि वे रजनी को बहुत प्यार करती थीं.

मां कहा करतीं, ‘मेरी रजनी तो परी है,’ अपनी खूबसूरत बेटी पर उन्हें बड़ा नाज था. पासपड़ोस और रिश्तेदारों में हर तरफ रजनी की सुंदरता के चर्चे थे. सिर्फ सुंदर ही नहीं, वह गुणवती भी थी. मां ने उसे सिलाईकढ़ाई, चित्रकला और नृत्य की भी शिक्षा दिलाई थी. रजनी के लिए तब से रिश्ते आने लगे थे जब वह बालिग भी नहीं हुई थी. पिताजी सिर्फ रजनी की पढ़ाई की ही चिंता करते, पर मां का तो सारा ध्यान लड़के की तलाश में लगा था.

यह तो अच्छा था कि उस के लिए जो भी रिश्ते आए, उन में से कोई भी लड़का मां को पसंद नहीं आया था.

आसपड़ोस और रिश्तेदारों के सामने रजनी की सुंदरता का बखान करते हुए मां कहतीं, ‘कुंआरी बेटी छाती पर बोझ होती है और वह अगर सुंदर होने के साथसाथ गुणी भी हो तो बोझ दोगुना हो जाता है. रजनी के लिए योग्य वर ढूंढ़ना बड़ा कठिन काम है. हम अकेले क्या कर लेंगे? आप भी ध्यान रखिएगा.’

बारबार मां के यही कहते रहने से उन की मुंहबोली बहन सुलभा अपने रिश्ते के एक लड़के का प्रस्ताव रजनी के लिए लाई लेकिन लड़के का फोटो देखते ही मां सुलभा पर बरस पड़ीं, ‘अरी सुलभा, तेरी आंखों को क्या हो गया है जो मेरी बेटी के लिए काना दूल्हा ढूंढ़ कर लाई है.’

‘काना? यह तू क्या कह रही है, कमला. लड़के की एक आंख दूसरी से थोड़ी छोटी है तो क्या वह काना हो गया,’ सुलभा मौसी भी चिढ़ गईं.

‘और नहीं तो क्या…एक छोटी, दूसरी बड़ी, काना नहीं तो और क्या कहूं?’ मां हाथ नचाती बोलीं, ‘मेरी बेटी में कोई खोट नहीं, फिर मैं क्यों ब्याहने लगी इस से…’ मां का क्रोध दोगुना हो गया था.

उस दिन मां ने सुलभा मौसी से हमेशा के लिए रिश्ता तोड़ दिया. इस घटना के बाद मां रिश्तेदारों में इस बात को ले कर मशहूर होती गईं कि उन्हें अपनी बेटी की सुंदरता पर बड़ा घमंड है, इसीलिए बेटी के लिए जो भी रिश्ता आता है, बस लड़के के दोष ही ढूंढ़ कर निकालती रहती हैं. मां का तनाव बढ़ रहा था पर रजनी और पिताजी मां की पीड़ा से अनभिज्ञ थे. रजनी जल्दी से जल्दी एम.ए. कर लेना चाहती थी. उसे स्वयं भी इस बात का डर था कि अगर मां को कोई अच्छा लड़का मिल जाएगा तो उस की पढ़ाई पूरी न हो पाएगी.

आखिर रजनी की एम.ए. की पढ़ाई भी हो गई पर मां अपनी तलाश में असफल ही रहीं. रजनी नौकरी करना चाहती थी तो पिताजी ने चुपके से उसे इजाजत भी दे दी. उस ने आवेदनपत्र भेजने शुरू कर दिए. इस बीच उस के लिए रिश्ते भी आते रहे. अब तो उस की सुंदरता के साथसाथ पढ़ाई को भी ध्यान में रखा जाने लगा, जिस से मां की परेशानी और बढ़ गई.

जब रजनी के लिए कानपुर के एक कालेज से व्याख्याता पद के लिए नियुक्तिपत्र आया तो मां और पिताजी के बीच जम कर झगड़ा हुआ और अंत में मां का निर्णयात्मक स्वर उभरा, ‘रजनी नहीं जाएगी.’

‘क्यों नहीं?’ मां के निर्णय का खंडन करते हुए पिताजी का प्रश्न सुनाई दिया.

‘बेकार सवाल मत कीजिए. मैं अपनी खूबसूरत और जवान बेटी को अकेली दूसरे शहर जा कर नौकरी करने की इजाजत नहीं दे सकती और अगर इसे नौकरी करनी ही है तो यहीं शहर में करे.’

‘कमला, समझने की कोशिश करो. रजनी अब छोटी बच्ची नहीं रही…और फिर अच्छी नौकरी बारबार नहीं मिलती. तुम यह न समझना कि मैं उस का पक्ष ले रहा हूं. वह अपना फैसला खुद कर चुकी है और हमें उस के निर्णय में दखलंदाजी का हक नहीं है,’ पिताजी ने मां को समझाते हुए कहा.

‘क्यों नहीं है हक? क्या हम उस के कोई…’ अब मां का स्वर भीग गया था.

रजनी का दिल भर आया. मां उस की दुश्मन नहीं थीं पर रजनी भी हाथ आया मौका खोना नहीं चाहती थी. धीरे से उस ने मां के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘मां, मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूं. मुझे मत रोको.’

रजनी के हाथों को अपने कंधों से झटकते हुए मां पिताजी पर ही बरस पड़ीं,  ‘देख लीजिएगा, आप की लाड़ली हमारी नाक कटवा कर ही मानेगी. दूसरे शहर में कोई रोकटोक न रहेगी. अपनी मनमानी करती फिरेगी. घर की इज्जत मिट्टी में मिल गई तो सिर पीटने से कोई फायदा नहीं होगा.’

मां अनापशनाप कहे जा रही थीं और पिताजी सिर थामे सोफे पर चुप बैठे थे. रजनी उन्हें अकेला छोड़ कर कमरे से निकल गई थी.

मां की लाख कोशिशों के बावजूद पिताजी ने एक बार भी रजनी को जाने से मना नहीं किया. नए शहर, नए माहौल और एक नई व्यस्तता भरी जिंदगी में वह अपनेआप को ढालने का प्रयास करने लगी. देखने में रजनी स्वयं एक छात्रा सी लगती थी. अपने से ऊंचे कद के लड़कों को पढ़ाते समय प्राय: वह घबरा सी जाती थी. लड़के उस के इसी शांत और डरेडरे से स्वभाव का फायदा उठा कर उसे छेड़ बैठते और तब बेबस रजनी का मन होता कि नौकरी ही छोड़ दे. कभीकभी तो वह अपनेआप को बेहद अकेली महसूस करती. कालेज के अन्य प्राध्यापकों से वह वैसे भी घुलमिल नहीं पा रही थी. बस, अपने काम से ही मतलब रखती थी.

एक दिन कुछ शरारती छात्रों ने कालेज से लौट रही रजनी को रास्ते में रोक लिया. हलकी सी बूंदाबांदी भी हो रही थी और लग रहा था कि कुछ ही मिनटों में जोरों की बारिश शुरू हो जाएगी. ऐसे में अपनेआप को इन लड़कों से घिरा पा कर उसे कंपकंपी छूटने लगी.

‘मैडम, आज आप ने जो कुछ पढ़ाया, वह हमारी समझ में नहीं आया. कृपया जरा समझा दीजिए,’ एक छात्र ने उस के समीप आ कर कहा.

‘क्यों, कक्षा में क्या करते रहते हैं आप लोग?’ चेहरे पर क्रोध भरा तनाव लाने का असफल प्रयास करते हुए रजनी ने पूछा.

‘दरअसल मैडम, हम कोशिश तो करते हैं कि पढ़ाई में ध्यान दें, पर आप हैं ही इतनी सुंदर कि पढ़ाई भूल कर बस आप को ही देखे चले जाते हैं…’ दूसरे छात्र ने कहा और जैसे ही उस ने अपना हाथ रजनी के चेहरे की ओर बढ़ाया, एक मजबूत हाथ ने उसे रोक लिया. प्रोफेसर केशव को पास पा कर रजनी को तसल्ली हुई.

‘कल सवेरे आप सब प्रिंसिपल साहब के कक्ष में मुझ से मिलिएगा. अब फूटिए यहां से…’ प्रोफेसर केशव के धीमे किंतु आदेशात्मक स्वर से सभी छात्र वहां से खिसक गए. रजनी चुपचाप केशव के साथ चल पड़ी. वैसे रजनी कई बार उन से मिल चुकी थी, पर ज्यादा बातचीत कभी नहीं हुई थी.

‘कहां रहती हैं आप?’ केशव ने चलतेचलते पूछा.

‘होस्टल में,’ रजनी ने धीमे से कहा.

‘पहले कहां थीं?’

‘जयपुर में.’

फिर दोनों के बीच एक गहरी चुप्पी छा गई. वे चुपचाप चल रहे थे कि केशव ने कहा, ‘आप में अभी तक आत्म- विश्वास नहीं आया है. आप पढ़ाते समय इतना ज्यादा घबराती हैं कि छात्रछात्राओं पर गहरा प्रभाव नहीं छोड़ पातीं.’

‘जी, मैं जानती हूं, पर यह मेरा पहला अवसर है.’

‘कोई बात नहीं,’ प्रोफेसर केशव मुसकरा दिए थे, ‘पर अब यह कोशिश कीजिएगा कि आत्मविश्वास हमेशा बना रहे. वैसे उन छात्रों से मैं निबट लूंगा. अब वे आप को कभी परेशान नहीं करेंगे.’

रजनी ने एक बार सिर उठा कर उन्हें देखा था. आकर्षक व्यक्तित्व वाले केशव के सांवले चेहरे का सब से बड़ा आकर्षण था उन की लंबी नाक. रजनी प्रभावित हुए बिना न रह सकी.

उस रात रजनी ढंग से सो भी न सकी. लड़कों की शरारत और केशव की शराफत का खयाल दिमाग में ऐसे कुलबुलाता रहा कि वह रात भर करवटें ही बदलती रही. उसे लगा कि वह केशव की मदद को आजीवन भूल न सकेगी.

दूसरे दिन रजनी केशव से मिली तो केशव के चेहरे पर उस घटना की याद का जैसे कोई चिह्न ही नहीं था. रजनी के नमस्कार का जवाब दे कर वे आगे बढ़ गए थे. धीरेधीरे रजनी का केशव के प्रति आकर्षण बढ़ता चला गया. केशव ने कभी भी यह जताने की कोशिश नहीं की थी कि रजनी की मदद कर के उन्होंने कोई एहसान किया हो.

रजनी जब भी केशव को देखती, अपलक उन्हें देखती रह जाती. उसे इस प्रकार अपनी ओर देखते हुए पा कर केशव धीरे से मुसकरा देते और यही मुसकराहट एक तीर सी रजनी के हृदय को भेद जाती. धीरेधीरे रजनी का यह आकर्षण प्रेम बन कर फूटने लगा तो उस ने निर्णय लिया कि वह केशव के सामने विवाह का प्रस्ताव रखेगी.

एक दिन रजनी ने प्रोफेसर केशव को दोपहर के खाने का आमंत्रण दे दिया. होटल में रजनी केशव के सामने यही सोच कर झेंपी सी बैठी रही कि वह इस बात को कहेगी कैसे. सोचतेसोचते वह परेशान सी हो गई.

‘क्या बात है, रजनी?’ केशव ने बातचीत में पहल की, ‘तुम खामोश क्यों हो?’

रजनी चुप रही.

‘कुछ कहना चाहती हो?’

‘हां…’

‘क्या बात है? क्या फिर किसी ने परेशान किया?’ केशव ने शरारत और आत्मीयता से भरा प्रश्न किया तो रजनी की आंखों से आंसू बहने लगे. प्रेम की विवशता और शर्म की खाई के बीच सिर्फ आंसुओं का ही सहारा था, जो शायद उस के प्रेम की गहराई को स्पष्ट कर पाते. वह धीरे से बोली, ‘मैं आप से प्रेम करती हूं और शादी भी करना चाहती हूं.’

‘शादीब्याह में इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं,’ केशव ने कहा तो सुन कर रजनी चौंक गई. क्या केशव उस के प्यार को ठुकरा रहा है?

‘तुम मेरे बारे में कुछ भी नहीं जानतीं,’ केशव ने आगे कहा, ‘पहले जान लो, फिर निर्णय लेना.

‘शादी के बाद शायद मैं तुम पर बोझ बन जाऊं,’ कहते हुए केशव ने अपनी पैंट को घुटने तक खींच लिया. उस का घुटने से नीचे नकली पैर लगा था.

देखते ही रजनी की चीख निकल गई. वह धीरे से बोली, ‘यह कैसे हुआ?’

‘सड़क दुर्घटना से…’

रजनी की आंखों से अश्रुधारा बह चली थी. उस के निर्णय में एकाएक परिवर्तन आया. पल भर में ही उस ने सोच लिया कि वह शादी के बाद ही मां और पिताजी को सूचना देगी. वह जानती थी कि मां एक अपाहिज को अपने दामाद के रूप में कभी भी स्वीकार नहीं कर पाएंगी. एक सादे से समारोह में रजनी ने केशव से विवाह कर लिया.

मां को पत्र लिखने के कुछ ही दिन बाद उन का जवाब आ गया. पर रजनी लिफाफा खोल न सकी. वह सोचने लगी कि मां का दिल अवश्य ही टूटा होगा और पत्र भी उन्होंने उसे कोसते हुए ही लिखा होगा. रजनी को हमेशा पिताजी का खयाल आता था. मां इस घटना के लिए पिताजी को ही जिम्मेदार ठहराती होंगी. पिताजी को भी शायद अब पछतावा ही होता होगा कि रजनी को यहां क्यों भेजा.

अभी वह यह सब सोच ही रही थी कि नौकरानी की आवाज सुनाई दी तो वह अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गई.

‘‘मालकिन, आप की माताजी आई हैं.’’

‘‘मां?’’ रजनी चौंक गई, ‘‘कब आईं?’’

‘‘अभी कुछ देर पहले. नहा रही हैं.’’

रजनी के मन में कई तरह के विचार आने लगे. मां के आने से उस का मन शंकित हो उठा. न जाने वे क्या सोच कर आई हैं और केशव के साथ कैसा व्यवहार करेंगी? अचानक उसे लिफाफे का खयाल आया. दौड़ते हुए गई और तकिए के नीचे दबे लिफाफे को खोल कर पढ़ने लगी :

‘बेटी रजनी,

नहीं जानती कि अगर तू ने शादी के पहले मुझे यह बताया होता कि केशव अपाहिज है तो मैं क्या निर्णय लेती, पर बाद में पता चला तो थोड़ी सी पीड़ा सिर्फ यह सोच कर हुई कि अपने हाथों से तुझे दुलहन न बना सकी.

धीरेधीरे मैं यह महसूस करने लगी हूं कि तू ने गलत निर्णय नहीं लिया है बल्कि अपने इस निर्णय से यह साबित कर दिया है कि तू अपनी मां की तरह शारीरिक सुंदरता को महत्त्व देने वाली नहीं, वरन हृदय की सुंदरता को पहचानने वाली पारखी है. तेरे निर्णय पर मुझे नाज है. मैं तुझ से मिलने आ रही हूं.

तुम्हारी मां.’

रजनी को लगा कि मारे खुशी के वह पागल हो जाएगी. उसी तरह लिफाफे को तकिए के नीचे रख कर वह जोर से स्नानघर का दरवाजा पीटने लगी, ‘‘जल्दी आओ न मां, तुम्हें देखने को आंखें तरस गई हैं.’’

‘‘इतनी बड़ी हो गई है, पर अभी बचपना नहीं गया,’’ मां का बुदबुदाता सा स्वर सुनाई दिया.

रजनी को लगा कि मां जल्दीजल्दी से शरीर पर पानी डालने लगी हैं.

तुम प्रेमी क्यों नहीं : क्या खरी उतरी नीरू

शेखर के लिए मन लगा कर चाय बनाई थी, पर बाहर जाने की हड़बड़ी दिखाते हुए एकदम झपट कर उस ने प्याला उठा लिया और एक ही घूंट में पी गया. घर से बाहर जाते वक्त लड़ा भी तो नहीं जाता. वह तो दिनभर बाहर रहेगा और मैं पछताती रहूंगी. ऐसे समय में उसे घूरने के सिवा कुछ कर ही नहीं पाती.

मैं सोचती, ‘कितना अजीब है यह शेखर भी. किसी मशीन की तरह नीरस और बेजान. उस के होंठों पर कहकहे देखने के लिए तो आदमी तरस ही जाए. उस का हर काम बटन दबाने की तरह होता है.’ कई बार तो मारे गुस्से के आंखें भर आतीं. कभीकभी तो सिसक भी पड़ती, पर कहती उस से कुछ भी नहीं.

शादी को अभी 3 साल ही तो गुजरे थे. एक गुड्डी हो गई थी. सुंदर तो मैं पहले ही थी. हां, कुछ दुबली सी थी. मां बनने के बाद वह कसर भी पूरी सी हो गई. आईने में जब भी अपने को देखती हूं तो सोचती हूं कि शेखर अंदर से अवश्य मुरदा है, वरना मुझे देख कर जरा सी भी प्रशंसा न करे, असंभव है. कालिज में तो मेरे लिए नारा ही था, ‘एक अनार सौ बीमार.’

दूसरी ओर पड़ोस में ही किशोर बाबू की लड़की थी नीरू. बस, सामान्य सी कदकाठी की थी. सुंदरता के किसी भी मापदंड पर खरी नहीं उतरती थी. परंतु वह जिस से प्यार करती थी वह उस की एकएक अदा पर ऐसी तारीफों के पुल बांधता कि वह आत्मविभोर हो जाती. दिनरात नीरू के होंठों पर मुसकान थिरकती रहती. कभीकभी उस की बहनें ही उस से जल उठतीं.

नीरू मुझ से कहती, ‘‘क्या करूं, दीदी. वह मुझ से खूब प्यार भरी बातें करता है. हर समय मेरी प्रशंसा करता रहता है. मैं मुसकराऊं कैसे नहीं. कल मैं उस के लिए गाजर का हलवा बना कर ले गई तो उस ने इतनी तारीफ की कि मेरी सारी मेहनत सफल हो गई.’’

वास्तव में नीरू की बात गलत न थी. अब कोई मेहनत कर के आग की आंच में पसीनेपसीने हो कर खाना बनाए और खाने वाला ऐसे खाए जैसे कोई गुनाह कर रहा हो तब बनाने वाले पर क्या गुजरती है, यह कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है.

जाने शेखर ही ऐसा क्यों है. कभीकभी सोचती हूं, उस की अपनी परेशानियां होंगी, जिन में वह उलझा रहता होगा. दफ्तर की ही क्या कम भागदौड़ है. बिक्री अधिकारी है. आज यहां है तो कल वहां है. आज इस समस्या से उलझ रहा है तो कल किसी दूसरी परेशानी में फंसा है. परंतु फिर यह तर्क भी बेकार लगता है. सोचती हूं, ‘एक शेखर ही तो बिक्री अधिकारी नहीं है, हजारों होंगे. क्या सभी अपनी पत्नियों से ऐसा ही व्यवहार करते होंगे?’

वैसे आर्थिक रूप से शेखर बहुत सुरक्षित है. उस का वेतन हमारी गृहस्थी के लिए बहुत अधिक ही है. वह एक भरेपूरे घर का ऐसा मालिक भी नहीं है कि रोज नईनई उलझनों से पाला पड़े. परिवार में पतिपत्नी के अलावा एक गुड्डी ही तो है. सबकुछ तो है शेखर के पास. बस, केवल नहीं हैं तो उस के होंठों में शब्द और एक प्रेमी अथवा पति का उदार मन. इस के साथ नीरू तो दो पल भी न रहे.

मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी शेखर ने मुंह पर मेरे व्यवहार या सुंदरता की तारीफ की हो. मुझ पर कभी मुग्ध हो कर स्वयं को सराहा हो.

अब उस दिन की ही बात लो. नीरू ने गहरे पीले रंग की साड़ी पहन ली थी, जोकि उस के काले रंग पर बिलकुल ही बेमेल लग रही थी. परंतु रवि जाने किस मिट्टी का बना था कि वह नीरू की प्रशंसा में शेर पर शेर सुनाता रहा.

नीरू को तो जैसे खुशी के पंख लग गए थे. वह आते ही मेरी गोद में गिर पड़ी थी. मैं ने घबरा कर पूछा, ‘‘क्या हुआ नीरू, कोई बात हुई?’’

‘‘बात क्या होगी,’’ नीरू ने मेरी बांह में चिकोटी काट कर कहा, ‘‘आज क्या मैं सच में पीली साड़ी में कहर बरपा रही थी. कहो तो.’’

मैं क्या उत्तर देती. पीली साड़ी में वह कुछ खास अच्छी न लग रही थी, पर उसे खुश करने की गरज से कहा, ‘‘हां, सचमुच तुम आज बहुत सुंदर लग रही हो.’’

‘‘बिलकुल ठीक,’’ नीरू चहक उठी, ‘‘रवि भी ऐसा ही कहता था. बस, वह मुझे देखते ही कवि बन जाता है.’’

मुझे याद है, एक बार पायल पहनने का फैशन चल पड़ा था. ऐसे में मुझे भी शौक चढ़ा कि मैं भी पायल पहन लूं. मेरे पैर पायलों में बंध कर निहायत सुंदर हो उठे थे. जिस ने भी उन दिनों मेरे पैर देखे, बहुत तारीफ की. पर चाहे मैं पैर पटक कर चलूं या साड़ी उठा कर चलूं, पायलों का सुंदर जोड़ा चमकचमक कर भी शेखर को अपनी ओर न खींच पाया था. एक दिन तो मैं ने खीझ कर कहा, ‘‘कमाल है, पूरी कालोनी में मेरी पायलों की चर्चा हो रही है, पर तुम्हें ये अभी तक दिखाई ही नहीं दीं.’’?

‘‘ऐं,’’ शेखर ने चौंक कर कहा, ‘‘यह वही पायलों का सेट है न, जो पिछले महीने खरीदा था. बिलकुल चांदी की लग रही हैं.’’

अब कैसे कहती कि चांदी या पायलों को नहीं, शेखर साहब, मेरे पैरों के बारे में कुछ कहिए. असल बात तो पैरों की तारीफ की है, पर कह न पाई थी.

यह भी तो तभी की बात है. नीरू ने भी मेरी पसंद की पायलें खरीदी थीं. उन्हें पहन कर वह रवि के पास गई थी. बस, जरा सी ही तो उन की झंकार होती थी, मगर बड़ी दूर से ही वे रवि के कानों में बजने लगी थीं. रवि ने मुग्ध भाव से उस के पैरों की ओर देखते हुए कहा था, ‘‘तुम्हारे पैर कितने सुंदर हैं, नीरू.’’

कितनी छोटीछोटी बातों की समझ थी रवि में. सुनसुन कर अचरज होता था. अगर नीरू ने उस से शादी कर ली तो दोनों की जिंदगी कितनी प्रेममय हो जाएगी.

मैं नीरू को सलाह देती, ‘‘नीरू, रवि से शादी क्यों नहीं कर लेती?’’

पर नीरू को मेरी यह सलाह नहीं भाती. मुसकरा कर कहती, ‘‘रवि अभी प्रेमी ही बना रहना चाहता है, जब तक कि उस के मन की कविता खत्म न हो जाए.’’

‘‘कविता?’’ मैं चौंक कर रह जाती. रवि का मन कविता से भरा है, तभी उस से इतनी तारीफ हो पाती है. कितना आकुल रहता है वह नीरू के लिए. शेखर के मन में कविता ही नहीं बची है, वह तो पत्थर है, एकदम पत्थर. सामान्य दिनों को अगर मैं नजरअंदाज भी कर दूं तो भी बीमारी आदि होने पर तो उसे मेरा खयाल करना ही चाहिए. इधर बीमार पड़ी, उधर डाक्टर को फोन कर दिया. फिर दवाइयां आईं और मैं दूसरे दिन से ही फिर रसोई के कामों में जुट गई.

मुझे याद है, एक बार मैं फ्लू की चपेट में आ गई थी. शेखर ने बिना देर किए दवा मंगा दी थी, पर मैं जानबूझ कर अपने को बीमार दिखा कर बिस्तर पर ही पड़ी रही थी. शेखर ने तुरंत मायके से मेरी छोटी बहन सुलू को बुला लिया था. मैं चाहती थी कि शेखर नीरू के रवि की तरह ही मेरी तीमारदारी करे, मेरे स्वास्थ्य के बारे में बारबार पूछे, मनाए, हंसाए, मगर ऐसा कुछ न हुआ. बीमारी आई और भाग गई.

इतना ही नहीं, शेखर स्वयं बीमार पड़ता तो इस बात की मुझ से कभी अपेक्षा नहीं करता कि मैं उस की सेवाटहल में लगी रहूं. मैं जानबूझ कर उस के पास बैठ भी जाऊं तो मुझे जबरन उठा कर किसी काम में लगवा देता या अपने दफ्तरी हिसाब के जोड़तोड़ में लग जाता. ऐसी स्थिति में मैं गुस्से से उबल पड़ती. अगर कभी रवि बीमार होता तो उस की डाक्टर सिर्फ नीरू होती.

‘‘मैं रवि को पा कर कभी निराश नहीं होऊंगी, दीदी,’’ नीरू अकसर कहती, ‘‘उसे हमेशा मेरी चिंता सताती रहती है. मैं अगर चाहूं तो भी लापरवाह नहीं हो सकती. पहले ही वह टोक देगा. कभीकभी उस की याददाश्त पर मैं दंग हो जाती हूं. लगता है, जैसे वह डायरी या कैलेंडर हो.’’

याददाश्त के मामले में भी शेखर बिलकुल कोरा है. अगर कहीं जाने का कार्यक्रम बने तो वह अधिकतर भूल ही जाता है. सोचती हूं कि किसी दिन वह कहीं मुझे ही न भूल जाए.

एक दिन मैं ने शादी वाली साड़ी पहनी थी. शेखर ने देखा और एक हलकी सी मिठास से वह घुल भी गया, पर वह बात नहीं आई जो नीरू के रवि में पैदा होती. मुझे इतना गुस्सा आया कि मुंह फुला कर बैठ गई. घंटों उस से कुछ न बोली. शेखर को किसी भी चीज की जरूरत पड़ी तो गुड्डी के हाथों भिजवा दी. शेखर ने रूठ कर कहा, ‘‘अगर गुड्डी न होती तो आप हमें ये चीजें किस तरह से देतीं?’’

‘‘डाक से भेज देती,’’ मैं ने ताव खा कर कहा. शेखर हंसने लगा, ‘‘इतनी सी बात पर इतना गुस्सा. हमें पता होता कि बीवियों की हर बात की प्रशंसा करनी पड़ती है तो शादी से पहले हम कुछ ऐसीवैसी किताबें जरूर पढ़ लेते.’’

मैं ने भन्ना कर शेखर को देखा और बिलकुल रोनेरोने को हो आई, ‘‘प्रेमी होना हर किसी के बस की बात नहीं होती. तुम कभी प्रेमी न बन पाओगे. रवि को तो तुम ने देखा होगा?’’

‘‘कौन रवि?’’ शेखर चौंका, ‘‘कहीं वह नीरू का प्रेमी तो नहीं?’’

‘‘जी हां, वही,’’ मैं ने नमकमिर्च लगाते हुए कहा, ‘‘नीरू की एकएक बात की तारीफ हजार शब्दों में करता है. तुम्हारी तरह हर समय चुप्पी साधे नहीं रहता. बातचीत में भी इतनी कंजूसी अच्छी नहीं होती.’’

‘‘अरे, तो मैं क्या करूं. बिना प्रेम का पाठ पढ़े ही ब्याह के खूंटे से बांध दिए गए. वैसे एक बात है, प्रेमी बनना बड़ा आसान काम है समझीं, मगर पति बनना बहुत मुश्किल है.

‘‘जाने कितनी योग्यताएं चाहिए पति बनने के लिए. पहले तो उत्तम वेतन वाली नौकरी जिस से लड़की का गुजारा भलीभांति हो सके. सिर पर अपनी छत है या नहीं, घर कैसा है, उस के घर के लोग कैसे हैं, घर में कितने लोग हैं. लड़के में कोई बुराई तो नहीं, उस के अच्छे चालचलन के लिए पासपड़ोसियों का प्रमाणपत्र आदि चाहिए और जब पूरी तरह पति बन जाओ तो अपनी सुंदर पत्नी की बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न करो. अपनेआप को ही लो. तुम्हें सोना, सजनासंवरना, गपें मारना, फिल्में देखना आदि यही सब तो आता था. नकचढ़ी भी कितनी थीं तुम. हमारे घर की सीमित सुविधाओं में तुम्हारा दम घुटता था.’’

अब शेखर बिलकुल गंभीर हो गया था, ‘‘तुम जानती ही हो कैसे मैं ने धीरेधीरे तुम्हें बिलकुल बदल दिया. व्यर्थ गपें मारना, फिल्में देखना सब तुम ने बंद कर दिया. फिर तुम ने मुझे भी तो बदला है,’’ शेखर ने रुक कर पूछा, ‘‘अब कहो, तुम्हें शेखर की भूमिका पसंद है या रवि की?’’

‘‘रवि की,’’ मैं दृढ़ता से बोली, ‘‘प्रेम ही जिंदगी है, यह तुम क्यों भूल जाते हो?’’

‘‘क्यों, मैं क्या तुम से प्रेम नहीं करता. हर तरह से तुम्हारा खयाल रखता हूं. जो बना कर देती हो, खा लेता हूं. दफ्तर से छुट्टी मिलते ही फालतू गपशप में उलझने के बजाय सीधा घर आता हूं. तुम्हें जरा सी छींक भी आए तो फौरन डाक्टर हाजिर कर देता हूं. क्या यह प्रेम नहीं है?’’

‘‘यह प्रेम है या कद्दू की सब्जी?’’ मैं बिलकुल झल्ला गई, ‘‘तुम्हें प्रेम करना रवि से सीखना पड़ेगा. दिनरात नीरू से जाने क्याक्या बातें करता रहता है. उस की तो बातें ही खत्म नहीं होतीं. नीरू कुछ भी ओढ़ेपहने, खाएपकाए रवि उस की प्रशंसा करते नहीं थकता. नीरू तो उसे पा कर किसी और चीज की तमन्ना ही नहीं रखती.’’

‘‘अच्छा तो यह बात है. तब तुम ने नीरू से कभी यह क्यों नहीं कहा कि वह रवि से शादी कर ले.’’

‘‘कहा तो है…’’

‘‘फिर वह विवाह उस से क्यों नहीं करता?’’

‘‘रवि का कहना है कि जब तक उस के अंदर की कविता शेष न हो जाए तब तक वह विवाह नहीं करना चाहता. विवाह से प्रेम खत्म हो जाता है.’’

‘‘सब बकवास है,’’ शेखर उत्तेजित हो कर बोला, ‘‘आदमी की कविता भी कभी मरती है? जिस व्यक्ति ने सभ्यता को विनाशकारी अणुबम दिया, उस के अंदर की भी कविता खत्म नहीं हुई थी. ऐसा होता तो वह कभी अपने अपराधबोध के कारण आत्महत्या नहीं करता, समझीं. असल में रवि कभी भी नीरू से शादी नहीं करेगा. यह सब उस का एक खेल है, धोखा है.’’

‘‘क्यों?’’ मैं ने घबरा कर पूछा.

‘‘असल में बात तो प्रेमी और पति बनने के अंतर की है, यह रवि का चौथा प्रेम है. इस से पहले भी उस ने 3 लड़कियों से प्रेम किया था.

‘‘जब पति बनने का अवसर आया, वह भाग निकला. प्रेमी बनना बड़ा आसान है. कुछ हुस्नइश्क के शेर रट लो. कुछ विशेष आदतें पाल लो…और सब से बड़ी बात अपने सामने बैठी महिला की जी भर कर तारीफ करो. बस, आप सफल प्रेमी बन गए.

‘‘जब भी शादी की बात आएगी, देखना कैसे दुम दबा कर भाग निकलेगा.

‘‘तुम देखती चलो, आगेआगे होता है क्या? अब भी तुम्हें शिकायत है कि मैं रवि जैसा प्रेमी क्यों नहीं हूं? और अगर है तो ठीक है, कल से मैं भी कवितागजल की पुस्तकें ला कर तैयारी करूंगा. कल से मेरी नौकरी बंद. गुड्डी की देखभाल बंद, तुम्हारे शिकवेशिकायतें सुनना बंद, बाजारघर का काम बंद. बस, दिनरात तुम्हारे हुस्न की तारीफ करता रहूंगा.’’

शेखर के भोलेपन पर मेरी हंसी छूट गई. अब मैं कहती भी क्या क्योंकि यथार्थ की जमीन पर आ कर मेरे पैर जो टिक गए थे.

झांसी की रानी : जब मां ने दिखाई अपनी ताकत

‘‘पापा, आप हमेशा झांसी की रानी की तसवीर के साथ दादी का फोटो क्यों रखते हैं?’’ नवेली ने अपने पापा सुप्रतीक से पूछा था.

‘‘तुम्हारी दादी ने भी झांसी की रानी की तरह अपने हकों के लिए तलवार उठाई थी, इसलिए…’’ सुप्रतीक ने कहा.

सुप्रतीक का ध्यान मां के फोटो पर ही रहा. चौड़ा सूना माथा, होंठों पर मुसकराहट और भरी हुई पनियल आंखें. मां की आंखों को उस ने हमेशा ऐसे ही डबडबाई हुई ही देखा था. ताउम्र, जो होंठों की मुसकान से हमेशा बेमेल लगती थी.

एक बार सुप्रतीक ने देखा था मां की चमकती हुई काजल भरी आंखों को, तब वह 10 साल का रहा होगा. उस दिन वह जब स्कूल से लौटा, तो देखा कि मां अपनी नर्स वाली ड्र्रैस की जगह चमकती हुई लाल साड़ी पहने हुए थीं और उन के माथे पर थी लाल गोल बिंदी. मां को निहारने में उस ने ध्यान ही नहीं दिया कि कोईआया हुआ है.

‘सुप्रतीक देखो ये तुम्हारे पापा,’ मां ने कहा था.

‘पापा, मेरे पापा,’ कह कर सुप्रतीक ने उन की ओर देखा था. इतने स्मार्ट, सूटबूट पहने हुए उस के पापा. एक पल को उसे अपने सारे दोस्तों के पापा याद आ गए, जिन्हें देख वह कितना तरसा करता था.

‘मेरे पापा तो उन सब से कहीं ज्यादा स्मार्ट दिख रहे हैं…’ कुछ और सोच पाता कि पापा ने उसे बांहों में भींच लिया.

‘ओह, पापा की खुशबू ऐसी होती है…’

सुप्रतीक ने दीवार पर टंगे मांपापा के फोटो की तरफ देखा, जैसे बिना बिंदी मां का चेहरा कुछ और ही दिखता है, वैसे ही शायद मूंछें उगा कर पापा का चेहरा भी बदल गया है. मां जहां फोटो की तुलना में दुबली लगती थीं, वहीं पापा सेहतमंद दिख रहे थे.

सुप्रतीक देख रहा था मां की चंचलता, चपलता और वह खिलखिलाहट. हमेशा शांत सी रहने वाली मां का यह रूप देख कर वह खुश हो गया था.

कुछ पल को पापा की मौजूदगी भूल कर वह मां को देखने लगा. मां खाना लगाने लगीं. उन्होंने दरी बिछा कर 3 प्लेटें लगाईं.

‘सुधा, बेटे का क्या नाम रखा है?’ पापा ने पूछा था.

‘सुप्रतीक,’ मां ने मुसकराते हुए कहा.

‘यानी अपने नाम ‘सु’ से मिला कर रखा है. मेरे नाम से कुछ नहीं जोड़ा?’ पापा हंसते हुए कह रहे थे.

‘हुं, सुधा और घनश्याम को मिला कर भला क्या नाम बनता?’ सुप्रतीक सोचने लगा.

‘आप यहां होते, तो हम मिल कर नाम सोचते घनश्याम,’ मां ने खाना लगाते हुए कहा था.

‘घनश्याम हा…हा…हा… कितने दिनों के बाद यह नाम सुना. वहां सब मुझे सैम के नाम से जानते हैं. अरे, तुम ने अरवी के पत्ते की सब्जी बनाई है. सालों हो गए हैं बिना खाए,’ पापा ने कहा था.

सुप्रतीक ने देखा कि मां के होंठ ‘सैमसैम’ बुदबुदा रहे थे, मानो वे इस नाम की रिहर्सल कर रही हों.

सुप्रतीक ने अब तक पापा को फोटो में ही देखा था. मां दिखाती थीं. 2-4 पुराने फोटो. वे बतातीं कि उस के पापा विदेश में रहते हैं. लेकिन कभी पापा की चिट्ठी नहीं आई और न ही वे खुद. फोन तो तब होते ही नहीं थे. मां को उस ने हमेशा बहुत मेहनत करते देखा था. एक अस्पताल में वे नर्स थीं, घरबाहर के सभी काम वे ही करती थीं.

जिस दिन मां की रात की ड्यूटी नहीं होती थी, वह देखता कि मां देर रात तक खिड़की के पास खड़ी आसमान को देखती रहती थीं. सुप्रतीक को लगता कि मां शायद रोती भी रहती थीं.

उस दिन खना खाने के बाद देर तक वे तीनों बातें करते रहे थे. सुप्रतीक ने उस पल में मानो जमाने की खुशियां हासिल कर ली थीं. सुबह उठा, तो देखा कि पापा नहीं थे.

‘मां, पापा किधर हैं?’ सुप्रतीक ने हैरानी से पूछा था.

‘तुम्हारे पापा रात में ही होटल चले गए, जहां वे ठहरे हैं.’

मां का चेहरा उतरा हुआ लग रहा था. माथे की लकीरें गहरी दिख रही थीं. आंखों में काजल की जगह फिर पानी था. थोड़ी देर में फिर पापा आ गए, वैसे ही खुशबू से सराबोर और फ्रैश. आते ही उन्होंने सुप्रतीक को सीने से लगा लिया. आज उस ने भी कस कर भींच लिया था उन्हें, कहीं फिर न चले जाएं.

‘पापा, अब आप भी हमारे साथ रहिएगा,’ सुप्रतीक ने कहा था.

‘मैं तुम्हें अपने साथ अमेरिका ले जाऊंगा. हवाईजहाज से. वहीं अच्छे स्कूल में पढ़ाऊंगा. बड़ा आदमी बनाऊंगा…’ पापा बोल रहे थे.

सुप्रतीक उस सुख के बारे में सोचसोच कर खुश हुआ जा रहा था.

‘पर, तुम्हारी मम्मी नहीं जा पाएंगी, वे यहीं रहेंगी. तुम्हारी एक मां वहां पहले से हैं, नैंसी… वे होटल में तुम्हारा इंतजार कर रही हैं,’ पापा को ऐसा बोलते सुन सुप्रतीक जल्दी से हट कर सुधा से सट कर खड़ा हो गया था.

‘मैं कल से ही तुम्हारे आने की वजह समझने की कोशिश कर रही थी. एक पल को मैं सच भी समझने लगी थी कि तुम सुबह के भूले शाम को घर लौटे हो. जब तुम्हारी पत्नी है, तो बच्चे भी होंगे. फिर क्यों मेरे बच्चे को ले जाने की बात कर रहे हो?’ सुधा अब चिल्लाने लगी थी, ‘एक दिन अचानक तुम मुझे छोड़ कर चले गए थे, तब मैं पेट से थी. तुम्हें मालूम था न?

‘एक सुबह अचानक तुम ने मुझ से कहा था कि तुम शाम को अमेरिका जा रहे हो, तुम्हें पढ़ाई करनी है. शादी हुए बमुश्किल कुछ महीने हुए थे. तुम्हारी दहेज की मांग जुटाने में मेरे पिताजी रास्ते पर आ गए थे. लेकिन अमेरिका जाने के बाद तुम ने कभी मुझे चिट्ठी नहीं लिखी.

‘मैं कितना भटकी, कहांकहां नहीं गई कि तुम्हारे बारे में जान सकूं. तुम्हारे परिवार वालों ने मुझे ही गुनाहगार ठहराया. अब क्यों लौटे हो?’ मां अब हांफ रही थीं.

सुप्रतीक ने देखा कि पापा घुटनों के बल बैठ कर सिर झुकाए बोलने लगे थे, ‘सुधा, मैं तुम्हारा गुनाहगार हो सकता हूं. सच बात यह है कि मुझे अमेरिका जाने के लिए बहुत सारे रुपयों की जरूरत थी और इसी की खातिर मैं ने शादी की. तुम मुझे जरा भी पसंद नहीं थीं. उस शादी को मैं ने कभी दिल से स्वीकार ही नहीं किया.

‘बाद में मैं ने नैंसी से शादी की और अब तो मैं वहीं का नागरिक हो गया हूं. लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद हम मांबाप नहीं बन सके. यह तो मेरा ही खून है. मुझे मेरा बेटा दे दो सुधा…’

अचानक काफी बेचैन लगने लगे थे पापा.

‘देख रहा हूं कि तुम इसे क्या सुख दे रही हो… सीधेसीधे मेरा बेटा मेरे हवाले करो, वरना मुझे उंगली टेढ़ी करनी भी आती है.’

सुप्रतीक देख रहा था उन के बदलते तेवर और गुस्से को. वह सुधा से और चिपट गया. तभी उस के पापा पूरी ताकत से उसे सुधा से अलग कर खींचने लगे. उस की पकड़ ढीली पड़ गई और उस के पापा उसे खींच कर घर से बाहर ले जाने लगे कि अचानक मां रसोई वाली बड़ी सी छुरी हाथ में लिए दौड़ती हुई आईं और पागलों की तरह पापा पर वार करने लगीं.

पापा के हाथ से खून की धार निकलने लगी, पर उन्होंने अभी भी सुप्रतीक का हाथ नहीं छोड़ा था.

चीखपुकार सुन कर अड़ोसपड़ोस से लोग जुटने लगे थे. किसी ने इस आदमी को देखा नहीं था. लोग गोलबंद होने लगे, पापा की पकड़ जैसे ही ढीली हुई, सुप्रतीक दौड़ कर सुधा से लिपट गया.

लाल साड़ी में मां वाकई झांसी की रानी ही लग रही थीं. लाललाल आंखें, गुस्से से फुफकारती सी, बिखरे बाल और मुट्ठी में चाकू. सुप्रतीक ने देखा कि सड़क के उस पार रुकी टैक्सी में एक गोरी सी औरत उस के पापा को सहारा देते हुए बिठा रही थी.

‘‘नवेली, तुम्हारी दादी बहुत बहादुर और हिम्मत वाली थीं,’’ सुप्रतीक ने अपनी बेटी से कहा. सुप्रतीक की निगाहें फिर से मां के फोटो पर टिक गई थीं.

आखिरी बाजी: असद अपनी पत्नी की क्यों उपेक्षा करता था

सकीना बानो ने घबरा कर घर के बाहर देखा. दूरदूर तक कोई दिखाई नहीं पड़ रहा था. उस ने दरवाजा बंद कर दिया और लौट कर जोहरा के पास आ गई. जोहरा बिस्तर पर पड़ी प्रसवपीड़ा से तड़प रही थी. कभीकभी उस की कराहटें तीव्र हो जाती थीं. ऐसे में सकीना का कलेजा मुंह को आने लगता. उस से जोहरा की तकलीफ देखी नहीं जा रही थी.

उसे बारबार असद पर क्रोध आ रहा था. वह कह कर गया था कि शाम तक लौट आएगा, लेकिन रात हो आने पर भी उस का कहीं पता नहीं था. घर में असद ने इतने पैसे भी नहीं छोड़े थे कि वह स्वयं ही किसी डाक्टर को बुला लाती. अब तो यह सोचने के सिवा और कोई चारा नहीं था कि जो कुछ होगा उस से निबटना ही पडे़गा.

तभी अचानक लगा कि दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी है. वह तेजी से दरवाजे की ओर बढ़ी. दरवाजा खोला, पर बाहर  कोई नहीं था. उसे अपने ऊपर क्रोध आ गया.

जैसेजैसे अंधेरा बढ़ता जा रहा था, उस के हृदय की धड़कनें भी बढ़ती जा रही थीं. असद के न आने पर उस ने मजबूरन पड़ोस के लड़के शमीम को असद को बुलाने भेजा था.

अब तो शमीम को गए भी 1 घंटा बीत चुका था, लेकिन अभी तक न असद का पता था न शमीम का.

बेचैनी से टहलती वह जोहरा के पास पहुंची और बोली, ‘‘सब्र और हिम्मत से काम ले, बेटी, थोड़ी ही देर में असद आ जाएगा.’’

‘‘अम्मी,’’ जोहरा तड़प उठी, ‘‘मुझे यकीन है, वह आज भी नहीं आएंगे. कहीं जुआ खेलने बैठ गए होंगे.’’

‘‘बहू, ऐसी औलाद या ऐसा खाविंद मिलने पर इनसान अपनेआप को कोसने के अलावा और कर ही क्या सकता है?’’ सकीना की आवाज से दर्द भरी मायूसी साफ झलक रही थी.

ये भी  पढ़ें- औरत पैर की जूती

कुछ ही देर में शमीम आ गया. आते ही बोला, ‘‘भाईजान का तो कहीं पता नहीं चला, वह जहांजहां बैठते थे, सब जगह देख आया.’’

शमीम के आते ही सकीना ने अपनी बेटी नजमा को बुला कर कहा, ‘‘तू अपनी भाभी के पास बैठ. मैं बन्नो दाई को बुला कर लाती हूं,’’ यह कह कर सकीना बुरका ओढ़ कर घर से बाहर निकल गई.

फजर (तड़के) की नमाज के वक्त जोहरा ने एक सुंदर लड़के को जन्म दिया. सकीना प्रसन्नता से खिल उठी, लेकिन जोहरा की आंखें आंसुओं से भरी थीं. वह सोच रही थी, कैसा दुख भरा जीवन है उस का कि उस के पहले बच्चे के जन्म के समय उस का शौहर सब कुछ जानते हुए भी उस के पास नहीं है.

सकीना उस दर्द को समझती थी. इसीलिए उस ने उसे समझाया, ‘‘बहू, रंज मत करो, बुरे वक्त को भी हंस कर गुजार देना चाहिए. तुम्हारे मियां की तो अक्ल ही मारी गई है, फिर कोई क्या कर सकता है. मैं तो उसे समझासमझा कर हार गई. घर में जवान बहन बैठी है, फिर भी उस पर कोई असर नहीं. कहां से करूं बेटी की शादी? मुझे तो रातदिन उस की ही फिक्र खाए जाती है.’’

दूसरे दिन शाम को कहीं जा कर असद ने घर में प्रवेश किया. बच्चा पैदा होने के बावजूद घर में बजाय खुशी के सन्नाटा छाया हुआ था. वैसे वह ऐसे माहौल का आदी हो चुका था. अकसर हर शनिवार को वह गायब हो जाता था और दूसरे दिन शाम को लौट कर आता था.

सकीना ने जब उसे बताया कि वह एक बेटे का बाप बन चुका है तो वह सिर्फ मुसकरा कर रह गया.

जब असद जोहरा के पास पहुंचा तो जोहरा ने उसे देख कर मुंह फेर लिया. असद हलके से मुसकरा दिया और बोला, ‘‘लगता है, मुझ से बहुत नाराज हो. भई, क्या बताऊं, रात एक दोस्त ने रोक लिया. उस के यहां दावत थी. सुबह सो कर उठा तो बोला, दोपहर का खाना खा कर जाना. इसलिए देर हो गई. लाओ, मुन्ने को मुझे दे दो, देखूं तो किस पर गया है.’’

जोहरा ने पटकने वाले अंदाज में बच्चे को असद की ओर बढ़ा दिया. असद ने बच्चे को गोद में लिया तो वह रोने लगा, ‘‘अरे…अरे, रोता है. बिलकुल अपनी अम्मी पर गया है,’’ असद ने हंस कर कहा और बच्चे को जोहरा की ओर बढ़ा दिया. जोहरा ने बच्चे को ले लिया.

असद ने हंस कर जोहरा की ओर देखा और बोला, ‘‘लगता है, आज बेगम साहिबा ने न बोलने की कसम खा रखी है.’’

‘‘पूरी रात तकलीफ से छटपटाती रही पर आप को तो अपने दोस्तों और जुए से ही फुरसत नहीं थी. हार कर अम्मी को ही जा कर दाई को बुला कर लाना पड़ा. आप की बला से, मैं मर भी जाती तो आप को क्या फर्क पड़ता?’’ कह कर जोहरा सिसक पड़ी.

‘‘लेकिन मैं ने जुआ कहां

खेला?’’ असद ने अपनी सफाई पेश करनी चाही, ‘‘मैं तो दोस्तों के साथ दावत में था.’’

‘‘दावत में थे तो वे 500 रुपए कहां हैं जो कल आप मुझ से झूठ बोल कर ले गए थे,’’ जोहरा ने पूछा.

‘‘वे…वे…मैं तो…’’ असद का रंग सफेद पड़ गया. फिर वह तुरंत ही संभल गया और कड़क कर बोला, ‘‘तुम कौन होती हो पूछने वाली?’’

‘‘मैं…’’ जोहरा कुछ कहना ही चाहती थी कि अचानक सकीना ने खांस कर कमरे में प्रवेश किया. सास को देख कर जोहरा चुप हो गई. सकीना जोहरा के निकट आ कर बोली, ‘‘बहू, मुन्ने का अच्छी तरह ध्यान रखना. बाहर बड़ी ठंडी हवा चल रही है. मैं अभी थोड़ी देर में तुम्हारे लिए खाना लाती हूं,’’ फिर एक नजर उस ने असद पर डाली और बोली, ‘‘जाओ, असद, तुम भी खाना खा लो.’’

असद चुपचाप कमरे से निकल गया. जोहरा उदास नजरों से अपने शौहर को जाते देखती रही.

सकीना ने अपने पोते का नाम जफर रखा था. जफर 2 माह का हो गया था. उस ने हाथपैर चलाने के साथसाथ मुंह टेढ़ा करना भी सीख लिया था. उस की इस हरकत से घर के सब लोग हंस पड़ते थे.

असद तो जैसे मुन्ने के लिए दीवाना सा रहता था. दफ्तर से आते ही वह मुन्ने से खेलने लगता. जुआ तो उस ने खेलना बंद नहीं किया था लेकिन उस का रातरात भर गायब रहना अब तकरीबन बंद सा हो गया था.

एक दिन जब असद मुन्ने से खेल रहा था तो जोहरा बोली, ‘‘सुनिए, मुन्ने के लिए बाजार से कुछ कपडे़ ला दीजिए. अभी तक आप ने मुन्ने के लिए कुछ भी नहीं खरीदा. आप को कल ही तनख्वाह मिली है, लेकिन अभी तक आप ने अपनी तनख्वाह अम्मी को भी नहीं दी. अम्मी पूछ रही थीं, कहीं आप तनख्वाह को भी जुए में तो नहीं हार आए?’’ बोलते हुए जोहरा का हृदय जोरों से धड़क रहा था.

‘‘मुझे क्या करना है, क्या नहीं, यह सोचना मेरा काम है. न ही मैं इस बात के लिए पाबंद हूं कि दूसरों के सवालों का जवाब देता फिरूं,’’ असद ने क्रोध भरे स्वर में कहा और मुन्ने को सोफे पर लिटा कर जोहरा को घूर कर देखा.

फिर कुछ क्षण चुप रहने के बाद बोला, ‘‘मैं देख रहा हूं, तुम्हारा दिमाग दिनबदिन खराब होता जा रहा है. तुम मेरे हर काम में दखल देने लगी हो. आखिर तुम्हें क्या हक है मुझ से हिसाबकिताब मांगने का?’’ असद क्रोध से कांपने लगा था.

‘‘मैं आप की बीवी हूं. मुझे यह जानने का पूरा हक है कि आखिर आप ने अम्मी को अपनी तनख्वाह क्यों नहीं दी,’’ जोहरा गुस्से से बिफर कर बोली, ‘‘मैं कोई भगा कर लाई गई औरत नहीं हूं जो आप के जुल्म बरदाश्त करती रहूंगी. मेरा आप के साथ निकाह हुआ है. जितनी जिम्मेदारी आप पर है उतनी ही मुझ पर भी है.’’

‘‘जोहरा, तुम अपनी हद से आगे बढ़ रही हो. तुम भूल रही हो कि मैं तुम्हारा शौहर हूं. शौहर के सामने बात करने की तमीज सीखो.’’

‘‘शौहर को भी तो यह तमीज होनी चाहिए कि वह अपनी बीवी से कैसे पेश आए.’’

‘‘तुम मेरी गैरत को ललकार रही हो, जोहरा,’’ असद आपे से बाहर हो गया था.

‘‘आप में गैरत है कहां?’’ जोहरा तेज स्वर में बोली.

‘‘मैं तुम्हें तलाक दे दूंगा,’’ असद चीखा.

‘‘फिर देते क्यों नहीं तलाक? अपनी इस नापाक जबान से 3 बार तलाक, तलाक, तलाक कहिए और निकाल दीजिए घर से धक्के दे कर. आप मर्दों ने औरत को समझ क्या रखा है, सिर्फ एक खिलौना? जब जी भर गया, उठा कर फेंक दिया. आप की नजरों में औरत का जन्म शायद मर्दों के जुल्म सहने के लिए ही हुआ है.’’

‘‘जोहरा,’’ असद इतनी जोर से चीखा कि उस के गले की नसें तक तन गईं, ‘‘मैं ने तुम्हें तलाक दिया, मैं ने तुम्हें तलाक दिया, मैं ने तुम्हें तलाक दिया.’’

जोहरा अवाक् फटीफटी आंखों से असद को देखती रही. फिर अचानक ही बेहोश हो कर नीचे गिर पड़ी. सकीना और नजमा उस समय घर में नहीं थीं. वे अभीअभी एक रिश्तेदार से मिल कर लौटी थीं. दोनों ने असद के अंतिम शब्द सुन लिए थे.

सकीना ने असद की ओर क्रोध से देखा और बोली, ‘‘असद, यह तू ने बहुत बुरा किया.’’

असद बुत की तरह स्थिर खड़ा था. सकीना ने असद को झंझोड़ा तो उस ने चौंक कर अपनी अम्मी को देखा और तेजी से घर से बाहर निकल गया. सकीना उसे आश्चर्य से जाते देखती रही.

फिर सकीना ने नजमा की मदद से जोहरा को चारपाई पर लिटाया और उसे होश में लाने की कोशिश करने लगी. उधर नजमा रोते हुए मुन्ने को गोद में ले कर उसे बहलाने की कोशिश करने लगी.

शाम को जब असद ने घर में प्रवेश किया तो घर में छाई खामोशी ने उसे अंदर तक कचोट दिया. एक आशंका ने उसे कंपा दिया. कमरे में घुसते ही उस की नजर सोफे पर बैठी अपनी अम्मी पर पड़ी, जो गुमसुम सी कहीं खोई हुई थीं.

असद ने धड़कते हृदय के साथ पूछा, ‘‘जोहरा कहां है, अम्मी?’’

‘‘जोहरा,’’ अचानक ही सकीना ने चौंक कर असद की ओर देखा और बोली, ‘‘अपने मायके चली गई है. मैं ने बहुत रोका, लेकिन वह बोली कि अब उस का इस घर से क्या रिश्ता है? उन्होंने मुझे तलाक दे दिया है. अब उन के पास मेरा रहना हराम होगा.’’

यह सुन कर असद अवाक् रह गया. उस का सिर घूमने लगा. उसे उम्मीद न थी कि वह क्रोध में यह सब कर बैठेगा. उस ने भर्राए स्वर में पूछा, ‘‘अब क्या होगा, अम्मी? मैं जोहरा के बिना नहीं रह सकता. मुझे नहीं मालूम था कि मैं इस जुए के चक्कर में अपने जीवन की सब से बड़ी बाजी हार जाऊंगा.’’

‘‘तुम ने बहुत देर कर दी, बेटे. ऐसी शरीफ और नेक बहू ढूंढे़ से भी नहीं मिलेगी. तुम उस पर जुल्म करते रहे लेकिन उस ने कभी उफ तक न की. मगर आज तो तुम ने वह काम किया जो कोई खूनी इनसान ही कर सकता है. तुम ने औरत की अहमियत को नहीं समझा. उसे पैर की जूती समझ कर निकाल फेंका,’’ सकीना ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘अम्मी, तुम कल ही जा कर जोहरा को बुला लाओ. मैं अपने किए की माफी मांग लूंगा,’’ असद ने उम्मीद के साथ अपनी अम्मी की तरफ देखा.

‘‘अब ऐसा नहीं हो सकता,’’ सकीना बोली, ‘‘हमारा मजहब इस बात की इजाजत नहीं देता. हमारे मजहब ने मर्द को इतनी आसानी से तलाक देने का हक दे कर औरत को इतना कमजोर बना दिया है कि निर्दोष होते हुए भी उस की जरा सी भूल उसे धूल में मिला देती है. हमारे मजहब के मुताबिक इन हालात में ‘हलाला’ होना जरूरी है. अब जोहरा का तुम से दोबारा निकाह तभी हो सकता है जब उस का किसी दूसरे मर्द के साथ निकाह हो और वह मर्द जोहरा को एक रात अपने साथ रख कर तलाक दे दे.’’

‘‘मैं इस के लिए भी तैयार हूं, अम्मी. तुम जोहरा से बात तो करो,’’ असद ने डूबे स्वर में कहा.

‘‘अभी 1-2 महीने रुक जाओ, मैं कोशिश करूंगी,’’ सकीना बोली.

इस के बाद असद कुछ नहीं बोला.  वह गुमसुम सा चारपाई पर जा कर

लेट गया. उस की आंखों के सामने जोहरा की सूरत घूम गई. उस के दफ्तर से आते ही वह उस का कोट उतार कर टांग देती थी. उस के जूतों के तसमे खोल कर जूते उतारती थी. उस के आते ही उसे चाय देती थी. उस के जरा से उदास हो जाने पर स्वयं भी उदास हो जाती थी.

उसे ध्यान आया, एक बार जब वह बीमार पड़ गया था तो जोहरा ने रातदिन जाग कर उस की खिदमत की थी.

जोहरा की खिदमत और मुहब्बत का उस ने कितना अच्छा सिला दिया, उस के जरा से क्रोध पर उसे घर से निकाल दिया. असद का मन आत्मग्लानि से भर उठा.

असद के दिन अब बड़ी खामोशी  से गुजरने लगे थे. दफ्तर से आते ही वह घर में गुमसुम सा पड़ा रहता. कहीं आताजाता भी नहीं था. जुआ तो दूर की बात थी, उस दिन से उस ने ताश के पत्तों को छुआ तक नहीं था.

एक दिन अख्तर ने असद से जुआ खेलने को कहा तो असद ने उस को पीट दिया. उस दिन से असद और अख्तर में अनबन हो गई थी.

जोहरा से उस ने कई बार मिल कर माफी मांगने की कोशिश भी की लेकिन सफल नहीं हो सका. आखिर मजबूर हो कर उस ने अम्मी को जोहरा के मांबाप के पास भेजने का निश्चय किया.

सकीना को जोहरा से मिलने के लिए गए हुए 2 दिन हो चुके थे लेकिन वह अभी तक नहीं लौटी थी, ये 2 दिन असद ने बड़ी मुश्किल से काटे थे.

तीसरे दिन शाम को जब सकीना लौटी तो असद दौड़ादौड़ा अम्मी के पास आया और बोला, ‘‘क्या कहा जोहरा ने, अम्मी?’’

सकीना खामोश रही तो असद का हृदय धड़क उठा. बेचैन हो कर उस ने दोबारा पूछा, ‘‘अम्मी, तुम बतातीं क्यों नहीं?’’

‘‘फिक्र क्यों करता है, बेटे, मैं तेरी दूसरी शादी कर दूंगी,’’ सकीना का स्वर बुझाबुझा सा था, ‘‘अभी कौन सी तेरी उम्र निकल गई? लोग तो बुढ़ापे में शादियां करते हैं.’’

‘‘अम्मी, मैं जो तुम से पूछ रहा हूं, उस का जवाब क्यों नहीं देतीं,’’ असद बोला.

‘‘जोहरा ने इनकार कर दिया, बेटे. वह किसी भी हालत में तुम्हारे साथ रहने को तैयार नहीं है.’’

‘‘अम्मी,’’ असद का स्वर कांप कर रह गया. उस की आंखें शून्य में टिक गईं. जुए की आखिरी बाजी ने उस की सारी प्रसन्नताएं हर ली थीं. असद थकेथके कदमों से चलता अपने कमरे में आ गया. सकीना और नजमा कुछ कहना चाह कर भी कुछ न कह सकीं.   द्य

विजयी मुसकराहट : सूरज की सबसे बड़ी कमी क्या थी

21 साल का सूरज लखनऊ से तकरीबन डेढ़ सौ किलोमीटर दूर कुसुमापुर नामक गांव का रहने वाला था और लखनऊ के डीएवी कालेज से एम कौम की पढ़ाई कर चुका था. अब वह बैंक में नौकरी करना चाहता था, इसलिए तैयारी के लिए उस ने एक कोचिंग सैंटर में दाखिला ले रखा था.

सूरज की सब से बड़ी कमी यह थी कि वह लड़कियों का दीवाना था. सब की नजरें बचा कर वह अपने कोचिंग सैंटर की लड़कियों को आगेपीछे खूब ताड़ता था और मौका मिलने पर उन्हें कुहनी मारने से भी बाज नहीं आता था.

लखनऊ के चिडि़याघर के पास नरही नामक इलाके में सूरज कोचिंग क्लास करने जाता था. आज शाम को जब वह कोचिंग सैंटर से बाहर निकला, तो उस के मोबाइल पर घर से मां का फोन आ गया.

सूरज ने जल्दी से फोन रिसीव किया, तो मां ने खुशखबरी देते हुए बताया, ‘‘तेरे बड़े भाई विजय की शादी तय हो गई है और लड़की वाले जल्द से जल्द शादी करना चाहते हैं, इसलिए तू जल्दी से गांव वापस आ जा, ताकि शादी के कामों में हाथ बंटा सके.’’

अपने बड़े भाई की शादी की बात सुन कर सूरज बड़ा खुश हुआ और कोचिंग सैंटर के सर को अपने घर जाने के बारे में जानकारी दे कर अपने कमरे पर आया और गांव चलने की तैयारी करने लगा.

गांव पहुंच कर अपनी जमात के पुराने यारदोस्तों से मिलते हुए सूरज घर पहुंचा, तो अपने बड़े भाई विजय से गले मिल कर बधाई दी और मां से अपनी होने वाली भाभी के बारे में पूछताछ करने लगा.

मां ने सूरज को बताया, ‘‘हमारे गांव से

30 किलोमीटर की दूरी पर सुजानपुर गांव की लड़की से विजय का ब्याह तय हुआ है,’’ और यह कहते हुए मां ने होने वाली भाभी की तसवीर सूरज के सामने कर दी.

तसवीर देख कर सूरज चौंक सा गया था. उस ने तसवीर अपने हाथ में ले ली और फिर नजरें गड़ा कर देखने लगा.

‘‘अरे, लगता है कि तु   झे होने वाली भाभी बड़ी पसंद आ गई है, जो तेरी नजरें घूरे ही जा रही हैं फोटो को,’’ मां ने कहा.

सूरज की आंखें सोचने वाले अंदाज में सिकुड़ गई थीं और सांसें तेज चलने लगी थीं. उसे याद आ रहा था कि एक बार जब वह अपनी रिश्तेदारी में सुजानपुर गया था, तो वहां पर पड़ोस में शिल्पा नाम की एक लड़की थी, जिस की उम्र तब 13 साल के आसपास की रही होगी और जिसे देख कर सूरज की लार टपकने लगी थी. मौका पा कर सूरज ने उस लड़की का रेप कर दिया था, फिर लड़की के मुंह खोलने पर उसे मार डालने की धमकी भी दे डाली थी.

लड़की कम उम्र की थी. डर और लोकलाज के चलते उस ने कोई होहल्ला भी नहीं किया था और इस घटना के कई साल बीत जाने के बाद वही लड़की उस के अपने घर में ही उस के बड़े भाई की पत्नी बन कर आ रही थी.

यह सब सोच कर पहले तो सूरज थोड़ा घबराया, फिर वह मुसकरा उठा. उस के गंदे दिमाग ने यह सोच लिया था कि अगर रेप करने के बाद भी वह लड़की खामोश रही, तो अब

जब वह भाभी बन कर आएगी, तब तो उसे

कोई खतरा नहीं है, बल्कि मजे ही मजे हैं. जब चाहेगा, भाभी के साथ छेड़छाड़ कर सकेगा और मस्ती मारेगा.

तमाम धूमधाम और खुशियों के बीच विजय की शादी शिल्पा से हो गई और वह महज

19 साल की लड़की को अपनी दुलहन बना कर ले आया था.

इतनी खूबसूरत और कमसिन लड़की पा कर विजय बड़ा खुश था, तभी तो सुहागरात पर गिफ्ट करने के लिए उस ने एक मोबाइल फोन खरीद लिया था, जिसे वह आज रात में ही अपनी नईनवेली पत्नी शिल्पा को गिफ्ट करने वाला था.

सूरज मन ही मन मुसकरा रहा था कि उस का बड़ा भाई जिस के साथ सुहागरात मनाने के लिए इतना खुश है, असल में उस लड़की के रूप का स्वाद तो वह पहले ही चख चुका है.

अभी घर में मेहमान रुके हुए थे, इसलिए सूरज को अपनी भाभी से अकेले में बात करने का मौका नहीं मिल पा रहा था. हालांकि, उस की मंशा यही थी कि वह उस लड़की से एक बार फिर मजा ले सके, जिस का उस ने रेप किया था.

गाहेबगाहे शिल्पा के कमरे की तरफ भी सूरज चक्कर लगाता, पर उसे निराशा ही हाथ लगती, क्योंकि शिल्पा भाभी कभी अकेले नहीं होती.

‘‘अरे, आओ विजय. बाहर से ही क्यों लौटे जा रहे हो?’’ कमरे से अचानक विजय ने पुकारा, तो सूरज को लगा जैसे उस की चोरी पकड़ी गई हो. वह सहज होने का नाटक करते हुए कमरे में घुसा और सामने बैठी शिल्पा पर भरपूर नजर डाली.

‘13 साल की उम्र में कच्ची कली थी, पर अब तो यह खिल कर और भी खूबसूरत हो गई है,’ सूरज मन ही मन सोच रहा था.

शिल्पा उठ कर चाय बनाने चली गई, तो सूरज और विजय आपस में बातें करने लगे.

कुछ दिनों के बाद एक रात जब विजय अपनी पत्नी शिल्पा के साथ बिस्तर पर था, तब शिल्पा ने नाज दिखाते हुए विजय से कहा, ‘‘सुनो, अगर आप नाराज न हों, तो मैं आप से कुछ कहना चाहती हूं.’’

विजय, जो अभी तक शिल्पा की नंगी पीठ को सहला रहा था, रुक गया और उस के होंठों को चूम कर बोला, ‘‘तुम्हारी किसी बात से मैं नाराज क्यों होऊंगा भला? बताओ, क्या कहना चाहती हो?’’ विजय ने कहा.

शिल्पा ने बताया, ‘‘मु   झे सूरज की नजरें कुछ ठीक नहीं लगती हैं. वह मु   झे अकेले में छेड़ने की कोशिश करता है. अगर यकीन न हो, तो मैं सुबूत भी पेश कर सकती हूं.’’

शिल्पा की यह बात सुन कर विजय चौंका तो जरूर, पर कुछ नहीं बोला. उसे अपने भाई पर भरोसा तो था, पर शिल्पा की बात भी उसे सही लग रही थी. शिल्पा ने उसे सुबूत देने का वादा किया.

पिछले 1-2 दिन से शिल्पा जब भी सूरज के पास से गुजरती, तो जानबू   झ कर अपने शरीर को उस के शरीर से छुआ देती, जिस से वह सिहर उठता. कभीकभी तो वह हवस वाली नजरों से उसे घूरती, जिस से सूरज को लगने लगा था कि हो न हो, शिल्पा के मन में अब भी उस के लिए कुछ चाह बाकी है.

‘‘अब और मत तड़पाओ शिल्पा. हमतुम इस देवरभाभी के नाते में बंध गए हैं, तो कम से कम मु   झे वे सालों पहले वाली यादें ताजा तो कर लेने दो,’’ सूरज ने कहा, तो शिल्पा थोड़ी देर चुप रही, पर जब सूरज ने बारबार उस से एक बार अकेले में मिलने की जिद की, तो शिल्पा ने उसे अपने कमरे के बगल वाले कमरे में रात में मिलने के लिए बुला लिया.

रात के इंतजार में सूरज ने किसी तरह तो दिन काटा और जैसे ही रात के साढ़े 11 बजे और सूरज को लगने लगा कि घर के सभी लोग सो गए हैं, तो वह शिल्पा के कमरे के बगल वाले कमरे में पहुंच गया. कमरे की लाइट बिना जलाए उस ने मोबाइल की टौर्च जलाई, तो उस का मन तब रोमांचित हो उठा, जब उस ने देखा कि सामने शिल्पा बैठी हुई है.

जल्दी से सूरज ने शिल्पा को अपनी बांहों में भर लिया, पर अचानक ही शिल्पा के तेवर ही बदल

गए और उस ने एक जोरदार तमाचा सूरज के गाल पर दे मारा.

सूरज कुछ सम   झ पाता, इस से पहले ही शिल्पा ने विजय को फोन कर के वहां बुला लिया. वहां का नजारा देख विजय को माजरा सम   झते देर न लगी. विजय ने भी गुस्से में 2-4 तमाचे सूरज को रसीद कर दिए. शिल्पा ने शोर मचाना शुरू कर दिया. उस के सासससुर भी कमरे में पहुंच गए और पूरा मामला जानना चाहा.

शिल्पा ने रोरो कर और तेज आवाज में बताया कि सूरज उस पर बुरी नजर रखता है और आज जब वह बाथरूम जाने को उठी, तब सूरज उसे जबरदस्ती पकड़ कर इस कमरे में ले आया और उस का रेप करने की कोशिश की.

इतना ही नहीं, शिल्पा ने सूरज पर उस के गहने चोरी करने का इलजाम भी लगा दिया और सुबूत के तौर पर सूरज का बैग चैक करने को कहा.

शिल्पा ये सारी बातें चीखचीख कर कह रही थी, जिस से पड़ोसी भी वहां जमा हो गए थे.

सूरज के बैग से गहने भी बरामद कर लिए गए थे. गांव के किसी जिम्मेदार आदमी ने फोन कर के पुलिस को बुला लिया था. घर वाले तो मामला रफादफा करना चाहते थे, पर शिल्पा के आंसू और दुख देख कर पुलिस ने भी कार्यवाही करनी शुरू कर दी और सूरज को चोरी और रेप करने की कोशिश में गिरफ्तार कर लिया.

सूरज को जेल जाता देख उस के मांबाप तो परेशान थे, पर शिल्पा के चेहरे पर एक मुसकान गहराती जा रही थी.

विजय और शिल्पा अपनी शादीशुदा जिंदगी मजे से जीने लगे थे, पर शिल्पा के सासससुर अपने छोटे बेटे के जेल जाने से दुखी थे. इस दुख को कम करने के लिए वे किसी बाबा की शरण में चले गए थे, पर भला कोई बाबा किसी के दुख को कम कर सकते तो दुनिया में कोई गम ही नहीं बचता.

एक महीने के लिए शिल्पा के सासससुर अपने गुरु के आश्रम में गए हुए थे, जहां वह बाबा जम कर इन लोगों से पैसों की उगाही कर रहा था.

शिल्पा अब अपने घर में आजाद थी. वह खूब सिंगार करती और रात को विजय के साथ बिस्तर पर जम कर रोमांस करती.

शिल्पा ने अपने देवर के खिलाफ जो आवाज उठाई थी, उस से वह आसपड़ोस की लड़कियों की रोल मौडल बन गई थी.

इधर कुछ दिनों से विजय परेशान दिख रहा था. शिल्पा ने वजह पूछी, तो विजय ने बताया, ‘‘मैं अपने छोटे भाई के जेल जाने से दुखी हूं. गलती तो उस ने की है, पर सजा भी तो काफी मिल गई है. तुम कहो तो उसे जमानत दे कर रिहा करा लाऊं?’’

शिल्पा ने विजय का मन रखने के लिए उसे सूरज को छुड़ा लाने की इजाजत दे दी.

विजय खुश हो गया और आननफानन में जरूरी कागजात तैयार करा कर सूरज को रिहा करा लाया.

सूरज अब शिल्पा से न तो बात करता था और न ही आंख मिलाता था, बल्कि वह उस के प्रति बदले की भावना से भरा हुआ था, पर शिल्पा उस की इस मंशा से पूरी तरह सजग थी और वह भी उस से दूरी बना कर ही रखती थी.

सूरज अब लखनऊ वापस जाना चाहता था, पर इस बीच उस की नजरें शिल्पा से मिलने आने वाली 20 साल की लड़की किशोरी से टकरा गईं. किशोरी उसे देख कर मुसकराती और लटके   झटके दिखाती थी.

किशोरी से यों न्योता मिला, तो सूरज के मन को थोड़ा अच्छा लगने लगा और उस ने कुछ और दिन गांव में रहने का फैसला कर लिया.

किशोरी दलित लड़की थी. उस की एक बड़ी बहन ने खुदकुशी कर ली थी, क्योंकि गांव के एक दबंग ठाकुर के बेटे ने उस का रेप किया था.

अपने परिवार पर जुल्म देखने की आदी हो चुकी किशोरी अब गांव छोड़ कर जाना चाहती थी, इसलिए उस के मन में यह बात दबी हुई थी कि उस की शादी किसी शहर के लड़के से ही हो.

किशोरी और सूरज का मिलनाज़ुलना शुरू हो गया था. हालांकि, किशोरी सूरज के जेल जाने की बात अच्छी तरह जानती थी, पर फिर भी सूरज का शहरी स्टाइल उसे सुहाता था और वह सूरज से ब्याह भी करना चाहती थी.

आज सूरज और किशोरी गांव से बाहर एक खेत के एकांत में मिले. सूरज ने किशोरी को अपनी बांहों में भर लिया और उस के सीने के उभारों पर अपने हाथ से दबाव बढ़ाने लगा.

सूरज की इस हरकत पर किशोरी चौंकी और उस ने  सूरज को धक्का दे दिया. सूरज को उस की यह हरकत नागवार गुजरी, पर फिर भी उस ने अपनेआप को शांत रखते हुए इस बरताव की वजह पूछी, तो किशोरी ने अदा दिखाते हुए सूरज से मजाक में उस के और शिल्पा के नाजायज संबंध होने की बात कही.

यह बात सुनते ही सूरज का चेहरा तमतमा गया और वह शिल्पा के लिए गंदीगंदी गालियां निकालने लगा.

एक लड़की के लिए गालियां सुन कर किशोरी को भी बुरा लगा, तो उस ने सूरज से ऐसा करने को मना किया. इस बात पर सूरज और भी तमतमा गया और उस ने 4-5    झापड़ किशोरी के गाल पर रसीद कर दिए.

अभी सूरज किशोरी को और मारता, उस से पहले किशोरी किसी तरह जान बचा कर वहां से भाग खड़ी हुई. अभी वह भागते हुए ही जा रही थी कि उसे घर के बाहर शिल्पा मिल गई.

किशोरी ने शिल्पा से सारा हाल कह सुनाया. इस के बाद शिल्पा ने उसे हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘अब जैसा मैं कहती हूं, वैसा करो.’’

शिल्पा ने किशोरी से पुलिस के पास चल कर सूरज के खिलाफ गवाही देने को कहा, तो किशोरी पुलिस के नाम से डर गई, जिस पर शिल्पा ने उसे सम   झाते हुए कहा, ‘‘जब तक हम लड़कियां और औरतें अपने खिलाफ होने वाली नाइंसाफी को सहती रहेंगी, तब तक ये भेडि़ए हमें नोंचते रहेंगे.’’

इस के बाद शिल्पा ने किशोरी को उस की बहन पर हुए जोरजुल्म के बारे में बताते हुए कहा, ‘‘आज तुम्हारी बहन जिंदा होती, अगर उस का रेप नहीं हुआ होता. हम सब कब तक जुल्म सहेंगे… हो सकता है कि कल तुम्हारे साथ भी रेप हो और तुम भी खुदकुशी कर लो.’’

शिल्पा की ऐसी बातें और तेवर देख किशोरी के अंदर भी हिम्मत आ गई और उस ने शिल्पा को हर तरह से मदद देने का निश्चय कर लिया.

इस के बाद शिल्पा ने पुलिस को फोन किया और सूरज पर किशोरी का रेप करने की कोशिश में नाकाम रहने के बाद जान से मारने की कोशिश करने का आरोप लगाते हुए किशोरी को पुलिस के सामने खड़ा किया और उस के शरीर पर आई हुई चोटों के निशान भी दिखाए, जिस से सूरज की हरकत की तसदीक तो हुई ही, साथ ही सूरज का क्रिमिनल रिकौर्ड भी उसे कुसूरवार करार देने में मददगार साबित हुआ.

इतना ही नहीं, शिल्पा ने पुलिस में अपने परिवार के खिलाफ दहेज के नाम पर सताने का आरोप लगाते हुए एफआईआर लिखवाई, जिस में शिल्पा ने यह भी बताया कि उस के सासससुर उस पर जुल्म तो करते ही हैं, साथ ही किसी बाबा के फेर में पड़ कर उस का सारा दहेज का पैसा उन्होंने हड़प लिया है और वे लोग उस से अपने मायके से और भी पैसे लाने की मांग करते रहते हैं.

पुलिस ने तुरंत संज्ञान लेते हुए दहेज के नाम पर सताने के आरोप में शिल्पा के सासससुर और उस के पति को भी जेल में डाल दिया.

13 साल की उम्र में अपने गांव में आए हुए एक अपरिचित लड़के द्वारा रेप किए जाने की घिनौनी वारदात के बाद भी शिल्पा टूटी नहीं, बल्कि एक सोचीसम   झी साजिश के साथ उस ने विजय को अपने जाल में फंसाया, ताकि वह उस से ब्याह कर के अपना बदला पूरा कर सके.

शिल्पा ने सूरज को एक बार नहीं, बल्कि बारबार जेल भिजवा कर अपना बदला पूरा किया.

सभी कुसूरवार जेल में थे और अब शिल्पा इस पूरे मकान और जायदाद की अकेली मालकिन थी. अब वह गांवगांव जा कर लड़कियों को किसी से न डरने और नाइंसाफी न सहने के लिए सीख देती थी.

आज शिल्पा ने अपनेआप को आदमकद आईने में देखा. सामने एक रेप पीडि़त लड़की तो थी, जिस ने बचपन में ही जोरजुल्म सहा था, पर अब वह अबला नहीं थी और न ही उस के मन में कोई पछतावा था, क्योंकि पछतावा तो बुरे काम को अंजाम देने वाले को होना चाहिए… इसीलिए शिल्पा के चेहरे पर एक मुसकान थी, विजयी मुसकान.

आखिर दोषी कौन है: क्या हुआ था रश्मि के साथ

जिसतरह दीए के साथ बाती का गहरा नाता होता है, अपनी आखिरी सांस तक वह दीए को नहीं छोड़ती, उसी के साथ ही जीती है और उस की बांहों में ही अपना दम तोड़ देती है, कुछ इसी तरह का प्यार करती थी रश्मि अपने प्रेमी आदित्य से. साथ जीनेमरने के वादे करने वाले आदित्य और रश्मि प्यार की राह पर एकदूसरे का हाथ पकड़े बहुत दूर निकल आए थे. एकदूसरे को देखे बिना कभी भी उन का दिन पूरा नहीं होता था. दोनों के परिवार भी इस रिश्ते को बहुत पसंद करते थे. दोनों के असीम प्यार को मिलाने के लिए दोनों परिवारों ने जोरशोर से तैयारियां शुरू कर दी थीं.

आदित्य की मां अनीता ही ने रश्मि के लिए उस की पसंद के कपड़े, गहने सबकुछ तैयार करवा लिया था. इकलौता ही बेटा तो था आदित्य उन का. अपने सूने आंगन में एक बेटी के कदमों को लाने की उन्हें बड़ी जल्दी थी. अपनी मंजिल को पूरा होता देख आदित्य और रश्मि की खुशी का ठिकाना न था. रश्मि के परिवार में भी जोरशोर से विवाह की तैयारियां चल रही थीं.

विवाह का मुहूर्त 1 माह बाद का निकला था. सभी को जल्दी थी, किंतु उस से पहले का कोई मुहूर्त था ही नहीं. अब सभी उस तारीख का इंतजार कर रहे थे. 1-1 कर के दिन बड़ी मुश्किल से कट रहे थे. सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं. वह कहते हैं न कि समय से पहले और हिस्से से ज्यादा किसी को नहीं मिलता. कुछ ऐसा ही आदित्य और रश्मि के साथ भी हुआ.

आज करवाचौथ है. रश्मि बहुत ही उत्साह में थी. आदित्य से भले ही अब तक उस का विवाह न हुआ हो पर मन ही मन वह उसे पति तो मान ही चुकी थी. यही सब सोच कर उस ने भी आज करवाचौथ का व्रत रख लिया.

सुबहसुबह आदित्य के फोन की घंटी बजी. आदित्य गहरी नींद में सो रहा था. जैसे ही देखा रश्मि का फोन है, ‘अरे इतनी सुबह रश्मि का फोन? क्यों किया होगा,’ सोचते हुए उस ने

फोन उठाया.

रश्मि ने कहा, ‘‘आदित्य, आज शाम का कोई प्रोग्राम नहीं बनाना. मैं ने आज करवाचौथ का व्रत रखा है, निर्जला तुम्हारे लिए. रात को

चांद देख कर तुम्हारे हाथों से पानी पी कर ही उपवास तोड़ूंगी. शाम को तुम मेरे लिए बिलकुल फ्री रखना.’’

‘‘अरे रश्मि यह उपवास छोड़ो यार, कहां भूखी रहोगी दिन भर.’’

‘‘नहीं आदित्य, यह व्रत तो मुझे रखना ही है. सिर्फ आज ही नहीं, हर वर्ष तुम्हारे लिए, तुम्हारी लंबी उम्र के लिए.’’

‘‘ठीक है रश्मि, तुम से कभी मैं जीत सका हूं क्या? मैं शाम को अपनेआप को तुम्हारे हवाले कर दूंगा, अब खुश?’’

‘‘आदित्य शाम को 7 बजे तक तुम मुझे लेने आ जाना, शाम को पूजा मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे घर पर ही करूंगी.’’

‘‘ठीक है रश्मि, जो आज्ञा.’’

रश्मि शाम का इंतजार कर रही थी. हाथों में मेहंदी, सोलहशृंगार, लाल जोड़े में सजीधजी रश्मि बहुत ही सुंदर लग रही थी. ऐसा लग रहा था मानो आज ही उस का विवाह हो.

दुलहन की तरह सजीधजी रश्मि को देख कर अनीता भी फूली नहीं समा रही थीं. चांद का इंतजार सभी कर रहे थे. रश्मि को जोर की भूख लगी थी.

रश्मि बारबार आदित्य से कह रही थी, ‘‘आदि जाओ न बाहर चांद को ढूंढ़ो, कहां छिप कर बैठा है?’’

आदित्य ने कहा, ‘‘कहां जाऊं रश्मि, मुझे तो चांद मेरी आंखों के सामने ही दिखाई दे रहा है. इस चांद के सामने उस चांद को देखने कौन जाएगा.’’

‘‘जाओ न आदि, भूख लग रही है.’’

कुछ ही समय में चांद भी निकल आया. पूजा कर के छलनी से चांद के साथ आदित्य

को निहारते हुए रश्मि ने धीरे से कहा, ‘‘आई

लव यू आदित्य.’’

आदित्य ने भी वही 3 शब्द कहते हुए अपने हाथों से उसे पानी पिलाया और मिठाई खिला कर उस का व्रत खुलवाया. रश्मि को ये क्षण ऐसे मनमोहक लग रहे थे मानो जिंदगी की सारी खुशियां सिमट कर इन पलों में समा गई हों.

रश्मि की झल सी गहरी आंखों में आदित्य को प्यार ही प्यार नजर आ रहा था. वह उस गहराई में डूबता ही चला जा रहा था.

तभी पीछे से अनीता की आवाज आई, ‘‘आदि चलो रश्मि को खाना खिलाना है या नहीं?’’

‘‘हांहां मां आते हैं.’’

दोनों डाइनिंगरूम में चले गए और फिर सब ने साथ खाना खाया. परिवार के सदस्यों के साथ बातें करते हुए रात के 12 बज गए. रश्मि का घर आदित्य के घर से बहुत दूर था. आदित्य रश्मि को छोड़ने कार से निकला.

दोनों बातें करते हुए एकदूसरे में खोए चले जा रहे थे. रात काफी हो गई थी. हर तरफ अंधेरा पसरा था. रास्ता भी सुनसान था. कहीं कोई हलचल नहीं थी. आदित्य की कार मंजिल की तरफ बढ़ रही थी कि तभी अचानक कार झटके मारने लगी और बंद हो गई.

‘‘रश्मि घबरा गई, क्या हुआ आदित्य?’’

‘‘मालूम नहीं रश्मि, अचानक क्या हो

गया. आज के पहले कभी कार इस तरह रुकी नहीं थी.’’

आदित्य ने अंदर बैठेबैठे 2-3 बार कार स्टार्ट करने की कोशिश की, किंतु वह सफल नहीं हो पाया.

‘‘रश्मि रुको, मैं बाहर बोनट खोल कर देखता हूं. क्या हो गया है, वरना फोन कर के घर से किसी को बुलाना पड़ेगा. तुम अंदर, बैठो,’’ कहते हुए आदित्य बाहर निकल गया.

तब तक अचानक मौसम का अंदाज भी बदल गया. हवा के साथ हलकीहलकी बारिश शुरू हो गई. इस बिन मौसम की बारिश से घबरा कर रश्मि भी कार से बाहर निकल आई और अपने मोबाइल से लाइट दिखाने लगी.

तभी रश्मि ने कहा, ‘‘आदि, मुझे डर लग रहा है, जल्दी से घर पर फोन कर देते हैं पापा

आ जाएंगे.’’

‘‘हां रश्मि, यह कार अपने से तो ठीक होने से रही.’’

तभी अचानक तेजी से एक कार उन के पास आ कर रुकी. उस में नशे में धुत्त 4 लड़के बैठे थे. कार से बाहर निकल कर एक लड़के ने पूछा, ‘‘क्या हुआ भाई? कोई मदद चाहिए क्या?’’

आदित्य ने कहा, ‘‘जी नहीं थैंक यू.’’

तभी एक लड़के ने आदित्य को जोर से धक्का दिया. आदित्य को बिलकुल

आइडिया नहीं था. अत: वह उस धक्के से कुछ दूर तक लड़खड़ाने के बाद संभलने लगा. तब तक दूसरे दोनों लड़कों ने रश्मि को कार में खींच लिया. तीसरा भी जल्दी से बैठ गया और चौथा ड्राइवर सीट पर पहले से ही बैठा था. उस ने तेजी से कार को भगाना शुरू कर दिया.

रश्मि चिल्लाती रही, आदित्य कार के पीछे भाग रहा था. पीछे के कांच से रश्मि की काली परछाईं कुछ क्षणों तक तड़पते हुए आदित्य को दिखाई देती रही और फिर गायब हो गई. कार दूर तक सुनसान रास्ते पर दौड़ती हुई दिखाई देती रही. आदित्य कुछ भी न कर पाया. उस की आंखों के सामने ही उस की रश्मि का हरण हो गया. एक नहीं यहां तो 4-4 रावण थे.

आदित्य ने तुरंत पुलिस को फोन लगा कर बताया. पुलिस हरकत में आए तब तक वह हैवान रश्मि को कहीं बहुत दूर ले जा चुके थे.

दोनों परिवारों में इस खबर ने तूफान ला दिया. सब चिंता में थे, सदमे में थे. घर में आंसू और सन्नाटे के सिवा कुछ भी नहीं था. दोनों परिवार इस दुख की घड़ी में साथ थे. पुलिस अपना काम कर रही थी.

2-3 घंटों के बाद उन लड़कों ने रश्मि को सड़क के किनारे झडि़यों में फेंक दिया.

उन्होंने रश्मि को धमकी देते हुए कहा, ‘‘जान प्यारी हो तो चुपचाप ही रहना वरना हम ने तुम्हारे पति का फोटो भी ले लिया है. हम उसे नहीं छोड़ेंगे, समझ.’’

रश्मि बेहोशी की हालत में सड़क के

किनारे झडि़यों में पड़ी हुई थी. सुबह मौर्निंग वाक करने आए पतिपत्नी को झडि़यों में लड़की पड़ी दिखाई दी.

तभी उस महिला ने अपने पति से कहा, ‘‘अरे यह तो कोई दुलहन लग रही है, पर इस तरह झडि़यों में… जल्दी से पुलिस को फोन करो. इस की हालत देख कर लग रहा है मामला कुछ और ही है.’’

उस के पति ने पुलिस को फोन किया. वह महिला रश्मि को होश में लाने की कोशिश कर रही थी. तब तक पुलिस भी आ गई. रश्मि को तुरंत अस्पताल ले जाया गया.

पुलिस ने आदित्य को फोन कर के बताया, ‘‘आदित्य, एक लड़की सड़क के

किनारे झडि़यों में पड़ी मिली है. उस की हालत गंभीर है. उसे हम ने अस्पताल में भरती करा दिया है. किसी बुजुर्ग दंपती को वह बेहोशी की हालत में मिली थी. उन्होंने ही हमें खबर दी है. आप आ कर देख लीजिए, लगता है यह वही है, जिस के लिए आप ने शिकायत दर्ज करवाई थी.’’

आदित्य और रश्मि के परिवार तुरंत अस्पताल पहुंच गए. रश्मि की हालत बहुत ही खराब थी. जीवन और मौत के बीच संघर्ष करती रश्मि इस वक्त बिलकुल असहाय लग रही थी. वह इस समय होश में भी नहीं थी. उस के चेहरे पर लालनीले निशान दिख रहे थे. बाकी शरीर चादर से ढका था. रश्मि की ऐसी हालत देख कर परिवार वालों की तो क्या डाक्टर और नर्स की आंखों में भी आंसू छलक आए.

आदित्य अपनी मां के कंधे पर सिर रख कर आंसू बहा रहा था. वह बहुत देर तक रश्मि की ऐसी हालत देख न पाया और वहां से बाहर निकल गया.

रश्मि को जब होश आया, दोनों परिवार

वहां मौजूद थे. उस ने चारों तरफ नजर दौड़ाई, लेकिन जिस की चाहत थी, वही उसे दिखाई नहीं दिया. उस की आंखों से आंसू बिना रुके बहते जा रहे थे.

उस के मुंह से एक ही शब्द निकल रहा था, ‘‘आदि बचाओ मुझे…’’

कुछ समय के लिए वह होश में आती, फिर उस की आंखें बंद हो जातीं. दूसरे दिन सुबह उसे पूरी तरह से होश आया. अपनी मम्मी के गले लग कर वह बुरी तरह रो रही थी. उसे सांत्वना किस तरह से दें, कोई कुछ बोल नहीं पा रहा था. सब की आंखों में सिर्फ आंसू थे. मुंह में मानो जबान नहीं है.

आखिरकार रश्मि ने चुप्पी तोड़ते हुए अपनी मम्मी से पूछा, ‘‘मम्मी आदित्य कहां है?’’

‘‘बेटा अभी तो यहीं था, शायद डाक्टर से बात करने गया होगा.’’

अनीता ने तुरंत आदित्य को फोन लगाया, ‘‘आदि कहां हो तुम? जल्दी आओ रश्मि को होश आ गया है. वह तुम्हें ही बुला रही है.’’

‘‘मां मैं उसे इस तरह तड़पता नहीं देख सकता… मैं उस का सामना नहीं कर पाऊंगा.’’

‘‘कैसी बात कर रहे हो आदित्य तुम? जल्दी से यहां आ जाओ.’’

आदित्य के मन में एक अलग ही तूफान उठा हुआ था. बलात्कार की शिकार हुई रश्मि को स्वीकार करने में अब वह हिचकिचा रहा था. इस तूफान में फंसा आदित्य अपनी मां की बात मान कर रश्मि के सामने आखिरकार आ ही गया.

रश्मि आदित्य से ऐसे लिपट गई जैसे किसी वृक्ष से बेल लिपट जाती है और उसे

छोड़ती ही नहीं. रश्मि बिना कुछ कहे रोती ही जा रही थी.

तब आदित्य ने कहा, ‘‘आई एम सौरी रश्मि, मैं तुम्हारी रक्षा नहीं कर पाया,’’ इतना कहते हुए आंखों में आंसू लिए वह तुरंत कमरे से बाहर निकल गया. रश्मि अभी भी बांहें फैलाए उसे जाते देख रही थी.

अनीता को आदित्य का ऐसा व्यवहार देख कर बिलकुल अच्छा नहीं लगा. वे तुरंत रश्मि के पास आईं और उसे सीने से लगाते हुए कहने लगीं, ‘‘रश्मि बेटा सब ठीक हो जाएगा. तुम अपने आप को संभालो, हिम्मत रखो बेटा. यह बुरा वक्त था हम दोनों परिवारों के लिए… अब जितनी जल्दी हो सके, हमें इस से बाहर निकलना होगा. आदित्य अपनेआप को दोषी मान रहा है कि वह तुम्हारी रक्षा नहीं कर पाया. इसलिए तुम से नजरें चुरा रहा है.’’

अगले 2 दिनों तक भी आदित्य अस्पताल नहीं आया. अनीता रोज 3-4 घंटे

रश्मि के पास आ कर रुकती थीं.

तीसरे दिन रश्मि ने पूछ ही लिया, ‘‘मां, आदित्य मुझ से मिलने क्यों नहीं आ रहा? क्या वह मुझ से नाराज है?’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसी कोई बात नहीं, वह भी बहुत दुखी है. खुद से नाराज है. तुम्हारा सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. मैं आज ही उसे भेजती हूं.’’

‘‘नहीं मां, जब उस की इच्छा होगी तब वह खुद आएगा. आप उस से जबरदस्ती बिलकुल

मत करना.’’

‘‘ठीक है बेटा.’’

अनीता जब घर पहुंचीं तब मन में ठान चुकी थीं कि आदित्य के मन में क्या चल रहा है, आज वे जान कर ही रहेंगी.

शाम को वे आदित्य के पास जा कर बैठीं और बड़े ही प्यार से कहा, ‘‘आदि बेटा

तुम रश्मि से मिलने आखिर क्यों नहीं जा रहे हो? आज उसे तुम्हारी बहुत जरूरत है. मैं जानती हूं तुम दुखी हो, किंतु तुम्हारा इस तरह का व्यवहार रश्मि को तोड़ देगा. जाओ जा कर उस के पास बैठो, उस से बातें करो. उसे यह विश्वास दिलाओ कि तुम उस के साथ हो.

अपने कंधे का सहारा दे कर उस के बहते आंसुओं को तुम्हें ही पोंछना होगा आदित्य. जब भी कुछ आहट होती है, उस की आंखों में केवल यह उम्मीद होती है कि दरवाजे से तुम ही अंदर आओगे. उस की आंखें हर समय केवल और केवल तुम्हें ही ढूंढ़ती रहती हैं, लेकिन हर बार उस की उम्मीद टूट जाती है, जो उस की सूनी आंखों से पानी बन कर बहने लगती है. उठो आदित्य जाओ… उस के परिवार में भी सभी को लग रहा होगा कि आदित्य आखिर क्यों नहीं आ रहा. मैं कब तक बात को संभालूंगी बेटा.’’

इतना सब सुनने के उपरांत भी आदित्य जाने के लिए तैयार नहीं हुआ. अनीता का प्यार गुस्से में बदल रहा था. वे समझ रही थीं कि आदित्य जाना नहीं चाहता.

अनीता ने गुस्से में पूछा, ‘‘आदित्य, तुम्हारे दिल में क्या चल रहा है, साफसाफ बताओ. क्या तुम अपने पांव पीछे खींच रहे हो?’’

‘‘मां आप क्या चाहती हैं? बलात्कार हुआ है उस के साथ. क्या मैं उस के साथ विवाह कर लूं? समाज, दोस्त सब मेरा मजाक उड़ाएंगे. मुझे कैसीकैसी नजरों से देखेंगे. यदि उस के साथ घर से बाहर जाऊंगा तो कैसी नजरों से उसे देखेंगे? कैसेकैसे तंज कसेंगे? ये सब सोच कर ही मैं कांप जाता हूं. मैं इस का सामना नहीं कर

सकता मां.’’

‘‘अच्छा आदित्य तो यह खिचड़ी पक रही है, तुम्हारे अंदर. मैं तो सच में यह सोच रही थी कि तुम उस की रक्षा नहीं कर पाए, इसलिए दुखी हो, शर्मिंदा हो, इसलिए उस के पास नहीं जा रहे हो. तुम्हारे ऐसे विचार सुन कर मुझे तुम्हारी मानसिकता पर तरस आ रहा है. मुझे तुम से यह उम्मीद नहीं थी. तुम ने आज मेरा सिर नीचे झका दिया है. इतने वर्षों से प्यार के वादे करने वाले, जन्मों तक साथ रहने के सपने देखने वाले, एक तूफान के आ जाने से साथी को बीच भंवर में डूबने के लिए छोड़ जाते हैं क्या? मैं ने तो रश्मि को इस घर की बेटी मान लिया है. जो भी हुआ, आखिर उस में दोषी कौन है? क्या गलती रश्मि की है?’’

‘‘मां मुझे भी बहुत दुख है पर मैं क्या करूं. मैं अपने मन को कैसे समझऊं?’’

‘‘आदि जो भी हुआ है, तुम्हें उस का सामना करना चाहिए. यों पीठ दिखाने से कुछ नहीं होगा. जो मुझे नहीं बोलना चाहिए, वह भी मैं तुम से पूछती हूं कि आज यदि ऐसा कुछ मेरे साथ हो जाए तो क्या तुम मुझे भी छोड़ दोगे?’’

‘‘मां यह क्या बोल रही हैं आप?’’

‘‘तुम्हें सुनना होगा आदित्य, समाज तो तब भी कुछ न कुछ कहेगा. मुझे कैसीकैसी नजरों से देखेगा. तुम्हारे साथ बाहर कहीं जाऊंगी तो तंज कसेगा. बोलो आदित्य बोलो… यदि तुम्हारी

बहन होती और उस के साथ ऐसा करती तो

क्या तुम उसे भी छोड़ देते? पूरा जीवन उसे अकेले रहने देते? क्या उस के विवाह की कोशिश नहीं करते? नहीं आदित्य, तब तुम कोई ऐसा लड़का अवश्य ढूंढ़ते जो उसे ये सब जान कर भी अपना लेता. तुम खुद ऐसा लड़का क्यों नहीं बन सकते आदित्य?’’

अपनी मां के इस तरह के तेवर देख कर आदित्य घबरा गया. वह कुछ

बोलता उस के पहले ही अनीता ने कहा, ‘‘तुम जैसे कुछ मर्द ही ऐसी घटनाओं को अंजाम देते

हैं और जीवनभर उस की सजा भोगनी पड़ती है स्त्री को. आदित्य तुम यह रिश्ता तोड़ना चाहते हो, तो तोड़ दो. मैं उस के लिए तुम से भी अच्छा लड़का ढूंढ़ूंगी जो उसे इसी रूप में स्वीकार करे और उतनी ही इज्जत और प्यार दे जितना उस

का हक है. इस के बाद कभी भी मुझे मां कहने की कोशिश भी मत करना,’’ कहते हुए अनीता

रो पड़ीं.

अनीता का हर शब्द आदित्य के सीने को छलनी कर गया. उसे उन का हर शब्द चुभ रहा था.

दूसरे दिन अनीता जब अस्पताल पहुंची तो वहां का दृश्य देख कर वे दंग रह गईं. आदित्य रश्मि के सिरहाने बैठे उस की आंखों से लगातार बहते आंसुओं को अपने हाथों से पोंछ रहा था. साथ ही वह कह रहा था, ‘‘रश्मि मुझे माफ कर दो. मैं तुम्हारी रक्षा नहीं कर पाया.’’

रश्मि के माथे का चुंबन लेने के लिए जैसे ही वह झका उस की आंखों के आंसू

रश्मि के आंसुओं से जा मिले. यह संगम था आंसुओं के साथसाथ उन दोनों के मिलन का, आदित्य के पश्चात्ताप का, रश्मि की उम्मीदों का और अनीता के प्यार और विश्वास का.

अनीता उन्हें डिस्टर्ब नहीं करना चाहती थीं. उन्होंने जैसे ही अपने कदम वापस जाने के लिए उठाए, उस के कानों में आवाज आई, ‘‘आदि मैं

3 दिनों से दरवाजे पर टकटकी लगा कर तुम्हारा इंतजार कर रही थी. मैं जानती हूं कि मैं तुम्हारे लायक नहीं रही. सिर्फ एक बार तुम से मिल कर, तुम्हारी बांहों में सो जाना चाहती थी. आज तुम ने मेरी वह इच्छा पूरी कर दी,’’ कहते हुए वह आदित्य की बांहों से लिपट गई.

‘‘यह क्या कह रही हो रश्मि? मैं तो

तुम्हें एक बार नहीं हजारों बार पूरी जिंदगी

अपने सीने से लगा कर अपनी बांहों में रखना चाहता हूं.’’

तब तक रश्मि की मम्मी भी आ कर अनीता के साथ खड़े हो कर दुनिया का यह सब से सुंदर अलौकिक नजारा देख रही थीं. उन दोनों ने एकदूसरे को गले मिल कर बधाई दी.

तब तक आदित्य ने रश्मि को अपनी गोद में उठा लिया और कहा, ‘‘चलो रश्मि घर चलते हैं.’’

रश्मि अपना सारा दुखदर्द भूल कर

आदित्य को निहारे जा रही थी. इस समय उसे ऐसा महसूस हो रहा था मानो धरती पर ही उसे स्वर्ग मिल गया हो.

कठपुतली: निखिल से क्यों टूटने लगा मीता का मोह

जैसे ही मीता के विवाह की बात निखिल से चली वह लजाई सी मुसकरा उठी. निखिल उस के पिताजी के दोस्त का इकलौता बेटा था. दोनों ही बचपन से एकदूसरे को जानते थे. घरपरिवार सब तो देखाभाला था, सो जैसे ही निखिल ने इस रिश्ते के लिए रजामंदी दी, दोनों को सगाई की रस्म के साथ एक रिश्ते में बांध दिया गया.

मीता एक सौफ्टवेयर कंपनी में काम करती थी और निखिल अपने पिताजी के व्यापार को आगे बढ़ा रहा था.

2 महीने बाद दोनों परिणयसूत्र में बंध कर पतिपत्नी बन गए. निखिल के घर में खुशियों का सावन बरस रहा था और मीता उस की फुहारों में भीग रही थी.

वैसे तो वे भलीभांति एकदूसरे के व्यवहार से परिचित थे, कोई मुश्किल नहीं थी, फिर भी विवाह सिर्फ 2 जिस्मों का ही नहीं 2 मनों का मिलन भी तो होता है.

विवाह को 1 महीना पूरा हुआ. उन का हनीमून भी पूरा हुआ. अब निखिल ने फिर काम पर जाना शुरू कर दिया. मीता की भी छुट्टियां समाप्त हो गईं.

‘‘निखिल पूरा 1 महीना हो गया दफ्तर से छुट्टी किए. आज जाना है पर तुम्हें छोड़ कर जाने को मन नहीं कर रहा,’’ मीता ने बिस्तर पर लेटे अंगड़ाई लेते हुए कहा.

‘‘हां, दिल तो मेरा भी नहीं, पर मजबूरी है. काम तो करना है न,’’ निखिल ने जवाब दिया. तो मीता मुसकरा दी.

अब रोज यही रूटीन रहता. दोनों सुबह उठते, नहाधो कर साथ नाश्ता कर अपनेअपने दफ्तर रवाना हो जाते. शाम को मीता थकीमांदी लौट कर निखिल का इंतजार करती रहती कि कब निखिल दफ्तर से आए और कब दो मीठे बोल उस के मुंह से सुनने को मिलें.

एक दिन वह निखिल से पूछ ही बैठी, ‘‘निखिल, मैं देख रही हूं जब से हमारी शादी हुई है तुम्हारे पास मेरे लिए वक्त ही नहीं.’’

‘‘मीता शादी करनी थी हो गई… अब काम भी तो करना है.’’

निखिल का जवाब सुन मीता मुसकरा दी और फिर मन ही मन सोचने लगी कि निखिल कितना जिम्मेदार है. वह अपने वैवाहिक जीवन से बहुत खुश थी. वही करती जो निखिल कहता, वैसे ही रहती जैसे निखिल चाहता. और तो और खाना भी निखिल की पसंदनापसंद पूछ कर ही बनाती. उस का स्वयं का तो कोई रूटीन, कोई इच्छा रही ही नहीं. लेकिन वह खुद को निखिल को समर्पित कर खुश थी. इसलिए उस ने निखिल से कभी इन बातों की शिकायत नहीं की. वह तो उस के प्यार में एक अनजानी डोर से बंध कर उस की तरफ खिंची जा रही थी. सो उसे भलाबुरा कुछ महसूस ही नहीं हो रहा था.

वह कहते हैं न कि सावन के अंधे को सब हरा ही हरा दिखाई देता है. बस वैसा ही हाल था निखिल के प्रेम में डूबी मीता का. निखिल रात को देर से आता. तब तक वह आधी नींद पूरी भी कर चुकी होती.

एक बार मीता को जम्हाइयां लेते देख निखिल बोला, ‘‘क्यों जागती हो मेरे लिए रात को? मैं बाहर ही खा लिया करूंगा.’’

‘‘कैसी बात करते हो निखिल… तुम मेरे पति हो, तुम्हारे लिए न जागूं तो फिर कैसा जीवन? वैसे भी हमें कहां एकदूसरे के साथ बैठने के लिए वक्त मिलता है.’’ मीता ने कहा.

विवाह को 2 वर्ष बीत गए, किंतु इन 2 वर्षों में दोनों रात और दिन की तरह हो गए. एक आता तो दूसरा जाता.

एक दिन निखिल ने कहा, ‘‘मीता तुम नौकरी क्यों नहीं छोड़ देतीं… हमें कोई पैसों की कमी तो नहीं. यदि तुम घर पर रहो तो शायद हम एकदूसरे के साथ कुछ वक्त बिता सकें.’’

जैसे ही मीता ने अपनी दफ्तर की कुलीग नेहा को इस बारे में बताया, वह कहने लगी, ‘‘मीता, नौकरी मत छोड़ो. सारा दिन घर बैठ कर क्या करोगी?’’

मगर मीता कहां किसी की सुनने वाली थी, उसे तो जो निखिल बोले बस वही ठीक लगता था. सो आव देखा न ताव इस्तीफा लिख कर अपनी बौस के पास ले गई. वे भी एक महिला थीं, सो पूछने लगीं, ‘‘मीता, नौकरी क्यों छोड़ रही हो?’’

‘‘मैम, वैवाहिक जीवन में पतिपत्नी को मिल कर चलना होता है, निखिल तो अपना कारोबार दिन दूना रात चौगुना बढ़ा रहा है, यदि पतिपत्नी के पास एकदूसरे के लिए समय ही नहीं तो फिर कैसी गृहस्थी? फिर निखिल तो अपना कारोबार बंद करने से रहा. सो मैं ही नौकरी छोड़ दूं तो शायद हमें एकदूसरे के लिए कुछ समय मिले.’’

बौस को लगा जैसे मीता नौकरी छोड़ कर गलती कर रही है, किंतु वे दोनों के प्यार में दीवार नहीं बनाना चाहती थीं, सो उस ने मीता का इस्तीफा स्वीकार कर लिया.

अब मीता घर में रहने लगी. जैसे आसपास की अन्य महिलाएं घर की साफसफाई, साजसज्जा, खाना बनाना आदि में वक्त व्यतीत करतीं वैसे ही वह भी अपना सारा दिन घर के कामों में बिताने लगी. कभी निखिल अपने बाहर के कामों की जिम्मेदारी उसे सौंप देता तो वह कर आती, सोचती उस का थोड़ा काम हलका होगा तो दोनों को आपस में बतियाने के लिए वक्त मिलेगा.

उस की दफ्तर की सहेलियां कभीकभी फोन पर पूछतीं, ‘‘मीता, घर पर रह कर कैसा लग रहा है?’’

‘‘बहुत अच्छा, सब से अलग,’’ वह जवाब में कहती.

दीवानी जो ठहरी अपने निखिल की. दिन बीते, महीने बीते और पूरा साल बीत गया. मीता तो अपने निखिल की मीरा बन गई समझो. निखिल के इंतजार में खाने की मेज पर ही बैठ कर ऊंघना, आधी रात जाग कर खाना परोसना तो समझो उस के जीवन का हिस्सा हो गया था.

अब वह चाहती थी कि परिवार में 2 से बढ़ कर 3 सदस्य हो जाएं, एक बच्चा हो जाए तो वह मातृत्व का सुख ले सके. वैसे तो वह संयुक्त परिवार में थी, निखिल के मातापिता भी साथ में ही रहते थे, किंतु निखिल के पिता को तो स्वयं कारोबार से फुरसत नहीं मिलती और उस की मां अलगअलग गु्रप में अपने घूमनेफिरने में व्यस्त रहतीं.

‘‘निखिल कितना अच्छा हो हमारा भी एक बच्चा हो. आप सब तो पूरा दिन मुझे अकेले छोड़ कर बाहर चले जाते हो… मुझे भी तो मन लगाने के लिए कोई चाहिए न,’’ एक दिन मीता ने निखिल के करीब आते हुए कहा.

जैसे ही निखिल ने यह सुना वह उस के छिटकते हुए कहने लगा, ‘‘मीता, अभी मुझे अपने कारोबार को और बढ़ाना है. बच्चा हो गया तो जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी और फिर अभी हमारी उम्र ही क्या है.’’

मीता ने उसे बहुत समझाया कि वह बच्चे के लिए हां कह दे, किंतु निखिल बड़ी सफाई से टाल गया, बोला, ‘‘क्यों मेरा हनीमून पीरियड खत्म कर देना चाहती हो?’’

उस की बात सुन मीता एक बार फिर मुसकरा दी. बोली, ‘‘निखिल तुम बहुत चालाक हो.’’

मगर मीता अकेले घर में कैसे वक्त बिताए हर इंसान की अपनी दुनिया होती है. वह भी अपनी दुनिया बसाना चाहती थी, किंतु निखिल की न सुन कर चुप हो गई और निखिल अपनी दुनिया में मस्त.

एक दिन मीता बोली, ‘‘निखिल, मैं सोचती थी कि मैं नौकरी छोड़ दूंगी तो हमें एकसाथ समय बिताने को मिलेगा, किंतु तुम तो हर समय घर पर भी अपना लैपटौप ले कर बैठे रहते हो या फिर फोन पर बातों में लगे रहते हो.’’

उस की यह बात सुन निखिल बिफर गया. गुस्से में बोला, ‘‘तो क्या घर बैठ कर तुम्हारे पल्लू से बंधा रहूं? मैं मर्द हूं. अपनेआप को काम में व्यस्त रखना चाहता हूं, तो तुम्हें तकलीफ क्यों होती है?’’

मीता निखिल की यह बात सुन अंदर तक हिल गई. मन ही मन सोचने लगी कि इस में मर्द और औरत वाली बात कहां से आ गई.

हां, जब कभी निखिल को कारोबार संबंधी कागजों पर मीता के दस्तखत चाहिए होते तो वह बड़ी मुसकराहट बिखेर कर उस के सामने कागज फैला देता और कहता, ‘‘मालकिन, अपनी कलम चला दीजिए जरा.’’

कभी वह रसोई में आटा गूंधती बाहर आती तो कभी अपनी पसंदीदा किताब पढ़ती बीच में छोड़ती और मुसकरा कर दस्तखत कर देती.

मीता का निखिल के प्रति खिंचाव अभी भी बरकरार था. सो आज अकेले में मुसकुराने लगी और सोचा कि ठीक ही तो कहा निखिल ने. घर के लिए ही तो काम करता है सारा दिन वह, मैं ही फालतू उलझ बैठी उस से.

शाम को जब वह आया तो वह पूरी मुसकराहट के साथ उस के स्वागत में खड़ी थी, लेकिन निखिल का रुख कुछ बदला हुआ था. मीता उस के चेहरे के भाव पढ़ कर समझ गई कि निखिल उस से सुबह की बात को ले कर अभी तक नाराज है. सो उस ने उसे खूब मनाया. कहा, ‘‘निखिल, क्या बच्चों की तरह नाराज हो गए? हम दोनों जीवनपथ के हमराही हैं, मिल कर साथसाथ चलना है.’’

लेकिन निखिल के चेहरे पर से गुस्से की रेखाएं हटने का नाम ही नहीं ले रही थीं. क्या करती बेचारी मीता. आंखें भर आईं तो चादर ओढ़ कर सो गई.

निखिल अगली सुबह भी उसे से नहीं बोला. घर से बिना कुछ खाए निकल गया.

आज पहली बार मीता का दिल बहुत दुखी हुआ. वह सोचने लगी कि आखिर ऐसा भी क्या कह दिया था उस ने कि निखिल 3 दिन तक उस बात को खींच रहा है.

अब वह घर में निखिल से जब भी कुछ कहना चाहती उस का पौरुषत्व जाग उठता. एक दिन तो गुस्से में उस के मुंह से निकल ही गया, ‘‘क्यों टोकाटाकी करती रहती हो दिनरात?

तुम्हारे पास तो कुछ काम है नहीं…ये जो रुपए मैं कमा कर लाता हूं, जिन के बलबूते पर तुम नौकरों से काम करवाती हो, वो ऐसे ही नहीं आ जाते. दिमाग खपाना पड़ता है उन के लिए.’’

आज तो निखिल ने सीधे मीता के अहम पर चोट की थी. वह अपने आंसुओं को पोंछते हुए बिस्तर पर धम्म से जा पड़ी. सारी रात उसे नींद नहीं आई. करवटें बदलती रही. उसे लगा शायद निखिल ने गुस्से में आ कर कटु शब्द बोल दिए होंगे और शायद रात को उसे मना लेगा. लेकिन इस रात की तो जैसे सुबह ही नहीं हुई. जहां वह करवटें बदलती रही वहीं निखिल खर्राटे भर कर सोता रहा.

अब तो यह खिटपिट उन के रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बन गई थी. इसलिए उस ने निखिल से कई बातों पर बहस करना ही बंद कर दिया था. कई बार तो वह उस के सामने मौन व्रत ही धारण कर लेती.

सिनेमाहाल में नई फिल्म लगी थी. मीता बोली, ‘‘निखिल, मैं टिकट बुक करा देती हूं. चलो न फिल्म देख कर आते हैं.’’

‘‘तुम किसी और के साथ देख आओ मीता, मेरे पास बहुत काम है,’’ कह निखिल करवट बदल कर सो गया.

मीता ने उसे झंझोड़ कर बोला, ‘‘किस के साथ देख आऊं मैं फिल्म? कौन है मेरा तुम्हारे सिवा?’’

निखिल चिढ़ कर बोला, ‘‘जाओ न क्यों मेरे पीछे पड़ गई. बिल्डिंग में बहुत औरतें हैं. किसी के भी साथ चली जाओ वरना कोई किट्टी जौइन कर लो… मैं ने तुम्हें कितनी बार बताया कि मुझे हिंदी फिल्में पसंद नहीं.’’

मीता उस की बात सुन एक शब्द न बोली और अपनी पनीली आंखों को पोंछ मुंह ढक कर सो गई.

आज मीता को अपने विवाह के शुरुआती महीनों की रातें याद हो आईं. कितनी असहज सी होती थी वह जब नया विवाह होते ही निखिल रात को उसे पोर्न फिल्में दिखाता था. वह निखिल का मन रखने को फिल्म तो देख लेती थी पर उसे उन फिल्मों से बहुत घिन आती थी.

कई बार थके होने का बहाना बना कर सोने की कोशिश भी करती, लेकिन निखिल अकसर उस पर दबाव बनाते हुए कहा करता कि इफ यू टेक इंट्रैस्ट यू विल ऐंजौय देम. वह अकसर जब फिल्म लगाता वह नानुकर करती पर निखिल किसी न किसी तरह उसे फिल्म देखने को राजी कर ही लेता. उस की खुशी में ही अपनी खुशी समझती.

कई बार तो वह सैक्स के दौरान भी वही चाहता जो पोर्न स्टार्स किया करतीं. मीता को लगता क्या यही विवाह है और यही प्यार का तरीका भी? उस ने तो कभी सोचा भी न था कि विवाहोपरांत का प्यार दिली प्यार से इतना अलग होगा, लेकिन वह इन 2 बरसों में पूरी तरह से निखिल के मन के सांचे में ढल तो गई थी, लेकिन इस सब के बावजूद निखिल क्यों उखड़ाउखड़ा रहता है.

मीता को मन ही मन दुख होने लगा था कि जिस निखिल के प्यार में वह पगलाई सी रहती है, उसे मीता की जरा भी फिक्र नहीं शायद… माना कि पैसा जरूरी है पर पैसा सब कुछ तो नहीं होता. कल तक हंसमुख स्वभाव वाले निखिल के बरताव में इतना फर्क कैसे आ गया, वह समझ ही न पाई.

निखिल अपने लैपटौप पर काम करता तो मीता उस पर ध्यान देने लगी. उस ने थोड़ा से देखा तो पाया कि वह तो अपने कालेज के सहपाठियों से चैट करता.

एक दिन उस से रहा न गया तो बोल पड़ी, ‘‘निखिल, मैं ने तुम्हारा साथ पाने के लिए अपनी नौकरी तक छोड़ दी, पर तुम्हें मेरे लिए फुरसत नहीं और पुराने दोस्तों से चैट के लिए फुरसत है.’’

निखिल तो जैसे गुस्से में आगबबूला हो उठा. चीख कर बोला, ‘‘जाओ फिर से कर लो नौकरी… कम से कम हर वक्त की बकबक से पीछा तो छूटेगा.’’

यह सुन मीता बोली, ‘‘तुम ने ही कहा था न मुझे नौकरी छोड़ने के लिए ताकि हम दोनों साथ में ज्यादा वक्त बिता सकें, लेकिन तुम्हें तो शायद मेरा साथ पसंद ही नहीं… पत्नी जो ठहरी… और जब मुझे नौकरी छोड़े 2 वर्ष बीत गए तो तुम कह रहे हो मैं फिर शुरू कर दूं ताकि तुम आजाद रहो.’’

मीता निखिल के बरताव से टूट सी गई थी. सारा दिन इसी उधेड़बुन में लगी रही कि उस की गलती क्या है? आज तक उस ने वही किया जो निखिल ने चाहा. फिर भी निखिल उसे क्यों ठुकरा देता है?

अब मीता अकसर निखिल के लैपटौप पर नजर रखती. कई बार चोरीछिपे उस का लैपटौप भी देखती. धीरेधीरे उस ने समझ लिया कि वह स्वयं ही निखिल के बंधन में जबरदस्ती बंधी है, निखिल तो किसी तरह का बंधन चाहता ही नहीं.

एक पुरुष को जीवन में सिर्फ 3 चीजों की ही तो जरूरत होती है- अच्छा खाना, अच्छा पैसा और सैक्स, जिन में खाना तो वह बना ही देती है वरना बड़ेबड़े रैस्टोरैंट तो हैं ही जिन में वह अपने क्लाइंट्स के साथ अकसर जाता है. दूसरी चीज है पैसा जो वह स्वयं कमा ही रहा है और पैसे के लिए तो उलटा मीता ही निखिल पर निर्भर है. तीसरी चीज है सैक्स. वैसे तो मीता उस के लिए जब चाहे हाजिर है, आखिर उसे तो पत्नी फर्ज निभाना है. फिर भी निखिल को कहां जरूरत है मीता की.

कितनी साइट्स हैं जहां न जाने कितनी तरह के वीडियो हैं, जिन में उन छरहरी पोर्न स्टार्स को देख कर कोई भी उत्तेजित हो जाए. उस के पास तो मन बहलाने के पर्याप्त साधन हैं ही. कहने को विवाह का बंधन प्रेम की डोर से बंधा है, लेकिन हकीकत तो यह है कि यह जरूरत की डोर है, जो इस रिश्ते को बांधे रखती है या फिर बच्चे जो स्वत: ही इस रिश्ते में प्यार पैदा कर देते हैं जिन के लिए निखिल राजी नहीं.

उदास सी खिड़की के साथ बने प्लैटफौर्म पर बैठी थी कि तभी घंटी बजी. उस ने झट से अपने बालों को आईने में देख कर ठीक किया. फिर खुद को सहज करते हुए दरवाजा खोला. सामने वाले फ्लैट की पड़ोसिन अमिता दरवाजे पर थी. बोली, ‘‘मेरे बच्चे का पहला जन्मदिन है, आप सभी जरूर आएं,’’ और निमंत्रणपत्र

थमा गई.

अगले दिन मीता अकेली ही जन्मदिन की पार्टी में पहुंच गई. वहां बच्चों के लिए पपेट शो वाला आया था. बच्चे उस का शो देख कर तालियां बजाबजा कर खुश हो रहे थे.

पपेट शो वाला अपनी उंगलियों में बंधे धागे उंगलियों से घुमाघुमा कर लपेटखोल रहा था जिस कारण धागों में कभी खिंचाव पैदा होता तो कभी ढील और उस के इशारों पर नाचती कठपुतली, न होंठ हिलाती न ही अपने मन की करती, बस जैसे उस का मदारी नचाता, नाचती.

आज मीता को अपने हर सवाल का जवाब मिल गया था. वह निखिल के लिए एक कठपुतली ही तो थी. अब तक दोनों के बीच जो आकर्षण और खिंचाव महसूस करती रही, वह उस अदृश्य डोर के कारण ही तो था, जिस से वह निखिल के साथ 7 फेरों की रस्म निभा बंध गई थी और उस डोरी में खिंचाव निखिल की पसंदनापसंद का ही तो था. वह नादान उसे प्यार का आकर्षण बल समझ रही थी. विवाहोपरांत वह निखिल के इशारों पर नाच ही तो रही थी. निखिल ने तो कभी उस के मन की सुध ली ही नहीं.

मीता ने गर्दन हिलाई मानो कह रही हो अब समझी निखिल, अगले दिन उस ने पुराने दफ्तर में फोन पर अपनी बौस से बात की.

बौस ने कहा, ‘‘ठीक मीता, तुम फिर से दफ्तर आना शुरू कर सकती हो.’’

मीता अपनी राह पर अकेली चल पड़ी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें