Father’s Day Special – विटामिन-पी: संजना ने कैसे किया अस्वस्थ ससुरजी को ठीक

संजनाटेबल पर खाना लगा रही थी. आज विशेष व्यंजन बनाए गए थे, ननदरानी मिथिलेश जो आई थी.

‘‘पापा, ले आओ अपनी कटोरी, खाना लग रहा है,’’ मिथिलेश ने अरुणजी से कहा.

‘‘दीदी, पापा अब कटोरी नहीं, कटोरा खाते हैं. खाने से पहले कटोरा भर कर सलाद और खाने के बाद कटोरा भर फ्रूट्स,’’ संजना मुसकराती हुई बोली.

‘‘अरे, यह चमत्कार कैसे हुआ? पापा की उस कटोरी में खूब सारे टैबलेट्स, विटामिन, प्रोटीन, आयरन, कैल्सियम होता था… कहां, कैसे, गायब हो गए?’’ मिथिलेश ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘बेटा यह चमत्कार संजना बिटिया का है,’’ कहते हुए वे पिछले दिनों में खो गए…

नईनवेली संजना ब्याह कर आई, ऐसे घर में जहां कोई स्त्री न थी. सासूमां का देहांत हो चुका था और ननद का ब्याह. घर में पति और ससुरजी, बस 2 ही प्राणी थे. ससुरजी वैसे ही कम बोलते थे और रिटायरमैंट के बाद तो बस अपनी किताबों में ही सिमट कर रह गए थे.

संजना देखती कि वे रोज खाना खाने से पहले दोनों समय एक कटोरी में खूब सारे टैबलेट्स निकाल लाते. पहले उन्हें खाते फिर अनमने से एकाध रोटी खा कर उठ जाते. रात को भी स्लीपिंग पिल्स खा कर सोते. एक दिन उस ने ससुरजी से पूछ ही लिया, ‘‘पापाजी, आप ये इतने सारे टेबलेट्स क्यों खाते हैं.’’

‘‘बेटा, अब तो जीवन इन पर ही निर्भर है, शरीर में शक्ति और रात की नींद इन के बिना अब संभव नहीं.’’

‘‘उफ पापाजी, आप ने खुद को इन का आदी बना लिया है. कल से आप मेरे हिसाब से चलेंगे. आप को प्रोटीन, विटामिन, आयरन, कैल्सियम सब मिलेगा और रात को नींद भी जम कर आएगी.’’

अगले दिन सुबह अरुणजी अखबार देख रहे थे तभी संजना ने आ कर कहा, ‘‘चलिए पापाजी, थोड़ी देर गार्डन में घूमते हैं, वहां से आ कर चाय पीएंगे.’’

संजना के कहने पर अरुणजी को उस के साथ जाना पड़ा. वहां संजना ने उन्हें हलकाफुलका व्यायाम भी करवाया और साथ ही लाफ थेरैपी दे कर खूब हंसाया.

‘‘यह लीजिए पापाजी, आप का कैल्सियम, चाय इस के बाद मिलेगी,’’ संजना ने दूध का गिलास उन्हें पकड़ाया.

नाश्ते में स्प्राउट्स दे कर कहा, ‘‘यह लीजिए भरपूर प्रोटींस. खाइए पापाजी.’’

लंच के समय अरुणजी दवाइयां निकालने लगे, तो संजना ने हाथ रोक लिया और कहा, ‘‘पापाजी, यह सलाद खाइए, इस में टमाटर, चुकंदर है, आप का आयरन और कैल्सियम. खाना खाने के बाद फू्रट्स खाइए.’’

अरुणजी उस की प्यार भरी मनुहार को टाल नहीं पाए. रात को भोजन भी उन्होंने संजना के हिसाब से ही किया. रात को संजना उन्हें फिर गार्डन में टहलाने ले गई.

‘‘चलिए पापा, अब सो जाइए.’’

अरुणजी की नजरें अपनी स्लीपिंग पिल्स की शीशी तलाशने लगीं.

‘‘लेटिए पापाजी, मैं आप के सिर की मालिश कर देती हूं,’’ कह कर उस ने अरुणजी को बिस्तर पर लिटा दिया और तेल लगा कर हलकेहलके हाथों सिर का मसाज करने लगी. कुछ ही देर में अरुणजी की नींद लग गई.

‘‘संजना, बेटी कल रात तो बहुत ही अच्छी नींद आई.’’

‘‘हां पापाजी, अब रोज ही आप को ऐसी नींद आएगी. अब आप कोई टैबलेट नहीं खाएंगे.’’

‘‘अब क्यों खाऊंगा. अब तो मुझे रामबाण औषधि मिल गई है,’’ अरुणजी गार्डन जाने के लिए तैयार होते हुए बोले.

‘‘थैंक्यू भाभी,’’ अचानक मिथिलेश की आवाज ने अरुणजी की तंद्रा भंग की.

‘‘हां बेटा, थैंक्स तो कहना ही चाहिए संजना बेटी को. इस ने मेरी सारी टैबलेट्स छुड़वा दीं. अब तो बस मैं एक ही टैबलेट खाता हूं,’’ अरुणजी बोले.

‘‘कौन सी?’’ संजना ने चौंक कर पूछा.

‘‘विटामिन-पी यानी भरपूर प्यार और परवाह.’’

Father’s Day Special: पापा जल्दी आ जाना

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Father’s Day Special: पापा जल्दी आ जाना- भाग 4

घड़ी ने रात के 2 बजाए. मुझे लगा अब मुझे सो जाना चाहिए. मगर आंखों में नींद कहां. मैं ने अलमारी से पापा की तसवीर निकाली जिस में मैं मम्मीपापा के बीच शिमला के एक पार्क में बैठी थी. मेरे पास पापा की यही एक तसवीर थी. मैं ने उन के चेहरे पर अपनी कांपती उंगलियों को फेरा और फफक कर रो पड़ी, ‘पापा तुम कहां हो…जहां भी हो मेरे पास आ जाओ…देखो, तुम्हारी निकी तुम्हें कितना याद करती है.’

एक दिन सुबह संदीप अखबार पढ़तेपढ़ते कहने लगे, ‘जानती हो आज क्या है?’

‘मैं क्या जानूं…अखबार तो आप पढ़ते हैं,’ मैं ने कहा.

‘आज फादर्स डे है. पापा के लिए कोई अच्छा सा कार्ड खरीद लाना. कल भेज दूंगा.’

‘आप खुशनसीब हैं, जिस के सिर पर मांबाप दोनों का साया है,’ कहतेकहते मैं अपने पापा की यादों में खो गई और मायूस हो गई, ‘पता नहीं मेरे पापा जिंदा हैं भी या नहीं.’

‘हे, ऐसे उदास नहीं होते,’ कहतेकहते संदीप मेरे पास आ गए और मुझे अंक में भर कर बोले, ‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम ने उन्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा. अखबारों में भी उन का विवरण छपवा दिया पर अब तक कुछ पता नहीं चला.’

मैं रोने लगी तो मेरे आंसू पोंछते हुए संदीप बोले थे, ‘‘अरे, एक बात तो मैं तुम को बताना भूल ही गया. जानती हो आज शाम को टेलीविजन पर एक नया प्रोग्राम शुरू हो रहा है ‘अपनों की तलाश में,’ जिसे एक बहुत प्रसिद्ध अभिनेता होस्ट करेगा. मैं ने पापा का सारा विवरण और कुछ फोटो वहां भेज दिए हैं. देखो, शायद कुछ पता चल सके.’?

‘अब उन्हें ढूंढ़ पाना बहुत मुश्किल है…इतने सालों में हमारी फोटो और उन के चेहरे में बहुत अंतर आ गया होगा. मैं जानती हूं. मुझ पर जिंदगी कभी मेहरबान नहीं हो सकती,’ कह कर मैं वहां से चली गई.

मेरी आशाओं के विपरीत 2 दिन बाद ही मेरे मोबाइल पर फोन आया. फोन धर्मशाला के नजदीक तपोवन के एक आश्रम से था. कहने लगे कि हमारे बताए हुए विवरण से मिलताजुलता एक व्यक्ति उन के आश्रम में रहता है. यदि आप मिलना चाहते हैं तो जल्दी आ जाइए. अगर उन्हें पता चल गया कि कोई उन से मिलने आ रहा है तो फौरन ही वहां से चले जाएंगे. न जाने क्यों असुरक्षा की भावना उन के मन में घर कर गई है. मैं यहां का मैनेजर हूं. सोचा तुम्हें सूचित कर दूं, बेटी.

‘अंकल, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. बहुत एहसान किया मुझ पर आप ने फोन कर के.’

मैं ने उसी समय संदीप को फोन किया और सारी बात बताई. वह कहने लगे कि शाम को आ कर उन से बात करूंगा फिर वहां जाने का कार्यक्रम बनाएंगे.

‘नहीं संदीप, प्लीज मेरा दिल बैठा जा रहा है. क्या हम अभी नहीं चल सकते? मैं शाम तक इंतजार नहीं कर पाऊंगी.’

संदीप फिर कुछ सोचते हुए बोले, ‘ठीक है, आता हूं. तब तक तुम तैयार रहना.’

कुछ ही देर में हम लोग धर्मशाला के लिए प्रस्थान कर गए. पूरे 6 घंटे का सफर था. गाड़ी मेरे मन की गति के हिसाब से बहुत धीरे चल रही थी. मैं रोती रही और मन ही मन प्रार्थना करती रही कि वही मेरे पापा हों. देर तो बहुत हो गई थी.

हम जब वहां पहुंचे तो एक हालनुमा कमरे में प्रार्थना और भजन चल रहे थे. मैं पीछे जा कर बैठ गई. मैं ने चारों तरफ नजरें दौड़ाईं और उस व्यक्ति को तलाश करने लगी जो मेरे वजूद का निर्माता था, जिस का मैं अंश थी. जिस के कोमल स्पर्श और उदास आंखों की सदा मुझे तलाश रहती थी और जिस को हमेशा मैं ने घुटन भरी जिंदगी जीते देखा था. मैं एकएक? चेहरा देखती रही पर वह चेहरा कहीं नहीं मिला, जो अपना सा हो.

तभी लाठी के सहारे चलता एक व्यक्ति मेरे पास आ कर बैठ गया. मैं ने ध्यान से देखा. वही चेहरा, निस्तेज आंखें, बिखरे हुए बाल, न आकृति बदली न प्रकृति. वजन भी घट गया था. मुझे किसी से पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई. यही थे मेरे पापा. गुजरे कई बरसों की छाप उन के चेहरे पर दिखाई दे रही थी. मैं ने संदीप को इशारा किया. आज पहली बार मेरी आंखों में चमक देख कर उन की आंखों में आंसू आ गए.

भजन समाप्त होते ही हम दोनों ने उन्हें सहारा दे कर उठाया और सामने कुरसी पर बिठा दिया. मैं कैसे बताऊं उस समय मेरे होंठों के शब्द मूक हो गए. मैं ने उन के चेहरे और सूनी आंखों में इस उम्मीद से झांका कि शायद वह मुझे पहचान लें. मैं ने धीरेधीरे उन के हाथ अपने कांपते हाथों में लिए और फफक कर रो पड़ी.

‘पापा, मैं हूं आप की निकी…मुझे पहचानो पापा,’ कहतेकहते मैं ने उन की गर्दन के इर्दगिर्द अपनी बांहें कस दीं, जैसे बचपन में किया करती थी. प्रार्थना कक्ष के सभी व्यक्ति एकदम संज्ञाशून्य हो कर रह गए. वे सब हमारे पास जमा हो गए.

पापा ने धीरे से सिर उठाया और मुझे देखने लगे. उन की सूनी आंखों में जल भरने लगा और गालों पर बहने लगा. मैं ने अपनी साड़ी के कोने से उन के आंसू पोंछे, ‘पापा, मुझे पहचानो, कुछ तो बोलो. तरस गई हूं आप की जबान से अपना नाम सुनने के लिए…कितनी मुश्किलों से मैं ने आप को ढूंढ़ा है.’

‘यह बोल नहीं सकते बेटी, आंखों से भी अब धुंधला नजर आता है. पता नहीं तुम्हें पहचान भी पा रहे हैं या नहीं,’ वहीं पास खड़े एक व्यक्ति ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा.

‘क्या?’ मैं एकदम घबरा गई, ‘अपनी बेटी को नहीं पहचान रहे हैं,’ मैं दहाड़ मार कर रो पड़ी.

पापा ने अपना हाथ अचानक धीरेधीरे मेरे सिर पर रखा जैसे कह रहे हों, ‘मैं पहचानता हूं तुम को बेटी…मेरी निकी… बस, पिता होने का फर्ज नहीं निभा पाया हूं. मुझे माफ कर दो बेटी.’

बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना संतुलन बनाए रखा था. अपार स्नेह देखा मैं ने उन की आंखों में. मैं कस कर उन से लिपट गई और बोली, ‘अब घर चलो पापा. अपने से अलग नहीं होने दूंगी. 15 साल आप के बिना बिताए हैं और अब आप को 15 साल मेरे लिए जीना होगा. मुझ से जैसा बन पड़ेगा मैं करूंगी. चलेंगे न पापा…मेरी खुशी के लिए…अपनी निकी की खुशी के लिए.’

पापा अपनी सूनी आंखों से मुझे एकटक देखते रहे. पापा ने धीरे से सिर हिलाया. संदीप को अपने पास खींच कर बड़ी कातर निगाहों से देखते रहे जैसे धन्यवाद दे रहे हों.

उन्होंने फिर मेरे चेहरे को छुआ. मुझे लगा जैसे मेरा सारा वजूद सिमट कर उन की हथेली में सिमट गया हो. उन की समस्त वेदना आंखों से बह निकली. उन की अतिभावुकता ने मुझे और भी कमजोर बना दिया.

‘आप लाचार नहीं हैं पापा. मैं हूं आप के साथ…आप की माला का ही तो मनका हूं,’ मुझे एकाएक न जाने क्या हुआ कि मैं उन से चिपक गई. आंखें बंद करते ही मुझे एक पुराना भूला बिसरा गीत याद आने लगा :

‘सात समंदर पार से, गुडि़यों के बाजार से, गुडि़या चाहे ना? लाना…पापा जल्दी आ जाना.’

Father’s Day Special: पापा जल्दी आ जाना- भाग 3

धीरेधीरे उन के संबंध बद से बदतर होते गए. वे एकदूसरे से बात भी नहीं करते थे. मुझे पापा से सहानुभूति थी. पापा को अपने व्यक्तित्व का अपमान बरदाश्त नहीं हुआ और उस दिन के बाद वह तिरस्कार सहतेसहते एकदम अंतर्मुखी हो गए. मम्मी का स्वभाव उन के प्रति और भी ज्यादा अन्यायपूर्ण हो गया. एक अनजान व्यक्ति की तरह वह घर में आते और चले जाते. अपने ही घर में वह उपेक्षित और दयनीय हो कर रह गए थे.

मुझे धीरेधीरे यह समझ में आने लगा कि पापा, मम्मी के तानों से परेशान थे और इन्हीं हालात में वह जीतेमरते रहे. किंतु मम्मी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा. उन का पहले की ही तरह किटी पार्टी, फोन पर घंटों बातें, सजसंवर कर आनाजाना बदस्तूर जारी रहा. किंतु शाम को पापा के आते ही माहौल एकदम गंभीर हो जाता.

एक दिन वही हुआ जिस का मुझे डर था. पापा शाम को दफ्तर से आए. चेहरे से परेशान और थोड़ा गुस्से में थे. पापा ने मुझे अपने कमरे में जाने के लिए कह कर मम्मी से पूछा, ‘तुम बाहर गई थीं क्या…मैं फोन करता रहा था?’

‘इतना परेशान क्यों होते हो. मैं ने तुम्हें पहले भी बताया था कि मैं आजाद विचारों की हूं. मुझे तुम से पूछ कर जाने की जरूरत नहीं है.’

‘तुम मेरी बात का उत्तर दो…’ पापा का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज था. पापा के गरम तेवर देख कर मम्मी बोलीं, ‘एक सहेली के साथ घूमने गई थी.’

‘यही है तुम्हारी सहेली,’ कहते हुए पापा ने एक फोटो निकाल कर दिखाया जिस में वह मनोज अंकल के साथ उन का हाथ पकड़े घूम रही थीं. मम्मी फोटो देखते ही बुरी तरह घबरा गईं पर बात बदलने में वह माहिर थीं.

‘तो तुम आफिस जाने के बाद मेरी जासूसी करते रहते हो.’

‘मुझे कोई शौक नहीं है. वह तो मेरा एक दोस्त वहां घूम रहा था. मुझे चिढ़ाने के लिए उस ने तुम्हारा फोटो खींच लिया…बस, यही दिन रह गया था देखने को…मैं साफसाफ कह देता हूं, मैं यह सब नहीं होने दूंगा.’

‘तो क्या कर लोगे तुम…’

‘मैं क्या कर सकता हूं यह बात तुम छोड़ो पर तुम्हारी इन गतिविधियों और आजाद विचारों का निकी पर क्या प्रभाव पड़ेगा कभी इस पर भी सोचा है. तुम्हें यही सब करना है तो कहीं और जा कर रहो, समझीं.’

‘क्यों, मैं क्यों जाऊं. यहां जो कुछ भी है मेरे घर वालों का दिया हुआ है. जाना है तो तुम जाओगे मैं नहीं. यहां रहना है तो ठीक से रहो.’

और उसी गरमागरमी में पापा ने अपना सूटकेस उठाया और बाहर जाने लगे. मैं पीछेपीछे पापा के पास भागी और धीरे से कहा, ‘पापा.’

वह एक क्षण के लिए रुके. मेरे सिर पर हाथ फेर कर मेरी तरफ देखा. उन की आंखों में आंसू थे. भारी मन और उदास चेहरा लिए वह वहां से चले गए. मैं उन्हें रोकना चाहती थी, पर मम्मी का स्वभाव और आंखें देख कर मैं डर गई. मेरे बचपन की शोखी और नटखटपन भी उस दिन उन के साथ ही चला गया. मैं सारा समय उन के वियोग में तड़पती रही और कर भी क्या सकती थी. मेरे अपने पापा मुझ से दूर चले गए.

एक दिन मैं ने पापा को स्कूल की पार्किंग में इंतजार करते पाया. बस से उतरते ही मैं ने उन्हें देख लिया था. मैं उन से लिपट कर बहुत रोई और पापा से कहा कि मैं उन के बिना नहीं रह सकती. मम्मी को पता नहीं कैसे इस बात का पता चल गया. उस दिन के बाद वह ही स्कूल लेने और छोड़ने जातीं. बातोंबातों में मुझे उन्होंने कई बार जतला दिया कि मेरी सुरक्षा को ले कर वह चिंतित रहती हैं. सच यह था कि वह चाहती ही नहीं थीं कि पापा मुझ से मिलें.

मम्मी ने घर पर ही मुझे ट्यूटर लगवा दिया ताकि वह यह सिद्ध कर सकें कि पापा से बिछुड़ने का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो मम्मी ने मुझे होस्टल में डालने का फैसला किया.

इस से पहले कि मैं बोर्डिंग स्कूल में जाती, पता चला कि पापा से मिलवाने मम्मी मुझे कोर्ट ले जा रही हैं. मैं नहीं जानती थी कि वहां क्या होने वाला है, पर इतना अवश्य था कि मैं वहां पापा से मिल सकती हूं. मैं बहुत खुश हुई. मैं ने सोचा इस बार पापा से जरूर मम्मी की जी भर कर शिकायत करूंगी. मुझे क्या पता था कि पापा से यह मेरी आखिरी मुलाकात होगी.

मैं पापा को ठीक से देख भी न पाई कि अलग कर दी गई. मेरा छोटा सा हराभरा संसार उजड़ गया और एक बेनाम सा दर्द कलेजे में बर्फ बन कर जम गया. मम्मी के भीतर की मानवता और नैतिकता शायद दोनों ही मर चुकी थीं. इसीलिए वह कानूनन उन से अलग हो गईं.

धीरेधीरे मैं ने स्वयं को समझा लिया कि पापा अब मुझे कभी नहीं मिलेंगे. उन की यादें समय के साथ धुंधली तो पड़ गईं पर मिटी नहीं. मैं ने महसूस कर लिया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्यारी थी. रहरह कर मन में एक टीस सी उठती थी और मैं उसे भीतर ही भीतर दफन कर लेती.

पढ़ाई समाप्त होने के बाद मैं ने एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर ली. वहीं पर मेरी मुलाकात संदीप से हुई, जो जल्दी ही शादी में तबदील हो गई. संदीप मेरे अंत:स्थल में बैठे दुख को जानते थे. उन्होंने मेरे मन पर पड़े भावों को समझने की कोशिश की तथा आश्वासन भी दिया कि जो कुछ भी उन से बन पड़ेगा, करेंगे.

हम दोनों ने पापा को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया पर उन का कुछ पता न चल सका. मेरे सोचने के सारे रास्ते आगे जा कर बंद हो चुके थे. मैं ने अब सबकुछ समय पर छोड़ दिया था कि शायद ऐसा कोई संयोग हो जाए कि मैं पापा को पुन: इस जन्म में देख सकूं.

पापा के लिए- भाग 3: सौतेली बेटी का त्याग

तभी इतनी देर से विचारों की कशमकश में हिचकोले सी खाती मैं ने, उन की बात बीच में काटते हुए कहा, ‘‘नहीं मम्मी, हम सब को, पूरे परिवार को आप की बहुत जरूरत है. पापा को किडनी मैं दूंगी और कोई नहीं.’’

मेरी बात सुन कर मम्मी एकदम चीख कर ऐसे बोलीं, मानो बरसों का आक्रोश आज एकसाथ लावा बन कर फूट पड़ा हो, ‘‘दिमाग तो सही है तेरा नेहा. उस आदमी के लिए अपना जीवन दांव पर लगा रही है, जिस ने तुझे कभी अपना माना ही नहीं, जिस ने कभी दो बोल प्यार के नहीं बोले तुझ से… तू उसे अपने शरीर की इतनी कीमती चीज दे रही है… नहीं, कभी नहीं, यह बेवकूफी मैं तुझे नहीं करने दूंगी मेरी बच्ची, कभी नहीं. अभी तेरे सामने पूरा जीवन पड़ा है. पराए घर की अमानत है तू. अरे, जिन बच्चों पर वे अपना सर्वस्व लुटाते रहे, वे करें यह सब. अमन का फर्ज बनता है यह सब करने का, तेरा नहीं. तू ही है सिर्फ क्या उन के लिए.’’

‘‘मैं उन के लिए चाहे कुछ न हूं लेकिन मेरे लिए वे बहुत कुछ हैं. मैं ने तो दिल से उन्हें अपना पापा माना है मम्मी. मैं अपने पापा के लिए कुछ भी कर सकती हूं और फिर मम्मी, प्यार का प्रतिकार प्यार ही हो, यह कोई जरूरी तो नहीं.’’

मम्मी मुझे हैरत से देखती रह गई थीं. उन का पूरा चेहरा आंसुओं से भीग गया था. शायद सोच रही थीं – काश, इस बेटी के दिल को भी पढ़ा होता उन्होंने कभी. इस बेटी को भी गले लगाया होता कभी. अपने दोनों बच्चों की तरह कभी इस की भी पढ़ाई, होमवर्क और ऐग्जाम्स की फिक्र की होती. कभी डांटा होता, तो कभी पुचकारा होता इसे भी. कभी झिड़का होता तो कभी समझाया होता इसे भी. मगर उन्होंने तो कभी इसे नजर भर देखा तक नहीं और यह है कि…

और फिर किसी की भी नहीं सुनी मैं ने. पापा ने भले न बनाया हो, मैं ने अपनी एक किडनी दे कर उन्हें अपने शरीर का एक हिस्सा बना ही लिया. दोनों को हौस्पिटल से एक ही दिन डिस्चार्ज किया गया. मैं गाड़ी में कनखियों से बराबर देख रही थी कि पापा बराबर मुझे ही देख रहे थे. उन की आंखों में आंसू थे. कुछ कहना चाह रहे थे, मगर कह नहीं पा रहे थे. ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे उन के दिल के अनकहे शब्द मेरे दिल को स्नेह की तपिश से सहला रहे हों, जिस से बरसों से किया मेरे प्रति उन का अन्याय शीशा बन कर पिघला जा रहा हो.

घर आने के भी कई दिनों बाद एक दिन अचानक वे मेरे कमरे में आए. मुझे तो अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. आज तक वो मेरे इतने करीब, वे भी अकेले में आए भी तो नहीं थे और आज वे मेरे करीब, बिलकुल मेरे करीब. मेरे बैड पर बैठ गए थे. मैं ने उन की तरफ देखा. वे उदासी भरी, दर्दभरी, आंसुओं भरी आंखों से मुझे देख रहे थे. मैं भी देखती ही रही उन्हें… अपने पापा को. मुझे तो अब तक कि जिंदगी का एक दिन भी या यह कहूं कि एक लमहा भी याद नहीं, जब उन्होंने मुझे देखा भी हो. आंखों ही आंखों में उन्होंने बहुत कुछ कह दिया और बहुत कुछ मैं ने सुन लिया. मुझे लगा कि अगर एक शब्द भी उन्होंने जबानी बोला तो अपने आंसुओं के वेग को न मैं थाम सकूंगी और शायद न वे. भरभरा कर बस गिर ही पड़ूंगी अपने पापा की गोद में, जिस के लिए मैं अतृप्त सी न जाने कब से तरस रही थी. फड़फड़ाए ही थे उन के होंठ कुछ कहने को कि तड़प कर उन के हाथ पर अपना हाथ रख दिया मैं ने. बोली ‘‘न पापा न, कुछ मत कहना. मैं ने कोई बड़ा काम नहीं किया है. बस अपने पापा के लिए अपना छोटा सा फर्ज निभाया है.’’

अंतत: रोक ही नहीं सकी खुद को, रो ही पड़ी फूटफूट कर. पापा भी रो पड़े जोर से. उन्होंने मुझे अपने से लिपटा लिया, ‘‘मुझे माफ कर दे मेरी बच्ची… माफ कर दे अपने इस गंदे से पापा को… बेटी है मेरी तू तो, दुनिया की सब से अच्छी बेटी है तू तो.’’

जिन लफ्जों और जिस स्नेह से मैं अब तक अपने ख्वाबों में ही रूबरू होती रही थी, आज हकीकत बन कर मेरे सामने आया था. इन पलों ने सब कुछ दे दिया था मुझे. बरसों के गिलेशिकवे आंसुओं के प्रवाह में बह गए थे. तभी पापा को देख कर मम्मी भी वहीं आ गईं तो उन्होंने मम्मी को भी अपने गले से लगाते हुए कहा, ‘‘तुम दोनों के साथ मैं ने बहुत अन्याय किया है, अतीत की यादों में इतना उलझा रहा कि वर्तमान के इतने खूबसूरत साथ और रिश्ते को नकारता रहा. मुझे माफ कर दो तुम दोनों… मुझे माफ कर दो…’’

बरसों बाद ही सही, यह परिवार आज मेरा भी हो गया था. मम्मी की भी आंखें खुशी से भीग गई थीं.

उस के बाद तो जैसे मेरी जिंदगी ही बदल गई. पापा ने मुझे और अमन दोनों को एकसाथ एम.बी.ए. में ऐडमिशन दिला दिया था. वे चाहते थे कि अब हम दोनों भाईबहन नई सोच और नई तकनीक से उन की कंपनी को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा दें. अमन का तो मुझे पता नहीं, लेकिन मैं अपने पापा के लिए कुछ भी करूंगी…

Father’s Day Special -हमारी अमृता- भाग 2: क्या अमृता को पापा का प्यार मिला?

वीना ने यह देखा तो खुशी से फूली न समाईं. अमर भी सोचने लगे कि यह विक्षिप्त लड़की कभीकभी इतनी समझ-दार कैसे लगने लगती है.

अमृता ने जब से किशोरावस्था में प्रवेश किया था वीना उसे ले कर बहुत चिंतित रहती थीं. अब उन का घर से बाहर  आनाजाना बहुत कम हो गया था. नौकरों के भरोसे उसे छोड़ कर कहीं जाने का दिल नहीं करता. न जाने क्यों, आजकल उन्हें ऐसा महसूस होने लगा था कि अमृता को भी कुछ सिखाना चाहिए. थोड़ा व्यस्त रहने से उस में कुछ सुधार आएगा.

एक दिन घर के लिए जरूरी सामान लाना था. उस दिन कविता कालिज नहीं गई थी. वीना ने कविता को अमृता का खयाल रखने के लिए कहा और खुद बाजार चली गईं.

परदे एवं कुशन खरीद कर जब वह बिल का भुगतान करने लगीं तो पीछे से किसी ने उन के कंधे पर हाथ रख कर आवाज दी, ‘‘वीना…’’ वीना ने पलट कर देखा, कालिज के समय की सहेली ऋतु खड़ी थी. उसे देख कर वह खुशी से पागल हो गईं. भुगतान करना भूल कर बोलीं, ‘‘अरे ऋतु, तू यहां कैसे?’’

‘‘अभी 2 महीने पहले मुझे यहां नौकरी मिली है इसलिए मैं इस शहर में आई हूं. तू भी यहीं है, मुझे मालूम ही न था.’’

‘‘चल ऋतु, किसी रेस्टोरेंट में बैठ कर चाय पीते हैं और पुराने दिनों की याद फिर से ताजा करते हैं.’’

‘‘वीना, क्या तू मुझे अपने घर बुलाना नहीं चाहती? चाय तो पिएंगे पर रेस्टोरेंट में नहीं तेरे घर में. अरे हां, पहले तू बिल का भुगतान तो कर दे,’’ ऋतु बोली.

वीना बिल का भुगतान करने के बाद ऋतु को ले कर घर आ गईं. कविता अमृता को ले कर ड्राइंगरूम में बैठी थी. वह उसे टीवी दिखा कर कुछ समझाने का प्रयास कर रही थी. अपनी बेटियों का परिचय उस ने ऋतु से कराया. कविता ने दोनों हाथ जोड़ कर ऋतु को नमस्ते की किंतु अमृता अजीब सा चेहरा बना कर अंदर भाग गई. ऋतु की अनुभवी आंखों से उस की मानसिक अपंगता छिपी नहीं रही. फिर भी हलकेफुलके अंदाज में बोली, ‘‘वीना, तेरी 2 बेटियां हैं.’’

वीना बोली, ‘‘2 नहीं 3 हैं. मझली बेटी वनिता कालिज गई है,’’ वीना ने बताया.

इस पर ऋतु तारीफ के अंदाज में बोली, ‘‘तेरी दोनों बेटियां तो बहुत सुंदर हैं, तीसरी कैसी है वह तो उस के आने पर ही पता चलेगा.’’

बच्चों की चर्चा छिड़ी तो मानो वीना की दुखती रग पर किसी ने हाथ रख दिया हो. वह बोलीं, ‘‘सिर्फ खूबसूरती से क्या होता है, कुदरत ने मेरी अमृता को अधूरा बना कर भेजा है.’’

‘‘तू दुखी मत हो, सिर्फ तेरे ही नहीं, ऐसे और भी कई बच्चे हैं. मैं मतिमंद बच्चों की ही टीचर हूं और यहां मतिमंद बच्चों के स्कूल में मुझे नौकरी मिली है. तू कल से ही अमृता को वहां भेज दे. उस का भी मन लग जाएगा और तेरी चिंता भी कम होगी.’’

वीना को तो मानो बिन मांगे मोती मिल गया. वह भी कई दिनों से अमृता के लिए ऐसे ही किसी अवसर की तलाश में थी. ऋतु के कहने पर दूसरे ही दिन अमृता का एडमिशन वहां करवा दिया. जब वह एडमिशन के लिए स्कूल पहुंची तो वीना ने कई बच्चों को अमृता से भी खराब स्थिति में देखा, तब उन्हें लगा कि मेरी बच्ची अमृता काफी अच्छी है.

अब वीना की रोज की दिनचर्या में परिवर्तन आ गया. अमृता को स्कूल छोड़ने और वहां से लाने का काम जो बढ़ गया था. थोड़े दिन तक अमृता स्कूल में रोती थी, सामान फेंकने लगती थी, पर धीरेधीरे वह वहां ठीक से बैठने लगी. ऋतु उस का पूरा ध्यान रखती थी.

इस विद्यालय में बच्चों की योग्यता- नुसार उन से काम करवाया जाता था. हर बच्चा मतिमंद होने पर भी कुछ न कुछ सीखने का प्रयास जरूर करता है और यदि उस में लगन हुई तो कुछ अच्छा कर के भी दिखाता है.

ऋतु ने देखा अमृता चित्र बनाने का प्रयास कर लेती है. उस ने वीना को चित्रकला का सामान लाने को कहा. ऋतु ने उसे समझाया कि अमृता को बंद कमरों में न रख कर कभीकभी खुली हवा में बगीचों में घुमाया जाए. झील के किनारे, पर्वतों के पास, रंगबिरंगे फूलों के करीब ले जाया जाए ताकि उस के अंदर की प्रतिभा सामने आए. प्रकृति से प्रेरणा ले कर वह कुछ बनाने का प्रयास करेगी.

वह समय ऐसा था कि वीना ने अमृता को अपनी दुनिया बना लिया. हर समय वह उस के साथ रहतीं, मानो वह अमृता को उस के जीवन के इतने निरर्थक वर्ष लौटाने का प्रयास कर रही थीं. उन की मेहनत रंग लाई. कागज पर अमृता द्वारा बनाए गए पर्वत, झील और फूल सजीव लगते थे. रंगों का संयोजन एवं आकृति की सुदृढ़ता न होने पर भी चित्रों में अद्भुत जीवंतता दिखाई पड़ती थी.

Father’s Day Special: पापा जल्दी आ जाना- भाग 2

मम्मी स्वभाव से ही गरम एवं तीखी थीं. दोनों की बातें होतीं तो मम्मी का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज हो जाता और पापा का धीमा होतेहोते शांत हो जाता. फिर दोनों अलगअलग कमरों में चले जाते. सुबह तैयार हो कर मैं पापा के साथ बस स्टाप तक जाना चाहती थी पर मम्मी मुझे घसीटते हुए ले जातीं. मैं पापा को याचना भरी नजरों से देखती तो वह धीमे से हाथ हिला पाते, जबरन ओढ़ी हुई मुसकान के साथ.

मैं जब भी स्कूल से आती मम्मी अपनी सहेलियों के साथ ताश और किटी पार्टी में व्यस्त होतीं और कभी व्यस्त न होतीं तो टेलीफोन पर बात करने में लगी रहतीं. एक बार मैं होमवर्क करते हुए कुछ पूछने के लिए मम्मी के कमरे में चली गई थी तो मुझे देखते ही वह बरस पड़ीं और दरवाजे पर दस्तक दे कर आने की हिदायत दे डाली. अपने ही घर में मैं पराई हो कर रह गई थी.

एक दिन स्कूल से आई तो देखा मम्मी किसी अंकल से ड्राइंगरूम में बैठी हंसहंस कर बातें कर रही थीं. मेरे आते ही वे दोनों खामोश हो गए. मुझे बहुत अटपटा सा लगा. मैं अपने कमरे में जाने लगी तो मम्मी ने जोर से कहा, ‘निकी, कहां जा रही हो. हैलो कहो अंकल को. चाचाजी हैं तुम्हारे.’

मैं ने धीरे से हैलो कहा और अपने कमरे में चली गई. मैं ने उन को इस से पहले कभी नहीं देखा था. थोड़ी देर में मम्मी ने मुझे बुलाया.

‘निकी, जल्दी से फे्रश हो कर आओ. अंकल खाने पर इंतजार कर रहे हैं.’

मैं टेबल पर आ गई. मुझे देखते ही मम्मी बोलीं, ‘निकी, कपड़े कौन बदलेगा?’

‘ममा, आया किचन से नहीं आई फिर मुझे पता नहीं कौन से…’

‘तुम कपड़े खुद नहीं बदल सकतीं क्या. अब तुम बड़ी हो गई हो. अपना काम खुद करना सीखो,’ मेरी समझ में नहीं आया कि एक दिन में मैं बड़ी कैसे हो गई हूं.

‘चलो, अब खाना खा लो.’

मम्मी अंकल की प्लेट में जबरदस्ती खाना डाल कर खाने का आग्रह करतीं और मुसकरा कर बातें भी कर रही थीं. मैं उन दोनों को भेद भरी नजरों से देखती रही तो मम्मी ने मेरी तरफ कठोर निगाहों से देखा. मैं समझ चुकी थी कि मुझे अपना खाना खुद ही परोसना पड़ेगा. मैं ने अपनी प्लेट में खाना डाला और अपने कमरे में जाने लगी. हमारे घर पर जब भी कोई आता था मुझे अपने कमरे में भेज दिया जाता था. मैं टीवी देखतेदेखते खाना खाती रहती थी.

‘वहां नहीं बेटा, अंकल वहां आराम करेंगे.’

‘मम्मी, प्लीज. बस एक कार्टून…’ मैं ने याचना भरी नजर से उन्हें देखा.

‘कहा न, नहीं,’ मम्मी ने डांटते हुए कहा, जो मुझे अच्छा नहीं लगा.

खाने के बाद अंकल उस कमरे में चले गए तथा मैं और मम्मी दूसरे कमरे में. जब मैं सो कर उठी, मम्मी अंकल के पास चाय ले जा रही थीं. अंकल का इस तरह पापा के कमरे में सोना मुझे अच्छा नहीं लगा. जाने से पहले अंकल ने मुझे ढेर सारी मेरी मनपसंद चाकलेट दीं. मेरी पसंद की चाकलेट का अंकल को कैसे पता चला, यह एक भेद था.

वक्त बीतता गया. अंकल का हमारे घर आनाजाना अनवरत जारी रहा. जिस दिन भी अंकल हमारे घर आते मम्मी उन के ज्यादा करीब हो जातीं और मुझ से दूर. मैं अब तक इस बात को जान चुकी थी कि मम्मी और अंकल को मेरा उन के आसपास रहना अच्छा नहीं लगता था.

एक दिन पापा आफिस से जल्दी आ गए. मैं टीवी पर कार्टून देख रही थी. पापा को आफिस के काम से टूर पर जाना था. वह दवा बनाने वाली कंपनी में सेल्स मैनेजर थे. आते ही उन्होंने पूछा, ‘मम्मी कहां हैं.’

‘बाहर गई हैं, अंकल के साथ… थोड़ी देर में आ जाएंगी.’

‘कौन अंकल, तुम्हारे मामाजी?’ उत्सुकतावश उन्होंने पूछा.

‘मामाजी नहीं, चाचाजी…’

‘चाचाजी? राहुल आया है क्या?’ पापा ने बाथरूम में फे्रश होते हुए पूछा.

‘नहीं. राहुल चाचाजी नहीं कोई और अंकल हैं…मैं नाम नहीं जानती पर कभी- कभी आते रहते हैं,’ मैं ने भोलेपन से कहा.

‘अच्छा,’ कह कर पापा चुप हो गए और अपने कमरे में जा कर तैयारी करने लगे. मैं पापा के पास पानी ले कर आ गई. जिस दिन पापा मेरे सामने जाते मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं उन के आसपास घूमती रहती थी.

‘पापा, कहां जा रहे हो,’ मैं उदास हो गई, ‘कब तक आओगे?’

‘कोलकाता जा रहा हूं मेरी गुडि़या. लगभग 10 दिन तो लग ही जाएंगे.’

‘मेरे लिए क्या लाओगे?’ मैं ने पापा के गले में पीछे से बांहें डालते हुए पूछा.

‘क्या चाहिए मेरी निकी को?’ पापा ने पैकिंग छोड़ कर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा. मैं क्या कहती. फिर उदास हो कर कहा, ‘आप जल्दी आ जाना पापा… रोज फोन करना.’

‘हां, बेटा. मैं रोज फोन करूंगा, तुम उदास नहीं होना,’ कहतेकहते मुझे गोदी में उठा कर वह ड्राइंगरूम में आ गए.

तब तक मम्मी भी आ चुकी थीं. आते ही उन्होंने पूछा, ‘कब आए?’

‘तुम कहां गई थीं?’ पापा ने सीधे सवाल पूछा.

‘क्यों, तुम से पूछे बिना कहीं नहीं जा सकती क्या?’ मम्मी ने तल्ख लहजे में कहा.

‘तुम्हारे साथ और कौन था? निकिता बता रही थी कि कोई चाचाजी आए हैं?’

‘हां, मनोज आया था,’ फिर मेरी तरफ देखती हुई बोलीं, ‘तुम जाओ यहां से,’ कह कर मेरी बांह पकड़ कर कमरे से निकाल दिया जैसे चाचाजी के बारे में बता कर मैं ने उन का कोई भेद खोल दिया हो.

‘कौन मनोज, मैं तो इस को नहीं जानता.’

‘तुम जानोगे भी तो कैसे. घर पर रहो तो तुम्हें पता चले.’

‘कमाल है,’ पापा तुनक कर बोले, ‘मैं ही अपने भाई को नहीं पहचानूंगा…यह मनोज पहले भी यहां आता था क्या? तुम ने तो कभी बताया नहीं.’

‘तुम मेरे सभी दोस्तों और घर वालों को जानते हो क्या?’

‘तुम्हारे घर वाले गुडि़या के चाचाजी कैसे हो गए. शायद चाचाजी कहने से तुम्हारे संबंधों पर आंच नहीं आएगी. निकिता अब बड़ी हो रही है, लोग पूछेंगे तो बात दबी रहेगी…क्यों?’

और तब तक उन के बेडरूम का दरवाजा बंद हो गया. उस दिन अंदर क्याक्या बातें होती रहीं, यह तो पता नहीं पर पापा कोलकाता नहीं गए.

खेल: दिव्या ने मेरे साथ कैसा खेल खेला

आज से 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम्हारा फोन आया था तब भी मैं नहीं समझ पाया था कि तुम खेल खेलने में इतनी प्रवीण होगी या खेल खेलना तुम्हें बहुत अच्छा लगता होगा. मैं अपनी बात बताऊं तो वौलीबौल छोड़ कर और कोई खेल मुझे कभी नहीं आया. यहां तक कि बचपन में गुल्लीडंडा, आइसपाइस या चोरसिपाही में मैं बहुत फिसड्डी माना जाता था. फिर अन्य खेलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कुश्ती, क्रिकेट, हौकी, कूद, अखाड़ा आदि. वौलीबौल भी सिर्फ 3 साल स्कूल के दिनों में छठीं, 7वीं और 8वीं में था, देवीपाटन जूनियर हाईस्कूल में. उन दिनों स्कूल में नईनई अंतर्क्षेत्रीय वौलीबौल प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ था और पता नहीं कैसे मुझे स्कूल की टीम के लिए चुन लिया गया और उस टीम में मैं 3 साल रहा. आगे चल कर पत्रकारिता में खेलों का अपना शौक मैं ने खूब निकाला. मेरा खयाल है कि खेलों पर मैं ने जितने लेख लिखे, उतने किसी और विषय पर नहीं. तकरीबन सारे ही खेलों पर मेरी कलम चली. ऐसी चली कि पाठकों के साथ अखबारों के लोग भी मुझे कोई औलराउंडर खेलविशेषज्ञ समझते थे.

पर तुम तो मुझ से भी बड़ी खेल विशेषज्ञा निकली. तुम्हें रिश्तों का खेल खेलने में महारत हासिल है. 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम ने फोन किया था तो मैं किसी कन्या की आवाज सुन कर अतिरिक्त सावधान हो गया था. ‘हैलो सर, मेरा नाम दिव्या है, दिव्या शाह. अहमदाबाद से बोल रही हूं. आप का लिखा हुआ हमेशा पढ़ती रहती हूं.’

‘जी, दिव्याजी, नमस्कार, मुझे बहुत अच्छा लगा आप से बात कर. कहिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं.’ जी सर, सेवावेवा कुछ नहीं. मैं आप की फैन हूं. मैं ने फेसबुक से आप का नंबर निकाला. मेरा मन हुआ कि आप से बात की जाए.

‘थैंक्यूजी. आप क्या करती हैं, दिव्याजी?’ ‘सर, मैं कुछ नहीं करती. नौकरी खोज रही हूं. वैसे मैं ने एमए किया है समाजशास्त्र में. मेरी रुचि साहित्य में है.’

‘दिव्याजी, बहुत अच्छा लगा. हम लोग बात करते रहेंगे,’ यह कह कर मैं ने फोन काट दिया. मुझे फोन पर तुम्हारी आवाज की गर्मजोशी, तुम्हारी बात करने की शैली बहुत अच्छी लगी. पर मैं लड़कियों, महिलाओं के मामले में थोड़ा संकोची हूं. डरपोक भी कह सकते हैं. उस का कारण यह है कि मुझे थोड़ा डर भी लगा रहता है कि क्या मालूम कब, कौन मेरी लोकप्रियता से जल कर स्टिंग औपरेशन पर न उतर आए. इसलिए एक सीमा के बाद मैं लड़कियों व महिलाओं से थोड़ी दूरी बना कर चलता हूं.

पर तुम्हारी आवाज की आत्मीयता से मेरे सारे सिद्धांत ढह गए. दूरी बना कर चलने की सोच पर ताला पड़ गया. उस दिन के बाद तुम से अकसर फोन पर बातें होने लगीं. दुनियाजहान की बातें. साहित्य और समाज की बातें. उसी दौरान तुम ने अपने नाना के बारे में बताया था. तुम्हारे नानाजी द्वारका में कोई बहुत बड़े महंत थे. तुम्हारा उन से इमोशनल लगाव था. तुम्हारी बातें मेरे लिए मदहोश होतीं. उम्र में खासा अंतर होने के बावजूद मैं तुम्हारी ओर आकर्षित होने लगा था. यह आत्मिक आकर्षण था. दोस्ती का आकर्षण. तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मिस्री सरीखी घुलती. तुम बोलती तो मानो दिल में घंटियां बज रही हैं. तुम्हारी हंसी संगमरमर पर बारिश की बूंदों के माध्यम से बजती जलतरंग सरीखी होती. उस के बाद जब मैं अगली बार अपने गृहनगर गांधीनगर गया तो अहमदाबाद स्टेशन पर मेरीतुम्हारी पहली मुलाकात हुई. स्टेशन के सामने का आटो स्टैंड हमारी पहली मुलाकात का मीटिंग पौइंट बना. उसी के पास स्थित चाय की एक टपरी पर हम ने चाय पी. बहुत रद्दी चाय, पर तुम्हारे साथ की वजह से खुशनुमा लग रही थी. वैसे मैं बहुत थका हुआ था. दिल्ली से अहमदाबाद तक के सफर की थकान थी, पर तुम से मिलने के बाद सारी थकान उतर गई. मैं तरोताजा हो गया. मैं ने जैसा सोचा समझा था तुम बिलकुल वैसी ही थी. एकदम सीधीसादी. प्यारी, गुडि़या सरीखी. जैसे मेरे अपने घर की. एकदम मन के करीब की लड़की. मासूम सा ड्रैस सैंस, उस से भी मासूम हावभाव. किशमिशी रंग का सूट. मैचिंग छोटा सा पर्स. खूबसूरत डिजाइन की चप्पलें. ऊपर से भीने सेंट की फुहार. सचमुच दिलकश. मैं एकटक तुम्हें देखता रह गया. आमनेसामने की मुलाकात में तुम बहुत संकोची और खुद्दार महसूस हुई.

कुछ महीने बाद हुई दूसरी मुलाकात में तुम ने बहुत संकोच से कहा कि सर, मेरे लिए यहीं अहमदाबाद में किसी नौकरी का इंतजाम करवाइए. मैं ने बोल तो जरूर दिया, पर मैं सोचता रहा कि इतनी कम उम्र में तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है? तुम्हारी घरेलू स्थिति क्या है? इस तरह कौन मां अपनी कम उम्र की बिटिया को नौकरी करने शहर भेज सकती है? कई सवाल मेरे मन में आते रहे, मैं तुम से उन का जवाब नहीं मांग पाया. सवाल सवाल होते हैं और जवाब जवाब. जब सवाल पसंद आने वाले न हों तो कौन उन का जवाब देना चाहेगा. वैसे मैं ने हाल में तुम से कई सवाल पूछे पर मुझे एक का भी उत्तर नहीं मिला. आज 20 अगस्त को जब मुझे तुम्हारा सारा खेल समझ में आया है तो फिर कटु सवाल कर के क्यों तुम्हें परेशान करूं.

मेरे मन में तुम्हारी छवि आज भी एक जहीन, संवेदनशील, बुद्धिमान लड़की की है. यह छवि तब बनी जब पहली बार तुम से बात हुई थी. फिर हमारे बीच लगातार बातों से इस छवि में इजाफा हुआ. जब हमारी पहली मुलाकात हुई तो यह छवि मजबूत हो गई. हालांकि मैं तुम्हारे लिए चाह कर भी कुछ कर नहीं पाया. कोशिश मैं ने बहुत की पर सफलता नहीं मिली. दूसरी पारी में मैं ने अपनी असफलता को जब सफलता में बदलने का फैसला किया तो मुझे तुम्हारी तरफ से सहयोग नहीं मिला. बस, मैं यही चाहता था कि तुम्हारे प्यार को न समझ पाने की जो गलती मुझ से हुई थी उस का प्रायश्चित्त यही है कि अब मैं तुम्हारी जिंदगी को ढर्रे पर लाऊं. इस में जो तुम्हारा साथ चाहिए वह मुझे प्राप्त नहीं हुआ.

बहरहाल, 25 जुलाई को तुम फिर मेरी जिंदगी में एक नए रूप में आ गई. अचानक, धड़धड़ाते हुए. तेजी से. सुपरसोनिक स्पीड से. यह दूसरी पारी बहुत हंगामाखेज रही. इस ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. मैं ठहरा भावुक इंसान. तुम ने मेरी भावनाओं की नजाकत पकड़ी और मेरे दिल में प्रवेश कर गई. मेरे जीवन में इंद्रधनुष के सभी रंग भरने लगे. मेरे ऊपर तुम्हारा नशा, तुम्हारा जादू छाने लगा. मेरी संवेदनाएं जो कहीं दबी पड़ी थीं उन्हें तुम ने हवा दी और मेरी जिंदगी फूलों सरीखी हो गई. दुनियाजहान के कसमेवादों की एक नई दुनिया खुल गई. हमारेतुम्हारे बीच की भौतिक दूरी का कोई मतलब नहीं रहा. बातों का आकाश मुहब्बत के बादलों से गुलजार होने लगा.

तुम्हारी आवाज बहुत मधुर है और तुम्हें सुर और ताल की समझ भी है. तुम जब कोई गीत, कोई गजल, कोई नगमा, कोई नज्म अपनी प्यारी आवाज में गाती तो मैं सबकुछ भूल जाता. रात और दिन का अंतर मिट गया. रानी, जानू, राजा, सोना, बाबू सरीखे शब्द फुसफुसाहटों की मदमाती जमीन पर कानों में उतर कर मिस्री घोलने लगे. उम्र का बंधन टूट गया. मैं उत्साह के सातवें आसमान पर सवार हो कर तुम्हारी हर बात मानने लगा. तुम जो कहती उसे पूरा करने लगा. मेरी दिनचर्या बदल गई. मैं सपनों के रंगीन संसार में गोते लगाने लगा. क्या कभी सपने भी सच्चे होते हैं? मेरा मानना है कि नहीं. ज्यादा तेजी किसी काम की नहीं होती. 25 जुलाई को शुरू हुई प्रेमकथा 20 अगस्त को अचानक रुक गई. मेरे सपने टूटने लगे. पर मैं ने सहनशीलता का दामन नहीं छोड़ा. मैं गंभीर हो गया था. मैं तो कोई खेल नहीं खेल रहा था. इसलिए मेरा व्यवहार पहले जैसा ही रहा. पर तुम्हारा प्रेम उपेक्षा में बदल गया. कोमल भावनाएं औपचारिक हो गईं. मेरे फोन की तुम उपेक्षा करने लगी. अपना फोन दिनदिन भर, रातभर बंद करने लगी. बातों में भी बोरियत झलकने लगी. तुम्हारा व्यवहार किसी खेल की ओर इशारा करने लगा.

इस उपेक्षा से मेरे अंदर जैसे कोई शीशा सा चटख गया, बिखर गया हो और आवाज भी नहीं हुई हो. मैं टूटे ताड़ सा झुक गया. लगा जैसे शरीर की सारी ताकत निचुड़ गई है. मैं विदेह सा हो गया हूं. डा. सुधाकर मिश्र की एक कविता याद आ गई,

इतना दर्द भरा है दिल में, सागर की सीमा घट जाए. जल का हृदय जलज बन कर जब खुशियों में खिलखिल उठता है. मिलने की अभिलाषा ले कर, भंवरे का दिल हिल उठता है. सागर को छूने शशधर की किरणें, भागभाग आती हैं, झूमझूम कर, चूमचूम कर, पता नहीं क्याक्या गाती हैं. तुम भी एक गीत यदि गा दो, आधी व्यथा मेरी घट जाए. पर तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि मेरी व्यथा कटने वाली नहीं है.

अभी जैसा तुम्हारा बरताव है, उस से लगता है कि नहीं कटेगी. यह मेरे लिए पीड़ादायक है कि मेरा सच्चा प्यार खेल का शिकार बन गया है. मैं तुम्हारी मासूमियत को प्यार करता हूं, दिव्या. पर इस प्यार को किसी खेल का शिकार नहीं बनने दे सकता. लिहाजा, मैं वापस अपनी पुरानी दुनिया में लौट रहा हूं. मुझे पता है कि मेरा मन तुम्हारे पास बारबार लौटना चाहेगा. पर मैं अपने दिल को समझा लूंगा. और हां, जिंदगी के किसी मोड़ पर अगर तुम्हें मेरी जरूरत होगी तो मुझे बेझिझक पुकारना, मैं चला आऊंगा. तुम्हारे संपर्क का तकरीबन एक महीना मुझे हमेशा याद रहेगा. अपना खयाल रखना.

कुंवारे बदन का दर्द : शबनम की टीस

जावेद ने अपनी बीवी रह चुकी शबनम को बड़े ही गौर से देखा तो हक्काबक्का रह गया. यह एक होटल था जहां सब लोग खाना खा रहे थे. तलाक के बाद तो वे दोनों एकदूसरे के लिए अजनबी थे लेकिन 5 सालों तक साथ रहने के बाद, एक ही बिस्तर पर सोने के बावजूद कैसे अजनबी रह सकते थे.

शबनम अकेले ही एक टेबल पर बैठ कर खाना खा रही थी और जावेद अलग टेबल पर. 5 सालों के बाद उन के चेहरों में कोई खास फर्क नहीं आया था.

शबनम को खातेखाते कुछ याद आया और वह खाना छोड़ कर जावेद के टेबल की तरफ बढ़ी. शायद उसे 5 साल पहले की कोई बात याद आई थी.

‘‘आप ने खाने से पहले इंसुलिन का इंजैक्शन लिया है कि नहीं?’’ शबनम ने जावेद से पूछा.

‘‘इंजैक्शन लिया है. लेकिन 5 साल तक तलाकशुदा जिंदगी गुजारने के बाद तुम्हें कैसे याद है?’’ जावेद ने पूछा.

‘‘जावेद, मैं एक औरत हूं.’’

‘‘तुम्हारे जाने के बाद, इतना मेरा किसी ने खयाल नहीं रखा,’’ जावेद ने कहा.

‘‘अगर ऐसी बात थी तो तुम ने मुझे तलाक क्यों दिया?’’

‘‘वह तो तुम जानती हो…

5 साल साथ रहने के बाद भी तुम मां नहीं बन पाई और बच्चा तो हर किसी को चाहिए.’’

‘‘अगर तुम बच्चा पैदा करने के लायक होते तो क्या मैं नहीं देती?’’ शबनम ने कहा और अपनी टेबल की तरफ बढ़ गई.

जब वे दोनों होटल से बाहर निकले तो फिर मेन गेट पर उन की मुलाकात हो गई.

‘‘चलो, कुछ दूर साथ चलते हैं,’’ जावेद ने कहा.

‘‘जिंदगीभर साथ चलने का वादा था लेकिन तुम ने ही मुझे तलाक दे कर घर से निकाल दिया,’’ शबनम बोली.

‘‘जो होना था, हो गया. अब यह बताओ कि तुम यहां आई कैसे?’’

‘‘जब तुम ने तलाक दिया तो मैं अपने मांबाप के पास गई. वे इस सदमे को बरदाश्त नहीं कर सके और 6 महीने के अंदर ही दोनों चल बसे. मैं तो उन की कब्र पर भी नहीं जा सकी क्योंकि औरतों का कब्रिस्तान में जाना सख्त मना है.

‘‘उस के बाद मैं भाई के पास रही थी. भाई तो कुछ नहीं बोलता था, लेकिन भाभी के लिए मैं बोझ बन गई थी. वह रातदिन मेरे भाई के पीछे पड़ी रहती और मुझे जलील करते हुए कहती थी कि इस की दूसरी शादी कराओ, नहीं तो किसी के साथ भाग जाएगी.

‘‘तुम नहीं जानते कि कोई मर्द तलाकशुदा औरत से शादी नहीं करता. सब को कुंआरी लड़की और कुंआरा बदन चाहिए.

‘‘भाई बहुत इधरउधर भागा, पर कहीं कोई मेरा हाथ थामने वाला नहीं मिला. आखिरकार उस ने एक बूढ़े आदमी से मेरी शादी करा दी. वह दिनभर बिस्तर पर पड़ा रहता और मैं उस की एक नर्स हूं. उसे समय से दवा देना, खाना खिलाना या बाथरूम ले जाना, यही मेरी ड्यूटी?थी.

‘‘मुझे यह भी मालूम है कि तुम ने दूसरी शादी कर ली और तुम को दोबारा एक कुंआरी लड़की मिल गई. लेकिन मेरी जिंदगी को तो तुम ने सीधे आग की लपटों में फेंक दिया. और मैं नामुराद दूसरी शादी के बाद भी जल रही हूं.

‘‘तुम ने मुझे तलाक दे दिया और मेरे कुंआरे बदन का सारा रस निचोड़ लिया. एक औरत की जिंदगी क्या होती?है, तुम्हें मालूम नहीं है,’’ शबनम ने अपना दर्द बताया. उस की आंखों में आंसू आ गए. वह रोतेरोते पत्थर की बनी एक कुरसी पर बैठ गई.

जावेद सबकुछ एक बुत की तरह सुनता रहा और फिर अपना वही सवाल दोहराया, ‘‘तुम इस शहर में कैसे आई?’’

‘‘मेरा बूढ़ा पति बहुत बीमार है. मैं ने उसे एक अस्पताल में भरती कराया है.’’

‘‘उस की उम्र क्या है?’’ जावेद ने पूछा.

‘‘70 साल से भी ऊपर?है,’’ शबनम ने जवाब दिया.

‘‘फिर तो उम्र का बहुत फर्क है,’’ जावेद बोला.

जब शबनम वहां से उठ कर जाने लगी तो जावेद ने आगे बढ़ कर उस का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘मुझे माफ कर दो.’’

‘‘तलाक माफी मांगने से नहीं खत्म होता है. तुम ने मुझे तलाक दे कर जैसे किसी ऊंची पहाड़ी से नीचे धकेल दिया और मैं नरक में चली गई,’’ और फिर शबनम अपना हाथ छुड़ा कर वहां से चली गई.

दूसरे दिन जावेद शाम को उसी होटल के सामने शबनम का इंतजार करता रहा. वह आई और बगैर कुछ बोले ही होटल के अंदर चली गई.

जावेद पीछेपीछे गया और उस के पास बैठ गया. दोनों ने एकदूसरे को देखा और उन के बीच रस्मी बातचीत शुरू हो गई.

‘‘तुम्हारी मम्मी कैसी हैं?’’ शबनम ने पूछा.

‘‘ठीक हैं. अब वे भी काफी बूढ़ी हो चुकी हैं.’’

‘‘उन को मेरी याद तो नहीं आती होगी. मुझे 5 साल तक बच्चा नहीं हुआ तो उन्होंने मेरा तुम से तलाक करा दिया और तुम्हारी बहन जरीना को 7 साल से बच्चा नहीं हुआ तो कोई बात नहीं, क्योंकि जरीना उन की अपनी बेटी है, बहू नहीं.’’

‘‘चलो जो होना था हो गया. यह हम दोनों का नसीब था,’’ जावेद ने अफसोस जताते हुए कहा.

‘‘नसीब बनाया भी जाता है और बिगाड़ा भी जाता है. अगर औरतों की सोच गलत होती?है तो घर के मर्द एक लोहे की दीवार की तरह खड़े हो जाते हैं. वैसे, औरतें ही औरतों की दुश्मन होती हैं.’’

जावेद के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था. वह होटल की छत की तरफ देखने लगा. फिर उस ने बात को बदलते हुए कहा, ‘‘क्या मेरी मम्मी से बात करोगी?’’

‘‘हां, लगाओ फोन. मैं बात कर लेती हूं.’’

जावेद ने अपनी मां को फोन लगा कर कहा, ‘‘मम्मी, शबनम आप से बात करना चाहती है.’’

‘‘तोबातोबा, तुम अपनी तलाकशुदा औरत के साथ हो. यह हमारे मजहब के खिलाफ है. मैं उस से बात नहीं करूंगी,’’ उस की मां की आवाज स्पीकर पर शबनम को भी सुनाई दी.

‘‘जावेद, तुम उन का नंबर दो. मैं अपने मोबाइल फोन से बात करूंगी.’’

जावेद ने शबनम का मोबाइल फोन ले कर खुद ही नंबर लगा दिया. घंटी बजने लगी. उधर से आवाज आई, ‘कौन?’

‘‘मैं आप की बहू शबनम बोल रही हूं. आप ने अपने लड़के से मुझे तलाक दिलवाया, वह एकतरफा तलाक था. मेरे मांबाप को इस का इतना दुख हुआ कि वे मर गए. अब मैं तुम्हारे लड़के जावेद को ऐसा तलाक दूंगी कि वह भी तुम्हारी जिंदगी से चला जाएगा.’’

उधर से टैलीफोन कट गया, लेकिन जावेद के चेहरे पर सन्नाटा छा गया. उस ने कहा, ‘‘तुम मेरी मम्मी से क्या फालतू बात करने लगी थी…’’

शबनम ने जावेद की बात का कोई जवाब नहीं दिया.

अब भी वे दोनों कई दिनों तक रात का खाना खाने उस होटल में आए लेकिन अलगअलग टेबलों पर बैठ कर चले गए, क्योंकि रिश्ता तो टूट ही गया था और अब बातों में कड़वाहट भी आ गई थी.

एक दिन होटल में शबनम जल्दी आई, खाना खा कर बाहर पत्थर की बनी कुरसी पर बैठ गई और जावेद का इंतजार करने लगी. जावेद जब खाना खा कर निकला तो शबनम ने उसे आवाज दी, ‘‘आओ, कहीं दूर तक इन पहाड़ों में घूम कर आते हैं. मेरे बूढ़े पति की अस्पताल से छुट्टी हो गई है. मैं अब चली जाऊंगी. इस के बाद यहां नहीं मिलूंगी.’’

वे दोनों एकदूसरे के साथ गलबहियां करते हुए टाइगर हिल के पास चले आए जहां ऐसी ढलान थी कि अगर किसी का पैर फिसल जाए तो सीधे कई गहरे फुट नीचे नदी में जा गिरे.

शबनम ने साथ चलतेचलते जावेद से कहा, ‘‘मैं तुम्हारा अपने मोबाइल फोन से फोटो लेना चाहती हूं क्योंकि अब हम नहीं मिलेंगे. तुम इस ढलान पर खड़े हो जाओ ताकि पीछे पहाड़ों का सीन फोटो में अच्छा लगे.’’

जावेद मुसकराया और फोटो खिंचवाने के लिए खड़ा हो गया. शबनम उस के पास आई, मानो वह सैल्फी लेगी. तभी उस ने जावेद को जोर से धक्का दिया और चिल्लाई, ‘‘तलाक… तलाक… तलाक…’’ जावेद ढलान से गिरा, फिर नीचे नदी में न जाने कहां गुम हो गया.

हुस्न का धोखा : कैसे फंस गए सेठजी

सेठ मंगतराम अपने दफ्तर में बैठे फाइलों में खोए हुए थे, तभी फोन की घंटी बजने से उन का ध्यान टूट गया. फोन उन के सैक्रेटरी का था. उस ने बताया कि अनीता नाम की एक औरत आप से मिलना चाहती है. वह अपनेआप को दफ्तर के स्टाफ रह चुके रमेश की विधवा बताती है.

सेठ मंगतराम ने कुछ पल सोच कर कहा, ‘‘उसे अंदर भेज दो.’’

सैक्रेटरी ने अनीता को सेठ के केबिन में भेज दिया. सेठ मंगतरात अपने काम में बिजी थे कि तभी एक मीठी सी आवाज से वे चौंक पड़े. दरवाजे पर अनीता खड़ी थी. उस ने अंदर आने की इजाजत मांगी. सेठ उसे भौंचक देखते रह गए.

अनीता की न केवल आवाज मीठी थी, बल्कि उस की कदकाठी, रंगरूप, सलीका सभी अव्वल दर्जे का था.

सेठ मंगतराम ने अनीता को बैठने को कहा और आने की वजह पूछी. अनीता ने उदास सूरत बना कर कहा, ‘‘मेरे पति आप की कंपनी में काम करते थे. मैं उन की विधवा हूं. मेरी रोजीरोटी का कोई ठिकाना नहीं है. अगर कुछ काम मिल जाए, तो आप की मेहरबानी होगी.’’

सेठ मंगतराम ने साफ मना कर दिया. अनीता मिन्नतें करने लगी कि वह कोई भी काम कर लेगी.

सेठ ने पूछा, ‘‘कहां तक पढ़ी हो?’’

यह सुन कर अनीता ने अपना सिर झुका लिया.

सेठ मंगतराम ने कहा, ‘‘मेरा काम सर्राफ का है, जिस में हर रोज करोड़ों रुपए का लेनदेन होता है. मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि तुम्हें कहां काम दूं? खैर, तुम कल आना. मैं कोई न कोई इंतजाम कर दूंगा.’’

अनीता दूसरे दिन सेठ मंगतराम के दफ्तर में आई, तो और ज्यादा कहर बरपा रही थी. सभी उसे ही देख रहे थे. सेठ भी उसे देखते रह गए.

अनीता को सेठ मंगतराम ने रिसैप्शनिस्ट की नौकरी दे दी और उसे मौडर्न ड्रैस पहनने को कहा.

अनीता अगले दिन से ही मिनी स्कर्ट, टीशर्ट, जींस और खुले बालों में आने लगी. देखते ही देखते वह दफ्तर में छा गई.

अनीता ने अपनी अदाओं और बरताव से जल्दी ही सेठ मंगतराम का दिल जीत लिया. उस का ज्यादातर समय सेठ के साथ ही गुजरने लगा और कब दोनों की नजदीकियां जिस्मानी रिश्ते में बदल गईं, पता नहीं चला.

अनीता तरक्की की सीढि़यां चढ़ने लगी. कुछ ही समय में वह सेठ मंगतराम के कई राज भी जान गई थी. वह सेठ के साथ शहर से बाहर भी जाने लगी थी.

सेठ मंगतराम का एक बेटा था. उस का नाम राजीव था. वह अमेरिका में ज्वैलरी डिजाइन का कोर्स कर रहा था. अब वह भारत लौट रहा था.

सेठ मंगतराम ने अनीता से कहा, ‘‘आज मेरी एक जरूरी मीटिंग है, इसलिए तुम मेरे बेटे राजीव को लेने एयरपोर्ट चली जाओ.’’

अनीता जल्दी ही एयरपोर्ट पहुंची, पर उस ने राजीव को कभी देखा नहीं था, इसलिए वह एक तख्ती ले कर रिसैप्शन काउंटर पर जा कर खड़ी हो गई.

राजीव उस तख्ती को देख कर अनीता के पास पहुंचा और अपना परिचय दिया.

अनीता ने उस का स्वागत किया और अपना परिचय दिया. उस ने राजीव का सामान गाड़ी में रखवाया और उस के साथ घर चल दी.

राजीव खुद बड़ा स्मार्ट था. वह भी अनीता की खूबसूरती से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका. अनीता का भी यही हालेदिल था.

घर पहुंच कर राजीव ने अनीता से कल दफ्तर में मुलाकात होने की बात कही.

अगले दिन राजीव दफ्तर पहुंचा, तो सारे स्टाफ ने उसे घेर लिया. राजीव भी उन से गर्मजोशी से मिल रहा था, पर उस की आंखें तो किसी और को खोज रही थीं, लेकिन वह कहीं दिख नहीं रही थी.

राजीव बुझे मन से अपने केबिन में चला गया, तभी उसे एक झटका सा लगा.

अनीता राजीव के केबिन में ही थी. वह अनीता से न केवल गर्मजोशी से मिला, बल्कि उस के गालों को चूम भी लिया.

आज भी अनीता गजब की लग रही थी. उस ने राजीव के चूमने का बुरा नहीं माना.

इसी बीच राजीव के पिता सेठ मंगतराम वहां आ गए. उन्होंने अनीता से कहा, ‘‘तुम मेरे बेटे को कंपनी के बारे में सारी जानकारी दे दो.’’

अनीता ने ‘हां’ में जवाब दिया.

मंगतराम ने आगे कहा, ‘‘अनीता, आज से मैं तुम्हारी टेबल भी राजीव के केबिन में लगवा देता हूं, ताकि राजीव को कोई दिक्कत न हो.’’

इस तरह अनीता का अब ज्यादातर समय राजीव के साथ ही गुजरने लगा. इस वजह से उन दोनों के बीच नजदीकियां भी बढ़ने लगीं.

आखिरकार एक दिन राजीव ने ही पहल कर दी और बोला, ‘‘अनीता, मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. क्या हम एक नहीं हो सकते?’’

अनीता यह सुन कर मन ही मन बहुत खुश हुई, पर जाहिर नहीं किया. कुछ देर चुप रहने के बाद वह बोली, ‘‘राजीव, तुम शायद मेरी हकीकत नहीं जानते हो. मैं एक विधवा हूं और तुम से उम्र में भी 4-5 साल बड़ी हूं. यह कैसे मुमकिन है.’’

राजीव ने कहा, ‘‘मैं ऐसी बातों को नहीं मानता. मैं अपने दिल की बात सुनता हूं. मैं तुम्हें चाहता हूं…’’ इतना कह कर राजीव अचानक उठा और अनीता को अपनी बांहों में भर लिया. अनीता ने भी अपनी रजामंदी दे दी.

राजीव और अनीता अब खूब मस्ती करते थे. बाहर खुल कर, दफ्तर में छिप कर. राजीव अनीता पर बड़ा भरोसा करने लगा था. उस ने भी अनीता को अपना राजदार बना लिया था.

इस तरह कुछ ही दिनों में अनीता ने कंपनी के मालिक और उस के बेटे को अपनी मुट्ठी में कर लिया. अनीता ने अपने जिस्म का पासा ऐसा फेंका, जिस में बापबेटे दोनों उलझ गए.

अनीता ने सेठ मंगतराम के घर पर भी अपना सिक्का जमा लिया था. उस ने सेठजी की पत्नी व नौकरों पर भी अपना जादू चला दिया. वह अपने हुस्न के साथसाथ अपनी जबान का भी जादू चलाती थी.

एक दिन राजीव ने अनीता से कहा, ‘‘मैं तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

अनीता बोली, ‘‘मैं भी तुम्हें पसंद करती हूं, पर सेठजी ने तो तुम्हारे लिए किसी अमीर घराने की लड़की पसंद की है. वे हमारी शादी नहीं होने देंगे.’’

राजीव बोला, ‘‘हम भाग कर शादी कर लेंगे.’’

अनीता ने जवाब दिया, ‘‘भाग कर हम कहां जाएंगे? कहां रहेंगे? क्या खाएंगे? सेठजी शायद तुम्हें अपनी जायदाद से भी बेदखल कर दें.’’

अनीता की बातें सुन कर राजीव चौंक पड़ा. वह सोचने लगा, ‘क्या पिताजी इस हद तक नीचे गिर सकते हैं?’

अनीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैं पिछले 2 साल से सेठजी के साथ हूं. जहां तक मैं जान पाई हूं, सेठजी को अपनी दौलत और समाज में इज्जत बहुत प्यारी है. क्यों न ऐसा तरीका निकाला जाए कि सेठजी जायदाद से बेदखल न कर पाएं.’’

राजीव ने पूछा, ‘‘वह कैसे?’’

अनीता ने बताया, ‘‘क्यों न सेठजी के दस्तखत किसी तरह जायदाद के कागजात पर करा लिए जाएं?’’

राजीव बोला, ‘‘यह कैसे मुमकिन है? पिताजी कागजात नहीं पढ़ेंगे क्या?’’

अनीता बोली, ‘‘सेठजी मुझ पर काफी भरोसा करते हैं. दस्तखत कराने की जिम्मेदारी मेरी है.’’

कुछ दिनों के बाद अनीता सेठजी के केबिन में पहुंची, तो उन्होंने पूछा, ‘‘बड़े दिन बाद आई हो? क्या तुम्हें मेरी याद नहीं आई?’’

अनीता ने कहा, ‘‘दफ्तर में काफी काम था. आज भी मैं आप के पास काम से ही आई हूं. कुछ जरूरी फाइलों पर आप के दस्तखत लेने हैं.’’

सेठ मंगतराम बुझे मन से बिना पढ़े ही फाइलों पर दस्तखत करने लगे. अनीता ने जायदाद वाली फाइल पर भी उन से दस्तखत करा लिए.

सेठजी ने अनीता से कहा, ‘‘कुछ देर बैठ भी जाओ मेरी जान,’’ फिर उस से पूछा, ‘‘सुना है कि तुम मेरे बेटे से शादी करना चाहती हो?’’

यह सुन कर अनीता चौंक पड़ी, पर कुछ नहीं बोली.

सेठजी ने बताया, ‘‘राजीव की शादी एक रईस घराने में तय कर दी गई है. तुम रास्ते से हट जाओ.’’

अनीता ने कहा, ‘‘सेठजी, मैं अपनी सीमा जानती हूं. मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगी, जिस से मैं आप की नजरों में गिर जाऊं.’’

वैसे, अनीता ने एक शक का बीज यह कह कर बो दिया कि शायद राजीव ने विदेश में किसी गोरी मेम से शादी कर रखी है.

सेठजी अनीता की बातों से चौंक पड़े. यह उन के लिए नई जानकारी थी. उन्होंने अनीता को राजीव से जुड़ी हर बात की जानकारी देने को कहा.

अनीता ने अपनी दस्तखत कराने की योजना की कामयाबी की जानकारी राजीव को दी. वह खुशी से झूम उठा.

राजीव ने अनीता से कहा, ‘‘डार्लिंग, मैं ने कई बार ज्वैलरी डिजाइन की है. इन डिजाइनों की कीमत बाजार में करोड़ों रुपए है. मैं इस के बारे में अपने पिताजी को बताने वाला था, पर अब मैं इस बारे में उन से कोई बात नहीं करूंगा.’’

अनीता ने जब ज्वैलरी डिजाइन के बारे में सुना, तो वह चौंक पड़ी. उस ने मन ही मन एक योजना बना डाली.

एक दिन अनीता सेठजी के केबिन में बैठी थी, तब उस ने चर्चा छेड़ते हुए कहा, ‘‘राजीवजी के पास लेटैस्ट डिजाइन की हुई ज्वैलरी है, जिस की बाजार में बहुत ज्यादा कीमत है. आप का बेटा तो हीरा है.’’

यह सुन कर सेठजी चौंक पड़े और बोले, ‘‘मुझे तो इस बारे में तुम से ही पता चला है. क्या पूरी बात बताओगी?’’

अनीता ने कहा, ‘‘शायद राजीवजी आप से खफा होंगे, इसलिए उन्होंने इस सिलसिले में आप से बात नहीं की.’’

अनीता ने चालाकी से सेठजी के दिमाग में यह कह कर शक का बीज बो दिया कि शायद राजीव अपना कारोबार खुद करेंगे.

सेठ चिंतित हो गए. वे बोले, ‘‘अगर ऐसा हुआ, तो हमारी बाजार में साख गिर जाएगी. इसे रोकना होगा.’’

अनीता ने कहा, ‘‘सेठजी, अगर डिजाइन ही नहीं रहेगा, तो वे खाक कारोबार कर पाएंगे?’’

सेठजी ने पूछा, ‘‘तुम क्या पहेलियां बुझा रही हो? मैं कुछ समझा नहीं?’’

अनीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘सेठजी, अगर वह डिजाइन किसी तरह आप के नाम हो जाए, तो आप राजीव को अपनी मुट्ठी में कर सकते हैं.’’

‘‘यह होगा कैसे?’’ सेठजी ने पूछा.

अनीता बोली, ‘‘मैं करूंगी यह काम. राजीवजी मुझ पर भरोसा करते हैं. मैं उन से दस्तखत ले लूंगी.’’

सेठजी ने कहा, ‘‘अगर तुम ऐसा कर दोगी, तो मैं तुम्हें मालामाल कर दूंगा.’’

अनीता ने यहां भी पुराना तरीका अपनाया, जो उस ने सेठजी के खिलाफ अपनाया था. राजीव से फाइलों पर दस्तखत लेने के दौरान ज्वैलरी राइट के ट्रांसफर पर भी दस्तखत करा लिए.

सेठ चूंकि सोने के कारोबारी थे, इसलिए काफी मात्रा में सोना व काले धन अपने घर के तहखाने में ही रखते थे, जिस के बारे में उन्होंने किसी को नहीं बताया था. पर बुढ़ापे का प्यार बड़ा नशीला होता है. लिहाजा, उन्होंने अनीता को इस बारे में बता दिया था.

इस तरह कुछ दिन और गुजर गए. एक दिन राजीव ने अनीता से कहा, ‘‘अगले सोमवार को हम कोर्ट में शादी कर लेंगे. तुम ठीक 9 बजे आ जाना.’’

अनीता ने भी कहा, ‘‘मैं दफ्तर से छुट्टी ले लेती हूं, ताकि किसी को शक न हो.’’

फिर अनीता सेठजी के पास गई. उन्हें बताया, ‘‘सोमवार को राजीव कोर्ट में किसी विदेशी लड़की से शादी करने जा रहा है. मुझे उस ने गवाह बनने को बुलाया है.’’

सेठजी गुस्से से आगबबूला हो गए.

तब अनीता ने सेठजी को शांत करते हुए कहा, ‘‘कोर्ट पहुंच कर आप राजीव को एक किनारे ले जा कर समझाएं. शायद वह मान जाए. आप अभी होहल्ला न मचाएं. आप की ही बदनामी होगी.’’

सेठजी ने अनीता से कहा, ‘‘तुम सही बोलती हो.’’

सोमवार को राजीव कोर्ट पहुंच गया और अनीता का इंतजार करने लगा, तभी उस के सामने एक गाड़ी रुकी, जिस में अपने पिताजी को देख कर वह चौंक पड़ा.

सेठजी ने राजीव को एक कोने में ले जा कर समझाया, ‘‘क्यों तुम अपनी खानदान की इज्जत उछाल रहे हो? वह भी दो कौड़ी की गोरी मेम के लिए.’’

यह सुन कर राजीव हंस पड़ा और बोला, ‘‘क्यों नाटक कर रहे हैं आप? मैं किसी गोरी मेम से नहीं, बल्कि अनीता से शादी करने वाला हूं. पता नहीं, वह अभी तक क्यों नहीं आई?’’

अनीता का नाम सुन कर अब चौंकने की बारी सेठजी की थी. उन्होंने कहा, ‘‘क्या बकवास कर रहे हो? अनीता ने मुझे बताया है कि तुम आज एक गोरी मेम से शादी कर रहे हो, जिस के साथ तुम विदेश में रहते थे.’’

राजीव ने झुंझलाते हुए कहा, ‘‘आप क्यों अनीता को बीच में घसीट रहे हैं? मैं उसी से शादी कर रहा हूं.’’

सेठजी को अब माजरा समझ में आने लगा कि अनीता बापबेटों के साथ डबल गेम खेल रही है. उन्होंने राजीव को समझाते हुए कहा, ‘‘बेटे राजीव, वह हमारे बीच फूट डाल कर जरूर कोई गहरी साजिश रच रही है. अब वह यहां कभी नहीं आएगी.’’

राजीव को भी अपने पिता की बातों पर विश्वास होने लगा. उस ने अनीता के घर पर मोबाइल फोन का नंबर मिलाया, पर कोई जवाब नहीं मिला.

दोनों सीधे दफ्तर गए, तो पता चला कि अनीता ने इस्तीफा दे दिया है. दोनों सोचने लगे कि आखिर उस ने ऐसा क्यों किया?

कुछ दिनों के बाद जब सेठजी को कुछ सोने और पैसों की जरूरत हुई, तो वे अपने तहखाने में गए. तहखाना देख कर वे सन्न रह गए, क्योंकि उस में रखा करोड़ों रुपए का सोना और नकदी गायब हो चुकी थी.

सेठजी के तो होश ही उड़ गए. वे तो थाने में शिकायत भी दर्ज नहीं करा सकते थे, क्योंकि वे खुद टैक्स के लफड़े में फंस सकते थे.

सेठजी ने यह सब अपने बेटे राजीव को बताया. राजीव ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं. मेरे पास कुछ डिजाइन के कौपी राइट्स हैं, उन्हें बेचने पर काफी पैसे मिलेंगे.’’

पर यह क्या, राजीव जब शहर बेचने गया, तो पता चला कि वे तो 12 महीने पहले किसी को करोड़ों रुपए में बेचे जा चुके हैं.

यह सुन कर राजीव सन्न रह गया. उस पर धोखाधड़ी का केस भी दर्ज हुआ, सो अलग.

सेठजी ने साख बचाने के लिए अपनी कंपनी को गिरवी रखने की सोची, ताकि बाजार से लिया कर्ज चुकाया जा सके.

पर यहां भी उन्हें दगा मिली. एक फर्म ने दावा किया और बाद में कागजात भी पेश किए, जिस के मुताबिक उन्होंने करोड़ों रुपए बतौर कर्ज लिए थे और 4 महीने में चुकाने का वादा किया था.

देखतेदेखते सेठजी का परिवार सड़क पर आ गया. उन्होंने अनीता की शिकायत थाने में दर्ज कराई, पर वह कहां थी किसी को नहीं पता.

पुलिस ने कार्यवाही के बाद बताया कि रमेश की तो शादी ही नहीं हुई थी, तो उस की विधवा पत्नी कहां से आ गई.

आज तक यह नहीं पता चला कि अनीता कौन थी, पर उस ने आशिकमिजाज बापबेटों को ऐसी चपत लगाई कि वे जिंदगीभर याद रखेंगे.

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