लेखक- शांता शास्त्री
हवाई जहाज से उतर कर जमीन पर पहला कदम रखते ही मेरा अंग-अंग रोमांचित हो उठा. सामने नजर उठा कर देखा तो दूर से मम्मी और पापा हाथ हिलाते नजर आ रहे थे. इन 7 वर्षों में उन में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ था. हां, दोनों ने चर्बी की भारीभरकम चादर जरूर अपने शरीर पर लपेट ली थी.
पापा का सिर रनवे जैसा सपाट हो गया था. दूर से बस, इतना ही पता चला. पास पहुंचते ही दोनों मुझ से लिपट गए. उन के पास ही एक सुंदर सी लड़की हाथ में फूलोें का गुलदस्ता लिए खड़ी थी.
‘‘मधु, कितनी बड़ी हो गई तू,’’ कहते हुए मैं उस से लिपट गया.
‘‘अरे, यह क्या कर रहे हो? मैं तुम्हारी लाड़ली छोटी बहन मधु नहीं, किनी हूं,’’ उस ने मेरी बांहों में कुनमुनाते हुए कहा.
‘‘बेटा, यह मंदाकिनी है. अपने पड़ोसी शर्माजी की बेटी,’’ मां ने जैसे मुझे जगाते हुए कहा. तभी मेरी नजर पास खडे़ प्रौढ़ दंपती पर पड़ी. मैं शर्मा अंकल और आंटी को पहचान गया.
‘‘लेट मी इंट्रोड्यूस माइसेल्फ. रौकी, आई एम किनी. तुम्हारी चाइल्डहुड फ्रेंड रिमेंबर?’’ किनी ने तपाक से हाथ मिलाते हुए कहा.
‘‘रौकी? कौन रौकी?’’ मैं यहांवहां देखने लगा.
टाइट जींस और 8 इंच का स्लीवलेस टौप में से झांकता हुआ किनी का गोरा बदन भीड़ का आकर्षण बना हुआ था. इस पर उस की मदमस्त हंसी मानो चुंबकीय किरणें बिखेर कर सब को अपनी ओर खींच रही थी.
‘‘एक्चुअली किनी, रौकी अमेरिका में रह कर भी ओरिजिनल स्टाइल नहीं भूला, है न रौकी?’’ एक लड़के ने दांत निपोरते हुए कहा जो शर्मा अंकल के पास खड़ा था.
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‘‘लकी, पहले अपनी आईडेंटिटी तो दे. आई एम श्योर कि रौकी ने तुम्हें पहचाना नहीं.’’
‘‘या…या, रौकी, आई एम लकी. छोटा भाई औफ रौश.’’
‘‘अरे, तुम लक्ष्मणशरण से लकी कब बन गए?’’ मुझे वह गंदा सा, कमीज की छोर से अपनी नाक पोंछता हुआ दुबलापतला सा लड़का याद आया जो बचपन में सब से मार खाता और रोता रहता था.
‘‘अरे, यार छोड़ो भी. तुम पता नहीं किस जमाने में अटके हुए हो. फास्ट फूड और लिवइन के जमाने में दैट नेम डजंट गो.’’
इतने में मुझे याद आया कि मधु वहां नहीं है. मैं ने पूछा, ‘‘मम्मी, मधु कहां है, वह क्यों नहीं आई?’’
‘‘बेटा, आज उस की परीक्षा है. तुझे ले कर जल्दी आने को कहा है. वरना वह कालिज चली जाएगी,’’ पापा ने जल्दी मचाते हुए कहा.
कार के पास पहुंच कर पापा ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठ गए. मंदाकिनी उर्फ किनी मां को पहले बिठा कर फिर खुद बैठ गई. अब मेरे पास उस की बगल में बैठने के अलावा और कोई चारा न था. रास्ते भर वह कभी मेरे हाथों को थाम लेती तो कभी मेरे कंधों पर गाल या हाथ रख देती, कभी पीठ पर या जांघ पर धौल जमा देती. मुझे लगा मम्मी बड़ी बेचैन हो रही थीं. खैर, लेदे कर हम घर पहुंचे.
घर पहुंच कर मैं ने देखा कि माधवी कालिज के लिए निकल ही रही थी. मुझे देख कर वह मुझ से लिपट गई, ‘‘भैया, कितनी देर लगा दी आप ने आने में. आज परीक्षा है, कालिज जाना है वरना…’’
‘‘फिक्र मत कर, जा और परीक्षा में अच्छे से लिख कर आ. शाम को ढेर सारी बातें करेंगे. ठीक है? वाई द वे तू तो वही मधु है न? पड़ोसियों की सोहबत में कहीं मधु से मैड तो नहीं बन गई न,’’ मैं ने नकली डर का अभिनय किया तो मधु हंस पड़ी. बाकी सब लोग सामान उतारने में लगे थे सो किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया. किनी हम से कुछ कदम पीछे थी. शायद वह मेरे सामान को देख कर कुछ अंदाज लगा रही थी और किसी और दुनिया में खो गई थी.
नहाधो कर सोचा सामान खोलूं तब तक किनी हाथ में कोई बरतन लिए आ गई. वह कपडे़ बदल चुकी थी. अब वह 8-10 इंच की स्कर्ट जैसी कोई चीज और ऊपर बिना बांहों की चोली पहने हुए थी. टौप और स्कर्ट के बीच का गोरा संगमरमरी बदन ऐसे चमक रहा था मानो सितारे जडे़ हों. मानो क्या, यहां तो सचमुच के सितारे जड़े थे. किनी माथे पर लगाने वाली चमकीली बिंदियों को पेट पर लगा कर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रही थी. मैं ने अपने कमरे में से देखा कि वह अपनी पेंसिल जैसी नोक वाली सैंडिल टकटकाते रसोई में घुसी जा रही है. मैं कमरे से निकल कर उस की ओर लपका…
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‘‘अरे, किनी, यह क्या कर रही हो? रसोई में चप्पलें?’’
‘‘यार रौकी, मुझे तो लग रहा है कि तुम अमेरिका से नहीं बल्कि झूमरीतलैया से आ रहे हो. बिना चप्पलों के नंगे पैर कैसे चल सकती हूं?’’
जी में आया कह दूं कि नंगे बदन चलने में जब हर्ज नहीं है तो नंगे पैर चलने में क्यों? पर प्रत्यक्ष में यह सोच कर चुप रहा कि जो अपनेआप को अधिक अक्लमंद समझते हैं उन के मुंह लगना ठीक नहीं.
सारा दिन किनी घंटे दो घंटे में चक्कर लगाती रही. मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था. अपने ही घर में पराया सा लग रहा था. और तो और, रात को भी मैं शर्मा अंकल के परिवार से नहीं बच पाया, क्योंकि रात का खाना उन के यहां ही खाना था.
अगले दिन मुंहअंधेरे उठ कर जल्दीजल्दी तैयार हुआ और नाश्ता मुंह में ठूंस कर घर से ऐसे गायब हुआ जैसे गधे के सिर से सींग. घर से निकलने के पहले जब मैं ने मां को बताया कि मैं दोस्तों से मिलने जा रहा हूं और दोपहर का खाना हम सब बाहर ही खाएंगे तो मां को बहुत बुरा लगा था.
मां का मन रखने के लिए मैं ने कहा, ‘‘मां, तुम चिंता क्यों करती हो? अच्छीअच्छी चीजें बना कर रखना. शाम को खूब बातें करेंगे और सब साथ बैठ कर खाना खाएंगे.’’
दिन भर दोस्तों के साथ मौजमस्ती करने के बाद जब शाम को घर पहुंचा तो पाया कि पड़ोसी शर्मा अंकल का पूरा परिवार तरहतरह के पश्चिमी पकवानों के साथ वहां मौजूद था.
किनी ने बड़ी नजाकत के साथ कहा, ‘‘रौकी, आज सारा दिन तुम कहां गायब रहे, यार? हम सब कब से तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं कि इवनिंग टी तुम्हारे साथ लेंगे.’’
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कल से मैं अपने पर नियंत्रण रखने की बहुत कोशिश कर रहा था मगर आते ही घर में जमघट देख कर मैं फट पड़ा.
‘‘सब से पहले तो किनी यह रौकीरौकी की रट लगानी बंद करो. विदेश में भी मुझे सब राकेश ही कहते हैं. दूसरी बात, मैं इतना खापी कर आया हूं कि अगले 2 दिन तक खाने का नाम भी नहीं ले सकता.’’
मां ने तुरंत कहा, ‘‘बुरा न मानना मंदाकिनी बेटे, मैं ने कहा न कि राकेश को बचपन से ही खानेपीने का कुछ खास शौक नहीं है.’’
पिताजी ने भी मां का साथ दिया.