क्षमादान- भाग 2: आखिर मां क्षितिज की पत्नी से क्यों माफी मांगी?

प्राची ड्राइंगरूम में पड़े सोफे पर पसर गई. मन का बोझ कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. मन अजीब से अपराधबोध से पीडि़त था. पता नहीं क्षितिज से विवाह का उस का फैसला सही था या गलत? हर ओर से उठते सवालों की बौछार से भयभीत हो कर उस ने आंखें मूंद लीं तो पिछले कुछ समय की यादें उस के मन रूपी सागरतट से टकराने लगी थीं.

‘तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार,’ उस दिन प्राची ने अपने जन्मदिन का केक काट कर मोमबत्तियां बुझाई ही थीं कि पूरा कमरा इस गीत की धुन से गूंज उठा था. क्षितिज ने ऊपर लगा बड़ा सा गुब्बारा फोड़ दिया था. उस में से रंगबिरंगे कागज के फूल उस के ऊपर और पूरे कमरे में बिखर गए थे. उस के सभी सहकर्मियों ने करतल ध्वनि के साथ उसे बधाई दी थी और गीत गाने लगे थे.

जन्मदिन की चहलपहल, धूमधाम के बीच शाम कैसे बीत गई थी पता ही नहीं चला था. अपने सहकर्मियों को उस ने इसी बहाने आमंत्रित कर लिया था. उस की बहन वीणा और निधि तथा भाई राजा और प्रवीण में से कोई एक भी नहीं आया था. प्रवीण तो अपने कार्यालय के काम से सिंगापुर गया हुआ था पर अन्य सभी तो इसी शहर में थे.

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सभी अतिथियों को विदा करने के बाद प्राची निढाल हो कर अपने कक्ष में पड़ी सोच रही थी कि चलो, इसी बहाने सहकर्मियों को घर बुलाने का अवसर तो मिला वरना तो इस आयु में किस का मन होता है जन्मदिन मनाने का. एक और वर्ष जुड़ गया उस की आयु के खाते में. आज पूरे 35 वसंत देख लिए उस ने.

अंधकार में आंखें खोल कर प्राची शून्य में ताक रही थी. अनेक तरह की आकृतियां अंधेरे में आकार ले रही थीं. वे आकृतियां, जिन का कोई अर्थ नहीं था, ठीक उस के जीवन की तरह.

‘प्राची, ओ प्राची,’ तभी मां का स्वर गूंजा था.

‘क्या है, मां?

‘बेटी, सो गई क्या?’

‘नहीं तो, थक गई थी, सो आराम कर रही हूं. मां, राजा, निधि और वीणा में से कोई नहीं आया,’ प्राची ने शिकायत की थी.

‘अरे, हां, मैं तो तुझे बताना ही भूल गई. राजा का फोन आया था, बता रहा था कि अचानक ही उस के दफ्तर का कोई बड़ा अफसर आ गया इसलिए उसे रुकना पड़ गया है. वीणा और निधि को तो तुम जानती ही हो, अपनी गृहस्थी में कुछ इस प्रकार डूबी हैं कि उन्हें दीनदुनिया का होश तक नहीं है,’ मां ने उन सब की ओर से सफाई दी थी.

‘फिर भी थोड़ी देर के लिए तो आ ही सकती थीं.’

‘वीणा तो फोन पर यह कह कर हंस रही थी कि इस बुढ़ापे में दीदी को जन्मदिन मनाने की क्या सूझी?’ यह कह कर मां खिलखिला कर हंसी थीं.

मां की यह हंसी प्राची के कानों में सीसा घोल गई थी. वह रोंआसी हो कर बोली, ‘पहले कहना चाहिए था न मां कि तुम्हारी प्राची को वृद्धावस्था में जन्मदिन मनाने का साहस नहीं करना चाहिए.’

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‘अरे, बेटी, मैं तो यों ही मजाक कर रही थी. तू तो बुरा मान गई. 35 वर्ष की आयु में तो आजकल लोग जीवन शुरू करते हैं,’ मां ने जैसे भूल सुधार की मुद्रा में कहा, ‘इस तरह अंधेरे में क्यों बैठी है. आ चल, उपहार खोलते हैं. देखेंगे किस ने क्या दिया है.’

मां की बच्चों जैसी उत्सुकता देख कर प्राची उठ कर दालान में चली आई. अब मां हर उपहार को खोलतीं, उस के दाम का अनुमान लगातीं और एक ओर सरका देतीं.

‘मां, डब्बे पर देखो, नाम लिखा होगा,’ प्राची बोली थी.

‘मेरा चश्मा दूसरे कमरे में रखा है. ले, तू ही पढ़ ले,’ उन्होंने डब्बा और उस पर लिपटा कागज दोनों प्राची की ओर बढ़ा दिए थे.

‘क्षितिज गोखले,’ प्राची ने नाम पढ़ा और चुप रह गई थी. मां दूसरे उपहारों में व्यस्त थीं. नाम के बाद एक वाक्य और लिखा हुआ था, ‘प्यार के साथ, संसार की सब से सुंदर लड़की के लिए.’ अनजाने ही प्राची का चेहरा शर्म से लाल हो गया था.

‘यह देख, कितना सुंदर बुके है…पर सच कहूं, बुके का पैसा व्यर्थ जाता है. कल तक फूल मुरझा जाएंगे, फिर फेंकने के अलावा क्या होगा इन का?’

‘मां, फूलों की अपनी ही भाषा होती है. कुछ देर के लिए ही सही, अपने सौंदर्य और सुगंध से सब को चमत्कृत करने के साथ ही जीवन की क्षणभंगुरता का उपदेश भी दे ही जाते हैं,’ प्राची मुसकराई थी.

‘तुम्हारे दार्शनिक विचार मेरे पल्ले तो पड़ते नहीं हैं. चलो, आराम करो, मुझे भी बड़ी थकान लग रही है,’ कहती हुई मां उठ खड़ी हुई थीं.

सोने से पहले हर दिन की तरह उस दिन भी अपने पिता नीरज बाबू के लिए दूध ले कर गई थी प्राची.

‘बेटी, बड़ी अच्छी रही तेरे जन्मदिन की पार्टी. बड़ा आनंद आया. हर साल क्यों नहीं मनाती अपना जन्मदिन? इसी बहाने तेरे अपाहिज पिता को भी थोड़ी सी खुशी मिल जाएगी,’ नीरज बाबू भीगे स्वर में बोले थे.

प्राची पिता का हाथ थामे कुछ देर उन के पास बैठी रही थी.

‘कोई अच्छा सा युवक देख कर विवाह कर ले, प्राची. अब तो राजा, प्रवीण, वीणा और निधि सभी सुव्यवस्थित हो गए हैं. रहा हम दोनों का तो किसी तरह संभाल ही लेंगे.’

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‘क्यों उपहास करते हैं पापा. मेरी क्या अब विवाह करने की उम्र है? वैसे भी अब किसी और के सांचे में ढलना मेरे लिए संभव नहीं होगा,’ वह हंस दी थी. नीरज बाबू को रजाई उढ़ा कर और पास की मेज पर पानी रख प्राची अपने कमरे में आई तो आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था.

शायद 5 वर्ष हुए होंगे, जब उस के सहपाठी सौरभ ने उस के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था. बाद में उस के मातापिता घर भी आए थे पर मां ने इस विवाह के प्रस्ताव को नहीं माना था.

‘बेटा समझ कर तुम्हें पाला है. अब तुम प्रेम के चक्कर में पड़ कर विवाह कर लोगी तो इन छोटे बहनभाइयों का क्या होगा?’ मां क्रोधित स्वर में बोली थीं.

सौरभ ने अपने लंबे प्रेमप्रकरण का हवाला दिया तो वह भी अड़ गई थी.

‘मां, मैं ने और सौरभ ने विवाह करने का निर्णय लिया है. आप चिंता न करें. मैं पहले की तरह ही परिवार की सहायता करती रहूंगी,’ प्राची ने दोटूक निर्णय सुनाया था.

‘कहने और करने में बहुत अंतर होता है. विवाह के बाद तो बेटे भी पराए हो जाते हैं, फिर बेटियां तो होती ही हैं पराया धन,’ और इस के बाद तो मां अनशन पर ही बैठ गई थीं. जब 3 दिन तक मां ने पानी की एक बूंद तक गले के नीचे नहीं उतारी तो वह घबरा गई और उस ने सौरभ से कह दिया था कि उन दोनों का विवाह संभव नहीं है.

उस के बाद वह सौरभ से कभी नहीं मिली. सुना है विदेश जा कर वहीं बस गया है वह. इन्हीं खयालों में खोई वह नींद की गोद में समा गई थी.

Serial Story: स्वप्न साकार हुआ- भाग 1

लेखिका-  साधना श्रीवास्तव

रात में रसोई का काम समेट कर आरती सोने के लिए कमरे में आई तो देखा, उस के पति डा. विक्रम गहरी नींद में सो रहे थे. उन के बगल में बेटी तान्या सो रही थी. आरती ने सोने की कोशिश बहुत की लेकिन नींद जैसे आंखों से कोसों दूर थी. फिर पति के चेहरे पर नजर टिकाए आरती उन्हीं के बारे में सोचती रही.

डा. विक्रम सिंह कितने सरल और उदार स्वभाव के हैं. इन के साथ विवाह हुए 6 माह बीत चुके हैं और इन 6 महीनों में वह उन्हें अच्छी तरह पहचान गई है. कितना प्यार और अपनेपन के साथ उसे रखते हैं. उसे तो बस, ऐसा लगता है जैसे एक ही झटके में किसी ने उसे दलदल से निकाल कर किसी महफूज जगह पर ला कर खड़ा कर दिया है.

उस का अतीत क्या है? इस बारे में कुछ भी जानने की डा. विक्रम ने कोई जिज्ञासा जाहिर नहीं की और वह भी अभी कुछ कहां बता पाई है. लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं कि वह उन को धोखे में रखना चाहती है. बस, उन्होंने कभी पूछा नहीं इसलिए उस ने बताया नहीं. लेकिन जिस दिन उन्होंने उस के अतीत के बारे में कुछ जानने की इच्छा जताई तो वह कुछ भी छिपाएगी नहीं, सबकुछ सचसच बता देगी.

इसी के साथ आरती का अतीत एक चलचित्र की तरह उस की बंद आंखों में उभरने लगा. वह कहांकहां छली गई और फिर कैसे भटकतेभटकते वह मुंबई की बार गर्ल से डा. विक्रम सिंह की पत्नी बन अब एक सफल घरेलू औरत का जीवन जी रही है.

आज की आरती अतीत में मुंबई की एक बार गर्ल बबली थी. बार बालाओं के काम पर कानूनन रोक लगते ही बबली ने समझ लिया था कि अब उस का मुंबई में रह कर कोई दूसरा काम कर के अपना पेट भरना संभव नहीं है.

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मुंबई के एक छोर से दूसरे छोर तक, जिधर भी जाएगी, लोगों की पहचान से बाहर न होगी. अत: उस ने मुंबई छोड़ देने का फैसला किया. गुजरात के सूरत जिले में उस की सहेली चंदा रहती थी. उस ने उसी के पास जाने का मन बनाया और एक दिन कुछ जरूरी कपड़े तथा बचा के रखी पूंजी ले कर सूरत के लिए गाड़ी पकड़ ली.

सूरत पहुंचने से पहले ही बबली ने चंदा के यहां जाने का अपना विचार बदल दिया क्योंकि ताड़ से गिर कर वह खजूर पर अटकना नहीं चाहती थी. चंदा भी सूरत में उसी तरह के धंधे से जुड़ी थी.

बबली के लिए सूरत बिलकुल अजनबी व अपरिचित शहर था जहां वह अपने पुराने धंधे को छोड़ कर नया जीवन शुरू करना चाहती थी. इसीलिए शहर के मुख्य बाजार में स्थित होटल में एक कमरा किराए पर लिया और कुछ दिन वहीं रहना ठीक समझा ताकि इस शहर को जानसमझ सके.

बबली को जब कुछ अधिक समझ में नहीं आया तो कुकरी का 3 माह का कोर्स उस ने ज्वाइन कर लिया. इसी दौरान बबली सरकारी अस्पताल से कुछ दूरी पर संभ्रांत कालोनी में एक कमरा किराए पर ले कर रहने लगी. कोर्स सीखने के दौरान ही उस ने अपने मन में दृढ़ता से तय कर लिया कि अब एक सभ्य परिवार में कुक का काम करती हुई वह अपना आगे का जीवन ईमानदारी के साथ व्यतीत करेगी.

कुकरी की ट्रेनिंग के बाद बबली को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी. जल्दी ही उसे एक मनमाफिक विज्ञापन मिल गया और पता पूछती हुई वह सीधे वहां पहुंची. दरवाजे की घंटी बजाई तो घर की मालकिन वसुधा ने द्वार खोला.

बबली ने अत्यंत शालीनता से नमस्कार करते हुए कहा, ‘आंटी, अखबार में आप का विज्ञापन पढ़ कर आई हूं. मेरा नाम बबली है.’

‘ठीक है, अंदर आओ,’ वसुधा ने उसे अंदर बुला कर इधरउधर की बातचीत की और अपने यहां काम पर रख लिया.

अगले दिन से बबली ने काम संभाल लिया. घर में कुल 3 सदस्य थे. घर के मालिक अरविंद सिंह, उन की पत्नी वसुधा और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा बेटा राजन.

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बबली के हाथ का बनाया खाना सब को पसंद आता और घर के सदस्य जब तारीफ करते तो उसे लगता कि उस की कुकरी की ट्रेनिंग सार्थक रही. दूसरी तरफ बबली का मन हर समय भयभीत भी रहता कि कहीं किसी हावभाव से उस के नाचनेगाने वाली होने का शक किसी को न हो जाए. यद्यपि इस मामले में वह बहुत सजग रहती फिर भी 5-6 सालों तक उसी वातावरण में रहने से उस का अपने पर से विश्वास उठ सा गया था.

एक दिन शाम के समय परिवार के तीनों सदस्य आपस में बातचीत कर रहे थे. बबली रसोई में खाना बनाने के साथसाथ कोई गीत भी गुनगुना रही थी कि राजन की आवाज कानों में पड़ी, ‘बबलीजी, एक गिलास पानी दे जाना.’

गाने में मगन बबली ने गिलास में पानी भरा और हाथ में लिए ही अटकतीमटकती चाल से राजन के पास पहुंची और उस के होंठों से गिलास लगाती हुई बोली, ‘पीजिए न बाबूजी.’

राजन अवाक् सा बबली को देखता रह गया. वसुधा और अरविंद को भी उस का यह आचरण अच्छा न लगा पर वे चुप रह गए. अचानक बबली जैसे सोते से जागी हो और नजरें नीची कर के झेंपती हुई वहां से हट गई. बाद में उस ने अपनी इस गलती के लिए वसुधा से माफी मांग ली थी.

आगे सबकुछ सामान्य रूप से चलता रहा. बबली को काम करते हुए लगभग 2 माह बीत चुके थे. एक दिन शाम को वसुधा क्लब जाने के लिए तैयार हो रही थीं कि पति अरविंद भी आफिस से आ गए. वसुधा ने बबली से चाय बनाने को कहा और अरविंद से बोली, ‘मुझे क्लब जाना है और घर में कोई सब्जी नहीं है. तुम ला देना.’

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आंखें- भाग 3: ट्रायल रूम में ड्रेस बदलती श्वेता की तस्वीरें क्या हो गईं वायरल

वह घाटकोपर पहुंची. वहां सिनेमा व टीवी कलाकारों को ड्रैस, कौस्टयूम्स आदि किराए पर देने वाली कई दुकानें थीं. उस ने एक दुकान से सफेद विग, पुराने जमाने की साड़ी और एक प्लेन शीशे वाला चश्मा लिया और पहना. इस से वह संभ्रांत परिवार की प्रौढ स्त्री लगने लगी. वह जब बाहर निकली और कार के शीशे में अपना रूप देखा तो मुसकरा पड़ी. वहां से जुहू पहुंच उस ने कार एक पार्किंग में खड़ी की और उसी शोरूम में पहुंची. शोरूम 4 मंजिला था और दर्जनों कर्मचारी थे. अब पता नहीं किस की हरकत थी. तभी उसे याद आया कि स्कर्ट टौप सैकंड फ्लोर से खरीदा था. वह सैकंड फ्लोर पर पहुंची. वहां सब कुछ जानापहचाना था. सेल्स काउंटर खाली था. 2 लड़के एक तरफ खड़े गपशप मार रहे थे.

‘‘यस मैडम,’’ उस के पास आते ही विनोद बोला. श्वेता ने उस की आवाज को पहचान लिया. यही मोबाइल फोन पर बोलने वाला था.

‘‘मुझे भारी कपड़े का लेडीज सूट चाहिए. सर्दी में हवा से सर्दी लगती है.’’

सुरेश और विनोद मोटे कपड़े से बने कई सूट उठा लाए. एक सूट उठा उस ने पूछा, ‘‘यहां ट्रायल रूम कहां है?’’

सुरेश ने एक तरफ इशारा किया तो पहले से देखे ट्रायल रूम की तरफ वह बढ़ गई. फिर कैबिन बंद कर नजर डाली कि यहां कैमरा कहां हो सकता था. शायद टू वे मिरर के उस पार हो. स्थान और अपराधियों का पता तो चल गया था. अब इन को रंगे हाथ पकड़ना था. फिर वह बिना कुछ ट्राई किए वह बाहर निकल आई.

‘‘सौरी, फिट नहीं आया.’’

‘‘और देखिए.’’

‘‘नहीं अभी टाइम नहीं है,’’ यह कह कर वह सूट काउंटर पर रख कर सधे कदमों से बाहर चली आई. घाटकोपर जा कर सब सामान वहां वापस किया फिर घर चली आई.

शाम को प्रशांत वापस आया.

‘‘तबीयत कैसी है?’’

‘‘ठीक है, आज मैं ने रैस्ट के लिए छुट्टी ले ली थी.’’

अगले दिन वह औफिस गई. वहां सारा दिन काम में लगी रहने पर भी सोचती रही कि अपराधियों को कैसे पकड़े. पतिदेव को साथ ले? अगर अपराधी पकड़े जाते हैं तब क्या होगा? उन से कैसे निबटेगी? पुलिस तब भी बुलानी पड़ेगी. तब क्या अभी से पुलिस से मिल कर कोई कारगर योजना बनाए?

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वह शाम तक उधेड़बुन रही. फिर शाम को कार में बैठतेबैठते इरादा बना लिया. उस के 100 नंबर पर रिंग करने पर तुरंत उत्तर मिला.

एक लेडी बोली, ‘‘फरमाइए क्या प्रौब्लम है?’’

‘‘एक ऐसी प्रौब्लम है जिसे फोन पर नहीं बता सकती.’’

‘‘तब आप पुलिस हैडक्वार्टर आ जाइए. वहां पहुंच कर आप मिस शुभ्रा सिन्हा, स्पैशल स्क्वैड पूछ लीजिएगा.’’

श्वेता कभी पुलिस हैडक्वार्टर नहीं आई थी. मगर कभी न कभी पहल तो होनी ही थी. वह पुलिस हैडक्वार्टर पहुंची. फिर कार पार्क कर रिसैप्शन काउंटर पर पहुंची.

स्पैशल स्क्वैड चौथी मंजिल पर था. श्वेता वहां पहुंची तो देखा कि शुभ्रा सिन्हा 2 सितारे लगी चुस्त शर्ट और पैंट पहने बैठी थीं. वह लगभग श्वेता की ही उम्र की थी. दरवाजा बंद कर उस ने गंभीरता से सारा मामला समझा. फिर प्रशंसात्मक नजरों से उस की

तरफ देखते हुए कहा, ‘‘कमाल है, आप ने मात्र 24 घंटे में पता लगा लिया कि बदमाश कौन हैं. अब आगे क्या स्ट्रैटेजी सोची है आप ने?’’

‘‘मैं वहां नया रूप धारण कर ड्रैस ट्रायल करूंगी. तब पुलिस धावा बोले और उन को रैड हैंडेड पकड़ ले.’’

‘‘ठीक है.’’

फिर कौफी पीतेपीते दोनों सहेलियों के समान योजना पर विचार करने लगीं. कौफी पी कर श्वेता वापस चली आई. अगले दिन सिविल ड्रैस में साधारण स्त्री की वेशभूषा में अन्य लेडी पुलिसकर्मियों के साथ ग्राहक बन शुभ्रा सिन्हा शोरूम देख आईं. 3 दिन बाद श्वेता एक ब्यूटीपार्लर पहुंची. वहां नए किस्म का हेयरस्टाइल बनवा, चमकती कीमती शरारा ड्रैस पहने वह शोरूम में पहुंच गई.

‘‘नया विंटर कलैक्शन देखना है.’’

‘‘जरूर देखिए मैडम,’’ कह कर सुरेश ने तरहतरह के परिधान काउंटर पर फैला दिए. तभी शुभ्रा सिन्हा भी काउंटर पर आ कर फैले नए आए परिधान देखने लगीं.

एक शरारा और चोली को उठाते श्वेता ने कहा, ‘‘इस का ट्रायल लेना है. ट्रायल रूम किधर है?’’

सुरेश ने कैबिन की तरफ इशारा किया और विनोद की तरफ देखा. उस का आशय समझ विनोद काउंटर से निकल पिछवाड़े चला गया. कैबिन का दरवाजा बंद कर श्वेता ने ट्रायल के लिए लाया परिधान एक हैंगर पर टांग मिरर की तरफ देखा. फिर नीचे झुक कर अपने सैंडल उतारने लगी. सैंडल उतार एक तरफ किए. फिर अपनी चोली के बटन खोलने का उपक्रम किया.

स्टोर रूम में छिपे नजारा कर रहे विनोद ने मुसकरा कर कैमरे का फोकस सामने कर क्लिक के बटन पर हाथ रखा. तभी श्वेता ने हाथ पीछे कर नीचे झुकाया और एक सैंडल उठा कर उस से तगड़ा वार शीशे पर किया.

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तड़ाक की आवाज के साथ शीशे के परखच्चे उड़ गए. सकपकाया सा सामने दिखता विनोद पीछे को हुआ तभी शुभ्रा सिन्हा ने कैबिन का दरवाजा खोल हाथ में रिवौल्वर लिए कैबिन में कदम रखा और रिवौल्वर विनोद की तरफ करते रोबीली आवाज में कहा, ‘‘हैंड्सअप.’’

फिर चंद क्षणों में सारे शोरूम में खाकी वरदी में दर्जनों पुलिसकर्मी, जिन में लेडीजजैंट्स दोनों थे फैल गए. कैमरे के साथ विनोद फिर सुरेश और फिर सिलसिलेवार ढंग से सिकंदर व फोटोग्राफर सब पकड़े गए. दर्जनों न्यूड फिल्में भी मिलीं. सब को केस दर्ज कर जेल भेज दिया गया. मामले को पुलिस ने इस तरह हैंडल किया कि श्वेता और किसी अन्य स्त्री का नाम सामने नहीं आया. प्रशांत अपनी पत्नी द्वारा इस तरह की विशेष समस्या को अकेले सुलझा लेने से हैरान थे. प्यार से उन्होंने कहा, ‘‘माई डियर, आप तो होममिनिस्टर के साथ शारलाक होम्ज भी हैं.’’ श्वेता मंदमंद मुसकरा रही थी.

Serial Story: जड़ों से जुड़ा जीवन- भाग 1

लेखक-  वीना टहिल्यानी

‘डैड इस समय घर में,’ यह सोच कर ही मिली का दिल बैठ गया. स्कूल से घर लौटने का सारा उत्साह जाता रहा. दिन के दूसरे पहर में, डैड का घर में होने का मतलब है वह बैठ कर पी रहे होंगे.

शराब पी लेने के बाद डैड और भी अजनबी हो जाते हैं. उन के मन के भाव उन की आंखों में उतर आते हैं. तब मिली को डैड से बहुत डर लगता है. सामने पड़ने में उलझन होती है.

मिली ने धीरे से दरवाजा खोला. दरवाजे की ओर डैड की पीठ थी. हाथ में गिलास थामे वह टेलीविजन देख रहे थे. दबेपांव मिली सीढि़यां चढ़ कर अपने कमरे में पहुंच गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. बैग को कमरे में एक ओर पटका और औंधेमुंह बिस्तर पर जा पड़ी. कितनी देर तक मिली यों ही लस्तपस्त पड़ी रही.

अचानक मिली को हलका सा शोर सुनाई दिया तो वह चौंक कर उठ बैठी. शायद आंख लग गई थी. नीचे वैक्यूम क्लीनर के चलने की धीमी आवाज आ रही थी.

‘अरे हां,’ मिली के मुंह से अपनेआप बोल फूट पड़े, ‘आज तो फ्राइडे है… साप्ताहिक सफाई का दिन.’ उस ने खिड़की से नीचे झांका तो पोर्च  में मिसेज स्मिथ की छोटी कार खड़ी थी. डैड की गाड़ी गायब थी, शायद वह कहीं निकल गए थे.

मिली ने झटपट ब्लेजर हैंगर में टांगा. जूते रैक पर लगाए और गरम पानी के  बाथटब में जा बैठी.

नहाधो कर मिली नीचे पहुंची तो मिसेज स्मिथ डिशवाशर और वाशिंग मशीन लगा कर साफसफाई में लगी थी.

शुक्रवार को मिसेज स्मिथ के आने से मिली डिशवाशिंग से बच जाती है वरना स्कूल से लौट कर लंच के बाद डिशवाशर लगाना, बरतन पोंछना व सुखाना उसी का काम है.

मिली को बड़े जोर से भूख लग आई तो उस ने फ्रिज खोल कर अपनी प्लेट सजाई और माइक्रोवेव में उसे लगा कर खिड़की के पास आ कर खड़ी हो गई. सुरमई सांझ बिलकुल बेआवाज थी.

ऐसी खामोशी में मिली का मन अतीत की गलियों में भटकने लगा और गुजरा समय कितना कुछ आंखों के आगे तिर आया.

बरसों बीत गए. मिली तब यही कोई 5 साल की रही होगी. सब समझते हैं कि मिली सबकुछ भूल चुकी है पर मिली कुछ भी तो नहीं भूल पाई है.

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वह देश, वह शहर और उस की गलियां व घर और इन सब के साथ फरीदा अम्मां की यादें जुड़ी हैं. और उस के ढेरों साथी, बालसखा, उस की यादों में आज भी बने हुए हैं.

तब वह मिली नहीं, मृणाल थी. उस के हुड़दंग करने पर फरीदा अम्मां उसे लंबेलंबे बालों से पकड़तीं और उस की पीठ पर धौल जड़ देतीं. बचपन की बातें सोचते ही मिली को पीठ पर दर्द का एहसास होने लगा और अनायास ही उस का हाथ अपने बौबकट बालों पर जा पड़ा. डाइनिंग टेबल पर मुंह में फिश-चिप्स का पहला टुकड़ा रखते ही मिली की जबान को माछेरझोल का स्वाद याद हो आया और याद आ गईं कोलकाता की छोटीछोटी शामें, बाल आश्रम के गलियारों में गुलगपाड़ा मचाते हमजोली, नाराज होती फरीदा अम्मां, नन्हेमुन्नों को पालने में झुलाती, सुलाती वेणु मौसी.

तब लंबेलंबे गलियारों व बरामदों वाला बाल आश्रम ही उस का घर था. पहली बार स्कूल गई तो घर और आश्रम में अंतर का भेद खुला. साथ ही उसे यह भी पता चला कि उस के मातापिता नहीं थे, वह अनाथ थी.

उस दिन स्कूल से लौट कर अबोध मिली ने पहला प्रश्न यही पूछा था, ‘फरीदा अम्मां, मेरी मां कहां हैं?’

फरीदा बरसों से अनाथाश्रम में काम कर रही थीं. एक नहीं अनेक बार वह इस सवाल का पहले भी सामना कर चुकी थीं. मिली के इस प्रश्न से वह एक बार फिर दुखी व बेचैन हो उठीं. उन के उस मौन पर मिली ने अपने सवाल को नए रूप में दोहराया, ‘फरीदा अम्मां, मेरा घर कहां है? मां मुझे यहां क्यों छोड़ गईं?’

नन्हे सुहेल को गोद में थपकी देते हुए फरीदा ने सहजता से उत्तर दिया, ‘रही होगी बेचारी की कोई मजबूरी…’

‘यह मजबूरी क्या होती है, अम्मां?’ उलझन में पड़ी मिली ने एक और प्रश्न किया.

मिली के एक के बाद एक प्रश्नों से फरीदा अम्मां झल्ला पड़ीं. तभी सुहेल जाग कर जोरजोर से रोने लगा था. सहम कर मृणाल ने अपना मुंह फरीदा की गोद में छिपा लिया और सुबकने लगी.

फरीदा ने पहले तो सुहेल को चुप कराया फिर मिली को बहलाया और उस के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘रो मत, बिटिया…मैं जो हूं तेरी मां…चलोचलो, अब हम दोनों मिल कर तुम्हारी किताब का नया पाठ पढ़ेंगे…’

मृणाल को अब खेलतेखाते उठते- बैठते बस एक ही इंतजार रहता कि मां आएगी…उसे दुलार कर गोद में बिठाएगी. स्कूल तक छोड़ने भी चलेगी-सोहम की मां जैसे. विदुला की मम्मी तो उस का बस्ता भी उठा कर लाती हैं…उस की भी मां होतीं तो यही सब करतीं न…पर…पर…वह मुझे छोड़ कर गईं ही क्यों?

फिर एक दिन लंदन से ब्र्र्राउन दंपती एक बच्चा गोद लेने आए और उन्हें मिली उर्फ मृणाल पसंद आ गई. सारी औपचारिकताएं पूरी होने पर काउंसलर उसे पास बैठा कर सबकुछ स्नेह से समझाती हैं:

‘मिली, तुम्हारे मौमडैड आए हैं. वह तुम्हें अपने साथ ले जाएंगे, खूब प्यार करेंगे. खेलने के लिए तुम्हें ढेरों खिलौने देंगे.’

मिली चौंक कर चुपचाप सबकुछ सुनती रही थी. फरीदा अम्मां भी यही सब दोहराती रहीं पर मिली खुश नहीं हो पाई. बाहर से देख कर लगता, मिली बहल गई है पर भीतर ही भीतर तो वह बहुत भयभीत है.

ऐसा पहले भी हो चुका है, कुछ लोग आ कर अपना मनपसंद बच्चा अपने साथ ले जाते हैं. अभी कुछ महीने पहले ही कुछ लोग नन्ही ईना को ले गए थे. ईना कितनी छोटी थी, बिलकुल जरा सी. वह हंसीखुशी उन की गोद में बैठ कर हाथ हिलाती चली गई थी पर मिली तो बड़ी है. सब समझती है कि उस का सबकुछ छूट रहा था. फरीदा अम्मां, घर, स्कूल संगीसाथी.

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मृणाल का रोना फरीदा अम्मां सह नहीं पातीं. आतेजाते अम्मां उसे बांहों में भर कर गले से लगाती हैं, फिर जोर से खिलखिलाती हैं. मिली भी उन का भरपूर साथ देती है, आतेजाते उन की गोद में छिपती है, उन के आंचल से लिपटती है.

जाने का दिन भी आ गया. सारी काररवाई  पूरी हो गई. अब तो बस, नए देश, नए नगर जाना था.

चलने से पहले अंतिम बार फरीदा ने मृणाल को गोद में बैठा कर गले से लगाया तो मिली फुसफुसाते, गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘फरीदा अम्मां, जब मेरी असली वाली मां आएंगी तो तुम उन्हें मेरा पता जरूर दे देना…’ इतना कहतेकहते मिली का गला रुंध गया था.

मिली का इतना कहना था कि फरीदा अम्मां का सब्र का बांध टूट गया और दोनों मांबेटी एकदूसरे से लिपट कर रो पड़ी थीं.

आखिर फरीदा ने ही धीरज धरा. अपनी पकड़ को शिथिल किया. फिर आंचल से आंसू पोंछे. भरे गले से बच्ची को समझाया, ‘जा बेटी, जा…बीती को भूल जा…अब यही तेरे मातापिता हैं… बिलकुल सच्चे…बिलकुल सगे. तू तो बड़ी तकदीर वाली है बिटिया जो तुझे इतना अच्छा घर मिला, अच्छा परिवार मिला… यहां क्या रखा है? वहां अच्छा खाएगी, अच्छा पहनेगी, खूब पढ़ेगी और बड़ी हो कर अफसर बनेगी…मेरी बच्ची यश पाए, नाम कमाए, स्वस्थ रहे, सुखी रहे, सौ बरस जिए…जा बिटिया, जा…मुड़ कर न देख, अब निकल ही जा…’ कहतेकहते फरीदा ने उसे गोद से उतारा और मिली उर्फ मृणाल की उंगली मिसेज ब्राउन को पकड़ा दी.

नई मां की उंगली पकड़ कर मिली, मृणाल से मर्लिन बन गई. नया परिवार पा कर कितना कुछ पीछे छूट गया पर यादें हैं कि आज भी साथ चलती हैं. बातें हैं कि भूलती ही नहीं.

घर के लाल कालीन पर पैर रखते ही मिली को लाल फर्श वाले बाल आश्रम के लंबे गलियारे याद आ जाते जिन पर वह यों ही पड़ी रहती थी…बिना चादरचटाई के. उन गलियारों की स्निग्ध शीतलता आज भी उस के पोरपोर में रचीबसी है.

मिली को शुरुआत में लंदन बड़ा ही नीरव लगा था. सड़कों पर कोलकाता जैसी भीड़ नहीं थी और पेड़ भी वहां जो थे हरे भरे न थे. सबकुछ जैसे स्लेटी. मिली को कुछ भी अपना न दिखता. दिल हरदम देश और अपनों के छूटने के दर्द से भरा रहता. मन करता कि कुछ ऐसा हो जाए जो फिर वह वापस वहीं पहुंच जाए.

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मौम उस का भरसक ध्यान रखतीं. खूब दुलार करतीं. डैड कुछ गंभीर से थे. कुछकुछ विरक्त और तटस्थ भी. उसे गोद लेने का मौम का ही मन रहा होगा, ऐसा अब अनुमान लगाती है मिली.

यहां सब से भला उस का भाई जौन है. उस से 8 साल बड़ा. खूब लंबा, ऊंचा, गोराचिट्टा. मिली ने उसे देखा तो देखती ही रह गई.

Serial Story: उल्टी पड़ी चाल- भाग 3

लेखक- एडवोकेट अमजद बेग

‘‘मकतूल के शौहर ने मक्कारी और चालबाजी से मुलजिम के एक लाख रुपए अपने घर की ऊपरी मंजिल बनवाने में खर्च करवाए. यह रकम मुलजिम ने बैंक से कर्ज ली थी. जब काजी का मकसद पूरा हो गया तो उस ने एक खूबसूरत साजिश कर के मुलजिम को घर छोड़ने पर राजी कर लिया और फिर अपनी बीवी के कत्ल में फंसा कर पुलिस के हवाले कर दिया.’’

दोनों तरफ से बहस और दलीलें चलती रहीं. जज ने जमानत रद्द करते हुए फुरकान को न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया. अगली तारीख 15 दिन बाद की थी. मुझे अदालत में फुरकान के घर के लोग नजर नहीं आए.

अली मुराद जीजान से दामाद की मदद कर रहा था. मैं ने अली मुराद से कहा, ‘‘अली मुराद, केस बहुत उलझा हुआ है. फुरकान को तब तक रिहाई नहीं मिल सकती जब तक कि ऊपरी मंजिल बनाने में काजी वहीद झूठा साबित न हो जाए. इस के लिए कई लोगों से तुम्हें अंदर की हकीकत मालूमात करनी पड़ेगी.’’

मैंने उसे कुछ लोगों के नाम बताए और काम बता दिए. अली मुराद ने मुझ से वादा किया कि वह जरूरी जानकारी ले कर आएगा.

अगली पेशी पर जज ने मुलजिम का जुर्म पढ़ कर सुनाया. मुलजिम ने जुर्म से साफ इनकार कर दिया था. विपक्ष का वकील तरहतरह के सवाल करता रहा, पर फुरकान अपनी बात पर डटा रहा कि वह बेकसूर है. अपनी बारी पर मैं ने जिरह की शुरुआत करते हुए कहा, ‘‘तुम जनवरी से ले कर मार्च तक 3 महीने मकतूला रशीदा के घर किराएदार की हैसियत से रहे. उस के बाद क्या हुआ?’’

‘‘जी हां, यह सही है. हम 3 महीने एक साथ एक परिवार की तरह रहे. मार्च में वहीद काजी ने कुछ रकम खर्च कर के छत पर छोटा सा घर बनाने की औफर दी. मैं ने बैंक से लोन ले कर उस के औफर पर अमल कर डाला.’’

‘‘तुम ने बैंक से कितना कर्ज लिया था?’’

‘‘मैं ने बैंक  से एक लाख कर्ज लिया था. 75 हजार वहीद काजी को 2 कमरे बनाने को दिए. 25 हजार वुडवर्क में खर्च हुए. मुझे 2 कमरे पूरे एक लाख रुपए में पडे़ थे.’’

‘‘तुम कौमर्स पढ़ेलिखे आदमी हो. बैंक में काम करते हो, उस के बावजूद तुम ने इतनी बड़ी डील बिना किसी लिखतपढ़त के कैसे कर ली?’’

‘‘आप सही कह रहे हैं, पर उस वक्त काजी की मोहब्बत भरी बातों ने मेरी अक्ल पर पर्दा डाल दिया था. मैं उस के फ्रौड को समझ नहीं सका और बिना कागजी काररवाई के एक लाख रुपया खर्च कर दिया.’’

उस जमाने में एक लाख रुपए बहुत बड़ी रकम होती थी. मैं वहीद काजी की चालाकी और मक्कारी जज के सामने लाना चाहता था. इसलिए मैं ने अपने सवालों का रुख बदल दिया.

‘‘तुम्हें पहली बार काजी के फ्रौड का अहसास कब हुआ?’’

‘‘सितंबर के आखिर में काजी ने मुझ से कहा कि मकान खरीदने के लिए एक पार्टी मिल गई है, जो 6 लाख रुपए देने को तैयार है. काजी ने मकान पर 2 लाख खर्च किए थे और मैं ने एक लाख. उस ने मुझे 2 लाख देने की औफर दी और मुझे उस की बात माननी पड़ी. क्योंकि ऊपरी मंजिल के मालिकाना हक के कागजात मेरे पास नहीं थे.

‘‘2 कमरों के बारे में काजी ने जितने वादे किए थे, सब जुबानी थे. जब भी मैं लिखित की बात करता वह बहाने बना कर टाल देता. इसलिए उस के औफर को मानने के अलावा मेरे पास कोई और रास्ता नहीं था.’’

मैं ने देखा जज बहुत ध्यान से सारी बात सुन रहा था और नोट भी करता जा रहा था. मैं ने कहा, ‘‘काजी ने मकान की बिक्री की स्कीम के बारे में क्या कहा?’’

‘‘उस ने मुझे सलाह दी कि मैं कुछ अरसे के लिए अपनी ससुराल में शिफ्ट हो जाऊं. मकान बिकते ही वो मुझे 2 लाख दे देगा, जिस से मैं नए घर का बंदोबस्त कर सकता था.’’

विपक्ष का वकील काफी देर से चुप था. उस ने ऐतराज उठाया, ‘‘अदालत में रशीदा मर्डर केस की सुनवाई हो रही है. मकान की नहीं.’’

मैं ने कहा, ‘‘जनाबे आली, रशीदा मर्डर केस मकान और एक लाख रुपए से इस तरह जुड़ा हुआ है कि उसे अलग नहीं किया जा सकता. यहीं से मर्डर केस का राज खुलेगा.’’ जज ने ऐतराज खारिज कर दिया और तेज लहजे में कहा, ‘‘जिरह जारी रखी जाए.’’

मैं ने आगे पूछा, ‘‘उस के बाद काजी ने क्या कहा?’’

‘‘एक बार फिर काजी ने मुझे धोखा देना चाहा कि हम एक बड़ा मकान खरीद लेंगे और फिर साथ रहेंगे. पर अब मुझे अक्ल आ चुकी थी. मैं ने साफ इनकार कर दिया. अक्तूबर के पहले हफ्ते में मैं अपनी ससुराल में शिफ्ट हो गया. उस के बाद 10-12 दिन तक मैं लगभग रोज ही अपनी रकम की मांग करता रहा. पर काजी टस से मस नहीं हुआ. हर बार कोई न कोई बहाना बना कर टाल देता.

‘‘14 अक्तूबर की शाम मेरी काजी से तेज झड़प हुई. मैं ने उस से 2 लाख की रकम की डिमांड की. काजी ने मुझे पुराने अहसान याद दिलाए और एक तकरीर कर डाली. आखिर तंग आ कर मैं ने कहा, ‘मुझे 2 लाख नहीं चाहिए, आप मेरे पैसे ही लौटा दीजिए.’

‘‘उस ने गुस्से से कहा कि जब तुम खुद अपना नुकसान कर रहे हो और एक लाख छोड़ रहे हो तो कल शाम घर आ जाना. मैं तुम्हें पैसे लौटा दूंगा. आज मेरे पास मेरे मकान का एक लाख रुपया बयाना आने वाला है. क्योंकि मकान का सेल एग्रीमेंट हो जाएगा. कल शाम 8 बजे तुम आ जाओ, तुम्हारे पैसे मैं तुम्हारे मुंह पर दे मारूंगा.’’

‘‘तो क्या दूसरे दिन तुम्हें तुम्हारे पैसे मिल गए थे?’’

‘‘नहीं जनाब, जब 15 अक्तूबर की शाम 8 बजे मैं उस के घर पहुंचा तो वह घर पर नहीं मिला. देर तक घंटी बजाने, दरवाजा पीटने और पुकारने पर भी कोई बाहर नहीं आया. मैं मायूस हो कर वहां से लौट आया.’’

‘‘क्या घंटी बजाते या वापसी पर तुम्हें किसी ने देखा था?’’

‘‘रशीदा के शौहर काजी वहीद ने फुरकान को अपने घर में किराएदार की हैसियत से रखा था. कुछ दिनों बाद उन्होंने उसे ऊपरी मंजिल पर शिफ्ट कर दिया. बाद में घर बेचने के बहाने उसे बेदखल कर दिया. जब फुरकान ने हिसाब मांगा तो उसे कत्ल के इलजाम में बंद करवा दिया.’’

‘‘ओह, बहुत अफसोसनाक बात है. आप के कहे मुताबिक 2 दिन पहले यानी 15 अक्तूबर को उसे गिरफ्तार किया गया और 16 अक्तूबर को पुलिस ने फुरकान को अदालत में पेश कर के रिमांड ले लिया होगा. मतलब इस वक्त वह पुलिस कस्टडी में है.’’ मैं ने कागज पर लिखते हुए कहा.

‘‘जी, आप ठीक कह रहे हैं.’’

‘‘अच्छा यह बताइए कौन से थाने में बंद है और हां मुझे सही तरीके से बताएं कि आप के दामाद फुरकान और काजी वहीद के बीच कैसे ताल्लुकात थे. इस मुसीबत के वक्त फुरकान के घर वाले कहां हैं?’’

उस ने ठंडी सांस ले कर कहा, ‘‘घर वालों ने उस का बायकाट कर रखा है. वे लोग फुरकान और मेरी बेटी की शादी के सख्त खिलाफ थे. शादी के मौके पर फुरकान ने खुशामद कर के उन्हें शामिल कर लिया था. शादी के बाद करीब 3 महीने मेरी बेटी असमत ससुराल में रही, पर लड़ाईझगड़े और तनाव इस हद तक बढ़ गए कि उन्हें किराए पर घर ले कर अलग होना पड़ा.’’

Mother’s Day Special: मां हूं न- भाग 1

आराधना, जिसे घर में सभी प्यार से अरू कहते थे. सुबह जल्दी सो कर उठती या देर से, कौफी बालकनी में ही पीती थी. आराधना कौफी का कप ले कर बालकनी में खड़ी हो जाती और सुबह की ठंडीठंडी हवा का आनंद लेते हुए कौफी पीती. इस तरह कौफी पीने में उसे बड़ा आनंद आता था. उस समय कोठी के सामने से गुजरने वाली सड़क लगभग खाली होती थी. इक्कादुक्का जो आनेजाने वाले होते थे, उन में ज्यादातर सुबह की सैर करने वाले होते थे. ऐसे लोगों को आतेजाते देखना उसे बहुत अच्छा लगता था.

वह अपने दादाजी से कहती भी, ‘आई एम डेटिंग द रोड. यह मेरी सुबह की अपाइंटमेंट है.’

उस दिन सुबह आराधाना थोड़ा देर से उठी थी. दादाजी अपने फिक्स समय पर उठ कर मौ िर्नंग वाक पर चले गए थे. आराधना के उठने तक उन के वापस आने का समय हो गया था. आरती उन के लिए अनार का जूस तैयार कर के आमलेट की तैयारी कर रही थी. कौफी पी कर आराधना नाश्ते के लिए मेज पर प्लेट लगाते हुए बोली, ‘‘मम्मी, मैं ने आप से जो सवाल पूछा था, आप ने अभी तक उस का जवाब नहीं दिया.’’

‘‘कौन सा सवाल?’’ आरती ने पूछा.

‘‘वही, जो द्रौपदी के बारे में पूछा था.’’

फ्रिज से अंडे निकाल कर किचन के प्लेटफौर्म पर रखते हुए आरती ने कहा, ‘‘मुझे नाश्ते की चिंता हो रही है और तुझे अपने सवाल के जवाब की लगी है. दादाजी का फोन आ गया है, वह क्लब से निकल चुके हैं. बस पहुंचने वाले हैं. उन्हीं से पूछ लेना अपना सवाल. तेरे सवालों के जवाब उन्हीं के पास होते हैं.’’

आरती की बात पूरी होतेहोते डोरबेल बज गई. आराधना ने लपक कर दरवाजा खोला. सामने दादाजी खड़े थे. आराधना दोनों बांहें दादाजी के गले में डाल कर सीने से लगते हुए लगभग चिल्ला कर बोली, ‘‘वेलकम दादाजी.’’

आराधना 4 साल की थी, तब से लगभग रोज ऐसा ही होता था. जबकि आरती के लिए रोजाना घटने वाला यह दृश्य सामान्य नहीं था. ऐसा पहली बार तब हुआ था, जब अचानक सुबोध घरपरिवार और कारोबार छोड़ कर एक लड़की के साथ अमेरिका चला गया था. उस के बाद सुबोध के पिता ने बहू और पोती को अपनी छत्रछाया में ले लिया था.

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आरती ने देखा, उस के ससुर यानी आराधना के दादाजी ने उस का माथा चूमा, प्यार किया और फिर उस का हाथ पकड़ कर नाश्ते के लिए मेज पर आ कर बैठ गए. उस दिन सुबोध को गए पूरे 16 साल हो गए थे.

जाने से पहले उस ने औफिस से फोन कर के कहा था, ‘‘आरती, मैं हमेशा के लिए जा रहा हूं. सारे कागज तैयार करा दिए हैं, जो एडवोकेट शर्मा के पास हैं. कोठी तुम्हारे और आराधना के नाम कर दी है. सब कुछ तुम्हें दे कर जा रहा हूं. पापा से कुछ कहने की हिम्मत नहीं है. माफी मांगने का भी अधिकार खो दिया है मैं ने. फिर कह रहा हूं कि सब लोग मुझे माफ कर देना. इसी के साथ मुझे भूल जाना. मुझे पता है कि यह कहना आसान है, लेकिन सचमुच में भूलना बहुत मुश्किल

होगा. फिर भी समझ लेना, मैं तुम्हारे लिए मर चुका हूं.’’

आरती कुछ कहती, उस के पहले ही सुबोध ने अपनी बात कह कर फोन रख दिया था. आरती को पता था कि फोन कट चुका है. फिर भी वह रिसीवर कान से सटाए स्तब्ध खड़ी थी. यह विदाई मौत से भी बदतर थी. सुबोध बसाबसाया घर अचानक उजाड़ कर चला गया था.

दादा और पोती हंसहंस कर बातें कर रहे थे. आरती को अच्छी तरह याद था कि उस दिन सुबोध के बारे में ससुर को बताते हुए वह बेहोश हो कर गिर गई थी. तब ससुर ने अपनी शक्तिशाली बांहों से उसे इस तरह संभाल लिया था, जैसे बेटे के घरसंसार का बोझ आसानी से अपने कंधों पर उठा लिया हो.

‘‘आरती, तुम ने अपना जूस नहीं पिया. आज लंच में क्या दे रही हो?’’ आरती के ससुर विश्वंभर प्रसाद ने पूछा.

‘‘पापा, आज आप की फेवरिट डिश पनीर टिक्का है.’’ आरती ने हंसते हुए कहा.

‘‘वाह! आरती बेटा, तुम सचमुच अन्नपूर्णा हो. तुम्हें पता है अरू बेटा, जब पांडवों के साथ द्रौपदी वनवास भोग रही थी, तभी एक दिन सब ने भोजन कर लिया तो…’’

‘‘बस…बस दादाजी, यह बात बाद में. मेरे बर्थडे पर आप ने मुझे जो टेल्स औफ महाभारत पुस्तक गिफ्ट में दी थी, कल रात मैं उसे पढ़ रही थी, क्योंकि मैं ने आप को वचन दिया था. दादाजी उस में द्रौपदी की एक बात समझ में नहीं आई. उसी से मुझे उस पर गुस्सा भी आया.’’

‘‘द्रौपदी ने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया था बेटा, जो तुम्हें उस पर गुस्सा आ गया?’’

‘‘अपने बेटे के हत्यारे को उन्होंने माफ कर दिया था. अब आप ही बताइए दादाजी, इतने बड़े अपराध को भी भला कोई माफ करता है?’’

‘‘अश्वत्थामा का सिर तो झुक गया था न?’’

‘‘व्हाट नानसैंस, जिंदा तो छोड़ दिया न? बेटे के हत्यारे को क्षमा, वह भी मां हो कर.’’ आराधना चिढ़ कर बोली.

‘‘बेटा, वह मां थी न, इसलिए माफ कर दिया कि जिस तरह मैं बेटे के विरह में जी रही हूं, उस तरह का दुख किसी दूसरी मां को न उठाना पड़े. बेटा, इस तरह एक मां ही सोच सकती है.’’

आराधना उठ कर बेसिन पर हाथ धोते हुए बोली, ‘‘महाभारत में बदला लेने की कितनी ही घटनाएं हैं. द्रौपदी ने भी तो किसी से बदला लेने की प्रतिज्ञा ली थी?’’

प्लेट ले कर रसोई में जाते हुए आरती ने कहा, ‘‘दुशासन से.’’

‘‘एग्जैक्टली, थैंक्स मौम. द्रौपदी ने प्रतिज्ञा ली थी कि अब वह अपने बाल दुशासन के खून से धोने के बाद ही बांधेगी. इस के बावजूद भी क्षमा कर दिया था. क्या बेटे की मौत की अपेक्षा लाज लुटने का दुख अधिक होता है? यह बात मेरे गले नहीं उतर रही दादाजी.’’

उसी समय विश्वंभर प्रसाद के मोबाइल फोन की घंटी बजी तो वह फोन ले कर अंदर कमरे की ओर जाते हुए बोले, ‘‘बेटा, द्रौपदी अद्भुत औरत थी. भरी सभा में उस ने बड़ों से चीखचीख कर सवाल पूछे थे. हैलो प्लीज… होल्ड अप पर बेटा वह मां थी न, मां से बढ़ कर इस दुनिया में कोई दूसरा नहीं है.’’

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इतना कह कर विश्वंभर प्रसाद ने एक नजर आरती पर डाली, उस के बाद कमरे में चले गए. दोनों की नजरें मिलीं, आरती ने तुरंत मुंह फेर लिया. आराधना ने हंसते हुए कहा, ‘‘लो दादाजी ने पलभर में पूरी बात खत्म कर दी.’’

इस के बाद वह बड़बड़ाती हुई भागी, ‘‘बाप रे बाप, कालेज के लिए देर हो रही है.’’

आराधना और विश्वंभर चले गए. दोपहर को ड्राइवर आ कर लंच ले गया. आरती ने थोड़ा देर से खाना खाया और जा कर बैडरूम में टीवी चला कर लेट गई. थोड़ी देर टीवी देख कर उस ने जैसे ही आंखें बंद कीं, जिंदगी के एक के बाद एक दृश्य उभरने लगे. सांसें लंबीलंबी चलने लगीं.

हांफते हुए वह उठ कर बैठ गई. घड़ी पर नजर गई. सवा 3 बज रहे थे. 16 साल पहले आज ही के दिन इसी पलंग पर वह फफकफफक कर रो रही थी. डाक्टर सिन्हा सामने बैठे थे. दूसरी ओर सिरहाने ससुर विश्वंभर प्रसाद खड़े थे. वह सिर पर हाथ फेरते हुए कह रहे थे, ‘‘आरती, तुम्हें आज जितना रोना हो रो लो. आज के बाद फिर कभी उस कुल कलंक का नाम ले कर तुम्हें रोने नहीं दूंगा. डाक्टर साहब, मुझे पता नहीं चला कि यह सब कब से चल रहा था. पता नहीं वह कौन थी, जिस ने मेरा घर बरबाद कर दिया. उस ने तो लड़ने का भी संबंध नहीं रखा.’’

Serial Story: अनजानी डगर से मंजिल- भाग 2

लेखक- संदीप पांडे

मद्धम गति से गुजरती जिंदगी एकदम जैसे फास्ट फौरवर्ड हो गई. 3 घंटे बाद वे दोनों लगभग 8 किलोमीटर ऊंचेनीचे रास्तों पर पैदल अवलोकन करते थक के चूर हो चुके थे. उन का मार्गदर्शक सोजी भाई अभी उन को और भी घुमाने के लिए तैयार था पर अब  झाडि़यों व पहाडि़यों से पार पाना उन के बस से बाहर की बात लग रही थी. सोजी उन को पास ही एक  झोंपड़ी में ले गया. फर्श पर पसरी बकरी की मींगडियों और उन के लिए नई सी दुर्गंध के बावजूद वे वहीं लेट गए और लेटते ही  झपकी आ गई.

आधे घंटे गहरी नींद के बाद दोनों लगभग साथ उठे तो देखा सोजी नदारद था.  झोंपड़ी के आसपास तलाशने के बाद अब क्या करें, सोच ही रहे थे कि सोजी हाथ और कंधे पर कुछ लादे चला आता नजर आ गया. पास आ कर सामान उतार पसीना पोंछते हुए बोला, ‘‘आप को भूख लग गई होगी. खाने का सामान ले आया हूं. पहले ठंडा पानी पी लो.’’

अचरज से दोनों ने छक कर पानी पिया. अब वे फिर ताजा दम थे. तब तक सोजी ने पत्थर जोड़ कर चूल्हा बना दिया था और सूखी लकडि़यों को उस में डाल कर सुलगाने की तैयारी में था.

‘‘देशी अंडे की सब्जी और मक्की की रोटी बस थोड़ी देर में तैयार हो जाएगी. आप लोग तब तक सामने सौ कदम दूर बहते  झरने से यह चरी और मश्क भर कर ले आओ,’’ बोरे से चरी निकाल थमाते सोजी ने कहा. दोनों पगडंडी से  झरने तक पहुंच गए. गिरते पानी की मद्धिम आवाज कर्णप्रिय संगीत सी आनंदित कर रही थी. अंजुरी में  झरने का पानी भर कर छपाक से मुंह पर मारते ही जैसे नवस्फूर्ति से मन आलोकित हो गया. अभिजीत इस नए संसार में सबकुछ पुराना भूल बैठा था. पानी भर कर मद्धम गति से वे लौटे तो मिट्टी के उलटे तवे पर मक्की की मोटी रोटी सिंक रही थी.

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‘‘आप लोग जीमने बैठो,’’ सोजी ने  2 पत्तल बिछाते हुए कहा.

प्रबल जठराग्नि ने उन्हें बिना विलंब के बैठने पर मजबूर कर दिया. पत्तल के ऊपर रोटी, रोटी के ऊपर गाढ़ी अंडे की सब्जी. अभिजीत के लिए ऐसा भोजन पहली बार ही परोसा गया था. तब तक कुनाल रोटी को सब्जी में मसल कर खाना शुरू कर चुके थे. देखादेखी उस ने भी शुरू किया. मसाला तेज था पर बेहद स्वाद. वैसे भी भूखे पेट जो खाने को मिल जाए, स्वादिष्ठ ही लगता है. भरपेट भोजन के बाद नीम के पेड़ के नीचे अधलेटे उन्हें फिर गहरी नींद आ गई.

कुनाल ने उसे जब उठाया तब तक वह 2 घंटे और सो चुका था. दोपहर में ऐसी नींद शायद ही पहले कभी आई हो.  झोंपड़ी के सामने सोए सोजी को दोनों ने उठाया. तीनों के पूरी तरह जागृत अवस्था में आने के बाद कुनाल ने प्रस्ताव रखा, ‘‘क्यों न हम इस  झोंपड़ी को ही ठिकाना बना लें. अपने सर्वे एरिया के बीचोंबीच है. खाट बिस्तर की व्यवस्था कर लेते हैं. सोजी, यहां जंगली जानवर तो नहीं आते?’’

‘‘लोमड़ीगीदड तो आ जाते हैं, पर ज्यादा खतरे की बात नहीं है. खाट, गद्दे, रजाई की व्यवस्था हो जाएगी.’’

सहमति से निर्णय हो गया कि यहीं डेरा जमा लिया जाए. अगली सुबह साजोसामान और दलबल सहित आने के साथ यह तय हो गया कि रात ठाकुर साहब के यहां गुजार ली जाएगी. ठाकुर साहब की अनुभवी आंखों ने उन के अंदर संस्कारवान इंसान की पहचान कर ली थी, इसलिए घर में जवां बेटी और भतीजी होने के बावजूद 2 शहरी नवयुवकों के घर में रात्रिविश्राम से उन्हें आपत्ति न थी.

अभिजीत को अगली सुबह जल्दी उठने में कोई परेशानी नहीं हुई. समय पर वह कुनाल के साथ सोजी और गांव से तय किए गए 4 मजदूरों के साथ गंतव्य की ओर चल दिए. वहां पहुंचते ही काम शुरू कर दिया गया. डमपी लैवल सैट करने में ही पसीने छूट गए. जैसेतैसे ग्रिड बना, स्टाफ से रीडिंग लेते गणना की तो सबकुछ गलत ही हो रहा था. पहली बार काम करने में सारा तकनीकी ज्ञान समेटने के बावजूद कहां गलती हो रही है, पकड़ से बाहर थी. कुनाल इस सारे प्रकरण में अपनी राय और सहयोग से बचते नजर आ रहे थे.

सुबह से शाम होने को आई थी, पर कहीं से कुछ भी सही होता नजर नहीं आ रहा था. इस बीच गूंदे के अचार और कच्चे प्याज के साथ रोटी, जो लेबर अपने साथ लाए थे, से क्षुधापूर्ति कर ली थी. थकहार कर आखिर अभिजीत बोला, ‘‘बौस, ऐसे नहीं हो पाएगा, जयपुर चलते हैं. पापा के औफिस में एक ड्राफ्ट्समैन है, उस से पहले ठीक से सीख कर आते हैं,’’ कुनाल के पास हां बोलने के अलावा चारा न था. लावलश्कर वापस गांव लौट आया. सभी उपकरण ठीक से सोजी को संभलवा कर अब दोनों बुद्धू लौट के घर को चल दिए.

पूरे 5 दिनों तक जयपुर के एक खुले मैदान में रीडिंग लेने से मैप की प्लौटिंग तक कार्य को मनोयोग से सीखा गया. और अब वापस कार्यक्षेत्र की ओर लौटते हुए उन के चेहरे पूरी तरह खिले हुए थे.

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3 दिन में ही उन की फील्ड रीडिंग लेने की गति 3 गुना हो चुकी थी. उन को अब काम समय पर पूरा होता नजर आ रहा था. आज सोजी सब के लिए देशी मुरगा पका रहा था. 4 बजे तक सब काम समेट कर खाना खत्म कर चुके थे. अभिजीत को खाने के बाद ही नसों में रक्त का प्रवाह तेज होता प्रतीत होने लगा.

उधर, चारों सहयोगी श्रमिक भी तरंग मस्ती में आ चुके थे. एक ने देशी गीत की ऐसी तान छेड़ी कि अभिजीत ने अपनी कमीज उतार कर नाचना शुरू कर दिया. कुनाल को भी सुरूर ने अपनी आगोश में ले लिया था. उन को एक ही गाना आता था ‘ऐ मेरी जोहरा जबीं…’ जो पूरे गले के जोर से गाने लगे. मस्तीमजाक का माहौल 3 घंटे तक चलता रहा. कबाब के सेवन के बाद जिस को जहां जगह मिली, बेसुध हो कर पड़ गया.

वहां के माहौल में अब अभिजीत को पूरा रस आने लग गया था. काम को और गति देने के लिए 4 लेबर और बुला लिए गए थे. चारों में एक महिला बिदाम का रूप लावण्य से अभिजीत मोहित हुए बिना नहीं रह सका. सांचे में ढला बदन और खिलखिलाता चेहरा सब को अपनी ओर खींच ही लेता था. उसे पानी पिलाने जैसे कम श्रम वाला काम कराने के लिए लगभग सभी एकमत थे. बिदाम को भी इस का भान था, इसलिए पानी पिलाने और हंसीमजाक करते माहौल को खुशनुमा रखने के काम भली प्रकार से करने को भली प्रकार अंजाम दे रही थी.

Serial Story: बीवी का आशिक- भाग 3

लेखक- एम. अशफाक

‘‘जी, मैं यहीं प्लेटफार्म के आखिरी सिरे पर सोया करता था.’’ उस ने कहा, ‘‘यहां हवा भी अच्छी आती है और शोर भी कम होता है. उस रात साहब यहां आए तो मैं ने उन के आराम की खातिर उन्हें यहीं सुला दिया था.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी और बच्चे कहां हैं?’’

उस ने दांत निकाल कर कहा, ‘‘जी, अभी मेरी शादी नहीं हुई है.’’

‘‘उस रात एक माल गाड़ी भी तो आई थी, कितने बजे पहुंची थी यहां?’’

‘‘जी हां,’’ उस ने कहा, ‘‘आई थी, वह यहां 2 बज कर 7 मिनट पर पहुंची थी. यहां लोडिंग का कोई काम नहीं था, इसलिए मैं ने लाइन क्लियर कर सिग्नल दे दिया था.’’

‘‘माल गाड़ी यहां कितने मिनट ठहरी?’’

‘‘यही कोई 3 मिनट.’’

‘‘कोई उतरा भी था?’’

‘‘जी नहीं, माल गाड़ी के जाने के बाद भी मैं बहुत देर तक घूमता रहा, यहां कोई आदमी नहीं था.’’ उस ने आगे बताया कि सुबह जब सूरज निकलने के बाद भी वह अफसर अपने बिस्तर से नहीं उठा तो मैं उस के पास गया, उस का मुंह चादर से ढंका था. मैं ने चादर हटा कर देखी तो उस का सिर फटा हुआ था और खून बह कर जम चुका था.

अब मैं ने सोचना शुरू किया, कहीं उस का दुश्मन जोधपुर से ही तो सवार नहीं हुआ था. ताकि सुनसान इलाके में अपना काम कर सके. मैं ने स्टेशन के पूरे स्टाफ से पूछा कि उस गाड़ी से किसी को उतरते तो नहीं देखा. उन्होंने बताया कि अपने अफसर को देख कर सब लोग उस के पास इकट्ठे हो गए थे. वैसे 2 आदमी और भी उतरे थे, उन के साथ उन की बीवी और बच्चे भी थे, वे यहीं के रहने वाले थे.

मैं ने स्टेशन मास्टर से उस के काम के बारे में भी सवाल किए. मैं सोच रहा था कि यह भी हो सकता था कि वह अफसर स्टेशन मास्टर के विरुद्ध किसी शिकायत की छानबीन करने आया हो और स्टेशन मास्टर ने उस की हत्या करा दी हो. स्टेशन मास्टर ने बताया कि वह तो स्टेशन पर साधारण सी चैकिंग के लिए आया था. उसे खुद भी अपने किसी अफसर से शिकायत नहीं थी. वैसे मृतक बहुत सज्जन पुरुष था.

मुझे पथोरो पहुंचे 3 दिन बीत चुके थे. इस बीच मैं बहुत से लोगों से मिला, आनेजाने वाली गाडि़यों को देखता रहा. हत्या के बारे में सोचता रहा.

चौथे दिन मैं ने टे्रन पकड़ी और जोधपुर पहुंच गया. मुझे लगा कि हत्यारा जोधपुर में है और मृतक का दुश्मन है. मृतक का हेडक्वार्टर भी वहीं था. वहां मैं ने उस के दफ्तर से उस की पर्सनल केस फाइल निकलवाई और उसे पढ़ने लगा. उस के काम की हर अफसर ने तारीफ की. उस के विरुद्ध एक भी शिकायत नहीं मिली. मैं ने स्टेशन मास्टर और एएसएम की फाइलें भी देखीं. उन में भी कोई काम भी बात नहीं मिली. उस के बाद मैं ने मृतक के घर का पता लिया और उस की विधवा से मिलने चला गया.

वह काली साड़ी पहने बैठी थी, आंखें रोरो कर सूज गई थीं. मैं ने उस से पूछा कि क्या उसे अपने पति की हत्या के बारे में किसी पर शक है. किसी ऐसे आदमी पर जिसे वह उस का दुश्मन समझती हो. वह फूटफूट कर रोने लगी और रोतेरोते कहने लगी कि हर आदमी यही पूछता है कि उन की किसी से दुश्मनी तो नहीं थी.

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इस पर वह बोली, ‘‘अगर आप उन से मिले होते तो आप भी यही कहते कि वह बहुत ही सज्जन थे, किसी लड़ाईझगड़े के बारे में वह सोच भी नहीं सकते थे.’’

मैं ने उस से कहा कि मैं आप को दुखी करने नहीं आया, बल्कि मैं आप की मदद करने आया हूं. अगर आप इस संबंध में मुझे कुछ बता देंगी तो मैं हत्यारे को पकड़ कर उसे सजा दिलवा सकूंगा. देखिए कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन का ज्ञान पत्नी के अलावा किसी को नहीं होता. मुझे एक दो मोटीमोटी बातें बता दीजिए. उस ने कहा, ‘‘पूछिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘यह बताइए आप के पति रात को किस समय सो जाया करते थे?’’

वह बोली, ‘‘हम शाम ढलते ही भोजन कर लेते थे और वह रात 9 बजे तक सो जाया करते थे.’’

‘‘वह किस करवट सोया करते थे?’’

‘‘वह पहले तो बाईं करवट लेटते थे और आधी रात के बाद दाईर्ं करवट ले कर सुबह तक सोते थे.’’

‘‘क्या वह हर रात इसी तरह करवट लिया  करते थे?’’

‘‘हर रात,’’ उस ने जवाब दिया, ‘‘यह उन की आदत थी.’’

इतना पूछ कर मैं पहली ट्रेन पकड़ कर पथोरो वापस आ गया. मैं वहां के वेटिंग रूम में बैठा सोचता रहा. 5 दिन हो गए थे और मैं अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा था. मुझे यह भी सूचना मिल चुकी थी कि कराची  और हैदराबाद में मेरे बारे में खुसरफुसर हो रही थी, कि मैं अपने भाई अकबर शाह को बचाने के लिए तफ्तीश का रुख मोड़ने की कोशिश में लगा हुआ हूं.

लेकिन मैं ने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया और अपनी तफ्तीश में लगा रहा. मैं ने एक बार फिर पोस्टमार्टम रिपोर्ट निकाली और उसे पढ़ने लगा. मैं ने घावों वाले हिस्से को ध्यान से पढ़ा. तेज धारदार हथियार से 3 गहरे घाव… कनपटी के आसपास, हर एक की लंबाई 3 इंच. अर्थात कुल्हाड़ी के गहरे घाव थे, क्योंकि हत्यारे ने सिर के पास खड़े हो कर इत्मीनान से वार किए थे.

पहला ही वार जबरदस्त लगा होगा, क्योंकि मृतक अपनी जगह से हिला तक नहीं. सुबह तक इसी तरह चादर ओढ़े पड़ा रहा और फिर मैं रिपोर्ट के उस वाक्य पर ठिठक गया, तीनों घाव सिर के दाएं हिस्से पर… यानी मृतक बाईं करवट सो रहा था. उसी तरह जिस तरह वह रात के पहले हिस्से में सोता था. दाईं ओर करवट तो वह आधी रात के बाद लेता था. इस से यह साबित हुआ कि हत्या रात के पहले हिस्से में हुई थी. वहां मुझे बताया गया था कि हत्यारा शादीपुर से मालगाड़ी द्वारा रात के 2 बजे पथोरो पहुंचा था.

मैं पोस्टमार्टम रिपोर्ट पढ़ता रहा, आगे चल कर जब मेदे का विवरण आया तो मैं ने एक वाक्य पढ़ कर झटके से पढ़ना बंद कर दिया. उस में लिखा था कि मेदे में बिना हजम हुआ खाना मौजूद था. आगे पढ़ने की जरूरत भी नहीं थी, क्योंकि अफसर की हत्या का माल गाड़ी के आने से कोई संबंध नहीं था.

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हत्या तो रात के 12 बजे से भी बहुत पहले की गई थी. रात के पहले हिस्से में हत्या वही लोग करते हैं, जिन्हें अपने ठिकाने पर पहुंचने के लिए लंबी दूरी तय करनी होती है. अकबर शाह और तलजा राम के भेजे हुए हत्यारे को लंबी दूरी तय करनी थी. लेकिन जब इन सूबेदारों ने रात के 9 बजे किसी को हत्या करने के लिए भेजा तो वह हत्यारा 10 बजे तक पहुंचा कैसे?

मैं सुबह सवेरे वेटिंग रूम से निकला तो सामने एएसएम खड़ा मुस्कुरा रहा था. मैं ने उसे साथ लिया और स्टाफ के क्वार्टरों की ओर चल दिया.

‘‘कौन कौन रहता है यहां?’’ मेरे पूछने पर उस ने बताया, ‘‘यह पहला पानी वाले का है, दूसरा कांटे वाले का.’’

‘‘और यह तीसरा?’’

‘‘यह खाली पड़ा रहता है, इस से अगले में टिकट बाबू रहता है और उस से अगला मेरा है.’’

‘‘लेकिन तुम तो अविवाहित हो, क्वार्टर क्यों लिया हुआ है?’’

उस ने कहा, ‘‘जी यहां तो सब अविवाहित ही रहते हैं,  इस उजाड़ में बीवीबच्चों वाले भी अपनी फैमिली नहीं लाते.’’

‘‘तुम्हारा क्वार्टर तो बहुत अच्छा होगा, चलो देखें.’’

Serial Story: मासूम कातिल- भाग 3

लेखक- गजाला जलील

‘‘रजा साहब बाकायदा मेरा रिश्ता ले कर तुम्हारी अम्मा के पास जाएंगे. तुम्हारी अम्मा को राजी कर लेंगे, पर पहले तुम्हारी मंजूरी जरूरी है.’’

मैं उन के कदमों में झुक गई. उन्होंने मुझे उठा कर सीने से लगा लिया. मेरे तड़पते दिल व प्यासी रूह को जैसे सुकून मिल गया. हम दोनों रोज मिलने लगे पर दुनिया से छिप कर. मैं तो अपने महबूब को पा कर जैसे पागल हो गई थी. सब से बड़ी खुशी की बात यह थी कि उन्होंने अपनी मोहब्बत का इजहार शादी के पैगाम के बाद किया था. वह कहते थे, ‘‘सुहाना, मैं तुम्हें दुनिया की हर खुशी देना चाहता हूं.’’

और मैं कहती, ‘‘बस थोड़ा सा इंतजार मेरे महबूब.’’

‘‘जैसी तुम्हारी मरजी.’’ कह कर वह चुप हो जाते.

अब हालात बदल गए थे. मैं औफिस में उन के करीब रहती, हमारे बीच में बहुत से फैसले हो गए थे. मां की आंखों की रोशनी चली गई थी. हमारी मोहब्बत तूफान की तरह बढ़ रही थी. मैं अपनी मां की नसीहत, अपनी मर्यादा भूल कर सारी हदें पार कर गई. औफिस के बाद हम काफी वक्त साथ गुजारते. इमरान साहब ने मुझे कीमती जेवर, महंगे तोहफे और कार देनी चाही, पर मैं ने यह कह कर इनकार कर दिया कि ये सब मैं शादी के बाद कबूल करूंगी.

मैं ने उन पर अपना सब कुछ निछावर कर दिया. एक गरीब लड़की को ऐसा खूबसूरत और चाहने वाला मर्द मिले तो वह कहां खुद पर काबू रख सकती है. मैं शमा की तरह पिघलती रही, लोकलाज सब भुला बैठी.

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अली रजा साहब उन दिनों छुट्टी पर गए हुए थे. मैं ने इमरान हसन से कहा, ‘‘अब आप अम्मा से मेरे रिश्ते के लिए बात कर लीजिए. आप अम्मा के पास कब जाएंगे?’’

‘‘जब तुम कहोगी, तब चले जाएंगे.’’

‘‘अच्छा, परसों चले जाइएगा.’’

‘‘जानेमन, अभी अली रजा साहब छुट्टी पर हैं. वह आ जाएं, कोई बुजुर्ग भी तो साथ होना चाहिए.’’

मैं खामोश हो गई. अब वही मेरी जिंदगी थे. दिन गुजरते रहे वह अम्मा के पास न गए. अली रजा साहब भी पता नहीं कितनी लंबी छुट्टी पर गए थे. धीरेधीरे इमरान साहब का रवैया मेरे साथ बदलता जा रहा था. अली रजा साहब छुट्टी से वापस आ गए. मैं ने इमरान साहब से कहा, ‘‘आप कुछ उलझेउलझे से नजर आते हैं. क्या बात है?’’

‘‘कुछ बिजनैस की परेशानियां हैं. लाखों का घपला हो गया है. मुझे देखने के लिए बाहर जाना पड़ेगा.’’

‘‘आप अम्मा से मिल लेते तो बेहतर था.’’

‘‘हां, उन से भी मिल लेंगे, पहले ये मसला तो देख लें. लाखों का नुकसान हो गया है.’’

उन का लहजा रूखा और सर्द था. उन्होंने मुझ से कभी इस तरह बात नहीं की थी. मैं परेशान हो गई. रात भर बेचैन रही. मैं ने फैसला कर लिया कि सवेरे अली रजा साहब से कहूंगी कि वह इमरान साहब को ले कर अम्मा के पास मेरे रिश्ते के लिए जाएं. वह मुझे बहुत मानते हैं, वह जरूर ले जाएंगे.

दूसरे दिन मैं इमरान के औफिस में बैठी उन का इंतजार कर रही थी. 12 बजे तक वह नहीं आए, मैं अली रजा साहब के पास गई और उन से पूछा, ‘‘सर, अभी तक बौस नहीं आए?’’

अली रजा साहब बोले, ‘‘वह तो कल रात को फ्लाइट से स्वीडन चले गए.’’

मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. वह मुझे बिना बताए बाहर चले गए. मुझ से मिले भी नहीं.

‘‘मेरे लिए कुछ कह गए हैं?’’

‘‘हां, इमरान साहब की वापसी का कोई यकीन नहीं है. 7-8 महीने या साल-2 साल भी लग सकते हैं. कारोबार वहीं से चलता है. उन्हें वहां का बिगड़ा हुआ इंतजाम संभालना है. आप अपनी सीट पर वापस आ जाइए.’’ अली रजा साहब ने सपाट लहजे में कहा.

मुझे चक्कर सा आ गया. मैं ने एक हफ्ते की छुट्टी ली और घर आ गई.

कुदरत के भी अजीब खेल हैं. मां की रोशनी इसलिए छिन गई थी ताकि वह मेरी यह हालत न देख सकें. मैं अपने कमरे में पड़ी रहती, रोती रहती. मुझे एक पल का चैन नहीं था. पलपल मर रही थी मैं.

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एक हफ्ते बाद एक उम्मीद ले कर औफिस पहुंची. शायद कोई अच्छी खबर आई हो. मैं ने अली रजा साहब से पूछा, ‘‘इमरान साहब की कोई खबर आई?’’

‘‘हां आई, ठीक हैं. औफिस के बारे में डिसकस करते रहे. क्या तुम्हें उन का इंतजार है?’’

‘‘जी, मैं उन की राह देख रही हूं.’’

‘‘बेकार है, जब वे आएंगे तो तुम्हें भूल चुके होंगे.’’

मेरी आंखों से आंसू बह निकले. उन्होंने दुख से कहा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता तुम्हें क्या कहूं? तुम जैसी मासूम व बेवकूफ लड़कियां आंखें बंद कर के भेडि़ए के सामने पहुंच जाती हैं. तुम्हारे घर वाले लड़कियों को अक्ल व दुनियादारी की बात क्यों नहीं सिखाते? तुम्हें यह क्यों नहीं समझाया गया, जहां तुम जा रही हो, वे लोग कैसे हैं. उन का स्टाइल क्या है. वहां तुम जैसी लड़कियों की क्या कीमत है. सब जानते हैं, ये अमीरजादे साथ नहीं निभाते, बस कुछ दिन ऐश करते हैं. पर तुम लोग उन्हें जीवनसाथी समझ कर खुद को लुटा देती हो.’’

मैं सिसकने लगी, ‘‘रजा साहब, मैं ने ये सब जानबूझ कर नहीं किया, दिल के हाथों मजबूर थी. उन की झूठी मोहब्बत को सच्चाई समझ बैठी.’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘सुहाना, अगर तुम अपनी इज्जत गंवा चुकी हो तो चुप हो जाओ, चिल्लाने से कुछ हासिल नहीं होगा. वह लौट कर नहीं आएगा, ऐसा वह कई लड़कियों के साथ पहले भी कर चुका है. अब तुम अपने फ्यूचर की फिक्र करो. बाकी सब भूल जाओ.’’

सुहाना अपनी कहानी सुनाते हुए बोली, ‘‘मैं ने सब समझ लिया. वक्त से पहले अपनी बरबादी को स्वीकार कर लिया. मेरे पास सिवा पछताने के और कुछ नहीं बचा था. मैं ने औफिस जाना छोड़ दिया. मां से बहाना कर दिया. उन्होंने ज्यादा पूछताछ की तो झिड़क दिया.’’

वक्त गुजरता रहा. मां चुप सी हो गईं. गुजरबसर जैसेतैसे हो रही थी. चंद माह गुजर गए और फिर पड़ोसियों ने मां से कह दिया. अम्मा ने मुझे टटोल कर देखा और एक दर्दभरी चीख के साथ बेहोश हो कर नीचे गिर गई. सदमा इतना बड़ा था कि वह बरदाश्त न कर सकी और फिर कभी नहीं उठ सकीं.

Short Story: कोरोना और अमिताभ

मैं मॉर्निंग वॉक करके आया तो वाशबेसिन में हाथ धोने खड़ा हो गया, साबुन लगाया… हाथ धोने लगा, आंखों के आगे अचानक  अमिताभ बच्चन आकर खड़े हो गए… मुस्कुरा कर देख रहे थे.. मैं चौका और संभल कर,  दिखाने के लिए, तन्मय हाथ धोते रहा, मैं सोच रहा था अमिताभ जी सामने खड़े हैं और देख रहे हैं कि मैं हाथ ठीक से, उनके कथनानुसार  धो रहा हूं कि नहीं , मैं जरा सकपकाया, भाई! सदी के महानायक हैं! कह रहे हैं 20 सेकंड हाथ धोना है, तो धो लो!!

अमिताभ बच्चन मेरी ओर देख रहे हैं, मैं हाथ धो रहा हूं उनके चेहरे पर गंभीर भाव था बोले- ” हूं…बीस सेकेंड हाथ धोना है , दो गज की दूरी बनाए रखना, मास्क पहनना है, ओके.”

मैंने कहा-” अमिताभ जी! देखो, मैं तो आपका कहना मान रहा हूं आपने कहा है तो पालन तो करना ही है, मगर एक  बात अभी अभी मेरे दिमाग में आई है, कृपया उसका जवाब दीजिए.”

अमिताभ बच्चन के चेहरे पर स्मित मुस्कुराहट खेलने लगी, बोले-” हां हां भाई, पूछो.”

यह उन्होंने अपने खास अंदाज में कहा जैसे अक्सर कहते हैं, मैंने गला साफ करते हुए कहा-” आपने कहा है 20 सेकंड हाथ धोना है, है ना! यह आपको कैसे पता कि 20 सेकंड हाथ धोना है, इससे कोरोना संक्रमण खत्म हो जाता है.”

अमिताभ बच्चन की आंखें बड़ी बड़ी हो गई वक्र दृष्टि से देखने लगे फिर शांत भाव से अपने ही अंदाज में बोले,- “भाई! यह तो सामान्य बात है, मुझे स्क्रिप्ट दी गई, मैंने अपने अंदाज में पढ़ दी है… और हां, याद आया, यह डब्ल्यूएचओ का कहना है उसका मार्गदर्शन है, मेरी कोई कोरी कल्पना नहीं है भाई.”अमिताभ निश्चल हंसी हंसने लगे

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अमिताभ ने मुझे बड़ी अच्छी तरह समझाया था और शांत भाव से मेरे चेहरे की ओर देखने लगे मानो पढ़ रहे हो कि मैं संतुष्ट हुआ कि नहीं, मैंने चेहरे पर कोई भी भाव लाय बिना सहजता से पुनः सवाल किया-” अमिताभ जी, आप तो महानायक हैं, मैं तो आपका फैन हूं आप की फिल्में देखता हूं , आप जो कहते हैं मैं मान लूंगा मगर…”

” फिर मगर, भाई!” अमिताभ बोले

“यह कोरोना 20 सेकंड में मर जाएगा, इसकी क्या गारंटी है.” मैंने डरते डरते पूछा

“यह तो गलत बात है, भाई! जब हम कह रहे हैं.” उन्होंने अधिकार पूर्वक  कहा

“नहीं! मैं यह सोच रहा हूं, मान लो कोरोना का स्टैंन अब बढ़ गया हो, आपने यह बात तो बहुत पहले कही थी, अभी स्टैंन    बदल गया हो, फिर क्या करूं…”

“क्या मतलब?”

“देखिए, माफ करिए अमिताभ जी! मैं आपका बहुत बहुत बड़ा फैन हूं मगर मेरे दिमाग में पता नहीं यह सवाल क्यों उठ रहा है कि मान लीजिए अब कोरोनावायरस 20 सेकंड में ही नहीं मरता हो ! अब हो सकता है उसकी ऊर्जा बढ़ गई हो 21 या 22 सेकंड हाथ धोने पर मरे, तब क्या होगा!”

अमिताभ बच्चन मेरी बाल बुद्धि पर  हंसे, फिर कहा,-” तो भाई! 22 सेकंड हाथ धो लो 25 सेकंड हाथ धो लो, अच्छी बात है.. ”

“अच्छा, हो सकता है 25 सेकंड में  वायरस नहीं मरता हो 30 सेकंड हाथ धोने पर खत्म हो तब…” मैंने बड़ी मासूमियत से कहा

” अरे! यह क्या बात है! तुम तो…”

” हो सकता है, अब 60 सेकंड यानी 1 मिनट हाथ धोने पर ही वायरस खत्म हो रहा हो, फिर क्या करूं.”

अमिताभ बच्चन बोले-” हां तो ठीक है, पूरे 60 सेकंड हाथ धो लो.”

“मगर मुझे पता नहीं क्यों लग रहा है वायरस की शक्ति बढ़ गई होगी, जिस तरह प्रकोप मचा हुआ है, लोग मर रहे हैं 2 मिनट हाथ धोना चाहिए तब ही कोरोनावायरस खत्म होगा.” मैंने भोलेपन से कहा

“देखो भाई…” अमिताभ बच्चन अपनी शैली में समझाते हुए बोले,-” अभी कुछ अनुसंधान चल रहे हैं, वैज्ञानिक शोध में लगे हुए हैं, यह ध्यान में रखते हुए बस हाथ धोते रहो, मैं तो बस यही कहूंगा.”

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“मगर? ”

“अरे भाई, तुम तो हमारा दिमाग ही चट कर जाओगे , मुझे और भी फ्रेंड के पास जाना है, तुम अपनी समझदारी से हाथ धोते रहो… जब तक तसल्ली ना हो जाए… बस धोते रहो, ठीक है .” और अमिताभ बच्चन मेरी आंखों के सामने से अचानक अदृश्य हो गए.

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