छोटे शहर की लड़की : जब पूजा ने दी दस्तक- भाग 3

विनोद दिल्ली चला गया. समय का पहिया दूसरी तरफ घूम गया. पूजा को विनोद से बिछुड़ने पर बहुत दुख हुआ, परंतु वह कर भी क्या सकती थी. उस ने विनोद से वचन लिया था कि वह नियमित रूप से उसे फोन करता रहेगा. कुछ दिन तक उस ने यह वादा निभाया भी, परंतु धीरेधीरे उस के फोन करने में अंतराल आता गया.

इस का कारण उस ने बताया था दिन में कालेज अटैंड करना, शाम को कोचिंग क्लास और फिर रात में पढ़ाई… ऐसे में उसे वक्त ही नहीं मिलता. यूपीएससी की परीक्षा पास करना कोई आसान काम नहीं था. रातदिन की मेहनत से ही इस में सफलता प्राप्त हो सकती थी. प्यार के चक्कर में वह अपने लक्ष्य से भटक सकता था. पूजा ने कहा था, ‘‘प्यार मनुष्य को अपना लक्ष्य प्राप्त करने की ताकत देता है, उसे भटकाता नहीं है.’’

‘‘मैं मानता हूं, परंतु केवल प्यार के बारे में सोच कर किसी परीक्षा में सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती. इस के लिए आंखें फोड़नी पड़ती हैं.’’

‘‘तुम मुझ से दूर जाने के लिए बहाना तो नहीं बना रहे?’’ उस के मन में शंका के बादल उमड़ आए. ‘‘नहीं, परंतु तुम मेरी तैयारी में बाधा न उत्पन्न करो, यह तुम्हारा मुझ पर एहसान होगा,’’ उस ने सख्त स्वर में कहा था. पूजा का दिल विनोद की बात से बैठने लगा था. पूजा समझती थी कि उस से दूर जाने के बाद विनोद उस के दिल से भी दूर हो गया था.

दिल्ली जा कर किसी और लड़की के चक्कर में पड़ गया होगा, इसीलिए उस की उपेक्षा कर रहा था और उस से संबंध तोड़ने के लिए इस तरह के बहाने बना रहा था. ऐसी स्थिति में हर लड़की अपने प्रेमी के बारे में इसी तरह की सोच रखती है. इस में पूजा का कोई दोष नहीं था.

वह रोज दीप्ति के पास आती, उस के साथ विनोद की बातें करती और अपने मन को सांत्वना देने का प्रयास करती कि एक दिन जब विनोद लौट कर आएगा तो इतने दिनों की दूरियों का सारा हिसाब चुकता कर लेगी. उसे इतना प्यार करेगी कि वह दोबारा दिल्ली जाने का नाम नहीं लेगा. ‘‘क्या वह रोज घर में फोन करता है?’’ उस ने दीप्ति से पूछा था.

‘‘नहीं, रोज नहीं करता. हम ही फोन कर के उस का हालचाल पूछ लेते हैं,’’ दीप्ति ने सहज भाव से बताया. ‘‘मुझे भी फोन नहीं करता. कहीं वह किसी और को प्यार तो नहीं करने लगा?’’

‘‘क्या पता?’’ दीप्ति ने मुंह बिचका कर कहा. पूजा दीप्ति का मुंह ताकती ही रह गई. दीप्ति को अभी किसी से प्यार नहीं हुआ था न, इसलिए वह पूजा के दिल का दर्द नहीं समझ पा रही थी. दीप्ति पूजा के मन को समझती थी, परंतु उस के हाथ में था भी क्या? वह नहीं जानती थी कि किस तरह से पूजा के मन को तसल्ली दे. इस बारे में उस की भैया से कोई बात नहीं होती थी.

उस से जब भी बात होती थी, मम्मीपापा पास में होते थे. फिर भी एक दिन चोरी से उस ने पूजा की विनोद से बात कराई थी. उस ने बात तो की, परंतु बाद में कह दिया कि फोन कर के उसे डिस्टर्ब मत किया करे, पढ़ाई का हर्ज होता है और पूजा मन मसोस कर रह गई.

विनोद दीवाली में घर आया था, परंतु पूजा से एकांत में मुलाकात नहीं हो सकी. दीप्ति ने भैया से कहा, ‘‘भैया, एक बार पूजा से मिल तो लो.’’ उस ने दीप्ति को अर्थपूर्ण निगाहों से देखते हुए कहा, ‘‘मिल लूंगा, परंतु तुम उस के लिए परेशान न हो,’’ और बात आईगई हो गई.

फिर वह होली पर घर आया और उसी प्रकार पूजा से बिना मिले ही चला गया. पूजा उस के घर आती थी, परंतु दोनों एकांत में नहीं मिल पाते थे. विनोद कोई न कोई बहाना बना कर उस से दूर रहता था. पूजा ने उसे घेरने की कोशिश की तो उस ने निरपेक्ष भाव से कहा, ‘‘पूजा, मैं जब गरमी की छुट्टियों में आऊंगा तो तुम से रोज मिला करूंगा. अभी मुझे अकेला छोड़ दो.’’ उस ने मान लिया.

गरमी की छुट्टियों में मिलते ही पूजा ने पहला सवाल किया, ‘‘तुम बदल गए हो?’’ ‘‘नहीं तो…’’ उस ने बात को टालने वाले अंदाज में कहा.

‘‘नहीं, क्या… मैं देख नहीं रही? तुम अब पहले जैसे भोले नहीं रहे. इधर मैं तुम्हारे प्यार में संजीदा हो गईर् हूं. अपनी सारी चंचलता मैं ने खो दी, परंतु तुम दिल्ली जा कर मुखर ही नहीं चंचल भी हो गए हो. यह तुम्हारे हावभाव से ही दिख रहा है.’’ ‘‘आदमी समय के अनुसार बदल जाता है. इस में आश्चर्य की कोई बात नहीं है.’’

‘‘मुझे आश्चर्य नहीं है, परंतु आश्चर्य तब होगा, जब तुम मेरे प्यार को भुला दोगे. यह भी भुला दोगे कि मैं ने तुम्हें प्यार करना सिखाया था वरना कोई लड़की तुम्हें घास न डालती और अगर तुम कोशिश भी करते तो भी कोई लड़की तुम्हारे फंदे में नहीं फंसती,’’ उस ने कुछ चिढ़ कर कहा. ‘‘तुम छोटे शहर की लड़कियों की यही गंदी सोच है. इस के आगे तुम कुछ सोच ही नहीं सकती.

सभी लड़कों को तुम बुद्धू और भोंदू समझती हो. तुम सोचती हो कि लड़कों से प्यार कर के तुम उन के ऊपर एहसान कर रही हो, क्योंकि लड़के इस लायक ही नहीं होते कि वे किसी लड़की को प्यार कर सकें या कोई लड़की उन के ऊपर अपना प्यार लुटा सके. तुम्हें अपने रूप पर घमंड जो होता है.’’

पूजा विनोद की बातों से आहत हो गई, ‘‘मैं ऐसा नहीं सोचती, परंतु तुम से सच कहती हूं. एक दिन इसी बात को ले कर मेरी सहेलियों से शर्त लगी थी.’’ ‘‘क्या शर्त लगी थी?’’ उस ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘महल्ले की सारी लड़कियां तुम्हें भोंदू और बुद्धू कहती थीं. वे तुम्हें ले कर मजाक करती रहती थीं कि यह मिट्टी का माधो कभी किसी लड़की को प्यार नहीं कर सकेगा. पहली बात तो यह कि कोई लड़की ही तुम्हें प्यार नहीं करेगी और किसी का मन तुम पर आ भी गया तो भी तुम लड़की को अपने प्यार में बांध नहीं पाओगे.’’ ‘‘तो फिर.’’

‘‘मैं ने इस चुनौती को स्वीकार किया था, क्योंकि मैं मन ही मन तुम्हें प्यार करने लगी थी. मुझे तुम्हारी सादगी और भोलापन पसंद था. अन्य लड़कों की तरह तुम में कोई छिछोरापन नहीं था और तुम उन की तरह लड़कियों के पीछे नहीं भागतेफिरते थे, इसलिए मैं ने तय किया कि मैं तुम्हारा प्यार पा कर रहूंगी. मैं ने उन से कहा था कि विनोद एक दिन मेरे प्यार में पागल हो जाएगा, परंतु अब मुझे ऐसा नहीं लगता. जब तक तुम दिल्ली नहीं गए थे, मुझे लगता था कि तुम भी मुझ से प्यार करने लगे हो और सहेलियों से मैं ने बड़े फख्र से कहा था कि मैं ने तुम्हारा प्यार हासिल कर लिया है.

परंतु लगता है, मैं अपनी शर्त हार गई हूं,’’ उस की आवाज भीग गई थी. विनोद हतप्रभ रह गया. उस की समझ में नहीं आया कि वह पूजा से क्या कहे, उसे किस प्रकार सांत्वना दे और कैसे बताए कि वह उसे प्यार करता है, क्योंकि इस बारे में उसे स्वयं पर संदेह था. जबलपुर में रहते हुए विनोद पूजा को डरतेडरते प्यार करता था, जैसे कोई पूजा से जबरदस्ती प्यार करने के लिए कह रहा था. दिल्ली में एक साल रहने के बाद वह आजाद पंछी की तरह हो गया था और पूजा की गिरफ्त से उसे छुटकारा मिल गया था.

वह एक किताबी कीड़ा था और किताबों में ही उस का मन लगता था. लड़कियां उसे लुभाती थीं और वह उन्हें पसंद भी करता था. चोर निगाहों से उन की सुंदरता की प्रशंसा भी करता था, परंतु खुल कर किसी लड़की को पटाने का साहस उस के पास नहीं था. यही कारण था कि जबलपुर में भी पूजा ने ही पहल की थी और चूंकि उस के जीवन में आने वाली वह पहली लड़की थी, वह भी डरतेडरते उसे प्यार करने लगा था, परंतु एक बार दूर जाते ही उस के मन से पूजा का प्यार फूटे गुब्बारे की तरह हवा हो गया था.

फिर भी उन दोनों का मिलना जारी रहा. गरमी की लंबी छुट्टियां थीं. उस की एक साल की कोचिंग समाप्त हो गई थी, परंतु एमए का फाइनल ईयर था. उस ने यूपीएससी की सिविल सर्विसेज का फार्म भी भर रखा था, जिस की प्रारंभिक परीक्षा जुलाई में ही होनी थी. एमए की क्लासेज भी जुलाई में प्रारंभ होनी थीं, अत: उन दोनों के पास मिलने के लिए गरमी के ढेर सारे लंबेलंबे दिन थे और सोचने के लिए ढेरों छोटीछोटी रातें. कहना बड़ा मुश्किल था कि विनोद के मन में क्या था, परंतु पूजा को डर लगने लगा था.

बरसात आने में अभी देर थी, परंतु उन के घरों के पीछे खेतों में किसानों ने मकई बो दी थी. उन के पौधे अब काफी बड़े हो गए थे. उन में भुट्टे भी आने लगे थे, परंतु उन के पकने में अभी देर थी. खेतों के बीच की कच्ची सड़क पर घूमना पूजा को अच्छा लगता था. वह जिद कर के विनोद को उधर ले जाती थी. खेतों के बीच का वह पेड़ जिस के नीचे बैठ कर वे दोनों चोरी से भुट्टे तोड़ कर खाते थे, उन के मिलन के प्रारंभिक दिनों का गवाह था.

वह अपनी जगह पर निश्चल खड़ा था. वे लड़कियां भी जो उन्हें प्यार से भुट्टे भून कर खाने के लिए देती थीं, अपनेअपने खेतों की रखवाली के लिए आने लगी थीं और उन दोनों को देख कर मंदमंद मुसकराती थीं.

अभी भुट्टे पके नहीं थे और पूजा को लगने लगा था कि अभी उन के प्यार में भी परिपक्वता नहीं आई. सुस्ताने के लिए वे पेड़ की छाया तले बैठे तो पूजा ने कहा, ‘‘तुम्हारे सपने बड़े हो गए हैं.’’ ‘‘फिलहाल तो मेरा एक ही सपना है, आईएएस बनना और जब तक यह सपना पूरा नहीं हो जाता, मेरे लिए बाकी सभी सपने बहुत छोटे हैं.’’

रिश्तेदार: अकेली सौम्या, अनजान शहर और अनदेखे चेहरे- भाग 3

‘‘जी दीदी, मैं अभी चलती हूं.’’ नेहा चली गई और सौम्या आरुषि की देखभाल में लग गई.

अगले 3-4 दिनों तक सौम्या आरुषि में ही लगी रही क्योंकि उसे तेज बुखार था. चौथे दिन जब वह थोड़ी ठीक हुई तो उसे नेहा का ध्यान आया. उस ने नेहा को फोन किया तो उस ने उठाया नहीं. घबरा कर सौम्या ने नितिन को फोन लगाया और नितिन से नेहा के बारे में पूछा.

नितिन ने उदास स्वर में कहा, ‘‘हमारा ब्रेकअप हो गया है दीदी. 3 दिन हो गए मेरी नेहा से कोई बात नहीं हुई.’’

‘‘पर ऐसा क्यों?’’

‘‘दीदी, नेहा बहुत शक्की लड़की है. अजीब तरह से रिऐक्ट करती है. मैं अब उस से कभी बात नहीं करूंगा.’’

‘‘पागल हो क्या? ऐसे नहीं करते. कल मेरे पास आओ. मुझे मिलना है तुम से.’’

‘‘ठीक है दीदी. कल 3 बजे आता हूं.’’

अगले दिन सौम्या ने नेहा को फिर से फोन लगाया. उस ने उदास स्वर में  ‘हैलो’ कहा तो सौम्या ने उसे 3 बजे घर आने को कहा.

फिर 3 बजे के करीब नितिन और नेहा दोनों ही सौम्या के घर पहुंचे. एकदूसरे को देखते ही उन्होंने मुंह बनाया और खामोशी से बैठ गए. सौम्या ने कमान संभाली और नेहा से पूछा, ‘‘नेहा, तुम्हारी क्या शिकायत है?’’

नेहा ने ठंडा सा जवाब दिया, ‘‘यह दूसरी लड़कियों के साथ घूमता है.’’

नितिन ने घूर कर नेहा को देखा और नजरें फेर लीं. सौम्या ने अब नितिन से पूछा, ‘‘तुम्हें क्या कहना है इस बारे में नितिन?’’

‘‘दीदी, इस ने मुझ से इतने रूखे तरीके से बात की जो मैं आप को बता नहीं सकता. 2 दिन तो मेमसाहब मुझ से मिलीं नहीं और न ही फोन उठाया. जब तीसरे दिन जबरदस्ती मैं ने बात करनी चाही और इस रवैये का कारण पूछा तो मुझ पर सीधा इलजाम लगाती हुई बोली कि तुम्हें दूसरी लड़कियों के साथ गुलछर्रे उड़ाना पसंद है न, तो ठीक है, करो जो करना है. पर मुझ से बात मत करना. अब बताइए दीदी, मुझे कैसा लगेगा?’’ नितिन फूट पड़ा था.

सौम्या ने उसे शांत करते हुए पूछा, ‘‘नितिन, वह लड़की कौन थी?’’

‘‘दीदी, वह मेरे शहर की थी और उस के विषय भी सेम मेरे वाले थे. वह हमारी बिंदु मैडम की भतीजी थी. उन्होंने ही मुझे उस का ध्यान रखने और गाइड करने को कहा था. बस, वही कर रहा था और इस ने पता नहीं क्याक्या समझ लिया.’’

सौम्या ने हंस कर कहा, ‘‘नेहा, मुझे नहीं लगता कि नितिन की कोई गलती है. तुम्हें इस तरह रिऐक्ट नहीं करना चाहिए था. जिस से आप प्यार करते हैं उस पर पूरा भरोसा रखना चाहिए. नितिन, तुम्हें भी नेहा की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए था. जहां प्यार होता है वहां जलन और शक होना स्वाभाविक है. नेहा ने जलन की वजह से ही ऐसा बरताव किया. अब तुम दोनों एकदूसरे को सौरी कहो और मेरे आगे एकदूसरे के गले लगो.’’

नेहा और नितिन मुसकरा पड़े. एकदूसरे को सौरी बोलते हुए वे सौम्या के गले लग गए. सौम्या का दिल खिल उठा था. नितिन और नेहा में उसे अपने बच्चे नजर आने लगे थे. सब ने मिल कर शाम तक बातें कीं और साथ मिल कर चायनाश्ते का आनंद लिया.

दिन इसी तरह बीतने लगे. समय के साथ सौम्या नितिन और नेहा के और भी करीब आती गई. इस बीच नितिन को जौब मिल गई थी और नेहा एक ट्रेनिंग में बिजी हो गई.

इधर नितिन और नेहा के घर में उन की शादी की बातें भी चलने लगी थीं. सौम्या के कहने पर उन्होंने अपने घरवालों से एकदूसरे के बारे में बताया और अपने प्यार की जानकारी दी. नेहा के घरवाले तो थोड़े नानुकुर के बाद तैयार हो गए मगर नितिन के पेरैंट्स ने गैरजाति की लड़की को बहू बनाने से साफ इनकार कर दिया.

नितिन ने नेहा को सारी बात बताते हुए भाग कर शादी करने का औप्शन दिया. तब नेहा ने एक बार सौम्या से सलाह लेने की बात की. नितिन तैयार हो गया और दोनों एक बार फिर सौम्या के पास पहुंचे. सौम्या ने सारी बातें सुनीं और थोड़ी देर सोचती रही. भाग कर शादी करने की बात सिरे से नकारते हुए सौम्या ने मन ही मन एक प्लान बनाया. सौम्या ने नितिन से अपनी मां का नंबर देने को कहा और उस के रिश्तेदारों के बारे में भी जानकारी ली.

नंबर ले कर सौम्या ने नितिन की मां को फोन लगाया. उधर से ‘हैलो’ की आवाज सुनते ही सौम्या बोली, ‘‘बहनजी, मैं सौम्या बोल रही हूं. आप का नंबर मुझे अपने पति से मिला है. मेरे पति आप के एक रिश्तेदार के साथ औफिस में काम करते हैं. असल में बहनजी, हम भी आप की ही बिरादरी के हैं. आप के रिश्तेदार ने बताया कि आप का बेटा शादी लायक है. बहुत जहीन और प्यारा बच्चा है. तो  मु झे लगा मैं अपनी बिटिया की शादी की बात चलाऊं. हम भी राजपूत हैं और हमारी बिटिया बहुत संस्कारशील व खूबसूरत है. आप को जरूर पसंद आएगी.’’

‘‘हां जी, आप मिल लीजिए हम से.’’

‘‘मैं तो कहती हूं बहनजी, आप आ जाओ हमारे घर. बिटिया को तबीयत से देख लेना आप. मैं एड्रैस भेजती हूं.’’

शोर करती चुप्पी : कैसा थी मानसी की ससुराल- भाग 2

परिमल दुविधा में सोफे पर बैठा ही रहा और साथ में अवनी भी. थकान के मारे आंखें मुंद रही थीं. मायके की बात होती तो सारा तामझाम उतार कर, शौर्ट्स और टीशर्ट पहन कर, फुल एसी पंखा खोल कर चित्त सो जाती, लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं कर सकती थी. इसलिए चुप बैठी रही.

‘‘जाओ परिमल, ड्राइवर इंतजार कर रहा है.’’

‘‘चलो अवनी,’’ थकेमांदे अवनी व परिमल, थके शरीर को धकेल कर कार में बैठ गए. अवनी का दिल कर रहा था पीछे सिर टिकाए और सो जाए.

शादी से पहले उस के पापा ने उस की मम्मी से कहा था कि अवनी व परिमल का दिल्ली से देहरादून की फ्लाइट का टिकट करवा देते हैं. रोड की 7-8 घंटे की जर्नी इन्हें थका देगी. लेकिन भारतीय संस्कार आड़े आ गए. इसलिए मानसी बोलीं, ‘शादी के बाद अवनी उन की बहू है. वे उसे ट्रेन से ले जाएं, कार से ले जाएं, बैलगाड़ी से ले जाएं या फिर फ्लाइट से, हमें बोलने का कोई हक नहीं.’

सुन कर अवनी मन ही मन मुसकरा दी थी, ‘वाह भई, भारतीय परंपरा… सड़क  मार्ग से यात्रा करने में मेरी तबीयत खराब होती है, इसलिए मुझे उलटी की दवाई खा कर जाना पड़ेगा. लेकिन बेटी को चाहे कितनी भी ऊंची शिक्षा दे दो और वह कितने ही बड़े पद पर कार्यरत क्यों न हो, एक ही रात में उस के मालिकों की अदलाबदली कैसे हो जाती है? उस पर अधिकार कैसे बदल जाते हैं? उस की खुद की भी कोई मरजी है? खुद की भी कोई तकलीफ है? खुद का भी कोई निर्णय है? इस विषय में कोई भी जानना नहीं चाह रहा.’

लेकिन उस की शादी होने जा रही थी. वह बमुश्किल एक महीने की छुट्टी ले पाई थी. 20 दिन विवाह से पहले और 10 दिन बाद के. लेकिन उन 10 दिनों की भी कशमकश थी. उसे ससुराल में शादी के बाद की कुछ जरूरी रस्मों में भी शामिल होना था और हनीमून ट्रिप पर भी जाना था. बहुत टाइट शैड्यूल था. शादी से पहले की छुट्टियां भी जरूरी थीं. उसे शादी की तैयारियों के लिए भी समय नहीं मिल पाया था. ऐसा लग रहा था,

शादी भी औफिस के जरूरी कार्यों की तरह ही निबट रही है. शायद वे दोनों एक महीने के किसी प्रोजैक्ट को पूरा करने आए हैं. ऊपर से मम्मी के उपदेश सुनतेसुनते वह तंग आ गई थी. ‘बहू को ऐसा नहीं करना चाहिए, बहू को वैसा नहीं करना चाहिए, ऐसे रहना, वैसे रहना, चिल्ला कर बात नहीं करना, सुबह उठना, औफिस से आ कर थोड़ी देर सासससुर के पास बैठना, किचन में जितनी बन पाए मदद जरूर करना…’

एक दिन सुनतेसुनते वह भन्ना गई, ‘मम्मी, जब भैया की शादी हुई थी, तब भैया को भी यही सब समझाया था? स्त्रीपुरुष की समानता का जमाना है. भाभी भी नौकरी करती हैं. भैया को भी सबकुछ वही करना चाहिए, जो भाभी करती हैं. मसलन, उन के मातापिता, भाईबहन, रिश्तेदारों से अच्छे संबंध रखना, किचन में मदद करना, भाभी से ऊंचे स्वर में बात न करना, औफिस से आ कर हफ्ते में भाभी के मम्मीपापा से  2-3 बार बात करना और सुबह उठ कर भाभी के साथ मिलजुल कर काम करना आदि…लड़की को ही यह सब क्यों सिखाया जाता है?’

उस के बाद मम्मी के निर्देश कुछ बंद हुए थे. अवनी को मन ही मन मम्मी पर दया आ गई. गलती मम्मी की नहीं, मम्मी की पीढ़ी की है जो नईपुरानी पीढ़ी के बीच झूल रही है. उच्च शिक्षित है लेकिन अधिकतर आत्मनिर्भर नहीं रही. इसलिए कई तरह के अधिकारों से वंचित भी रही. उच्च शिक्षा के कारण गलतसही भले ही समझी हो, नए विचारों को अपनाने का माद्दा भले ही रखती हो, लेकिन गलत को गलत बोलती नहीं है. नए विचारों को अपने आचरण में लाने की हिम्मत नहीं करती.

यहां तक कि मम्मी की पीढ़ी की आत्मनिर्भर महिलाएं भी नईपुरानी विचारधारा के बीच झूलती, नईपुरानी परंपराओं के बीच पिसती रहती हैं. फुल होममेकर्स की शायद आखिरी पीढ़ी है, जो अब समाप्त होने की कगार पर है.

कार होटल पहुंच गई और अवनी व परिमल को कमरे तक पहुंचा कर परिमल के दोस्त चले गए. रात के 12 बज रहे थे. कमरे में पहुंच कर दोनों ने चैन की सांस ली.

2 प्रेमी पिछले 4 सालों से इस रात का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. लेकिन थके शरीर नींद की आगोश में जाना चाहते थे. दोनों इतने थके थे कि बात करने के मूड में भी नहीं थे. शादी की 3 दिनों तक चली परंपरावादी प्रक्रिया ने उन्हें बुरी तरह थका दिया था. ऊपर से देहरादूनदिल्ली का भीड़ के कारण 8-9 घंटे का सफर. दोनों उलटेसीधे कपड़े बदल कर औंधेमुंह सो गए.

सुबह देहरादून व दिल्ली के दोनों घरों में सभी देर से उठे. लेकिन 10 बजतेबजते सभी उठ गए. बेटी को विदा कर बेटी की मां आज भी चैन से कहां रह पाती है, चाहे वह लड़के को बचपन से ही क्यों न जानती हो. 12 बज गए मानसी से रहा न गया. उन्होंने अवनी को फोन मिला दिया. गहरी नींद के सागर में गोते लगा रही अवनी, फोन की घंटी सुन कर बमुश्किल जगी. परिमल भी झुंझला गया. स्क्रीन पर मम्मी का नाम देख कर मोबाइल औन कर कानों से लगा लिया.

‘‘कैसी है मेरी अनी?’’

‘‘सो रही है, मरी नहीं है,’’ अवनी झुंझला कर बोली, ‘‘इतनी सुबह क्यों फोन किया?’’ मम्मी को बुरा तो लगा पर बोली, ‘‘सुबह कहां है, 12 बज रहे हैं, कैसी है?’’

‘‘अरे कैसी है मतलब…कल 12 बजे तो आई हूं देहरादून से. आज 12 बजे तक क्या हो जाएगा मुझे. हमेशा ही तो आती हूं नौकरी पर छुट्टियों के बाद, तब तो आप फोन नहीं करतीं. आज ऐसी क्या खास बात हो गई? कल मैसेज कर तो दिया था पहुंचने का.’’

मानसी निरुत्तर हो, चुप हो गई. ‘‘अभी मैं सो रही हूं, फोन रखो आप. जब उठ जाऊंगी तो खुद ही मिला दूंगी,’’ कह कर अवनी ने फोन रख दिया.

मानसी की आंखें भर आईं. आज की पीढ़ी की बहू की तटस्थता तो दुख देती ही है, पर बेटी की तटस्थता तो दिल चीर कर रख देती है. यह असंवेदनहीन मशीनी पीढ़ी तो किसी से प्यार करना जैसे जानती ही नहीं. जब मां को ऐसे जवाब दे रही है तो सास को कैसे जवाब देगी.

मानसी एक शिक्षित गृहिणी थी और सास सुजाता एक उच्चशिक्षित कामकाजी महिला. वे केंद्रीय विद्यालय में विज्ञान की अध्यापिका थीं. सुबह पौने 8 बजे घर से निकलतीं और साढ़े 4 बजे तक घर पहुंचतीं. सरस रिटायर हो चुके थे. लेकिन सुजाता के रिटायरमैंट में अभी 3 साल बाकी थे. सुजाता आधुनिक जमाने की उच्चशिक्षित सास थीं. कभी कार, कभी स्कूटी चला कर स्कूल जातीं, लैपटौप पर उंगलियां चलातीं. और जब किचन में हर तरह का खाना बनातीं, कामवाली के न आने पर बरतन धोतीं, झाड़ूपोंछा करतीं तो उन के ये सब गुण पता भी न चलते. सरस एक पीढ़ी पहले के पति, पत्नी के कामकाजी होने के बावजूद, गृहकार्य में मदद करने में अपनी हेठी समझते और पत्नी से सबकुछ हाथ में मिल जाने की उम्मीद करते.

शोर करती चुप्पी : कैसा थी मानसी की ससुराल- भाग 3

सुजाता सिर्फ शारीरिक रूप से ही नहीं, मानसिक रूप से भी व्यस्त थीं. नौकरी की व्यस्तता के कारण उन का ध्यान दूसरी कई फालतू बातों की तरफ नहीं जाने पाता था. दूसरा, सोचने का आयाम बहुत बड़ा था. कई बातें उन की सोच में रुकती ही नहीं थीं. इधर से शुरू हो कर उधर गुजर जाती थीं.

2 बज गए थे. लंच का समय हो गया था. बच्चे अभी होटल से नहीं आए थे. सरस ने एकदो बार फोन करने की पेशकश की, पर सुजाता ने सख्ती से मना कर दिया कि उन्हें फोन कर के डिस्टर्ब करना गलत है.

‘‘तुम्हें भूख लग रही है, सरस, तो हम खाना खा लेते हैं.’’

‘‘बच्चों का इंतजार कर लेते हैं.’’

‘‘बच्चे तो अब यहीं रहेंगे. थोड़ी देर और देखते हैं, फिर खा लेते हैं. न उन्हें बांधो, न खुद बंधो. वे आएंगे तो उन के साथ कुछ मीठा खा लेंगे.’’

सुजाता के जोर देने पर थोड़ी देर बाद सुजाता व सरस ने खाना खा लिया. बच्चे 4 बजे के करीब आए. वे सो कर ही 2 बजे उठे थे. अब कुछ फ्रैश लग रहे थे. उन के आने से घर में चहलपहल हो गई. सरस और सुजाता को लगा बिना मौसम बहार आ गई हो. सुजाता ने उन का कमरा व्यवस्थित कर दिया था. बच्चों का भी होटल जाने का कोई मूड नहीं था. परिमल भी अपने ही कमरे में रहना चाहता था. इसलिए वे अपनी अटैचियां साथ ले कर आ गए थे. थोड़ी देर घर में रौनक कर, खाना खा कर बच्चे फिर अपने कमरे में समा गए.

अवनी अपनी मम्मी को फोन करना फिर भूल गई. बेचैनी में मानसी का दिन नहीं कट रहा था. दोबारा फोन मिलाने पर अवनी की सुबह की डांट याद आ रही थी. इसलिए थकहार कर समधिन सुजाता को फोन मिला दिया. थकी हुई सुजाता भी लंच के बाद नींद के सागर में गोते लगा रही थीं. घंटी की आवाज से बमुश्किल आंखें खोल कर मोबाइल पर नजरें गड़ाईं. समधिन मानसी का नाम देख कर हड़बड़ा कर उठ कर बैठ गईं.

‘‘हैलो,’’ वे आवाज को संयत कर नींद की खुमारी से बाहर खींचती हुई बोलीं.

‘‘हैलो, सुजाताजी, लगता है आप को डिस्टर्ब कर दिया. दरअसल, अवनी ने फोन करने को कहा था, पर अभी तक नहीं किया.’’

‘‘ओह, अवनी अपने कमरे में है. बच्चे 4 बजे आए होटल से. खाना खा कर कमरे में चले गए हैं. फोन करना भूल गई होगी शायद. जब बाहर आएगी तो मैं याद दिला दूंगी.’’

‘‘हां, जी,’’ बेटी की सुबह की डांट से क्षुब्ध मानसी सुजाता से भी संभल कर व धीमी आवाज में बात कर रही थी. सुजाता का हृदय द्रवित हो गया. बेटी की मां ऐसी ही होती है.

‘‘बेटी की याद आ रही है?’’ वे स्नेह से बोलीं.

‘‘हां, आ तो रही है,’’ मानसी की आवाज भावनाओं के दबाव से नम हो गई, ‘‘पर ये आजकल के बच्चे, मातापिता की भावनाओं को समझते कहां हैं,’’ सुबह की घटना से व्यथित मानसी बोल पड़ी.

‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं. दरअसल, बच्चों के जीवन में उलझने के लिए बहुतकुछ है. और मातापिता के जीवन में सिर्फ बच्चे, इसलिए ऐसा लगता है. अवनी बहुत प्यारी बच्ची है. लेकिन अभी नईनई शादी है न, इसलिए आप चिंता मत कीजिए. वह आप की लाड़ली बेटी है तो हमारे घर की भी संजीवनी है. बाहर आएगी तो मैं बात करने के लिए कह दूंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर मानसी ने फोन रख दिया. सुजाता की नींद तो मानसी के फोन से उड़ गई थी. सरस भी आवाज से उठ गए थे. इसलिए वह उठ कर मुंहहाथ धो कर चाय बना कर ले आई.

बच्चे दूसरे दिन हनीमून पर निकल गए. वापस आए तो कुछ दिन अवनी के घर देहरादून चले गए. इस बीच, सुजाता की छुट्टियां खत्म हो गईं. बच्चे वापस आए तो उन की भी छुट्टियां खत्म हो गई थीं. दोनों के औफिस शुरू हो गए और दोनों अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए. वैसे तो सुजाता बहुत ही आधुनिक विचारों की कामकाजी सास थीं पर वे इस नई पीढ़ी को नवविवाहित जीवन की शुरुआत करते बड़े आश्चर्य व कुतूहल से देख रही थीं. इन बच्चों की दिनचर्या में उन के मोबाइल व लैपटौप के अलावा किसी के लिए भी जगह नहीं थी.

उन के औफिस संबंधी अधिकतर काम तो मोबाइल से ही निबटते थे. बाकी बचे लैपटौप से. सुबह 8, साढ़े 8 बजे के निकले बच्चे रात के साढ़े 8 बजे के बाद ही घर में घुसते. उन की दिनचर्या में अपने नवविवाहित साथी के लिए ही जगह नहीं थी, फिर सासससुर की कौन कहे. ‘‘इन्हें प्यार करने के लिए फुरसत कैसे मिली होगी?’’ सुजाता अकसर सरस से परिहास करतीं, ‘‘लगता है प्यार भी मोबाइल पर ही निबटा लिया होगा औफिस के जरूरी कार्यों की तरह.’’

मानसी बेटी से बात करने के लिए तरस जाती. पहले सिर्फ उस की नौकरी थी, इसलिए थोड़ीबहुत बात हो जाती थी. पर अब उस की दिनचर्या का थोड़ाबहुत हिस्सेदार परिमल भी हो गया था.

‘‘सासससुर के साथ भी थोड़ाबहुत बैठती है छुट्टी के दिन? कभी किचन का रुख भी कर लिया कर. अब तेरी शादी हो गई है. तेरे सासससुर अच्छे हैं पर थोड़ीबहुत उम्मीद तो वे भी करते होंगे,’’ एक दिन फोन पर बात करते हुए मानसी बोली.

‘‘उफ, मम्मी, फिर शुरू हो गए आप के उपदेश. अरे, जब मैं किसी से बदलने की उम्मीद नहीं करती, जो जैसा है वैसा ही रह रहा है, तो मुझ से बदलने की उम्मीद कैसे कर सकता है कोई. शादी मेरे लिए ही सजा क्यों है. यह मत पहनो, वह मत करो. मन हो न हो, सब से बातचीत करो. जल्दी उठो. रिश्तेदार आएं तो उन्हें खुश करो,’’ अवनी झल्ला कर बोली.

कमरे के बाहर से गुजरती सुजाता के कानों में अवनी की ये बातें पड़ गईं. सुजाता बहुत ही खुले विचारों की महिला थीं. हर बात का सकारात्मक पहलू देखना व विश्लेषणात्मक तरीके से सोचना उन की आदत थी.

पारंपरिक सास के कवच से बाहर आ कर एक स्त्री के नजरिए से वे सोचने लगीं, ‘आखिर गलत क्या कह रही है अवनी. शादी सजा क्यों बन जाती है किसी लड़की के लिए. लड़के के लिए शादी न कल सजा थी न आज, पर लड़की के लिए…वे खुद भी कामकाजी रही हैं. अंदरबाहर की जिम्मेदारियों में बुरी तरह पिसी हैं. पति ने भी इतना साथ नहीं दिया. कितने ही क्षण ऐसे आए जब नौकरी बचाना भी मुश्किल हो गया था. कामकाजी होते हुए भी उन से एक संपूर्ण गृहिणी वाली उम्मीद की गई.’

ऐसे विचार कई बार उन के हृदय को भी आंदोलित करते थे. पर गलत को गलत कहने की उच्चशिक्षित होते हुए यहां तक कि आर्थिकरूप से आत्मनिर्भर होते हुए भी उन की पीढ़ी ने हिमाकत नहीं की. उन्हें लग रहा था जैसे उन की पीढ़ी का मौन अब अवनी की पीढ़ी की लड़कियों के मुंह से मुखरित हो रहा है. अवनी की पीढ़ी की लड़कियों की दिनचर्या अपने हिसाब से शुरू होती है और अपने हिसाब से खत्म होती है. यह देख कर उन्हें अच्छा भी लगता. अवनी की पीढ़ी की लड़की का जीवन पतिरूपी पुरुष के जीवन के खिलने व सफल होने के लिए आधार मात्र नहीं है बल्कि दोनों ही बराबर के स्तंभ थे. एक भी कम या ज्यादा नहीं. वे अपने बेटे को अवनी से ज्यादा बदलते हुए देख रही थीं शादी के बाद.

छोटे शहर की लड़की : जब पूजा ने दी दस्तक- भाग 2

‘एक दिन अचानक पूजा उस के घर आई तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ. वह पूजा को पहचानता था, वह उस के पड़ोस में ही रहती थी. परंतु उस के साथ कभी कोई बात नहीं होती थी. कारण, वह बहुत संकोची था और पूजा अपनेआप में मस्त रहने वाली लड़की. वह शर्मीली लड़की की तरह पूजा के घर के सामने से सिर झुका कर गुजर जाता. अकसर उस ने पूजा को अपने घर से बाहर अपनी सहेलियों से बातें करते हुए देखा था. कई बार उस ने महसूस भी किया कि वे सभी उस की तरफ कुछ इशारा कर के हंसती थीं.\

यह उस का भ्रम भी हो सकता था, परंतु संकोचवश वह तुरंत उन के सामने से हट जाता और घर आ कर अपनी तेज सांसों पर काबू पाने का प्रयास करता. वह पूजा की हंसी और मुसकराहट का अर्थ आज तक समझ नहीं पाया था. आज जब पूजा उस के घर आई और उसे देख कर बड़ी अदा से मुसकराई तो उस के दिल पर मानो बिजली गिर गई हो. लड़कियों को देख कर वैसे ही उस के हाथपैर कांपने लगते और मुंह लाल हो जाता था. पूजा को अपने घर पर देख कर उस के दिल की धड़कन और भी बढ़ गई थी.

घर पर उस की मां थीं, छोटी बहन थी और रविवार होने के कारण उस के पिता भी घर पर ही थे. वे लोग उस के बारे में क्या सोचेंगे? उस ने मुड़ कर अपने कमरे की तरफ भागने का प्रयास किया ही था कि पूजा की मधुर आवाज उस के कानों में पड़ी, ‘‘भाग रहे हो? अपने ही घर में भाग कर कहां छिपोगे?’’ पूजा पहली बार उस से ऐसे बोली थी. वह ठिठक कर खड़ा हो गया, सचमुच वह अपने घर से भाग कर कहां जाएगा? उस ने पूजा के प्रफुल्लित चेहरे को बच्चे की तरह देखा और मन ही मन कहा, ‘तुम यहां क्या मेरी दुर्गति करने के लिए आई हो?’

पूजा ने पूछा, ‘‘आंटीजी हैं क्या, और तुम्हारी बहन कहां है?’’ वह इस तरह बात कर रही थी, जैसे विनोद उस से

छोटा हो और उस का इस घर में बहुत ज्यादा आनाजाना हो. पूजा का आत्मविश्वास और साहस देख कर उसे अपनेआप पर शर्म आने लगी. काश, वह भी उस की तरह दबंग होता. वह जानता था कि उस की मां से पूजा गली में कभीकभार बात कर लेती थी, लेकिन यह बिलकुल पता नहीं था कि उस की छोटी बहन दीप्ति से पूजा की कोई बोलचाल थी या वे दोनों आपस में मिलतीजुलती थीं. दोनों की उम्र में लगभग 4-5 साल का अंतर था.

उस ने पूजा की बात का जवाब देने के बजाय ऊंचे स्वर में लगभग चीखते हुए मां को आवाज लगाई, ‘‘मम्मी, दीप्ति, देखो तो तुम से कोई मिलने आया है?’’ और वह फिर से जाने के लिए उद्यत हुआ. पूजा खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘‘अरे, तुम बौखला क्यों रहे हो? क्या कोई कुत्ता तुम्हारे पीछे पड़ा है?’’

उस ने मन ही मन कहा, ‘नहीं, एक बिल्ली है, जो मेरा मुंह नोचने के लिए आई है. क्या कोई मुझे इस बिल्ली से बचाएगा?’ वह और जोर से चिल्लाया, ‘‘दीप्ति, आती क्यों नहीं?’’ उस की मां किचन में थीं, दीप्ति झटपट बाहर निकली और सामने का नजारा देख कर कुछ चौंकी. पूजा को पहली बार अपने घर में देख कर वह बोली, ‘‘दीदी, आप… यहां?’’

‘‘हां, वैसे ही एक काम आ गया था,’’ वह दो कदम आगे बढ़ कर बोली, ‘‘परंतु तुम्हारा भाई तो बहुत झेंपू है, क्या वह लड़कियों के साथ ज्यादा उठताबैठता है, क्योंकि उन्हीं के जैसे गुण और लक्षण इस में आ गए हैं,’’ अपने कमरे में घुसतेघुसते उस ने पूजा को दीप्ति से कहते सुना. उस का दिल बैठ गया, ‘क्या वह इतना दब्बू है कि लड़कियां उस के बारे में ऐसे खयाल रखती हैं?‘ उस ने अपने दिल को संयत किया और मन ही मन बोला, ‘एक दिन दिखा दूंगा तुम्हें पूजा की बच्ची कि मैं कायर और डरपोक नहीं हूं. तुम मुझे झेंपू समझने की भूल मत करना.’

कमरे में आए उसे थोड़ी ही देर हुई थी कि धमधमाते हुए दोनों उस के कमरे में ही आ गईं. पूजा आगे थी और दीप्ति उस के पीछे. दोनों पता नहीं आपस में क्या बातें कर के आई थीं और अब उन का मकसद क्या था. वह अपने बिस्तर से उठ कर खड़ा हो गया. ‘‘क्या कर रहे हो… पढ़ाई? अभीअभी तो नए सत्र की कक्षाएं शुरू हुई हैं. अच्छा, विनोद यह बताओ, तुम कौन सी कक्षा में गए हो?’’ पूजा ने निस्संकोच उस के पास आ कर पूछा.

विनोद धम् से कुरसी पर बैठ गया. जैसे चेहरे पर किसी ने गोबर मल दिया हो. उस की बोलती बंद थी और दिल काबू में नहीं था. वे दोनों उसे देखदेख कर मुसकराती रहीं.

‘‘बताओ न मुझे पढ़ाई में तुम से मदद लेनी है,’’ पूजा उस के पास आ कर खड़ी हो गई और मटकती हुई बोली. जवान लड़की के बदन की एक अनोखी गंध उस के नथुनों में समा गई. विनोद ने बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला और बोला, ‘‘बीए में.’’ ‘‘कौन सा साल है?’’ यह पूछते हुए वह लगभग उस से सट गई थी.

विनोद ने अपने को पीछे की तरफ धकेला. कुरसी थोड़ा पीछे की तरफ सरक गई. उस के गले में सांस फंस कर रह गई. शब्द गले में अटक गए और वह बता नहीं पाया कि बीए अंतिम वर्ष में था. पूजा यह बात जानती थी. वह स्वयं बीए द्वितीय वर्ष में थी. वह तो जानबूझ कर विनोद को बनाने की कोशिश कर रही थी. पूजा उस की हालत पर मुसकराई, ‘‘तुम कांप क्यों रहे हो? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

रिश्तेदार: अकेली सौम्या, अनजान शहर और अनदेखे चेहरे- भाग 2

सौम्या की बात सुन कर घर के सभी सदस्यों की नजरें सौम्या पर जा टिकीं. मगर कोई कुछ बोल न सका. सौम्या बैग उठा कर और सैंडल पहन कर घर से निकल गई.

वैसे, अजीब तो उसे वाकई लग रहा था, कभी भी अकेली फिल्म देखने जो नहीं गई थी. बाहर आ कर उस ने बैटरी रिकशा लिया और सब से नजदीकी सिनेमाहौल पहुंच गई, जो एक छोटे मौल में था. वैसे यहां अधिक भीड़ नहीं रहा करती थी मगर फिल्म अच्छी होने की वजह से कई जोड़े युवकयुवतियां काउंटर के बाहर मंडराते नजर आए. जैसे ही काउंटर खुला, लंबी लाइन लग गई. 15 मिनट लाइन में लग कर आखिरकार उस ने टिकट हासिल कर लिया.

सिक्योरिटी चैक के बाद अंदर दाखिल हुई तो देखा बहुत से लड़केलड़कियां बैठ कर शो शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं. सब आपस में बातें कर रहे थे. उसे कुछ अजीब सा लग रहा था. मगर वह अपना आत्मविश्वास खोना नहीं चाहती थी. मोबाइल पर सहेली को फोन लगा कर बातें करने लगी. कुछ ही देर में शो शुरू होने का समय हो गया. टिकट चैकिंग के बाद एकएक कर सब को अंदर भेजा जाने लगा. वह भी अंदर जा कर अपनी सीट पर बैठ गई. बगल की सीट पर एक लड़की को देख उसे तसल्ली हुई. वह भी अकेली बैठी हुई थी. सौम्या ने उस से हलकीफुलकी बातचीत आरंभ की. तब तक उस लड़की का बौयफ्रैंड आ गया और दोनों आपस में मशगूल हो गए.

सौम्या चैन से फिल्म देखने लगी. इंटरवल के समय जब लड़का पौपकौर्न वगैरह लेने जाने लगा तो सौम्या ने उस के द्वारा अपने लिए भी स्नैक्स मंगा लिए. इंटरवल में सौम्या ने उस लड़की से काफी बातें कीं. वह लड़की काफी चुलबुली और प्यारी सी थी. लड़का भी अच्छा लग रहा था. फिल्म खत्म होने पर तीनों साथसाथ बाहर निकले. सौम्या को यह जान कर आश्चर्य हुआ कि दोनों उसी के महल्ले के थे. सौम्या ने उन दोनों को घर चलने का निमंत्रण दिया. दोनों तैयार हो गए.

सौम्या दोनों के साथ घर पहुंची. उस वक्त अनुराग औफिस में और बच्चे स्कूल में थे. सौम्या ने फटाफट चाय और पकौड़े बनाए और दोनों को मन से खिलाया. लड़की का नाम नेहा और लड़के का नितिन था. एक घंटा बातचीत करने के बाद दोनों चले गए.

सौम्या का मन आज बहुत खुश था. उस का पूरा दिन बहुत खूबसूरत जो गुजरा था. अब तो वह अकसर नितिन और नेहा को घर पर बुलाने लगी. कभी नितिन व्यस्त होता तो नेहा अकेली आ जाती. दोनों मिल कर शौपिंग करने जाते तो कभी कहीं घूमने निकल जाते.

सौम्या को नितिन और नेहा के रूप में मनचाहे साथी या कहिए रिश्तेदार मिल गए थे. वहीं, नितिन और नेहा के लिए सौम्या दोस्त, बहन, मां, दादी, गाइड और दोस्त जैसे किरदार निभा रही थी. वे सौम्या से दोस्त की तरह अपनी हर बात शेयर करते. सौम्या कभी बहन की तरह प्यार लुटाती तो कभी मां की तरह उन की फिक्र करती. कभी दादी की तरह आज्ञा देती तो कभी गाइड की तरह सही रास्ता दिखाती. उन दोनों को कोई भी समस्या आती, तो वे बेखटके सौम्या के पास पहुंच जाते. सौम्या उन के लिए हमेशा तैयार रहती. वैसे भी वह पूरे दिन घर में अकेली होती थी. सो, इन दोनों के साथ खुल कर समय बिताती.

एक दिन दोपहर के समय नेहा सौम्या के घर आई. दरवाजा खुलते ही वह सौम्या के सीने से लग कर रोने लगी. सौम्या घबरा गई. उसे बैठा कर पानी ले आई. नेहा की आंखें सूजी हुई थीं. वह अब भी रो रही थी.

नेहा का कंधा थपथपाते हुए सौम्या ने कारण पूछा तो नेहा ने बताया, ‘‘सौम्या दीदी, मैं अब नितिन से कभी बात नहीं करूंगी.’’

‘‘अरे, ऐसा क्या हो गया?’’ चौंकते हुए सौम्या ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं दीदी. वह मु झ से सच्चा प्यार नहीं करता. उसे तो कोई भी लड़की चलती है.’’

‘‘यह कैसी बकवास कर रही है तू?’’ डांटते हुए सौम्या ने कहा तो वह फूट पड़ी, ‘‘दीदी, आज मु झे कालेज जाने में थोड़ी देर हो गई थी. 12 बजे के करीब पहुंची, तो पता है मैं ने क्या देखा?’’

‘‘क्या देखा?’’

‘‘मैं ने देखा कि नितिन एक नई लड़की के साथ कैंटीन में बैठा कौफी पी रहा है. यह दृश्य देखते ही मैं अपसैट हो गई और बाहर लौन में आ कर एक बैंच  पर बैठ गई. जानती हैं फिर क्या हुआ?’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘फिर नितिन उस लड़की का बैग उठाए लौन में आया और दोनों एक बैंच पर बैठ कर बातें करने लगे. नितिन ने मु झे देखा नहीं था. उस का ध्यान तो पूरी तरह उस लड़की पर था. जाने कितनी देर दोनों एकदूसरे की आंखों में देखते हुए बातें करते रहे. मेरा दिल जल उठा और मैं वहां से उठ कर चली आई. क्लास में जाने का भी दिल नहीं हुआ.’’ नेहा की आंखें फिर से भर आई थीं.

सौम्या हंसती हुई बोली, ‘‘बस, इतनी सी बात है?’’

‘‘दीदी, यह इतनी सी बात नहीं. आज नितिन ने दिखा दिया कि वह जरा भी वफादार नहीं है.’’

‘‘पागल है तू, ऐसा कुछ नहीं,’’ सौम्या ने नेहा को सम झाना चाहा कि तब तक सौम्या की बेटी आरुषि घर में दाखिल हुई.

‘‘अरे, क्या हुआ बेटे, आप जल्दी आ गए?’’

‘‘हां मम्मा, तबीयत ठीक नहीं थी. फीवर है.’’

‘‘ओह, रुक, मैं आती हूं.’’

तब तक नेहा उठ खड़ी हुई, ‘‘दीदी, आप आरुषि को संभालो. मैं अभी चलती हूं. फिर आऊंगी.’’

‘‘ठीक है नेहा, पर इस बात को सीरियसली मत लेना. हो सकता है वह लड़की नितिन की जानपहचान की हो.’’

शोर करती चुप्पी : कैसा थी मानसी की ससुराल- भाग 1

अवनी आखिर परिमल की हो गई. विदाई का समय आ गया. मम्मीपापा अपनी इकलौती, लाड़ली, नाजों पली गुडि़या सी बेटी को विदा कर पाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. बेटी तो आती रहेगी विवाह के बाद भी, पर बेटी पर यह अधिकारबोध शायद तब न रहेगा.

यह एक प्राचीन मान्यता है. अधिकार तो बेटे पर विवाह के बाद बेटी से भी कम हो जाता है, पर बोध कम नहीं होता शायद. उसी सूत्र को पकड़ कर बेटी के मातापिता की आंखें विदाई के समय आज भी भीग जाती हैं. हृदय आज भी तड़प उठता है, इस आशंका से कि बेटी ससुराल में दुख पाएगी या सुख. हालांकि, आज के समय में यह पता नहीं रहता कि वास्तव में दुख कौन पा सकता है, बेटी या ससुराल वाले. अरमान किस के चूरचूर हो सकते हैं दोनों में से, उम्मीदें किस की ध्वस्त हो सकती हैं.

विदाई के बाद भरीआंखों से अवनी कार में बैठी सड़क पर पीछे छूटती वस्तुओं को देख रही थी. इन वस्तुओं की तरह ही जीवन का एक अध्याय भी पीछे छूट गया था और कल से एक नया अध्याय जुड़ने वाला था जिंदगी की किताब में. जिसे उसे पढ़ना था. लेकिन पता नहीं अध्याय कितना सरल या कठिन हो.

‘मम्मी, मैं परिमल को पसंद करती हूं और उसी से शादी करूंगी,’ घर में उठती रिश्ते की बातों से घबरा कर अवनी ने कुछ घबरातेलरजते शब्दों में मां को सचाई से अवगत कराया.

‘परिमल? पर बेटा वह गैरबिरादरी का लड़का, पूरी तरह शाकाहारी व नौकरीपेशा परिवार है उन का.’

‘उस से क्या फर्क पड़ता है, मम्मी?’

‘लेकिन परिमल की नौकरी भी वहीं पर है. तुझे हमेशा ससुराल में ही रहना पड़ेगा, यह सोचा तूने?’

‘तो क्या हुआ? आप अपने जानने वाले व्यावसायिक घरों में भी मेरा विवाह करोगे तो क्या साथ में नहीं रहना पड़ेगा? वहां भी रह लूंगी. है ही कौन घर पर, मातापिता ही तो हैं. बहन की शादी तो पहले ही हो चुकी है.’

‘व्यावसायिक घर में तेरी शादी होगी तो रुपएपैसे की कमी न होगी. कई समस्याओं का समाधान आर्थिक मजबूती कर देती है,’ मानसी शंका जाहिर करती हुई बोली.

‘ओहो मम्मी, इतना मत सोचो. अकसर हम जितना सोचते हैं, उतना कुछ होता नहीं है. मैं और परिमल दोनों की अच्छी नौकरियां हैं. मुझे खुद पर पूरा भरोसा है. निबट लूंगी सब बातों से. आप तो बस, पापा को मनाओ, क्योंकि मैं परिमल के अलावा किसी दूसरे से विवाह नहीं करूंगी.’

अवनी के तर्कवितर्क से मानसी निरुत्तर हो गई थी. आजकल के बच्चे कुछ कहें तो मातापिता के होंठों पर हां के सिवा कुछ नहीं होना चाहिए. यही आधुनिक जीवनशैली व विचारधारा का पहला दस्तूर है. अवनी के मातापिता ने भी सहर्ष हां बोल दी. दोनों पक्षों की सफल वार्त्ता के बाद अवनी व परिमल विवाह सूत्र में बंध गए थे.

बरात विदा होने से पहले ही बरातियों की एक कार अपने गंतव्य की तरफ चल दी थी, जिन में परिमल की मम्मी भी थीं ताकि वे जल्दी पहुंच कर बहू के स्वागत की तैयारियां कर सकें. बरात देहरादून से वापस दिल्ली जा रही थी.

बरात जब घर पहुंची तो नईनवेली बहू के स्वागत में सब के पलकपांवड़े बिछ गए. द्वारचार की थोड़ीबहुत रस्मों के बाद गृहप्रवेश हो गया. पंडितजी भी अपनी दक्षिणा पा कर दुम दबा कर भागे और घर पर इंतजार करते बैंड वाले भी अपना कर्तव्य पालन कर भाग खड़े हुए.

बरात के दिल्ली पहुंचतेपहुंचते रात के 8 बज गए थे. खाना तैयार था. अधिकांश बराती तो रास्ते से ही इधरउधर हो लिए थे. करीबी रिश्तेदार, जिन्होंने घर तक आने की जरूरत महसूस की थी, भी खाना खा कर जाने को उद्यत हो गए. परिमल की मां सुजाता ने सब को भेंट वगैरह दे कर रुखसत कर दिया.

घर में अब सुजाता, सरस, बेटीदामाद व दूल्हादुलहन रह गए थे. दामाद की नौकरी तो दूसरे शहर में थी, पर घर स्थानीय था. इसलिए बेटीदामाद भी अपने घर चले गए.

‘‘परिमल, तुम ने भी होटल में कमरा बुक किया हुआ है, तुम भी निकल जाओ. तुम्हारे दोस्त तुम्हें छोड़ देंगे और ड्राइवर तुम्हारे दोस्तों को घर छोड़ता हुआ चला जाएगा. काफी देर हो रही है, आराम करो,’’ सरस बोले.

परिमल बहुत थका हुआ था. इतने थके हुए थे दोनों कि उन का होटल जाने का भी मन नहीं हो रहा था, ‘‘यहीं सो जाते हैं, पापा. मेरा कमरा खाली ही तो है. घर में तो कोई मेहमान भी नहीं है.’’

सुजाता चौंक गईं. मन ही मन सोचा, ‘नई बहू क्या सोचेगी.’

‘‘नहींनहीं, तुम्हारा कमरा तो बहुत अस्तव्यस्त है. आज तो होटल चले जाओ. कल सबकुछ व्यवस्थित कर दूंगी,’’ सुजाता बोलीं.

रिश्तेदार: अकेली सौम्या, अनजान शहर और अनदेखे चेहरे- भाग 1

सौम्या बालकनी में खड़ी आसमान की ओर देख रही थी. सुबह से ही नीले आसमान को कालेकाले शोख बादलों ने अपनी आगोश में ले रखा था. बारिश की नन्हीनन्ही बूंदों के बाद अब मोटीमोटी बूंदें गिरने लगी थीं. सावन के महीने की यही खासीयत होती है. पूरी प्रकृति बारिश में नहा कर खिल उठती है. सौम्या का मनमयूर भी नाचने को विकल था. सुहाने मौसम में वह भी पति की बांहों में सिमट जाना चाहती थी. मगर क्या करती, उस का पति अनुराग तो अपने कमरे में कंप्यूटर से चिपका बैठा था.

वह 2 बार उस के पास जा कर उसे उठाने की कोशिश कर चुकी थी. एक बार फिर वह अनुराग के कमरे में दाखिल होती हुई बोली, ‘‘प्लीज चलो न बाहर, बारिश बंद हो जाएगी और तुम काम ही करते रह जाओगे.’’

‘‘बोला न सौम्या, मु झे जरूरी काम है. तुम चाहती क्या हो? बाहर जा कर क्या करूंगा मैं? तुम भूल क्यों जाती हो कि अब हम प्रौढ़ हो चुके हैं. तुम्हारी नवयुवतियों वाली हरकतें अच्छी नहीं लगतीं.’’

तुनकते हुए सौम्या ने कहा, ‘‘मैं कौन सा तुम से रेनडांस करने को कह रही हूं?  बस, बरामदे में बैठ कर सुहाने मौसम का आनंद लेने ही को कह रही हूं. गरमगरम चाय और पकौड़े खाते हुए जीवन के खट्टेमीठे पल याद करने को कह रही हूं.’’

‘‘देखो सौम्या, मेरे पास इतना फालतू वक्त नहीं कि बाहर बैठ कर प्रकृति निहारूं और खट्टेमीठे पल याद करूं. मुझे चैन से काम करने दो. तुम अपने लिए कोई सहेली या रिश्तेदार ढूंढ़ लो, जो हरदम तुम्हारा मन लगाए रखे और हर काम में साथ दे,’’ कह कर अनुराग फिर से काम में लग गया और मुंह बनाती हुई सौम्या किचन में घुस गई.

वह इस शहर में करीब 4 साल पहले आई थी. अनुराग का ट्रांसफर हुआ तो पुराना शहर छोड़ना पड़ा. पुरानी सहेलियां और पुरानी यादें भी पीछे छूट गईं. इस शहर में अभी किसी से ज्यादा परिचय नहीं है उस का. वैसे भी, यहां लोग अपनेअपने घरों में कैद रहते हैं. बगल के घर में मिस्टर गुप्ता अपनी मिसेज के साथ रहते हैं. 60 साल के करीब के ये दंपती दरवाजा खोलने में बहुत आलसी हैं. दूसरी तरफ मिस्टर भटनागर हैं, जो 2 बेटों के साथ रहते हैं. उन की पत्नी का देहांत हो चुका है.

खुद सौम्या के दोनों बच्चे अब ऊंची कक्षाओं में आ चुके हैं. इसलिए हमेशा किताबें या लैपटौप खोल कर बैठे रहते हैं. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग एंट्रैंस टैस्ट की तैयारी कर रहा है जबकि बिटिया बोर्ड परीक्षा की तैयारी में जुटी है.

पूरे घर में सौम्या ही है जो व्यस्त नहीं है. घर के काम निबटा कर उसे इतना वक्त आराम से मिल जाता है कि वह अपने दिल के काम कर सके. कभी किताबें पढ़ना, कभी पेंटिंग करना और कभी यों ही प्रकृति को निहारना उस का मनपसंद टाइमपास है. इन सब के बाद भी कई बार उस का टाइम पास नहीं होता, तो वह उदास हो जाती है. इस शहर में उस का कोई रिश्तेदार भी नहीं.

वैसे भी वह घर की इकलौती बिटिया थी. पिता की मौत के बाद मां ने ही उसे संभाला था. अभी भी सौम्या दिल से मां के बहुत करीब है. मां खुद बहुत व्यस्त रहती हैं. वैसे भी, वे दूसरे शहर में सरकारी नौकरी में हैं. सौम्या की एकदो सहेलियां हैं, मगर फोन पर कितनी बात की जाए.

सौम्या का मन आज बहुत उदास था. शाम तक उसे कहीं सुकून नहीं मिला. रात में बिस्तर पर लेटेलेटे उस ने एक प्लान बनाया. अगले दिन सुबहसुबह पति और बच्चों के साथ वह भी तैयार होने लगी.

बेटी ने जब सौम्या को कहीं जाने के लिए तैयार होते देखा तो पूछ बैठी, ‘‘ममा, आप कहां जा रहे हो?’’

‘‘फिल्म देखने,’’ इठलाती हुई सौम्या बोली.

बेटी ने फिर से सवाल किया, ‘‘मगर किस के साथ?’’

‘‘खुद के साथ.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो आप? भला फिल्म भी खुद के साथ देखी जाती है? अकेली क्यों जा रही हो आप? कितना अजीब लगेगा.’’

‘‘तो फिर क्या करूं, बता जरा. तुम चलोगी मेरे साथ? तुम्हारे पापा चलेंगे? नहीं न. कोई रिश्तेदारी या सहेली है इस शहर में मेरी? नहीं न. बताओ, फिर क्या करूं? अजीब लगेगा, यह सोच कर अपने मन को मारती रहूं? मगर कब तक? कभी तो हिम्मत करनी पड़ेगी न मु झे अकेले चलने की. सब के होते हुए भी मैं अकेली जो हूं.’’

छोटे शहर की लड़की : जब पूजा ने दी दस्तक- भाग 1

‘‘हां, मैं ठीक हूं,’’ उस के गले से फंसी हुई सी सांस निकली. वह कुरसी से उठ कर खड़ा हो गया और बिना आदत के तन कर बोला, ‘‘तुम आराम से बैठ कर बात करो. मेरे ऊपर क्यों चढ़ी आ रही हो.’’ ‘‘ओह, माफ करना, वीनू, मेरी आदत कुछ खराब है. मैं जब तक किसी से सट कर बात नहीं करती, मुझे बातचीत में अपनापन नहीं लगता. खैर, तुम चिंता मत करो. एक दिन तुम्हें भी मुझ से सट कर बात करने की आदत हो जाएगी,’’ और वह मुसकराते हुए दीप्ति की तरफ देखने लगी. पूजा के चेहरे पर शर्मोहया का कोई नामोनिशान नहीं था. विनोद को वह बड़ी निर्लज्ज लड़की लगी.

‘‘अच्छा, क्या तुम मुझे पढ़ा दिया करोगे. दीप्ति ने मुझे बताया कि तुम पढ़ने में बहुत अच्छे हो,’’ उस ने बात बदली. ‘‘मेरे पास समय नहीं है,’’ उस ने किसी तरह कहा.

‘‘तुम्हें मेरे घर आने की जरूरत नहीं है. मैं स्वयं तुम्हारे पास आ कर पढ़ लिया करूंगी. प्लीज, तुम मेरी थोड़ी सी मदद कर दोगे तो…’’ फिर उस ने बात को अधूरा छोड़ दिया. वह पूजा की बातों का अर्थ नहीं समझ पाया. ‘क्या वह पढ़ने में कमजोर थी. अगर हां, तो अभी तक उसे यह खयाल क्यों नहीं आया. कोई दूसरी बात होगी,‘ उस ने सोचा. उस ने कहीं पढ़ा था कि अगर किसी लड़की का किसी लड़के पर दिल आ जाता है तो वह बहाने बना कर उस लड़के से मिलती है. क्या पूजा भी… उस के दिमाग में एक धमाका सा हुआ. उस का दिल और दिमाग दोनों बौखला गए थे. वह पूजा की किसी बात का ठीक से जवाब नहीं दे पाया, न उस की किसी बात का अर्थ समझ में आया और फिर दोनों लड़कियां उसे विचारों के सागर में डूबता हुआ छोड़ कर चली गईं.

उस दिन भले ही वह पूजा की बातों का अर्थ नहीं समझ पाया था, लेकिन उस की बातों का अर्थ समझने में उसे ज्यादा समय नहीं लगा. अब पूजा नियमित रूप से उस के घर आती. वह समझ गया था कि पूजा के मन में क्या है और वह उस से क्या चाहती है.

आमनेसामने पड़ने और रोजरोज बातें करने से विनोद के मन का संकोच भी बहुत जल्दी खत्म हो गया. वह पूजा से खुल कर बातें करने लगा, लेकिन अभी भी उस की बातें कम ही होती थीं और ऐसा लगता था जैसे पूजा उस के मुंह से बातें उगलवा रही हो.

फिर उन के मन भी मिल गए. पूजा और विनोद के रास्ते अब मिल कर एक हो गए थे. वे लगभग एक ही समय पर घर से कालेज के लिए निकलते और थोड़ा आगे चल कर उन का रास्ता एक हो जाता. कालेज से वापस आते समय वे शहर के बाहर जाने वाली सड़क से हो कर खेतों के बीच से होते हुए अपने घर लौटते. वे शहर के बाहर नई बस्ती में रहते थे, जिस के पीछे दूरदूर तक खेत ही खेत थे. उन दिनों बरसात का मौसम था और खेतों में मकई की फसल लहलहा रही थी. दूरदूर जहां तक दृष्टि जाती, हरियाली का साम्राज्य दिखता. खेतों में मकई के पौधे काफी ऊंचे और बड़े हो गए थे, आदमी के कद को छूते हुए, उन में हरेपीले भुट्टे लग गए थे और उन भुट्टों में दाने भी आ गए थे. पहले भुट्टों में छोटे शिशु की भांति दूध के दांत जैसे दाने आए थे. हाथ से दबाने पर पच्च से उन का दूध बाहर आ जाता था. धीरेधीरे दाने थोड़ा बड़े हो कर कड़े होते गए और उन में पीलापन आता गया. जब भुट्टे पूरी तरह पक गए तो किसी नवयुवती के मोती जैसे चमकते दांतों की तरह चमकीले और सुडौल हो गए.

दिन धुलेधुले से थे और प्रकृति की छटा देख कर ऐसा लगता था जैसे अभीअभी किसी युवती ने अपना घूंघट उठाया हो और उस ने देखने वाले को अपनी सुंदरता से भावविभोर कर दिया हो. इसी तरह सावन के महीने में नवयुवतियां भी किसी के प्रेम रस में विभोर हो कर बारिश की बूंदों में भीगते हुए भुट्टों की तरह हंसतीमुसकराती हैं, खिलखिलाती हैं और अल्हड़ हवाओं के साथ अठखेलियां करती हुई, झूलों में पींगें बढ़ाती हुई अपने प्रेमी का इंतजार करती हैं.

पूजा पर भी सावन की छटा ने अपना रंग बिखेरा था, वह भी बारिश की बूंदों से भीग कर अपने में सिमटी थी. कजरी के गीतों ने उस के मन में भी मधुर संगीत की धुनों के विभिन्न राग छेड़े थे. अपनी सहेलियों के साथ झूला झूलते हुए, दबे होंठों से गीत गाते हुए उस ने भी अपने प्रिय साजन को बुलाने की टेर लगाई थी. उस की टेर पर उस का साजन तो उस से मिलने नहीं आया था, परंतु वह लोकलाज का भय त्याग कर स्वयं उस से मिलने के लिए उस के घर आ गई थी और आज दोनों साथसाथ घूम रहे थे.

मौसम ने उन दोनों के जीवन में प्यार के बहुत सारे रंग बिखेर दिए थे. दोनों के बीच प्यार की कली पनप गई थी. पूजा पहले से ही विनोद से प्यार करती थी. अब विनोद को भी पूजा के प्यार में रंगने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. पूजा की चंचलता ने विनोद को चंद दिनों में ही उस का दीवाना बना दिया. हालांकि दोनों के स्वभाव में बड़ा अंतर था. पूजा मुखर, वाचाल और चंचल थी तो विनोद मृदुभाषी, संकोची और लड़कियों से डर कर रहने वाला लड़का. पूजा के साथ रहते हुए वह सदा चौकन्ना रहता था कि कोई उन्हें देख तो नहीं रहा. पूजा लड़कों की तरह निर्भीक थी तो विनोद लड़कियों की तरह लज्जाशील. वह एक कैदी की तरह पूजा के पीछेपीछे चलता रहता.

खेतों के बीच से होते हुए वह कच्ची सड़क के किनारे किसी पेड़ की छाया के नीचे थोड़ी देर बैठ कर सुस्ताते, प्यार भरी बातें करते और मकई के खेतों के किनारे से होते हुए एक रखवाले की नजर बचा कर कभी 2 भुट्टे चुपके से तोड़ लेते तो कभी उन से विनययाचना कर के मांग लेते थे. खेतों की रखवाली करने वाली ज्यादातर लड़कियां होती थीं, ऐसी लड़कियां जो दिल की बहुत अच्छी होती थीं और जवानी के सपने देखने की उन की उम्र हो चुकी थी.

उन के मन में प्यार के फूल खिलने लगे थे और वे पूजा और विनोद को देख कर मंदमंद मुसकराती हुईं अपने दुपट्टे का छोर दांतों तले दबा लेती थीं. वे न केवल अपने हाथों से पके भुट्टे तोड़ कर उन्हें देतीं, बल्कि कभीकभी मचान के नीचे जलने वाली आग में उन्हें पका भी देती थीं, तब दोनों मचान के ऊपर बैठ कर मकई के खेतों के ऊपर उड़ने वाले परिंदों को देखा करते थे और बैठे परिंदों को उड़ाने का बचकाना प्रयास करते, जिसे देख कर खेत की रखवाली करने वाली लड़कियां भी खुल कर हंसतीं और उन्हें परिंदों को उड़ाने का तरीका बतातीं. प्यार भरे मौसम का एक साल बीत गया.

उन के इम्तहान खत्म हो गए. अब वह दोनों घरों में कैद हो कर रह गए थे, परंतु पूजा अपने घर में रुकने वाली कहां थी. उस ने दीप्ति से दोस्ती गांठ ली थी और उस से मिलने के बहाने लगभग रोज ही विनोद के घर पर डेरा जमा कर बैठने लगी. विनोद के मातापिता को इस में कोई एतराज नहीं था क्योंकि वह दीप्ति के पास आती थी और उसी के साथ विनोद के कमरे में जाती थी. दीप्ति भी उन के प्यार को समझ गई थी और उसे दोनों के बीच पनपते प्यार से कोई एतराज नहीं था. उसे पूजा बहुत अच्छी लगती थी क्योंकि वह बहुत प्यारीप्यारी बातें करती थी और पूजा दीप्ति को अपनी छोटी बहन की तरह प्यार देती थी.

परीक्षा परिणाम घोषित होते ही विनोद के घर में एक धमाका हो गया. उस के पिताजी ने उसे दिल्ली जाने का फरमान जारी कर दिया. उस के भविष्य का निर्णय करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘विनोद, बीए में तुम्हारे अंक काफी अच्छे हैं और मैं चाहता हूं कि दिल्ली जा कर तुम किसी कालेज में एमए में दाखिला ले लो और वहीं रह कर सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करो. तुम्हें आईएएस या आईपीएस बन कर दिखाना है,’’ उस के पिता ने अपना अंतिम निर्णय सुना दिया था. मां ने भी उस के पिता के निर्णय का समर्थन किया, लेकिन पूजा को यह पसंद नहीं आया. ‘‘तुम यहां रह कर भी तो सिविल सर्विसेज की तैयारी कर सकते हो. यहां भी तो अच्छे कालेज हैं, विश्वविद्यालय है,’’ उस ने तुनकते हुए विनोद से कहा.

‘‘देखो पूजा, पहली बात तो यह है कि मैं पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता और फिर दिल्ली में अच्छे कोचिंग संस्थान हैं. वहां ऐसे कालेज हैं जहां विद्यार्थी प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए ही तैयारी करने के लिए पढ़ते हैं. मेरी

भी तमन्ना है कि मैं अपने पिताजी की आकांक्षाओं को पूरा करूं.’’ ‘‘मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगी?’’ पूजा ने एक छोटे बच्चे की तरह मचलते हुए कहा.

‘‘रह लोगी, समय सबकुछ सिखा देता है और मैं कोई सदा के लिए थोड़े ही जा रहा हूं. छुट्टियों में तो आता ही रहूंगा.’’ ‘‘मुझे इस बात का डर नहीं है कि तुम सदा के लिए जा रहे हो. मुझे डर इस बात का है कि दिल्ली जबलपुर के मुकाबले एक बड़ा शहर है. वहां ज्यादा खुलापन है. वहां की लड़कियां अधिक आधुनिक हैं और वह लड़कों के साथ बहुत खुल कर मिलतीजुलती हैं. साथसाथ पढ़ते हुए पता नहीं कौन सी परी तुम्हें अपना बना ले,’’ उस के स्वर में उदासी झलक रही थी. ‘‘हर लड़की तुम्हारी तरह तो नहीं होती,’’ उस ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘हां, सच, पर तुम अब इतने भोंदू और संकोची भी नहीं रहे. क्या पता, तुम्हें ही कोई लड़की पसंद आ जाए और तुम उसे अपने जाल में फंसा लो,’’ उस ने आंखों को चौड़ा करते हुए कहा. ‘‘हां, यह बात तो है, भविष्य को किस ने देखा है,’’ उस ने चुटकी ली.

‘‘2 या 3 साल, पता नहीं कितना समय लगे तुम्हें नौकरी मिलने में? तब तक तुम पूरी तरह से बदल तो नहीं जाओगे?’’ उस के स्वर में निराशा का भाव आ गया था. ‘‘तुम अपनेआप पर भरोसा रखो. शायद कुछ भी न बदले,’’ विनोद ने उसे तसल्ली देने का प्रयास किया.

‘‘क्या पता सिविल सेवा की परीक्षा पास करते ही तुम्हारा मन बदल जाए और क्या तुम्हारे मम्मीपापा उस स्थिति में मेरे साथ तुम्हारी शादी के लिए तैयार होंगे?’’ ‘‘यह तो वही बता सकते हैं?’’ उस ने स्पष्ट किया. पूजा का मन डूब गया.

सब से बड़ा रुपय्या : अपनों ने दिखाया असली रंग

घर के कामों के बोझ से लदीफदी सरिता को कमर सीधी करने की फुरसत भी बड़ी कठिनाई से मिला करती थी. आमदनी बढ़ाने के लिए शेखर भी ओवरटाइम करता. अपनी जरूरतें कम कर के भविष्य के लिए रुपए जमा करता. सरिता भी घर का सारा काम अपने हाथों से कर के सीमित बजट में गुजारा करती थी. सेवानिवृत्त होते ही समय जैसे थम गया. सबकुछ शांत हो गया. पतिपत्नी की भागदौड़ समाप्त हो गई. शेखर ने बचत के रुपयों से मनपसंद कोठी बना ली.

हरेभरे पेड़पौधे से सजेधजे लान में बैठने का उस का सपना अब जा कर पूरा हुआ था. बेटा पारस की इंजीनियरिंग की शिक्षा, फिर उस का विवाह सभी कुछ शेखर की नौकरी में रहते हुए ही हो चुका था. पारस अब नैनीताल में पोस्टेड है. बेटी प्रियंका, पति व बच्चों के साथ चेन्नई में रह रही थी. दामाद फैक्टरी का मालिक था. शेखर ने अपनी कोठी का आधा हिस्सा किराए पर उठा दिया था.

किराए की आमदनी, पैंशन व बैंक में जमा रकम के ब्याज से पतिपत्नी का गुजारा आराम से चल रहा था. घर में सुखसुविधा के सारे साधन उपलब्ध थे. सरिता पूरे दिन टैलीविजन देखती, आराम करती या ब्यूटी पार्लर जा कर चेहरे की झुर्रियां मिटवाने को फेशियल कराती.

शेखर हंसते, ‘‘तुम्हारे ऊपर बुढ़ापे में निखार आ गया है. पहले से अधिक खूबसूरत लगने लगी हो.’’

शेखर व सरिता सर्दी के मौसम में प्रियंका के घर चेन्नई चले जाते और गरमी का मौसम जा कर पारस के घर नैनीताल में गुजारते.

पुत्रीदामाद, बेटाबहू सभी उन के सम्मान में झुके रहते. दामाद कहता, ‘‘आप मेरे मांबाप के समान हैं. जैसे वे लोग, वैसे ही आप दोनों. बुजर्गों की सेवा नसीब वालों को ही मिला करती हैं.’’

शेखरसरिता अपने दामाद की बातें सुन कर गदगद हो उठते. दामाद उन्हें अपनी गाड़ी में बैठा कर चेन्नई के दर्शनीय स्थलों पर घुमाता, बढ़िया भोजन खिलाता. नौकरानी रात को दूध का गिलास दे जाती.

सेवा करने में बहूबेटा भी कम नहीं थे. बहू अपने सासससुर को बिस्तर पर ही भोजन की थाली ला कर देती और धुले कपड़े पहनने को मिलते.

बहूबेटों की बुराइयां करने वाली औरतों पर सरिता व्यंग्य कसती कि तुम्हारे अंदर ही कमी होगी कि तुम लोग बहुओं को सताती होंगी. मेरी बहू को देखो, मैं उसे बेटी मानती हूं तभी तो वह मुझे सुखआराम देती है.

शेखर भी दामाद की प्रशंसा करते न अघाते. सोचते, पता नहीं क्यों लोग दामाद की बुराई करते हैं और उसे यमराज कह कर उस की सूरत से भी भय खाते हैं.

एक दिन प्रियंका का फोन आया. उस की आवाज में घबराहट थी, ‘‘मां गजब हो गया. हमारे घर में, फैक्टरी में सभी जगह आयकर वालों का छापा पड़ गया है और वे हमारे जेवर तक निकाल कर ले गए…’’

तभी शेखर सरिता के हाथ से फोन छीन कर बोले, ‘‘यह सब कैसे हो गया बेटी?’’

‘‘जेठ के कारण. सारी गलती उन्हीें की है. सारा हेरफेर वे करते हैं और उन की गलती का नतीजा हमें भोगना पड़ता है,’’ प्रियंका रो पड़ी.

शेखर बेटी को सांत्वना देते रह गए और फोन कट गया. वे धम्म से कुरसी पर बैठ गए. लगा जैसे शरीर में खड़े रहने की ताकत नहीं रह गई है. और सरिता का तो जैसे मानसिक संतुलन ही खो गया. वह पागलों की भांति अपने सिर के बाल नोचने लगी.

शेखर ने अपनेआप को संभाला. सरिता को पानी पिला कर धैर्य बंधाया कि अवरोध तो आते ही रहते हैं, सब ठीक हो जाएगा.

एक दिन बेटीदामाद उन के घर आ पहुंचे. संकोच छोड़ कर प्रियंका अपनी परेशानी बयान करने लगी, ‘‘पापा, हम लोग जेठजिठानी से अलग हो रहे हैं. इन्हें नए सिरे से काम जमाना पडे़गा. कोठी छोड़ कर किराए के मकान में रहना पडे़गा. काम शुरू करने के लिए लाखों रुपए चाहिए. हमें आप की मदद की सख्त जरूरत है.’’

दामाद हाथ जोड़ कर सासससुर से विनती करने लगा, ‘‘पापा, आप लोगों का ही मुझे सहारा है, आप की मदद न मिली तो मैं बेरोजगार हो जाऊंगा. बच्चों की पढ़ाई रुक जाएगी.’’

शेखर व सरिता अपनी बेटी व दामाद को गरीबी की हालत में कैसे देख सकते थे. दोनों सोचविचार करने बैठ गए. फैसला यह लिया कि बेटीदामाद की सहायता करने में हर्ज ही क्या है? यह लोग सहारा पाने और कहां जाएंगे.

अपने ही काम आते हैं, यह सोच कर शेखर ने बैंक में जमा सारा रुपया निकाल कर दामाद के हाथों में थमा दिया. दामाद ने उन के पैरों पर गिर कर कृतज्ञता जाहिर की और कहा कि वह इस रकम को साल भर के अंदर ही वापस लौटा देगा.

शेखरसरिता को रकम देने का कोई मलाल नहीं था. उन्हें भरोसा था कि दामाद उन की रकम को ले कर जाएगा कहां, कह रहा है तो लौटाएगा अवश्य. फिर उन के पास जो कुछ भी है बच्चों के लिए ही तो है. बच्चों की सहायता करना उन का फर्ज है. दामाद उन्हें मांबाप के समान मानता है तो उन्हें भी उसे बेटे के समान मानना चाहिए. अपना फर्ज पूरा कर के दंपती राहत का आभास कर रहे थे.

बेटे पारस का फोन आया तो मां ने उसे सभी कुछ स्पष्ट रूप से बता दिया.

तीसरे दिन ही बेटाबहू दोनों आकस्मिक रूप से दिल्ली आ धमके. उन्हें इस तरह आया देख कर शेखर व सरिता हतप्रभ रह गए. ‘‘बेटा, सब ठीक है न?’’ शेखर उन के इस तरह अचानक आने का कारण जानने के लिए उतावले हुए जा रहे थे.

‘‘सब ठीक होता तो हमें यहां आने की जरूरत ही क्या थी,’’ तनावग्रस्त चेहरे से पारस ने जवाब दिया.

बहू ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘‘आप लोगों ने अपने खूनपसीने की कमाई दामाद को दे डाली, यह भी नहीं सोचा कि उन रुपयों पर आप के बेटे का भी हक बनता है.’’

बहू की बातें सुन कर शेखर हक्केबक्के रह गए. वह स्वयं को संयत कर के बोले, ‘‘उन लोगों को रुपए की सख्त जरूरत थी. फिर उन्होंने रुपया उधार ही तो लिया है, ब्याज सहित चुका देंगे.’’

‘‘आप ने रुपए उधार दिए हैं, इस का कोई सुबूत आप के पास है? आप ने उन के साथ कानूनी लिखापढ़ी करा ली है?’’

‘‘वे क्या पराए हैं जो कानूनी लिखापढ़ी कराई जाती और सुबूत रखे जाते.’’

‘‘पापा, आप भूल रहे हैं कि रुपया किसी भी इनसान का ईमान डिगा सकता है.’’

‘‘मेरा दामाद ऐसा इनसान नहीं है.’’

सरिता बोली, ‘‘प्रियंका भी तो है. वह क्या दामाद को बेईमानी करने देगी.’’

‘‘यह तो वक्त बताएगा कि वे लोग बेईमान हैं या ईमानदार. पर पापा, आप यह मकान मेरे नाम कर दें. कहीं ऐसा न हो कि आप बेटीदामाद के प्रेम में अंधे हो कर मकान भी उन के नाम कर डालें.’’

बेटे की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न रह गए. हमेशा मानसम्मान करने वाले, सलीके से पेश आने वाले बेटाबहू इस प्रकार का अशोभनीय व्यवहार क्यों कर रहे हैं, यह उन की समझ में नहीं आ रहा था.

आखिरकार बेटाबहू इस शर्त पर शांत हुए कि बेटीदामाद ने अगर रुपए वापस नहीं किए तो उन के ऊपर मुकदमा चलाया जाएगा.

बेटाबहू कई तरह की हिदायतें दे कर नैनीताल चले गए पर शेखर व सरिता के मन पर चिंताओं का बोझ आ पड़ा था. सोचते, उन्होंने बेटीदामाद की सहायता कर के क्या गलती की है. रुपए बेटी के सुख से अधिक कीमती थोड़े ही थे.

हफ्ते में 2 बार बेटीदामाद का फोन आता तो दोनों पतिपत्नी भावविह्वल हो उठते. दामाद बिलकुल हीरा है, बेटे से बढ़ कर अपना है. बेटा कपूत बनता जा रहा है, बहू के कहने में चलता है. बहू ने ही पारस को उन के खिलाफ भड़काया होगा.

अब शेखर व सरिता उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब दामाद उन का रुपया लौटाने आएगा और वे सारा रुपया उठा कर बेटाबहू के मुंह पर मार कर कहेंगे कि इसी रुपए की खातिर तुम लोग रिश्तों को बदनाम कर रहे थे न, लो रखो इन्हें.

कुछ माह बाद ही बेटीदामाद का फोन आना बंद हो गया तो शेखरसरिता चिंतित हो उठे. वे अपनी तरफ से फोन मिलाने का प्रयास कर रहे थे पर पता नहीं क्यों फोन पर प्रियंका व दामाद से बात नहीं हो पा रही थी.

हर साल की तरह इस साल भी शेखर व सरिता ने चेन्नई जाने की तैयारी कर ली थी और बेटीदामाद के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे थे.

एक दिन प्रियंका का फोन आया तो शेखर ने उस की खैरियत पूछने के लिए प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर प्रियंका ने सिर्फ यह कह कर फोन रख दिया कि वे लोग इस बार चेन्नई न आएं, क्योंकि नए मकान में अधिक जगह नहीं है.

शेखरसरिता बेटी से ढेरों बातें करना चाहते थे. दामाद के व्यवसाय के बारे में पूछना चाहते थे. अपने रुपयों की बात करना चाहते थे. पर प्रियंका ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया.

बेटीदामाद की इस बेरुखी का कारण उन की समझ में नहीं आ रहा था.

देखतेदेखते साल पूरा हो गया. एक दिन हिम्मत कर के शेखर ने बेटी से रुपए की बाबत पूछ ही लिया.

प्रियंका जख्मी शेरनी की भांति गुर्रा उठी, ‘‘आप कैसे पिता हैं कि बेटी के सुख से अधिक आप को रुपए प्यारे हैं. अभी तो इन का काम शुरू ही हुआ है, अभी से एकसाथ इतना सारा रुपया निकाल लेंगे तो आगे काम कैसे चलेगा?’’

दामाद चिंघाड़ कर बोला, ‘‘मेरे स्थान पर आप का बेटा होता तो क्या आप उस से भी वापस मांगते? आप के पास रुपए की कमी है क्या? यह रुपया आप के पास बैंक में फालतू पड़ा था, मैं इस रुपए से ऐश नहीं कर रहा हूं, आप की बेटी को ही पाल रहा हूं.’’

पुत्रीदामाद की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न कर रह गए और रुपए वापस मिलने की तमाम आशाएं निर्मूल साबित हुईं. उलटे वे उन के बुरे बन गए. रुपया तो गया ही साथ में मानसम्मान भी चला गया.

पारस का फोन आया, ‘‘पापा, रुपए मिल गए?”

शेखर चकरा गए कि क्या उत्तर दें. संभल कर बोले, ‘‘दामाद का काम जम जाएगा तो रुपए भी आ जाएंगे.’’

‘‘पापा, साफ क्यों नहीं कहते कि दामाद ने रुपए देने से इनकार कर दिया. वह बेईमान निकल गया,’’ पारस दहाड़ा.

सरिता की आंखों से आंसू बह निकले, वह रोती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, तू ठीक कह रहा है. दामाद सचमुच बेईमान है, रुपए वापस नहीं करना चाहता.’’

‘‘उन लोगों पर धोखाधड़ी करने का मुकदमा दायर करो,’’ जैसे सैकड़ों सुझाव पारस ने फोन पर ही दे डाले थे.

शेखर व सरिता एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. क्या वे बेटीदामाद के खिलाफ यह सब कर सकते थे.

चूंकि वे अपनी शर्त पर कायम नहीं रह सके, इसलिए पारस मकान अपने नाम कराने दिल्ली आ धमका. पुत्रीदामाद से तो संबंध टूट ही चुके हैं, बहूबेटा से न टूट जाएं, यह सोच कर दोनों ने कोठी का मुख्तियारनामा व वसीयतनामा सारी कानूनी काररवाई कर के पूरे कागजात बेटे को थमा दिए.

पारस संतुष्ट भाव से चला गया.

‘‘बोझ उतर गया,’’ शेखर ने सरिता की तरफ देख कर कहा, ‘‘अब न तो मकान की रंगाईपुताई कराने की चिंता न हाउस टैक्स जमा कराने की. पारस पूरी जिम्मेदारी निबाहेगा.’’

सरिता को न जाने कौन सा सदमा लग गया कि वह दिन पर दिन सूखती जा रही थी. उस की हंसी होंठों से छिन चुकी थी, भूखप्यास सब मर गई. बेटीबेटा, बहूदामाद की तसवीरोें को वह एकटक देखती रहतीं या फिर शून्य में घूरती रह जाती.

शेखर दुखी हो कर बोला, ‘‘तुम ने अपनी हालत मरीज जैसी बना ली. बालों पर मेहंदी लगाना भी बंद कर दिया, बूढ़ी लगने लगी हो.’’

सरिता दुखी मन से कहने लगी,‘‘हमारा कुछ भी नहीं रहा, हम अब बेटाबहू के आश्रित बन चुके हैं.’’

‘‘मेरी पैंशन व मकान का किराया तो है. हमें दूसरों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ शेखर जैसे अपनेआप को ही समझा रहे थे.

जब किराएदार ने महीने का किराया नहीं दिया तो शेखर ने खुद जा कर शिकायती लहजे में किराएदार से बात की और किराया न देने का कारण पूछा.

किराएदार ने रसीद दिखाते हुए तीखे स्वर में उत्तर दिया कि वह पारस को सही वक्त पर किराए का मनीआर्डर भेज चुका है.

‘‘पारस को क्यों?’’

‘‘क्योेंकि मकान का मालिक अब पारस है,’’ किराएदार ने नया किरायानामा निकाल कर शेखर को दिखा दिया. जिस पर पारस के हस्ताक्षर थे.

शेखर सिर पकड़ कर रह गए कि सिर्फ मामूली सी पैंशन के सहारे अब वह अपना गुजारा कैसे कर पाएंगे.

‘‘बेटे पर मुकदमा करो न,’’ सरिता पागलों की भांति चिल्ला उठी, ‘‘सब बेईमान हैं, रुपयों के भूखे हैं.’’

शेखर कहते, ‘‘हम ने अपनी संतान के प्रति अपना फर्ज पूरा किया है. हमारी मृत्यु के बाद तो उन्हें मिलना ही था, पहले मिल गया. इस से भला क्या फर्क पड़ गया.’’

सरिता बोली, ‘‘बेटीदामाद, बेटाबहू सभी हमारी दौलत के भूखे थे. दौलत के लालच में हमारे साथ प्यारसम्मान का ढोंग करते रहे. दौलत मिल गई तो फोन पर बात करनी भी छोड़ दी.’’

पतिपत्नी दोनों ही मानसिक वेदना से पीड़ित हो चुके थे. घर पराया लगता, अपना खून पराया हो गया तो अपना क्या रह गया.

एक दिन शेखर अलमारी में पड़ी पुरानी पुस्तकों में से होम्योपैथिक चिकित्सा की पुस्तक तलाश कर रहे थे कि अचानक उन की निगाहों के सामने पुस्तकों के बीच में दबा बैग आ गया और उन की आंखें चमक उठीं.

बैग के अंदर उन्होंने सालोें पहले इंदिरा विकासपत्र व किसान विकासपत्र पोस्ट औफिस से खरीद कर रखे हुए थे. जिस का पता न बेटाबेटी को था, न सरिता को, यहां तक कि खुद उन्हें भी याद नहीं रहा था.

मुसीबत में यह 90 हजार रुपए की रकम उन्हें 90 लाख के बराबर लग रही थी. उन के अंदर उत्साह उमड़ पड़ा. जैसे फिर से युवा हो उठे हों. हफ्ते भर के अंदर ही उन्होंने लान के कोने में टिन शैड डलवा कर एक प्रिंटिंग प्रैस लगवा ली. कुछ सामान पुराना भी खरीद लाए और नौकर रख लिए.

सरिता भी इसी काम में व्यस्त हो गई. शेखर बाहर के काम सभांलता तो सरिता दफ्तर में बैठती.

शेखर हंस कर कहते, ‘‘हम लोग बुढ़ापे का बहाना ले कर निकम्मे हो गए थे. संतान ने हमें बेरोजगार इनसान बना दिया. अब हम दोनों काम के आदमी बन गए हैं.’’

सरिता मुसकराती, ‘‘कभीकभी कुछ भूल जाना भी अच्छा रहता है. तुम्हारे भूले हुए बचत पत्रों ने हमारी दुनिया आबाद कर दी. यह रकम न मिलती तो हमें अपना बाकी का जीवन बेटीदामाद और बेटाबहू की गुलामी करते हुए बिताना पड़ता. अब हमें बेटीदामाद, बेटाबहू सभी को भुला देना ही उचित रहेगा. हम उन्हें इस बात का एहसास दिला देंगे कि उन की सहायता लिए बगैर भी हम जी सकते हैं और अपनी मेहनत की रोटी खा सकते हैं. हमें उन के सामने हाथ फैलाने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

सरिता व शेखर के चेहरे आत्मविश्वास से चमक रहे थे, जैसे उन का खोया सुकून फिर से वापस लौट आया हो.

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