स्नेह के सहारे : एक से हुए दो

रोज की तरह नहा कर माताजी बगीचे में पहुंचीं. वहां से उन की नजर पडोसी के बगीचे में पडी. वहां कोई वृद्ध व्यक्ति बड़े ध्यान से काम कर रहा था.

‘शायद इन को माली मिल गया है,’ माताजी बुदबुदाईं. फिर उन्होंने सोचा, ‘पर माली इतनी जल्दी उठ कर काम कर रहा है. फिर उस केघ्कपडे़ भी तो एकदम साफ हैं. ऊंह, होगा कोई उन का रिश्तेदार.’

उन्होंने अपने मन को उधर से हटाने का प्रयास किया. लेकिन उन का ध्यान बारबार पडो़स केघ्बगीचे की ओर ही चला जाता था. वह सोचने लगीं, ‘कौन होगा वह वृú सज्जन?’

कई दिनों के बाद उन के मन को कुछ सोचने लायक मसाला मिला था. कुछ वर्षों से वह अपनी बेटी सरला के साथ रह रही थीं. पहले जब सरला के पिता थे तब चेन्नई के नजदीक के एक छोटे से गांव में वह उन के साथ अपने घर में रहती थीं. पति के रिटायर होने के बाद भी उन्होंने अपने पति के साथ इस तरह का रोज का कार्यक्रम बना लिया था कि उन्हें समय बीतने का पता ही नहीं चलता था. साल में एक बार सरला अपने बच्चों के साथ आती थी. तब कुछ दिनों के लिए उस वृú दंपती का जीवन बच्चों केघ्शोरगुल से भर जाता था. उन्हें यह शोरगुल अच्छा लगता था, लेकिन सरला की वापसी केघ्बाद घर में छाने वाली शांति भी उन्हें बेहद अच्छी लगती थी.

पति के देहांत केघ्बाद उन्हें सरला केघ्पास ही रहना पडा़. सरला के पति सांबशिवन वायुसेना में अफसर थे. वह ही माताजी को समझा कर ले आए थे.

फ्अकेली गांव में क्या करोगी मांजी? फिर हम लोगों को भी आप की चिता लगी रहेगी. इस से अच्छा है कि घर बेचबाच कर पैसे बैंक में जमा करा दो और बुढापा हमारे साथ आराम से गुजारो, सांबशिवन ने कहा था.

माताजी ने घर बेचा तो नहीं था, पर किराए पर चढा़ दिया था. पति केघ्बीमे के पैसे भी बैंक में जमा करवा दिए थे. उस के ब्याज का भी कुछ आ ही जाता था. वैसे खानेपीने की सरला केघ्घर में भी कमी नहीं थी, पर सिर्फ शरीर की जरूरतें पूरी होने से ही क्या इनसान खुश रहता है?

वायुसेना के कैंप में बूढों़ की कमी थी. शहर से दूर, अंगरेजी बोलचाल, रहनसहन का अलग तरीका, आधुनिक विचारों वाले बच्चे. माताजी का दम पहलेपहल तो उस वातावरण में घुटता रहता था. पर अब उन्हें इस जीवन की आदत हो गई थी. अब वह आराम से बैठी रहती थीं और मन को इधरउधर बगीचे में लगाने की कोशिश करती थीं.

फ्सरला, बच्चों ने ब्रश भी नहीं किया और नाश्ता खा रहे हैं. तुम ने सिर चढा़ रखा है इन को, शुरू में वह कहती थीं तो सरला हंस देती थी. बच्चे नानी को ‘ओल्ड फैशन’ यानी पुराने रिवाजों वाली कह कर चिढा़ते थे. कभी वह नौकरानी के गंदे काम पर बरस पड़ती थीं तो सरला नौकरानी केघ्जाने के बाद समझाती थी, फ्अम्मां, आजकल नौकर मिलते ही नहीं हैं. अब तुम्हारे वाला पुराना जमाना गया. यह नौकरानी चली गई तो स्वयं काम करना पडे़गा.

फ्तो कर लेंगे, वह गुस्से में बोलतीं.

फ्अम्मां, तुम्हें तो बस, किचन, घर और धर्म के सिवा दूसरा कुछ सूझता ही नहीं है. मेरे पास दूसरे हजारों काम हैं. बच्चों को पढा़ना, सिलाई, बुनाई, लेडीज क्लब, सामाजिक जीवन आदि. इसलिए मेरा काम नौकर के बिना नहीं चल सकता.

माताजी को पता चल गया था कि यहां लोग दिखावे के बल पर ही ऊंचे स्तर के माने जाते हैं. यहां बैठक की सजावट, कालीन, परदे और पेंटिग को देखा और सराहा जाता है. चौके में गंदे हाथों वाली आया, बिना नहाए, बिना सब्जी या चावल धोए खाना बनाती है, यह कोई नहीं देखता. बच्चे मन चाहे, तब नहाते हैं, मन चाहे जो पढ़ते हैं. खूब फिल्म देखते हैं और अनुशासन के नाम से नाकभौं चढा़ते हैं. पर इस की यहां कोई परवा नहीं करता. यह सब देखदेख कर अम्मां कुढ़ती रहतीं, लेकिन कर कुछ नहीं पातीं. अपना घर छोड़ने के साथ उन केघ्अधिकार भी भूतकाल में गल गए थे. कभीकभार धीरज छोड़ कर वह कुछ कहतीं तो सरला समझाती, फ्अम्मां, तुम क्यों चिता करती हो? आराम से रहो. दुनिया कितनी आगे बढ़ गई है, तुम्हें क्या मालूम? सच, मुझे अगर तुम्हारे जितना आराम मिले तो मैं तो इधर की दुनिया उधर कर दूं. इस उम्र में घर के झंझट में दोबारा क्यों पड़ती हो?

लेकिन माताजी जानती थीं कि आराम भी एक हद तक ही किया जा सकता है. ज्यादा आराम व्यक्ति केघ्उत्साह को खत्म कर देता है.

माताजी पडो़स में आए वृú सज्जन के बारे में जानने केघ्लिए बहुत ही उत्सुक थीं. आखिर उन्होंने आया से पूछ ही लिया, फ्कौन हैं रे, वह बूढे़ बाबा?

फ्वह तो महंती साहब के चाचा हैं. अकेले हैं तो यहां रहने आ गए हैं, आया के पास पूरी जानकारी थी.

फ्पहले कहां थे?

फ्इन्हीं चाचाजी ने साहब को बडा़ किया, पढा़यालिखाया. पहले यह साहब के दूसरे भाईबहनों के साथ रहते थे. शादी नहीं की. भाई की मृत्यु के बाद भाई के परिवार के लिए ही इन्होंने अपनी जिदगी काट दी, आया ने पूरी बात बता दी. और माताजी उस से पूछती रहीं. हालांकि वह जानती थीं कि उन का आया से बतियाना भी सरला को पसंद नहीं.

अब माताजी  अकसर पडो़स के बगीचे की तरफ देखती रहतीं. कुछ ही समय में बगीचे में निखार आ गया था. रंगबिरंगे फूल क्यारियों में खिलने लगे थे. उन की देखादेखी माताजी भी थोेडा़बहुत अपना बगीचा संवारने लगीं.

एक दिन अचानक ही उन के कानों में आवाज आई, फ्लगता है, आप को भी बागबानी का शौक है.

माताजी ने चौंक कर देखा तो सामने वही वृú खडे़ थे. उन्होंने हाथ जोड़ कर नमस्ते कर दी. माताजी ने भी उत्तर में मुसकरा कर हाथ जोड़ दिए.

फिर इस के बाद उन की दोस्ती बढ़ती गई. दोनों बातें कर के समय गुजारने लगे और भाषा, जातपांत के कूडे़कचरे को नजरअंदाज करती हुई उन की मित्रता बढ़ती गई. अब वे घंटों बगीचे में खडे़ हो कर बातें करते. शाम को दोनों सब्जी लाने उत्साह से चल पड़ते. माताजी का चिड़चिडा़पन धीरेधीरे गुनगुनाहट में डूबता गया. चाचाजी भी अपने पास की दुनिया को मुसकान भरी आंखों से देखने लगे.

आया के जरिए माताजी को पता चल गया था कि बहू और भतीजे में चाचाजी के खर्चे को ले कर खटपट हो जाया करती है. एक आदमी के आने से उन का महीने का बजट चौपट हो गया था. बच्चों की फीस, शराब का खर्च, पत्नी की रमी और पति केघ्ब्रिज के अड्डों में अब कुछ अड़चनें सी आने लगी थीं.

फ्उन्हें भेज क्यों नहीं देते जेठजी के घर? श्रीमती महंती अपने पति से पूछतीं.

फ्वहां भी तो यही हाल है. उन्हें हम लोगों को छोड़ कर दूसरे किसी का सहारा नहीं है मालू. अगर हम चारों भाईबहन में से कोईघ्भी उन्हें नहीं रखेगा तो—

फ्तब उन्हें वृúाश्रम में भेज दो.

फ्क्या? तुम्हारी जबान इतनी चल कैसे गई? जिस ने हमारे लिए अपना घर नहीं बसाया, उसे मैं वृúाश्रम में छोड़ दूं? महंती चीखने लगे.

फ्मुझ से तो यह झंझट नहीं होगा. कभी चावल ज्यादा खिलाया तो गैस की तकलीफ, कभी रोटी ज्यादा खा गए तो पेट में गड़बड़.

फ्मालू, जरा तो खयाल करो. बुढा़पे पर उन का क्या बस चल सकता है.

फ्जब वह उस मद्रासी बुड्ढी के साथ हंसहंस कर बतियाते हैं तो बुढा़पा कहां गुम हो जाता है, श्रीमती महंती पूछतीं.

इधर सरला ने भी एक दिन झिझकते हुए माताजी से कह दिया, फ्अम्मां, चाचाजी से इतनी दोस्ती इस उम्र में अच्छी नहीं लगती. लोग मजाक उडा़ते हैं.

माताजी बिफर गईं. बोलीं, फ्अच्छे हैं तुम्हारे लोगबाग. पेड़ को सूखते हुए देख कर लोटा भर पानी तो देेंगे नहीं, अगर दूसरा कोई दे भी रहा हो तो जलेंगे भी. क्या हम लोगों को किसी बात करने वाले साथी की जरूरत नहीं है?

फ्मैं ने मना कब किया है? लेकिन— उसे आगे के शब्द नहीं सूझ रहे थे.

फ्हां, तुम्हारी सोसाइटी में स्त्रियां औरों केघ्साथ खुलेआम नाच  तो सकती हैं, अविवाहित लड़केलड़कियां डेटिग तो कर सकते हैं लेकिन 2 बूढे़, जिन से कोई बात करने वाला नहीं, आपस में भी बातें नहीं कर सकते. यही सोसाइटी है तुम्हारी. वाहवाह.

एक दिन चाचाजी ने भतीजे से कहा,  फ्बेटे, मैं सोचता हूं कि मैं किसी आश्रम में जा कर अपना समय बिता दूं. तुम सभी भाई थोडे़थोडे़ पैसे भेजते रहोगे तो मेरा खर्च तो… मुझे पता है बेटे कि तुम्हारी तनख्वाह तुम्हारे लिए ही पर्याप्त नहीं, पर मैं—मेरा तोे कुछ है ही नहीं. बोझ बनना पड़ रहा है तुम सब पर—

महंती ने उन के पांव पकड़ लिए, फ्चाचाजी, हमें शर्मिंदा न करें. मालू तो मूर्ख है. मैं उसे समझा दूंगा.

फ्नहीं बेटे, वह मूर्ख नहीं है. मूर्ख मैं हूं जो स्वावलंबी नहीं हूं. नौकरी सरकारी नहीं थी तो पेंशन कहां से मिलती. फिर भी, काश, मैं कुछ बचा कर रखता.

चाचाजी के इस सुझाव के बारे में जब माताजी को पता चला तो उन की आंखें भर आईं. मौका मिलते ही उन्होंने चाचाजी से कहा, फ्तुम मेरे साथ चलो, मेरा एक छोटा सा घर है गांव में. हां, भाषा तुम्हारी नहीं, पर मैं हूं वहां. मेरे साथ रहो. मैं भी तो नितांत अकेली हूं.

चाचाजी अवाक देखते रहे. फिर बोले, फ्लोग क्या कहेंगे, इस उम्र में हमारी दोस्ती लोगों की नजर में पवित्र नहीं हो सकती.

फ्तो हम शादी कर लेंगे. सच, मैं इस भरी दुनिया की तनहाई से तंग आ गई हूं. उस छोटे गांव में, अपने घर में शांति से रहना चाहती हूं. तुम भी चलो. दोनों के बाकी दिन कट जाएंगे, स्नेह केघ्सहारे.

फ्लेकिन लोग—लोग क्या कहेंगे? इतने बुढा़पे में शादी? फिर मैं तो—

मुझे पता है कि तुम निर्धन हो, लेकिन तुम्हारे पास छलकते स्नेह और त्याग की जो दौलत है, उस की कोई कीमत नहीं है. और हां, उन लोगों की क्या परवा करनी जो तुम्हारी इस दौलत की कीमत नहीं जानते. फिर अब हमें कहां अपने बच्चे ब्याहने जाना है? वह हंस पडीं़.

फिर एक दिन उस फूलों से लदे बगीचे के पास एक टैक्सी आ कर रुकी. उस में से फूलों के हार पहने चाचाजी व माताजी उतरे. दोनों ने शादी कर ली थी. उसी टैक्सी में अपनाअपना सामान लदवा कर माताजी और चाचाजी गांव जाने के लिए स्टेशन चले गए.

इस के बाद सारे कैंप में ‘बूढी़ घोडी़, लाल लगाम’ के नारे, लतीफे और कहकहे कई दिनों तक गूंजते रहे. महंती और सांबशिवन का परिवार शरम के मारे कई दिनों तक मुंह छिपाए घर में बैठा रहा. घर से बाहर आने पर दोनों परिवारों ने गैरों से भी बढ़ कर अपने उन बूढों़ को गालियां दीं.

लेकिन उन बूढों के कानों तक यह सबकुछ कभी नहीं पहुंचा. वे दोनों आदमी स्नेह केघ्सहारे लंबी लगने वाली जिदगी को मजे से जीते रहे. अब वे अकेले जो नहीं रह गए थे.

आंधी से बवंडर की ओर

फन मौल से निकलतेनिकलते, थके स्वर में मैं ने अपनी बेटी अर्पिता से पूछा, ‘‘हो गया न अप्पी, अब तो कुछ नहीं लेना?’’

‘‘कहां, अभी तो ‘टी शर्ट’ रह गई.’’

‘‘रह गई? मैं तो सोच रही थी…’’

मेरी बात बीच में काट कर वह बोली, ‘‘हां, मम्मा, आप को तो लगता है, बस थोडे़ में ही निबट जाए. मेरी सारी टी शर्ट्स आउटडेटेड हैं. कैसे काम चला रही हूं, मैं ही जानती हूं…’’

सुन कर मैं निशब्द रह गई. आज की पीढ़ी कभी संतुष्ट दिखती ही नहीं. एक हमारा जमाना था कि नया कपड़ा शादीब्याह या किसी तीजत्योहार पर ही मिलता था और तब उस की खुशी में जैसे सारा जहां सुंदर लगने लगता.

मुझे अभी भी याद है कि शादी की खरीदारी में जब सभी लड़कियों के फ्राक व सलवारसूट के लिए एक थान कपड़ा आ जाता और लड़कों की पतलून भी एक ही थान से बनती तो इस ओर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता कि लोग सब को एक ही तरह के कपड़ों में देख कर मजाक तो नहीं बनाएंगे…बस, सब नए कपड़े की खुशी में खोए रहते और कुछ दिन तक उन कपड़ों का ‘खास’ ध्यान रखा जाता, बाकी सामान्य दिन तो विरासत में मिले कपड़े, जो बड़े भाईबहनों की पायदान से उतरते हुए हम तक पहुंचते, पहनने पड़ते थे. फिर भी कोई दुख नहीं होता था. अब तो ब्रांडेड कपड़ों का ढेर और बदलता फैशन…सोचतेसोचते मैं अपनी बेटी के साथ गाड़ी में बैठ गई और जब मेरी दृष्टि अपनी बेटी के चेहरे पर पड़ी तो वहां मुझे खुशी नहीं दिखाई पड़ी. वह अपने विचारों में खोईखोई सी बोली, ‘‘गाड़ी जरा बुकशौप पर ले लीजिए, पिछले साल के पेपर्स खरीदने हैं.’’

सुन कर मेरा दिल पसीजने लगा. सच तो यह है कि खुशी महसूस करने का समय ही कहां है इन बच्चों के पास. ये तो बस, एक मशीनी जिंदगी का हिस्सा बन जी रहे हैं. कपड़े खरीदना और पहनना भी उसी जिंदगी का एक हिस्सा है, जो क्षणिक खुशी तो दे सकता है पर खुशी से सराबोर नहीं कर पाता क्योंकि अगले ही पल इन्हें अपना कैरियर याद आने लगता है.

इसी सोच में डूबे हुए कब घर आ गया, पता ही नहीं चला. मैं सारे पैकेट ले कर उन्हें अप्पी के कमरे में रखने के लिए गई. पूरे पलंग पर अप्पी की किताबें, कंप्यूटर आदि फैले थे…उन्हीं पर जगह बना कर मैं ने पैकेट रखे और पलंग के एक किनारे पर निढाल सी लेट गई. आज अपनी बेटी का खोयाखोया सा चेहरा देख मुझे अपना समय याद आने लगा…कितना अंतर है दोनों के समय में…

मेरा भाई गिल्लीडंडा खेलते समय जोर की आवाज लगाता और हम सभी 10-12 बच्चे हाथ ऊपर कर के हल्ला मचाते. अगले ही पल वह हवा में गिल्ली उछालता और बच्चों का पूरा झुंड गिल्ली को पकड़ने के लिए पीछेपीछे…उस झुंड में 5-6 तो हम चचेरे भाईबहन थे, बाकी पासपड़ोस के बच्चे. हम में स्टेटस का कोई टेंशन नहीं था.

देवीलाल पान वाले का बेटा, चरणदास सब्जी वाले की बेटी और ऐसे ही हर तरह के परिवार के सब बच्चे एकसाथ…एक सोच…निश्ंिचत…स्वतंत्र गिल्ली के पीछेपीछे, और यह कैच… परंतु शाम होतेहोते अचानक ही जब मेरे पिता की रौबदार आवाज सुनाई पड़ती, चलो घर, कब तक खेलते रहोगे…तो भगदड़ मच जाती…

धूल से सने पांव रास्ते में पानी की टंकी से धोए जाते. जल्दी में पैरों के पिछले हिस्से में धूल लगी रह जाती…पर कोई चिंता नहीं. घर जा कर सभी अपनीअपनी किताब खोल कर पढ़ने बैठ जाते. रोज का पाठ दोहराना होता था…बस, उस के साथसाथ मेडिकल या इंजीनियरिंग की पढ़ाई अलग से थोड़ी करनी होती थी, अत: 9 बजे तक पाठ पूरा कर के निश्ंिचतता की नींद के आगोश में सो जाते पर आज…

रात को देर तक जागना और पढ़ना…ढेर सारे तनाव के साथ कि पता नहीं क्या होगा. कहीं चयन न हुआ तो? एक ही कमरे में बंद, यह तक पता नहीं कि पड़ोस में क्या हो रहा है. इन का दायरा तो फेसबुक व इंटरनेट के अनजान चेहरे से दोस्ती कर परीलोक की सैर करने तक सीमित है, एक हम थे…पूरे पड़ोस बल्कि दूरदूर के पड़ोसियों के बच्चों से मेलजोल…कोई रोकटोक नहीं. पर अब ऐसा कहां, क्योंकि मुझे याद है कि कुछ साल पहले मैं जब एक दिन अपनी बेटी को ले कर पड़ोस के जोशीजी के घर गई तो संयोगवश जोशी दंपती घर पर नहीं थे. वहीं पर जोशीजी की माताजी से मुलाकात हुई जोकि अपनी पोती के पास बैठी बुनाई कर रही थीं. पोती एक स्वचालित खिलौना कार में बैठ कर आंगन में गोलगोल चक्कर लगा रही थी, कार देख कर मैं अपने को न रोक सकी और बोल पड़ी…

‘आंटी, आजकल कितनी अच्छी- अच्छी चीजें चल गई हैं, कितने भाग्यशाली हैं आज के बच्चे, वे जो मांगते हैं, मिल जाता है और एक हमारा बचपन…ऐसी कार का तो सपना भी नहीं देखा, हमारे समय में तो लकड़ी की पेटी से ही यह शौक पूरा होता था, उसी में रस्सी बांध कर एक बच्चा खींचता था, बाकी धक्का देते थे और बारीबारी से सभी उस पेटी में बैठ कर सैर करते थे. काश, ऐसा ही हमारा भी बचपन होता, हमें भी इतनी सुंदरसुंदर चीजें मिलतीं.’

‘अरे सोनिया, सोने के पिंजरे में कभी कोई पक्षी खुश रह सका है भला. तुम गलत सोचती हो…इन खिलौनों के बदले में इन के मातापिता ने इन की सब से अमूल्य चीज छीन ली है और जो कभी इन्हें वापस नहीं मिलेगी, वह है इन की आजादी. हम ने तो कभी यह नहीं सोचा कि फलां बच्चा अच्छा है या बुरा. अरे, बच्चा तो बच्चा है, बुरा कैसे हो सकता है, यही सोच कर अपने बच्चों को सब के साथ खेलने की आजादी दी. फिर उसी में उन्होंने प्यार से लड़ कर, रूठ कर, मना कर जिंदगी के पाठ सीखे, धैर्य रखना सीखा. पर आज इसी को देखो…पोती की ओर इशारा कर वे बोलीं, ‘घर में बंद है और मुझे पहरेदार की तरह बैठना है कि कहीं पड़ोस के गुलाटीजी का लड़का न आ जाए. उसे मैनर्स नहीं हैं. इसे भी बिगाड़ देगा. मेरी मजबूरी है इस का साथ देना, पर जब मुझे इतनी घुटन है तो बेचारी बच्ची की सोचो.’

मैं उन के उस तर्क का जवाब न दे सकी, क्योंकि वे शतप्रतिशत सही थीं.

हमारे जमाने में तो मनोरंजन के साधन भी अपने इर्दगिर्द ही मिल जाते थे. पड़ोस में रहने वाले पांडेजी भी किसी विदूषक से कम न थे, ‘क्वैक- क्वैक’ की आवाज निकालते तो थोड़ी दूर पर स्थित एक अंडे वाले की दुकान में पल रही बत्तखें दौड़ कर पांडेजी के पास आ कर उन के हाथ से दाना  खातीं और हम बच्चे फ्री का शो पूरी तन्मयता व प्रसन्न मन से देखते. कोई डिस्कवरी चैनल नहीं, सब प्रत्यक्ष दर्शन. कभी पांडेजी बोट हाउस क्लब से पुराना रिकार्ड प्लेयर ले आते और उस पर घिसा रिकार्ड लगा कर अपने जोड़ीदार को वैजयंती माला बना कर खुद दिलीप कुमार का रोल निभाते हुए जब थिरकथिरक कर नाचते तो देखने वाले अपनी सारी चिंता, थकान, तनाव भूल कर मुसकरा देते. ढपली का स्थान टिन का डब्बा पूरा कर देता. कितना स्वाभाविक, सरल तथा निष्कपट था सबकुछ…

सब को हंसाने वाले पांडेजी दुनिया से गए भी एक निराले अंदाज में. हुआ यह कि पहली अप्रैल को हमारे महल्ले के इस विदूषक की निष्प्राण देह उन के कमरे में जब उन की पत्नी ने देखी तो उन की चीख सुन पूरा महल्ला उमड़ पड़ा, सभी की आंखों में आंसू थे…सब रो रहे थे क्योंकि सभी का कोई अपना चला गया था अनंत यात्रा पर, ऐसा लग रहा था कि मानो अभी पांडेजी उठ कर जोर से चिल्लाएंगे और कहेंगे कि अरे, मैं तो अप्रैल फूल बना रहा था.

कहां गया वह उन्मुक्त वातावरण, वह खुला आसमान, अब सबकुछ इतना बंद व कांटों की बाड़ से घिरा क्यों लगता है? अभी कुछ सालों पहले जब मैं अपने मायके गई थी तो वहां पर पांडेजी की छत पर बैठे 14-15 वर्ष के लड़के को देख समझ गई कि ये छोटे पांडेजी हमारे पांडेजी का पोता ही है…परंतु उस बेचारे को भी आज की हवा लग चुकी थी. चेहरा तो पांडेजी का था किंतु उस चिरपरिचित मुसकान के स्थान पर नितांत उदासी व अकेलेपन तथा बेगानेपन का भाव…बदलते समय व सोच को परिलक्षित कर रहा था. देख कर मन में गहरी टीस उठी…कितना कुछ गंवा रहे हैं हम. फिर भी भाग रहे हैं, बस भाग रहे हैं, आंखें बंद कर के.

अभी मैं अपनी पुरानी यादों में खोई, अपने व अपनी बेटी के समय की तुलना कर ही रही थी कि मेरी बेटी ने आवाज लगाई, ‘‘मम्मा, मैं कोचिंग क्लास में जा रही हूं…दरवाजा बंद कर लीजिए…’’

मैं उठी और दरवाजा बंद कर ड्राइंगरूम में ही बैठ गई. मन में अनेक प्रकार की उलझनें थीं… लाख बुराइयां दिखने के बाद भी मैं ने भी तो अपनी बेटी को उसी सिस्टम का हिस्सा बना दिया है जो मुझे आज गलत नजर आ रहा था.

सोचतेसोचते मेरे हाथ में रिमोट आ गया और मैंने टेलीविजन औन किया… ब्रेकिंग न्यूज…बनारस में बी.टेक. की एक लड़की ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह कामर्स पढ़ना चाहती थी…लड़की ने मातापिता द्वारा जोर देने पर इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया था. मुझे याद आया कि बी.ए. में मैं ने अपने पिता से कुछ ऐसी ही जिद की थी… ‘पापा, मुझे भूगोल की कक्षा में अच्छा नहीं लग रहा क्योंकि मेरी सारी दोस्त अर्थशास्त्र में हैं. मैं भूगोल छोड़ रही हूं…’

‘ठीक है, पर मन लगा कर पढ़ना,’ कहते हुए मेरे पिता अखबार पढ़ने में लीन हो गए थे और मैं ने विषय बदल लिया था. परंतु अब हम अपने बच्चों को ‘विशेष कुछ’ बनाने की दौड़ में शामिल हो कर क्या अपने मातापिता से श्रेष्ठ, मातापिता साबित हो रहे हैं, यह तो वक्त बताएगा. पर यह तो तय है कि फिलहाल इन का आने वाला कल बनाने की हवस में हम ने इन का आज तो छीन ही लिया है.

सोचतेसोचते मेरा मन भारी होने लगा…मुझे अपनी ‘अप्पी’ पर बेहद तरस आने लगा. दौड़तेदौड़ते जब यह ‘कुछ’ हासिल भी कर लेगी तो क्या वैसी ही निश्ंिचत जिंदगी पा सकेगी जो हमारी थी… कितना कुछ गंवा बैठी है आज की युवा पीढ़ी. यह क्या जाने कि शाम को घर के अहाते में ‘छिप्पीछिपाई’, ‘इजोदूजो’, ‘राजा की बरात’, ‘गिल्लीडंडा’ आदि खेल खेलने में कितनी खुशी महसूस की जा सकती थी…रक्त संचार तो ऐसा होता था कि उस के लिए किसी योग गुरु के पास जा कर ‘प्राणायाम’ करने की आवश्यकता ही न थी. तनाव शब्द तो तब केवल शब्दकोश की शोभा बढ़ाता था… हमारी बोलचाल या समाचारपत्रों और टीवी चैनलों की खबरों की नहीं.

अचानक मैं उठी और मैं ने मन में दृढ़ निश्चय किया कि मैं अपनी ‘अप्पी’ को इस ‘रैट रेस’ का हिस्सा नहीं बनने दूंगी. आज जब वह कोचिंग से लौटेगी तो उस को पूरा विश्वास दिला दूंगी कि वह जो करना चाहती है करे, हम बिलकुल भी हस्तक्षेप नहीं करेंगे. मेरा मन थोड़ा हलका हुआ और मैं एक कप चाय बनाने के लिए रसोई की ओर बढ़ी…तभी टेलीफोन की घंटी बजी…मेरी ननद का फोन था…

‘‘भाभीजी, क्या बताऊं, नेहा का रिश्ता होतेहोते रह गया, लड़का वर्किंग लड़की चाह रहा है. वह भी एम.बी.ए. हो. नहीं तो दहेज में मोटी रकम चाहिए. डर लगता है कि एक बार दहेज दे दिया तो क्या रोजरोज मांग नहीं करेगा?’’

उस के आगे जैसे मेरे कानों में केवल शब्दों की सनसनाहट सुनाई देने लगी, ऐसा लगने लगा मानो एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई हो…अभी मैं अपनी अप्पी को आजाद करने की सोच रही थी और अब ऐसा समाचार.

क्या हो गया है हम सब को? किस मृगतृष्णा के शिकार हो कर हम सबकुछ जानते हुए भी अनजान बने अपने बच्चों को उस मशीनी सिस्टम की आग में धकेल रहे हैं…मैं ने चुपचाप फोन रख दिया और धम्म से सोफे पर बैठ गई. मुझे अपनी भतीजी अनुभा याद आने लगी, जिस ने बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम कर रहे अपने एक सहकर्मी से इसलिए शादी की क्योंकि आज की भाषा में उन दोनों की ‘वेवलैंथ’ मिलती थी. पर उस का परिणाम क्या हुआ? 10 महीने बाद अलगाव और डेढ़ साल बाद तलाक.

मुझे याद है कि मेरी मां हमेशा कहती थीं कि पति के दिल तक पेट के रास्ते से जाया जाता है. समय बदला, मूल्य बदले और दिल तक जाने का रास्ता भी बदल गया. अब वह पेट जेब का रास्ता बन चुका था…जितना मोटा वेतन, उतना ही दिल के करीब…पर पुरुष की मूल प्रकृति, समय के साथ कहां बदली…आफिस से घर पहुंचने पर भूख तो भोजन ही मिटा सकता है और उस को बनाने का दायित्व निभाने वाली आफिस से लौटी ही न हो तो पुरुष का प्रकृति प्रदत्त अहं उभर कर आएगा ही. वही हुआ भी. रोजरोज की चिकचिक, बरतनों की उठापटक से ऊब कर दोनों ने अलगाव का रास्ता चुन लिया…ये कौन सा चक्रव्यूह है जिस के अंदर हम सब फंस चुके हैं और उसे ‘सिस्टम’ का नाम दे दिया…

मेरा सिर चकराने लगा. दूर से आवाज आ रही थी, ‘दीदी, भागो, अंधड़ आ रहा है…बवंडर न बन जाए, हम फंस जाएंगे तो निकल नहीं पाएंगे.’ बचपन में आंधी आने पर मेरा भाई मेरा हाथ पकड़ कर मुझे दूर तक भगाता ले जाता था. काश, आज मुझे भी कोई ऐसा रास्ता नजर आ जाए जिस पर मैं अपनी ‘अप्पी’ का हाथ पकड़ कर ऐसे भागूं कि इस सिस्टम के बवंडर बनने से पहले अपनी अप्पी को उस में फंसने से बचा सकूं, क्योंकि यह तो तय है कि इस बवंडर रूपी चक्रव्यूह को निर्मित करने वाले भी हम हैं…तो निकलने का रास्ता ढूंढ़ने का दायित्व भी हमारा ही है…वरना हमारे न जाने कितने ‘अभिमन्यु’ इस चक्रव्यूह के शिकार बन जाएंगे.

अधूरा सा इश्क: क्या था अमन का फैसला

यादों के झरोखे पर आज फिर किसी ने दस्तक दी थी. न चाहते हुए भी अमन का मन उस और खींचता चला गया. अपनी बेटी का आंसुओं से भीगा हुआ चेहरा उसे बारबार कचोट रहा था.

“विनय, मुझे माफ कर दो, मैं तुम से शादी नहीं कर सकती. मैं अपने पापा को धोखा नहीं दे सकती. मैं उन का गुरूर हूं…उन के भरोसे को मैं तोड़ नहीं सकती. हो सके तो मुझे माफ कर देना.”

देर रात श्रेया के कमरे की जलती हुई लाइट को देख अमन के कदम उस ओर बढ़ गए थे. श्रेया की हिचिकियों की आवाजें बाहर तक आ रही थीं. अमन दरवाजे पर कान लगाए खड़ा था. फोन पर उधर किसी ने क्या कहा अमन यह तो नहीं सुन पाया पर श्रेया के शब्द सुन कर उस के पैर कमरे के बाहर ही जम गए. कितना गुस्सा आया था उसे…पिताजी के खिलाफ जा कर उस ने श्रेया का कालेज में दाखिला कराया था और वह…

“आग और भूसे को एकसाथ नहीं रखा जाता. वैसे भी इसे दूसरे घर जाना है. कल कोई ऊंचनीच हो गई तो मुझ से मत कहना.”

अपने बाबा की बात सुन श्रेया संकोच और शर्म से गड़ गई थी. तब अमन ने कितने विश्वास के साथ कहा था,”पिताजी, मुझे श्रेया पर पूरा भरोसा है. वह मेरा सिर कभी झुकने नहीं देगी.”

श्रेया रोतेरोते सो गई. अमन उसे सोता हुआ देख रहा था. उस की छोटी सी गुड़िया कब इतनी बड़ी हो गई… तकिया आंसुओं से गीला हो गया था. बिस्तर के बगल में रखे लैंप की रौशनी में उस का मासूम चेहरा देख अमन का कलेजा मुंह को आ गया. कितना थका सा लग रहा था उस का चेहरा मानों वह मीलों का सफर तय कर के आई हो. कितनी मासूम लग रही थी वह.

उस की श्रेया किसी लड़के के चक्कर में…अभी उस ने दुनिया ही कहां देखी है? आजकल के ये लड़के बाप के पैसों से घुमाएंगेफिराएंगे और फिर छोड़ देंगे. श्रेया के मासूम चेहरे को देख अमन को किसी की याद आ गई. सच मानों तो इतने सालों के बाद भी वह उस चेहरे को भूल नहीं पाया था.

उसे लगा आज किसी ने उसे 25 साल पीछे ला कर खड़ा कर दिया हो. न जाने कितनी ही रातें उस ने उस के खयालों में बिता दी थीं. उस के जाने से कुछ नहीं बदला था, रात भी आई थी…चांद भी आया था पर बस नींद नहीं आई थी.

कितनी बार…हां, न जाने कितनी ही बार वह नींद से जाग कर उठ जाता.तब एक बात दिमाग में आती, जब खयाल और मन में घुमड़ते अनगिनत सवाल और बवाल करने लगे तब तुम आ जाओ. तुम्हारा वह सवाल जनून बन जाएगा और बवाल जीवन का सुकून…आज सोचता हूं तो हंसी आती है. बावरा ही तो था वह…बावरे से मन की यह न जानें कितनी बावरी सी बातें थीं. कोई रात ऐसी नहीं थी जब वह साथ नहीं होती. हां, यह बात अलग थी कि वह साथ हो कर भी साथ नहीं होती. अमन को कभीकभी लगता था कि उस के बिना तो रात में भी रात न होती. शायद इसी को तो इश्क कहते हैं… इतने साल बीत जाने पर भी वह उस को माफ नहीं कर पाया था.

सच कहा है किसी ने मन से ज्यादा उपजाऊ जगह कोई नहीं होती क्योंकि वहां जो कुछ भी बोया जाए उगता जरूर है चाहे वह विचार हो, नफरत हो या प्यार. कुछ ख्वाहिशें बारिश की बूंदों की तरह होती हैं जिन्हें पाने की जीवनभर चाहत होती है. उस चाहत को पाने में हथेलियां तो भीग जाती हैं पर हाथ हमेशा खाली रहता है. उस का प्यार इतना कमजोर था कि वह हिम्मत नहीं कर पाई. बस, कुछ सालों की ही तो बात थी…

“कैसी लग रही हूं मैं..?” खुशी ने मुसकराते हुए अमन से पूछा था. अमन उस के चेहरे में खो सा गया था. लाल सुर्ख जोड़े और मेहंदी लगे हाथों में वस और भी खूबसूरत लग रही थी. वह उसे एकटक देखता रहा और सोचता रहा कि मेरा चांद किसी और की छत पर चमकने को तैयार था.

“तुम हमेशा की तरह खूबसूरत…बहुत खूबसूरत लग रही हो.”

“सच में…”

“क्या तुम्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं, कोई गवाह चाहिए तुम्हें…”

अमन की आंखों में न जाने कितने सवाल तैर रहे थे. ऐसे सवाल जिन का जवाब उस के पास नहीं था. खुशी ने अचकचा कर अपनी आंखें फेर लीं और भरसक हंसने का प्रयास करने लगी. अमन उस मासूम हंसी को कभी नहीं भूल सकता था. न जाने क्या सोच कर वह एकदम से चुप हो गया. उस समय वे दोनों कमरे में अकेले थे. बारात आने वाली थी.सब तैयारी में इधरउधर दौड़भाग रहे थे. कमरे में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था.

शायद बारात आ गई थी. भीड़ का शोर बढ़ता जा रहा और खुशी के चेहरे पर बेचैनी भी…वह तेजी से अपनी उंगलियों में दुपट्टे को लपेटती और फिर ढीला छोड़ देती. कुछ था जो उस के हाथों से छूटने जा रहा था पर….खुशी सोच रही थी कि माथे का सिंदूर रिश्ते की निशानी हो सकती है पर क्या प्यार की भी? तब खुशी ने ही बोलना शुरू किया, “अमन, शायद तुम्हें मुझ से, अपने जीवन से शिकायत हो. शायद तुम्हें लगे कुदरत ने हमारा साथ नहीं दिया पर एक बार खिड़की से बाहर उन चेहरों को देखो जो मेरी खुशी के लिए कितने दिनों से दौड़भाग रहे हैं. मेरे पापा से मिल कर देखो, खुशी उन की आंखों से बारबार छलक रही है और मेरी मां… वह भी कितनी खुश है.

“क्या अगर आज हम ने उन की मरजी के खिलाफ जा कर चुपचाप शादी कर ली होती, इतने लोगों को दुख पहुंचा कर हम नए जीवन की शुरुआत कर पाते? तुम्हें शायद मेरी बातें आज न समझ में आए पर एक न एक दिन तुम्हें लगेगा कि मैं गलत नहीं थी. हो सके तो मुझे भूल जाना…”

“भूल जाना…” आसानी से कह दिया था खुशी ने यह सब पर क्या यह इतना आसान था? अमन मुसकरा कर रह गया. उस की मुसकराहट में खुशी को न पा पाने का गम, अपने बेरोजगार होने की मजबूरी बारबार साल रही थी. आज खुशी जिन लोगों का दिल रखने की कोशिश कर रही थी, क्या किसी ने उस का दिल रखने की कोशिश की? खुशी की बहनें जयमाल के लिए खुशी को ले कर चली गईं. अमन काफी देर तक उस स्थान को देखता रहा जहां खुशी बैठी थी. उस के वजूद की खुशबू वह अभी तक महसूस कर रहा था.

खुशी सिर्फ उस के जीवन से नहीं जा रही थी, उस के साथ उस की खुशियां, उस के होने का मकसद को भी ले कर चली गई थी. वह तेजी से उठा और भीड़ में गुम हो गया.

“अरे अमन, वहां क्यों खड़े हो? यहां आओ न… फोटो तो खिंचवाओ,” खुशी की मां ने हुलस कर कहा और वह झट से दोस्तों के साथ मंच पर चढ़ गया. न जाने क्यों खुशी का चेहरा उतर गया था. एक अजीब सा तनाव और गुस्सा अमन के चेहरे पर था, जैसे किसी बच्चे से उस का पसंदीदा खिलौना छीन लिया गया हो. अमन खुशी के पति के पीछे जा कर खड़ा हो गया, जैसे वह खुद को बहला रहा था. जिस जगह पर आज खुशी का पति बैठा है इस जगह पर तो उसे होना चाहिए था.

आज उस का मन यादों के भंवर में घूम रहा था. याद है, आज भी उसे खुशी से वह पहली मुलाकात… फरवरी की गुलाबी ठंड शीतल हवा के झोंके चेहरे से टकरा कर एक अजीब सी मदहोशी में डुबो रहे थे. बादलों से झांकता सूरज बारबार आंखमिचौली कर रहा था.

तभी सामने से आती एक सुंदर सी लड़की जिस ने पीले सलवारकमीज पर चांदी की चूड़ियां डाल रखी थीं, उस पर नजरें टिक गईं. हाथ की कलाई में बंधी घड़ी को उस ने बेचैनी से देखा. शायद उसे क्लास के लिए आज देर हो गई थी. उस के चेहरे पर बिखरी हुई लटें किसी का भी मन मोह लेने में सक्षम थी, हर पल उस के कदम अमन की ओर बढ़ते जा रहे थे और उस के हर बढ़ते हुए कदम के साथ अमन का दिल जोरजोर से धङकने लगा था. सांसें थम सी गई थीं, चेहरा घबराहट से लाल हो गया था. शायद यह उम्र का असर था या फिर कुछ और, उस की निगाहों की कशिश उसे अपनी ओर खींचने को मजबूर करती थीं. उसे रोज देखने की आदत न जाने कब मुहब्बत में बदल गई.

वे घंटों एकदूसरे के साथ सीढ़ियों पर बैठे रहते थे, उन के मौन के बीच भी कोई था जो बोलता था. एकदूसरे का साथ उन्हें अच्छा लगता था. आज भी उस रास्ते से जब वह गुजरता तो लगता वह उन सीढ़ियों पर बैठा उस का इंतजार कर रहा है और वह अपनी सहेलियों के बीच घिरी कनखियों से उस के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही है.

यहीं…हां, यहीं तो उस ने अपनी शादी का कार्ड पकड़ाया था. न जाने क्यों उस की बोलती और चमकती आंखों में लाल डोरे उभर आए थे. कुछ खोईखोई सी लग रही थी वह… उस दिन भी तो उस ने उस का पसंदीदा रंग पहन रखा था. यह इत्तिफाक था या फिर कुछ और वह आज तक समझ नहीं पाया…

हाथों में वही चांदी की चूड़ियां… लाल सुर्ख कार्ड को उस ने अपनी झुकी पलकों और कंपकंपाते हाथों के साथ अमन को पकड़ाया. पता नहीं वह भ्रम था या फिर कुछ और… उस के गुलाबी होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ाए थे पर…हिरनी सी चंचल आंखों से में एक अजीब सा सूनापन था. खालीपन तो उस की आंखों में भी था…

“आओगे न…” इन 2 शब्दों ने उस के कानों तक आतेआते न जाने कितने मीलों का सफर तय किया था. सच ही तो है, हम सब एक सफर में ही तो हैं.

“तुम…तुम सचमुच चाहती हो मैं आऊं?”

आंसू की 2 बूंदें उस कार्ड पर टप से टपक पङे और वह मेरे बिना कोई जवाब दिए दूर बहुत दूर चली गई. कितना गुस्सा आया था उस दिन… एक बार… हां, एक बार भी नहीं सोचा उस ने मेरे बारे में…क्या वह मेरा इंतजार नहीं कर सकती थीं? कितनी शामें मैं ने उस की उस पसंदीदा जगह पर इंतजार किया था पर वह नहीं आई. शायद उसे आना भी नहीं था. खिड़की से झांकता पेड़ मुझ से बारबार पूछता कि क्या वह आएगी? पर नहीं, पार्क में पड़ी लकड़ी की वह बैंच…

आज भी उस बैंच पर गुलमोहर के फूल गिरते हैं, जिन्हें वह अपने नाजुक हाथों में घुमाघुमा अठखेलियां करती थी. बारिश की बूंदें जब उस के चेहरे को छू कर मिट्टी में लोट जाती तब वह उस की सोंधी खुशबू से पागल सी हो जाती. बरगद का वह विशाल पेङ जहां वह अमन के साथ घंटों बैठ कर भविष्य के सपने बुनती, आज भी उस का इंतजार कर रहा था. अपनी नाजुक कलाइयों से वह उस विशाल पेङ को बांधने का निर्रथक प्रयास करती, उस का वह बचपना आज भी अमन को गुदगुदा देता.

अमन सोच रहा था कि शब्द और सोच इंसान की दूरियां बढ़ा देते हैं और कभी हम समझ नहीं पाते और कभी समझा नहीं पाते. कल वह खुशी को समझ नहीं पाया था और आज वह श्रेया को नहीं समझ पा रहा. उस ने तो सिर्फ उतना ही देखा और समझा जितना वह देखना और समझना चाहता था. जिंदगीभर उसे खुशी से शिकायतें रहीं पर एक बार भी उस ने यह सोचा कि खुशी को भी तो उस से शिकायतें हो सकती हैं? वह भी तो उस के पिता से मिल कर उन्हें समझा सकता था? खुशी का दिया जख्म उसे आज तक टीस देता था पर आज श्रेया के प्यार के बारे में जान कर भी वह कुछ नहीं करेगा?

क्या उस नए जख्म को बरदाश्त कर पाएगा? खुशी और श्रेया न जाने क्यों उसे आज एक ही नाव पर सवार लग रहे थे, जो दूसरों का दिल रखने के चक्कर में अपना दिल रखना कब का भूल चुके थे.

सच कहा था उस दिन खुशी ने कि एक दिन मुझे उस की बातें समझ में आएंगी. अमन की आंखें बोझिल हो रही थीं, वह थक गया था अपने विचारों से लड़तेलड़ते…उस की पत्नी नींद के आगोश में थी. अमन खिड़की के पास आ कर खड़ा हो गया. बाहर तेज बारिश हो रही थी. हवा के झोंके ने अमन के तन को भिगो दिया. पानी की तेज धार में पत्ते धूल गए थे और कहीं न कहीं अमन की गलतफहमियां भी… वह निश्चय कर चुका था कि बेशक उस की जिंदगी में खुशी नहीं आ पाई थी मगर मेरी श्रेया किसी की नफरत का शिकार नहीं बनेगी…वह कल ही उस से बात करेगा.

रिश्वत: हैडमास्टर सीमा से क्यों पैसे लेना चाहते थे?

‘‘बाबूजी, आप मिठाई बांटिए,’’ सीमा ने खुश होते हुए कहा.

‘‘क्यों… क्या हुआ बेटी?’’

‘‘मेरी टीचर की नौकरी लगी है… पास के गांव में.’’

‘‘यह तो बहुत खुशी की बात है. आखिरकार मेरी बेटी जिंदगी में कुछ बन ही गई.’’

आज स्कूल का पहला दिन था. सीमा बहुत खुश थी. बाबूजी भी उन के साथ स्कूल में आए थे. पहला दिन तो ठीकठाक ही था. दूसरे दिन सीमा प्रार्थना में खड़ी थी, तभी हैडमास्टरजी मदन उस के पास आए और कहने लगे, ‘‘मैडमजी, बढ़िया नौकरी लगी है, चाय तो पिलाइए स्टाफ को.’’

‘‘जी, मैं ने तो अभी पहली तनख्वाह भी नहीं ली है. बाद में सब को चाय पिलाऊंगी,’’ सीमा ने कहा.

‘‘अरे मैडमजी, एक कप चाय के लिए महीनेभर का इंतजार करवाएंगी क्या?’’

‘‘सरजी, मैं ने कहा न कि पहली तनख्वाह मिलने के बाद चाय पिलाऊंगी. मुझे माफ कर दीजिए.’’

हैडमास्टरजी चले गए. अजीत सर पास में ही खड़े थे.

‘‘मै कुछ कहूं,’’ अजीत सर धीमी आवाज में बोले.

‘‘कहिए.’’

‘‘चाय पिला दीजिए. अगर पैसे नहीं हैं, तो मैं दिए देता हूं. तनख्वाह मिलने के बाद आप लौटा दीजिएगा.’’

‘‘मुझे किसी का उधार नहीं चाहिए.’’

इस के बाद सभी लोग क्लास में चले गए. सीमा की क्लास में 20 छात्र थे. 10 छात्र ठीकठाक पढ़ते थे, बाकी बचे 10 छात्रों को अलग से ज्यादा पढ़ाना पड़ता था.

सीमा जैसे ही स्टाफरूम में जाती थी, किसी न किसी बहाने दूसरे टीचर भी वहां आ जाते थे और उस का मजाक उड़ाते थे.

एक दिन सीमा का दिमाग गरम हो गया और वह बोल पड़ी, ‘‘क्यों एक कप चाय के लिए इतना मरे जा रहे हैं. अब तो मैं पहली तनख्वाह मिलने पर भी चाय नहीं पिलाऊंगी.’’

स्कूल के सारे टीचर और हैडमास्टर सीमा का यह जवाब सुन कर गुस्सा तो हुए, पर कोई भी कुछ नहीं बोला. लेकिन सीमा के इस करारे जवाब से उस के खिलाफ स्कूल में राजनीति शुरू हो गई.

एक दिन स्कूल में बड़े साहब आए. मदनजी फौरन नाश्ता ले कर आए. सीमा को भी बुलाया गया. उस ने एक समोसा खाया. बड़े साहब के स्कूल से जाते ही हैडमास्टरजी उस से 20 रुपए मांगने लगे.

‘‘एक समोसे के 20 रुपए?’’ सीमा ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘मैडमजी, बड़े साहब के आने में गाड़ी का पैट्रोल नहीं लगा क्या,’’ राकेशजी बोले.

सीमा ने झट से 20 रुपए उन के मुंह पर फेंके और अपनी क्लास में लौट गई. उस के पीछेपीछे अजीत सर भी क्लास में पहुंच गए.’’

‘‘आप को पैसों की कोई दिक्कत है क्या?’’

‘‘नहीं तो.’’

‘‘तो फिर 20 रुपए के लिए इतना गुस्सा क्यों?’’

‘‘5 रुपए के समोसे के लिए 20 रुपए क्यों?’’

‘‘क्योंकि मदनजी, राकेशजी और प्रदीपजी पैसे नहीं देंगे. उन के पैसे आप से वसूले गए हैं. हैडमास्टरजी और बड़े साहब के पैसे मैं ने दिए हैं.’’

‘‘यह तो नाइंसाफी हुई न.’’

‘‘यहां पर ऐसे ही चलता है. किसी भी सरकारी स्कूल में ऐसे ही होता है. सीनियर लोग जैसा कहते हैं, वैसा ही करना पड़ता है. आप अभी नई हैं.’’

एक हफ्ते बाद औफिस से ट्रेनिंग की चिट्ठी आई. सीमा जानती थी कि उसे ही भेजी जाएगी. दूसरे हफ्ते फिर से ट्रेनिंग की चिट्ठी आई. फिर से उसे ही भेजी गई. कभी कोई मीटिंग हो तो भी उसे जाना पड़ता था. क्लास में 20 छात्र थे, लेकिन तकरीबन 12 छात्र ही रोज आते थे.

सीमा ने बहुत बार उन के घर के चक्कर लगाए. लेकिन जब तक उन्हें बुलाने कोई घर नहीं जाता था, तब तक वे स्कूल में आते नहीं थे. हर दिन उन छात्रों को बुलाना पड़ता था.

एक दिन सीमा के पड़ोस में रहने वाले राजू का पुराना स्कूल बैग उस ने अपने स्कूल की एक छात्रा को दे दिया. वह लड़की स्कूल में बैठती ही नहीं थी. अपनी किताबों वाली थैली क्लास में रख कर वह भाग जाती थी. लेकिन पुराना ही सही स्कूल बैग मिलने के बाद वह स्कूल में रोजाना आने लगी. यह देख कर सीमा को भी अच्छा लगने लगा था.

अब इस स्कूल में सीमा को 3 साल हो चुके थे. राकेशजी, मदनजी, प्रदीपजी और हैडमास्टरजी रोजाना एक न एक टेढ़ी बात तो बोलते ही थे, पर अजीत सर अपने शांत और मजाकिया स्वभाव से उसे शांत कर देते थे. अजीत सर का उस के प्रति प्यार भरा रवैया बाकी स्टाफ को पसंद नहीं आता था.

एक दिन अजीत सर और वे बाकी शैतान औफिस में एकसाथ बैठे थे.

‘‘क्यों भई, क्या मैडमजी से शादी करने का इरादा है?’’ राकेशजी ने पूछा.

‘‘नहीं तो,’’ अजीत सर बोले.

‘‘करना भी मत. मैडमजी हमारी बिरादरी से नहीं हैं और फिर स्कूल में ही लव मैरिज के चक्कर में सस्पैंड हो जाओगे. टीचर लोगों को लव मैरिज करना अलाउड नहीं होता. पता है न भैया,’’ मदनजी बोले.

अजीत सर ने कुछ नहीं कहा, क्योंकि मन ही मन तो वे सीमा से ही शादी के ख्वाब देख रहे थे.

एक दिन बड़े साहब सीमा की क्लास में आए. क्लास में छात्र कम थे.

‘‘20 में से सिर्फ 15 ही छात्र…’’ उन्होंने पूछा.

‘‘जी… रोज तो आते हैं.’’

‘‘आज मैं आया हूं, इसलिए नहीं आए हैं क्या?’’

‘‘जी…’’ जवाब में क्या कहा जाए, सीमा की समझ में नहीं आ रहा था.

‘‘उठो बेटे, तुम्हारा नाम क्या है?’’ बड़े साहब ने एक छात्र से पूछा.

‘‘जी, निखिल.’’

‘‘ब्लैक बोर्ड पर अपने किसी एक दोस्त का नाम लिखो.’’

निखिल ने अपने दोस्त का नाम पीयूष की जगह पिउष लिखा.

‘‘क्या पढ़ाती हैं मैडमजी आप बच्चों को. अच्छा, तुम उठो. तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘जी, स्नेहल.’’

‘‘सूर्योदय और सूर्यास्त किस दिशा में होता है?’’

‘‘सूर्योदय पूरब दिशा से होता है और सूर्यास्त…’’ स्नेहल ने जवाब नहीं दिया.

बड़े साहब सीमा पर चिल्लाने लगे, ‘‘नोटिस दूं क्या आप को? दूं आप को नोटिस?’’

सीमा नजरें झुका कर खड़ी हो गई. दूर खड़े हैडमास्टरजी मुसकरा रहे थे. बड़े साहब क्लास से निकल गए. सीमा अजीत सर की क्लास में गई.

‘‘मुझे पता है, हैडमास्टरजी जानबूझ कर बड़े साहब को मेरी क्लास में ले कर आए थे. बड़े साहब ने मुझे डांटा तो उन के कलेजे को ठंडक पहुंची होगी.’’

‘‘अगर आप एक कप चाय पिला देतीं तो…’’

‘‘मुझ से ज्यादा तनख्वाह तो ये लोग लेते हैं और सारे काम मुझ से ही कराते हैं. ये किसी और को ट्रेनिंग में क्यों नहीं भेजते, क्योंकि वे सब बड़े साहब को और उन के बीवीबच्चों को महंगेमहंगे तोहफे देते हैं.’’

‘‘अगर आप भी अपनी तरफ से कुछ गिफ्ट दे देतीं तो…’’

सीमा को पता था कि अजीत सर के पास उस का मन शांत नहीं होगा. वह फिर से अपनी क्लास में चली गई. शाम को घर में बरतनों का बहुत शोर हो रहा था.

बाबूजी ने आवाज दी, ‘‘सीमा, क्यों इतना शोर मचा रही हो?’’

‘‘बड़े साहब आए थे स्कूल में. कहते हैं कि नोटिस देंगे,’’ सीमा ने कहा.

‘‘तो देने दो न. सरकारी नौकरी में तो यह रोज की बात होती है,’’ बाबूजी बोले.

‘‘कह रहे थे कि पढ़ाती नहीं हो तो तनख्वाह क्यों लेती हो? मैं तो रोजाना पढ़ाती हूं, बच्चे पढ़ते नहीं तो क्या करूं? रोजाना आने वाले बच्चे भी आज घर रह गए. मैं क्या करूं?’’

‘‘मेरी प्यारी बेटी, इतना उदास मत हो. एक दिन सब अच्छा हो जाएगा,’’ बाबूजी ने भरोसा जताया.

लेकिन बच्चों ने बड़े साहब के सामने जवाब क्यों नहीं दिए? नोटिस दूंगा जैसे शब्द अब भी सीमा के कानों में चुभ रहे थे. साथी टीचरों की मुसकराती शक्लें नजरों से हट नहीं रही थीं.

जो होता है, अच्छे के लिए होता है, यह सोच कर सीमा ने नई शुरुआत की. शायद उस के पढ़ानेलिखाने में ही कुछ कमी है. यह सोच कर सीमा ने नए जोश से पढ़ाना शुरू किया, पर एक दिन उस के ट्रांसफर का और्डर आ गया.

सीमा का आज इस स्कूल में आखिरी दिन था. हैडमास्टरजी बताने लगे, ‘‘आप के ट्रांसफर में मेरा कोई हाथ नहीं है. मैं ने तो बड़े साहब को बताया था कि बच्ची है, जाने दीजिए. लेकिन उन्होंने मेरी नहीं सुनी.’’

‘‘500 रुपए दे देतीं, तो यह नौबत नहीं आती,’’ मदनजी बोले.

‘‘हमारा बड़ा साहब इतना सस्ता है, वह मुझे पता नहीं था,’’ सीमा ने कहा.

‘‘जाओ अब जंगल में. जानवरों के बीच रहना. रोजाना एक घंटा बस से जाना होगा. उस के आगे 5 किलोमीटर पैदल जाना होगा. रात को घर लौटते वक्त 8 बजेंगे. हमारी बेटी जैसी हो, इसलिए बता रहे हैं. दुनियादारी सीख लो. रिश्वत देना आम बात है,’’ प्रदीपजी बोले.

‘‘आप जैसे इनसानों के साथ रहने से बेहतर है कि मैं जानवरों के साथ रहूं. अगर आप पहले ही दिन मुझे अपनी बेटी मान लेते तो आज हालात ऐसे न होते प्रदीपजी.’’

दफ्तर के बाहर अजीत सर सीमा का इंतजार कर रहे थे.

‘‘कभी कोई परेशानी हो तो फोन जरूर कीजिएगा.’’

‘‘जी जरूर. इस स्कूल में सिर्फ आप ही मुझे याद करेंगे, ऐसा लगता है,’’ कह कर सीमा वहां से चली गई.

घर है या जेल: उर्मि ने ये क्या किया

नई-नवेली पत्नी उर्मि को पा कर मोहन बहुत खुश था. हो भी क्यों न, आखिर हूर की परी जो मिली थी उसे. सच में गजब का नूर था उर्मि में. अगर उसे बेशकीमती पोशाक और लकदक गहने पहना दिए जाते तो वह किसी रानीमहारानी से कम न लगती. लेकिन बेचारी गरीब मांबाप की बेटी जो ठहरी, तो कहां से उसे यह सब मिलता भला, पर सपने उस के भी बहुत ऊंचेऊंचे थे.

अब सपने तो कोई भी देख सकता है न. तो बेचारी वह भी ऊंचेऊंचे सपना देखती थी कि उस का राजकुमार भी सफेद छोड़े पर चढ़ कर उसे ब्याहने आएगा और उसे दुनियाभर की खुशियों से नहला देगा.

लेकिन जब उर्मि ने अपने दूल्हे के रूप में मोहन को देखा तो उस का मन बुझाबुझा सा हो गया क्योंकि मोहन उस के सपनों के राजकुमार से कहीं भी मैच नहीं बैठ रहा था. खैर, चल पड़ी वह अपने पति मोहन के साथ जहां वह उसे ले गया.

‘‘जब शादी हो ही गई है तो अब अपनी जिम्मेदारी भी संभालना सीखो…’’ पिता का यह हुक्म मान कर मोहन उर्मि को ले कर शहर आ गया और काम की तलाश करने लगा.

लेकिन मोहन को कहीं भी कोई ढंग का काम नहीं मिल पा रहा था. दिहाड़ी पर मजदूरी कर के वह किसी तरह कुछ पैसे कमा लेता, मगर उतने से क्या होगा और दोस्त के घर भी वह कितने दिन ठहरता भला?

आखिर मोहन को काम न मिलता देख उस दोस्त ने सलाह दी कि क्यों न वह बड़ी सब्जी मंडी से सब्जियां ला कर बेचे. इस से उस की अच्छी कमाई हो जाएगी और रोज काम न मिलने की फिक्र भी नहीं रहेगी.

किसी तरह जोड़ेजुटाए पैसों से मोहन बड़ी सब्जी मंडी जा कर सब्जियां खरीद लाया और उन्हें लोकल बाजार में जा कर बेचने लगा.

अब मोहन का रोज का यही काम था. अंधेरे मुंह सुबहसवेरे उठ कर वह बड़ी सब्जी मंडी चला जाता और वहां से थोक भाव में खूब सारी फलसब्जियां खरीद कर उन्हें लोकल बाजार में जा कर बेचता.

अब मोहन की कमाई इतनी होने लगी थी कि पतिपत्नी के लिए अच्छे से दालरोटी जुट जाती थी. बेचारा मोहन, जब फलसब्जियां बेच कर थकाहारा घर आता तो उस के माथे पर पसीने का मुकुट और सीने में धड़कनों का जंगल होता, लेकिन फिर भी वह अपनी खूबसूरत पत्नी का मुखड़ा देख कर अपनी सारी थकान भूल जाता.

लेकिन उस की उर्मि जाने उस से क्या चाहती थी. वह कभी खुश ही नहीं रहती थी.

नहीं, वैसे तो वह खुश रहती थी, पर मोहन को देखते ही ठुनकने लगती थी कि उसे क्याक्या कमी है.

बेचारा मोहन हर तरह से कोशिश करता कि उर्मि को खुश रखे, पर उस की मांगें रोजाना बढ़ती ही जाती थीं.

मोहन मेहनत के चार पैसे इसलिए ज्यादा कमाना चाहता था ताकि उर्मि को ज्यादा से ज्यादा खुश रख सके, मगर उर्मि को इस बात की जरा भी परवाह नहीं थी. वह तो अपने ही पड़ोस के एक बांके नौजवान धीरुआ के साथ नैनमटक्का कर रही थी.

तेलफुलेल, चूड़ी, बिंदी वगैरह बेचने वाला धीरुआ पर उस का दिल आ गया था. जब भी वह उसे देखती, उसे कुछकुछ होने लगता.

सोचती, काश, धीरुआ उस का पति होता तो कितना मजा आता. पता नहीं, क्यों उस के मांबाप ने उस से 10 साल  से भी ज्यादा बड़े मोहन के साथ उसे ब्याह दिया?

उधर धीरुआ भी जब उर्मि को देखता तो देखता रह जाता. उस के गठीले बदन के उभार को देख कर उस के मुंह से लार टपकने लगती. उसे लगता, कैसे वह उसे अपने ताकतवर हाथों में समेट ले और फिर कभी छोड़े ही न. और वैसे भी वह अभी तक कुंआरा था.

जब भी उर्मि उस की दुकान पर आती, धीरुआ उसे ही निहारते रहता. यह बात उर्मि भी समझ रही थी इसलिए तो बहाना बना कर वह उस की दुकान पर अकसर जाती रहती थी.

धीरुआ अपने मोबाइल फोन में उर्मि को बढि़याबढि़या प्यार वाले गाने सुनाता और वीडियो भी दिखाता. प्यार वाले गाने सुन कर वह ऐसे मंत्रमुग्ध हो जाती कि पूछो मत. वह खुद को उस गाने की हीरोइन ही समझने लगती और धीरुआ को हीरो.

एक दिन उर्मि ने ठुनकते हुए मोहन से मोबाइल फोन की मांग कर दी. हैसियत तो नहीं थी बेचारे की, लेकिन फिर भी एक सस्ता सा मोबाइल, जिस से सिर्फ बात हो सकती थी, उर्मि के लिए खरीद लाया.

मोबाइल फोन देख कर उर्मि बहुत खुश तो नहीं हुई, पर लगा चलो बात तो होगी न इस से. अब उस का जब भी मन करता, धीरुआ को फोन लगा देती और खूब बातें करती. पर अपने पति मोहन से कभी सीधे मुंह बात नहीं करती थी.

न जाने क्यों उर्मि बातबात पर मोहन पर चढ़ जाती और बेचारा मोहन भी उस के गुस्से को शरबत समझ कर चुपचाप हंसतेहंसते पी जाता.

सोचता, उम्र कम है इसलिए समझ भी थोड़ी कम है. मगर उसे तो मोहन जरा भी भाता ही नहीं था. उस का दिल तो अपने आशिक धीरुआ के दिल से जा कर अटक गया था.

किसी तरह हिचकोले खाते हुए मोहन और उर्मि की गृहस्थी चल रही थी. लेकिन कहते हैं न, वक्त कब करवट ले, कह नहीं सकते. अचानक एक दिन लोगों में हड़कंप देख कर मोहन चौंक गया. देखा तो सब अपनेअपने सामान समेट कर भागने लगे हैं.

‘‘अरे, क्या हुआ भाई?’’ मोहन ने पास में अपनी सब्जियां समेट रहे सब्जी वाले से पूछा.

‘‘अरे, क्या हुआ क्या, तुम भी अपना सामान जल्दी से उठा कर भागो. तुम देख नहीं रहे कब्जा हटाने के लिए नगर प्रशासन का दस्ता आया हुआ है,’’ उस सब्जी वाले ने कहा.

‘‘नगर प्रशासन का दस्ता… पर वह क्यों भाई?’’ मोहन ने उस सब्जी वाले से हैरानी से पूछा.

‘‘क्योंकि यहां सब्जियां बेचना गैरकानूनी है,’’ झुंझलाते हुए उस सब्जी वाले ने कहा.

‘‘गैरकानूनी… पर यहां शहर के बीचोंबीच कुछ लोगों ने जो मौल और होटल बना रखे हैं, वे भी आधे से ज्यादा सरकारी जमीन पर हैं तो उन्हें ये प्रशासन वाले क्यों कुछ नहीं कहते? क्या इन लोगों पर कभी कोई कार्यवाही नहीं होती? हम गरीब ही मिले हैं इन्हें सताने को?’’ मोहन ने गुस्से से कहा.

‘‘अरे भाई, वे अमीर लोग हैं. पैसा और पहुंच बहुत है उन की. फिर उन के खिलाफ क्यों कोई कार्यवाही होने लगी? चल, मैं तो चला, तू भी निकल ले जल्दी से,’’ कह कर वह सब्जी वाला चलता बना.

मोहन भी खुद में भुनभुनाते हुए अपनी सब्जियां समेटने लगा, लेकिन तभी किसी की कड़क आवाज से वह कांप उठा और उस के हाथ थरथर कांपने लगे.

‘‘क्यों बे, अब तुझे क्या अलग से न्योता देता… हां, बोल?’’ कह कर उस में से एक ने उस की टोकरी में ऐसी लात मारी कि वह लुढ़कती हुई दूर चली गई. सारे टमाटर सड़क पर छितरा गए.

तभी एक दूसरा अफसर उस की तरफ बढ़ा ही था कि मोहन हाथ जोड़ कर विनती करते हुए कहने लगा, ‘‘साहब, मैं अभी उठाए लेता हूं सारी सब्जियां, दया माईबाप दया…’’

लेकिन मोहन की बातों को अनसुना कर एक बड़े अफसर ने कड़क आवाज में कहा, ‘‘इन का तो यह रोज का नाटक है. जब तक इन्हें सबक नहीं सिखाओगे, समझेंगे नहीं,’’ कह कर उस ने उस की बचीखुची सब्जियां भी फेंक दीं.

बेचारा मोहन उन सब के सामने गिड़गिड़ाता रह गया. वह अपने आंसू पोंछते हुए जो भी सब्जियां बची थीं, ले कर घर चला गया, पर वहां भी उर्मि की जहरीली बातों ने उसे मार डाला.

‘‘तो क्या करूं… बोल न? क्या गरीब होना मेरी गलती है या वहां जा कर सब्जियां बेच कर मैं ने कोई गुनाह कर दिया, बोलो?’’ मोहन रोंआसी आवाज में बोला.

‘‘वह सब मुझे नहीं पता… तुम चोरी करो, डकैती करो, जेब काटो चाहे जो भी करो मुझे तो बस पैसे चाहिए घर चलाने के लिए,’’ जख्म पर महरम लगाने के बदले उर्मि अपनी बातों से उसे और जख्म देने लगी.

अब क्या करता बेचारा, पैसे तो थे नहीं जो फिर से कोई धंधा शुरू करता. कहीं सचमुच में उर्मि उसे छोड़ कर भाग न जाए, इस वजह से मोहन ने गलत रास्ता अख्तियार कर लिया.

अब सब्जियां बेचने के बजाय लोगों की जेबें काटने लगा और छोटीमोटी चोरियां भी करने लगा.

शुरूशुरू में तो मोहन को बहुत बुरा लगता था ये सब काम करने में, लेकिन फिर धीरेधीरे उसे भी यह सब करने में मजा आने लगा.

घर में सामानपैसा आते रहने से उर्मि भी अब खुश रहने लगी थी. उस के ठाठ देख आसपड़ोस की औरतें जल मरतीं और उर्मि उन्हें देख और इतराती. लेकिन उन के पास यह सुख भी ज्यादा दिनों तक टिका न रह सका.

एक दिन मोहन चोरी करते हुए पुलिस के हत्थे चढ़ गया और उसे जेल भेज दिया.

मोहन के जेल जाने से उर्मि को कोई खास फर्क नहीं पड़ा, बल्कि उस की तो और मौज हो गई. अब वह खुल कर धीरुआ के साथ आंखें चार करने लगी.

धीरुआ उसे जबतब अपने घर ले जाता और दोनों खूब मस्ती करते. अपनी मोटरसाइकिल पर वह उर्मि को खूब घूमाताफिराता, सिनेमा दिखाता. जब लोग कुछ कहते तो उर्मि उन्हें दोटूक जवाब दे कर चुप कर देती.

इधर बिना गुनाह साबित हुए ही मोहन महीनों तक जेल में पड़ा सड़ता रहा, क्योंकि कोई उस की जमानत कराने नहीं आया इसलिए. जब जान लिया उर्मि ने कि अब मोहन नहीं आने वाला, तो एक दिन वह धीरुआ के साथ भाग गई.

बिना गुनाह साबित हुए ही महीनों जेल में गुजारने की बात जब एक कैदी दोस्त ने सुनी तो उसे मोहन पर दया आ गई. छूटते ही उस कैदी दोस्त ने मोहन की जमानत तो करवा दी, लेकिन महीनों जेल में पड़े रहने से वह बहुत कमजोर हो गया. जब पत्नी के बारे में जाना तो उस का दिल और टूट गया. लगा जिस के लिए उस ने इतना सबकुछ सहा, वही उस का साथ छोड़ गई.

अब मोहन बीमार और बेसहारा हो गया था. न तो अब वह कोई काम करने लायक रहा और न ही चोरीजेबकतरी के ही लायक रह गया. कोई कुछ दे जाता तो खा लेता, वरना भूखे पेट ही सो जाता. उसे लग रहा था कि उस के लिए तो जेल भी वैसी ही थी जैसा घर.

अपशकुनी: पहली नजर का प्यार

अनन्य पार्किंग में अपनी कार खड़ी कर के उतर ही रहा था कि सामने से स्कूटी से उतरती लड़की को देख कर ठगा सा रह गया. उस लड़की ने बड़ी अदा से हैलमेट उतार कर बालों को झटका तो मानो बिजली सी कौंध गई.

उस के स्कूटी खड़ा कर आगे बढ़ने तक वह बड़े ध्यान से उसे देखता रहा. सलीके से पहनी हैंडलूम की साड़ी, कंधों तक लहराते काले बाल और एकएक कदम नापतौल कर रखती गरिमा से भरी चाल उस के व्यक्तित्व को अद्भुत आभा प्रदान कर रहे थे.

अपनी मौसेरी बहन के बेटे चिरायु के जन्मदिन की पार्टी में शामिल होने के लिए अनन्य उत्सव रिजोर्ट आया था. वह लड़की भी उत्सव की ओर जा रही थी. अनन्य को कुछ और देर तक उसे निहारने का सुख मिल गया.

उत्सव के गेट में घुसते ही वह लपक कर लिफ्ट की ओर दौड़ गई. जब तक अनन्य को होश आता, लिफ्ट ऊपर जा चुकी थी. अनन्य के पास अब इंतजार करने के अलावा दूसरा कोई चारा भी नहीं था. पहली बार उसे धीमी गति से चलने के कारण खुद पर गुस्सा आया.

जब वह तीसरी मंजिल पर पार्टी वाले हौल में पहुंचा तो उसी लड़की को अपनी बहन सुजाता से बात करते देख हैरान रह गया. उसे देखते ही सुजाता खिलखिला कर हंस दी.

‘‘तुम शायद इसी की शिकायत कर रही हो. यही पीछा कर रहा था न तुम्हारा? ठहरो, अभी इस के कान पकड़ती हूं,’’ सुजाता नाटकीय अंदाज में बोली थी.

‘‘मैं खुद कान पकड़ता हूं, दीदी. मैं किसी का पीछा नहीं कर रहा था. मैं तो चिरायु के जन्मदिन की पार्टी में आ रहा था. कोई मेरे आगे चल रहा हो तो मैं क्या करूं.’’

‘‘मैं ऐसे दिलफेंक लड़कों के लटके- झटके खूब समझती हूं. जरा पूछिए इन से कि ये महाशय मेरे पीछे ही क्यों चल रहे थे? तेज कदमों से चल कर मेरे आगे क्यों नहीं निकल गए थे?’’

‘‘अनन्य, तुम्हें अवनि के इस सवाल का जवाब तो देना ही पड़ेगा. अब बोलो, क्या कहना है तुम्हारा?’’ सुजाता को न्यायाधीश बनने में आनंद आने लगा था.

‘‘ऐसा कोई नियम है क्या दीदी कि सड़क पर किसी लड़की के पीछे नहीं चल सकते?’’ अनन्य ने जवाब में सवाल खड़ा कर दिया.

‘‘नियम तो नहीं है, पर इसे पीछा करना कहते हैं, बच्चू. और इस के लिए दंड भुगतना पड़ता है,’’ सुजाता मुसकराते हुए बोली.

‘‘ठीक है, आप का यही निर्णय है तो मैं दंड भुगतने के लिए तैयार हूं,’’ अनन्य जोर से हंसा, पर तभी चिरायु आ धमका था और बात बीच में ही रह गई थी.

‘‘मामा, कितनी देर से आए हो. मेरा गिफ्ट कहां है?’’ चिरायु अनन्य की बांहों में झूल गया.

अनन्य ने छोटा सा पैकेट निकाल कर चिरायु को थमा दिया था.

‘‘इतना छोटा सा  गिफ्ट?’’ चिरायु ने मुंह बनाया.

‘‘खोल कर तो देख. आंखें खुली की खुली रह जाएंगी.’’

चिरायु ने बड़े यत्न से कागज में लपेटा हुआ पैकेट एक झटके में फाड़ा तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा.

‘‘ओह, वाह वीडियो गेम? मामा, आप सचमुच ग्रेट हो. पापा, देखो, अनु मामा मेरे लिए क्या लाए हैं.’’

ध्रुव वीडियो गेम को देखने में व्यस्त हो गए. सुजाता भी दूसरे मेहमानों की आवभगत में जुट गई.

अनन्य का ध्यान फिर पास ही बैठी अवनि की ओर आकर्षित हो गया. उस के लिए मानो अन्य अतिथि वहां हो कर भी नहीं थे. उस का मन कर रहा था कि वह बस अवनि को निहारता रहे. एकदो बार कनखियों से देखते हुए उस की दृष्टि अवनि से मिली तो लगा जैसे उस की चोरी पकड़ी गई हो.

जन्मदिन का उत्सव समाप्त होते ही उस ने सुजाता से पूछा, ‘‘दीदी, कौन है वह? पहले तो उसे कभी नहीं देखा.’’

‘‘किस की बात कर रहा है तू?’’ सब कुछ समझते हुए भी सुजाता मुसकराई.

‘‘वही जो आप से मेरी शिकायत कर रही थी,’’ अनन्य भी मुसकरा दिया.

‘‘तुझे क्या करना है? तू तो विवाह के नाम से ही दूर भागता है. कैरियर बनाना है. जीवन में आगे बढ़ने के रास्ते में तो विवाह तो सब से बड़ी बाधा है न?’’ सुजाता ने अनन्य के ही शब्द दोहरा दिए थे.

‘‘पर दीदी अवनि को देखते ही मैं ने अपना खयाल बदल दिया है. पता नहीं क्या जादू है उस के व्यक्तित्व में. कुछ बताइए न उस के बारे में.’’

‘‘यही तो रोना है…जिस अवनि को देख कर तुम सम्मोहित हुए हो उस ने अपने चारों तरफ वैराग्य और वासनारहित ऐसा आवरण ओढ़ रखा है कि उस तक पहुंचना कठिन ही नहीं असंभव है. और क्यों न हो, इस संसार ने भी तो उस के साथ ऐसा ही व्यवहार किया है,’’ सुजाता का दर्दीला स्वर सुन कर अनन्य चौंक उठा.

‘‘ऐसा क्या कर दिया संसार ने अवनि के साथ?’’ क्षणमात्र में ही अब तक की सुनी हुई समस्त अनहोनी घटनाएं अनन्य के मानसपटल पर कौंध गई.

‘‘पता नहीं तुम्हें याद है या नहीं, हमारे पुराने गौलीगुड़ा वाले घर के सामने डा. निशीथ राय रहा करते थे…’’

‘‘खूब याद है,’’ अनन्य सुजाता की बात पूरी होने से पहले ही बोल उठा, ‘‘हां, बचपन में बीमार पड़ने पर मां उन्हीं के पास इलाज के लिए ले जाती थीं.’’

‘‘वे हमारे दूर के रिश्ते के चाचा थे. अवनि उन की बहन सुनंदा की छोटी बेटी है.’’

‘‘लेकिन हुआ क्या उस के साथ?’’ अनन्य उतावला हो बैठा. वह उस के बारे में सब कुछ जान लेना चाहता था.

‘‘5 वर्ष पहले की बात है. अवनि का विवाह एक बड़े संपन्न परिवार में तय हुआ था. गोदभराई की रस्म के बाद जब वर पक्ष के लोग वापस लौट रहे थे तो उन की कार को सामने से आते ट्रक ने टक्कर मार दी. उस दुर्घटना में भावी वर और उस के पिता दोनों की मौत हो गई.’’

‘‘ओह, कितना अप्रत्याशित रहा होगा यह सब?’’

‘‘अप्रत्याशित? यह कहो कि बिजली गिरी थी अवनि और उस के परिवार पर. अवनि तो पत्थर हो गई थी यह सब देख कर. उस के मातापिता सांत्वना देने गए थे पर वर पक्ष ने उन का मुंह भी देखना पसंद नहीं किया, बैठने के लिए पूछना तो दूर की बात है,’’ सुजाता ने बताया.

‘‘कितना संताप झेलना पड़ा होगा बेचारी को,’’ अनन्य बुझे स्वर में बोला.

‘‘2-3 वर्ष इलाज करवाया गया अवनि का तब कहीं जा कर वह सामान्य हुई. अब भी छोटी सी बात से डर जाती है. जैसे तुम उस के पीछे चल रहे थे पर उस को लगा कि तुम उस का पीछा कर रहे थे. कोई जोर से बोल दे या रात के सन्नाटे के उभरते स्वर, सब से वह छोटी बच्ची की तरह डर जाती है.’’

‘‘मातापिता ने फिर से विवाह की कोशिश नहीं की?’’

‘‘की थी, पर उस के अपशकुनी होने की बात कुछ ऐसी फैल गई थी कि कोई तैयार ही नहीं होता था. मातापिता ने उसे बहुत प्रोत्साहित किया, ढाढ़स बंधाया तब कहीं जा कर फिर से उस ने पढ़ाई प्रारंभ की. अर्थशास्त्र में एमफिल करते ही यहां महिला कालेज में व्याख्याता बन गई. मुश्किल से 6 माह हुए हैं यहां आए. कालेज के छात्रावास में ही रहती है. कहीं खास आनाजाना भी नहीं है. कभी बहुत आग्रह करने पर हमारे यहां चली आती है.’’

‘‘कितने दुख की बात है. जीवन ने उस के साथ बड़ा क्रूर उपहास किया है,’’ अनन्य को उस से हमदर्दी हो आई थी.

‘‘जीवन से अधिक क्रूर मजाक तो उस के अपनों ने किया है. 2 बड़े भाई हैं, एक बड़ी बहन है. तीनों अपनी गृहस्थी में इतने मगन हैं कि छोटी बहन के संबंध में सोचते तक नहीं. मेरी बूआ यानी अवनि की मां बिलकुल अकेली पड़ गई हैं. एक ओर बीमार पति की तीमारदारी तो दूसरी ओर अवनि की समस्या. उन का हाल पूछने वाला तो कोई है ही नहीं,’’ सुजाता का गला भर आया. आंखें भीग गईं.

‘‘जो हुआ, बहुत दुखद था, पर दीदी, इस का अर्थ यह तो नहीं कि पूरा जीवन एक दुर्घटना की भेंट चढ़ा दिया जाए,’’ अनन्य को अपनी बात कहने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे.

‘‘तुम सही कह रहे हो अनन्य, पर यह सब उसे बताएगा कौन? अभी तक तो सब ने उस के घावों पर नमक छिड़कने का ही काम किया है.

एक दिन अचानक वह मुझ से मिलने चली आई. बातों ही बातों में पता चला कि तैयार हो कर कालेज के लिए निकली तो कुछ छात्राएं उस के सामने पड़ गईं.

अवनि को देखते ही वे आपस में ऊंचे स्वर में बातें करने लगीं कि आज सवेरेसवेरे अवनि मैडम का मुंह देख लिया है, पता नहीं दिन कैसा गुजरेगा. यह बताते हुए वह रो पड़ी,’’ सुजाता ने बताया.

‘‘इस तरह कमजोर पड़ने से काम कैसे चलेगा. उन छात्राओं को तभी इतनी खरीखोटी सुनानी चाहिए थी कि फिर से ऐसी बेहूदा बात कहने का साहस न कर पाएं,’’ अनन्य क्रोध से भर उठा.

‘‘कहना बहुत सरल होता है, अपनी ही बात ले लो. कुछ ही देर पहले तुम अवनि के व्यक्तित्व से पूर्णतया अभिभूत लग रहे थे. पर मुझे नहीं लगता कि यह सब कुछ जानने के बाद भी तुम्हारे मन में उस के प्रति वही भावनाएं होंगी?’’ सुजाता व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली.

‘‘आप के इस प्रश्न का उत्तर अभी तो मेरे पास नहीं है. सबकुछ जाननेसमझने के लिए समय तो चाहिए न दीदी,’’ अनन्य के हर शब्द में गहराई थी, अवनि के प्रति सहानुभूति थी.

सुजाता बस मुसकरा कर रह गई थी. अनन्य के जाने के बाद सुजाता सोच में डूब गई.

उस के मन में विचारों का तेजी से मंथन चल रहा था. कभी वह अनन्य के बारे में सोचती तो कभी अवनि के बारे में.

‘‘कब तक यों ही बैठी रहोगी? ढेरों काम पड़े हैं,’’ तभी ध्रुव ने उस की तंद्रा भंग की.

‘‘क्या करूं, फिर वही कहानी दोहराई जा रही है. पता नहीं अवनि को कोई सहारा देने का साहस जुटा पाएगा या नहीं?’’ निराश स्वर में बोल सुजाता उठ खड़ी हुई.

‘‘इस चिंता में घुलना छोड़ दो सुजाता. अवनि पढ़ीलिखी है, समझदार है, आत्मनिर्भर है. धीरेधीरे अपने बलबूते जीना सीख जाएगी,’’ ध्रुव ने समझाना चाहा था.

कुछ माह भी नहीं बीते थे कि एक दिन अचानक ही शुभदा मौसी का फोन आ गया. इधरउधर की बात करने के बाद वे बोलीं, ‘‘क्या कहूं सुजाता, मन रोने को हो रहा है. पर सोचा पहले तुम से बात कर लूं. शायद तुम्हीं कोई राह सुझा सको.’’

‘‘क्या हुआ, मौसी? सब खैरियत तो है?’’ सुजाता बोली.

‘‘मेरी कुशलता की इतनी चिंता कब से होने लगी तुम्हें? काश, तुम ने मुझे समय से सचेत कर दिया होता.’’

‘‘क्या कह रही हो मौसी? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा,’’ सुजाता परेशान हो उठी.

‘‘मैं उस मुई अवनि की बात कर रही हूं. पता नहीं कब से प्रेमलीला चल रही है दोनों की. अब अनन्य जिद ठाने बैठा है कि विवाह करेगा तो अवनि से ही, नहीं तो कुंआरा रहेगा.’’

‘‘मेरा विश्वास करो मौसी. मुझे तो इस संबंध में कुछ भी पता नहीं है.’’

‘‘पर अनन्य तो कह रहा था कि वह अवनि से पहली बार चिरायु के जन्मदिन पर ही मिला था.’’

‘‘उस समारोह में तो बहुत से लोग आमंत्रित थे. कहां क्या चल रहा था, मैं कैसे बता सकती हूं.’’

‘‘ठीक है, मान ली तुम्हारी बात. पर अब तो कुछ करो, सुजाता. मेरा तो एक ही बेटा है. उसे कुछ हो गया तो मैं बरबाद हो जाऊंगी,’’ शुभदा फोन पर ही रो पड़ीं.

‘‘ऐसा मत बोलो मौसी, ऐसा कुछ नहीं होगा. क्या पता इस में भी कोई अच्छाई ही हो,’’ सुजाता ने उन्हें ढाढ़स बंधाया.

‘‘इस में क्या अच्छाई होगी. मेरी तो सारी उमंगों पर पानी फिर गया. इस से तो अनन्य कुंआरा ही रह जाता तो मैं संतोष कर लेती. सुजाता, वादा कर कि तू अनन्य को समझा लेगी.’’

‘‘ठीक है, मैं प्रयत्न करूंगी मौसी. पर कोई वादा नहीं करती. तुम तो जानती ही हो, आजकल कौन किस की सुनता है. जब अनन्य तुम्हारी बात नहीं मान रहा तो मेरी क्या मानेगा,’’ सुजाता ने अपनी विवशता जताई थी.

‘‘प्रयत्न करने में क्या बुराई है? तुझे तो बहुत मान देता है. शायद मान जाए. अपनी मौसी के लिए तू इतना भी नहीं करेगी?’’ शुभदा ने जोर डालते हुए कहा था.

‘‘क्यों शर्मिंदा करती हो, मौसी. मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करूंगी.’’

सुजाता ने शुभदा को आश्वस्त तो कर दिया पर अति व्यस्तता के कारण अगले 2 महीने तक अवनि और अनन्य से मिलने तक का समय नहीं निकाल पाई. पर एक दिन अचानक शुभदा मौसी को आया देख उस के आश्चर्य की सीमा न रही.

‘‘आओ मौसी, तुम्हारा फोन आने के बाद व्यस्तता के कारण अनन्य से मिलने का समय ही नहीं निकाल पाई. मैं आज ही अनन्य से मिलने की कोशिश करूंगी,’’ सुजाता मौसी को अचानक आया देख वह अचकचा कर बोली.

‘‘अब उस की कोई आवश्यकता नहीं, बेटी. मैं तो उन दोनों के विवाह का निमंत्रण देने आई हूं. अनन्य को बहुत समझायाबुझाया, लेकिन वह माना ही नहीं. पता नहीं उस जादूगरनी ने क्या जादू कर दिया. बेटे की जिद के आगे झुकना ही पड़ा,’’ शुभदा मौसी भरे गले से बोलीं और निमंत्रणपत्र दे कर उलटे पांव लौट गईं.  बहुत प्रयत्न करने पर भी उन्हें रोक नहीं पाई सुजाता. शायद वे अनन्य और अवनि के विवाह के लिए सुजाता को भी दोषी मान रही थीं.

शुभदा मौसी तो निमंत्रणपत्र दे कर चली गईं पर सुजाता के मन में बेचैनी हो रही थी कि आखिर अनन्य क्यों अवनि के बारे में सबकुछ जानने के बाद विवाह के लिए राजी हो गया और अवनि कैसे अपनी पुरानी यादों को भूल कर विवाह के लिए तैयार हो गई? सुजाता ने अनन्य और अवनि से बात की तो दोनों ने ही कहा, ‘‘दीदी, हम दोनों ने एकदूसरे को अच्छी तरह समझ लिया है. साथ ही हम यह भी समझ गए हैं कि शकुनअपशकुन कुछ नहीं होता. जीवनसाथी अगर अच्छा हो तो जिंदगी अच्छी गुजरती है. अत: एकदूसरे को समझने के बाद ही हम ने शादी का फैसला लिया है.

सुजाता ने अपने में कई ताजगी का अनुभव किया.

अनन्य और अवनि का विवाह बड़ी धूमधाम से संपन्न हुआ था. य-पि शुभदा मौसी किसी अशुभ की आशंका से सोते हुए भी चौंक जाती थीं.

अनन्य और अवनि के विवाह को अब 5 वर्ष का समय बीत चुका है. 2 नन्हेमुन्नों के साथ दोनों अपनी गृहस्थी में कुछ ऐसे रमे हैं कि दीनदुनिया का होश ही नहीं है उन्हें. पर शुभदा मौसी हर परिचित को यह समझाना नहीं भूलतीं कि शकुनअपशकुन कुछ नहीं होता. यह तो केवल पंडों का फैलाया वहम है.

वापसी: क्यों शेखर अपनी पत्नी से नाराज रहता था?

भादों महीने की काली अंधेरी रात थी. हलकी रिमझिम चालू थी. हवा चलने से मौसम में ठंडक थी. रात में लगभग एक बज रहा था. दिनभर तरहतरह की आवाजें उगल कर महानगर लखनऊ 3-4 घंटे के लिए शांत हो गया था.

गोमती नदी के किनारे बसी एक कालोनी के अपने मकान की ऊपरी मंजिल के कमरे में शेखर मुलायम बिस्तर पर करवटें बदल रहा था. उस की नजर बगल में बैड पर गहरी नींद में सो रही रमा पर पड़ी, जो आराम से सो रही थी.

घड़ी पर नजर डालते हुए शेखर मन ही मन बड़बड़ाया, ‘4 घंटे बाद रमा के जीवन में कितना बड़ा तूफान आने वाला है, जिस से वह बेचारी अनजान है. यह तूफान तो रमा के घरेलू जीवन को ही उजाड़ देगा और वह पूरी जिंदगी उसी के भंवर में डूबतीउतराती रहेगी. दुनिया कहां से कहां पहुंच गई और रमा पुराने विचारों पर ही भरोसा रखती है. समय के साथ ताल मिला कर चलना सीखा होता और मैं क्या चाहता हूं, यह समझा होता तो आज उसे छोड़ने का यह समय तो न आता.’

शेखर उस अंधेरे में देखते हुए सोच रहा था, ‘3 घंटे बाद 4 बजेंगे. मैं बैडरूम से निकल कर दबेपांव घर से बाहर जा कर टैक्सी पकड़ूंगा और अमौसी हवाई अड्डे पर पहुंच जाऊंगा. वहां साढ़े 5 फुट की निशि ग्रे रंग की जींस और लाल रंग का टौप पहन कर खड़ी होगी. मुझे देखते ही अपने केशों को एक खास अंदाज में झटकते हुए अपने गुलाबी होंठों से मोनालिसा की तरह मुसकराते हुए इंग्लिश में कहेगी, ‘गुडमौर्निंग शेखर. मुझे विश्वास था कि तुम देर जरूर करोगे’ और मैं निशि के मरमरी हाथ को अपने हाथ में ले कर कहूंगा, ‘सौरी डार्लिंग.’

यह सब सोच कर शेखर के होंठों पर हंसी तैर गई. उस की आंखों के सामने औफिस की कंप्यूटर औपरेटर निशि तैर गई. 22 साल की परी जैसी मोहक देह के बारे में सोचते ही शेखर के शरीर में रोमांच की लहर दौड़ गई.

एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में एग्जीक्यूटिव के रूप में काम करने वाले खुले विचारों के शेखर को रमा की सादगी अखरती थी. रमा पतिपरायण पत्नी थी. पति के अस्तित्व में अपने अस्तित्व को देखने वाली पत्नी, जो आज के समय में मिलना मुश्किल है. पर शेखर, रमा की सादगी से काफी नाखुश था.

शेखर को अकसर लगता कि रमा उस जैसे कामयाब आदमी के लायक नहीं है, गांव की सीधी, सरल और संस्कारी लड़की से शादी कर के उस ने बहुत बड़ी भूल की है. फैशनपरस्ती भी कोई चीज होती है.

अतिआधुनिक लड़कियों की तसवीर रमा में ढूंढ़ने वाला शेखर कभी चिढ़ कर कहता, ‘रमा, आदमी को यौवन से मदमाती औरत अच्छी लगती है. बर्फ बन जाने वाली ठंडी पत्नी नहीं. पुरुष को सहचरी चाहिए, सेविका नहीं.’

रमा फिर भी शेखर की चाहत पूरी कर पाने वाली आधुनिका नहीं बन सकी. शेखर उंगली रख कर रमा का दोष बता सके, इस तरह का नहीं था. रमा अपने काम, पति के प्रति वफादारी और चरित्र की कसौटी पर एकदम खरी उतरती थी.

शेखर की निगाह उस के विभाग में नईनई आई 22 साल की खूबसूरत, मस्त और कदमकदम पर सुंदरता बिखेरती कंप्यूटर औपरेटर निशि पर जम गई.

निशि समय की ठोकर खाई युवती थी. उस ने देखा कि औफिस के एग्जीक्यूटिव और विभाग के अधिकारी शेखर की नजर उस की सुंदरता पर जमी है और उस की कृपादृष्टि से वह औफिस में स्थायी हो सकती है व उन्नति भी पा सकती है, इसलिए समय और मौके के मूल्य को समझते हुए व शेखर की नजरों में अपने प्रति चाहत देख कर उस के करीब पहुंच गई. थोड़े समय में ही शेखर और निशि नजदीक आ गए.

निशि के साथ रहने के कारण शेखर घर देर से पहुंचने लगा. रमा ने इस बारे में कभी शेखर से पूछा भी नहीं कि इतनी देर तक वह कहां रहता है. उलटे शेखर से प्रेम से पूछती, ‘लगता है, आजकल औफिस में काम बढ़ गया है, जो इतनी देर हो जाती है. लाइए आप का सिर और पैर दबा दूं.’

रमा के इस व्यवहार से शेखर सोचने लगता कि यह औरत भी अजीब है. कभी इस के मन में किसी तरह का अविश्वास, शंका नहीं आती. रमा के इस तरह के व्यवहार से उस का अहं घायल हो जाता.

शेखर निशि को 3-4 बार अपने घर भी ले आया. रमा ने निशि की खूब खातिर की. शेखर ने सोचा था कि रमा निशि से उस के संबंध के बारे में पूछताछ करेगी, मगर उस की यह धारणा गलत निकली.

निशि अपनी मुसकान से, अदाओं से और बातों से शेखर का मन बहलाने लगी. शेखर ने उस की नौकरी सालभर में ही पक्की करवा दी और वेतन भी लगभग तीनगुना करवा दिया. नौकरी पक्की होते ही शेखर को लगा कि अब निशि धीरेधीरे उस के प्रति लापरवाह होती जा रही है. जब भी मिलने को कहो तो किसी न किसी काम का बहाना कर के मिलने को टाल जाती है.

इस बीच, उस ने अंदाज लगाया कि निशि उस के बजाय निखिल से अधिक मिलतीजुलती है. उस से कुछ अधिक ही संबंध गहरा हो गया है. उस का दिमाग चकराने लगा. वह उदास हो गया.

एक दिन शेखर ने निशि से पूछ ही लिया, ‘निशि, तुम्हारे और निखिल के संबंधों को मैं क्या समझूं?’

निशि ने कंधे उचकाते हुए कहा, ‘निखिल मेरा दोस्त है. क्या मैं औरत होने के नाते किसी पुरुष से दोस्ती नहीं कर सकती?’

‘मैं इतने तंग विचारों वाला आदमी नहीं हूं, फिर भी मैं किसी और पुरुष के साथ तुम्हारी नजदीकी बरदाश्त नहीं कर सकता.’

‘आप का मैं कितना सम्मान करती हूं, यह आप भी जानते हैं. पर एक ही आदमी में अपनी सारी दुनिया देखना मेरी आदत में नहीं है’, निशि ने शेखर का हाथ अपने हाथ में ले कर मुसकराते हुए कहा, ‘आप मुझे अपनी जागीर समझें. मैं जीतीजागती महिला हूं, मेरे भी कुछ अपने अरमान हैं.’

शेखर ने खुश होते हुए कहा, ‘निशि, तुम मुझे उतना ही प्यार करती हो, जितना मैं तुम से करता हूं?’

‘चाहत को भी भला तौला जा सकता है?’ निशि हंस?? कर बोली.

‘निशि, चलो, हम दोनों विवाह कर लेते हैं.’

निशि चौंकी, फिर गुलाबी होंठों पर मुसकान बिखेरती हुई बोली, ‘लेकिन आप तो शादीशुदा हैं. दूसरी शादी तो कानूनन हो नहीं सकती. यदि आप अकेले होते तो मेरा समय अच्छा होता.’

‘निशि, अपने प्रेम के लिए मैं अपना घरेलू जीवन तोड़ने को तैयार हूं. प्लीज, इनकार मत करना. कल सुबह दिल्ली के लिए हवाई जहाज से 2 टिकट बुक करा लेता हूं. सुबह साढ़े 5 बजे अमौसी हवाई अड्डे पर आ जाना. अब देर करना ठीक नहीं है. मुझे रमा और निशि के बीच भटकना नहीं है. तुम सुबह आना, मैं इंतजार करूंगा.’

तब निशि केवल इतना ही बोल सकी, ‘ठीक है.’

बैड पर करवट बदल रहे शेखर यह सोच कर मुसकरा पड़ा कि कुछ घंटे बाद ही निशि हमेशा के लिए मेरी होगी.

शेखर ने घड़ी में समय देखा, 2.30 बजे थे.

तभी फोन की घंटी बज उठी. निशि का ही होगा. मैं भूल न जाऊं, यही याद दिलाने के लिए उस ने फोन किया होगा. सचमुच निशि कितनी अच्छी है. एकदम सच्चा प्रेम करती है मुझ से.

शेखर ने धीरे से उठ कर फोन का रिसीवर उठा लिया, ‘‘हैलो, मैं शेखर बोल रहा हूं.’’

‘‘शेखर, मैं निशि बोल रही हूं.’’

‘‘मैं पहले ही जान गया था कि तुम्हारा फोन होगा. इतनी उतावली क्यों हो रही हो? मैं भूला नहीं हूं. एकएक पल गिन रहा हूं, नींद नहीं आ रही है क्या.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है. दरअसल, मैं कल आप की हालत देख कर संकोचवश कुछ कह नहीं सकी. काफी सोचने के बाद मुझे लगा कि एक शादीशुदा पुरुष की रखैल बनने के बदले निखिल की पत्नी बन जाना मेरे और तुम्हारे दोनों के लिए अच्छा रहेगा.

‘‘निखिल से विवाह कर के उस की पत्नी के रूप में मैं समाज में प्रतिष्ठा भी पाऊंगी और रमा बहन जैसी बेकुसूर औरत का संसार भी नहीं उजड़ेगा. तुम हवाई अड्डे जाने के लिए घर से निकलो, उस के पहले ही मैं और निखिल यह शहर छोड़ चुके होंगे. हम दोनों अभी नैनीताल जा रहे हैं. वहीं शादी कर के हनीमून मनाएंगे.

‘‘मुझे उम्मीद है कि तुम मुझे माफ कर दोगे. रमा दीदी सुंदर, सुशील हैं, उन्हें प्रेम दे कर उन से प्रेम पा सकते हो. एक औरत हो कर भी मैं ने रमा दीदी के साथ बहुत अन्याय किया है. अब इस से अधिक अन्याय मैं नहीं कर सकती. बात मेरी समझ में आ गई, भले ही थोड़ी देर से आई है. इसलिए अब मैं प्रेम के अंधेरे रास्ते पर नहीं चलना चाहती. अब आप मेरा इंतजार मत कीजिएगा.’’

फोन कट गया. शेखर का दिमाग चकराने लगा. उसे लगा वह रो पड़ेगा. लड़खड़ाते हुए बालकनी में आया. संभाल कर रखे जहाज के दोनों टिकटों को फाड़ कर हवा में उछाल दिया. उस के बाद आ कर कमरे में लेट गया. उस की नजर बगल में बेखबर सो रही रमा पर पड़ी. शेखर आंख बंद कर रमा और निशि की आपस में तुलना करने लगा.

4 बजे का अलार्म बजा. रमा ने आंख बंद कर के लेटे शेखर को झकझोरा, ‘‘उठो, 4 बज गए हैं. दिल्ली नहीं जाना क्या? तुम जल्दी से तैयार हो जाओ, मैं चाय बना कर ला रही हूं.’’

शेखर रमा को ताकने लगा. उसे लगा कि उस ने आज तक रमा को प्रेमभरी नजरों से देखा ही नहीं था. वाकई सीधीसादी होने के बावजूद रमा निशि से सुंदरता में बीस ही है. सादगी का भी अपना अलग सौंदर्य होता है.

‘‘इस तरह क्या देख रहे हो? क्या आज से पहले मुझे नहीं देखा था? चलो, जल्दी तैयार हो जाओ, देर हो रही है.’’

शेखर ने रमा को बांहों में बांध लिया और बोला, ‘‘रमा, मैं अब दिल्ली नहीं जाऊंगा.’’

रमा ने शेखर का यह व्यवहार सालों बाद अनुभव किया था. शेखर भी महसूस कर रहा था कि आज जब वह रमा को दिल से प्यार कर रहा है तो रमा की मदमाती अदाओं में कुछ अलग कशिश है. बीता वक्त लौट तो नहीं सकता था लेकिन उसे संवारा तो जा सकता था.

लाल कमल : अंधविश्वास को मात देता उजाला

आईएएस यानी भारतीय प्रशासनिक सेवा में आने के बाद आनंद अभी बेंगलुरु में एक ऊंचे प्रशासनिक पद पर काम कर रहा है. महात्मा गांधी की पुकार पर साल 1942 के आंदोलन में स्कूल छोड़ कर देश की आजादी के लिए कूद पड़ने वाले करमना गांव के आदित्य गुरुजी के पोते आनंद को देश और समाज के प्रति सेवा करने की लगन विरासत में मिली है. आनंद बचपन से ही अपने तेज दिमाग, बड़ेबुजुर्गों के प्रति आदर और हमउम्र व बच्चों के बीच मेलजोल के साथ पढ़नेलिखने व खेलनेकूदने में भाग लेने के चलते बहुत लोकप्रिय था.

गांवसमाज के हर तीजत्योहार, शादीब्याह, रीतिरिवाज में आनंद को उमंग के साथ हिस्सा लेने में बहुत खुशी होती थी. केवल छात्र जीवन में ही नहीं, बल्कि प्रशासनिक सेवा में आने के बाद भी होलीदशहरा में वह गांव आने का मौका निकाल ही लेता था.

इस बार मार्च महीने में दफ्तर के कुछ काम से उसे पटना जाना था. पटना आने के बाद आनंद ने एक दिन गांव जाने का प्रोग्राम बनाया.

आनंद को गांव आ कर काफी अच्छा लगता है, पर अब यहां बहुतकुछ बदल गया है.

यह बात आज के बच्चे सोच भी नहीं सकते कि जहां पहले कभी कच्ची सड़क पर बैलगाड़ी और टमटम के अलावा कोई दूसरी सवारी नहीं हुआ करती थी, वहां अब पक्की रोड पर बसें और आटोरिकशा 12 किलोमीटर दूर रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए हर 15 मिनट पर तैयार मिल जाते हैं.

यहां तक कि पटना से निकलने वाले सभी अखबार अब इस गांव में आते हैं और हौकर इन्हें घरघर तक पहुंचा जाता है. साथ ही, टैलीविजन पर भी अब हर छोटीबड़ी खबर और मनोरंजन के तमाम कार्यक्रमों समेत नईपुरानी फिल्में भी देखने को मिल जाती हैं.

अब आनंद के बाबूजी तो रहे नहीं, पर चाचा और चाची रहते हैं. उसे देखते ही उन के चेहरे पर खुशी की चमक आंखों में नमी लिए पसर गई.

आनंद ने चाचा के पैर छुए. उन्होंने उस के सिर को दोनों हाथों में ले कर चूमते हुए ढेर सारा आशीर्वाद दिया.

चाची दोनों की बातें सुनते हुए अंदर से बाहर आ गई थीं. आनंद ने उन के भी पैर छुए.

चाची ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हम कह रहे थे कि आनंद हम को देखे बिना जा ही नहीं सकता.’’

‘‘कैसे हैं आप लोग?’’ आंखों में भर आए आंसुओं को रूमाल से पोंछते हुए आनंद ने पूछा.

‘‘तुम्हारे जैसे बेटे के रहते हमें क्या हो सकता है? हम भलेचंगे हैं. लो, कुछ चायनाश्ता कर के थोड़ा आराम कर लो, तब तक मैं खाना तैयार कर लेती हूं,’’ कह कर चाची अंदर चल पड़ीं.

‘‘बहुत परेशान न होइएगा चाची. सादा खाना ही ठीक रहेगा,’’ आनंद ने कहा और चायनाश्ता करते हुए चाचा

से अपने खेतखलिहान के साथ ही साफ बागबगीचे, गांवसमाज की बातें करने लगा.

चाची के हाथ का बना खाना खाते हुए आनंद को बरबस ही बचपन की यादें ताजा हो आईं.

खाना खाने के बाद आनंद ने कुछ देर आराम किया. शाम को चाचा ने फागू को बुलाया. उन्होंने सरसों के सूखे डंठलों को खलिहान से मंगवा कर परिवार के सदस्यों की संख्या के हिसाब से एक ज्यादा होल्लरी यानी लुकाठी बनवाई.

होलिका दहन के लिए गांव की तय जगह पर लोग समय पर इकट्ठा हो गए थे. आनंद भी चाचा के जोर देने पर वहां पहुंच गया था.

वैसे, होली के इस मौके पर होने वाली हुल्लड़बाजी और नशे के असर से सहीगलत न समझ पाने वाले नौजवानों की हरकतों को आनंद बचपन से ही नापसंद करता रहा है.

आनंद को यह बात तो अच्छी लगती कि होलिका दहन में गांवमहल्ले की बहुत सी गंदगी, बेकार की चीजें, जो सही माने में बुराई की प्रतीक हैं, जला कर आबोहवा को कुछ हद तक साफ करने में मदद मिलती है. परंतु वह यह भी मानता है कि होलिका दहन के ढेर से उठती आग की लपटों से कभीकभार आसपास के हरेभरे पेड़ों और मकानों को पहुंचने वाले नुकसान से इस को मनाने के सही ढंग पर नए सिरे से सोचना चाहिए.

आनंद को देख कर गांव के बहुत से नौजवान लड़के उस के पास आ गए. उन सभी लड़कों ने अपने मातापिता से आनंद के बारे में पहले ही बहुतकुछ सुन रखा था. वे अपने बच्चों को आनंद जैसा बनने की सीख देते थे.

आनंद को भी उन से मिल कर बहुत अच्छा लगा.

आनंद ने उन नौजवानों से दोस्त की तरह कई बातें कीं, फिर होलिका दहन के बारे में भी अपने मन की बातें उन से साझा कीं. वे सभी आनंद जैसे एक बड़े ओहदे वाले शख्स की इतनी अपनेपन भरी बातों से बहुत ज्यादा प्रभावित थे.

एक लड़के सुंदर ने आगे आते हुए कहा, ‘‘आनंद अंकल, हम आप से वादा करते हैं कि आगे से सावधान रहेंगे और किसी भी दुर्घटना की नौबत नहीं आने देंगे.’’

सुधीर ने भी भरोसा दिलाते हुए कहा, ‘‘अंकल, आज होली के नाम पर न तो कोई गंदे गाने गाएगा और न ही गंदी हरकत करेगा.’’

और सच में ही उस शाम के होलिका दहन को बड़ी सादगी से मनाया गया.

आनंद ने सभी को होली की मिठाई खिलाई. उस के बाद वह अपने चाचा के साथ घर लौट आया.

चैत्र पूर्णिमा की रात थी. दालान में चारपाई पर लेटे आनंद को चांदनी में नहाई रात काफी अच्छी लग रही थी. नींद की गहराई में धीरेधीरे उतरते हुए भी आनंद के कानों में होली के गीत सुनाई पड़ रहे थे.

अचानक ही तभी कुत्तों के भूंकने की आवाजों को बीच गांव के लोगों की घबराहट भरी आवाजों का शोर जोर पकड़ता हुआ सुनाई पड़ा.

‘‘मालिक, गोलीबंदूक के साथ बसहा गांव वाले फसल लगे खेतों की सीमा पर आ कर लड़नेमरने को तैयार खड़े हैं,’’ दीनू को अपने चाचा से यह कहते हुए सुन कर चौंकता हुआ आनंद झटके से उठ बैठा.

आनंद ने अपने मोबाइल फोन से कुछ संबंधित बड़े पुलिस अफसरों से बात करने की कोशिश की.

रास्ते में दीनू ने बताया कि आधी रात के बाद गांव के कुछ अंधविश्वासी लोग देवी मां के मंदिर में जमा हुए थे.

तांत्रिक इच्छा भगत ने पहले देवी मूर्ति की लाल उड़हुल के फूलों, रोली, अबीरगुलाल से पूजा की थी, उस के बाद एक तगड़ा काला कुत्ता भैरों के रूप में वहां लाया गया.

वहां जुटे लोगों ने खुद शराब पीने के साथसाथ उस कुत्ते को भी शराब पिलाई और फूलमाला से पूजा की गई.

नए साल में अपने गांव की खुशहाली और पुराने साल आई मुसीबतों को हमेशा के लिए भगाने के लिए उन्होंने करायल, अरंडी का तेल, पीली सरसों, लाल मिर्च, सिंदूर, चावल वगैरह को एक छोटे मिट्टी के बरतन में ढक कर भैरों कहे जाने वाले कुत्ते की गरदन में बांध दिया.

तांत्रिक इच्छा भगत ने मंदिर से एक जलता हुआ दीया उठा कर कुत्ते की गरदन में सामान समेत बंधे मिट्टी के बरतन में सावधानीपूर्वक रख दिया. फिर दीए की गरमी से परेशान कुत्ता भूंकता हुआ बसहा गांव की तरफ दौड़ पड़ा.

इच्छा भगत और कुछ लोग इस बात को पक्का करना चाहते थे कि वह कुत्ता वापस उन के अपने गांव में न लौटे.

उधर खेतों की रखवाली कर रहे बसहा गांव के कुछ किसानों ने दूसरे छोर पर आग की लपटों के साथ कुत्ते की गुर्राहट भरी आवाज सुनी. कुछ ही देर में पकने को तैयार गेहूं की फसल लपटों में झुलसने लगी थी.

रखवाली कर रहे किसानों को पूरा माजरा समझने में ज्यादा समय नहीं लगा. उन्होंने दौड़ कर तमाम गांव वालों को बुला लिया. ट्यूबवैल चला कर पानी से आग बुझाने के साथसाथ कुछ लोग गोलीबंदूक के साथ इस घटना के पीछे रहे करमना गांव को सबक सिखाने को ललकारने लगे थे. हवा में गोलियों की आवाजें गूंजने लगी थीं.

इस से पहले कि करमना गांव के कुछ अंधविश्वासी और नासमझ तत्त्वों की शरारत के कारण पड़ोसी गांव वालों की होली की खुशी खूनखराबे और मातम की भेंट चढ़ जाती, आनंद अपने साथ जिला मजिस्ट्रेट और एसपी की टीम मौके पर ले कर पहुंच गया. उस ने गुस्साए लोगों को समझाबुझा कर शांत किया.

अंधविश्वास में ‘भैरव टोटका’ करने वाले इच्छा भगत व दूसरे लोगों को पुलिस पकड़ कर वहां थोड़ी ही देर में पहुंच गई.

आनंद के कहने पर उन लोगों ने बसहा गांव के लोगों से अपने गलत अंधविश्वास के चलते किए गए काम के लिए माफी मांगी.

‘‘हम आप के पैर पकड़ते हैं भैया, हमें माफ कर दीजिए. हम शपथ लेते हैं कि आगे से नासमझी और अंधविश्वास से भरा कोई काम नहीं करेंगे.’’

तब तक आग बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड की टीम भी वहां आ चुकी थी.

तेजी से किए गए बचाव काम से आग को ज्यादा फैलने के पहले ही बुझाने में कामयाबी मिल गई थी.

आनंद ने गांव वालों की ओर से हुई गलती के लिए माफी मांगते हुए कहा, ‘‘रघुवीर, मैं तुम्हारे जज्बात को अच्छी तरह समझ सकता हूं… अपनी जिस फसल को खूनपसीना बहा कर तुम ने तैयार किया है, उस के खेत में इस तरह जल जाने के चलते हुए दिल के घाव को भरना किसी के लिए मुमकिन नहीं है. फिर भी करमना गांव के लोगों की ओर से मैं खुद जिम्मेदारी लेता हूं कि तुम्हें जो भी नुकसान हुआ है, उसे हमारे द्वारा कल ही पूरा किया जाएगा.’’

अपने खेत की तैयार फसल के जलने से नाराज रघुवीर कुसूरवारों को सबक सिखाने पर आमादा था, पर अपने स्कूल के दिनों में सही बात से आगे बढ़़ने की प्रेरणा देने वाले आदित्य गुरुजी जैसे आनंद के रूप में अभी वहां आ खड़े हो गए थे, इसलिए वह अपने गुस्से पर काबू कर गया.

रघुवीर आनंद के पैरों पर झुकता हुआ बोला, ‘‘माफ करें सर. आप की हर बात मेरे सिरआंखों पर.’’

आनंद ने रघुवीर को गले लगाते हुए कहा, ‘‘उठो रघुवीर, अब बसहापुर गांव और करमना गांव आपस में

मिल कर एकदूसरे की मुसीबतों को मिटाते हुए खुशियां लाने के लिए हमेशा तैयार रहेंगे. तुम बिलकुल चिंता मत करो.

‘‘इस बार गांव के स्कूल वाले मैदान में करमना और बसहा दोनों गांव मिल कर एकसाथ होली मनाएंगे.’’

वहां जमा दोनों गांवों के लोगों के चेहरे पर खुशी की लाली चमक उठी. ‘हांहां’ के साथ ‘होली है होली है’ की आवाजें चिडि़यों की चहचहाहट भरे माहौल में गूंज उठीं.

उसी समय गांव के पूर्वी आकाश में सूरज एक लाल कमल की तरह खिलता नजर आ रहा था.

मृगतृष्णा : मुझे अपनी शादी से क्यों होने लगी कोफ्त

‘‘हो सके तो कुछ दिनों के लिए मेरे साथ वक्त बिताने के लिए तुम भी बीजिंग आ जाना. आओगी तो अच्छा लगेगा मुझे, तुम्हारी मेहरबानी होगी मुझ पर,’’ शरद ने दुबई एयरपोर्ट पर मुझ से विदाई लेते हुए कहा. उन का काम के सिलसिले में देशविदेश जानाआना लगा रहता था. वे जहां भी जाते थे, उम्मीद करते कि कुछ ही दिनों के लिए ही सही, मैं भी उन्हें जौइन करूं.

‘सूरत देखी है अपनी शीशे में, मैं घर में तो तुम्हारे साथ 5 मिनट बैठना पसंद नहीं करती, फिर बीजिंग में क्या खाक करने आऊंगी. मैं तो तुम्हारे साथ उम्र काट रही हूं उम्रकैद की तरह,’ मैं ने दिल ही दिल में सुलगते हुए सोचा और शरद की बात को तवज्जुह दिए बिना कार से उन का लगेज निकालने में उन की मदद करने लगी. फिर बिना उन की तरफ देखे ही गुडबाय कर, टाइम से अपने औफिस पहुंचने के लिए कार स्टार्ट कर दी.

शेख जायद रोड ट्रैफिक से पटी हुई थी. ‘लगता है फिर औफिस के लिए देर हो जाएगी और नगमा की स्कैन करती हुई आंखें फिर से बरदाश्त करनी होंगी. क्या दोटके की जिंदगी है मेरी,’ मैं मन ही मन भन्नाई. तभी एक हौर्न की आवाज ने मेरी सोच में बाधा डाली. सामने ग्रीन लाइट हो चुकी थी. मैं ने यंत्रवत ब्रैक से पैर हटा कर कलच पर दबाव डाला. मेरी कार आगे बढ़ने लगी और मेरी सोच भी.

इंडिया में मेरे भैया सोचते हैं कि मेरी झोली चांदसितारों से भरी हुई है. उन्हें क्या पता कि हालात मुझे न्यूट्रौन में बदल चुके हैं, न कोई खुशी न गम. जी रही हूं एक उदासीन सी जिंदगी क्योंकि हाथ में उम्र की लंबी सी लकीर ले कर पैदा हुई हूं. ढो रही हूं नीम पर चढ़े हुए करेले सी कड़वी बेनूर, अनचाही शादी को.

‘‘कुछ खोईखोई सी हैं आप आज,’’ औफिस पहुंचते ही नगमा ने आदतानुसार कटाक्ष किया.

‘‘तुम्हें तो पता है कि मैं शौकिया तौर पर शायरी लिखती हूं, इसलिए सोचते रहना मेरा काम है. सोचूंगी नहीं तो लिखूंगी कैसे,’’ मैं ने स्थिति संभालते हुए सफाई पेश की.

‘‘आज तो तुम्हारा चेहरा कोई औटोबायोग्राफिकल शेर सुनाता सा लग रहा है. ऐसा लग रहा है कि किसी ने तुम्हारे दिल की तनहाइयों में पत्थर फेंक कर वहां उथलपुथल मचा दी हो.’’

‘‘आप भी कौन सी कम हैं, दूसरों की जिंदगी में हस्तक्षेप करकर के उन की जिंदगी की खामियों के नगमें दुनिया में गागा कर अपना नाम सार्थक करती रहती हैं,’’ मैं ने नहले पर दहला मारा क्योंकि मैं जानती थी कि सीधी भाषा नगमा को समझ में नहीं आती है.

‘‘तुम जानो, तुम्हारा काम जाने. मेरे पास भी फालतू वक्त नहीं है तुम्हारे जैसों पर जाया करने के लिए,’’ नगमा खिसियाई बिल्ली सी मुझे अकेला छोड़ कर चली गई. दिन काम की व्यस्तताओं में गुजर गया. शाम का इंतजार करने की जरूरत नहीं हुई. सीधे घर जाने की इच्छा नहीं हो रही थी, घर जा कर कौन से गीत गाऊंगी. वही रोज का बेनूर रूटीन- खाना बनाओ, डिशवाशर लोड करो, डिनर कर के किचन साफ करो और फिर नहाधो कर बैडरूम में एक बोरियतभरी रात काटो.

मन ज्यादा दुखी होता तो यूट्यूब पर सफल प्रेमकहानियां देख कर खुश होने की नाकाम कोशिश कर लेती. इन प्रेमकहानियों में अपने होने की कल्पना करती. और काल्पनिक ही सही, पर कुछ पल प्यार से जीने की कोशिश करती. फिर याद आया कि शरद तो हैं ही नहीं, इसलिए आज रास्ते में ही कुछ खा कर चलती हूं. अकेले अपने लिए क्या पूरी कुकिंग करने की तकलीफ उठानी.

वर्ल्ड ट्रेड सैंटर स्थित जेपेनगो कैफे में मैंगू स्मूदी के घूंट भरते हुए अनमने मन से सामने पड़े हुए अखबार के पन्ने आखिरी पेज की तरफ से पलटने लगी. जब से नौकरी ढूंढ़नी शुरू की थी, अखबार को आखिरी पेज की तरफ से पलटने की आदत पड़ गई थी. नौकरी तो करीब सालभर पहले मिल गई थी मगर आदत आज भी वैसी की वैसी बनी हुई है.

डिनर करने के बाद भी सीधे घर जाने की इच्छा नहीं हो रही थी. औफिस के बाद आसपास की फ्लोरिस्ट शौप में यों ही चक्कर लगाना मुझे अच्छा लगता था. आज मैं फिर से वहां फूलों को निहारने के लिए पहुंच गई.

फूलों को देखतेदेखते अचानक मुझे महसूस हुआ कि आंखों की कोरों से मैं ने किसी जानेपहचाने चेहरे को आसपास देखा है. कोई ऐसा चेहरा जो पहले कभी मेरे बहुत करीब रहा है. मैं तुरंत ही फ्लोरिस्ट शौप से बाहर निकल आई. मैं ने चारों ओर नजर घुमा कर देखा. मगर दूरदूर तक कोई भी परिचित चेहरा नजर न आया. शायद मुझे कोई गलतफहमी हुई है. यह सोचती हुई मैं कार पार्किंग की ओर बढ़ने लगी, तो देखा कि टैक्सीस्टैंड पर जोसफीन खड़ी थी.

जोसफीन यहां और वह भी ब्राइन के बिना, यह कैसे संभव है. हैरान सी मैं लपक कर उस की तरफ भागी. मुझे देख कर जोसफीन उत्साह से भर कर मेरे गले लग गई. परिचित मुसकराहट से सराबोर उस का चेहरा कई वर्षों के बाद देखने को मिल रहा था.

‘‘इन से मिलो, ये हैं मेरे नए पार्टनर जैकब,’’ जोसफीन ने अपने साथ खड़े आदमी की तरफ इशारा करते हुए कहा.

‘‘पार्टनर, क्या मतलब? तुम्हारी और ब्राइन की कंपनी में कोई पार्टनर भी हुआ करता था, ये तो तुम ने पहले कभी बताया ही नहीं,’’ मैं ने कुतूहल से पूछा.

‘‘नहींनहीं, मेरा वह मतलब नहीं है. मेरे कहने का मतलब है जैकब मेरे डी- फैक्टो पार्टनर हैं और हम लिविंग टूगेदर रिलेशन में हैं.’’

मैं ने एक गहरी नजर जैकब महाशय पर डाली. मेरे होंठ कुछ बोलने को हिले. मगर शब्द बाहर न आ सके.

आखिर जोसफीन ने ही बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘काफी समय से तुम से बातचीत नहीं हो पाई है. तुम तो बिना कुछ बताए ही सिडनी से गायब हो ली थीं. लाइफ काफी बदल चुकी है तब से. अभी हम यहां एक हफ्ते और रुकेंगे. अगर मौका मिला तो तुम्हारे साथ कौफी पीने आऊंगी. मुझे अपना फोन नंबर दे दो.’’

मैं ने ज्यादा कुछ सोचे बिना हैंडबैग से अपना कार्ड निकाल कर उस की ओर बढ़ा दिया. तभी एक टैक्सी आ गई. जोसफीन ने एक बार फिर से मुझे अपने गले लगाया और जैकब के साथ टैक्सी में बैठ कर चली गई. मैं हैरानपरेशान सी टैक्सी को अपनी आंखों से ओझल होने तक देखती रही.

ब्राइन सिडनी का जानामाना व्यक्ति था. उस की खनिज तेल और खनन कंपनी थी जो कि आस्ट्रेलिया, टर्की, अफ्रीका और अमेरिका तक फैली हुई थी. उस की रईसी उस के सिडनी के पौइंट पाइपर उपनगर स्थित निवास में ही सिमटी हुई नहीं थी, बल्कि पूरे सैलाब के साथ हर तरफ छलकीछलकी पड़ती थी. धन की अधिकता के साथसाथ उस की हर बात बड़ी थी. वह अपने धन को अपने बैंक खाते तक ही सीमित नहीं रखता था, मानवीय कामों पर भी जम कर लुटाता था. उस के नाम और काम की चर्चा शहर के कोनेकोने में इज्जत के साथ होती थी.

ब्राइन के किसी से मिलने के पहले ही उस की प्रसिद्धि उस तक पहुंच जाती. विश्वविद्यालय को रिसर्च और जरूरतमंद छात्रों की उच्चशिक्षा के लिए अनुदान देना उस के पसंदीदा लोकोपकारी काम थे.

इन तमाम मानवतावादी कामों के साथसाथ उसे अपने लिए जीना भी बखूबी आता था. वह गोताखोरी, नौकायन, पैराग्लाइडिंग का बेहद शौकीन था.

जोसफीन और ब्राइन की मुलाकातों का सिलसिला नीले आकाश के आंचल में हुआ था. जोसफीन क्वान्टाज एयरलाइंस में एयरहोस्टेस थी. और ब्राइन अपने देशविदेश में फैले हुए व्यापार के सिलसिले में ज्यादातर हवाईयात्रा करने वाला यात्री.

अपनी मुसकराहट की जादूगरी से यात्रियों की लंबीलंबी यात्राओं को सुखद बनाने वाली नीलगगन की परी सी थी जोसफीन. उस की फ्लाइट में उस की सेवा में उड़ने वाले यात्री उसे कभी न भुला पाते और अपनी हर यात्रा में उसी की सेवा में उड़ने की चाहत रखते. एक तरफ आकर्षक रूपसागर था तो दूसरी तरफ भव्य जिंदगी जीने वाला प्रभावशाली व्यापारी. दोनों ही एकदूसरे के आकर्षण से ज्यादा समय तक न बच पाए और कुछ महीनों की मुलाकातों के बाद वे एकदूसरे के हो गए.

जब मैं पहली बार जोसफीन और ब्राइन से मिली थी तब तक उन की शादी को 10 साल पूरे हो चुके थे जबकि मेरी और शरद की शादी को केवल 3 साल ही हुए थे. उन के 10 साल की शादी में भी प्यार का महासागर उमड़ पड़ता था. उन के बीच की कैमिस्ट्री को देख कर मेरे जैसों को ईर्ष्या से अछूता रहना नामुमकिन था क्योंकि मेरी 3 साल की शादी में प्यार का अकाल सदाबहार था.

शरद और मेरी हर बात, हर शौक में नौर्थ और साउथ पोल का फर्क था. जोसफीन और ब्राइन के हर शौक, हर तरीके एकजैसे थे. वे दोनों खूब शौक से साथसाथ गोताखोरी पर जाया करते थे. 3-4 साल पहले गोताखोरी के दौरान रीढ़ की हड्डी में चोट लगने से ब्राइन के शरीर का निचला हिस्सा बेकार हो गया. जिस से वह ज्यादा लंबा चलने की शक्ति गवां बैठा. मगर प्यार तो प्यार होता है. सो, यह हादसा भी उन दोनों के प्यार के महासागर से एक बूंद भी कम न कर पाया. कम करता भी कैसे, आखिर उन्होंने नीले आकाश को साक्षी मान कर उम्रभर साथ निभाने के वादे जो किए थे.

वे दोनों एकदूसरे के बने थे अपनी खुशी से, उन्हें एकदूसरे पर थोपा नहीं गया था. उन के प्यार में समर्पण था, ढोए जाने वाला सामाजिक बंधन नहीं. उन की शादी उन के प्यार की परिणति थी, महज निभाए जाने वाली रस्म नहीं. मेरी और शरद की शादी तो वह जैकपौट थी जिस में लौटरी शरद की लगी थी. मेरी स्थिति तो जुए में अपना सबकुछ हारे हुए जुआरी जैसी थी.

जब भी मैं जोसफीन और ब्राइन को साथसाथ देखती तो मेरे दिल का दर्द पूरी शिद्दत पर पहुंच जाता. मैं सोचती, काश, मेरी भी शादीशुदा जिंदगी उन की शादीशुदा जिंदगी की तरह एक परीकथा होती. मैं उन के सामने बैठ कर स्वयं को बहुत आधाअधूरा महसूस करती. जब यह बरदाश्त से बाहर हो गया तो हीनभावना से बचने के लिए मैं ने उन से किनारा करना शुरू कर दिया. उन के सामने सुखी विवाहित जीवन का झूठा आवरण ओढ़ेओढ़े मैं अब थकने लगी थी.

इस झूठे नाटक में मेरे चेहरे के भावों ने मेरा साथ देना बंद कर दिया था. मेरे दिल के दर्द की लहरें मेरे सब्र के बांध को तोड़ कर पूरे बहाव के साथ उमड़ने लगी थीं. इस सैलाब को दिल में जज्ब करना नामुमकिन होता जा रहा था. इसलिए जब शरद को दुबई में एक बेहतर जौब मिला तो मेरे दिल को एक अजब सा सुकून मिला. मेरी खुशी शरद को बेहतर जौब मिलने की वजह से कम और सिडनी को हमेशा के लिए छोड़ कर जाने की वजह से ज्यादा थी.

‘चलो, न तो यह ‘मेड फौर इच अदर’ जोड़े से सामना होगा, न ही मेरे दिल के जख्मों में टीस उठेगी.’ यह सोच कर चैन की सांस ली थी उस वक्त मैं ने, और जोसफीन को बिना बताए ही सिडनी से दुबई चली आई थी.

दुबई आ कर मैं अगले जन्म में मनचाहे हमसफर की कामना करती हुई अपनी जिंदगी की रेलगाड़ी को आगे खींचने लगी. मन लगाने के लिए मैं ने एक कंपनी में रिसैप्शनिस्ट की नौकरी कर ली थी. सोचा, न मेरे पास खाली वक्त होगा न जिंदगी की कमियों को ले कर मन को भटकने का मौका मिलेगा. अपनी व्यस्तताओं में मैं जोसफीन-ब्राइन और उन की परीकथा को भूल सी चुकी थी.

मगर आज शाम वर्ल्ड ट्रेड सैंटर में जोसफीन फिर से सामने आ गई थी. इस बार वह मुझे अपनी सहेली न लग कर, कोई पहेली सी लगी थी. जोसफीन से अचानक रूबरू होने के बाद घर वापस आने पर भी मन जोसफीन, ब्राइन, जैकब त्रिकोण में उलझा रहा. क्या ब्राइन मर चुका है? अगर नहीं तो फिर जोसफीन नए डीफैक्टो पार्टनर के साथ क्यों है? ये एकदूसरे के प्यार में सिर से पांव तक डूबे रहने वाला जोड़ा ऐसे कैसे अलग हो सकता है? कितनी कशिश थी दोनों में, क्या हुआ उस कशिश का? सोचतेसोचते मेरा सिर चकराने लगा. इस ट्रायंगल के तीनों कोणों का आकलन करतेकरते आखिर मैं निढाल हो कर सो गई.

सुबह उठी तो सिर कुछ भारी सा लग रहा था. कुछ देर यों ही बिस्तर में लेटी रही, समझ में नहीं आ रहा था कि औफिस जाऊं या नहीं. अंत में हमेशा की तरह मेरे आलस की जीत हुई. मैं ने औफिस न जाने का निश्चय कर लिया और मुंह पर चादर ढक कर थोड़ी देर ऊंघने के लिए लेट गई.

आधे घंटे में जब टैक्सट मैसेज की आवाज से आंख खुली तो मैं ने अनमने भाव से मोबाइल उठाने के लिए हाथ बढ़ाया. बेमन से मैं ने अपनी अधखुली आंखें मोबाइल पर गड़ाईं तो देखा कि जोसफीन का मैसेज आया था. वह लंच के समय मुझ से कहीं पर मिलना चाहती थी.

मैसेज देखते ही मेरी आंखें पूरी तरह से खुल गईं और मैं ने बिना एक पल गंवाए, आए हुए मैसेज के नंबर को दबा दिया. मैं जोसफीन के बारे में सबकुछ जानने को बेताब थी. मैं ने उसे बताया कि आज मैं पूरे दिन घर में ही हूं, इसलिए वह किसी भी समय मुझ से मिलने आ सकती है. पूरे उत्साह के साथ मैं नहाधो कर घर को ठीक करने में लग गई और जोसफीन निश्चित समय पर आ पहुंची.

‘‘तुम्हारे वो, मेरा मतलब है जैकब महाशय कहां रह गए?’’ मैं ने इधरउधर नजर घुमाते हुए पूछा.

‘‘जैकब को तो एक कौन्फ्रैंस में जाना था. वैसे भी हम उस के होते हुए तो खुल कर बातचीत भी नहीं कर पाते. मैं अकेले ही तुम से मिलने आना चाहती थी,’’ जोसफीन ने अपनी चिरपरिचित मुसकराहट के साथ जवाब दिया.

मैं भी कौन सा जैकब से मिलने को इच्छुक थी. मेरे मन में तो ब्राइन की खैरियत को ले कर उथलपुथल मची हुई थी कि अगर वह जोसफीन के साथ नहीं तो फिर कहां और कैसा है? एक लंबा अरसा बीत चुका था हमें मिले हुए. बहुतकुछ कहने और सुनने को था, मगर मैं अपनी तरफ से बात को कुरेदना नहीं चाहती थी. मैं ने इंतजार करना ही ठीक समझा. काफी देर इधरउधर की बातें करने के बाद आखिर ब्राउन का जिक्र आ ही गया.

‘‘मेरे और ब्राइन के तलाक को 4 साल हो चुके हैं,’’ जोसफीन ने बिना किसी संवेदना के परदाफाश किया.

‘‘4 साल मतलब, जैसे ही मैं ने सिडनी छोड़ा उस के कुछ ही समय बाद तुम दोनों अलग हो गए. मगर ऐसा कैसे हो गया? तुम्हें तो हमेशा ही इस बात का गुमान था कि ब्राइन अमेरिका में अपने सारे रिश्तेनाते छोड़ कर मीलों दूर आस्ट्रेलिया में तुम्हारे और सिर्फ तुम्हारे लिए आ कर बस गया था,’’ मैं ने एक सांस में कई सवाल दाग दिए.

‘‘तो क्या हुआ, मैं ने भी तो उस की विकलांगता को वर्षों तक झेला और अपनी जिंदगी का गोल्डन टाइम उस पर बरबाद कर दिया,’’ जोसफीन ने कहा.

‘‘बरबाद कर दिया, क्या मतलब, वह हादसा तो शादी के बाद में हुआ था और उस के बाद भी तो तुम ने उस के साथ कई साल खुशहाली के साथ बिताए… और फिर तुम ही तो कहती थीं कि हादसे तो हादसे होते हैं, उन पर किसी का वश कहां. ये कहीं भी और किसी के भी साथ हो सकते हैं और फिर यह सही बात है कि हादसे तो हादसे होते हैं,’’ मैं ने एकएक शब्द पर जोर दे कर कहा.

‘‘हां, तो, जब मैं ने ये सब कहा था तब कम से कम ब्राइन के पास एक लाइफस्टाइल, एक स्टेटस तो था,’’ वह लापरवाही के साथ बोली.

‘‘एक स्टेटस था? क्या मतलब है तुम्हारा इस ‘था’ से?’’ मेरे स्वर में अब घबराहट घुल चुकी थी.

जोसफीन ने सबकुछ शुरू से आखिर तक कुछ ऐसे बताया :

‘‘अब से करीब 8 साल पहले ब्राइन ने अपनी कंपनी को आगे बढ़ाने के लिए धातुओं के अन्वेषण, खानों की खोज आदि के लिए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं से भारी कर्ज ले लिया था. ऐसा करने के कुछ समय के बाद दुनियाभर में खनिज तेल और लौह अयस्क की कीमतें गिरने लगीं और वित्तीय संस्थाओं ने कर्ज की वापसी के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया. दूसरी तरफ पहले से चल रहे अन्वेषण को आगे जारी रखने के लिए भी फंड की जरूरत पड़ने लगी. जिस के लिए भी वित्तीय संस्थाओं ने हाथ खड़े कर दिए. ब्राइन की कंपनी ने नई इक्विटी निकाल कर शेयर बाजार से फंड बनाने की कोशिश भी की लेकिन वह प्रयास भी असफल रहा.

‘‘अब वित्तीय संस्थान पुराने मूलधन और ब्याज की वापसी के लिए जोर डालने लगे थे. दूसरी तरफ पहले से चल रहीं अन्वेषण और खनन परियोजनाएं धन के अभाव में बंद होने लगीं.

‘‘ब्राइन ने अन्य कंपनियों और अपने व्यवसायी मित्रों से भी मदद लेने की कोशिश की, मगर हर जगह नाकामी ही हासिल हुई. हार कर उस ने अपने एकमात्र मुनाफे में चल रहे कंस्ट्रक्शन व्यवसाय को बेचने का फैसला किया परंतु इस में भी ट्रेड यूनियन और फौरेन इनवैस्टमैंट एप्रूवल बोर्ड ने चाइनीज खरीदार को बेचने के लिए स्वीकृति देने पर अड़ंगा लगा दिया.

‘‘आखिरकार सब तरफ से मायूस हो कर बोर्ड औफ डायरैक्टर ने कंपनी को लिक्विडेशन में ले जाने का फैसला कर लिया. इस के साथ ही ब्राइन और मेरी जिंदगी के सुनहरे दिनों का भी लिक्विडेशन हो गया,’’ जोसफीन ने एक गहरी सांस छोड़ते हुए कहा.

‘‘ब्राइन के दिवालिया होने और तुम्हारे उस से तलाक लेने का क्या संबंध है?’’ मैं ने चिड़चिड़ा कर पूछा.

‘‘सीधा संबंध था, मैं ने सालों उस की विकलांगता को झेला. अब उस के पास बचा भी क्या था मुझे बांधे रखने के लिए. मैं कोई बेवकूफ थोड़े ही हूं जो कि किसी दिवालिया पर अपनी जिंदगी बरबाद कर दूं,’’ जोसफीन बोली.

‘‘और यह जैकब? यह क्या मार्केट में तुम्हारे लिए तैयार बैठा था जो ब्राइन के व्यापार के फेल होते ही तुम इस के साथ रहने लगीं?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘हां, ऐसा ही कुछ समझो. कुछ साल से हम दोस्त थे. ब्राइन के शहर से बाहर होने के दौरान हम ने कई बार कैजुअल समय बिताया था. ब्राइन जैसे व्हीलचेयरमैन के पास था ही क्या मुझे देने के लिए. जब मुझे जैकब जैसा रियल मैन मिल सकता है तो फिर मुझे किसी व्हीलचेयरमैन के साथ समय गुजारने की क्या जरूरत थी. आखिर कुदरत ने हमें जिंदगी जीने के लिए ही दी है, किसी की मजबूरियों पर बरबाद करने के लिए थोड़े ही दी है,’’ इतना कह कर जोसफीन जोर का कहकहा लगा कर हंस दी.

जिंदगी में पहली बार मुझे उस की हंसी को देख कर घृणा महसूस हुई. मैं हतप्रभ सी उसे देखती रह गई. मैं ने अपने काले, घुंघराले बालों को मुट्ठी में भर कर हलके से खींच कर देखा कि मैं होश में तो हूं. हां, होश था मुझ को क्योंकि बालों के खिंचने पर मैं ने दर्द महसूस किया. फिर भी जब पक्का भरोसा न हुआ तो इस बार मैं ने बाएं हाथ की हथेली में दाएं हाथ के अंगूठे का नाखून गड़ा कर देखा, दर्द का आभास मुझे अब भी हुआ.

यह साबित हो चुका था कि मैं पूरी तरह होश में थी. इस का सीधासीधा मतलब था कि जो मुझे सुनाई दे रहा था वह सच था, मेरे मन का वहम नहीं. मगर यह तो रंगबिरंगी दुनिया है. यहां कुछ भी संभव है. यहां रोज किसी न किसी के साथ अनहोनी होती है, अप्रत्याशित घटता है.

स्टील, लोहे और तेल की बढ़ती कीमतों को देखते हुए ब्राइन बहुत ही महत्त्वाकांक्षी हो उठा था. उस के मन में एक लालसा जाग उठी थी जल्दी से जल्दी फौरचून फाइव हंड्रैड की लिस्ट में अपनी कंपनी का नाम देखने की. इस लालसा से वशीभूत हो कर और स्टील, लोहे व खनिज तेल की कीमतों को बढ़ते देख कर उस ने कई देशों में नई खानों और तेल की खोज के अधिकार प्राप्त कर लिए थे. मगर औयल, गैस और खनिज की गिरती कीमतों ने उस के व्यापार को पूरी तरह से डुबो कर रख दिया.

वह शरीफ आदमी यह नहीं जानता था कि फौरचून फाइव हंड्रैड की लिस्ट की जगह, समय उसे हर तरह से बरबाद करने के लिए उस के कदम के इंतजार में था. जिस जोसफीन को उस ने खुद से ज्यादा प्यार किया था, उस ने बुरे वक्त में उस का संबल बनने की जगह उसे हर तरह से तोड़ कर रख दिया.

आसमानी परी की मुसकान के पीछे कितना शातिर दिमाग काम कर रहा था, मैं कभी समझ ही नहीं पाई. मैं ने जाना कि गिरगिट ही नहीं, इंसान भी रंग बदलते हैं. मैं ने जाना कि शादी परिवार द्वारा तय की गई हो या स्वयं की इच्छा से की गई हो, उसे सफलअसफल लोग स्वयं बनाते हैं. मैं मैदान के एक किनारे पर खड़ी हो कर सोचती रही कि दूसरे किनारे की तरफ सिर्फ हरियाली ही हरियाली है.

मृगतृष्णा में फंसी मैं कभी देख ही न सकी कि असली हरियाली मेरे पैरों तले थी, जरूरत थी तो सिर्फ सही दृष्टिकोण की. हां, जिंदगी जीने के लिए ही होती है पर किसी दूसरे के जज्बातों को रौंद कर अपने ख्वाब सजाने के लिए भी नहीं. प्यार और त्याग एकदूसरे के पर्याय हैं. त्याग किए बिना प्यार हासिल नहीं किया जा सकता. प्यार, प्यार है, भौतिक जरूरतों का गुणाभाग नहीं. भौतिकता के लाभहानि के गणित से अर्जित किया गया प्यार, त्याग का नहीं बल्कि वासना का पर्याय होता है.

मुझे जिंदगी का घिनौना चेहरा देखने को मिला. मुझे समझ में आया कि कभीकभी आंखों को जो दिखता है और कानों को सुनाई देता है, वह भी गलत हो सकता है. पता लगा कि हर शख्स आवरण ही ओढ़े हुए जी रहा है अपनेअपने झूठ का. खैर, मुझे यह आवरण और नहीं ओढ़ना है. जिंदगी को जिंदगी के जैसे ही जीना है, मृगतृष्णा की तरह नहीं. जिंदगी को जिंदगी बनाना मेरे अपने हाथ में था. मृगतृष्णा तो सिर्फ छल है, धोखा है अपनेआप से.

जोसफीन के विदा होते ही मैं ने शरद को फोन किया बताने के लिए कि मैं बीजिंग आ रही हूं उन के पास मृगतृष्णा को छोड़ कर, अपनी और उन की जिंदगी को मुकम्मल बनाने के लिए.

फलक से टूटा इक तारा: सान्या का यह एहसास- भाग 3

सान्या सोचने लगी, ‘कल तक जो देव मेरी हर बात का दीवाना हुआ करता था उसे आज अचानक से क्या हो गया है?’ यदि सान्या उस से बात करना भी चाहती तो वह मुंह फेर कर चल देता. अब सान्या मन ही मन बहुत परेशान रहने लगी थी. बारबार सोचती, कुछ तो है जो देव मुझ से छिपा रहा है. अब वह देव पर नजर रखने लगी थी और उसे मालूम हुआ कि देव का उस से पहले भी एक लड़की से प्रेमप्रसंग था और अब वह फिर से उस से मिलने लगा है.

सान्या सोचने लगी, ‘तो क्या देव, मुझे शादी के झूठे सपने दिखा रहा है.’ यदि अब वह देव से शादी के बारे में बात करती तो देव उसे किसी न किसी बहाने से टाल ही देता. और आज तो हद ही हो गई, जब सान्या ने देव से कहा, ‘‘हमारी शादी का दिन तय करो.’’ देव उस की यह बात सुन  मानो तिलमिला गया हो. वह कहने लगा, ‘‘तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने है, आज हम शादी कर लें और कल बच्चे? इतना बड़ा पेट ले कर घूमोगी तो कौन से धारावाहिक वाले तुम्हें काम देंगे. तुम्हारे साथसाथ मेरा भी कैरियर चौपट जब सब को पता लगेगा कि मैं ने तुम से शादी कर ली है.’’

सान्या कानों से सब सुन रही थी लेकिन जो देव कह रहा था उस पर उसे विश्वास नहीं हो रहा था. उस की आंखों के सामने अंधेरा छा गया था. वह तो सोच भी नहीं सकती थी कि देव उस के साथ ऐसा व्यवहार करेगा. वह तो शादी के सपने संजोने लगी थी. उसे नहीं मालूम था कि देव उस के सपने इतनी आसानी से कुचल देगा. तो क्या देव सिर्फ उस का इस्तेमाल कर रहा था या उस के साथ टाइमपास कर रहा था. उस का प्यार क्या एक छलावा था. वह सोचने लगी कि ऐसी क्या कमी आ गई अचानक से मुझ में कि देव मुझ से कटने लगा है.

कई धारावाहिकों में अपनी मनमोहक छवि और मुसकान के लिए सब का चहेता देव, क्या यही है उस की असलियत? जिस देव की न जाने कितनी लड़कियां दीवानी हैं क्या उस देव की असलियत इतनी घिनौनी है? वह मन ही मन अपने फैसले को कोस रही थी और अंदर ही अंदर टूटती जा रही थी, लेकिन उस ने सोच लिया था कि देव उस से इस तरह पीछा नहीं छुड़ा सकता. अगले दिन जब देव शूटिंग खत्म कर के घर जा रहा था, सान्या भी उस के साथ कार में आ कर बैठ गई और उस ने पूछा, ‘‘देव, क्या तुम किसी और से प्यार करते हो? मुझे सचसच बताओ क्या तुम मुझ से शादी नहीं करोगे?’’

आज देव के मुंह से कड़वा सच निकल ही गया, ‘‘क्यों तुम हाथ धो कर मेरे पीछे पड़ गई हो, सान्या? मेरा पीछा छोड़ो,’’ यह कह देव अपनी कार साइड में लगा कर वहां से पैदल चल दिया. लेकिन सान्या क्या करती? वह भी दौड़ कर उस के पीछे गई और कहने लगी, ‘‘मैं ने तुम से प्यार किया है, देव, क्या तुम ने मुझे सिर्फ टाइमपास समझा? नहीं देव, नहीं, तुम मुझे इस तरह नहीं छोड़ सकते. बहुत सपने संजोए हैं मैं ने तुम्हारे साथ. क्या तुम मुझे ठुकरा दोगे?’’

देव को सान्या की बातें बरदाश्त से बाहर लग रही थीं और उसी गुस्से में उस ने सान्या के गाल पर तमाचा जड़ते हुए कहा, ‘‘तुम मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ती?’’ सान्या वहां से उलटे कदम घर चली आई.

अब तो सान्या की रातों की नींद और दिन का चैन छिन गया था. न तो उस का शूटिंग में मन लगता था और न ही कहीं और. इतनी जानीमानी मौडल, इतने सारे नामी धारावाहिकों की हीरोइन की ऐसी दुर्दशा. यह हालत. वह तो इस सदमे से उबर ही नहीं पा रही थी. पिछले 4 दिनों से न तो वह शूटिंग पर गई और न ही किसी से फोन पर बात की. कई फोन आए पर उस ने किसी का भी जवाब नहीं दिया.

आज उस ने देव को फोन किया और कहा, ‘‘देव, क्या तुम मुझे मेरे अंतिम समय में भी नहीं मिलोगे? मैं इस दुनिया को छोड़ कर जा रही हूं, देव,’’ इतना कह फोन पर सान्या की अवाज रुंध गई. देव को तो कुछ समझ ही न आया कि वह क्या करे? वह झट से कार ले कर सान्या के घर पहुंचा. लिफ्ट न ले कर सीधे सीढि़यों से ही सान्या के फ्लैट पर पहुंचा.

दरवाजा अंदर से लौक नहीं था. वह सीधे अंदर गया, सान्या पंखे से झूल रही थी. उस ने झट से पड़ोसियों को बुलाया और सब मिल कर सान्या को अस्पताल ले कर गए. लेकिन वहां सान्या को मृत घोषित कर दिया गया.

सान्या इस दुनिया से चली गई, उस दुनिया में जिस में उस ने सुनहरे ख्वाब देखे थे, वह दुनिया जिस में वह देव के साथ गृहस्थी बसाना चाहती थी, वह दुनिया जिस की चमकदमक में वह भूल गई कि फरेब भी एक शब्द होता है और देव से जीजान से मुहब्बत कर बैठी या फिर वह इस दुनिया के कड़वे एहसास से अनभिज्ञ थी. उसे लगता था कि ये बड़ीबड़ी हस्तियां, बडे़ स्टेज शो, पार्टियों में चमकीले कपड़े पहने लोग और बड़ी ही पौलिश्ड फर्राटेदार अंगरेजी बोलने वाले लोग सच में बहुत अच्छे होते हैं, लेकिन उसे यह नहीं मालूम था कि उस दुनिया और हम जैसे साधारण लोगों की दुनिया में कोई खास फर्क नहीं. हमारी दुनिया की जमीन पर खड़े हो जब हम आसमान में चमकते सितारे देखते हैं तो वे कितने सुंदर, टिमटिमाते हुए नजर आते हैं. किंतु उन्हीं सितारों को आसमान में जा कर तारों के धरातल पर खड़े हो कर जब हम देखें तो उन सितारों की चमक शून्य हो जाती है और वहां से हमारी धरती उतनी ही चमकती हुई दिखाई देती है जितनी कि धरती से आसमान के तारे. फिर क्यों हम उस ऊपरी चमक से प्रभावित होते हैं?

ये चमकदार कपड़े, सूटबूट सब ऊपरी दिखावा ही तो है दूसरों को रिझाने के लिए. तभी तो सान्या इन सब के मोहपाश में पड़ गई और देव से सच्चा प्यार कर बैठी. वह यह नहीं समझ पाई कि इंसान तो इंसान है, मुंबई के फिल्मी सितारों की दुनिया हो या छोटे से कसबे के साधारण लोगों की दुनिया, इंसानी फितरत तो एक सी ही होती है चाहे वह कितनी भी ऊंचाइयां क्यों न हासिल कर ले. लेकिन कहते हैं न, दूर के ढोल सुहावने. खैर, अब किया भी क्या जा सकता था.

लेकिन हां, हर पल मुसकराने वाली सान्या जातेजाते सब को दुखी कर गई और छोड़ गई कुछ अनबूझे सवाल. झूठे प्यार के लिए अपनी जान देने वाली सान्या अपनी जिंदगी को कोई दूसरा खूबसूरत मोड़ भी तो दे सकती थी. इतनी गुणी थी वह, अपने जीवन में बहुतकुछ कर सकती थी. सिर्फ जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को जीवित रख लेती और देव को भूल जीवन में कुछ नया कर लेती. काश, वह समझ पाती इस दुनिया को. कितनी नायाब होती है उन सितारों की चमक जो चाहे दूर से ही, पर चमकते दिखाई तो देते हैं. सभी को तो नहीं हासिल होती वह चमक. तो फिर क्यों किसी बेवफा के पीछे उसे धूमिल कर देना. काश, समझ पाती सान्या. खैर, अब तो ऐसा महसूस हो रहा था जैसे फलक से एक चमकता तारा अचानक टूट गया हो.

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