उस की गली में : हुस्न और हवस की कहानी

बगल वाले कमरे में इंसपेक्टर बलराज एक मुलजिम की जम कर पिटाई कर रहा था. उस की पिटाई से मुलजिम जोरजोर चीख रहा था, ‘‘साहब, मैं ने कुछ नहीं किया. मुझे माफ कर दो, मैं बेकसूर हूं.’’

वह एक शहरी थाना था. वहां मेरे अलावा दूसरा इंसपेक्टर बलराज था. थाने में ही डीएसपी का भी औफिस था. इंसपेक्टर बलराज बेहद सख्त था.

गाली उस के मुंह से बातबात में निकलती थी. कई मुलजिम तो डर के मारे झूठे इलाजम को भी अपने  सिर ले लेते थे. लेकिन मुझे वह ‘बाऊजी थानेदार’ कह कर पुकारता था, लेकिन पीठ पीछे मेरा मजाक उड़ाता था.

जिस मुलजिम की वह पिटाई कर रहा था, उस की आवाज आई, ‘‘साहब, बहुत जोर से पेशाब लगा है. मुझे जाने दीजिए.’’ पता नहीं क्यों मुलजिम की आवाज में मुझे एक अजीब सा दर्द महसूस हुआ. सर्दियों के दिन थे, शाम भी होने वाली थी.

मैं ने खिड़की पर पड़ी चिक से देखा, 2 सिपाही सहारा दे कर उस मुलजिम को छत पर बने पेशाबखाने ले जा रहे थे. उस की हालत देख कर ही लग रहा था कि उस की जम कर खातिरदारी की गई थी.

पुलिस भाषा में पिटाई को खातिरदारी कहते हैं. मैं खाली बैठा था, टहलता हुआ बाहर चला गया. अचानक मुझे छत पर धमाचौकड़ी की आवाज आती महसूस हुई.

ऊपर कौन भाग रहा है, जानने के लिए मैं छत पर चला गया. छत कोई 20 फुट ऊंची थी. ऊपर पहुंच कर मैं ने मुलजिम को मुंडेर की ओर भागते देखा. उसे पकड़ने के चक्कर में एक सिपाही गिर पड़ा था. मैं समझ गया कि मुलजिम पुलिस से छूट कर छत से नीचे छलांग लगाना चाहता है.

मैं तेजी से उस की तरफ दौड़ा. तब तक वह मुंडेर पर पांव रख चुका था, वह छलांग लगाता, उस के पहले ही मैं ने पीछे से उसे पकड़ लिया. नीचे सड़क पर लोगों का आनाजाना चालू था.

मैं उसे घसीटता हुआ पीछे ले आया. सड़क के लोग घबरा कर ऊपर देख रहे थे. वह जोरों से चीख रहा था, ‘‘मुझे छोड़ दो, मुझे मर जाने दो.’’

वह जैसे पागल हो रहा था. दोनों सिपाहियों ने मुश्किल से उसे काबू में किया. देखतेदेखते छत और सड़क पर मजमा लग गया. जैसे ही उसे नीचे लाया गया, गुस्से से पागल हो कर इंसपेक्टर बलराज उस पर टूट पड़ा. मुलजिम की मां और बहन थाने में बैठी थीं.

वे रोने लगीं. पिटतेपिटते मुलजिम बेहोश हो गया, पर बलराज के हाथ नहीं रुक रहे थे. मैं ने किसी तरह बलराज को रोका.

मुलजिम का नाम विलायत अली था. वह शहर का ही रहने वाला था. उस की मां और बहन हाथ जोड़ कर रोते हुए मुझ से कह रही थीं कि विलायत बेकसूर है. दोनों लोगों के घरों में काम कर के गुजारा करती हैं. बलराज ने उन से 5 सौ रुपए मांगे थे.

घर के जेवर, बरतन आदि बेच कर उन्होंने रुपए दे दिए थे. इस के बावजूद भी वह विलायत को नहीं छोड़ रहे. अब वह और पैसे मांग रहे हैं. वे और पैसे कहां से लाएं.

बलराज विलायत अली के खिलाफ फरारी का नया मामला दर्ज कर रहा था, जबकि 20 फुट ऊंची उस बिल्डिंग से किसी मरेकुचे आदमी का कूदना असंभव लगता था.

सही में तो जुल्म से घबरा कर खुदकुशी का मामला बनना चाहिए था. मैं सबकुछ देख और समझ रहा था. अगर मैं कुछ कहता तो बलराज और नाराज हो जाता. इसलिए मैं चुप रहा.

विलायत की मां और बहन ने जो बातें बताई थीं, उस से साफ लग रहा था कि उसे जबरदस्ती फंसाया जा रहा था. मुझे यहां आए अभी एक महीना ही हुआ था.

मैं अपने कमरे में पहुंचा तो वहां विलायत की मां बेहोश पड़ी थी, बहन रो रही थी. बहन हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘थानेदार साहब, मेरी मां और भाई को उस जालिम से बचा लीजिए. आप जहां कहेंगे, जिस के पास कहेंगे, मैं चली जाऊंगी. बस मेरे भाई पर रहम करें.’’

उस की बात सुन कर मैं चौंका. उस की बातों से लगा, उसे कोई कहीं भेजना चाहता था? वजह साफ थी, लड़की जवान थी. देखने में भी अच्छी थी. मैं ने पूछा, ‘‘किसी ने तुम से कहीं चलने को कहा था क्या?’’

‘‘हां, कल एक सिपाही ने थानेदार के घर जा कर भाई की जमानत की बात करने को कहा था.’’

‘‘क्या तुम उस के यहां गई थी, फिर क्या हुआ?’’

‘‘हां, मैं गई थी उस सिपाही के साथ. मेरी मां भी साथ थी. उस ने हमें बहुत डरायाधमकाया. इस के बाद उस सिपाही की नीयत खराब हो गई. उस ने मां को कोई फार्म लाने के लिए बाहर जाने को कहा तो मैं उस की मंशा समझ कर मां के साथ बाहर चली गई.’’

उस की बात सुन कर मुझे उस पुलिस वाले पर बहुत गुस्सा आया. अब तक उस की बूढ़ी मां होश में आ चुकी थी. मैं ने उन दोनों को तसल्ली दी. इस के बाद मैं एक निर्णय ले कर डीएसपी साहब के पास जा कर बोला, ‘‘जनाब, विलायत का केस मैं हैंडल करना चाहता हूं.

बलराज के पास वक्त नहीं है, जिस की वजह से वह इस केस पर ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहे हैं.’’

‘‘नवाज, यह कोई खास मामला नहीं है. उसी के पास रहने दो. ऐसा करने से आपस में खटास पैदा हो सकती है.’’

मुझे उन से इस जवाब की उम्मीद नहीं थी. मैं समझ गया कि बलराज मुझ से पहले डीएसपी साहब से मिल कर गया है. मैं कुरसी से उठ ही रहा था कि डीएसपी साहब के फोन की घंटी बज उठी.

बीच में उठ कर जाना ठीक नहीं था, इसलिए मैं बैठ गया. करीब 10 मिनट बात होती रही. डीएसपी साहब फोन पर बड़े अदब से बात कर रहे थे. बातचीत से लग रहा था कि फोन शायद एसपी या डीआईजी का था. फोन पर बात खत्म होते ही डीएसपी साहब ने चेहरे का पसीना पोंछने के बाद कहा, ‘‘नवाज खां, यह केस तुम हैंडल करो. बलराज से सारा रिकौर्ड ले लो.’’ उन्होंने कहा कि थाने की छत पर जो तमाशा हुआ, उसे देखने के लिए सड़क पर चल रहे लोग जमा हो गए थे.

ट्रैफिक जाम हो गया था. उस भीड़ में किसी मंत्री की गाड़ी थी. उस के पीछे एक जीप में प्रैस वाले थे. उन लोगों ने उस हाथापाई की फोटो खींच ली थी.

इस घटना से मंत्रीजी बेहद नाराज हो गए. उन्होंने सारा मामला खुद देखा था. इस थाने के मारपीट के पहले भी 1-2 मामले उछले थे. उन्होंने ही डीआईजी साहब से कहा है कि इस केस की सख्ती से जांच की जाए और जिस की वजह से यह सब हुआ है, उस के खिलाफ सख्ती से काररवाई की जाए.

मैं चलने लगा तो उन्होंने मुझ से इसंपेक्टर बलराज को भेजने को कहा. मैं ने बलराज को उन का मैसेज दे दिया. विलायत अली की हालत काफी खराब थी.

मैं ने करीब के क्लीनिक से डाक्टर बुला कर उसे दवा दिलवाई और हल्दी मिला दूध दे कर उसे लौकअप के बजाय कमरे में सुला कर क्वार्टर पर चला आया. उस की निगरानी के लिए एक सिपाही की ड्यूटी लगा दी थी.

अगले दिन सवेरेसवेरे एक सिपाही ने मेरा दरवाजा खटखटाया और खबर दी कि मुलजिम विलायत अली जेल से फरार हो गया है. मैं सोच में पड़ गया. उस की हालत ऐसी नहीं थी कि वह भाग जाता. उसे काफी अंदरूनी चोटें लगी थीं.

यह मामला बड़े अफसरों तक पहुंच चुका था. मैं फटाफट थाने पहुंच गया. मैं सीधे उस कमरे में पहुंचा, जहां विलायत अली को सुलाया गया था. मैं ने देखा, कंबल, बिस्तर सब वैसा ही पड़ा था. कमरे की दीवार में करीब डेढ़ फुट का सुराख था.

जो सिपाही ड्यूटी पर था, उस से बात की तो उस ने बताया कि किसी वक्त उस की आंख लग गई और वह फरार हो गया. एकदम से मुझे खयाल आया कि कहीं बलराज ने ही तो नहीं मुलजिम को फरार करा दिया.

इस की वजह यह थी कि केस मेरे पास आने से उस की बेइज्जती हुई थी. थाने में 4-5 सिपाही उस के पक्के चमचे थे. मैं ने विलायत को लौकअप के बजाय अलग कमरे में सुलाया था.

जाहिर है, उस के फरार होने से मेरी ही बदनामी होनी थी. मुलजिम तो दीवार तोड़ कर जा नहीं सकता था. मुझे यकीन हो गया कि उसे भगाने में बलराज की ही साजिश थी. मैं विलायत अली के घर पहुंचा. उस के बूढ़े बाप ने दरवाजा खोला. मुझे देख कर वह कांपने लगा.

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मांबहन भी बाहर आ गईं. सभी बुरी तरह से डरे हुए थे. मां ने पूछा, ‘‘थानेदार साहब, मेरा पुत्तर तो अच्छा है न?’’

उस की बात का जवाब दिए बिना मैं ने फौरन घर की तलाशी ली. पर विलायत अली वहां नहीं था. मैं ने उस की मां से कहा, ‘‘तेरे पुत्तर को मेरी मेहरबानी रास नहीं आई. वह थाने से फरार हो गया है. सचसच बता दे कि वह कहां छिप सकता है? इसी में उस की खैर है.’’

‘‘मुझे नहीं मालूम वह कहां है. पर मैं तुम से कुछ नहीं छिपाऊंगी. उस की पूरी कहानी बताए देती हूं. साहब मेरा बेटा विलायत स्कूल के सामने ठेली लगा कर कुल्फी बेचता था.

पता नहीं कैसे स्कूल की एक मास्टरनी सुलेखा का दिल उस पर आ गया. कुछ दिन तो यह सब चला, फिर उस मास्टरनी ने सब कुछ भुला कर किसी और से शादी कर ली.

‘‘इस से मेरे बेटे को इतनी ठेस पहुंची कि वह फकीरों की तरह मारामारा फिरने लगा. उस ने अपना कामधंधा सब छोड़ दिया. सुबह को घर से जाता तो शाम को ही घर आता.

4-5 दिन पहले पुलिस उसे चोरी के आरोप में पकड़ ले गई. साहब, मैं दावे से कह सकती हूं कि मेरा बेटा चोरी हरगिज नहीं कर सकता. मुझे तो इस में उस मास्टरनी की ही साजिश लगती है.’’

उस की बात सुन कर मैं बाहर आ गया. मेरा इरादा मास्टरनी के घर जाने का था. मास्टरनी की गली में नुक्कड़ पर पान की दुकान थी. वहीं पर मैं ने जीप रुकवा ली.

पान वाला मुझे जानता था. मैं ने उस से विलायत अली और मास्टरनी के बारे में पूछा तो उस ने मास्टरनी के बारे में मुझे ढेर सारी जानकारी दी. मैं पान वाले की दुकान पर खड़ा था, तभी मास्टरनी के घर से एक आदमी साइकिल ले कर निकला.

पता चला कि वह उस मास्टरनी का पति नजीर था, जो इनकम टैक्स विभाग में चपरासी था. उस के पीछेपीछे मास्टरनी भी दरवाजे तक आ गई. मैं देख कर हैरान रह गया कि अदने और साधारण से आदमी से खूबसूरती की मल्लिका मास्टरनी ने शादी कैसे कर ली?

और तो और, वह उम्र में भी उस से काफी बड़ा था. उस की पहली बीवी मर चुकी थी. यह मकान उस ने 4-5 महीने पहले ही लिया था. इस से पहले वह एक कमरे में किराए पर रहता था. चपरासी की नौकरी में उस ने इतना आलीशान मकान कैसे खरीद लिया, इस बात की मुझे हैरानी हो रही थी. अभी मैं सोच ही रहा था कि गनपतलाल लपक कर मेरे पास आया.

मैं उसे अच्छी तरह से जानता था. उस का अपनी पार्टी में अच्छा रसूख था. हाथ मिला कर वह मुझ से घर चलने का अनुरोध करने लगा. मैं ने उस से कहा कि मैं नजीर के बारे में मालूम करने आया था. इस पर उस ने कहा, ‘‘फिर तो आप मेरे साथ चलिए. उस के बारे में मुझ से ज्यादा कौन बता सकता है.’’

मेरा मकसद विलायत तक पहुंचना था. सोचा कि शायद गनपतलाल से ही उस के बारे में कोई जानकारी मिल जाए, इसलिए मैं उस के साथ उस की कोठी में चला गया. मेरे पूछने पर उस ने बताया, ‘‘नजीर काफी तेज बंदा है. वह मेरे पास अकसर आताजाता रहता है.

इनकम टैक्स में चपरासी है, पर उस की काफी पैठ है. शायद उस ने अभी कोई लंबा हाथ मारा है, जो कोठी खरीद ली है. खान साहब, इस की बीवी बड़ी खूबसूरत है. पता नहीं इस ने क्या चक्कर चलाया कि उस ने इस से शादी कर ली.’’ मैं ने पूछा, ‘‘आप इस की बीवी के बारे में कुछ जानते हों तो बताएं.’’

वह कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘खान साहब, मैं उस की मां को ही बुलवा लेता हूं. आप जो चाहें, उसी से पूछ लेना.’’ कह कर उस ने अपने एक आदमी को कुछ कह कर भेज दिया. करीब 10 मिनट में उस का आदमी एक बूढ़ी औरत को बुला लाया.

वह औरत डरीसहमी थी. उस के माथे पर पट्टी बंधी थी. मैं ने पूछा, ‘‘अम्मा, कल रात एक मुलजिम थाने से फरार हुआ है. मैं ने सुना है कि तुम्हारी बेटी का उस से नाम जोड़ा जाता रहा है.’’

मेरी इस बात से उस का चेहरा उतर गया, वह दुखी हो कर बोली, ‘‘साहब, मेरी बेटी का उस से कोई ताल्लुक नहीं था, वह लड़का ही उस के पीछे पड़ा था. अब शादी के बाद वह बात भी खत्म हो गई,’’

उस की बात से मैं संतुष्ट नहीं था. इसलिए वहां से 12 बजे के करीब मैं थाने आ गया. थाने में सब के मुंह पर हवाइयां उड़ रही थीं. मैं डीएसपी साहब के कमरे में पहुंचा. बलराज मुंह फुलाए एक कोने में खड़ा था. डीएसपी साहब काफी गुस्से में थे. मेरे सैल्यूट के जवाब में बोले, ‘‘क्या रिपोर्ट है नवाज?’’

मैं ने कहा, ‘‘सर, सुबह से उसी कोशिश में लगा हुआ हूं, पर अभी कुछ पता नहीं चला.’’

‘‘नवाज खां, कोशिश नहीं, मुझे रिजल्ट चाहिए और मुलजिम मिलना चाहिए. तुम्हें पता नहीं कि यहां क्या हुआ? आधे घंटे पहले थाने के सामने 2 हजार आदमी जमा हो गए थे.

वे मांग कर रहे थे कि पुलिस के जुल्म से जो आदमी मरा है, उस की मौत की जिम्मेदार पुलिस है. मरने वाले की लाश हमें दो.’’ डीएसपी साहब ने गुस्से में कहा.

बलराज तीखे स्वर में बोला, ‘‘यह सब नवाज खान की नरमी की वजह से हुआ.’’

‘‘खामोश रहो,’’ मैं डीएसपी साहब की मौजूदगी में चिल्ला पड़ा, ‘‘यह मेरी नरमी की वजह से नहीं, तुम्हारी सख्ती का नतीजा है. तुम ने उसे जानवरों की तरह मारा.

तुम ने उस से पैसे वसूल किए. तुम्हारे मातहत ने उस की मांबहन को तंग किया. सिर्फ तुम्हारी वजह से वह छत से कूद कर खुदकुशी कर रहा था. गनीमत समझो कि टाहम पर पहुंच कर मैं ने उसे बचा लिया, वरना तुम्हारी तो बेल्ट उतर चुकी होती.’’ मेरा गुस्सा देख कर बलराज चुप हो गया. इस बार डीएसपी साहब नरमी से बोले, ‘‘देखो, आपस में अंगुलियां उठाने से कोई फायदा नहीं. यह हमारी इज्जत का सवाल बन गया है. कुछ सियासी लोग मामले को हवा दे रहे हैं. इस वक्त साढ़े 12 बजे हैं.

कल सुबह साढ़े 10 बजे तक मुलजिम मिल जाना चाहिए. हमारे पास 22 घंटे हैं. उसे ढूंढ़ कर लाना तुम दोनों की जिम्मेदारी है. इस बारे में जो मदद चाहिए, वह मिलेगी. एसपी साहब भी कौन्टैक्ट में हैं.’’

मैं अपने कमरे में गया. एएसआई विलायत अली के 4 दोस्तों को पकड़ लाया था, पर उन से कोई खास बात मालूम नहीं हो सकी थी. बस यही पता चला कि विलायत स्कूल के सामने कुल्फी बेचता था.

मास्टरनी जुलेखा उसी स्कूल में पढ़ाती थी. एक दिन वह स्कूल से निकल कर तांगे में बैठी तो घोड़ा बिदक कर भागा. विलायत अली फौरन तांगे के पीछे भागा.

कुछ दूर दौड़ कर वह उस पर चढ़ गया. तांगा एक पुलिया से टकराया और नहर में गिर गया. जुलेखा पानी के तेज बहाव में बहने लगी. बड़ी मुश्किल से विलायत ने उसे बचा कर बाहर निकाला.

इस कोशिश में उसे चोटें भी लगीं. उसे अस्पताल में भरती करना पड़ा. जुलेखा उस की देखरेख के लिए रोज अस्पताल जाती थी. वहीं से यह मुहब्बत शुरू हुई. इस के 4-5 महीने बाद अचानक जुलेखा ने शादी कर ली.

शादी के बाद विलायत अली पागल सा हो गया. यह भी पता चला था कि चोरी वाले दिन सेठ अहद का एक नौकर विलायत को उस के घर से बुला कर ले गया था.

सेठ अहद ने ही उस पर चोरी का इलजाम लगाया था. थाने में लिखाई गई रिपोर्ट में सेठ अहद ने लिखवाया था कि विलायत उस के घर काम मांगने आया था. सेठ ने चोरी का जो टाइम रिपोर्ट में लिखाया था, उस वक्त वह अपने दोस्तों के साथ पान की दुकान पर था. उस वक्त सुबह के 10 बजे थे.

वक्त बहुत कम था. डीएसपी साहब के दिए टाइम में 2 घंटे बीत चुके थे. मैं ने सेठ अहद और मास्टरनी के पति नजीर से मिलने का फैसला किया.

रवाना होते समय मैं ने बलराज से पूछा, ‘‘अगर तुम्हारे दिमाग में कोई प्लान हो तो बताओ, मिल कर काम करते हैं.’’ उस ने तीखे लहजे में कहा, ‘‘नवाज खां, मेरे और तुम्हारे रास्ते अलगअलग हैं. इसलिए तुम अपनी राह जाओ.’’

मैं ने पहले ही 3-4 टीमें बना कर विलायत की तलाश में भेज दी थीं. सेठ अहद की लोहे के सामान बेचने की दुकान थी. 40-45 साल का दुबलापतला आदमी था. पता चला कि वह रंगीनमिजाज था. उस ने दुकान पर एक जवान खूबसूरत लड़की रख रखी थी.

मैं ने अहद से पूछताछ की तो उस ने वही बातें बताईं, जो मुझे पहले से पता थीं. कोई काम की बात पता न चलने पर मैं ने उसे शहर न छोड़ने की हिदायत दी. उस पर नजर रखने के लिए मैं ने सादा लिबास में एक सिपाही की ड्यूटी लगा दी. इस के बाद मैं चपरासी नजीर के यहां पहुंचा.

दरवाजा उस की खूबसूरत बीवी जुलेखा ने खोला. मुझे देख कर वह सहम गई. मैं ने तेज लहजे में पूछा, ‘‘तेरा शौहर कहां है?’’

‘‘जी…जी, वह अभी औफिस से नहीं आए हैं.’’ मैं ने उसे धमकाते हुए कहा, ‘‘देख लड़की, अगर अपनी खैर चाहती है तो विलायत अली के बारे में सब कुछ सचसच बता दे, वरना तेरा अंजाम बहुत बुरा होगा.’’ मेरी डांट से उस का चेहरा पीला पड़ गया.

वह डर गई और चेहरा हाथों से छिपा कर फूटफूट कर रो पड़ी. रोतेरोते ही बोली, ‘‘थानेदार साहब, अगर मैं ने कुछ भी बोल दिया तो वह मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा. जान से मार देगा.’’

मैं गरजा, ‘‘कोई तुझे हाथ नहीं लगा सकता. यह कानूनी मामला है. हम तेरी पूरी मदद करेंगे.’’ मेरी बात पर उस के अंदर जैसे कुछ हिम्मत आई. अपनी बात कहने के लिए मुंह खोलने ही वाली थी कि तभी बाहरी दरवाजे से साइकिल का अगला पहिया अंदर आया और तेज आवाज आई, ‘‘ले साइकिल पकड़, कहां मर गई कमीनी?’’

इस आवाज पर वह डर गई. वह दरवाजे की तरफ जाने को हुई, लेकिन उस के उठने से पहले ही एक सिपाही ने आगे बढ़ कर साइकिल पकड़ ली. यह उस का पति नजीर था. अंदर का हाल देख कर वह हैरान रह गया. मुझे सलाम कर के बोला, ‘‘साहब, यह क्या हो रहा है?’’

मैं ने उस से तेज लहजे में पूछा, ‘‘कितनी तनख्वाह है तेरी?’’

‘‘जी 20 हजार रुपए.’’

‘‘क्या स्मगलिंग करता है, कहां से पैसा कमा कर इतना अच्छा घर खरीदा?’’

‘‘नहीं जनाब, कैसी बातें कर रहे हैं? मैं ईमानदार, शरीफ आदमी हूं.’’

उस ने इतना ही कहा था कि मैं ने एक जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर मारा. वह उछल कर साइकिल पर गिरा. उस की कमीज पकड़ कर मैं उसी कमरे में ले गया, जहां उस की बीवी बैठी थी.

बीवी के सामने हुई बेइज्जती से वह गुस्से से पगला सा गया. उस ने लपक कर सब्जी काटने वाली छुरी उठा ली और तेजी से घुमा कर मुझ पर वार कर दिया. लेकिन छुरी मेरे पेट से 2 इंच फासले से निकल गई. मैं बच गया. मैं ने लपक कर उस की कलाई थाम ली और एक लात उस के पेट पर मारी. वह धड़ाम से गिरा. इस के बाद एएसआई ने उस पर लातघूंसों की बारिश कर दी.

मुझे लगा कि जुलेखा के सिर से शौहर के डर का भूत उतर गया है तो मैं ने कहा, ‘‘देख लड़की, अब किसी से डरने की जरूरत नहीं है. बिना डर के सब कुछ बता दे.’’

‘‘इंसपेक्टर साहब, मुझे और मेरी मां को तो कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा?’’

मैं ने उसे भरोसा दिया और मदद का वायदा किया. मैं उसे दूसरे कमरे में ले गया.

वहां उस ने बताया, ‘‘साहब, मुझ पर बड़ा जुल्म हुआ है, मुझे बुरी तरह लूटा गया है. मैं ने यह जुल्म अपनी मां की खातिर बरदाश्त किया. आज से कोई 9 महीने पहले की बात है. मैं स्कूल में पढ़ाती थी. उसी स्कूल का एक कलर्क पता नहीं मुझ से क्यों दुश्मनी रखता था.

उस की वजह से मेरी 4-5 माह की तनख्वाह रुकी हुई थी. मेरी एक सहेली ने मुझे नेताजी गनपतलाल से मिलने की सलाह दी. ‘‘मैं उस से मिलने गई. मैं ने सारी विपदा कही. वह मुझ से बहुत अच्छे से मिला और उस ने मेरा काम करवाने का वायदा किया. इसी सिलसिले में मैं उस से मिलती रही. उसी बीच उस की नीयत मुझ पर खराब हो गई.

उस ने मुझे इस तरह अपने जाल में फंसाया कि मुझे अपनी बरबादी साफ नजर आने लगी. मैं होशियार हो गई. जब उसे अंदाजा हुआ कि मैं उस के हाथ नहीं आऊंगी तो उस ने पैंतरा बदला. एक दिन उस ने कहा, ‘जुलेखा, मैं तुम से ब्याह करना चाहता हूं.’

‘‘मैं ने तुरंत इनकार कर दिया. उसे ताज्जुब हुआ कि इतने मशहूर और रईस आदमी से मैं ने शादी से इनकार कर दिया. वह गुस्से में पागल हो गया. मुझे धमकी देने लगा कि वह मुझे ऐसी सजा देगा कि मैं उम्र भर तड़पती रहूंगी. शादी से पहले नजीर उस के यहां चमचागिरी करता था.

एक बार उस ने मुझ से बेहूदा मजाक किया तो मैं ने उसी समय उसे एक थप्पड़ जड़ दिया. ‘‘इस घटना के कुछ दिनों बाद नजीर मेरी मां के पास मेरा रिश्ता मांगने पहुंचा. मां ने मेरी शादी उस के साथ करने से मना कर दिया. इस के बाद एक औरत मेरी मां के पास नजीर के लिए मेरा रिश्ता मांगने आई.

मां ने फिर इनकार कर दिया. इस के बाद दूसरी औरत रिश्ता मांगने आई. मां ने उसे भी डांट कर भगा दिया.

‘‘दूसरे दिन मेरे छोटे भाई को उस के हौस्टल से किसी ने अगवा कर लिया. जब हमें पता चला कि इस के पीछे गनपतलाल का हाथ है तो हम रिपोर्ट दर्ज कराने थाने पहुंचे. लेकिन उस के खिलाफ रिपोर्ट नहीं लिखी गई. हमें डराधमका कर थाने से भगा दिया गया.

उसी रात गनपतलाल की तरफ से एक खत मिला, जिस में लिखा था, ‘तुम्हारा भाई वापस हौस्टल पहुंच गया है. ध्यान रखो, अगली बार गायब होगा तो हौस्टल में नहीं, मुरदाखाने में मिलेगा.’

‘‘उस रात मैं और मेरी मां बहुत रोईं. इस के बाद बेबस और मजबूर हो कर मुझे नजीर से शादी करनी पड़ी. तब से मैं बड़ी जिल्लत के साथ जी रही हूं. मेरी मां से भी नजीर बड़ा बुरा व्यवहार करता है. पिछले दिनों उस ने उन्हें कांच का गिलास फेंक कर मारा था.’’ इतना कह कर वह सिसकने लगी. उस की दुखभरी दास्तान सुन कर मेरा भी दिल भर आया. मैं ने पूछा, ‘‘यह कुल्फी वाले विलायत का क्या किस्सा है?’’

जुलेखा बोली, ‘‘साहब, मैं नादान बच्ची नहीं, पढ़ीलिखी समझदार हूं. विलायत से मैं ने कभी शादी के बारे में सोचा तक नहीं था, पर अब मुझे लग रहा है कि वह गनपतलाल व नजीर से बेहतर इंसान था. उस ने जान पर खेल कर मेरी जिंदगी बचाई थी.

उस का यह एहसान मैं कभी नहीं भूल सकती. उसे झूठे चोरी के केस में फंसाया गया है. जरूर इस के पीछे इन्हीं लोगों का हाथ होगा.’’ यह एक खास बात थी, जो मैं ने दिमाग में रख ली. विलायत अली के बारे में उसे कुछ खबर नहीं थी. मैं ने नजीर को गिरफ्तार किया और एक सिपाही को जुलेखा की हिफाजत के लिए छोड़ा. जुलेखा के भाई को भी हौस्टल से निकाल कर बहन के पास पहुंचा दिया.

नजीर को ले कर मैं थाने पहुंचा. थाने के गेट पर बहुत से सिपाही खड़े थे. सभी परेशान थे. पूछने पर एक सिपाही ने कहा, ‘‘साहब, बलराज साहब की किसी ने गोली मार कर हत्या कर दी है.’’

एक पल को मेरा दिमाग सुन्न हो गया. नजीर को 2 सिपाहियों के हवाले किया और 2 सिपाहियों के साथ मौकाएवारदात के लिए रवाना हो गया. सिपाही ने मुझे बताया था कि बलराज की लाश एक बोरी में दरिया के किनारे मिली थी.

जब मैं वहां पहुंचा तो पुलिस वाले काररवाई कर रहे थे. डीएसपी साहब भी वहीं मौजूद थे. गोली बलराज के हलक में लगी थी. जिस्म पर वर्दी मौजूद थी, पर उस की हालत से लगता था कि उस की किसी से जम कर हाथापाई हुई थी. अचानक मेरे दिमाग में एक खयाल आया. बलराज चंद घंटे पहले जब थाने से निकला था तो वह ऐसे निकला था, जैसे मुलजिम को ले कर ही आएगा. पर उस का तो कत्ल हो गया था.

डीएसपी समेत तमाम अमला ड्यूटी पर था. जैसेजैसे रात बीत रही थी, सब की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. विलायत की तलाश में भेजी गई सारी टीमें मुस्तैदी से अपने काम में लगी थीं. बलराज के कत्ल ने मामले को और संगीन बना दिया था. हमारे पास सुबह साढ़े 10 बजे तक का वक्त था.

एसपी साहब की इत्तला के मुताबिक हालात बहुत खराब थे. शहर में काफी तनाव था. खबर मिली कि सुबह को हजारों लोग जुलूस की शक्ल में थाने तक पहुंचेंगे और धरना देंगे. डर यह था कि कहीं भीड़ थाने पर हमला न कर दे.

इस खतरे को टालना जरूरी था और उस के लिए एक ही रास्ता था, विलायत अली की बरामदगी. उस वक्त रात के ढाई बजे थे. डीएसपी साहब ने मुझे अपने कमरे में बुलाया. मैं उस वक्त नजीर से पूछताछ कर रहा था. सख्ती करने के बाद उस ने बताया कि उसी के कहने पर ही गनपतलाल और सेठ अहद ने विलायत अली को चोरी के झूठे केस में फंसाया था, लेकिन उसे उस के फरार होने के बारे में कुछ पता नहीं था. जब मैं डीएसपी साहब के कमरे में पहुंचा तो वहां वह सिपाही भी मौजूद था, जिसे मैं ने सेठ अहद की कोठी पर लगाया था.

डीएसपी के कहने पर उस ने मेरे सामने अपनी रिपोर्ट दोहराई. उस ने बताया कि शाम 4 बजे बलराज सेठ अहद के घर गया था. फिर दोनों एक कार में बैठ कर कहीं चले गए थे. उस के डेढ़ घंटे बाद बलराज की लाश मिली थी. इस रिपोर्ट में खास बात यह थी कि बलराज ने ही विलायत को फरार कराया था और उस में सेठ अहद भी शामिल था.

डीएसपी से सलाह ले कर मैं सीधा सेठ अहद को गिरफ्तार करने पहुंचा. उस वक्त सुबह हो रही थी. सेठ अहद ने अपनी गिरफ्तारी पर बहुत हंगामा किया, धमकियां भी दीं. उस की कोठी की भी तलाशी ली गई, लेकिन वहां कुछ नहीं मिला. सेठ अहद के थाने पहुंचते ही गनपतलाल और अन्य लोगों के सिफारिशी फोन आने लगे. इतना ही नहीं, 3-4 कारों से कुछ रसूख वाले लोग भी आए.

एसपी साहब भी थाने पहुंच गए. रसूखदार लोग सेठ अहद को जमानत पर छोड़ने की सिफारिश कर रहे थे. एसपी साहब ने उन की बात नहीं मानी. सेठ अहद से पूछताछ जारी थी. सुबह साढ़े 8 बज रहे थे, पर उस ने कुछ नहीं बताया था.

एकाएक मेरे जेहन में बिजली कौंधी, मैं उछल पड़ा. मैं भागता हुआ एसपी साहब के पास पहुंचा. मैं ने पूछा, ‘‘सर, इस जुलूस का सरगना कौन है? इस विरोध के पीछे कौन है?’’

एसपी साहब बोले, ‘‘वैसे तो 2-4 लोग हैं, पर खास नाम नेता गनपतलाल का है.’’

मैं तुरंत 5-6 सिपाहियों व एक एएसआई को ले कर डीएसपी साहब की जीप से फौरन रवाना हो गया. मैं सीधा गनपतलाल की कोठी पर पहुंचा. उस समय गनपतलाल वहां नहीं था. कोठी की तलाशी लेने पर एक अंधेरे कमरे में विलायत मिल गया. तुरंत उसे कब्जे में ले कर कोठी से निकल आया.

ठीक डेढ़ घंटे बाद जब मैं थाने वाली सड़क पर मुड़ा तो ट्रैफिक पुलिस वाले ने बताया कि आगे रास्ता बंद है. एक बड़ा जुलूस थाने की तरफ गया है. मैं ने घड़ी देखी, 11 बजने वाले थे. मुलजिम विलायत अली मेरी जीप में 2 सिपाहियों के बीच पिछली सीट पर बैठा था.

रास्ता बदल कर मैं थाने पहुंचा. मैं ने देखा 3-4 हजार लोगों का एक बड़ा हुजूम थाने की तरफ आ रहा था. लेकिन पुलिस ने भीड़ को थाने से करीब 50 गज दूर रोक रखा था.

मैं जीप ले कर भीड़ के पास पहुंच गया. भीड़ में सब से आगे मुझे गनपतलाल नजर आया. उस के आसपास नौजवानों ने घेरा बना रखा था. वे जोरजोर से नारे लगा रहे थे. मैं ने डीएसपी साहब से मेगाफोन मांगा. उन दिनों यह नयानया आया था.

मैं ने मेगाफोन पर गनपतलाल का नाम पुकारा. एकदम शांति छा गई. मैं ने पूछा, ‘‘गनपतलाल, आप की डिमांड क्या है?’’

गनपतलाल भड़क कर 2 कदम आगे आया. वह चीख कर बोला, ‘‘आग लगाना चाहते हैं हम इस जुल्म के गढ़ को, जहां विलायत अली जैसे बेगुनाह लोगों की जान ली जाती है.’’ मैं ने एएसआई को इशारा किया. उस ने विलायत अली को थाम कर सारे हुजूम के सामने खड़ा कर दिया.

विलायत को जीवित देख कर गनपतलाल का चेहरा एकदम सफेद पड़ा गया. उस की आंखें फटी की फटी रह गईं. भीड़ में कुछ विलायत अली के रिश्तेदार भी थे. उन्होंने आगे बढ़ कर उसे गले लगा लिया और जोर से पूछा, ‘‘विलायत अली, तुम किस की कैद में थे?’’ विलायत के एक रिश्तेदार ने मुझ से मेगाफोन ले कर जोश में कहा, ‘‘इस में पुलिस का कुसूर नहीं है. यह सारा दोष गनपतलाल का है.’’

भीड़ में मौजूद लोग आपस में खुसुरफुसुर करने लगे. मेरी नजर गनपतलाल पर ही जमी थी. अचानक वह लड़खड़ा कर गिर पड़ा. पुलिस वाले तेजी से उस की ओर बढ़े.

उसे पुलिस की गाड़ी से अस्पताल भेजा गया, जहां पता चला कि उसे दिल का दौरा पड़ा था. अस्पताल में जब उसे होश आया तो उस से पूछताछ की गई. पता चला कि बलराज ने सेठ अहद और गनपतलाल के साथ मिल कर ही विलायत अली को थाने से फरार कराया था.

बलराज के साथ उन दोनों के गहरे संबंध थे. इस तरह उन लोगों ने एक तीर से 2 शिकार किए थे. बलराज को मुझ से बदला लेना था और गनपतलाल को वह आदमी मिल गया था, जिस का वह कत्ल करना चाहता था.

वह उस का कत्ल कर के नजीर की इच्छा पूरी करना चाहता था, ताकि नजीर पर उस की पकड़ मजबूत हो जाए. लेकिन हालात कुछ इस तरह बने कि लोग पुलिस का विरोध करने पर उतर आए. गनपतलाल पुलिस को बदनाम करने का मौका खोना नहीं चाहता था.

वह अपनी राजनीति की दुकान चमकाना चाहता था. उसी ने लोगों को भड़काया था कि पुलिस के जुल्म से विलायत मर गया है. विभागीय दबाव बढ़ने पर बलराज ने गनपतलाल से विलायत को छोड़ने के लिए कहा. उस ने उस की बात नहीं मानी. इसी बात पर दोनों में कहासुनी हुई, जो हाथापाई तक जा पहुंची. उसी दौरान बलराज ने रिवौल्वर निकाला. हाथापाई में बलराज से गोली चल गई, जो उसी को लगी.

जुलूस के सामने अगर विलायत को पेश नहीं किया जाता तो हालात बिगड़ सकते थे. जांच में नजीर मुलजिमों का साथी साबित हुआ. उस पर गबन का भी केस बना. अदालत में मामला चला तो उसे 7 सालों की सजा हुई.

सेठ अहद और गनपतलाल को मौत की सजा हुई. बाद में हाईकोर्ट ने उन की सजा को उम्रकैद में बदल दिया. जुलेखा ने केस लड़ कर पति से तलाक ले लिया. बाद में उस ने विलायत अली से निकाह कर लिया. विलायत ने 2 सालों में बहुत तरक्की की. वह बर्फ के एक कारखाने में हिस्सेदार है. जुलेखा उस के साथ खुश है.

शिणगारी : लालच और हवस की कहानी

बंजारों के एक मुखिया की बेटी थी शिणगारी. मुखिया के कोई बेटा नहीं था. शिणगारी ही उस का एकमात्र सहारा थी. बेहद खूबसूरत शिणगारी नाचने में माहिर थी.

शिणगारी का बाप गांवगांव घूम कर अपने करतब दिखाता था और इनाम हासिल कर अपना व अपनी टोली का पेट पालता था.

शिणगारी में जन्म से ही अनोखे गुण थे. 17 साल की होतेहोते उस का नाच देख कर लोग दांतों तले उंगली दबाने लगे थे.

ऐसे ही एक दिन बंजारों की यह टोली उदयपुर पहुंची. तब उदयपुर नगर मेवाड़ राज्य की राजधानी था. महाराज स्वरूप सिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे थे. उन के दरबार में वीर, विद्वान, कलाकार, कवि सभी मौजूद थे. एक दिन महाराज का दरबार लगा हुआ था. वीर, राव, उमराव सभी बैठे थे. महफिल जमी थी. शिणगारी ने जा कर महाराज को प्रणाम किया.

अचानक एक खूबसूरत लड़की को सामने देख मेवाड़ नरेश पूछ बैठे, ‘‘कौन हो तुम?’’ ‘‘शिणगारी… महाराज. बंजारों के मुखिया की बेटी हूं…’’ शिणगारी अदब से बोली, ‘‘मुजरा करने आई हूं.’’

‘‘ऐसी क्या बात है तुम्हारे नाच में, जो मैं देखूं?’’ मेवाड़ नरेश बोले, ‘‘मेरे दरबार में तो एक से बढ़ कर एक नाचने वालियां हैं.’’

‘‘पर मेरा नाच तो सब से अलग होता है महाराज. जब आप देखेंगे, तभी जान पाएंगे,’’ शिणगारी बोली.

‘‘अच्छा, अगर ऐसी बात है, तो मैं तुम्हारा नाच जरूर देखूंगा. अगर मुझे तुम्हारा नाच पसंद आ गया, तो मैं तुम्हें राज्य का सब से बढि़या गांव इनाम में दूंगा. अब बताओ कि कब दिखाओगी अपना नाच?’’ मेवाड़ नरेश ने पूछा. ‘‘मैं सिर्फ पूर्णमासी की रात को मुजरा करती हूं. मेरा नाच खुले आसमान के नीचे चांद की रोशनी में होता है…’’ शिणगारी बोली, ‘‘आप अपने महल से पिछोला सरोवर के उस पार वाले टीले तक एक मजबूत रस्सी बंधवा दीजिए. मैं उसी रस्सी पर तालाब के पानी के ऊपर अपना नाच दिखाऊंगी.’’

शिणगारी के कहे मुताबिक मेवाड़ नरेश ने अपने महल से पिछोला सरोवर के उस पार बनेरावला दुर्ग के खंडहर के एक बुर्ज तक एक रस्सी बंधवा दी.

पूर्णमासी की रात को सारा उदयपुर शिणगारी का नाच देखने के लिए पिछोला सरोवर के तट पर इकट्ठा हुआ. महाराजा व रानियां भी आ कर बैठ गए.

चांद आसमान में चमक रहा था. तभी शिणगारी खूब सजधज कर पायलें छमकाती हुई आई. उस ने महाराज व रानियों को झुक कर प्रणाम किया और दर्शकों से हाथ जोड़ कर आशीर्वाद मांगा. फिर छमछमाती हुई वह रस्सी पर चढ़ गई. नीचे ढोलताशे वगैरह बजने लगे.

शिणगारी लयताल पर उस रस्सी पर नाचने लगी. एक रस्सी पर ऐसा नाच आज तक उदयपुर के लोगों ने नहीं देखा था. हजारों की भीड़ दम साधे यह नाच देख रही थी. खुद मेवाड़ नरेश दांतों तले उंगली दबाए बैठे थे. रानियां अपलक शिणगारी को निहार रही थीं.

नाचतेनाचते शिणगारी पिछोला सरोवर के उस पार रावला दुर्ग के बुर्ज पर पहुंची, तो जनता वाहवाह कर उठी. खुद महाराज बोल पड़े, ‘‘बेजोड़…’’

कुछ पल ठहर कर शिणगारी रस्सी पर फिर वापस मुड़ी. बलखातीलहराती रस्सी पर वह ऐसे नाच रही थी, जैसे जमीन पर हो. इस तरह वह आधी रस्सी तक वापस चली आई.

अभी वह पिछोला सरोवर के बीच में कुछ ठहर कर अपनी कला दिखा ही रही थी कि किसी दुष्ट के दिल पर सांप लोट गया. उस ने सोचा, ‘एक बंजारिन मेवाड़ के सब से बड़े गांव को अपने नाच से जीत ले जाएगी. वीर, उमराव, सेठ इस के सामने हाथ जोड़ेंगे. क्षत्रियों को झुकना पड़ेगा और ब्राह्मणों को इस की दी गई भिक्षा ग्रहण करनी पड़ेगी…’ और तभी रावला दुर्ग के बुर्ज पर बंधी रस्सी कट गई.

शिणगारी की एक तेज चीख निकली और छपाक की आवाज के साथ वह पिछोला सरोवर के गहरे पानी में समा गई.

सरोवर के पानी में उठी तरंगें तटों से टकराने लगीं. महाराज उठ खड़े हुए. रानियां आंसू पोंछते हुए महलों को लौट गईं. भीड़ में हाहाकार मच गया. लोग पिछोला सरोवर के तट पर जा खड़े हुए. नावें मंगवाई गईं. तैराक बुलाए गए. तालाब में जाल डलवाया गया, पर शिणगारी को जिंदा बचा पाना तो दूर उस की लाश तक नहीं खोजी जा सकी.

अगले दिन दरबार लगा. शिणगारी का पिता दरबार में एक तरफ बैठा आंसू बहा रहा था.

मेवाड़ नरेश बोले, ‘‘बंजारे, हम तुम्हारे दुख से दुखी हैं, पर होनी को कौन टाल सकता है. मैं तुम्हें इजाजत देता हूं कि तुम्हें मेरे राज्य का जो भी गांव अच्छा लगे, ले लो.’’

‘‘महाराज, हम ठहरे बंजारे. नाच और करतब दिखा कर अपना पेट पालते हैं. हमें गांव ले कर क्या करना है. गांव तो अमीर उमरावों को मुबारक हो…’’ शिणगारी का बाप रोतेरोते कह रहा था, ‘‘शिणगारी मेरी एकलौती औलाद थी. उस की मां के मरने के बाद मैं ने बड़ी मुसीबतें उठा कर उसे पाला था. वही मेरे बुढ़ापे का सहारा थी. पर मेरी बेटी को छलकपट से तो नहीं मरवाना चाहिए था अन्नदाता.’’

मेवाड़ नरेश कुछ देर सिर झुकाए आरोप सुनते रहे, फिर तड़प कर बोले, ‘‘तेरा आरोप अब बरदाश्त नहीं हो रहा है. अगर तुझे यकीन है कि रस्सी किसी ने काट दी है, तो तू उस का नाम बता. मैं उसे फांसी पर चढ़वा कर उस की सारी जागीर तुझे दे दूंगा.’’

‘‘ऐसी जागीर हमें नहीं चाहिए महाराज. हम तो स्वांग रच कर पेट पालने वाले कलाकार हैं,’’ शिणगारी के पिता ने कहा. ‘‘तो तुम जो चाहो मांग लो,’’ मेवाड़ नरेश गरजे.

‘‘नहीं महाराज…’’ आंसुओं से नहाया बंजारों का मुखिया बोला, ‘‘जिस राज्य में कपटी व हत्यारे लोग रहते हैं, वहां का इनाम, जागीर, गांव लेना तो दूर की बात है, वहां का तो मैं पानी भी नहीं पीऊंगा. मैं क्या, आज से उदयपुर की धरती पर बंजारों का कोई भी बच्चा कदम नहीं रखेगा महाराज.’’

यह सुन कर सभा में सन्नाटा छा गया. वह बंजारा धीरेधीरे चल कर दरबार से बाहर निकल गया.

इस घटना को बीते सदियां गुजर गईं, पर अभी भी बंजारे उदयपुर की जमीन पर कदम नहीं रखते हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी बंजारे अपने बच्चों को शिणगारी की कहानी सुना कर उदयपुर की जमीन से दूर रहने की हिदायत देते हैं.

जूही : आसिफ का प्यार

आसिफ दुकान बंद कर के जब अपने घर पहुंचा, तो ड्राइंगरूम के दरवाजे पर जा कर ठिठक गया. अंदर से उस के अम्मीअब्बा के बोलने की आवाजें आ रही थीं. ‘‘दुलहन तो मुश्किल से 16-17 साल की है और मास्टर साहब 40-50 के. बेचारी…’’

इतना सुनते ही आसिफ जल्दी से दीवार की आड़ में हो गया और सांस रोक कर सारी बातें बड़े ध्यान से सुनने लगा. ‘‘ऐसी शादी से तो बेहतर होता कि लड़की के मांबाप उसे जहर दे कर ही मार डालते,’’ आसिफ की अम्मी सलमा ने कहा.

‘‘तुम नहीं जानती सलमा, लड़की के मांबाप तो बचपन में ही चल बसे थे. गरीब मामामामी ने ही उस की परवरिश की है. 4-4 लड़कियां ब्याहने को हैं,’’ अब्बा ने बताया. ‘‘यह भी कोई बात हुई. कम से कम उस की जोड़ का लड़का तो ढूंढ़ लेते.

‘‘इतनी हसीन और कमसिन लड़की को इस बूढ़े के पल्ले बांधने की क्या जरूरत आ पड़ी थी, जिस के पहले ही 4-4 बच्चे हैं. ‘‘हाय, मुझे तो उस की जवानी पर तरस आ रहा है. कैसे देख रही थी वह मेरी तरफ. इस समय उस पर क्या बीत रही होगी,’’ अम्मी ने कहा.

आसिफ इस से आगे कुछ और सुनने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. वह धीरे से अपने कमरे में जा कर कुरसी पर बैठ गया. आसिफ आंखें मूंद कर सोने लगा, ‘क्या वाकई वह 16-17 साल की है? क्या सचमुच वह हसीन है? अगर वह खूबसूरत लगती होगी तो क्या मास्टर साहब की कमजोर आंखें उस के हुस्न की चमक बरदाश्त कर पाएंगी? आज की रात क्या वह… क्या मास्टर साहब…’ यह सोचतेसोचते उस का सिर चकराने लगा और वह कुरसी से उठ कर कमरे में टहलने लगा.

थोड़ी देर बाद आसिफ की अम्मी खाना रख गईं, मगर उस से खाया न गया. बड़ी मुश्किल से वह थोड़ा सा पानी पी कर बिस्तर पर लेट गया, पर उसे नींद भी नहीं आई. रातभर करवटें बदलते हुए वह न जाने क्याक्या सोचता रहा. सुबह हुई तो आसिफ मुंह में दातुन दबाए छत पर चढ़ गया और बेकरारी से टहलटहल कर मास्टर साहब के आंगन में झांकने लगा. कुछ ही देर में आंगन में एक परी दिखाई दी.

उसे देख कर आसिफ अपने होशोहवास खो बैठा. फिर कुछ संभलने के बाद उस की खूबसूरती को एकटक देखने लगा. परी को भी लगा कि कोई उसे देख रहा है. उस ने निगाहें ऊपर उठाईं तो आसिफ को देख कर वह शरमा गई और छिप गई. लेकिन आसिफ उस का मासूम चेहरा आंखों में लिए देर तक उस के खयालों में डूबा रहा. उस की धड़कनें तेज हो गई थीं. दिल में नई चाहत सी उमड़ पड़ी थी. वह फिर उस परी को देखना चाहता था, पर वह नजर न आई.

इस के बाद आसिफ रोज सुबहसुबह मुंह में दातुन दबाए छत पर चढ़ जाता. परी आंगन में आती. उस की निगाह आसिफ की निगाह से टकराती. फिर वह शरमा कर छिप जाती. लेकिन एक दिन आसिफ को देख कर उस की निगाह झुकी नहीं. वह उसे देखती रही. आसिफ भी उसे देखता रहा. फिर उन के चेहरे पर मुसकराहटें फूटने लगीं और बाद में तो उन में इशारेबाजी भी होने लगी.

अब उन दोनों के बीच केवल बातें होनी बाकी थीं. पर इस के लिए आसिफ को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. मास्टर साहब सुबहसवेरे घर से निकलते थे तो स्कूल से शाम को ही लौटते थे. उन के बच्चे भी स्कूल चले जाते थे. घर में केवल मास्टर साहब की अंधीबहरी मां रह जाती थीं.

एक दिन उस परी का इशारा पा कर आसिफ नजर बचा कर उन के घर में घुस गया. वह उसे बड़े प्यार से अपने कमरे में ले गई और पलंग पर बैठने का इशारा कर के खुद भी पास बैठ गई. थोड़ी घबराहट के साथ उन में बातचीत शुरू हुई. उस ने अपना नाम जूही बताया. आसिफ ने भी उसे अपना नाम बताया. फिर दोनों ने यह जाहिर किया कि वे एकदूसरे पर दिलोजान से मरते हैं.

आसिफ ने जूही के हाथों पर अपना हाथ रख दिया. वह सिहर उठी. उस पर नशा सा छाने लगा. आसिफ उस के जिस्म पर हाथ फेरने लगा. वह खामोश रही और खुद को आसिफ के हवाले करती चली गई. कुछ देर बाद जब वे दोनों एकदूसरे से अलग हुए तो जूही अपना दुखड़ा ले कर बैठ गई. ऐसा दुख जिस का आसिफ को पहले से अंदाजा था. लेकिन उस के मुंह से सुन कर आसिफ को पूरा यकीन हो गया. इस से उस का हौसला और भी बढ़ गया.

वह जूही को बांहों में भरते हुए बोला, ‘‘अब मैं तुम्हें कभी दुखी नहीं होने दूंगा.’’ उस के बाद तो उन के इस खेल का सिलसिला सा चल पड़ा. इस चक्कर में आसिफ अब सुबह के बजाय दोपहर को दुकान पर जाने लगा. वह रोज सुबह 10 बजे तक मास्टर साहब और उन के बच्चों के स्कूल जाने का इंतजार करता. जब वे चले जाते तो जूही का इशारा पा कर वह उस के पास पहुंच जाता. एक दिन वह मास्टर साहब के बैडरूम में पलंग पर लेट कर रेडियो पर गाने सुन रहा था. जूही उस के लिए रसोईघर में चाय बना रही थी. दरवाजा खुला हुआ था, जबकि रोज वह अंदर से बंद कर देती थी.

अचानक मास्टर साहब आ गए. उन का कोई जरूरी कागज छूट गया था. आसिफ को अपने पलंग पर आराम से पसरा देख मास्टर साहब के तनबदन में आग लग गई, पर उन्होंने सब्र से काम लिया और फाइल से कागज निकाल कर चुपचाप रसोईघर में चले गए.

‘‘आसिफ यहां क्या कर रहा है?’’ उन्होंने जूही से पूछा. अचानक मास्टर साहब की आवाज सुन कर जूही का पूरा जिस्म कांप गया और चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. लेकिन जल्दी ही वह संभलते हुए बोली, ‘‘जी, कुछ नहीं. जरा रेडियो का तार टूट गया था. मैं ने ही उसे बुलाया है.’’

मास्टर साहब फिर कुछ न बोले और चुपचाप घर से बाहर निकल गए. मास्टर साहब के बाहर जाने के बाद ही जूही की जान में जान आई. वह चाय छोड़ कर कमरे में आ गई. आसिफ अभी तक पलंग पर सहमा हुआ बैठा था.

आसिफ ने कांपती आवाज में पूछा, ‘‘वे गए क्या…?’’ ‘‘हां,’’ जूही ने कहा.

‘‘दरवाजा बंद नहीं किया था क्या?’’ आसिफ ने पूछा. ‘‘ध्यान नहीं रहा,’’ जूही बोली.

‘‘अच्छा हुआ कि हम…’’ वह एक गहरी सांस ले कर बोला. ‘‘लगता है, उन्हें शक हो गया है,’’ जूही चिंता में डूबते हुए बोली.

‘‘कुछ नहीं होगा…’’ आसिफ ने उस का कंधा दबाते हुए कहा, ‘‘अच्छा, अब मुझे चलना चाहिए,’’ इतना कह कर वह दुकान पर चला गया. उस के बाद उन्होंने कुछ दिनों तक मिलने से परहेज किया. जब वे मास्टर साहब की तरफ से पूरी तरह बेफिक्र हो गए, तो यह खेल फिर से

चल पड़ा और हफ्तोंमहीनों नहीं, बल्कि सालों तक चलता रहा. उस दौरान जूही 2 बच्चों की मां भी बन गई. एक दिन मास्टर साहब काफी गुस्से में घर में दाखिल हुए. किसी ने जूही के खिलाफ उन के कान भर दिए थे.

जूही को देखते ही मास्टर साहब उस पर बरस पड़े, ‘‘क्या समझती हो अपनेआप को. जो तुम कर रही हो, उस का मुझे पता नहीं है. आज के बाद अगर आसिफ यहां आया तो उसे जिंदा न छोड़ूंगा.’’

यह सुन कर जूही डर गई और कुछ भी नहीं बोली. फिर मास्टर साहब गुस्से में आसिफ के अब्बा के पास जा कर चिल्लाने लगे, ‘‘अपने लड़के को समझा दीजिए, मेरी गैरमौजूदगी में वह मेरे घर में घुसा रहता है. आज के बाद उसे वहां देख लिया तो गोली मरवा दूंगा.’’

आसिफ के अब्बा निहायत ही शरीफ इनसान थे, इसलिए उन्होंने अपने बेटे को खूब डांटाफटकारा. इस का नतीजा यह हुआ कि एक दिन आसिफ ने मास्टर साहब को रास्ते में रोक लिया. ‘‘अब्बा से क्या कहा तुम ने? मुझे गोली मरवाओगे? तुम्हारी खोपड़ी उड़ा दूंगा, अगर उन से कुछ कहा तो,’’ आसिफ ने मास्टर साहब का गरीबान पकड़ कर धमकी दी.

उस के बाद न तो मास्टर साहब ने आसिफ को गोली मरवाई और न ही आसिफ ने मास्टर साहब की खोपड़ी उड़ाई. धीरेधीरे बात पुरानी हो गई. जिस्मों का खेल बंद हो गया. लेकिन आंखों का खेल जारी रहा और आसिफ इंतजार करता रहा जूही के बुलावे का.

पर जूही ने उसे फिर कभी नहीं बुलाया. हां, उस ने एक खत जरूर आसिफ को भिजवा दिया जिस में लिखा था:

‘तुम तो जानते हो कि मैं अपनी किस मजबूरी के चलते इस अधेड़ आदमी से ब्याही गई हूं. अगर यह भी मुझे छोड़ देंगे तो फिर मुझे कौन अपनाएगा? अब मेरे बच्चे भी हैं, उन्हें कौन सहारा देगा? यह सब सोच कर डर सा लगता है. उम्मीद है, तुम मेरी मजबूरी को समझने की कोशिश करोगे.’ खत पढ़ने के बाद आसिफ ने दरवाजे पर खड़ेखड़े बड़ी बेबसी से जूही की तरफ देखा और भारी कदमों से दुकान की तरफ बढ़ गया.

ऐसे रिश्ते का यह खात्मा तो होना ही था. वह तो मास्टर साहब की भलमनसाहत थी कि जूही और आसिफ सहीसलामत रह गए.

बनफूल : क्यों चीख रही थी मामी

अपने बारे में बताने में मुझे क्या आपत्ति हो सकती है? जेलर से आप के बारे में सुना है. 8-10 महिला कैदियों से मुलाकात कर उन के अनुभव आप जमा कर एक किताब प्रकाशित कर रहे हैं न? मैं चाहूं तो आप मेरा नाम पता गोपनीय भी रखेंगे, यही न? मुझे अपना असली नाम व पता बताने में कोई आपत्ति नहीं.

आप शायद सिगरेट पी कर आए हैं. उस की गंध यहां तक आ रही है. नो…नो…माफी किस बात की? मुझे इस की गंध से परहेज नहीं बल्कि मैं पसंद करती हूं. शंकर के पास भी यही गंध रचीबसी रहती थी.

अरे हां, मैं ने बताया ही नहीं कि शंकर कौन है? चलिए, आप को शुरू से अपनी रामकहानी सुनाती हूं. खुली किताब की तरह सबकुछ कहूंगी, तभी तो आप मुझे समझ सकेंगे. मेरे नाम से तो आप परिचित हैं ही सुनयना…जमाने में कई अपवाद…उसी तरह मेरा नाम भी…

बचपन में मेरे गुलाबी गालों पर मां चुंबनों की झड़ी लगा देतीं, मुझे भींच लेतीं. उन के उस प्यार के पीछे छिपे भय, चिंता से मैं तब कितनी अनजान थी.

सुनयना मुझे देख कर पलटती क्यों नहीं है? खिलौनों की तरफ क्यों नहीं देखती? हाथ बढ़ा कर किसी चीज को लेने के लिए क्यों नहीं लपकती? जैसे कई प्रश्न मां के मन में उठे होंगे, जिस का जवाब उन्हें डाक्टर से मिल गया होगा.

‘‘आप की बेटी जन्म से ही दृष्टिहीन है. इस का देख पाना असंभव है.’’

उस दिन मां के चुंबन में पहली वाली मिठास नहीं थीं. वह मिठास जाने कहां रह गई?

‘‘यह क्या हुआ कि बच्ची पेट में थी तो इस के पिता नहीं रहे. फिर इस के जन्म लेते ही इस की आंखे भी चली गईं,’’ यह कह कर मां फूटफूट कर रो पड़ी थीं.

बचपन से मैं देख नहीं पा रही हूं, ऐसा डाक्टर ने कहा था. देखना, मतलब क्या? मैं आज तक उन अनुभवों से वंचित हूं.

मुझे कभी कोई परेशानी आड़े नहीं आई. मां कमरे में हैं या नहीं, मैं जान सकती थी. किस तरफ हैं ये भी झट पहचान सकती थी. आप ही बताइए, मां से कोई शिशु अनजान रह सकता है भला? मैं घुटनों के बल मां के पास पहुंच जाती थी. बड़े होने पर मां ने कई बार मुझ से यह बात कही है. एक बार मां मुझे उठा कर बाहर घुमाने ले आई थीं. अनेक आवाजों को सुन मैं घबरा गई थी. मैं ने मां को कस कर पकड़ लिया था.

अरे, घबरा मत. कुत्ता भौंक रहा है. यह आटो जा रहा है. उस की आवाज है. वह सुन, सड़क पर बस का भोंपू बज रहा है. वहां पक्षियों की चहचहाहट…सुनो, चीक…चीक की आवाज…और कौवे की कांव…कांव…

तब से ध्वनि ने मेरे नेत्रों का स्थान ले लिया था.

चपक…चपक, मामाजी की चप्पल की आवाज. टन…टन घंटी की आवाज. टप…टप नल में पानी…

मेरी एक आंख ध्वनि तो दूसरी उंगलियों के पोर…स्पर्श से वस्तुओं की बनावट पहचानने लगी. अपनी मां को भी छू कर मैं देख पाती. उन के लंबे बाल, उन की भौंहें, उन का ललाट…उन की नाक उन की गरमगरम सांसें…मामाजी की मूंछों से भी उसी तरह परिचित थी. मैं  मामी के कदमों की आहट, उन के जोरजोर से बात करने के अंदाज से समझ जाती कि मामी पास में ही हैं. अक्षरों को भी मैं छू कर पहचान लेती.

मां मुझे रिकशे में बैठा कर स्कूल ले जातीं. स्कूल उत्साह व उमंग का स्थान, मेरे लिए ध्वनि स्थली थी. मैं खुश थी बेहद खुश…दृष्टिहीन को उस के न होने का एहसास आप कैसे दिला सकोगे कहिए?

एक दिन घर के आंगन में अजीब सी आवाजों का जमघट था. उन आवाजों को चीरते हुए मैं भीतर गई. पांव किसी से टकराया तो मैं गिर पड़ी. मैं एक शरीर के ऊपर गिरी थी. हाथ लगते ही पहचान गई.

‘‘मां…मां, आज क्यों कमरे के बीचोंबीच जमीन पर लेटी हैं? मैं आप पर गिर पड़ी. चोट तो नहीं लगी न मां?’’

घबराहट में मैंने उन के चेहरे पर उंगलियां फेरी, उन का माथा, बंद पलकें, नाक पर वह गरम सांसें जो मैं महसूस करती थी आज न थीं. मेरी उंगलियां वहीं स्थिर हो गईं.

मां…मां. मैं ने उन के गालों को थपथपाया. कान पकड़ कर खींचे. पर मां की तरफ से कोई प्रत्युत्तर न पा कर मैं ने मामी को पुकारा.

मामी मुझे पकड़ कर झकझोरते हुए बोलीं, ‘‘अभागन, मां को भी गंवा बैठी है.’’

मामाजी ने मुझे गले लगाया और फूटफूट कर रोने लगे. मैं ने मामाजी से पूछा, ‘‘मां क्यों जमीन पर लेटी थीं? मां को क्या हुआ? उन का चेहरा ठंडा क्यों पड़ गया था? उठ कर उन्होंने मुझे गले क्यों नहीं लगाया?’’

मामाजी की रुलाई फूट पड़ी, ‘‘हे राम, मैं इसे क्या समझाऊं? बेटा, मां मर चुकी हैं.’’

मरना क्या होता है, मैं तब जानती न थी.

दृष्टिहीन ही नहीं, शरीरविहीन हो कर किसी दूसरे लोक का भ्रमण ही मृत्यु कहलाता है, यह मुझे बाद में पला चला.

मैं करीब 12 साल की थी. मेरे शरीर के अंगों में बदलाव होने लगे. मामी ने एक दिन तीखे स्वर में मामा से कहा, ‘‘वह अब छोटी बच्ची नहीं रही. आप उसे मत नहलाना.’’

मैं स्वयं नहाने लगी. अच्छा लगा. नया अनुभव, पानी का मेरे शरीर को स्पर्श कर पांव की तरफ बहना. उस की ठंडक मुझ में गुदगुदाहट भर देती.

एक दिन मैं कपड़े बदल रही थी. मामाजी के पांव की आहट…वे जल्दी में हैं, यह उन की सांसें बता रही थीं.

‘‘क्या बात है मामाजी?’’

वे मेरे सामने घुटनों के बल बैठे.

‘‘सुनयना,’’ उन की आवाज में घबराहट थी. कंपन था. उन्होंने मेरी छाती पर अपना मुंह टिकाया और मुझे भींच लिया. मेरी पीठ पर उन के हाथ फिर रहे थे. उंगलियों में कंपन था.

‘‘मामाजी क्या बात है?’’ उन के बालों को सहलाते हुए मैं ने पूछा. उन का स्पर्श मुझे भी द्रवित कर रहा था मानो चाशनी हो.

‘‘ओफ, कितनी खूबसूरत हो तुम,’’ कहते हुए उन्होंने मेरे होंठों को चूमा. उन्होंने अनेक बार पहले भी मुझे चूमा था पर न जाने क्यों उन के इस स्पर्श में एक आवेग था.

‘‘हाय…हाय,’’ मामी के चीखने की आवाज सुनाई दी. मामाजी छिटक कर मुझ से दूर हुए. मामी ने मुझे परे ढकेला.

‘‘कितने दिनों से यह सब चल रहा है?’’

‘‘पारो, चीखो मत, मुझे माफ करो. ऐसी हरकत दोबारा नहीं होगी.’’

मामा की आवाज क्यों कांप रही है? अब क्या हुआ जो माफी मांग रहे हैं? मेरी समझ में कुछ नहीं आया था.

‘‘चलो, मेरे साथ,’’ कहते हुए मामी मुझे खींच कर बाहर ले गईं. मुझे उसी दिन मदर मेरी गृह में भेज दिया गया.

खुला मैदान… हवादार कमरे, अकसर प्रार्थनाएं और गीत सुनाई पड़ते थे. फादर तो करुणा की कविता थे. स्नेह…स्नेह और स्नेह… इस के सिवा कुछ जानते ही नहीं थे. वे सिर पर उंगलियों का स्पर्श करते तो लगता फादर के  रूप में मुझे मेरी मां मिल गई हैं.

वहां के कर्मचारी मेरे कमरे में आते तो कह उठते, ‘‘तुम कितनी खूबसूरत हो,’’ मैं संकोच से घिर जाती थी.

आप भी शायद मुझे देख यही सोचते होंगे, है न? पर खूबरसूरती तो मेरे लिए आवाज, रोशनी व गहन अंधकार का पर्याय है. ध्वनि खूबसूरत वस्तु है पर सभी कहते हैं पहाड़, झरने, फूल, तितली, पेड़पौधे खूबसूरत होते हैं, उस का मुझे क्या अनुभव हो सकता है भला.

बिना देखे, बिना जाने मुझे खूबसूरत कहना क्या दर्शाता है? स्नेह को…है न?

जरा अपना हाथ तो बढ़ाइए. कस कर हाथ पकड़ने से क्या आप को महसूस नहीं होता कि हम दोनों अलगअलग नहीं एक ही हैं. कुछ प्रवाह सा मेरे शरीर से आप के भीतर व आप के शरीर से मेरे भीतर आता हुआ महसूस होता है न? मेरी आंखों से आंसू बहने लगते हैं. लगता है सांसें थम जाएंगी. देख रहे हैं न मेरी आवाज लड़खड़ा रही है? इस से खूबसूरत और कौन सी चीज हो सकती है मेरे लिए भला?

वहां के शांत और स्नेह भरे वातावरण में पलीबढ़ी मैं. कुछ लड़कियां मेरी खास सहेलियां बन गई थीं. वे अकसर कहतीं, ‘‘ओफ, तू बला की खूबसूरत है, तुम्हारी त्वचा चमकती रहती है, कितनी कोमल हो तुम. और होंठों के पास यह काले तिल…’’ वे सभी मुझे छूछू कर देखतीं और तृप्त होतीं.

मेरे पास कुछ है जो इन्हें संतुष्टि प्रदान कर रहा है, इस से बढ़ कर खुशी और क्या हो सकती है?

मैं जिसे अपनी उंगलियों से, ध्वनि, गंध से महसूस नहीं कर पा रही हूं वही दृष्टि नामक किसी चीज से ये जान लेते हैं, यह विचार मुझे तड़पा गया.

मैं ने अपनी तड़प का इजहार फादर से किया तो उन्होंने बड़े प्यार से मेरे बालों को सहलाते हुए समझाया, ‘‘माय चाइल्ड, जान लो कि दुनिया में रोशनी से बेहतर अंधेरा ही है. रोशनी में सब अलगथलग होते हैं, गोरी चमड़ी अलग नजर आएगी, इस की चमक अलग से दिखेगी, तिल की सुंदरता अलग, क्या इस में अहंकार नहीं? अंधेरे में सभी एकाकार हो जाते हैं. वहां चेहरा खूबसूरत, गोरी चमड़ी माने नहीं रखती. व्यक्ति का स्नेह ही सबकुछ होता है. सच्चा प्यार भी वैसा ही होता है सुनयना. वह खूबसूरत, चमकदमक का गुलाम नहीं होता. आंखों के होते हुए भी सच्चे प्रेम व प्रीत को लोग देख नहीं पाते, कितने अभागे होंगे वे? तुम्हारी दृष्टिहीनता कुदरत का दिया वरदान है.’’

माफ कीजिएगा, फादर के बारे में कहते समय मैं चाह कर भी अपने आंसू नहीं रोक पाती. उसी दिन समझ सकी स्नेह भेदरहित होता है और ये खुले हाथ बांटने की चीज हैं.

कालिज का आखिरी दिन था. फादर ने मुझे बुला भेजा.

‘‘सुनयना, इन से मिलो. मिस्टर शंकर…’’

शंकर का कद मुझ से अधिक है यह मैं उस की सांसों से पहचान गई. मेरे दोनों हाथों को पकड़ कर उस ने दबाया, उस दबाव में कुछ भिन्नता थी.

‘‘शंकर इलेक्ट्रानिक्स इंजीनियर है सुनयना, इस का बचपन गरीबी व तंगहाली में बीता था. अपनी मेहनत के बलबूते पर वह आज इस मुकाम पर पहुंचा है. उस ने अकसर तुम्हें देखा है. वह तुम्हें पसंद करता है, शादी करना चाहता है,’’ फादर ने बिना लागलपेट के पूरी बात साफसाफ कह दी.

शादी अर्थात शंकर मेरा जीवनसाथी बनेगा, जीवन भर मुझे सहारा देगा. मैं ने अभी तक स्नेह लुटाया है…शंकर का पहला स्पर्श कितनी ऊष्णता लिए हुए था. मुझे वह स्पर्श भा गया था.

मैं ने एकांत में शंकर से बातचीत करने की इच्छा जाहिर की. मुझे यह जानने की उत्सुकता थी कि इस ने मुझ दृष्टिहीन को क्यों अपनी जीवनसंगिनी चुना? शंकर की आवाज मधुरता लिए हुए थी. उस ने अपने जीवन का ध्येय बताया. खुद कष्टों को सहने के कारण किसी के काम आना, तकलीफ उठाने वालों की वह मदद करना चाहता था. मैं ने उसे छू कर देखने की इच्छा जाहिर की. उस ने मेरे हाथों को अपने चेहरे पर रख लिया.

शंकर का उन्नत ललाट, घनी भौंहें, लंबी नाक, घनी मूंछें और वे होंठ…मैं इन होंठों को चूम लूं?

शंकर ने मना कर दिया. कहने लगा, ‘‘सभी देख रहे हैं.’’

फादर से मैं ने अपनी सहमति प्रकट की. फादर ने अपनी तरफ से शंकर के बारे में जांचपड़ताल कर ली थी. ‘‘माई चाइल्ड, भले घर का बेटा है. तुम बहुत खुशकिस्मत हो,’’ उन्होंने कहा था.

हमारी शादी फादर के सामने हो गई.

‘‘शंकर, सुनयना बेहद भोली व नादान है. इसे संभालना. इस का ध्यान रखना,’’ फादर ने कहा, फिर मेरी तरफ मुड़ कर मेरे माथे को उन्होंने चूमा. मैं उन के कदमों पर गिर पड़ी. मां के बिछुड़ने पर जिस अवसाद से मैं अनजान थी, उस का अनुभव मुझे हो गया था.

शंकर के साथ मेरी जिंदगी सुचारु रूप से चल रही थी. सांझ ढले एक दिन मैं बिस्तर पर बैठी बुनाई कर रही थी. समीप पदध्वनि… यह शंकर नहीं कोई और है.

‘‘कौन है?’’ चेहरे को उस तरफ घुमा कर मैं ने पूछा.

‘‘सुनयना, मेरा मित्र है जय…जय आओ बैठो न.’’

जय बिस्तर पर मेरे पास आ कर बैठा. उस की सांसें तेजी से चल रही थीं.

‘‘सुनयना, जय का इस दुनिया में कोई नहीं है. मैं इसे अपने साथ ले आया हूं. कुछ समय तुम्हारे पास रहेगा तो अपने अकेलेपन को भूल जाएगा,’’ शंकर ने कहा और मेरा हाथ उठा कर उस के कंधे पर रखा.

मैं ने उस के कंधों को पकड़ा. तभी शंकर यह कह कर बाहर चला गया कि मैं एक जरूरी काम से जा रहा हूं.

जय के चेहरे को मैं ने अपने कंधे पर टिका लिया. उस ने मुझे सहलाया, प्यार पाने की कसक…अकेलेपन की वेदना. बेचारे इस जय का दुनिया में कोई नहीं, दुखी, पीडि़त, उपेक्षित है यह. मैं ने उसे गोदी में डाल सहलाया. कुत्ते व बिल्लियों को गोदी में डाल कर सहलाने में जो तृप्ति मुझे मिलती थी वही तृप्ति मुझे तब भी मिली थी. जय ने चुंबनों की झड़ी लगा दी.

जय कैसा दिखता होगा यह जानने की उत्सुकता हुई. मैं ने उस के चेहरे को सहलाया. होंठों को छूते समय मेरी उंगलियों को उस ने धीमे से काट लिया. मेरे उभारों पर उस के हाथ फिसलने लगे.

समीप आ कर उस ने मुझे कस कर भींच लिया. शादी होते ही शंकर ने भी मुझे ऐसे ही भींचा था न. वस्त्रविहीन शरीर पर उस ने हाथ फेरा था. कहा था कि स्नेह जाहिर करने का यह भी एक तरीका है. शायद शंकर की ही तरह जय भी है.

सिर से पांव तक एक विद्युत की लहर दौड़ पड़ी. क्या अजीब अनुभव था वह. वह भी मुझ में समा जाने के लिए बेकरार था. शंकर के अलावा किसी और को मैं आज देख सकूंगी, यह विचार काफी रसदायक लगा.

अंधेरे में अहंकार नहीं होता. मैं का स्थान नहीं, सभी एकाकार हो जाते हैं. इन बातों को मैं ने केवल सुना था, अब इस का अनुभव भी प्राप्त हो गया. पहले शंकर से यह अनुभव मिला, अब जय से.

2 घंटे बाद शंकर लौटा.

‘‘मुझ से नाराज हो सुनयना?’’

‘‘नहीं तो, क्यों?’’

‘‘जय आ कर गया.’’

‘‘छी…छी…कैसी बातें करते हैं. मुझे संसार के सभी स्त्रीपुरुषों को देखने की इच्छा है. कितनी खुश हूं जानते हो, आज मैं ने जय को देखा…जाना.’’

फिर शंकर अकसर अपने नएनए मित्रों के साथ आने लगा. हर बार एक नए मित्र से मेरा परिचय होता.

‘तुम कितनी खूबसूरत हो,’ कह कर कुछ जनून भरा स्पर्श भी मैं ने महसूस किया. कुछ स्पर्श शरीर को चुभ जाते. कुत्ते या बिल्ली के साथ खेलते समय एकाध बार उस का पंजा या दांत चुभ ही जाता है न, उसी तरह का अनुभव हर एक बार एक नया अनुभव.

एक दिन मैं वैसा ही कुछ नया अनुभव प्राप्त कर रही थी तब वह घटना घटी. दरवाजे के उस तरफ जूतों की ध्वनि…दरवाजा खटखटाने की आवाज, ‘‘पुलिस,’’ दरवाजा खोलो.

‘‘राजू, जा कर दरवाजा खोलो न, पुलिस आई है,’’ मैं ने अंगरेजी में कहा. वह बंगाली था.

राजू गुस्से में मुझे परे ढकेल कर खड़ा हो गया. मैं ने ही जा कर दरवाजा खोला.

‘‘तुम शंकर की कीप हो न? तुम्हारा पति तुम्हें रख कर धंधा करता है, यह सूचना हमें मिली है. तुम्हें गिरफ्तार किया जाता है.’’

बाद में पता चला शंकर अपनी फैक्टरी का लाइसेंस पाने के लिए, अपने उत्पादों को बड़ीबड़ी कंपनियों में बेचने का आर्डर प्राप्त करने के लिए मेरा इस्तेमाल कर रहा था. लोगों की बातों से मैं ने जाना.

न जाने कौनकौन से सेक्शन मुझ पर लगे. मुझे दोषी करार दिया गया. शंकर ने अपनी गलती स्वीकार कर ली थी यह भी मुझे बाद में मालूम पड़ा.

‘‘भविष्य में सुधर कर इज्जत की जिंदगी बसर करोगी?’’ न्यायाधीश ने पूछा?

‘‘मुझे आजाद करोगे तो फिर से स्नेह को ही खोजूंगी,’’ मेरा उत्तर सुन न्यायाधीश ने अपना निर्णय स्थगित कर रखा है.

नहीं…नहीं जेल के भीतर मुझे कोई कष्ट नहीं. मैं यहां भी खुश हूं. अंधेरे में कहीं भी रहूं क्या फर्क पड़ता है या किसी के साथ भी रहूं क्या फर्क पड़ता है?

बताइए तो आप मेरे बारे में क्या लिखने वाले हैं? आप का नाम? मैं तो भूल ही गई कुछ अनोखा नाम था आप का…हां, याद आया प्रजनेश…यस…कहिए आप की आवाज क्यों भर्रा रही है? आप की आंखों में आंसू?

प्लीज…मत रोइएगा. रोने के लिए थोड़ी न हम पैदा हुए हैं. आप के आंसुओं को रोकने के लिए मैं क्या करूं? आप को चूमूं?

गांव द्रौपदी का: एक औरत और पांच आदमी

‘‘मैं क्या अंदर आ सकता हूं सर?’’

‘‘हांहां, क्या बात है भूपेंद्र?’’

‘‘यह छुट्टी की अर्जी है सर. मुझे 20 दिन की छुट्टी चाहिए.’’

‘‘20 दिन की छुट्टी क्यों चाहिए? अभी तो तुम ने नईनई नौकरी जौइन की है और अभी छुट्टी चाहिए.’’

‘‘हां सर, पता है. पर मुझे शादी में जाना है.’’

‘‘किस की शादी है?’’

‘‘मेरी शादी है, मतलब हमारी.’’

‘‘हमारी मतलब किसी और की भी शादी हो रही है क्या?’’

‘‘मेरे साथ मेरे भाई की भी शादी हो रही है.’’

‘‘अच्छा, साथ में ही होगी?’’

‘‘जी सर.’’

‘‘कब है शादी?’’

‘‘अगले महीने की 10 तारीख को.’’

‘‘ठीक है, देखते हैं.’’

अगले दिन सर ने भूपेंद्र को बुलाया और कहा, ‘‘भूपेंद्र, तुम्हारी छुट्टी मंजूर हो गई है.’’

‘‘शुक्रिया सर.’’

‘‘तुम्हारे पापा क्या करते हैं?’’

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‘‘बड़े पापा घर पर रह कर ही सब की देखभाल करते हैं. दूसरे पापा और तीसरे पापा शहर में रह कर नौकरी करते हैं.’’

‘‘तुम लोग चाचाताऊ को भी पापा ही बुलाते हो?’’

‘‘नहीं, सब मेरे पापा ही हैं.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘मेरी मां की तीनों से शादी हुई है.’’

‘‘यह क्या बात हुई?’’

‘‘मेरे गांव में ऐसा ही होता है.’’

‘‘मतलब, तुम्हारी और तुम्हारे भाई की शादी एक ही लड़की से हो रही है क्या?’’

‘‘जी.’’

भूपेंद्र की यह बात सुन कर उस का मैनेजर प्रशांत हैरान रह गया. उस ने पूछा, ‘‘कहां है तुम्हारा गांव?’’

‘‘दिल्ली से 4 सौ किलोमीटर दूर देहरादून में पांच नाम का एक गांव है. वहीं मेरा घर है. जमीन भी है, जिसे मेरे बड़े पापा दिलीप संभालते हैं,’’ भूपेंद्र ने बताया.

प्रशांत ने ज्यादा पूछना ठीक नहीं समझा, पर उस की जानने की जिज्ञासा और बढ़ गई.

‘‘भूपेंद्र, क्या हम को अपनी शादी में नहीं बुलाओगे?’’

‘‘आप आएंगे?’’

‘‘हम जरूर आएंगे. तुम बुलाओगे, तो क्यों नहीं आएंगे.’’

फिर भूपेंद्र ने बड़े प्यार से प्रशांत को शादी का कार्ड दिया. प्रशांत को देशदुनिया घूमना, हर सभ्यता को जानना अच्छा लगता है. अगर वह नौकरी नहीं करता, तो जरूर रिपोर्टर बनता. प्रशांत और उस का स्टाफ जब भूपेंद्र के घर जाने लगा, तो बड़ी परेशानी हुई. रास्ता बड़ा ही ऊबड़खाबड़, मुश्किलों से भरा था, पर खूबसूरत और रोमांच से भरपूर था. आखिर क्या वजह है कि यह प्रथा आज भी चली आ रही है? क्या होता होगा? कैसे निभती होगी ऐसी शादी? यह सब जानने के लिए वे सब उतावले हुए जा रहे थे, पर उन्हें डर भी लग रहा था कि कहीं वे लोग बुरा न मान जाएं. गांव में बड़ी चहलपहल थी. एक प्यारी सी लड़की चायनाश्ता ले कर आई.

‘‘सर, यह मेरी बहन नंदिनी है.’’

‘‘जीती रहो,’’ प्रशांत ने नंदिनी से कहा.

बगल के ही गांव में शादी थी, इसीलिए सुबह 11 बजे बरात चल पड़ी. प्रशांत का मन रोमांचित हो रहा था. भूपेंद्र और उस का छोटा भाई बलबीर दोनों ही दूल्हे की पोशाक में जंच रहे थे. शादी के सब रीतिरिवाज, मंडप, उस की सजावट, गानाबजाना हमारे जैसा ही था.

शादी शुरू हो गई. पंडितजी मंत्र बोलने के साथ शादी कराने लगे. जब फेरों की बारी आई, तो एक ही दूल्हे के साथ फेरे पड़े. पूछने पर पंडितजी बोले कि फेरे तो किसी एक के साथ ही होंगे, शादी  अपनेआप सब के साथ हो जाएगी. बहुत ही कम समय में शादी हो गई. भूपेंद्र हमें अपनी पत्नी से मिलवाने ले गया. प्रशांत जो उपहार लाया था, लड़की के हाथ में दिया. वह बड़ी खुश थी. उसे देख कर यह नहीं लग रहा था कि वह 2 भाइयों से शादी कर के दुखी है.

प्रशांत ने सोचा कि भूपेंद्र के बड़े पापा दिलीप से कुछ बात की जाए.

‘‘किसी बात की कोई तकलीफ तो नहीं हुई?’’ भूपेंद्र के बड़े पापा ने पूछा.

‘‘नहींनहीं, आप सब से मिल कर बड़ा अच्छा लगा. क्या मैं इस शादी के बारे में आप से कुछ पूछ सकता हूं?’’ प्रशांत ने कहा.

‘‘जी जरूर.’’

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‘‘क्या वजह है कि एक ही लड़की से सब भाइयों की शादी हो जाती है?’’

‘‘ऐसा है सर कि हमें नहीं पता कि यह प्रथा क्यों और कब से चल रही है, पर मेरी दादी, मेरी मां सब की ऐसी ही शादी हुई हैं. हम 3 भाइयों की भी शादी एक ही लड़की से हुई है.’’

‘‘मान लीजिए कि छोटे भाई की उम्र लड़की से बहुत कम है, तो…?’’

‘‘तो वह अपनी पसंद की लड़की से शादी कर सकता है.’’

‘‘अच्छा. ऐसी शादी निभाने में आप सभी को मुश्किलें तो बहुत आती होंगी?’’

‘‘नहीं जी, कोई मुश्किल नहीं आती, बल्कि जिंदगी और अच्छी तरह से चलती है.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘हमारे यहां जमीन बहुत कम होती है. अलगअलग लड़की से शादी होगी, तो जमीन, घर का बंटवारा हो जाएगा, बच्चे भी ज्यादा होंगे.

‘‘दूसरी बात यह कि बारिश के मौसम में यहां पहाड़ों पर कोई काम नहीं होता है, तो बाहर जा कर कमाना जरूरी हो जाता है, फिर घर में भी तो कोई चाहिए देखभाल करने के लिए. 4 भाई कमाएं और खर्च एक ही जगह हो, तो पैसे की भी बचत होती है.’’

‘‘दिलीपजी, एक पर्सनल बात पूछ सकता हूं?’’ प्रशांत बोला.

‘‘जी, जरूर.’’

‘‘सभी भाई पत्नी के साथ संबंध कैसे बनाते हैं?’’

‘‘जब जिस का मन होता है, कमरे में चला जाता है.’’

‘‘अगर कभी सब का एकसाथ मन हो गया तो…?’’

‘‘तो सभी साथ में चले जाते हैं, कमरे में, आखिर पत्नी तो हम सब की ही है.’’

प्रशांत यह सुन कर हैरान था. वह सोचने लगा कि पत्नी पर क्या गुजरती होगी?

‘‘आप कहें, तो क्या मैं आप की पत्नी से मिल सकता हूं?’’ प्रशांत ने पूछा.

‘‘जी जरूर. ये हैं हमारी पत्नी सुनंदा.’’

‘‘नमस्ते सुनंदाजी.’’

‘‘नमस्ते,’’ उन्होंने कहा. वे घूंघट में थीं, पर चेहरा दिख रहा था.

‘‘कैसी हैं आप?’’

‘‘अच्छी हूं,’’ वे हंसते हुए बोलीं.

‘‘अब बहू आ गई है, तो आप को आराम हो जाएगा.’’

‘‘जी सरजी,’’ वे बहुत ही कम शब्दों में जवाब दे रही थीं.

‘‘आप से कुछ पूछूं सुनंदाजी?’’

उन्होंने ‘हां’ में सिर हिला दिया.

‘‘जब आप की शादी हुई थी, तब आप की उम्र क्या थी?’’

‘‘17 साल.’’

‘‘मुश्किलें तो बहुत आई होंगी घर संभालने में?’’

‘‘बहुत आई थीं, पर अब तो सब ठीक है.’’

‘‘कभी आप को ऐसा नहीं लगता कि एक से ही शादी होती, तो अच्छा होता? कम से कम जिंदगी अच्छी तरह से गुजरती?’’

‘‘ऐसा कभी सोचा नहीं. यही सब देखती आई हूं और फिर यहां यही परंपरा है, तो सब ठीक है.’’

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‘‘तीनों पतियों को संभालना, उन की हर जरूरत को पूरा करना, थक नहीं जातीं आप?’’

‘‘मैं कभी नहीं थकती. द्रौपदी भी तो 5 पतियों की पत्नी थी.’’

‘‘पर, उन की मजबूरी थी. द्रौपदी तो अर्जुन को ही ज्यादा प्यार करती थी. क्या आप भी किसी एक को ज्यादा पसंद करती हैं?’’

‘‘मैं सब को बराबर पसंद करती हूं, सब का खयाल रखती हूं, नहीं तो पाप लगेगा.’’

प्रशांत ने कभी पढ़ा था कि यूरोप में कहींकहीं बहुपत्नी प्रथा का चलन है. तिब्बत में भी छोटेछोटे गांवों में ऐसा होता है, दक्षिण अमेरिका में भी, पर हिंदुस्तान में तो एक गांव ऐसा है, जहां आज भी हजारों द्रौपदी हैं. शास्त्रीजी, जो वहां के पुजारी थे, उन से भी जानकारी मिली. वे कहने लगे, ‘‘हम अपनी पुरानी परंपरा से खुश हैं. हम इसे बुरा नहीं मानते हैं.’’

प्रशांत को पता चला कि आज के पढ़ेलिखे लोग भी इस परंपरा को बुरा नहीं मानते हैं. आज की पीढ़ी इस मुद्दे पर बात करने से झिझक महसूस नहीं करती है. दुख हो या खुशियां आपस में बांट लेती हैं.

ऐसा नहीं है कि एक ही जाति है, जो इस परंपरा को मानती है. इस गांव में सभी जाति के लोग इस प्रथा को निभाते हैं. अगर कोई लड़का इस शादी में नहीं रहना चाहे, तो वह दूसरी लड़की से शादी कर सकता है.

प्रशांत ने दिलीपजी से पूछा, ‘‘आप भाइयों में कभी किसी बात को ले कर झगड़ा नहीं होता.’’

‘‘नहीं जी, ऐसा कभी नहीं होता.’’

सब से बड़ा सवाल अब भी जवाब के इंतजार में था. इस प्रथा का सब से बड़ा उदाहरण पांडवों और द्रौपदी से जुड़ा ही मिलता है. इतिहास या पुराणों में कहीं भी इस प्रथा का कोई उदाहरण नहीं मिलता है. तो सवाल यह उठता है कि दूर हिमालय में बसे लोग इस प्रथा को क्यों और कब से मान रहे हैं?

प्रशांत की सोच इस परंपरा को वहां तक ले जाती है कि जोड़ीदार से शादी होने का मतलब काम करने वाले ज्यादा और खाने वाले कम, ताकि परिवार न बढ़े और बंटवारा न हो. शायद यही बात इस परंपरा को जिंदा रखे हुए है. सवाल यह नहीं है कि यह प्रथा सही है या गलत, सवाल यह भी नहीं है कि यह प्रथा रहे या खत्म हो जाए, बल्कि इस प्रथा को मानने या रोकने का फैसला इन्हीं लोगों पर छोड़ देना चाहिए.

यहां आ कर इस तरह की शादी देखना प्रशांत की जिंदगी का सब से बड़ा तजरबा रहा. सब से हंसीखुशी से मिल कर वे लोग उस गांव से विदा हो लिए. साथ में थीं कुछ मीठी और कभी न भूलने वाली यादें.

सावित्री और सत्य: त्याग और समर्पण की गाथा

सावित्री को नींद नहीं आ रही थी. अभी पिछले साल ही उस के पति की मौत हुई थी. उस की शादीशुदा जिंदगी का सुख महज एक साल का था. सावित्री ससुराल में ही रह रही थी. उस का पति ही बूढ़े सासससुर की एकलौती औलाद था. ससुराल और मायका दोनों ही पैसे वाले थे. सावित्री अपने मायके में 4 बच्चों में सब से छोटी और एकलौती लड़की थी. मांबाप और भाइयों की दुलारी… मैट्रिक पास होते ही सावित्री की शादी हो गई थी. पति की मौत के बाद उस का बापू उसे लेने आया था, पर वह मायके नहीं गई. उस ने बापू से कहा था कि आप के तो 3 बच्चे और हैं, पर मेरे सासससुर का तो कोई नहींहै. पहाड़ी की तराई में एक गांव में सावित्री का ससुराल था. गांव तो ज्यादा बड़ा नहीं था, फिर भी सभी खुशहाल थे. उस के ससुर उस इलाके के सब से धनी और रसूखदार शख्स थे. वे गांव के सरपंच भी थे.

पहाडि़यों पर रात में ठंडक रहती ही है. थोड़ी देर पहले ही बारिश रुकी थी. सावित्री कंबल ओढ़े लेटी थी, तभी अचानक ही जोर के धमाके की आवाज से वह चौंक पड़ी थी.

वह बिस्तर से नीचे उतर आई. शाल से अपने को ढकते हुए बगल में सास के कमरे में गई. वहां उस ने देखा कि सासससुर दोनों ही जोरदार धमाके की आवाज से जाग गए थे.

उस के ससुर स्वैटर पहन कर टौर्च व छड़ी उठा कर बाहर जाने के लिए निकलने लगे, तो सावित्री ने कहा, ‘‘बाबूजी, मैं आप को रात में अकेले नहीं जाने दूंगी. मैं भी आप के साथ चलूंगी.’’

काफी मना मरने के बावजूद सावित्री भी उन के साथ चल पड़ी थी. जब सावित्री बाहर निकली, तो थोड़ी दूरी पर ही खेतों के बीच उस ने आग की ऊंची लपटें देखीं. गांव के कुछ और लोग भी धमाके की आवाज सुन कर जमा हो चुके थे. करीब जाने पर देखा कि एक छोटे हवाईजहाज के टुकड़े इधरउधर जल रहे थे. लपटें काफी ऊंची और तेज थीं. किसी में पास जाने की हिम्मत नहीं थी. देखने से लग रहा था कि सबकुछ जल कर राख हो चुका है.

तभी सावित्री की नजर मलबे से दूर पड़े किसी शख्स पर गई, जिस के हाथपैरों में कुछ हरकत हो रही थी. वह अपने ससुर के साथ उस के नजदीक गई. कुछ और लोग भी साथ हो लिए थे.

उस नौजवान का चेहरा जलने से काला हो गया था. हाथपैरों पर भी जलने के निशान थे. वह बेहोश पड़ा था, पर रहरह कर अपने हाथपैर हिला रहा था.

तभी एक गांव वाले ने उस की नब्ज देखी और फिर नाक के पास हाथ ले जा कर सावित्री के ससुर से बोला, ‘‘सरपंचजी, इस की सांसें चल रही हैं. यह अभी जिंदा है, पर इस की हालत नाजुक दिखती है. इस को तुरंत इलाज की जरूरत है.’’

सरपंच ने कहा, ‘‘हां, इसे जल्द ही अस्पताल ले जाना होगा. प्रशासन को अभी इस की सूचना भी शायद न मिली हो. सूचना मिलने के बाद भी सुबह के पहले यहां पर किसी के आने की उम्मीद नहीं है. तुम में से कोई मेरी मदद करो. मेरा ट्रैक्टर ले कर आओ. इसे शहर के अस्पताल ले चलते हैं.’’

थोड़ी देर में ही 2-3 नौजवान ट्रैक्टर ले कर आ गए थे. उस घायल नौजवान को ट्रैक्टर से ही शहर के बड़े अस्पताल ले गए. सावित्री भी सरपंचजी के साथ शहर तक गई थी.

अस्पताल में डाक्टर ने देख कर कहा कि हालत नाजुक है. पुलिस को भी सूचित करना होगा. यह काम सरपंच ने खुद किया और डाक्टर को तुरंत इलाज शुरू करने को कहा.

इमर्जैंसी वार्ड में चैकअप करने के बाद डाक्टर ने उसे इलाज के लिए आईसीयू में भेज दिया. पर उस शख्स के पास से कोई पहचानपत्र या बोर्डिंग पास भी नहीं मिला.

हादसे की जगह के पास से एक बुरी तरह जला हुआ पर्स मिला था. उस पर्स में ऐसा कुछ भी सुबूत नहीं मिला था, जिस से उस की पहचान हो सके.

डाक्टर ने इलाज तो शुरू कर दिया था. सरपंचजी खुद गारंटर बने थे यानी इलाज का खर्च उन्हें ही उठाना था.

सुबह होते ही इस हादसे की खबर रेडियो और टैलीविजन पर फैल चुकी थी.

पुलिस भी आ गई थी. पुलिस को सारी बात बता कर उस की सहमति ले कर सरपंचजी अपनी बहू सावित्री के साथ अपने घर लौट आए थे.

शहर के एयरपोर्ट पर अफरातफरी का सा माहौल था. एयरपोर्ट शहर से 20 किलोमीटर दूर और गांव की विपरीत दिशा में था. लोग उस उड़ान से आने वाले अपने रिश्तेदारों का हाल जानने के लिए बेचैन थे.

एयरलाइंस के मुलाजिमों ने तो सभी सवारियों और हवाईजहाज के मुलाजिमों की लिस्ट लगा रखी थी, जिस में सब को ही मरा ऐलान किया गया था.

थोड़ी ही देर में टैलीविजन पर एक ब्रेकिंग न्यूज आई कि एक मुसाफिर इस हादसे में बच गया है, जिस की हालत नाजुक है, पर उस की पहचान नहीं हो सकी है. सब के मन में उम्मीद की एक किरण जग रही थी कि शायद वह उन्हीं का सगा हो.

अस्पताल में भीड़ उमड़ पड़ी थी. डाक्टर ने कहा कि अभी वह वैंटिलेटर पर है और हालत नाजुक है. मरीज के पास तो अभी कोई नहीं जा सकता है, उसे सिर्फ बाहर से शीशे से देखा जा सकता है. लोग बाहर से ही उस को देख कर पहचानने की कोशिश कर रहे थे, पर यह मुमकिन नहीं था. उस का चेहरा काफी जला हुआ था. उस पर दवा का लेप भी लगा था.

इधर सरपंच रोज सुबह अस्पताल आते थे, अकसर सावित्री भी साथ होती थी. वह उन को अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी, क्योंकि सरपंच खुद दिल के मरीज थे.

कुछ दिनों के बाद डाक्टर ने सरपंच से कहा, ‘‘मरीज खतरे से बाहर तो है, पर वह कोमा में जा चुका है. कोमा से बाहर निकलने में कितना समय लगेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता है. कुछ ही दिनों में उसे आईसीयू से निकाल कर स्पैशल वार्ड में भेज देंगे.

‘‘दूसरी बात यह कि उस का चेहरा बहुत खराब हो चुका है. अगर वह कोमा से बाहर भी आता है, तो आईने में अपनेआप को देख कर उसे गहरा सदमा लगेगा.’’

सरपंच ने पूछा, ‘‘तो इस का इलाज क्या है?’’

डाक्टर बोला, ‘‘उस के चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करनी होगी, पर इस में काफी खर्च होगा. अभी तक के इलाज का खर्च तो आप देते आए हैं.’’

सरपंच ने कहा, ‘‘आप पैसे की चिंता न करें. अगर यह ठीक हो जाता है, तो मैं समझूंगा कि मेरा बेटा मुझे दोबारा मिल गया है.’’

कुछ दिनों के बाद उस मरीज को स्पैशल वार्ड में शिफ्ट किया गया था. वहां उस की देखभाल दिन में तो अकसर सावित्री ही किया करती थी, लेकिन रात में सरपंच के कहने पर गांव से भी कोई न कोई आ जाता था.

तकरीबन 2 महीने बाद उस की प्लास्टिक सर्जरी भी हुई. उस आदमी को नया चेहरा मिल गया था.

इसी बीच सरपंच के ट्रैक्टर की ट्रौली पर एक बैल्ट मिली. हादसे के बाद उस नौजवान को इसी ट्रौली से अस्पताल पहुंचाया गया था. शायद किसी ने उसे आराम पहुंचाने के लिए बैल्ट निकाल कर ट्रौली के एक कोने में रख दी थी, जिस पर अब तक किसी की नजर नहीं पड़ी थी. बैल्ट पर 2 शब्द खुदे थे एसके. उस बैल्ट को देख कर सरपंच को लगा कि उस आदमी की पहचान में यह एक अहम कड़ी साबित हो.

इस की सूचना उन्होंने पुलिस को दे दी. साथ ही, लोकल टैलीविजन चैनल और रेडियो पर भी इसे प्रसारित किया गया.

अगले ही दिन एक बुजुर्ग दंपती उसे देखने अस्पताल आए थे. उन का शहर में काफी बड़ा कारोबार था, पर चेहरा बदल जाने के चलते वे उसे पहचान नहीं पा रहे थे. बैल्ट भी पुलिस को दे दी गई थी.

वहां पर उन्होंने सावित्री को देखा, जो मन लगा कर मरीज की सेवा कर रही थी. अस्पताल से निकल कर वे सीधे पुलिस स्टेशन गए और वहां उस बैल्ट को देख कर कहा कि ऐसी ही एक बैल्ट उन के बेटे की भी थी, जिस पर एसके लिखा था. यह बैल्ट जानबूझ कर उन के बेटे ने खरीदी थी, क्योंकि एसके उस के नाम ‘सत्य कुमार’ से मिलती थी. फिर भी संतुष्ट हुए बिना उसे अपना बेटा मानने में कुछ ठीक नहीं लग रहा था. फिलहाल वे अपने घर लौट गए थे. पर सरपंच का मन कह रहा था कि यह सत्य कुमार ही है.

तकरीबन एक महीना गुजर चुका था. सरपंच और सावित्री दोनों ही सत्य कुमार की देखभाल कर रहे थे.

एक दिन अचानक सावित्री ने देखा कि सत्य कुमार के होंठ फड़फड़ा रहे थे और हाथ से कुछ इशारा कर रहा था. उस ने तुरंत डाक्टर को यह बात कही.

डाक्टर ने कहा कि दवा अपना काम कर रही है और उन्हें पूरी उम्मीद है कि अब वह बिलकुल ठीक हो जाएगा.

कुछ दिन बाद सावित्री उसे जब अपने हाथ से खाना खिला रही थी, सत्य कुमार ने उस का हाथ पकड़ कर कुछ बोलने की कोशिश की थी.

उसी शाम जब सावित्री अपने घर जाने के लिए उठी, तो सत्य कुमार ने उस का हाथ पकड़ कर बहुत कोशिश के बाद लड़खड़ाती जबान में बोला, ‘‘रुको, मैं यहां कैसे आया हूं? मैं तो हवाईजहाज में था. मैं तो कारोबार के सिलसिले में बाहर गया हुआ था.’’

फिर अपने बारे में उस ने कुछ जानकारी दी थी. सरपंच और सावित्री दोनों की खुशी का ठिकाना न था. उन्होंने डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने उसे चैक कर कहा, ‘‘मुबारक हो. अब यह होश में आ गया है. इस के मातापिता को सूचना दे दें.’’

सावित्री और सरपंच अस्पताल में ही रुक कर सत्य कुमार के मातापिता का इंतजार कर रहे थे. वे लोग भी खबर मिलते ही दौड़े आए थे. सत्य कुमार ने अपने मातापिता को पहचान लिया था और हादसे के पहले तक की बात बताई. उस के बाद का उसे कुछ याद नहीं था.

सत्य कुमार के पिता ने सरपंच और सावित्री का शुक्रिया अदा करते हुए कहा, ‘‘आप के उपकार के लिए हम लोग हमेशा कर्जदार रहेंगे. यह लड़की आप की बेटी है न?’’

सरपंच बोले, ‘‘मेरे लिए तो बेटी से भी बढ़ कर है. है तो मेरी बहू, पर शादी के एक साल के अंदर ही मेरा एकलौता बेटा हम लोगों को अकेला छोड़ कर चला गया, पर सावित्री ने हमारा साथ नहीं छोड़ा.

‘‘मैं तो चाहता था कि यह अपने मांबाप के पास चली जाए और दूसरी शादी कर ले, पर यह तैयार नहीं थी.’’

सत्य कुमार के पिता ने कहा, ‘‘अगर आप को कोई एतराज नहीं है, तो मैं सावित्री को अपनी बहू बनाने को तैयार हूं, क्यों सत्य कुमार? ठीक रहेगा न?’’

सत्य कुमार ने सहमति में सिर हिला कर अपनी हामी भर दी थी. फिर सेठजी ने सत्य कुमार की मां की ओर देख कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘अरे सेठानी, तुम भी तो कुछ कहो.’’

सेठानी बोलीं, ‘‘आप लोगों ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली है. मेरे बोलने को कुछ बचा ही नहीं है.’’

फिर वे सावित्री की ओर देख कर बोलीं, ‘‘तुम्हें कोई एतराज तो नहीं है?’’

सावित्री की आंखों से आंसू की कुछ बूंदें छलक कर उस के गालों पर आ गई थीं. वह बोली, ‘‘मैं आप लोगों की भावनाओं का सम्मान करती हूं, पर मैं अपने सासससुर को अकेला छोड़ कर नहीं जा सकती.’’

सरपंच ने सावित्री को समझाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें एतराज नहीं होना चाहिए, क्योंकि हम सभी लोगों की खुशी इसी में है. और हम लोगों को अब जीना ही कितने दिन है, जबकि तुम्हारी सारी जिंदगी आगे पड़ी है.’’

सेठजी ने भी सरपंच की बातों को सही ठहराते हुए कहा, ‘‘तुम जब भी चाहो और जितने दिन चाहो, सरपंचजी के यहां बीचबीच में आती रहना.’’

सावित्री सेठजी से बोली, ‘‘सत्यजी को आप ने जन्म दिया है और बाबूजी ने इन्हें दोबारा जन्म दिया है, तो इन की भी तो कुछ जिम्मेदारी बनती है मेरे ससुरजी के लिए.’’

सेठजी बोले, ‘‘मैं मानता हूं और मेरा बेटा भी इतनी समझ रखता है. सत्य कुमार को तो 2-2 पिताओं का प्यार मिलेगा. सत्य कुमार सरपंचजी का उतना ही खयाल रखेगा, जितना वह हमारा रखता है.’’

सावित्री और सत्य दोनों एकदूसरे को देख रहे थे. उन लोगों की बातें सुन कर वह कुछ संतुष्ट लग रही थी.

उस दिन सारी रात लोगों ने अस्पताल में ही बिताई थी. सावित्री के मायके में भी सरपंच ने यह बात बता दी थी. सभी को यह रिश्ता मंजूर था. सरपंच ने धूमधाम से अपने घर से ही सावित्री की शादी की थी.

तुम टूट न जाना : पंडित से दूर रहने की किसने दी सलाह

‘है लो… हैलो… प्रेम, मुझे तुम्हें कुछ बताना है.’

‘‘क्या हुआ वाणी? इतनी घबराई हुई क्यों हो?’’ फोन में वाणी की घबराई हुई आवाज सुन कर प्रेम भी परेशान हो गया.

‘प्रेम, तुम फौरन ही मेरे पास चले आओ,’ वाणी एक सांस में बोल गई.

‘‘तुम अपनेआप को संभालो. मैं तुरंत तुम्हारे पास आ रहा हूं,’’ कह कर प्रेम ने फोन काट दिया. वह मोबाइल फोन जींस की जेब में डाल कर मोटरसाइकिल बाहर निकालने लगा.

वाणी और प्रेम के कमरे की दूरी मोटरसाइकिल से पार करने में महज 15 मिनट का समय लगता था. लेकिन जब कोई बहुत अपना परेशानी में अपने पास बुलाए तो यह दूरी मीलों लंबी लगने लगती है. मन में अच्छेबुरे विचार बिन बुलाए आने लगते हैं.

यही हाल प्रेम का था. वाणी केवल उस की क्लासमेट नहीं थी, बल्कि सबकुछ थी. बचपन की दोस्त से ले कर दिल की रानी तक.

दोनों एक ही शहर के रहने वाले थे और लखनऊ में एक ही कालेज से बीटैक कर रहे थे. होस्टल में न रह कर दोनों ने कमरे किराए पर लिए थे. लेकिन एक ही कालोनी में उन्हें कमरे किराए पर नहीं मिल पाए थे. उन की कोशिश जारी थी कि उन्हें एक ही घर में या एक ही कालोनी में किराए पर कमरे मिल जाएं, ताकि वे ज्यादा से ज्यादा समय एकदूसरे के साथ गुजार सकें.

बहुत सी खूबियों के साथ वाणी में एक कमी थी. छोटीछोटी बातों को ले कर वह बहुत जल्दी परेशान हो जाती थी. उसे सामान्य हालत में आने में बहुत समय लग जाता था. आज भी उस

ने कुछ देखा या सुना होगा. अब वह परेशान हो रही होगी. प्रेम जानता था. वह यह भी जानता था कि ऐसे समय में वाणी को उस की बहुत जरूरत रहती है.

जैसे ही प्रेम वाणी के कमरे में घुसा, वाणी उस से लिपट कर सिसकियां भरने लगी. प्रेम बिना कुछ पूछे उस के सिर पर हाथ फेरने लगा. जब तक वह सामान्य नहीं हो जाती कुछ कह नहीं पाएगी.

वाणी की इस आदत को प्रेम बचपन से देखता आ रहा था. परेशान होने पर वह मां के आंचल से तब तक चिपकी रहती थी, जब तक उस के मन का डर न निकल जाता था. उस की यह आदत बदली नहीं थी. बस, मां का आंचल छूटा तो अब प्रेम की चौड़ी छाती में सहारा पाने लगी थी.

काफी देर बाद जब वाणी सामान्य हुई तो प्रेम उसे कुरसी पर बिठाते हुए बोला, ‘‘अब बताओ… क्या हुआ?’’

‘‘प्रेम, सामने वाले अपार्टमैंट्स में सुबह एक लव कपल ने कलाई की नस काट कर खुदकुशी कर ली. दोनों अलगअलग जाति के थे. अभी उन्होंने दुनिया देखनी ही शुरू की थी. लड़की

17 साल की थी और लड़का 18 साल का…’’ एक ही सांस में कहती चली गई वाणी. यह उस की आदत थी. जब वह अपनी बात कहने पर आती तो उस के वाक्यों में विराम नहीं होता था.

‘‘ओह,’’ प्रेम धीरे से बोला.

‘‘प्रेम, क्या हमें भी मरना होगा? तुम ब्राह्मण हो और मैं यादव. तुम्हारे यहां प्याजलहसुन भी नहीं खाया जाता. मेरे घर अंडामुरगा सब चलता है. क्या तुम्हारी मां मुझे कबूल करेंगी?’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो वाणी? मेरी मां तुम्हें कितना प्यार करती हैं. तुम जानती हो,’’ प्रेम ने उसे समझाने की भरपूर कोशिश की.

‘‘पड़ोसी के बच्चे को प्यार करना अलग बात होती?है, लेकिन दूसरी जाति की लड़की को बहू बनाने में सोच बदल जाती?है,’’ वाणी ने कहा.

वाणी की बात अपनी जगह सही थी. जो रूढि़वादिता, जातिधर्म के प्रति आग्रह इनसानों के मन में समाया हुआ है, वह निकाल फेंकना इतना आसान नहीं है. वह भी मिडिल क्लास सोच वाले लोगों के लिए.

प्रेम की मां भी अपने पंडित होने का दंभ पाले हुए थीं. पिता जनेऊधारी थे. कथा भी बांचते थे. कुलमिला कर घर का माहौल धार्मिक था. लेकिन वाणी के घर से उन के संबंध काफी घरेलू थे. एकदूसरे के घर खानापीना भी रहता था. यही वजह थी कि वाणी और प्रेम करीब आते गए थे. इतने करीब कि वे अब एकदूसरे से अलग होने की भी नहीं सोच सकते थे.

प्रेम को खामोश देख कर वाणी ने दोबारा कहा, ‘‘क्या हमारे प्यार का अंत भी ऐसे ही होगा?’’

‘‘नहीं, हमारा प्यार इतना भी कमजोर नहीं है. हम नहीं मरेंगे,’’ प्रेम वाणी का हाथ अपने हाथ में ले कर बोला.

‘‘बताओ, तुम्हारी मां इस रिश्ते को कबूल करेंगी?’’ वाणी ने फिर से पूछा.

‘‘यह मैं नहीं कह सकता लेकिन

हम अपने प्यार को खोने नहीं देंगे,’’ प्रेम ने कहा.

‘‘आजकल लव कपल बहुत ज्यादा खुदकुशी कर रहे हैं. आएदिन ऐसी खबरें छपती रहती हैं. मु?ो भी डर लगता है,’’ वाणी अपना हाथ प्रेम के हाथ पर रखते हुए बोली. वह शांत नहीं थी.

‘‘तुम ने यह भी पढ़ा होगा कि उन की उम्र क्या थी. वे नाबालिग थे. वे प्यार के प्रति नासमझ होते हैं, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए. हर चीज का एक समय होता है. समय से पहले किया गया काम कामयाब कहां होता है. पौधा भी लगाओ तो बड़ा होने में समय लगता है. तब फल आता है. अगर फल भी कच्चा तोड़ लो तो बेकार हो जाता है. उस पर भी आजकल के बच्चे प्यार की गंभीरता को समझ नहीं पाते हैं. एकदूसरे के साथ डेटिंग, फिर शादी. पर वे शादी के बाद की जिम्मेदारियां नकार जाते हैं.’’

‘‘यानी हम लोग पहले पढ़ाई पूरी करें, फिर नौकरी, उस के बाद शादी.’’

‘‘हां.’’

‘‘लेकिन…’’

‘‘अब लेकिन, क्या?’’

‘‘तुम्हारी मां…’’

अब प्रेम को पूरी बात समझ में आई कि वाणी का डर उस की मां, समाज और जातपांत को ले कर था. थोड़ी देर चुप रह कर वह बोला, ‘‘कोई भी बदलाव विरोध के बिना वजूद में आया है भला? मां के मन में भी यह बदलाव आसानी से नहीं आएगा. मैं जानता हूं. लेकिन मां में एक अच्छी बात है. वे कोई भी सपना पहले से नहीं संजोतीं.

‘‘उन का मानना है कि समय बदलता रहता है. समय के मुताबिक हालात भी बदलते रहते हैं. पहले से देखे हुए सपने बिखर सकते हैं. नए सपने बन सकते हैं, इसलिए वे मेरे बारे में कोई सपना नहीं बुनतीं. बस वे यही चाहती हैं कि मैं पढ़लिख कर अच्छी नौकरी पाऊं और खुश रहूं.

‘‘वे मुझे पंडिताई से दूर रखना चाहती हैं. उन का मानना है कि क्यों हम धर्म के नाम पर पैसा कमाएं जबकि इनसानों को जोकुछ मिलता है, वह उन के कर्मों के मुताबिक ही मिलता है. क्या वे गलत हैं?’’

‘‘नहीं. विचार अच्छे हैं तुम्हारी मां के. लेकिन विचार अकसर हकीकत की खुरदरी जमीन पर ढह जाते हैं,’’ वाणी बोली.

‘‘शायद, तुम मेरे और अपने रिश्ते की बात को ले कर परेशान हो,’’ प्रेम ने कहा.

‘‘हां, जब भी कोई लव कपल खुदकुशी करता है तो मैं डर जाती हूं. अंदर तक टूट जाती हूं.’’

‘‘लेकिन, तुम तो यह मानती हो कि असली प्यार कभी नहीं मरता है और हमारा प्यार तो विश्वास पर टिका है. इसे शादी के बंधन या जिस्मानी संबंधों तक नहीं रखा जा सकता है.’’

तब तक प्रेम चाय बनाने लगा था. वह चाय की चुसकियों में वाणी की उल?ानों को पी जाना चाहता था. हमेशा ऐसा ही होता था. जब भी वाणी परेशान होती, वह चाय खुद बनाता था. चाय को वह धीरेधीरे तब तक पीता रहता था, जब तक वाणी मुसकरा कर यह न कह दे, ‘‘चाय को शरबत बनाओगे क्या?’’

जब पे्रम को यकीन हो जाता कि वाणी नौर्मल?है, तब चाय को एक घूंट में खत्म कर जाता.

‘‘मैं अपनी थ्योरी पर आज भी कायम हूं. मैं ने तुम्हें प्यार किया है. करती रहूंगी. चाहे हमारी शादी हो पाए या नहीं. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या…?’’ चाय का कप वाणी को थमाते हुए प्रेम ने पूछा.

‘‘लड़की हूं न, इसलिए अकसर शादी, घरपरिवार के सपने देख जाती हूं.’’

‘‘मैं भी देखता हूं… सब को हक है सपने देखने का. पर मुझे पक्का यकीन है कि ईमानदारी से देखे गए सपने भी सच हो जाते हैं.’’

‘‘क्या हमारे भी सपने सच होंगे…?’’ वाणी चाय का घूंट भरते हुए बोली.

‘‘हो भी सकते हैं. मैं मां को सम?ाने को कोशिश करूंगा. हो सकता है, मां हम लोगों का प्यार देख कर मान जाएं.’’

‘‘न मानीं तो…?’’ यह पूछते हुए वाणी ने अपनी नजरें प्रेम के चेहरे पर गढ़ा दीं.

‘‘अगर वे न मानीं तो हम अच्छे दोस्त बन कर रहेंगे. हमारे प्यार को रिश्ते का नाम नहीं दिया जा सकता तो मिटाया भी नहीं जा सकता. हम टूटेंगे नहीं.

‘‘तुम वादा करो कि अपनी जान खोने जैसा कोई वाहियात कदम नहीं उठाओगी,’’ कहते हुए प्रेम ने अपना दाहिना हाथ वाणी की ओर बढ़ा दिया.

‘‘हम टूटेंगे नहीं, जान भी नहीं देंगे. इंतजार करेंगे समय का, एकदूसरे का,’’ वाणी प्रेम का हाथ अपने दोनों हाथों में ले कर भींचती चली गई, कभी साथ न छोड़ने के लिए.

आसरा : क्या था आशा का सपना

धूप का एक उदास सा टुकड़ा खिड़की पर आ कर ठिठक गया था, मानो अपने दम तोड़ते अस्तित्व को बचाने के लिए आसरा तलाश रहा हो. खिड़की के पीछे घुटनों पर सिर टिकाए बैठी जया की निगाह धूप के उस टुकड़े पर पड़ी, तो उस के होंठों पर एक सर्द आह उभरी. बस, यही एक टुकड़ा भर धूप और सीलन भरे अंधेरे कमरे का एक कोना ही अब उस की नियति बन कर रह गया है. अपनी इस दशा को जया ने खुद चुना था. इस के लिए वह किसे दोष दे? कसूर उस का अपना ही था, जो उस ने बिना सोचेसमझे एक झटके में जिंदगी का फैसला कर डाला.

उस वक्त उस के दिलोदिमाग पर प्यार का नशा इस कदर हावी था कि वह भूल गई कि जिंदगी पानी की लहरों पर लिखी इबारत नहीं, जो हवा के एक झोंके से मिट भी सकती है और फिर मनचाही आकृति में ढाली भी जा सकती है. जिंदगी तो पत्थर पर उकेरे उन अक्षरों की तरह होती है कि एक बार नक्श हो गए तो हो गए. उसे न तो बदला जा सकता है और न मिटाया जा सकता है. अपनी भूल का शिद्दत से एहसास हुआ तो जया की आंखें डबडबा आईं. घुटनों पर सिर टिकाए वह न जाने कब तक रोती रही और उस की आंखों से बहने वाले आंसुओं में उस का अतीत भी टुकड़ेटुकड़े हो कर टूटताबिखरता रहा. जया अपने छोटे से परिवार में तब कितनी खुश थी.

छोटी बहन अनुपमा और नटखट सोमू दीदीदीदी कहते उस के चारों ओर घूमा करते थे. बड़ी होने की वजह से जया उन दोनों का आदर्श भी थी, तो उन की छोटी से छोटी समस्या का समाधान भी. मां आशा और पिता किशन के लाड़दुलार और भाईबहन के संगसाथ में जया के दिन उन्मुक्त आकाश में उड़ते पंछी से चहकते गुजर रहे थे. इंटर तक जया के आतेआते उस के भविष्य को ले कर मातापिता के मन में न जाने कितने अरमान जाग उठे थे. अपनी मेधावी बेटी को वह खूब पढ़ाना चाहते थे.

आशा का सपना था कि चाहे जैसे भी हो वह जया को डाक्टर बनाएगी जबकि किशन की तमन्ना उसे अफसर बनाने की थी. जया उन दोनों की चाहतों से वाकिफ थी और उन के प्रयासों से भी. वह अच्छी तरह जानती थी कि पिता की सीमित आय के बावजूद वह दोनों उसे हर सुविधा उपलब्ध कराने से पीछे नहीं हटेंगे. जया चाहती थी कि अच्छी पढ़ाई कर वह अपने मांबाप के सपनों में हकीकत का रंग भरेगी. इस के लिए वह भरपूर प्रयास भी कर रही थी. उस के सारे प्रयास और आशा तथा किशन के सारे अरमान तब धरे के धरे रह गए जब जया की आंखों में करन के प्यार का नूर आ समाया.

करन एक बहार के झोंके की तरह उस की जिंदगी में आया और देखतेदेखते उस के अस्तित्व पर छा गया. वह दिन जया कैसे भूल सकती है जिस दिन उस की करन से पहली मुलाकात हुई थी, क्योंकि उसी दिन तो उस की जिंदगी एक ऐसी राह पर मुड़ चली थी जिस की मंजिल नारी निकेतन के सीलन भरे अंधेरे कमरे का वह कोना थी, जहां बैठी जया अपनी भूलों पर जारजार आंसू बहा रही थी. लेकिन उन आंसुओं को समेटने के लिए न तो वहां मां का ममतामयी आंचल था और न सिर पर प्यार भरा स्पर्श दे कर सांत्वना देने वाले पिता के हाथ. वहां थी तो केवल केयरटेकर की कर्कश आवाज या फिर पछतावे की आंच में सुलगती उस की अपनी तन्हाइयां, जो उस के वजूद को जला कर राख कर देने पर आमादा थीं. इन्हीं की तपन से घबरा कर जया ने अपनी आंखें बंद कर लीं.

आंखों पर पलकों का आवरण पड़ते ही अतीत की लडि़यां फिर टूटटूट कर बिखरने लगीं. जया के घर से उस का स्कूल ज्यादा दूर नहीं था. मुश्किल से 10-12 मिनट का रास्ता रहा होगा. कभी कोई लड़की मिल जाती तो स्कूल तक का साथ हो जाता, वरना जया अकेले ही चली जाया करती थी. उस ने स्कूल जाते समय करन को कई बार अपना पीछा करते देखा था.

शुरूशुरू में उसे डर भी लगा और उस ने अपने पापा को इस बारे में बताना भी चाहा, लेकिन जब करन ने उस से कभी कुछ नहीं कहा तो उस का डर दूर हो गया. करन एक निश्चित मोड़ तक उस के पीछेपीछे आता था और फिर अपना रास्ता बदल लेता था. जब कई बार लगातार ऐसा हुआ तो जया ने इसे अपने मन का वहम समझ कर दिमाग से निकाल दिया और इस के ठीक दूसरे ही दिन करन ने जया के साथसाथ चलते हुए उस से कहा, ‘प्लीज, मैं आप से कुछ कहना चाहता हूं.’

जया ने चौंक कर उस की ओर देखा और रूखे स्वर में बोली, ‘कहिए.’ ‘आप नाराज तो नहीं हो जाएंगी?’ करन ने पूछा, तो जया ने उपेक्षा से कहा, ‘मेरे पास इन फालतू बातों के लिए समय नहीं है. जो कहना है, सीधे कहो.’

‘मैं करन हूं. आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.’ करन ने कुछ झिझकते और डरते हुए कहा. अपनी बात कहने के बाद करन जया की प्रतिक्रिया जानने के लिए पल भर भी नहीं रुका और वापस मुड़ कर तेजी से विपरीत दिशा की ओर चला गया.

करन के कहे शब्द देर तक जया के कानों में गूंजते और मधुर रस घोलते रहे. उस की निगाह अब भी उधर ही जमी थी, जिधर करन गया था. अचानक सामने से आती बाइक का हार्न सुन कर उसे स्थिति का एहसास हुआ तो वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ गई. अगले दिन स्कूल जाते समय जया की नजरें करन को ढूंढ़ती रहीं, लेकिन वह कहीं नजर नहीं आया.

3 दिन लगातार जब वह जया को दिखाई नहीं दिया तो उस का मन उदास हो गया. उसे लगा कि करन ने शायद ऐसे ही कह दिया होगा और वह उसे सच मान बैठी, लेकिन चौथे दिन जब करन नियत स्थान पर खड़ा मिला तो उसे देखते ही जया के मन की कली खिल उठी. उस दिन जया के पीछेपीछे चलते हुए करन ने आहिस्ता से पूछा, ‘आप मुझ से नाराज तो नहीं हैं?’

‘नहीं,’ जया ने धड़कते दिल से जवाब दिया, तब करन ने उत्साहित होते हुए बात आगे बढ़ाई, ‘क्या मैं आप का नाम जान सकता हूं?’

‘जया,’ उस का छोटा सा उत्तर था. ‘आप बहुत अच्छी हैं, जयाजी.’ अपनी बात कहने के बाद करन थोड़ी दूर तक जया के साथ चला, फिर उसे ‘बाय’ कर के अपने रास्ते चला गया.

उस दिन के बाद वह दोनों एक निश्चित जगह पर मिलते, वहां से करन थोड़ी दूर जया के साथ चलता, दो बातें करता और फिर दूसरे रास्ते पर मुड़ जाता. इन पल दो पल की मुलाकातों और छोटीछोटी बातों का जया पर ऐसा असर हुआ कि वह हर समय करन के ही खयालों में डूबी रहने लगी. नादान उम्र की स्वप्निल भावनाओं को करन का आधार मिला तो चाहत के फूल खुद ब खुद खिल उठे. यही हाल करन का भी था.

एक दिन हिम्मत कर के उस ने अपने मन की बात जया से कह ही दी, ‘आई लव यू जया,’ मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. तुम्हारे बगैर जिंदगी अधूरीअधूरी सी लगती है. करन के मन की बात उस के होंठों पर आई तो जया के दिल की धड़कनें बेकाबू हो गईं. उस ने नजर भर करन को देखा और फिर पलकें झुका लीं. उस की उस एक नजर में प्यार का इजहार भी था और स्वीकारोक्ति भी.

एक बार संकोच की सीमाएं टूटीं, तो जया और करन के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं. ज्योंज्यों दूरियां कम होती गईं, दोनों एकदूसरे के रंग में रंगते गए. फिर उन्होंने सब की नजरों से छिप कर मिलना शुरू कर दिया. जब भी मौका मिलता, दोनों प्रेमी किसी एकांत स्थल पर मिलते और अपने सपनों की दुनिया रचतेगढ़ते. उस वक्त जया और करन को इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि पागल मन की उड़ान का कोई वजूद नहीं होता. किशोरवय का प्यार एक पागलपन के सिवा और क्या है.

बिलकुल उस बरसाती नदी की तरह जो वर्षाकाल में अपने पूरे आवेग पर होती है, लेकिन उस के प्रवाह में गंभीरता और गहराई नहीं रहती. इसीलिए वर्षा समाप्त होते ही उस का अस्तित्व भी मिट जाता है. अब जया की हर सोच करन से शुरू हो कर उसी पर खत्म होने लगी थी. अब उसे न कैरियर की चिंता रह गई थी और न मातापिता के सपनों को पूरा करने की उत्कंठा. बेटी में आए इस परिवर्तन को आशा की अनुभवी आंखों ने महसूस किया तो एक मां का दायित्व निभाते हुए उन्होंने जया से पूछा, ‘क्या बात है जया, इधर कुछ दिन से मैं महसूस कर रही हूं कि तू कुछ बदलीबदली सी लग रही है? आजकल तेरी सहेलियां भी कुछ ज्यादा ही हो गई हैं.

तू उन के घर जाती रहती है, लेकिन उन्हें कभी नहीं बुलाती?’ मां द्वारा अचानक की गई पूछताछ से जया एकदम घबरा गई. जल्दी में उसे कुछ सुझाई नहीं दिया, तो उस ने बात खत्म करने के लिए कह दिया, ‘ठीक है मम्मी, आप मिलना चाहती हैं तो मैं उन्हें बुला लूंगी.’ कई दिन इंतजार करने के बाद भी जब जया की कोई सहेली नहीं आई और उस ने भी जाना बंद नहीं किया तो मजबूरी में आशा ने जया को चेतावनी देते हुए कहा, ‘अब तू कहीं नहीं जाएगी. जिस से मिलना हो घर बुला कर मिल.’ घर से निकलने पर पाबंदी लगी तो जया करन से मिलने के लिए बेचैन रहने लगी. आशा ने भी उस की व्याकुलता को महसूस किया, लेकिन उस से कहा कुछ नहीं. धीरेधीरे 4-5 दिन सरक गए तो एक दिन जया ने आशा को अच्छे मूड में देख कर उन से थोड़ी देर के लिए बाहर जाने की इजाजत चाही, जया की बात सुनते ही आशा का पारा चढ़ गया. उन्होंने नाराजगी भरे स्वर में जया को जोर से डांटते हुए कहा, ‘इतनी बार मना किया, समझ में नहीं आया?’ ‘‘इतनी बार मना कर चुका हूं, सुनाई नहीं देता क्या?’’

नारी निकेतन के केयरटेकर का कर्कश स्वर गूंजा तो जया की विचारधारा में व्यवधान पड़ा. उस ने चौंक कर इधरउधर देखा, लेकिन वहां पसरे सन्नाटे के अलावा उसे कुछ नहीं मिला. जया को मां की याद आई तो वह फूटफूट कर रो पड़ी. जया अपनी नादानी पर पश्चाताप करती रही और बिलखबिलख कर रोती रही. इन आंसुओं का सौदा उस ने स्वयं ही तो किया था, तो यही उस के हिस्से में आने थे. इस मारक यंत्रणा के बीच वह अपने अतीत की यादों से ही चंद कतरे सुख पाना चाहती थी, तो वहां भी उस के जख्मों पर नमक छिड़कता करन आ खड़ा होता था.

उस दिन मां के डांटने के बाद जया समझ गई कि अब उस का घर से निकल पाना किसी कीमत पर संभव नहीं है. बस, यही एक गनीमत थी कि उसे स्कूल जाने से नहीं रोका गया था और स्कूल के रास्ते में उसे करन से मुलाकात के दोचार मिनट मिल जाते थे. आशा ने बेटी के गुमराह होते पैरों को रोकने का भरसक प्रयास किया, लेकिन जया ने उन की एक नहीं मानी. एक दिन आशा को अचानक किसी रिश्तेदारी में जाना पड़ा. जाना भी बहुत जरूरी था, क्योंकि वहां किसी की मृत्यु हो गई थी.

जल्दबाजी में आशा छोटे बेटे सोमू को साथ ले कर चली गई. जया पर प्यार का नशा ऐसा चढ़ा था कि ऐसे अवसर का लाभ उठाने से भी वह नहीं चूकी. उस ने छोटी बहन अनुपमा को चाकलेट का लालच दिया और करन से मिलने चली गई. जया ने फोन कर के करन को बुलाया और उस के सामने अपनी मजबूरी जाहिर की. जब करन कोई रास्ता नहीं निकाल पाया तो जया ने बेबाक हो कर कहा, ‘अब मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती, करन. हमारे सामने मिलने का कोई रास्ता नहीं बचा है.’ जया की बात सुनने के बाद करन ने उस से पूछा, ‘मेरे साथ चल सकती हो जया?’

‘कहां?’ जया ने रोंआसी आवाज में कहा, तो करन बेताबी से बोला, ‘कहीं भी. इतनी बड़ी दुनिया है, कहीं तो पनाह मिलेगी.’ …और उसी पल जया ने एक ऐसा निर्णय कर डाला जिस ने उस के जीवन की दिशा ही पलट कर रख दी. इस के ठीक 5-6 दिन बाद जया ने सब अपनों को अलविदा कह कर एक अपरिचित राह पर कदम रख दिया. उस वक्त उस ने कुछ नहीं सोचा. अपने इस विद्रोही कदम पर वह खूब खुश थी क्योंकि करन उस के साथ था. करन जया को ले कर नैनीताल चला गया और वहां गेस्टहाउस में एक कमरा ले कर ठहर गया. करन का दिनरात का संगसाथ पा कर जया इतनी खुश थी कि उस ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि उस के इस तरह बिना बताए घर से चले जाने पर उस के मातापिता पर क्या गुजर रही होगी. काश, उसे इस बात का तनिक भी आभास हो पाता.

जया दोपहर को उस वक्त घर से निकली थी जब आशा रसोई में काम कर रही थीं. काम कर के बाहर आने के बाद जब उन्हें जया दिखाई नहीं दी तो उन्होंने अनुपमा से उस के बारे में पूछा. उस ने बताया कि दीदी बाहर गई हैं. यह जान कर आशा को जया पर बहुत गुस्सा आया. वह बेताबी से उस के लौटने की प्रतीक्षा करती रहीं.

जब शाम ढलने तक जया घर नहीं लौटी तो उन का गुस्सा चिंता और परेशानी में बदल गया. 8 बजतेबजते किशन भी घर आ गए थे, लेकिन जया का कुछ पता नहीं था. बात हद से गुजरती देख आशा ने किशन को जया के बारे में बताया तो वह भी घबरा गए. उन दोनों ने जया को लगभग 3-4 घंटे पागलों की तरह ढूंढ़ा और फिर थकहार कर बैठ गए. वह पूरी रात उन्होंने जागते और रोते ही गुजारी. सुबह होने तक भी जया घर नहीं लौटी तो मजबूरी में किशन ने थाने जा कर उस की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करा दी.

बेटी के इस तरह गायब हो जाने से किशन का दुख और चिंता से बुरा हाल था. उधर आशा की स्थिति तो और भी दयनीय थी. उन्हें रहरह कर इस बात का पछतावा हो रहा था कि उन्होंने जया के घर से बाहर जाने वाले मामले की खोजबीन उतनी गहराई से नहीं की, जितनी उन्हें करनी चाहिए थी. इस की वजह यही थी कि उन्हें अपनी बेटी पर पूरा भरोसा था. किशन और आशा बेटी को ले कर एक तो वैसे ही परेशान थे, दूसरे जया के गायब होने की बात फैलने के साथ ही रिश्तेदारों और परिचितों द्वारा प्रश्न दर प्रश्न की जाने वाली पूछताछ उन्हें मानसिक तौर पर व्यथित कर रही थी.

मिलनेजुलने वाले की बातों और परामर्शों से परेशान हो कर किशन और आशा ने घर से बाहर निकलना ही बंद कर दिया था. उधर जया मातापिता पर गुजर रही कयामत से बेखबर नैनीताल की वादियों का आनंद उठा रही थी. करन के प्यार का नशा उस पर इस तरह से चढ़ा हुआ था कि उसे अपने भविष्य के बारे में सोचने का भी होश नहीं था. उसे यह भी चिंता नहीं थी कि जब उस के घर से लाए पैसे खत्म हो जाएंगे, तब क्या होगा? और यह सब उस की उस नासमझ उम्र का तकाजा था जिस में भावनाएं, कल्पनाएं तथा आकर्षण तो होता है, लेकिन गंभीरता या परिपक्वता नहीं होती.

किशन की रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने काररवाई शुरू की तो शीघ्र ही जया की गुमशुदगी का रहस्य खुल कर सामने आ गया. पुलिस द्वारा जया की फोटो दिखा कर की गई पूछताछ के दौरान पता चला कि वह लड़की नैनीताल जाने वाली बस में चढ़ते देखी गई थी. बताने वाले दुकानदार ने पुलिस को यह जानकारी भी दी कि उस के साथ एक लड़का भी था, इतना पता चलते ही पुलिस उसी दिन नैनीताल के लिए रवाना हो गई.

नैनीताल पहुंचने के बाद पुलिस ने जया की खोज गेस्टहाउसों से ही शुरू की, क्योंकि दिनरात के अनुभवों के आधार पर पुलिस वालों का नजरिया था कि घर से भागे किशोरवय प्रेमीप्रेमिका पैसा कम होने की वजह से होटल के बजाय छोटेमोटे गेस्टहाउसों को ही अपना ठिकाना बनाते हैं. पुलिस का अनुमान ठीक निकला. एक गेस्टहाउस के केयरटेकर ने पुलिस वालों को बताया कि कम उम्र का एक प्रेमीयुगल 4 दिन पहले उस के यहां आ कर ठहरा था. पुलिस ने एंट्री रजिस्टर में उन का नाम और पता देखा, तो दोनों ही गलत दर्ज थे. इस बीच पुलिस द्वारा गेस्टहाउस में की जाने वाली जांचपड़ताल का पता सब को चल चुका था. पुलिस का नाम सुनते ही करन के होश उड़ गए.

उस ने बचे हुए पैसे अपनी जेब में डाले और जया से बोला,

‘‘तुम डरना नहीं जया. मैं 10-15 मिनट में लौट आऊंगा.’’

जया ने करन को रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वह एक झटके से कमरे के बाहर हो गया. पुलिस जब तक जया के कमरे पर पहुंची, तब तक करन उस की पहुंच से बाहर निकल चुका था. मजबूरी में पुलिस जया को ले कर लौट आई. जया के बरामद होने की सूचना पुलिस ने उस के घर भेज दी थी. किशन को जब इस बात का पता चला कि जया किसी लड़के के साथ भागी थी तो अपनी बेटी की इस करतूत से उन का सिर हमेशा के लिए झुक गया था.

उन की समझ में नहीं आ रहा था कि वह लोगों का सामना कैसे कर पाएंगे. जया ने उन्हें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा था. किशन में अब इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वह पुलिस थाने जा कर जया को ले आते. वह यह भी जानते थे कि जया के मिलने की खबर पाते ही रिश्तेदारों और परिचितों का जो तूफान उठेगा, वह उस का सामना नहीं कर पाएंगे. जया की बरामदगी के बाद पुलिस द्वारा किशन को लगातार संदेश दिया जा रहा था कि वह अपनी बेटी को ले जाएं.

जब पुलिस का दबाव बढ़ा तो किशन आपा खो बैठे और थाने जा कर पुलिस वालों से दोटूक कह दिया कि वह बेटी से अपने सारे संबंध खत्म कर चुके हैं. अब उस से उन का कोई रिश्ता नहीं है. वह अपनी रिपोर्ट भी वापस लेने को तैयार हैं. एक झटके में बेटी से सारे नाते तोड़ कर किशन वहां से चले गए. तब मजबूरी में पुलिस ने जया को हवालात से निकाल कर नारीनिकेतन भेज दिया.

जब जया ने वहां लाने की वजह जाननी चाही, तो एक पुलिसकर्मी ने व्यंग्य करते हुए उसे बताया,

‘घर से भागी थी, अपने यार के साथ, अब नतीजा भुगत. तेरे घर वाले तुझे ले जाने को तैयार नहीं हैं. उन्होंने तुझ से रिश्ता खत्म कर लिया है. अब नारीनिकेतन तेरा ‘आसरा’ है.’

अतीत की लडि़यां बिखरीं तो जया यथार्थ में लौटी. अब उस की जिंदगी का सच यही था जो उस के सामने था. उस ने रोरो कर सूज चुकी आंखों से खिड़की के पार देखना चाहा तो उसे दूरदूर तक फैले अंधेरे के अलावा कुछ नजर नहीं आया. धूप का वह टुकड़ा भी न जाने कब, कहां विलीन हो गया था. जया के मन में, जीवन में और बाहर चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था.

इस अंधेरे में अकेले भटकतेभटकते उस का मन घबराया तो उसे मां का आंचल याद आया. वह बचपन में अकसर अंधेरे से डर कर मां के आंचल में जा छिपती थी, लेकिन अब वहां न तो मां थी और न मां का आंचल ही था. जिंदगी के इस मोड़ पर आ कर जया को अपनों की अहमियत का पता चला. उसे इस बात का एहसास भी अब हुआ कि मांबाप बच्चों की भलाई और उन के सुरक्षित भविष्य के लिए ही उन पर पाबंदियां लगाते हैं.

मातापिता के सख्ती बरतने के पीछे भी उन का प्यार और बच्चों के प्रति लगाव ही होता है. उसे इस बात का बेहद पछतावा था कि उस ने समय रहते मम्मी और पापा की भावनाओं की कद्र की होती तो उस का उज्ज्वल भविष्य नारीनिकेतन के उस गंदे से कमरे में दम न तोड़ रहा होता और जिस करन के प्यार के खुमार में उस ने अपनों को ठुकराया, वही करन उसे बीच मझधार में छोड़ कर भाग खड़ा हुआ. उस ने एक बार भी पलट कर यह देखने की कोशिश नहीं की कि जया पर क्या बीत रही होगी. करन की याद आते ही जया का मन वितृष्णा से भर उठा.

उसे अपने आप पर ग्लानि भी हुई कि एक ऐसे कृतघ्न के चक्कर में पड़ कर उस ने अपनी जिंदगी तो बर्बाद की ही, अपने परिवार वालों का सम्मान भी धूल में मिला दिया. अपनी भूल पर पछताती जया न जाने कब तक रोती रही. जब बैठेबैठे वह थक गई तो सीलन भरे नंगे फर्श पर ही लेट गई. आंखों से आंसू बहतेबहते कब नींद ने उसे अपने आगोश में समेट लिया, जया को पता ही न चला. अपनी बदरंग जिंदगी बिताने के लिए उसे आखिर एक ‘आसरा’ मिल ही गया था. नारीनिकेतन के सीलन भरे अंधेरे कमरे का वह कोना, जहां जिंदगी से थकीहारी जया नंगे फर्श पर बेसुध सो रही थी.

लिव इन की चोट : क्या फ्रैंड की तलाश हुई पूरी

आज राहुल के दोस्त विनय के बेटे का नामकरण था, इसलिए वह औफिस से सीधे उस के घर चला गया था. वैसे, राहुल को ऐसे उत्सव पसंद नहीं आते थे, पर विनय के आग्रह पर उसे वहां जाना ही पड़ा, क्योंकि विनय उस का जिगरी दोस्त जो था.

‘‘यार, अब तू भी सैटल हो ही जा, आखिर कब तक यों ही भटकता रहेगा,’’ फंक्शन खत्म होने के बाद नुक्कड़ वाली पान की दुकान पर पान खाते हुए विनय ने राहुल से कहा. ‘‘नहीं यार,’’ राहुल पान चबाता हुआ बोला, ‘‘तुझे तो पता है न कि मुझे इन सब झमेलों से कितनी कोफ्त होती है?

‘‘भई, मैं तो अपनी पूरी जिंदगी पति नाम का पालतू जीव बन कर नहीं गुजार सकता. मैं सच कहूं तो मुझे शादी के नाम से ही चिढ़ है और बच्चा… न भई न.’’

‘‘अच्छा यार, जैसी तेरी मरजी,’’ इत कह कर विनय खड़ा हुआ, ‘‘पर हां, एक बात तेरी जानकारी के लिए बता दूं कि मेरी पत्नी राशि की मुंहबोली बहन करिश्मा फिदा है तुझ पर. उस बेचारी ने जब से तुझे मेरी शादी में देखा है तब से वह तेरे नाम की रट लगाए बैठी है. उस ने जो मुझ से कहा वह मैं ने तुझे बता दिया, अब आगे तेरी मरजी.’’

उस के बाद काफी समय तक दोनों की मुलाकात नहीं हो पाई, क्योंकि अपने घर वालों के तानों से तंग आ कर अब राहुल ज्यादातर टूर पर ही रहता था.

‘‘न जाने क्या है हमारे बेटे के मन में, लगता है पोते का मुंह देखे बिना ही मैं इस दुनिया से चली जाऊंगी,’’ जबजब राहुल की मां उस से यह कहतीं, तबतब राहुल की बेचैनी बहुत बढ़ जाती.

वैसे उस के पापा इस बारे में उस से कुछ नहीं कहते थे. पर उन का चेहरा देख राहुल भी परेशान हो जाता था. राहुल अच्छा कमाता था और उस का व्यक्तित्व भी आकर्षक था. पर शादी के नाम से उसे चिढ़ थी. इसलिए तो वह अब तक अपने लिए आया हर शादी का रिश्ता ठुकराता रहा था.

लेकिन फिर धीरेधीरे उस के मम्मीपापा ने उसे इस बारे में टोकना छोड़ दिया था, क्योंकि वे जानते थे कि शादी का रिश्ता जबरदस्ती से नहीं कायम किया जा सकता.

मातापिता के इस बदलाव से राहुल बेहद खुश था, क्योंकि यह सब उस के लिए किसी सुकून से कम नहीं था.

एक बार राहुल ट्रेन से सफर कर रहा था, तब उस की मुलाकात शिल्पा से हुई जो मौडल बनने की चाह लिए दिल्ली आईर् थी.

शिल्पा उसी की तरह खुले विचारों वाली युवती थी, जिसे बंधन में बंध कर जीना बिलकुल पसंद नहीं था.

‘‘सच, तुम्हारे व मेरे विचार कितने मिलतेजुलते हैं. सफर खत्म होने से पहले ही राहुल ने यह शिल्पा से कह डाला था. ’’

‘‘वह तो है पर…’’

‘‘हांहां, बोलो न,’’ राहुल बातचीत का सूत्र आगे बढ़ाता हुआ कह रहा था.

‘‘अगर तुम चाहो तो हम दोनों एक राह के मुसाफिर बन कर रह सकते हैं,’’ शिल्पा अपनी जुल्फों पर उंगलियां फेरते हुए बोली.

‘‘सच, तुम ने तो मेरे मन की बात कह डाली,’’ यह कहतेकहते ही राहुल की आंखों में एक अजीब सी चमक कौंध उठी थी.

‘‘तो फिर क्या कहते हो?’’ शिल्पा राहुल की आंखों में गहराई से देखते हुए उस से पूछने लगी थी, ‘‘मेरी फ्रैंड का फ्लैट है यहां दिल्ली में. किराया कुछ ज्यादा है, तो क्या हम फ्लैट शेयर कर लें और बाकी खर्चे भी आधेआधे हो जाएंगे, कैसा रहेगा?’’

‘‘हांहां, नेकी और पूछपूछ,’’ राहुल हंसते हुए बोला, ‘‘दरअसल, मैं खुद एक ऐसे फ्रैंड की तलाश में था, जिस के साथ मैं बिना किसी रोकटोक के सुकून से रह सकूं और रही बात खर्चे शेयर करने की, तो उस में मुझे कोई प्रौब्लम नहीं है.’’

इस तरह दोनों के बीच लिवइन में रहने की डील तय हुई और फिर दोनों जल्दी ही उस फ्लैट में शिफ्ट हो गए.

सच, क्या आजाद जिंदगी थी दोनों की? न किसी की टोकाटाकी न किसी के प्रति कोई जवाबदेही. आकाश में उन्मुक्त पंछियों की तरह दोनों ही अपनीअपनी जिंदगी मजे से जी रहे थे.

हर सुबह राहुल औफिस के लिए निकल जाता तो शिल्पा काम ढूंढ़ने के लिए ऐड एजेंसियों के चक्कर काटती. शाम होने पर तकरीबन दोनों ही लौट आते और अगर कोई देर से भी लौटता तो दूसरे को परेशान होने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि उन के फ्लैट की 2 चाबियां थीं.

पर हां, साथसाथ डिनर करना, बाहर से पिज्जा या चाइनीज फूड और्डर करना, यहां तक तो दोनों को मंजूर था पर रात गहराते ही दोनों अपनेअपने बैडरूम में चले जाते ताकि दोनों के बीच कुछ भी ऐसावैसा न हो, जिस की वजह से उन्हें किसी मुसीबत का सामना करना पड़े.

एक बार जब शिल्पा को कई दिनों की दौड़धूप के बाद एक नामी ऐड एजेंसी से मौडलिंग का औफर मिला तब वह मानो खुशी से झूम उठी.

‘‘यार, आज तो वाकई में सैलिब्रेशन बनता है,’’ राहुल ने कहा.

‘‘हां, बोलो, क्या चाहते हो, मैं ने कब इनकार किया है?’’ शिल्पा आंख से आंख मिलाते हुए राहुल के एकदम पास जा कर बोली.

‘‘तो हो जाए, आज फिर धूमधड़ाका, कुछ मौजमस्ती,’’ राहुल शरारत से एक आंख दबाते हुए बोला तो शिल्पा खुद को रोक न सकी और तुरंत उस के सीने से चिपक गई.

फिर उन दोनों के बीच जो कुछ हुआ वह किसी फन से, मौजमस्ती से कम न था. उस रात दोनों ने एक नए अनुभव से खुद को रोमांचित किया. सच, क्या उन्माद छाया था दोनों पर. फिर तो उन की पूरी रात आंखों ही आंखों में कट गई.

अगली सुबह दोनों ही अलसाए से अपनेअपने काम पर चले गए. अब जब दोनों ने ही अपने ऊपर लगा बंधन तोड़ दिया  तो ऐसे में अब तकरीबन हर रोज ही दोनों के बीच शारीरिक संबंध बनने लगे थे.

‘‘उफ, राहुल, क्या मादकता है तुम्हारे स्पर्श में, मेरा रोमरोम मानो पिघल जाता है,’’ शिल्पा राहुल में समाते हुए कह उठी.

‘‘मैडम, तुम भी तो कम कहर नहीं ढातीं मुझ पर. सच, तुम्हारा यह रूप, यह यौवन मुझे तड़पने को मजबूर कर देता है,’’ प्रत्युत्तर में राहुल उसे चूमते हुए कहता. फिर दोनों एकदूसरे में खो जाते और  घंटों प्रेमालाप में मग्न रहते.

एक दिन जब शिल्पा कुछ बुझीबुझी सी घर पहुंची तब राहुल से रुका न गया. वह शिल्पा का मूड ठीक करने के लिए तुरंत बढि़या कौफी बना कर लाया और उसे कौफी का मग थमाते हुए उस से पूछने लगा, ‘‘क्या हुआ शूटिंग कैंसिल हो गई क्या?’’

‘‘नहीं, अभीअभी ऐबौर्शन करवा कर आई हूं,’’ शिल्पा ठंडे स्वर में बोली.

‘‘क्या? ऐबौर्शन… कम से कम एक बार मुझ से पूछ तो लेतीं. वह बच्चा मेरा भी तो था?’’ राहुल भरेमन से बोला.

‘‘ओ मिस्टर, ज्यादा इमोशनल होने की जरूरत नहीं है,’’ शिल्पा कड़क स्वर में चीखते हुए बोली, ‘‘तुम मेरे हसबैंड नहीं हो, जो मैं तुम्हारी राय पूछती. अरे, मौजमस्ती के परिणाम को पैरों की बेडि़यां नहीं बनाया जाता बल्कि समय रहते काट कर फेंक दिया जाता है ताकि आगे चल कर कोई परेशानी न हो.’’

‘‘सौरी मैम, मैं तो भूल ही गया था कि आप उच्च प्रगतिशील सोच की मालकिन हैं…’’ इतना कहतेकहते राहुल की आंखें भर आईं, ‘‘वैसे हम शादी भी तो कर सकते थे.’’

‘‘ओह राहुल,’’ शिल्पा उस के नजदीक जाते हुए बोली, ‘‘जो हुआ उसे भूल जाओ और आज नए तरीके से मुझे सैक्स के मजे दिलवाओ. पताहै, करुण मुझे ड्रिंक पर ले जाना चाहता था पर मैं ने मना कर दिया, क्योंकि अब मुझे सिर्फ तुम्हारा साथ भाता है.’’

‘‘पर मैडम, मैं इतने बड़े दिल वाला नहीं जो अपने बच्चे को खोने का जश्न मनाऊं,’’ राहुल खुद को शिल्पा की गिरफ्त से छुड़ाते हुआ बोला.

‘‘ये क्या, तुम ने मेरे बच्चे, मेरे बच्चे की रट लगा रखी है? अरे, वह बच्चा सिर्फ मेरा था, इसलिए उस का क्या करना था, इस का हक भी सिर्फ मुझे ही था.

‘‘और वैसे भी, यह शादी, यह बच्चे जैसी फुजूल की बातों के लिए मेरे पास समय नहीं है. आज सफलता की जिस सीढ़ी की तरफ मैं बढ़ रही हूं वहां मेरे लिए शादी और बच्चे का बोझ ले कर चढ़ना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है.’’

‘‘तो ठीक है, मैडम,’’ राहुल गुस्से से चीखते हुए बोला, ‘‘तो तुम अब अपनी सफलता के साथ रहो और मुझे अकेला छोड़ दो.’’

वह गुस्से में पैर पटकता हुआ तेजी से बाहर निकल आया और शिल्पा बदहवास बुत सी बनी बैठी रह गई.

बहुत देर तक खाली विरान सड़कों की खाक छानने के बाद राहुल अचानक विनय के पास पहुंच गया. इस समय वह अपने घर जा कर अपने मातापिता को परेशान नहीं करना चाहता था.

‘‘अरे वाह, आज चांद कहां से निकल आया, भई,’’ विनय मुसकराते हुए उस से पूछने लगा. जवाब में वह फीकी सी हंसी हंस दिया था.

‘‘यार, इस समय तेरे घर आ कर मैं ने तुझे भी परेशान कर कर दिया,’’ राहुल कतर स्वर में विनय से बोला.

‘‘तू भी न, कमाल करता है यार. अगर तू बाहर से ही वापस चला जाता तो राशि भला मुझे बख्शती,’’ इतना कहते ही उस ने राशि को बाहर आने के लिए आवाज लगाई.

‘‘अरे भैया, इतने दिन बाद,’’ राशि मुसकराते हुए उस का स्वागत करने लगी. राशि का ऐसा खुशमिजाज व्यवहार देख कर राहुल उस की तुलना शिल्पा से करने लगा जो उस के दोस्तों को देखते ही बुरा सा मुंह बना लेती है और तब राहुल चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता, क्योंकि वह और शिल्पा लिवइन में जो रह रहे थे.

‘‘अरे भैया, कहां खो गए आप…’’ राशि मुन्ने को विनय के हवाले करते हुए बोली, ‘‘आप जरा मुन्ने को संभालिए, मैं झटपट खाना तैयार कर देती हूं. सब्जी और रायता तो तैयार ही है, बस, फुलके सेंकने बाकी हैं.’’

वह फुरती से किचन की तरफ बढ़ गई. इस बीच, राहुल ने मुन्ने को विनय से ले लिया और खुद उस के साथ खेलने लगा.

जब मुन्ने की कोमलकोमल उंगलियों ने राहुल के हाथों का स्पर्श किया तो उस स्पर्शमात्र से ही राहुल का दिल भर आया और वह मन ही मन अपने उस अजन्मे शिशु को याद कर के रो पड़ा, जिसे शिल्पा की  प्रगतिवादी सोच ने असमय अपनी कोख में ही लील लिया था.

थोड़ी देर बाद सभी डाइनिंग टेबल पर थे. सच में राशि के हाथ का खाना खा कर उसे अपनी मां की याद आ गई जो बिलकुल ऐसा ही खाना बना कर उसे खिलाती थीं.

पर जब से वह शिल्पा के साथ लिवइन में था, तब से उस ने घर के खाने का स्वाद चखा ही नहीं था. शुरुशुरु में जब एक बार राहुल ने शिल्पा से डिनर घर पर बनाने की बात कही, तब वह मानो गुस्से में उस पर फट पड़ी थी और लगभग चीखते हुए बोली, ‘मैं कोई दासी नहीं हूं जो किचन में खड़ी हो कर घंटों पसीना बहाऊं. जो खाना है, बाहर से और्डर कर लो और हां, मेरी चिंता मत करना, क्योंकि मैं डाइटिंग पर हूं.’

‘‘किस सोच में पड़ गए भैया? खाना अच्छा नहीं लगा क्या?’’ राशि के टोकने पर मानो राहुल की तंद्रा भंग हुई और वह अतीत से वर्तमान में आते हुए बोला, ‘‘नहीं भाभी, खाना तो वाकई बहुत बढि़या बना है बल्कि मैं ने तो इतने समय बाद…’’ बाकी बात राहुल ने अपने भीतर ही रोक ली ताकि उसे राशि व विनय के सामने शर्मिंदा न होना पड़े.

‘‘भैया, एक बात कहू,’’करिश्मा का औफर अभी ओपन है आप के लिए, क्योंकि वह आप को अपना क्रश जो मानती है. वैसे, अब उस पर शादी का दबाव बहुत बढ़ रहा है. पर अगर आप चाहें तो मैं सारा मामला तुरंत निबटा सकती हूं, क्योंकि मैं जानती हूं कि अभी भी आप को ही प्राथमिकता दी जाएगी,’’ राशि झूठे बरतन समेटते हुए बोली.

‘‘तुम भी न राशि,’’ विनय उसी की बात काटते हुए बोला, ‘‘भई, राहुल को तो शादी के नाम से ही चिढ़ है और तुम…’’

‘‘मैं तैयार हूं.’’

राहुल विनय की बात पूरी होने से पहले ही बोल पड़ा. राहुल के मुंह से यह सुन कर विनय का दिल भर आया और तब भावातिरेक में उस ने राहुल को अपने गले से लगा लिया.

‘‘यह हुई न बात, अब भैया आप ने हां कर दी है, तो देखिएगा कि मैं और विनय मिल कर कैसे आप का मामला फिट करते हैं,’’ राशि भी उत्साहित हो उठी थी.

‘‘हांहां, बिलकुल, अब तो चटमंगनी पट ब्याह होगा,’’ विनय के मुंह से यह अचानक निकला और फिर तीनों खिलखिला कर हंस पड़े.

निकिता की नाराजगी: कौन-सी भूल से अनजान था रंजन

निकिता अकसर किसी बात को ले कर झल्ला उठती थी. वह चिङचिङी स्वभाव की क्यों हो गई थी, उसे खुद भी पता नहीं था. पति रंजन ने कितनी ही बार पूछा लेकिन हर बार पूछने के साथ ही वह कुछ और अधिक चिड़चिड़ा जाती.

“जब देखो तब महारानी कोपभवन में ही रहती हैं. क्या पता कौन से वचन पूरे न होने का मौन उलाहना दिया जा रहा है. मैं कोई अंतरयामी तो हूं नहीं जो बिना बताए मन के भाव जान लूं. अरे भई, शिकायत है तो मुंह खोला न, लेकिन नहीं. मुंह को तो चुइंगम से चिपका लिया. अब परेशानी बूझो भी और उसे सुलझाओ भी. न भई न. इतना समय नहीं है मेरे पास,” रंजन उसे सुनाता हुआ बड़बड़ाता.

निकिता भी हैरान थी कि वह आखिर झल्लाई सी क्यों रहती है? क्या कमी है उस के पास? कुछ भी तो नहीं… कमाने वाला पति. बिना कहे अपनेआप पढ़ने वाले बच्चे. कपड़े, गहने, कार, घर और अकेले घूमनेफिरने की आजादी भी. फिर वह क्या है जो उसे खुश नहीं होने दे रहा? क्यों सब सुखसुविधाओं के बावजूद भी जिंदगी में मजा नहीं आ रहा.

कमोबेश यही परेशानी रंजन की भी है. उस ने भी लाख सिर पटक लिया लेकिन पत्नी के मन की थाह नहीं पा सका. वह कोई एक कारण नहीं खोज सका जो निकिता की नाखुशी बना हुआ है.

‘न कभी पैसे का कोई हिसाब पूछा न कभी खर्चे का. न पहननेओढ़ने पर पाबंदी न किसी शौक पर कोई बंदिश. फिर भी पता नहीं क्यों हर समय कटखनी बिल्ली सी बनी रहती है…’ रंजन दिन में कम से कम 4-5 बार ऐसा अवश्य ही सोच लेता.

ऐसा नहीं है कि निकिता अपनी जिम्मेदारियों को ठीक तरह से नहीं निभा रही या फिर अपनी किसी जिम्मेदारी में कोताही बरत रही है. वह सबकुछ उसी तरह कर रही है जैसे शादी के शुरुआती दिनों में किया करती थी. वैसे ही स्वादिष्ठ खाना बनाती है. वैसे ही घर को चकाचक रखती है. बाहर से आने वालों के स्वागतसत्कार में भी वही गरमजोशी दिखाती है. लेकिन सबकुछ होते हुए भी उस के क्रियाकलापों में वह रस नहीं है. मानों फीकी सी मिठाई या फिर बिना बर्फ वाला कोल्डड्रिंक… उन दिनों कैसे उमगीउमगी सी उड़ा करती थी. अब मानों पंख थकान से बोझिल हो गए हैं.

रंजन ने कई दोस्तों से अपनी परेशानी साझा की. अपनीअपनी समझ के अनुसार सब ने सलाह भी दी. किसी ने कहा कि महिलाओं को सरप्राइज गिफ्ट पसंद होते हैं तो रंजन उस के लिए कभी साड़ी, कभी सूट तो कभी कोई गहना ले कर आया लेकिन निकिता की फीकी हंसी में प्राण नहीं फूंक सका. किसी ने कहा कि बाहर डिनर या लंच पर ले कर जाओ. वह भी किया लेकिन सब व्यर्थ. किसी ने कहा पत्नी को किसी पर्यटन स्थल पर ले जाओ लेकिन ले किसे जाए? कोई जाने को तैयार हो तब न? कभी बेटे की कोचिंग तो कभी बेटी की स्कूल… कोई न कोई बाधा…

रंजन को लगता है कि निकिता बढ़ते बच्चों के भविष्य को ले कर तनाव में है. कभी उसे लगता कि वह अवश्य ही किसी रिश्तेदार को ले कर हीनभावना की शिकार हो रही है. कभीकभी उसे यह भी वहम हो जाता कि कहीं खुद उसे ही ले कर तो किसी असुरक्षा की शिकार तो नहीं है? लेकिन उस की हर धारणा बेकार साबित हो रही थी.

ऐसा भी नहीं है कि निकिता उस से लड़तीझगड़ती या फिर घर में क्लेश करती, बस अपनी तरफ से कोई पहल नहीं करती. न ही कोई जिद या आग्रह. जो ले आओ वह बना देती है, जो पड़ा है वह पहन लेती. अपनी तरफ से तो बात की शुरुआत भी नहीं करती. जितना पूछो उतना ही जवाब देती. अपनी तरफ से केवल इतना ही पूछती कि खाने में क्या बनाऊं? या फिर चाय बना दूं? शेष काम यंत्रवत ही होते हैं.

कई बार रंजन को लगता है जैसे निकिता किसी गहरे अवसाद से गुजर रही है लेकिन अगले ही पल उसे फोन पर बात करते हुए मुसकराता देखता तो उसे अपना वहम बेकार लगता.
निकिता एक उलझी हुई पहेली बन चुकी थी जिसे सुलझाना रंजन के बूते से बाहर की बात हो गई. थकहार कर उस ने निकिता की तरफ से अपनेआप को बेपरवाह करना शुरू कर दिया. जैसे जी चाहे वैसे जिए.
न जाने प्रकृति ने मानव मन को इतना पेचीदा क्यों बनाया है, इस की कोई एक तयशुदा परिभाषा होती ही नहीं.

मानव मन भी एक म्यूटैड वायरस की तरह है. हरएक में इस की सरंचना दूसरे से भिन्न होती है. बावजूद इस के कुछ सामान्य समानताएं भी होती हैं. जैसे हरेक मन को व्यस्त रहने के लिए कोई न कोई प्रलोभन चाहिए ही चाहिए. यह कोई लत, कोई व्यसन, या फिर कोई शौक भी हो सकता है. या इश्क भी…

बहुत से पुरुषों की तरह रंजन का मन भी एक तरफ से हटा तो दूसरी तरफ झुकने लगा. यों भी घर का खाना जब बेस्वाद लगने लगे तो बाहर की चाटपकौड़ी ललचाने लगती हैं.

पिछले कुछ दिनों से अपने औफिस वाली सुनंदा रंजन को खूबसूरत लगने लगी थी. अब रातोरात तो उस की शक्लसूरत में कोई बदलाव आया नहीं होगा. शायद रंजन का नजरिया ही बदल गया था. शायद नहीं, पक्का ऐसा ही हुआ है. यह मन भी बड़ा बेकार होता है. जब किसी पर आना होता है तो अपने पक्ष में माहौल बना ही लेता है.

“आज जम रही हो सुनंदा,” रंजन ने कल उस की टेबल पर ठिठकते हुए कहा तो सुनंदा मुसकरा दी.

“क्या बात है? आजकल मैडम घास नहीं डाल रहीं क्या?” सुनंदा ने होंठ तिरछे करते हुए कहा तो रंजन खिसिया गया.

‘ऐसा नहीं है कि निकिता उस के आमंत्रण को ठुकरा देती है. बस, बेमन से खुद को सौंप देती है,’ याद कर रंजन का मन खट्टा हो गया.

“लो, अब सुंदरता की तारीफ करना भी गुनाह हो गया. अरे भई, खूबसूरती होती ही तारीफ करने के लिए है. अब बताओ जरा, लोग ताजमहल देखने क्यों जाते हैं? खूबसूरत है इसलिए न?” रंजन ने बात संभालते हुए कहा तो सुनंदा ने गरदन झुका कर दाहिने हाथ को सलाम करने की मुद्रा में माथे से लगाया. बदले में रंजन ने भी वही किया और एक मिलीजुली हंसी आसपास बिखर गई.

रंजन निकिता से जितना दूर हो रहा था उतना ही सुनंदा के करीब आ रहा था. स्त्रीपुरुष भी तो विपरीत ध्रुव ही होते हैं. सहज आकर्षण से इनकार नहीं किया जा सकता. यदि उपलब्धता सहज बनी रहे तो बात आकर्षण से आगे भी बढ़ सकती है. सुनंदा के साथ कभी कौफी तो कभी औफिस के बाद बेवजह तफरीह… कभी साथ लंच तो कभी यों ही गपशप… आहिस्ताआहिस्ता रिश्ते की रफ्तार बढ़ रही थी.

सुनंदा अकेली महिला थी और अपने खुद के फ्लैट में रहती थी. जाने पति से तलाक लिया था या फिर स्वेच्छा से अलग रह रही थी, लेकिन जीवन की गाड़ी में बगल वाली सीट हालफिलहाल खाली ही थी जिस पर धीरेधीरे रंजन बैठने लगा था.

रंजन हालांकि अपनी उम्र के चौथे दशक के करीब था लेकिन इन दिनों उस के चेहरे पर पच्चीसी वाली लाली देखी जा सकती थी. प्रेम किसी भी उम्र में हो, हमेशा गुलाबी ही होता है.
सुनंदा के लिए कभी चौकलेट तो कभी किसी पसंदीदा लेखक की किताब रंजन अकसर ले ही आता था.

वहीं सुनंदा भी कभी दुपट्टा तो कभी चप्पलें… यहां तक कि कई बार तो अपने लिए लिपस्टिक, काजल या फिर बालों के लिए क्लिप खरीदने के लिए भी रंजन को साथ चलने के लिए कहती. सुन कर रंजन झुंझला जाता. सुनंदा उस की खीज पर रीझ जाती.

“ऐसा नहीं है कि मैं यह सब अकेली खरीद नहीं सकती बल्कि हमेशा खरीदती ही रही हूं लेकिन तुम्हारे साथ खरीदने की खुशी कुछ अलग ही होती है. चाहे पेमेंट भी मैं ही करूं, तुम्हारा केवल पास खड़े रहना… कितना रोमांटिक होता है, तुम नहीं समझोगे,” सुनंदा कहती तो रंजन सुखद आश्चर्य से भर जाता.

मन की यह कौन सी परत होती है जहां इस तरह की इंद्रधनुषी अभिलाषाएं पलती हैं. इश्क की रंगत गुलाबी से लाल होने लगी. रंजन पर सुनंदा का अधिकार बढ़ने लगा. अब तो सुनंदा अंडरगारमैंट्स भी रंजन के साथ जा कर ही खरीदती थी. सुनंदा के मोबाइल का रिचार्ज करवाना तो कभी का रंजन की ड्यूटी हो चुकी थी. मिलनामिलाना भी बाहर से भीतर तक पहुंच गया था. यह अलग बात है कि रंजन अभी तक सोफे से बिस्तर तक का सफर तय नहीं कर पाया था.

आज सुबहसुबह सुनंदा का व्हाट्सऐप मैसेज देख कर रंजन पुलक उठा. लिखा था,”मिलो, दोपहर में.”

ऐसा पहली बार हुआ है जब सुनंदा ने उसे छुट्टी वाले दिन घर बुलाया है.
दोस्त से मिलने का कह कर रंजन घर से निकला. निकिता ने न कोई दिलचस्पी दिखाई और न ही कुछ पूछा. कुछ ही देर में रंजन सुनंदा के घर के बाहर खड़ा था. डोरबेल पर उंगली रखने के साथ ही दरवाजा खुल गया.

“दरवाजे पर ही खड़ी थीं क्या?” रंजन उसे देख कर प्यार से मुसकराया.

सुनंदा अपनी जल्दबाजी पर शरमा गई. रंजन हमेशा की तरह सोफे पर बैठ गया. सुनंदा ने अपनी कुरसी उस के पास खिसका ली.

“आज कैसे याद किया?” रंजन ने पूछा. सुनंदा ने कुछ नहीं कहा बस मुसकरा दी.

चेहरे की रंगत बहुतकुछ कह रही थी. सुनंदा उठ कर रंजन के पास सोफे पर बैठ गई और उस के कंधे पर सिर टिका दिया. रंजन के हाथ सुनंदा की कमर के इर्दगिर्द लिपट गए और चेहरा चेहरे पर झुक गया. थोड़ी ही देर में रंजन के होंठ सुनंदा के गालों पर थे. वे आहिस्ताआहिस्ता गालों से होते हुए होंठों की यात्रा कर अब गरदन पर कानों के जरा नीचे ठहर कर सुस्ताने लगे थे. सुनंदा ने रंजन का हाथ पकड़ा और भीतर बैडरूम की तरफ चल दी. यह पहला अवसर था जब रंजन ने ड्राइंगरूम की दहलीज लांघी थी.

साफसुथरा बैड और पासपास रखे जुड़वां तकिए… कमरे के भीतर एक खुमारी सी तारी थी. तापमान एसी के कारण सुकूनभरा था. खिड़कियों पर पड़े मोटे परदे माहौल की रुमानियत में इजाफा कर रहे थे. अब ऐसे में दिल का क्या कुसूर? बहकना ही था.

सुनंदा और रंजन देह के प्रवाह में बहने लगे. दोनों साथसाथ गंतव्य की तरफ बढ़ रहे थे कि अचानक रंजन को अपनी मंजिल नजदीक आती महसूस हुई. उस ने अपनी रफ्तार धीमी कर दी और अंततः खुद को निढाल छोड़ कर तकिए के सहारे अपनी सांसों को सामान्य करने लगा. तृप्ति की संतुष्टि उस के चेहरे पर स्पष्ट देखी जा सकती थी. सुनंदा की मंजिल अभी दूर थी. बीच राह अकेला छुट जाने की छटपटाहट से वह झुंझला गई मानों मगन हो कर खेल रहे बच्चे के हाथ से जबरन उस का खिलौना छीन लिया गया हो.

नाखुशी जाहिर करते हुए उस ने रंजन की तरफ पीठ कर के करवट ले ली. रंजन अभी भी आंखें मूंदे पड़ा था. जरा सामान्य होने पर रंजन ने सुनंदा की कमर पर हाथ रखा. सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. हाथ को धीरे से परे खिसका दिया. वह कपड़े संभालते हुए उठ बैठी.

“चाय पीओगे?” सुनंदा ने पूछा. रंजन ने खुमारी के आगोश में मुंदी अपनी आंखें जबरन खोलीं.

“आज तो बंदा कुछ भी पीने को तैयार है,” रंजन ने कहा.

उस की देह का जायका अभी भी बना हुआ था. सुनंदा के चेहरे पर कुछ देर पहले वाला उत्साह अब नहीं था. उस की चाल में गहरी हताशा झलक रही थी. रंजन की उपस्थिति अब उसे बहुत बोझिल लग रही थी.

“थैंक्स फौर सच ए रोमांटिक सिटिंग,” कहता हुआ चाय पीने के बाद रंजन उस के गाल पर चुंबन अंकित कर चला गया. सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

कुछ दिनों से रंजन को सुनंदा के व्यवहार का ठंडापन बहुत खल रहा है. 1-2 बार दोनों अकेले में भी मिले लेकिन वही पहले वाली कहानी ही दोहराई गई. हर बार समागम के बाद रंजन का चेहरा तो खिल जाता लेकिन सुनंदा के चेहरे पर असंतुष्टि की परछाई और भी अधिक गहरी हो जाती. धीरेधीरे सुनंदा रंजन से खिंचीखिंची सी रहने लगी. अब तो उस के घर आने के प्रस्ताव को भी टालने लगी.

रंजन समझ नहीं पा रहा था कि उसे अचानक क्या हो गया? वह कभी उस के लिए सरप्राइज गिफ्ट ले कर आता, कभी उस के सामने फिल्म देखने चलने या यों ही तफरीह करने का औफर रखता लेकिन वह किसी भी तरह से अब सुनंदा की नजदीकियां पाने में सफल नहीं हो पा रहा था.

‘सारी औरतें एकजैसी ही होती हैं. जरा भाव दो तो सिर पर बैठ जाती हैं…’ निकिता के बाद सुनंदा को भी मुंह फुलाए देख कर रंजन अकसर सोचता. सुनंदा का इनकार वह बरदाश्त नहीं कर पा रहा था.

“आज छुट्टी है, निकिता को उस के घर जा कर सरप्राइज देता हूं. ओहो, कितनी ठंड है आज,” निकिता के साथ रजाई में घुस कर गरमगरम कौफी पीने की कल्पना से ही उस का मन बहकने लगा.

निकिता के घर पहुंचा तो उस ने बहुत ही ठंडेपन से दरवाजा खोला. बैठी भी उस से परे दूसरे सोफे पर. बैडरूम में जाने का भी कोई संकेत रंजन को नहीं मिला. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद सुनंदा खड़ी हो गई.

“रंजन, मुझे जरा बाहर जाना है. हम कल औफिस में मिलते हैं,” सुनंदा ने कहा. रंजन अपमान से तिलमिला गया.

“क्या तुम मुझे साफसाफ बताओगी कि आखिर हुआ क्या है? क्यों तुम मुझ से कन्नी काट रही हो?” रंजन पूछ बैठा.

“आई वांट ब्रैकअप,” सुनंदा ने कहा.

“व्हाट? बट व्हाई?” रंजन ने बौखला कर पूछा.

“सुनो रंजन, हमारे रिश्ते में मैं ने बहुतकुछ दांव पर लगाया है. यहां तक कि अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा भी. मैं तुम से कोई अपेक्षा नहीं रखती सिवाय संतुष्टि के. यदि वह भी तुम मुझे नहीं दे सकते तो फिर मुझे इस रिश्ते से क्या मिला? सिर्फ बदनामी? अपने पैसे, समय और प्रतिष्ठा की कीमत पर मैं बदनामी क्यों चुनूं?” सुनंदा ने आखिर वह सब कह ही दिया जिसे वह अब तक अपने भीतर ही मथ रही थी. उस के आरोप सुन कर रंजन अवाक था.

“लेकिन हमारा मिलन तो कितना सफल होता था,” रंजन ने उसे याद दिलाने की कोशिश की.

“नहीं, उस समागम में केवल तुम ही संतुष्ट होते थे. मैं तो प्यासी ही रह जाती थी. तुम ने कभी मेरी संतुष्टि के बारे में सोचा ही नहीं. ठीक वैसे ही जैसे अपना पेट भरने के बाद दूसरे की भूख का एहसास न होना,” सुनंदा बोलती जा रही थी और रंजन के कानों में खौलते हुए तेल सरीखा कुछ रिसता जा रहा था.

सुनंदा के आक्रोश में उसे निकिता का गुस्सा नजर आ रहा था. निकिता में सुनंदा… सुनंदा में निकिता… आज रंजन को निकिता की नाराजगी समझ में आ रही थी.

थके कदमों से रंजन घर की तरफ लौट गया. मन ही मन यह ठानते हुए कि यदि यही निकिता की नाराजगी की वजह है तो वह अवश्य ही उसे दूर करने की कोशिश करेगा. अपने मरते रिश्ते को संजीवनी देगा.

कहना न होगा कि इन दिनों निकिता हर समय खिलखिलाती रहती है. एक लज्जायुक्त मुसकान हर समय होंठों पर खिली रहती है.

रंजन मन ही मन सुनंदा का एहसानमंद है, इस अनसुलझी पहेली को सुलझाने का रास्ता दिखाने के लिए.

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