Serial Story: मासूम कातिल- भाग 1

लेखक- गजाला जलील

मकतूल एक दौलतमंद और रसूख वाला आदमी था जबकि कातिल 2 औरतें थीं. मां सुहाना और बेटी अदीना. सुहाना की उम्र करीब 38 साल थी और अदीना की 19 साल. वह बेहद हसीन व शोख लड़की थी. उस के चेहरे पर गजब की मासूमियत थी.

सुहाना भी खूबसूरत औरत थी, लेकिन उस के चेहरे पर उदासी और आंखों में समंदर की गहराई थी. दोनों मांबेटी कोर्ट में मुसकराती हुई आती थीं और बड़े फख्र से कहती थीं कि उन्होंने इमरान हसन को कत्ल किया है. अदीना कहती थी, ‘‘मैं ने एक ठोस डंडे से उस की पिंडलियों पर वार किए थे. वह नीचे गिर पड़ा.’’

सुहाना कहती थी, ‘‘जब वह नीचे गिरा तो मैं ने उसी ठोस डंडे से उस के सीने पर मारना शुरू किया, इस से उस की पसलियां टूटने की आवाज आने लगी. फिर मैं ने अपनी अंगुलियों के नाखून उस की दोनों आंखों में उतार दिए.’’

मांबेटी दोनों बड़े फख्र से ये कारनामा सुनाती थीं और मैं भी उन के गुरूर को सही समझता था. लाश बुरी हालत में मिली थी. डंडे से उस का सिर फोड़ दिया गया था. मैं जानता था, मासूम चेहरे वाली इन मांबेटी को कड़ी सजा मिलेगी. पर उन के चेहरे पर डर या वहशत नहीं थी. वे दोनों बड़े सुकून और इत्मीनान से बैठी रहती थीं. इस के पीछे एक दर्दनाक कहानी छिपी थी. मैं आप को वही कहानी सुनाऊंगा, जो मुझे सुहाना ने कोर्ट के अंदर सुनाई थी.

आप यह सोच कर सुहाना की कहानी सुनें कि आप ही उस का इंसाफ करने वाले जज हैं. सुहाना ने मुझे बताया, ‘‘मेरी मां का नाम नसीम था. हमारा घर पुराना पर अच्छा था. घर में हम 3 लोग थे. मैं मेरी मां और मेरे अब्बू. जिंदगी आराम से गुजर रही थी. हमारे रिश्तेदार और अब्बू के दोस्त आते रहते थे. अब्बू काफी मिलनसार थे.

बदनसीबी कहिए या कुछ और, अब्बू बीमार पड़ गए. 3 दिन अस्पताल में भरती रहे और चौथे दिन चल बसे. हम लोगों की दुनिया अंधेरी हो गई. कुछ दिनों तक दोस्तों व रिश्तेदारों ने साथ निभाया, लेकिन फिर सब अपनीअपनी राह लग गए. अब मैं बची थी और मेरी मजबूर मां. न कोई मददगार न सिर पर हाथ रखने वाला.

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उस वक्त मैं बीए के पहले साल में थी, पर अब पढ़ाई जारी रखने जैसे हालात नहीं बचे थे. पड़ोसी भी शुरू में मोहब्बत से पेश आए लेकिन धीरेधीरे सब ने निगाहें फेर लीं. गनीमत यही थी कि हमारा घर अपना था. सिर छिपाने को आसरा था हमारे पास, पर खाने के लाले पड़ने लगे थे.

अम्मा ने घरों में काम करने की बात की, पर मुझ से यह बरदाश्त नहीं हुआ. मैं ने अम्मा को बहुत समझाया और खुद नौकरी करने की बात की. मैं इंग्लिश मीडियम से पढ़ी थी, मेरी अंगरेजी और मैथ्स बहुत अच्छा था. बहुत कोशिश करने पर मुझे एक औफिस में जौब मिल गई. वेतन ज्यादा तो नहीं था, पर गुजारा किया जा सकता था.

शुरू में लोगों ने बातें बनाईं कि खूबसूरती के चलते यह नौकरी मिली है. अम्मा बहुत डरती, घबराती, लोगों की बातों से दहशत खाती. मैं ने उन्हें समझाया, ‘‘अम्मा, लोग सिर्फ बातें बनाते हैं. वे हमें खिलाने नहीं आएंगे. हमें अपना बोझ खुद उठाना है. लोगों को भौंकने दें.’’

अम्मा को बात समझ में आ गई. फिर भी उन्होंने नसीहत दी, ‘‘बेटी, दुनिया बहुत बुरी है. तुम बहुत मासूम और नासमझ हो. फूंकफूंक कर कदम रखना, हर मोड़ पर इज्जत के लुटेरे बैठे हैं.’’

मैं ने उन्हें दिलासा दी, ‘‘अम्मी, आप फिक्र न करें, मैं अपना भलाबुरा खूब समझती हूं. जिस फर्म में मैं काम करती हूं, वहां भेड़िए नहीं, बहुत नेक और भले लोग हैं.’’

एकाउंटेंट अली रजा बूढ़े आदमी थे. बहुत ही सीधे व मोहब्बत करने वाले. मुझे नौकरी दिलाने में भी उन्होंने मेरी मदद की थी और पहले दिन से ही मुझे गाइड करना और सिखाना भी शुरू कर दिया था. वैसे मैं काफी जहीन थी. जल्द ही सारा काम बहुत अच्छे से करने लगी.

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औफिस में सभी लोग अली रजा साहब की बहुत इज्जत करते थे. हां, फर्म के बौस इमरान हसन से मेरी अब तक मुलाकात नहीं हुई थी. सुना था, बहुत रिजर्व रहते हैं. काम से काम रखने वाले व्यक्ति हैं.

फर्म के लोग मालिक इमरान हसन से खुश थे. सब उन की तारीफ करते थे. मुझे वहां काम करते एक महीना हो गया था. पहली तनख्वाह मिली तो अम्मा बड़ी खुश हुईं. तनख्वाह इतनी थी कि हम मांबेटी का गुजारा आसानी से हो जाता और थोड़ा बचा भी सकते थे. फर्म में 4-5 लड़कियां और भी थीं. उन से मेरी अच्छी दोस्ती हो गई. बौस पिछले दरवाजे से आतेजाते थे, इसलिए उन से मेरा कभी आमनासामना नहीं हुआ.

एक दिन एक कलीग रशना की सालगिरह थी. उस ने बड़े प्यार से मुझे अपने घर आने की दावत दी. इस प्रोग्राम में बौस समेत औफिस के सभी लोग जाने वाले थे. मुझे भी वादा करना पड़ा. अम्मा से इजाजत  लेने में मुश्किल हुई, क्योंकि वह मेरे अकेले जाने से परेशान थीं. रशना के यहां पहुंचने पर मेरा शानदार वेलकम हुआ. वहां बहुत धूमधाम थी. केक काटा गया. पार्टी भी बढि़या थी.

मैं अपनी प्लेट ले कर एक कोने में खड़ी थी. उसी वक्त एक गंभीर नशीली आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘आप कैसी हैं मिस सुहाना?’’

मैं ने सिर उठा कर सामने देखा. एक बेहद हैंडसम यूनानी हुस्न का शाहकार सामने खड़ा था. शानदार पर्सनैलिटी, तीखे नैननक्श, ऊंची नाक, नशीली आंखें. मैं बस देखती रह गई. मेरी आवाज नहीं निकल सकी. रशना ने कहा, ‘‘सुहाना, बौस तुम से कुछ पूछ रहे हैं.’’

मैं जैसे होश में आ गई. मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘मैं ठीक हूं सर.’’

‘‘हमारी फर्म में कोई परेशानी तो नहीं है?’’

‘‘नहीं सर, कोई प्रौब्लम नहीं है. सब ठीक है.’’

मैं बौस को देख कर हैरान रह गई. कितने खूबसूरत, कितने शानदार पर उतने ही मिलनसार और विनम्र. अभी खाना चल ही रहा था कि बादल घिरने लगे. जब मैं घर जाने के लिए खड़ी हुई तो अच्छीखासी बारिश होने लगी. रशना भी सोच में पड़ गई. जब हम बाहर निकले तो बौस इमरान साहब कहने लगे, ‘‘सुहाना, अभी टैक्सी मिलना मुश्किल है. तुम मेरे साथ आओ मैं तुम्हें तुम्हारे घर ड्रौप कर दूंगा.’’

रशना ने फोर्स कर के मुझे उन की कार में बिठा दिया.

मैं सकुचाते हुए बैठ गई. मैं जिंदगी में इतने खूबसूरत मर्द के साथ पहली बार बैठी थी. मेरा दिल अजीब से अंदाज से धड़क रहा था. मैं ने कहा, ‘‘सर, आप ने मेरे लिए बेवजह तकलीफ उठाई. आप बहुत अच्छे इंसान हैं.’’

इमरान साहब हंस पड़े, फिर कहा, ‘‘नहीं भई, हम इतने अच्छे इंसान नहीं हैं. अगर तुम भीग जाती तो बीमार पड़ जातीं. 2-3 दिन हमारे औफिस को इतनी अच्छी वर्कर से महरूम रहना पड़ता और फिर ये मेरा फर्ज भी तो है.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप बेहद शरीफ इंसान हैं, बहुत नेक और बहुत खयाल रखने वाले.’’

उन्होंने मुसकरा कर कहा, ‘‘आप को मुझ पर यकीन है तो मेरी एक बात मानेंगी?’’

‘‘जी कहिए, आप क्या चाहते हैं?’’

‘‘सामने एक अच्छा रेस्टोरेंट है, वहां एक कप कौफी पी जाए.’’

मैं सोच में पड़ गई, ‘‘मैं कभी ऐसे होटल में नहीं गई. मुझे वहां के तौरतरीके नहीं आते. मैं एक गरीब घर की लड़की हूं.’’ मैं ने कहा.

इमरान साहब बोले, ‘‘कोई बात नहीं, हालात सब सिखा देते हैं. आप की इस बात ने मेरी नजरों में आप की इज्जत और भी बढ़ा दी. क्योंकि आप ने मुझ से अपनी हालत छिपाई नहीं, यह अच्छी बात है.’’

उन्होंने कार रेस्टोरेंट के सामने रोक दी. हम अंदर गए, बहुत शानदार हौल था. वहां का माहौल खुशनुमा था. मैं इस से पहले कभी किसी होटल में नहीं गई थी. इमरान साहब ने कौफी का और्डर दिया, फिर मेरे काम की, मेरे मिजाज की तारीफ करते रहे. फिर कहने लगे, ‘‘अच्छा ये बताइए, आप मेरे बारे में क्या सोचती हैं?’’

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मैं ने कहा, ‘‘आप ने पार्टी में मुझे मेरा नाम ले कर पुकारा था, आप तो मुझ से मिले भी नहीं थे?’’

‘‘आप के सवाल में बड़ी मासूमियत है. आप मेरे औफिस में काम करती हैं और एक अच्छा बौस होने के नाते मुझे अपने साथियों के बारे में पूरी जानकारी रखना चाहिए. मैं तो यह भी जानता हूं कि आप औफिस की दूसरी लड़कियों से अलग हैं. अपने काम से काम रखने वाली.’’

मैं हैरान रह गई. हम कौफी पी कर बाहर आ गए. वह कहने लगे, ‘‘बहुत शुक्रिया, आप ने अपना समझ कर मुझ पर यकीन किया. आज तो आप से ज्यादा बातें न हो सकीं. खैर, अगली मुलाकात में बातें होंगी.’’

मैं देर होने से अम्मा के लिए परेशान थी. मैं ने सोच लिया था कि उन्हें इमरान साहब के बारे में कुछ नहीं बताऊंगी वरना उन की नींद उड़ जाएगी. मेरा घर आ गया. मैं ने गली के बाहर ही गाड़ी रुकवाते हुए कहा, ‘‘सर, मुझे यहीं उतार दें.’’

‘‘मैं आप की मजबूरी समझता हूं. मैं तो चाहता था कि आप को आप के दरवाजे पर ही उतारूं.’’

Serial Story: उल्टी पड़ी चाल- भाग 1

लेखक- एडवोकेट अमजद बेग

उस रोज औफिस में काफी भीड़ नजर आ रही थी. मेरा पहला क्लाइंट छोटे कद का गोलमटोल सा आदमी था. उस के चेहरे पर हलकी सी दाढ़ी थी. अंदर आते ही उस ने झुक कर मुझे सलाम किया. कुरसी पर बैठने के बाद वह बोला, ‘‘बेग साहब, मेरा नाम अली मुराद है. मैं काफी अरसे से आप को तलाश कर रहा था. मुझे आप के दोस्त हमीद बिजली वालों ने भेजा है. बहुत तारीफ कर रहे थे आप की.’’

‘‘अच्छा, आप को हमीद साहब ने भेजा है. वह मेरे अच्छे दोस्त हैं. बताइए आप का क्या मामला है?’’

अली मुराद ने जवाब दिया, ‘‘मसला मेरा नहीं, मेरे दामाद फुरकान का है. वह बहुत अच्छा इंसान है. उस की अच्छाई ही उस के लिए मुसीबत बन गई.’’

‘‘कैसी मुसीबत?’’ मैं ने पूछा.

‘‘फुरकान पर कत्ल का इलजाम है. उसे 2 रोज पहले पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है.’’

‘‘किस के कत्ल के इलजाम में गिरफ्तार किया है?’’

‘‘फुरकान के मकान मालिक की बीवी रशीदा के कत्ल के इलजाम में.’’

‘‘आप पूरी बात बताइए, अली मुराद.’’

‘‘नहीं जनाब, दरवाजा आड़ में है. किसी की नजर नहीं पड़ सकती थी. मैं वहां से वहीद काजी के औफिस गया, लेकिन वहां भी ताला पड़ा था. मैं ने सारा हाल अपने ससुर को सुना दिया. सुन कर वह भी परेशान हुए. हम ने तय किया कि दूसरे दिन थाने जा कर काजी के फ्रौड की रिपोर्ट दर्ज करा देंगे पर बदकिस्मती से 15 अक्तूबर की रात 11 बजे पुलिस ने मुझे रशीदा के कत्ल और एक लाख रुपए की चोरी के इलजाम में गिरफ्तार कर लिया.’’

इसी के साथ अदालत खत्म हो गई और पेशी की अगली तारीख मिल गई.

अगले 2-3 महीनों में इस्तेगासा की तरफ से 5 गवाहों को अदालत में पेश किया गया, जो वहीद काजी के इलाके के थे. इन गवाहों ने काजी की मर्जी के मुताबिक बयान दिए जो, फुरकान को मुजरिम ठहराते थे. ऐसी कोई खास बात नहीं हुई, जो बताई जाए. इस बीच अली मुराद मुझ से बराबर मिलता रहा और मेरी मांगी हुई जानकारी जुटाता रहा. उस का बड़ा दामाद हैदराबाद से मिलने आया और फुरकान के बाइज्जत बरी होने की तरकीबे बताता रहा.

मंजर इसी अदालत का था. आज की पेशी में काजी वहीद गवाह की हैसियत से कटघरे में खड़ा था. उस ने वही बयान दिया जो पहले दिया था. उस का खुलासा उस के वकील के सवालों से हो जाएगा.

वकील ने पहला सवाल पूछा, ‘‘काजी साहब, आप की मुलजिम के बारे में क्या राय है?’’

‘‘खुदगर्ज, नालायक, अहसान फरामोश इंसान है. मैं ने उस के साथ इतनी नेकी की. फिर भी उस ने मेरी बीवी का कत्ल कर दिया.’’ इस्तेगासा के वकील ने बड़ी चालाकी से जिरह को एक खास रास्ते पे डालते हुए पूछा, ‘‘मुलजिम का दावा है कि उस ने एक लाख रुपए आप की छत पर 2 कमरे बनाने में खर्च किए जो उस ने बैंक से लोन लिए थे. क्या यह सच है?’’

‘‘यह सही है कि उस ने बैंक से एक लाख रुपए लोन लिया था, पर मेरी छत पर कमरे बनाने में एक पैसा भी खर्च नहीं किया. घर की ऊपरी मंजिल मैं ने अपनी कमाई से बनवाई. यह शख्स झूठ बोल रहा है.’’

‘‘क्या आप मुल्जिम का झूठ साबित कर सकते हैं?’’

‘‘हां, मैं ने जो रेत, सीमेंट, सरिया की रसीदें अदालत में पेश की हैं, वह मेरे नाम पर है और मार्च महीने की हैं. जबकि मुल्जिम को लोन 25 मई को मिला था. वह कैसे यह सामान खरीद सकता था? आप बेकार की बातें छोड़ कर मेरी बीवी के कातिल को उस के अंजाम तक पहुंचाएं.’’

वकील इस्तेगासा ने अपनी फाइल में से कुछ कागजात निकाल कर जज की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘जनाबे आली काजी वहीद ने ऊपरी मंजिल बनाने के लिए जो भी सामान खरीदा था, यह उस की रसीदें हैं जो उसी के नाम पर मार्च में काटी गई हैं. जबकि इस में मुल्जिम का बैंक रिकार्ड है, जिस में उसे एक लाख का लोन 25 मई को दिया गया. इस से साबित होता है कि उस ने घर बनाने में एक भी पैसा खर्च नहीं किया. उस का दावा झूठा है. यह सब एक साजिश है.’’

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जज ने कागज ले कर गौर से देखना शुरू कर दिया. मैं सारी बातें ठंडे दिमाग से सुन रहा था. मेरे पास जवाबी हमला करने के लिए काफी मसाला था. जज ने कहा, ‘‘वकील साहब, जिरह जारी रखें.’’

वकील ने काजी से पूछा, ‘‘काजी साहब, मुल्जिम का दावा है कि कत्ल के एक दिन पहले 14 अक्तूबर को वह आप से आप के औफिस में मिला था. आप ने उस से वादा किया था कि आप उसे एक लाख रुपया 15 अक्तूबर की शाम को अदा कर देंगे. यह क्या किस्सा है?’’

Serial Story: संधि प्रस्ताव- भाग 3

लेखक- अलका प्रमोद

‘‘‘देखिए, मन से हम आप के साथ हैं पर हम विवश हैं. कानून की सीमा के बाहर कुछ भी करना या करने देना हमारे लिए संभव नहीं. आप जो भी करें, कानून के अनुसार करें. कृपया आप लोग चले जाएं वरना हमें आप को जबरदस्ती हटाना पड़ेगा.’

‘‘तपन के साथ आए उन के मित्र ने उन्हें समझाया, ‘देखो, अगर पुलिस के चक्कर में पड़ गए तो हम दूसरी झंझटों में उलझ जाएंगे और यथार्थ को वापस कभी नहीं ला पाएंगे. इस से तो अच्छा है कि कुछ उपाय सोचो उसे वापस लाने का.’

‘‘‘‘पर मेरे बच्चे को हुआ क्या है? चलो, किसी झाड़फूंक वाले का पता करें,’ सुनीता ने कहा.

‘‘राजन ने कहा, ‘दीदी, टोटका नहीं, इन्होंने कोई नशा दिया है और इस का ब्रेनवाश किया है. देखा नहीं, उस की आंखें कैसी लाललाल थीं और वह अपनी सुध में नहीं लग रहा था.’

‘‘‘पर मेरे बच्चे ने इन का क्या बिगाड़ा था?’

‘‘‘कुछ नहीं, इन्हें अपना प्रचारप्रसार करने के लिए मेधावी और आकर्षक व्यक्तित्व के युवा चाहिए. ये इसी तरह मेधावी मगर सीधेसाधे बच्चों को फंसाते हैं.’

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‘‘तपन ने कहा, ‘पर हम इन की चाल कामयाब नहीं होने देंगे. हम अपने बच्चे को लिए बिना वापस नहीं जाएंगे.’

‘‘तपन और सुनीता ने बहुत हाथपैर मारे, धरतीआकाश एक कर दिया पर वे दोबारा अपने बेटे की एक झलक भी नहीं पा सके. पता नहीं उसे उन लोगों ने कहां भेज दिया.

‘‘तपन ने पुलिस से संपर्क किया पर पुलिस ने भी पल्ला झाड़ दिया. वे एसपी तक के पास गए पर उन्होंने भी कहा, ‘देखिए, आप का बेटा वयस्क है और जब वह कह रहा है कि वह अपनी इच्छा से वहां रहना चाहता है तो हम उस में क्या कर सकते हैं?’

‘‘सुनीता ने कहा, ‘पर उन लोगों ने उसे कोई नशा दिया है, उस पर जादूटोना किया है. वरना जिस लड़के ने एक दिन पहले मुझ से कहा कि वह घर आ रहा है, अचानक आश्रम कैसे पहुंच गया?’

‘‘‘और तो और, उन लोगों ने उसे एक तहखाने में बंद कर रखा है यदि वह अपने मन से गया है तो उसे बंद तहखाने में किसी कैदी की तरह रखने की आवश्यकता क्या है?’ तपन ने कहा.

‘‘‘देखिए, आप की बात ठीक है पर जब हमारे इंस्पैक्टर गए थे तो आप का बेटा आश्रम में ही था. और उस ने स्वयं उन से कहा कि वह अपनी इच्छा से आश्रम में रहना चाहता है,’ एसपी ने कहा, ‘और बिना किसी साक्ष्य के हम क्या कर सकते हैं?’

‘‘सुनीता बोलीं, ‘आप टैस्ट करवाइए. वे मेरे बेटे को कोई नशा अवश्य देते हैं क्योंकि जब वह हम से मिला तो उस ने एक बार भी मेरी ओर नहीं देखा और अनायास ही उस की दृष्टि मुझ से मिली तो उस ने तुरंत हटा ली. पर मैं ने उस क्षणांश में ही देख लिया कि उस की आंखें लाल थीं और चढ़ी हुई थीं. वह सामान्य तो बिलकुल नहीं था.’

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‘‘पर पुलिस ने साक्ष्य के अभाव में या संभवतया किसी दबाव में सहायता करने से मना कर दिया.

‘‘तपन को याद आया प्रभास. उस ने सोचा कि अभी तक उस ने क्यों नहीं सोचा प्रभास के बारे में. वह तो जनादेश चैनल में प्रोड्यूसर है. वह उस की सहायता कर सकता है. मीडिया साक्ष्य एकत्र करने में लग गई. पर प्रहरी इतने दृढ़ थे कि उन के दुर्ग में सेंध लगाना सरल न था. मीडिया ने साक्ष्य प्राप्त भी किए कि आश्रम में अफीम आती है. उस का अभियान धीरेधीरे सफलता के सोपान चढ़ रहा था कि अचानक एक दिन प्रभास के औफिस पर हमला हो गया और कई बहुमूल्य कैमरे आदि नष्ट कर दिए गए. फिर पता नहीं क्या हुआ कि प्रभास ने उस केस में धीरेधीरे रुचि लेनी बंद कर दी. एक दिन तपन ने उस से पूछा तो उलटे वह उन्हीं को समझाने लगा, ‘मेरी मानो तो तुम उसे भूल जाओ, जब तुम्हारा बेटा ही संन्यास लेना चाहता है तो क्या कर सकते हो, शायद प्रकृति यही चाहती है.’

‘‘सब ओर से हार कर तपन फिर स्वामीजी की शरण में गए उन से अपने बेटे की भीख मांगने. स्वामीजी ने मिलने से मना कर दिया. सब ओर से निराश हो कर तपन वापस लौटने को उठ खड़े हुए. तभी अखिलानंदजी से उन के साथी ने आ कर धीरे से कुछ कहा. अखिलानंद ने कहा, ‘आप खुश हो जाएं कि स्वामीजी को बेटे के प्रति आप की व्याकुलता देख कर दया आ गई.’

‘‘‘तो क्या वे यथार्थ को हमारे पास वापस भेज देंगे?’ तपन ने अधीर होते हुए पूछा.

‘‘‘नहीं, विश्वानंद तो हमारे आश्रम का अभिन्न अंग हैं. उन के प्रभावी व्यक्तित्व, ओजपूर्ण वाणी, और हिंदी व अंगरेजी दोनों में ही समानरूप से भाषण देने की क्षमता ने तो हम भक्तों की संख्या कई गुना बढ़ा दी है. वे तो हमारे लिए अनमोल हीरा हैं,’ अखिलानंद ने यथार्थ को दीक्षा देने का रहस्य उजागर किया. तपन की आशा की किरण फिर धूमिल होने लगी.

‘‘कुछ क्षण ठहर कर अखिलानंद बोले, ‘हां, यदि आप चाहें तो एक तरीका है अपने बेटे के पास रहने का?’

‘‘‘वह क्या?’ तपन ने कुछ न समझते हुए पूछा.

‘‘‘आप भी हमारे आश्रम में सेवा करें. दीक्षा ले कर अपनी संपत्ति आश्रम को दान कर दें. भगवत भजन करें. आराम से रहें और भक्तों के हृदय पर राज करें,’ अखिलानंद ने तपन के सामने प्रस्ताव रखा.

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‘‘इस में दोनों का हित निहित था. सो, दोनों इस संधि प्रस्ताव से सहमत हो गए.

‘‘तपन का छोटा बेटा मलय, जो पायलट का प्रशिक्षण ले रहा था, इस सब से सहमत नहीं था. सो, उस ने अपने चाचा के साथ रहने का निर्णय ले लिया.’’

मलय के मुख से इस संधि प्रस्ताव के बारे में सुन कर अर्पिता हतप्रभ थी.

Serial Story: अनजानी डगर से मंजिल- भाग 1

लेखक- संदीप पांडे

पलक  झपकते ही 4 साल बीत गए थे. इंजीनियरिंग की पढ़ाई अच्छे नंबरों से पास कर ली थी. बेफिक्र सा कालेज युग समाप्त हो कर अब रोजगार की चिंता में करवटें ले रहा था.

अभिजीत का अब आगे पढ़ने का मन कतई न था. ठीकठाक सी नौकरी लग जाए, तो घर से रुपएपैसे की निर्भरता से मुक्ति पा जाने का एकमात्र खयाल जेहन में मौजूद था. 90 के दशक का शुरुआती वर्ष देश के साथ उस के जीवन में विकास की बेचैन अंगड़ाई में खोया मचल रहा था. अखबार में वैकेंसी तलाशते, जानकारों से संपर्क बढ़ाते, कहीं भी उल्लास की कमी नहीं थी. शायद अपनी काबिलीयत पर पूरा भरोसा था, इसलिए बीसियों जौब इंटरव्यू या फौर्म भरने के बावजूद 6 महीने बाद भी उस के चेहरे व व्यवहार में किसी तरह अवसाद की लेशमात्र भी  झलक न थी. पिता के उच्च पदस्थ सरकारी नौकर होने से जेब खाली होने का अनुभव कोसों दूर था.

एक दिन पटरी पर चाय की चुस्की लेते अपने से 2 वर्ष पूर्व डिग्री प्राप्त कर चुके कुनाल से मुलाकात हो गई. कालेज में सभी जूनियर उन से खौफ खाते थे पर अब आवाज में उन के काफी नरमी के साथ व्यवहार में ‘2 वर्ष से बेरोजगार’ का बोर्ड साफतौर पर दृष्टिगोचर था.

‘‘क्या विचार कर रहे हो बौस?’’

‘‘यार, कोई पक्की नौकरी तो जम नहीं रही है, सोच रहा हूं, कुछ सर्वे के काम कर लूं. तुम तकनीकी रूप से दक्ष हो. अपन मिल कर यह काम कर लेंगे.’’

‘‘खाली बैठे हैं बौस, तब तक इस का अनुभव कर लेते हैं.’’

‘‘ठीक है, कल ही डूंगरपुर के लिए निकलते हैं. वहां अपने सीनियर एक्सईएन हैं. मु झे पता चला है, वहां यह काम मिल सकता है.’’

‘‘कल क्या, अभी चलो. और कुछ नहीं हुआ तो आसपास घूम आएंगे.’’

‘‘नहीं, कल शाम को निकलते हैं, आज मुझे कुछ काम है. तुम अपना सामान महीनेभर रुकने के हिसाब से बांध लेना.’’

‘‘एक महीना? अच्छा, काम मिल गया तो वहीं रुक कर शुरू हो जाएंगे, बढि़या.’’

अभिजीत अगली रात कुनाल के साथ बस का सफर करते उन के 2 साल बेरोजगारी के दुखड़े सुनता नए अनजाने मुकाम की ओर बढ़ चला था. 2 घंटे लगातार किस्सा सुनते कब नींद ने अपनी आगोश में भर लिया, पता ही न चला. सुबह पहले बस रुकते ही आंख खुली तो अपनेआप को एक छोटे से बसस्टैंड में पा कर अफसोस की लहर उठी. कुनाल के संग फिर एक छोटी सी धर्मशाला में ठिकाना पा कर कुछ परेशान सा हो उठा.

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‘‘यह कहां ले आए बौस?’’

उत्तर मे कुनाल मुसकरा भर दिए. ‘‘बस, नहाधो कर तैयार हो जाते हैं. फिर यहां से चल देंगे. 9 बजे औफिस पहुंचने से पहले पोहेकचौरी का भरपेट नाश्ता कर लेंगे.’’

सफर की थकान को कुछ देर विश्राम कर दूर करने का विचार आने से पूर्व ही जैसे किसी ने लात मार कर दूर भगा दिया.

ठीक 9 बजे वे एक्सईएन औफिस में प्रवेश कर चुके थे. एक घंटे इंतजार के बाद मुलाकात का अवसर आया. मूकदर्शक की भांति वह कुनाल की कारगुजारियों और वार्त्तालाप को आत्मसात करने की कोशिश कर रहा था. अफसर के कुछ तकनीकी सवाल पर कुनाल जब अटकने लगे तो अभिजीत के  िझ झकते हुए जवाब ने एक्सईएन के चेहरे पर मुसकराहट ला दी. उन को एक लाख रुपए का काम एक महीने में कर के देने का और्डर मिल चुका था. डरमिश्रित खुशी के साथ दोनों बाहर आ कर चाय पीने लगे.

‘‘क्यों न हम अभी मौके पर जा कर काम शुरू कर दें,’’ कुनाल ने धीरे से पूछा.

‘‘बौस, पर करेंगे कैसे? कालेज में प्रैक्टिकल की क्लास भी आधे मन से  की थी.’’

‘‘चलते हैं, एक बार कोशिश तो कर के देखते हैं. और रहनेखाने का जुगाड़ भी जमा आते हैं,’’ कुनाल ने सम झाते हुए कहा.

औफिस से मिले इंस्टूमैंट्स और धर्मशाला से अपना सामान लाद कर एक लोकल बस में सवार हो कर नई कार्य मंजिल की ओर बढ़ चले. एक छोटे से गांव में उन को सामान सहित उतार कर बस आगे बढ़ गई. रास्ते में कुनाल ने पास बैठे यात्री से देशी भाषा में बात कर गांव के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी प्राप्त कर ली थी. अभिजीत को चाय की दुकान पर सामान की निगरानी के लिए बिठा कर कुनाल चल दिए. 2 घंटे इंतजार के बाद जब तक कुनाल लौटे तब तक वह 3 चाय और 2 बिस्कुट के पैकेट अपने उदर में उतार चुका था.

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‘‘चलो, आज रात रहने का इंतजाम हो गया है. ठाकुर साहब के रावणे में आज की रात ठहरेंगे. कल सुबह फिर काम की जगह का निरीक्षण करने चलेंगे,’’ कुनाल चहकते हुए बोले.

थकेहारे अभिजीत को लेटते ही गहरी नींद आ गई. गांव में खुले आसमान के नीचे सोने का उस का यह पहला अनुभव था. पौ फटते ही आंख खुली तो चहचहाती चिडि़यों और रंभाती गायों की सुकूनभरी आवाज के बीच जगना पहले कभी नसीब नहीं हुआ था. वह अपने को काफी तरोताजा महसूस कर पा रहा था. अपनी इस खुशगवारी को आत्मसात कर ही रहा था कि कुनाल स्नान कर तौलिए में लिपटे सामने से चले आ रहे थे.

‘‘हैंडपंप के गरम पानी से तुम भी फटाफट नहा लो. साइट को सूरज तेज होने से पहले ही देख आते हैं. मैं ने यहां के एक जानकार को अपने साथ काम करने के लिए राजी कर लिया है. घंटेभर में वह यहां से अपने को पूरा एरिया दिखाने ले चलेगा और दोचार लेबर भी जरूरत के हिसाब से मंगा देगा.’’

आसरा- भाग 3: नासमझ जया को करन से प्यार करने का क्या सिला मिला

लेखक- मीनू सिंह

किशन और आशा बेटी को ले कर एक तो वैसे ही परेशान थे, दूसरे जया के गायब होने की बात फैलने के साथ ही रिश्तेदारों और परिचितों द्वारा प्रश्न दर प्रश्न की जाने वाली पूछताछ उन्हें मानसिक तौर पर व्यथित कर रही थी. मिलनेजुलने वाले की बातों और परामर्शों से परेशान हो कर किशन और आशा ने घर से बाहर निकलना ही बंद कर दिया था.

उधर जया मातापिता पर गुजर रही कयामत से बेखबर नैनीताल की वादियों का आनंद उठा रही थी. करन के प्यार का नशा उस पर इस तरह से चढ़ा हुआ था कि उसे अपने भविष्य के बारे में सोचने का भी  होश नहीं था. उसे यह भी चिंता नहीं थी कि जब उस के घर से लाए पैसे खत्म हो जाएंगे, तब क्या होगा? और यह सब उस की उस नासमझ उम्र का तकाजा था जिस में भावनाएं, कल्पनाएं तथा आकर्षण तो होता है, लेकिन गंभीरता या परिपक्वता नहीं होती.

किशन की रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने काररवाई शुरू की तो शीघ्र ही जया की गुमशुदगी का रहस्य खुल कर सामने आ गया. पुलिस द्वारा जया की फोटो दिखा कर की गई पूछताछ के दौरान पता चला कि वह लड़की नैनीताल जाने वाली बस में चढ़ते देखी गई थी. बताने वाले दुकानदार ने पुलिस को यह जानकारी भी दी कि उस के साथ एक लड़का भी था, इतना पता चलते ही पुलिस उसी दिन नैनीताल के लिए रवाना हो गई. नैनीताल पहुंचने के बाद पुलिस ने जया की खोज गेस्टहाउसों से ही शुरू की, क्योंकि दिनरात के अनुभवों के आधार पर पुलिस वालों का नजरिया था कि घर से भागे किशोरवय प्रेमीप्रेमिका पैसा कम होने की वजह से होटल के बजाय छोटेमोटे गेस्टहाउसों को ही अपना ठिकाना बनाते हैं. पुलिस का अनुमान ठीक निकला. एक गेस्टहाउस के केयरटेकर ने पुलिस वालों को बताया कि कम उम्र का एक प्रेमीयुगल 4 दिन पहले उस के यहां आ कर ठहरा था. पुलिस ने एंट्री रजिस्टर में उन का नाम और पता देखा, तो दोनों ही गलत दर्ज थे.

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इस बीच पुलिस द्वारा गेस्टहाउस में की जाने वाली जांचपड़ताल का पता सब को चल चुका था. पुलिस का नाम सुनते ही करन के होश उड़ गए. उस ने बचे हुए पैसे अपनी जेब में डाले और जया से बोला, ‘‘तुम डरना नहीं जया. मैं 10-15 मिनट में लौट आऊंगा.’’

जया ने करन को रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वह एक झटके से कमरे के बाहर हो गया. पुलिस जब तक जया के कमरे पर पहुंची, तब तक करन उस की पहुंच से बाहर निकल चुका था. मजबूरी में पुलिस जया को ले कर लौट आई.

जया के बरामद होने की सूचना पुलिस ने उस के घर भेज दी थी. किशन को जब इस बात का पता चला कि जया किसी लड़के के साथ भागी थी तो अपनी बेटी की इस करतूत से उन का सिर हमेशा के लिए झुक गया था. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि वह लोगों का सामना कैसे कर पाएंगे. जया ने उन्हें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा था. किशन में अब इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वह पुलिस थाने जा कर जया को ले आते. वह यह भी जानते थे कि जया के मिलने की खबर पाते ही रिश्तेदारों और परिचितों का जो तूफान उठेगा, वह उस का सामना नहीं कर पाएंगे.

जया की बरामदगी के बाद पुलिस द्वारा किशन को लगातार संदेश दिया जा रहा था कि वह अपनी बेटी को ले जाएं. जब पुलिस का दबाव बढ़ा तो किशन आपा खो बैठे और थाने जा कर पुलिस वालों से दोटूक कह दिया कि वह बेटी से अपने सारे संबंध खत्म कर चुके हैं. अब उस से उन का कोई रिश्ता नहीं है. वह अपनी रिपोर्ट भी वापस लेने को तैयार हैं.

एक झटके में बेटी से सारे नाते तोड़ कर किशन वहां से चले गए. तब मजबूरी में पुलिस ने जया को हवालात से निकाल कर नारीनिकेतन भेज दिया. जब जया ने वहां लाने की वजह जाननी चाही, तो एक पुलिसकर्मी ने व्यंग्य करते हुए उसे बताया, ‘घर से भागी थी, अपने यार के साथ, अब नतीजा भुगत. तेरे घर वाले तुझे ले जाने को तैयार नहीं हैं. उन्होंने तुझ से रिश्ता खत्म कर लिया है. अब नारीनिकेतन तेरा ‘आसरा’ है.’

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अतीत की लडि़यां बिखरीं तो जया यथार्थ में लौटी. अब उस की जिंदगी का सच यही था जो उस के सामने था. उस ने रोरो कर सूज चुकी आंखों से खिड़की के पार देखना चाहा तो उसे दूरदूर तक फैले अंधेरे के अलावा कुछ नजर नहीं आया. धूप का वह टुकड़ा भी न जाने कब, कहां विलीन हो गया था. जया के मन में, जीवन में और बाहर चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था. इस अंधेरे में अकेले भटकतेभटकते उस का मन घबराया तो उसे मां का आंचल याद आया. वह बचपन में अकसर अंधेरे से डर कर मां के आंचल में जा छिपती थी, लेकिन अब वहां न तो मां थी और न मां का आंचल ही था.

जिंदगी के इस मोड़ पर आ कर जया को अपनों की अहमियत का पता चला. उसे इस बात का एहसास भी अब हुआ कि मांबाप बच्चों की भलाई और उन के सुरक्षित भविष्य के लिए ही उन पर पाबंदियां लगाते हैं. मातापिता के सख्ती बरतने के पीछे भी उन का प्यार और बच्चों के प्रति लगाव ही होता है. उसे इस बात का बेहद पछतावा था कि उस ने समय रहते मम्मी और पापा की भावनाओं की कद्र की होती तो उस का उज्ज्वल भविष्य नारीनिकेतन के उस गंदे से कमरे में दम न तोड़ रहा होता और जिस करन के प्यार के खुमार में उस ने अपनों को ठुकराया, वही करन उसे बीच मझधार में छोड़ कर भाग खड़ा हुआ. उस ने एक बार भी पलट कर यह देखने की कोशिश नहीं की कि जया पर क्या बीत रही होगी. करन की याद आते ही जया का मन वितृष्णा से भर उठा. उसे अपने आप पर ग्लानि भी हुई कि एक ऐसे कृतघ्न के चक्कर में पड़ कर उस ने अपनी जिंदगी तो बर्बाद की ही, अपने परिवार वालों का सम्मान भी धूल में मिला दिया.

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अपनी भूल पर पछताती जया न जाने कब तक रोती रही. जब बैठेबैठे वह थक गई तो सीलन भरे नंगे फर्श पर ही लेट गई. आंखों से आंसू बहतेबहते कब नींद ने उसे अपने आगोश में समेट लिया, जया को पता ही न चला. अपनी बदरंग जिंदगी बिताने के लिए उसे आखिर एक ‘आसरा’ मिल ही गया था. नारीनिकेतन के सीलन भरे अंधेरे कमरे का वह कोना, जहां जिंदगी से थकीहारी जया नंगे फर्श पर बेसुध सो रही थी.

अस्तित्व- भाग 3: क्या तनु ने प्रणव को अपने अस्तित्व का एहसास करा पाई?

लेखिका- नीलमणि शर्मा

‘‘बाहर से ताला खुला देखा इसलिए बेल बजा दी. कब आईं आप?’’ शालीनता से पूछा था दीप्ति ने.

‘‘रात ही में.’’

‘‘ओह, अच्छा…पता ही नहीं चला. और मिस्टर राय?’’

‘‘वह बाहर गए हैं…तब तक दोचार दिन मैं यहां रह कर देखती हूं, फिर देखेंगे.’’

दीप्ति भेदभरी मुसकान से ‘बाय’ कह कर वहां से चल दी.

पूरा दिन निकल गया प्रतीक्षा में. तनु को बारबार लग रहा था प्रणव अब आए, तब आए. पर वह नहीं ही आए.

रात होतेहोते तनु ने अपने मन को समझा लिया था कि यह किस का इंतजार था मुझे? उस का जिस ने घर से निकाल दिया. अगर उन्हें आना ही होता तो मुझे निकालते ही क्यों…सचमुच मैं उन की जिंदगी का अवांछनीय अध्याय हूं. लेकिन ऐसा तो नहीं कि मैं जबरदस्ती ही उन की जिंदगी में शामिल हुई थी…

कालिज में मैं और निमिषा एक साथ पढ़ते थे. एक ही कक्षा और एक जैसी रुचियां होने के कारण हमारी शीघ्र ही दोस्ती हो गई. निमिषा और मुझ में कुछ अंतर था तो बस, यही कि वह अपनी कार से कालिज आती जिसे शोफर चलाता और बड़ी इज्जत के साथ कार का गेट खोल कर उसे उतारताबैठाता, और मैं डीटीसी की बस में सफर करती, जो सचमुच ही कभीकभी अंगरेजी भाषा का  ‘सफर’ हो जाता था. मेरा मुख्य उद्देश्य था शिक्षा के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना और निमिषा का केवल ग्रेजुएशन की डिगरी लेना. इस के बावजूद वह पढ़ाई में बहुत बुद्धिमान थी और अभी भी है…

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ग्रेजुएशन करने तक मैं कभी निमिषा के घर नहीं गई…अच्छी दोस्ती होने के बाद भी मुझे लगता कि मुझे उस से एक दूरी बनानी है…कहां वह और कहां मैं…लेकिन जब मैं ने एम.ए. का फार्म भरा तो मुझे देख उस ने भी भर दिया और इस तरह हम 2 वर्ष तक और एकसाथ हो गए. इस दौरान मुझे दोचार बार उस के घर जाने का मौका मिला. घर क्या था, महल था.

मेरी हैरानी तब और बढ़ गई जब एम.फिल. के लिए मेरे साथसाथ उस ने भी आवेदन कर दिया. मेरे पूछने पर निमिषा ने कहा था, ‘यार, मम्मीपापा शादी के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं, जब तक नहीं मिलता, पढ़ लेते हैं. तेरे साथसाथ जब तक चला जाए…’ बिना किसी लक्ष्य के निमिषा मेरे साथ कदम-दर-कदम मिलाती हुई बढ़ती जा रही थी और एक दिन हम दोनों को ही लेक्चरर के लिए नियुक्त कर लिया गया.

इस खुशी में उस के घर में एक भव्य पार्टी का आयोजन किया गया था. उसी पार्टी में पहली बार उस के भाई प्रणव से मेरी मुलाकात हुई. बाद में मुझे पता चला कि उस दिन पार्टी में मेरे रूपसौंदर्य से प्रभावित हो कर निमिषा के मम्मीपापा ने निमिषा की शादी के बाद मुझे अपनी बहू बनाने पर विचार किया, जिस पर अंतिम मोहर मेरे घर वालों को लगानी थी जो इस रिश्ते से मन में खुश भी थे और उन की शानोशौकत से भयभीत भी.

इस सब में लगभग एक साल का समय लगा. प्रणव कई बार मुझ से मिले, वह जानते थे कि मैं एक आम भारतीय समाज की उपज हूं…शानोशौकत मेरे खून में नहीं…लेकिन शादी के पहले मेरी यही बातें, मेरी सादगी, उन्हें अच्छी लगती थी, जो उन की सोसाइटी में पाई जाने वाली लड़कियों से मुझे अलग करती थी.

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तनु को यहां रहते एक महीना हो चुका था. कुछ दिन तो दरवाजे की हर घंटी पर वह प्रणव की उम्मीद लगाती, लेकिन उम्मीदें होती ही टूटने के लिए हैं. इस अकेलेपन को तनु समझ ही नहीं पा रही थी. कभी तो अपने छोटे से घर में 55 वर्षीय प्रोफेसर डा. तनुश्री राय का मन कालिज गर्ल की तरह कुलाचें मार रहा होता कि यहां यह मिरर वर्क वाली वाल हैंगिंग सही लगेगी…और यह स्टूल यहां…नहीं…इसे इस कोने में रख देती हूं.

घर में कपडे़ की वाल हैंगिंग लगाते समय तनु को याद आया जब वह जनपथ से यह खरीद कर लाई थी और उसे ड्राइंग रूम में लगाने लगी तो प्रणव ने कैसे डांट कर मना कर दिया था कि यह सौ रुपल्ली का घटिया सा कपडे़ का टुकड़ा यहां लगाओगी…इस का पोंछा बना लो…वही ठीक रहेगा…नहीं तो अपने जैसी ही किसी को भेंट दे देना.

तनु अब अपनी इच्छा से हर चीज सजा रही थी. कोई मीनमेख निकालने वाला या उस का हाथ रोकने वाला नहीं था, लेकिन फिर भी जीवन को किसी रीतेपन ने अपने घेरे में घेर लिया था.

कालिज की फाइनल परीक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं. सभी कहीं न कहीं जाने की तैयारियों में थे. प्रणव के साथ मैं भी हमेशा इन दिनों बाहर चली जाया करती थी…सोच कर अचानक तनु को याद आया कि बेटा  ‘यश’ के पास जाना चाहिए…उस की शादी पर तो नहीं जा पाई थी…फिर वहीं से बेटी के पास भी हो कर आऊंगी.

बस, तुरतफुरत बेटे को फोन किया और अपनी तैयारियों में लग गई. कितनी प्रसन्नता झलक रही थी यश की आवाज में. और 3 दिन बाद ही अमेरिका से हवाई जहाज का टिकट भी भेज दिया था.

फ्लाइट का समय हो रहा था… ड्राइवर सामान नीचे ले जा चुका था, तनु हाथ में चाबी ले कर बाहर निकलने को ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई, उफ, इस समय कौन होगा. देखा, दरवाजे पर प्रणव खड़े हैं.

क्षण भर को तो तनु किंकर्तव्य- विमूढ़ हो गई. उफ, 2 महीनों में ही यह क्या हो गया प्रणव को. मानो बरसों के मरीज हों.

‘‘कहीं जा रही हो क्या?’’ प्रणव ने उस की तंद्रा तोड़ते हुए पूछा.

‘‘हां, यश के पास…पर आप अंदर तो आओ.’’

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‘‘अंदर बैठा कर तनु प्रणव के लिए पानी लेने को मुड़ी ही थी कि उस ने तनु का हाथ पकड़ लिया, ‘‘तनु, मुझे माफ नहीं करोगी. इन 2 महीनों में ही मुझे अपने झूठे अहम का एहसास हो गया. जिस प्यार और सम्मान की तुम अधिकारिणी थीं, तुम्हें वह नहीं दे पाया. अपने  ‘स्वाभिमान’ के आवरण में घिरा हुआ मैं तुम्हारे अस्तित्व को पहचान ही नहीं पाया. मैं भूल गया कि तुम से ही मेरा अस्तित्व है. मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूं…यह सच है तनु, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं…पहले भी करता था पर अपने अहम के कारण कहा नहीं, आज कहता हूं तनु, तुम्हारे बिना मैं मर जाऊंगा…मुझे माफ कर दो और अपने घर चलो. बहू को पहली बार अपने घर बुलाने के लिए उस के स्वागत की तैयारी भी तो करनी है…मुझे एक मौका दो अपनी गलती सुधारने का.’’

तनु बुढ़ापे में पहली बार अपने पति के प्यार से सराबोर खुशी के आंसू पोंछती हुई अपने बेटे को अपने न आ पाने की सूचना देने के लिए फोन करने लग जाती है.

आंखें- भाग 1: ट्रायल रूम में ड्रेस बदलती श्वेता की तस्वीरें क्या हो गईं वायरल

‘‘इस अलबम में ऐसा क्या है कि तुम इसे अपने पास रखे रहते हो?’’ विनोद ने अपने साथी सुरेश के हाथ में पोर्नोग्राफी का अलबम देख कर कहा.

‘‘टाइम पास करने और आंखें सेंकने के लिए क्या यह बुरा है?’’

‘‘बारबार एक ही चेहरा और शरीर देख कर कब तक दिल भरता है?’’

‘‘तब क्या करें? किसी गांव में नदी किनारे जा कर नहा रही महिलाओं का लाइव शो देखें?’’ सुरेश ने कहा.

‘‘लाइव शो…’’ कह कर विनोद खामोश हो गया.

‘‘क्या हुआ? क्या कोई अम्मां याद आ गई?’’

‘‘नहीं, अम्मां तो नहीं याद आई. मैं सोच यह रहा हूं कि यहां दर्जनों लेडीज रोज आती हैं. क्या लाइव शो यहां नहीं हो सकता?’’

‘‘अरे यहां लेडीज कपड़े खरीदने आती हैं या लाइव शो करने?’’

दोपहर का वक्त था. इस बड़े शोरूम का स्टाफ खाना खाने गया हुआ था. विनोद और सुरेश इस बड़े शो रूम में सेल्समैन थे. इन की सोचसमझ बिगड़े युवाओं जैसी थी. खाली समय में आपस में भद्दे मजाक करना, अश्लील किताबें पढ़ना और ब्लू फिल्में व पोर्नोग्राफी का अलबम रखना इन के शौक थे.

लाइव शो शब्द सुरेश के दिमाग में घूम रहा था. रात को शोरूम बंद होने के बाद वह अपने दोस्त सिकंदर, जो तसवीरों और शीशों की फिटिंग की दुकान चलाता था, के पास पहुंचा.

ड्रिंक का दौर शुरू हुआ. फिर सुरेश में उस से कहा, ‘‘सिकंदर, कई कारों में काले शीशे होते हैं, जिन के एक तरफ से ही दिखता है. क्या कोई ऐसा मिरर भी होता है जिस में दोनों तरफ से दिखता हो?’’

‘‘हां, होता है. उसे टू वे मिरर कहते हैं. क्या बात है?’’

‘‘मैं फोटो का अलबम देखतेदेखते बोर हो गया हूं. अब लाइव शो देखने का इरादा है.’’

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सुरेश की बात सुन कर सिकंदर हंस पड़ा. अगले 2 दिनों के बाद सिकंदर शोरूम के ट्रायल रूम में लगे मिरर का माप ले आया. फिर 2 दिन बाद जब मैनेजर और अन्य स्टाफ खाना खाने गया हुआ था, वह साधारण मिरर हटा कर टू वे मिरर फिट कर आया. एक प्लाईवुड से ढक कर टू वे मिरर की सचाई भी छिपा दी.

फिर यह सिलसिला चल पड़ा कि जब भी कोई खूबसूरत युवती ड्रैस ट्रायल या चेंज करने के लिए आती, विनोद या सुरेश चुपचाप ट्रायल रूम के साथ लगे स्टोर रूम में चले जाते और प्लाईवुड हटा न्यूड बौडी का नजारा करते.

‘‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि इस लाइव शो को कैमरे में भी कैद कर लिया जाए?’’ विनोद के इस सवाल पर सुरेश मुसकराया.

अगले दिन उस के एक फोटोग्राफर मित्र ने एक कैमरा स्टोररूम में फिट कर दिया. अब विनोद और सुरेश कभी लाइव शो देखते तो कभी फोटो भी खींच लेते.

काफी दिन यह सिलसिला चलता रहा. गंदे दिमाग में घटिया विचार पनपते ही हैं, इसलिए विनोद और सुरेश यह सोचने लगे कि जिन की फोटो खींचते हैं उन को ब्लैकमेल कर पैसा भी कमाया जा सकता है.

उन के द्वारा बहुत से लोगों के फोटो खींचे गए थे, जिन में से एक श्वेता भी थी. श्वेता एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पद पर काम करती थी. उस के पति प्रशांत भी एक बड़ी कंपनी में मैनेजर थे, इसलिए घर में रुपएपैसे की आमद खूब थी. श्वेता द्वारा फैशन परिधान अकसर खरीदे जाते थे और कुछ दिन इस्तेमाल होने के बाद रिटायर कर दिए जाते थे. कौन सा परिधान कब खरीदा और उसे कितना पहना था श्वेता को कभी याद नहीं रहता था.

आज वह जल्दी घर आ गई थी. अभी बैठी ही थी कि कालबैल बजी. दरवाजा खोला तो देखा सामने कूरियर कंपनी का डिलिवर बौय था. श्वेता ने यंत्रचालित ढंग से साइन किया तो वह लड़का एक लिफाफा दे कर चला गया. श्वेता ने लिफाफा खोला तो अंदर पोस्टकार्ड साइज के 2 फोटो थे. उन्हें देखते ही वह जड़ हो गई.

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एक फोटोग्राफ में वह कपड़े उतार कर खड़ी थी, तो दूसरे में झुकती हुई एक परिधान पहन रही थी. फोटो काफी नजदीक से खींचे गए थे. लेकिन कब खींचे थे, किस ने खींचे थे पता नहीं चल रहा था.

चेहरा तो उसी का था यह तो स्पष्ट था, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं था कि किसी दूसरी युवती के शरीर पर उस का चेहरा चिपका दिया गया हो?

तभी कालबैल बजी. उस ने फुरती से लिफाफे में फोटो डाल कर इधरउधर देखा. कहां छिपाए यह लिफाफा वह सोच ही रही थी कि उसे अपना ब्रीफकेस याद आया. लिफाफा उस में डाल उस ने उसे सोफे के पीछे डाल दिया.

फिर की होल से देखा तो बाहर उस के पति प्रशांत खड़े मंदमंद मुसकरा रहे थे. दरवाजा खुलते ही अंदर आए और दरवाजा बंद कर के पत्नी को बांहों में भर लिया.

‘‘श्वेता डार्लिंग, क्या बात है, सो रही थीं क्या?’’

श्वेता बेहद मिलनसार और खुले स्वभाव की थी. पति से बहुत प्यार करती थी और प्यार का भरपूर प्रतिकार देती थी. मगर आज खामोश थी.

‘‘क्या बात है, तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘जरा सिर भारी है. आप आज इतनी जल्दी कैसे आ गए?’’

‘‘कंपनी के टूर पर गया था. काम जल्दी निबट गया इसलिए सीधा घर आ गया. चाय पियोगी? तुम आराम करो मैं किचन संभाल लूंगा.’’

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प्रशांत किचन में चला गया. तभी श्वेता का मोबाइल बज उठा. एक अनजान नंबर स्क्रीन पर उभरा. क्या पता उसी फोटो भेजने वाले का नंबर हो सोचते हुए श्वेता ने मोबाइल का स्विच औफ कर दिया.

तभी प्रशांत ट्रे में चाय और टोस्ट ले आए.

‘‘श्वेता यह सिर दर्द की गोली ले लो और टोस्ट खा लो. चाय भी पी लो. आज किचन का जिम्मा मेरा.’’

ट्रे थमा प्रशांत किचन में चले गए. इतने प्यारे पति को बताऊं या न बताऊं यह सोचते हुए श्वेता ने सिरदर्द की गोली बैड के नीचे डाल दी और टोस्ट चाय में भिगो कर खा लिया. फिर चाय पी और लेट गई. समस्या का क्या समाधान हो सकता है? यह सोचतेसोचते कब आंख लग गई पता ही नहीं चला. आंखें खुली तो देखा पास ही लेटे प्रशांत पुस्तक में डूबे थे.

क्षमादान- भाग 3: आखिर मां क्षितिज की पत्नी से क्यों माफी मांगी?

जन्मदिन के अगले ही दिन क्षितिज ने बड़े नाटकीय अंदाज में उस के सामने विवाह प्रस्ताव रख दिया था.

‘तुम होश में तो हो, क्षितिज? तुम मुझ से कम से कम 3 वर्ष छोटे हो. तुम्हारे मातापिता क्या सोचेंगे?’

‘मातापिता नहीं हैं, भैयाभाभी हैं और उन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूं. मैं मना लूंगा उन्हें. तुम अपनी बात कहो.’

‘मुझे तो लगता है कि हम मित्र ही बने रहें तो ठीक है.’

‘नहीं, यह ठीक नहीं है. पिछले 2 सालों में हर पल मुझे यही लगता रहा है कि तुम्हारे बिना मेरा जीवन अधूरा है,’ क्षितिज ने स्पष्ट किया था.

प्राची ने अपनी मां और पिताजी को जब इस विवाह प्रस्ताव के बारे में बताया तो मां देर तक हंसती रही थीं. उन की ठहाकेदार हंसी देख कर प्राची भौचक रह गई थी.

‘इस में इतना हंसने की क्या बात है, मां?’ वह पूछ बैठी थी.

‘हंसने की नहीं तो क्या रोने की बात है? तुम्हें क्या लगता है, वह तुम से विवाह करेगा? तुम्हीं कह रही हो कि वह तुम से 3 साल छोटा है.’

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‘क्षितिज इन सब बातों को नहीं मानता.’

‘हां, वह क्यों मानेगा. वह तो तुम्हारे मोटे वेतन के लिए विवाह कर ही लेगा पर यह विवाह चलेगा कितने दिन?’

‘क्या कह रही हो मां, क्षितिज की कमाई मुझ से कम नहीं है, और क्षितिज आयु के अंतर को खास महत्त्व नहीं देता.’

‘तो फिर देर किस बात की है. जाओ, जा कर शान से विवाह रचाओ, मातापिता की चिंता तो तुम्हें है नहीं.’

‘मुझे तो इस प्रस्ताव में कोई बुराई नजर नहीं आती,’ नीरज बाबू ने कहा.

‘तुम्हें दीनदुनिया की कुछ खबर भी है? लोग कितने स्वार्थी हो गए हैं?’ मां ने यह कह कर पापा को चुप करा दिया था.

क्षितिज नहीं माना. लगभग 6 माह तक दोनों के बीच तर्कवितर्क चलते रहे थे. आखिर दोनों ने विवाह करने का निर्णय लिया था, लेकिन विवाह कर प्राची के घर जाने पर दोनों का ऐसा स्वागत होगा, यह क्षितिज तो क्या प्राची ने भी नहीं सोचा था.

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जाने अभी और कितनी देर तक प्राची अतीत के विचारों में खोई रहती अगर क्षितिज ने झकझोर कर उस की तंद्रा भंग न की होती.

‘‘क्या हुआ? सो गई थीं क्या? लीजिए, गरमागरम कौफी,’’ क्षितिज ने जिस नाटकीय अंदाज में कौफी का प्याला प्राची की ओर बढ़ाया उसे देख कर वह हंस पड़ी.

‘‘तुम कौफी बना रहे थे? मुझ से क्यों नहीं कहा. मैं भी अच्छी कौफी बना लेती हूं.’’

‘‘क्यों, मेरी कौफी अच्छी नहीं बनी क्या?’’

‘‘नहीं, कौफी तो अच्छी है, पर तुम्हारे घर पहली कौफी मुझे बनानी चाहिए थी,’’ प्राची शर्माते हुए बोली.

‘‘सुनो, हमारी बहस में तो यह कौफी ठंडी हो जाएगी. यह कौफी खत्म कर के जल्दी से तैयार हो जाओ. आज हम खाना बाहर खाएंगे. हां, लौट कर गांव जाने की तैयारी भी हमें करनी है. भैयाभाभी को मैं ने अपने विवाह की सूचना दी तो उन्होंने तुरंत गांव आने का आदेश दे दिया.’’

‘‘ठीक है, जो आज्ञा महाराज. कौफी समाप्त होते ही आप की आज्ञा का अक्षरश: पालन किया जाएगा,’’ प्राची भी उतने ही नाटकीय स्वर में बोली थी.

दूसरे ही क्षण दरवाजे की घंटी बजी और दरवाजा खोलते ही सामने प्राची और क्षितिज के सहयोगी खड़े थे.

‘बधाई हो’ के स्वर से सारा फ्लैट गूंज उठा था और फिर दूसरे ही क्षण उलाहनों का सिलसिला शुरू हो गया.

‘‘वह तो मनोहर और ऋचा ने तुम्हारे विवाह का राज खोल दिया वरना तुम तो इतनी बड़ी बात को हजम कर गए थे,’’ विशाल ने शिकायत की थी.

‘‘आज हम नहीं टलने वाले. आज तो हमें शानदार पार्टी चाहिए,’’ सभी समवेत स्वर में बोले थे.

‘‘पार्टी तो अवश्य मिलेगी पर आज नहीं, आज तो मुंह मीठा कीजिए,’’ प्राची और क्षितिज ने अनुनय की थी.

उन के विदा लेते ही दरवाजा बंद कर प्राची जैसे ही मुड़ी कि घंटी फिर बज उठी. इस बार दरवाजा खोला तो सामने राजा, प्रवीण, निधि और वीणा खड़े थे.

‘‘दीदी, जीवन के इतने महत्त्वपूर्ण क्षण में आप ने हमें कैसे भुला दिया?’’ प्रवीण साथ लाए कुछ उपहार प्राची को थमाते हुए बोला था. राजा, निधि और वीणा ने भी दोनों को बधाई दी थी.

‘‘हम सब आप दोनों को लेने आए हैं. पापा ने बुलावा भेजा है. आप तो जानती हैं, वह खुद यहां नहीं आ सकते,’’ राजा ने आग्रह किया था.

‘‘भैया, हम दोनों आशीर्वाद लेने घर गए थे, पर मां ने तो हमें श्राप ही दे डाला,’’ प्राची यह कहते रो पड़ी थी.

‘‘मां का श्राप भी कभी फलीभूत होता है, दीदी? शब्दों पर मत जाओ, उन के मन में तो आप के लिए लबालब प्यार भरा है.’’

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प्राची और क्षितिज जब घर पहुंचे तो सारा घर बिजली की रोशनी में जगमगा रहा था. व्हील चेयर पर बैठे नीरज बाबू ने प्राची और क्षितिज को गले से लगा लिया था.

‘‘यह क्या, प्राची? घर आ कर पापा से मिले बिना चली गई. इस दिन को देखने के लिए तो मेरी आंखें तरस रही थीं.’’

प्राची कुछ कहती इस से पहले ही यह मिलन पारिवारिक बहस में बदल गया था. कोई फिर से विधि विधान के साथ विवाह के पक्ष में था तो कोई बड़ी सी दावत के. आखिर निर्णय मां पर छोड़ दिया गया.

‘‘सब से पहले तो क्षितिज बेटा, तुम अपने भैयाभाभी को आमंत्रित करो और उन की इच्छानुसार ही आगे का कार्यक्रम होगा,’’ मां ने यह कह कर अपना मौन तोड़ा. प्राची को आशीर्वाद देते हुए मां की आंखें भर आईं और स्वर रुंध गया था.

‘‘हो सके तो तुम दोनों मुझे क्षमा कर देना,’’

Serial Story: बीवी का आशिक- भाग 1

लेखक- एम. अशफाक

नई उम्र के 2 थानेदार थे, जिन में से एक का नाम था अकबर शाह और दूसरे का नाम तलजा राम. दोनों बहुत बहादुर, दिलेर और निडर थे. दोनों में घनिष्ठ मित्रता थी, इतनी घनिष्ठता कि एकदूसरे के बिना जीना भी अच्छा नहीं लगता था. उन की तैनाती कहीं भी हो, लेकिन मिलने के लिए समय निकाल ही लेते थे. दोनों कभीकभी अवैध काम भी कर जाते थे, लेकिन करते इतनी चालाकी से थे कि किसी को उस की भनक तक नहीं लगती थी. दोनों बहुत बुद्धिमान थे, इसीलिए बहुत अकड़ कर चलते थे.

सन 1930 की जब की यह कहानी है तब सिंध में पुलिस के थानेदार को सूबेदार कहते थे. उस समय सूबेदार इलाके का राजा हुआ करता था. अकबर शाह और तलजा राम की भी दूसरे सूबेदारों की तरह बहुत इज्जत थी. अकबर शाह ऊंचे परिवार का था, इसलिए हर मिलने वाला पहले उस के पैर छूता था और बाद में बात करता था. तलजा राम भी उच्च जाति का ब्राह्मण था.

एक बार दोनों एक हत्या के मामले में फंस गए. हत्या जिला मीरपुर खास के पथोरो रेलवे स्टेशन पर हुई थी. वहीं से कुछ देर पहले अकबर शाह और तलजा राम गाड़ी में सवार हुए थे. रेलवे पुलिस के एसपी ने स्वयं विवेचना की और कह दिया कि हत्या दोनों के उकसावे पर की गई. देश की सभी रेलवे लाइन एकदूसरे से जुड़ी हुई थीं. फरंटियर मेल (अब स्वर्ण मंदिर मेल) मुंबई और लाहौर तक आतीजाती थीं, इसी तरह बीकानेर और जोधपुर से रेलवे की गाडि़यां हैदराबाद सिंध तक आतीजाती थीं.

एक शाम ऐसी ही एक गाड़ी में अकबर शाह और तलजा राम सवार होने के लिए पथोरो रेलवे स्टेशन पर बड़ी शानबान से आए. जोधपुर से आने वाली गाड़ी जब पथोरो स्टेशन पर आ कर रुकी तो दोनों झट से फर्स्ट क्लास के डिब्बे में बैठ गए.

उन दिनों गाडि़यों में इतनी भीड़ नहीं हुआ करती थी. उस डिब्बे से जिस में ये दोनों सवार हुए थे, रेलवे का एक अधिकारी उतरा जो पथोरो स्टेशन का निरीक्षण करने आया था. जब उस ने प्लेटफार्म पर भीड़ एकत्र देखी तो स्टेशन मास्टर से पूछा. उस ने बताया कि इस इलाके का सूबेदार सफर करने जा रहा है, ये भीड़ उसे छोड़ने आई है.

रेलवे का अधिकारी कुछ अनाड़ी किस्म का था, वह रेलवे का कुछ ज्यादा ही हितैषी था. उसे लगा कि पुलिस का एक सूबेदार फर्स्ट क्लास में कैसे यात्रा कर सकता है. उस ने टीटी को बुला कर कहा कि उन के टिकट चैक करे. जब टीटी ने टिकट मांगे तो अकबर शाह जो इलाके का सूबेदार था, उसे अपना अपमान लगा. उस ने गुस्से में दोनों टिकट निकाल कर टीटी के मुंह पर दे मारे. टिकट सेकेंड क्लास के थे. टीटी ने रेलवे अधिकारी की ओर देखा तो उस ने कहा, ‘‘इन से कहो कि उतर कर सेकेंड क्लास में चले जाएं.’’

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अकबर शाह को बहुत गुस्सा आया. लेकिन मजबूरी यह थी कि यह थाना नहीं रेलवे स्टेशन था, इसलिए उस ने तलजा राम को इशारा किया. दोनों उतर कर सेकेंड क्लास के डिब्बे में बैठ गए. गाड़ी हैदराबाद के लिए रवाना हो गई. अगली सुबह पुलिस को सूचना मिली कि पथोरो स्टेशन के प्लेटफार्म पर जोधपुर से आए रेलवे अधिकारी को किसी ने सोते में कुल्हाडि़यों के घातक वार कर के मार डाला है.

रेलवे के एसपी मंझे हुए अधिकारी थे, चूंकि हत्या रेलवे स्टेशन की सीमा में हुई थी इसलिए विवेचना भी रेलवे पुलिस को करनी थी. मृतक बीकानेर रेलवे का कर्मचारी था. उन लोगों ने शोर मचा दिया, जिस से सिंध की बदनामी होने लगी. जोधपुर रेलवे पुलिस ने हत्यारों का पता बताने वाले को 500 रुपए का इनाम देने की घोषणा कर दी. बीकानेर वाले क्यों पीछे रहते उन्होंने भी 1000 रुपए के इनाम का ऐलान कर दिया.

मामला बहुत नाजुक था, इसलिए उस की तफ्तीश स्वयं एसपी ने संभाल ली. वह घटनास्थल पर पहुंचे. उन्होंने घटनास्थल का निरीक्षण किया, गवाहों के बयान लिए. जब उन्हें पता लगा कि मृतक की 2 सूबेदारों से तूतूमैंमैं हुई थी तो उन्हें पक्का यकीन हो गया कि हत्या उन दोनों ने ही कराई होगी. वे दोनों सूबेदार थे, यह कैसे सहन कर सकते थे कि उन्हें फर्स्ट क्लास के डिब्बे से उतर कर सेकेंड क्लास में बैठना पड़ा.

वह भी उन चाटुकारों के सामने जो उन्हें स्टेशन पर छोड़ने आए थे. उन दोनों के बारे में यह भी मशहूर था कि वे अपराधी प्रवृत्ति के लोगों से संबंध रखते थे. उन के लिए हत्या कराना बाएं हाथ का खेल था.

मृतक परदेसी आदमी था, जो एक दिन के लिए यहां आया था. वहां न तो उसे कोई पहचानता था और न उस की किसी से दुश्मनी थी. उस की हत्या उन दोनों सूबेदारों ने ही कराई थी. माना यह गया कि उन्होंने पथोरो से अगले स्टेशन पर पहुंच कर किसी बदमाश को इशारा कर दिया और वह बदमाश एक माल गाड़ी से जो पथोरो जा रही थी, उस में बैठ कर पथोरो स्टेशन पहुंचा. वह अफसर प्लेटफार्म पर सो रहा था, उस बदमाश ने कुल्हाड़ी के वार कर के उस की हत्या कर दी और भाग गया.

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एसपी साहब ने अपनी रिपोर्ट डीआईजी को भेज दी और दोनों सूबेदारों की गिरफ्तारी की इजाजत मांगी. उन दिनों सिंध का उच्च अधिकारी डीआईजी हुआ करता था. रिपोर्ट डीआईजी के पास पहुंची तो उन्होंने एसपी साहब को बुला कर उन से इस मामले में बात की. फिर दोनों सूबेदारों को बुला कर पूछा कि उन पर हत्या का आरोप है तो दोनों भौचक्के रह गए.

हत्या और हम, दोनों ने कानों पर हाथ रख कर कहा, ‘‘आप यह सोच भी कैसे सकते हैं. हम कानून के रक्षक हैं और कानून तोड़ने की सोच भी नहीं सकते. हमारा काम लोगों की जान बचाना है, जान लेना नहीं. मृतक ने हमारा अपमान जरूर किया था और हमें गुस्सा भी आया था लेकिन इतनी छोटीसी बात पर हत्या नहीं हुआ करती.’’

Serial Story: अस्मत का सौदा- भाग 2

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

उस लड़की को अपने साथ पीछे वाली गाड़ी में ही बिठा लाया था रणबीर, जबकि कैंप में नेताजी की उदारवादिता की चर्चा होने लगी थी कि नेताजी कितने अच्छे हैं, जो हम लोगों के लिए रोजगार जुटा रहे हैं. शायद वे धीरेधीरे हम सब को रोजगार देंगे. जैसे आज रजिया को दिया है.

‘रजिया‘ हां, यही तो नाम था उस भोली सी दिखने वाली लड़की का, जो खूबसूरती में किसी भी फिल्म हीरोइन को टक्कर देती थी. बस उस का गूंगापन ही उस के लिए एक बड़ी समस्या थी. उस के मांबाप बचपन में ही मर गए थे. कैसे, वह रजिया को पता नहीं, सिर्फ उस की एक बहन थी, जो अब भी उसी कैंप में ही थी.

जब से रजिया ने होश संभाला, तब से उस की मौसी ने ही उसे पाला है और जब वह जवान हुई तो पाकिस्तान के खराब हालात उसे एक शरणार्थी बना कर आज यहां तक ले आए थे.

जब रजिया बाथरूम से नहा कर निकली, तो रणबीर सिंह को भी अपने फैसले पर सुखद आश्चर्य हो रहा था. रजिया को देख कर उस के मुंह में भी पानी आ गया था. अमूमन तो किसी भी नए फल को नेताजी ही चखते थे, पर रजिया को तो आज रणबीर सिंह ही खा जाने वाला था.

रात को जब रजिया फर्श पर बिछे कालीन पर सो रही थी, तभी शराब के नशे में रणबीर सिंह ने रजिया के जिस्म को नोच डाला… बेचारी गूंगी लड़की चीख भी नहीं सकी थी.

हांफता हुआ जब रणबीर रजिया के जिस्म से अलग हुआ, तो अनायास ही उस के मुंह से ये शब्द निकल पड़े, ‘‘स्साला… गूंगी लड़की के साथ तो सैक्स करने का अपना ही मजा है,‘‘ और धूर्तता से मुसकरा उठा था रणबीर.

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रजिया जब उठ पाने की हालत में आई, तो वह भाग कर नेताजी के पास पहुंची. नेताजी अभी अपने बिस्तर पर ही थे. रजिया ने हाथों के इशारों से ही अपने साथ हुए अत्याचार की सारी बात नेताजी को बता डाली.

नेताजी के गुस्से का पारावार नहीं रहा. उन्होंने तुरंत ही रणबीर को बुला कर खूब डांटा.

‘‘जिस लड़की के जिस्म पर पहले हमारा अधिकार था, उसे तुम ने हम से पहले जूठा कर दिया. लगता है कि अब हमारे साथ काम करने का मन नहीं है तुम्हारा.‘‘

‘‘माफ कर दीजिए सर. कल रात थोड़ी ज्यादा हो गई थी, इसलिए होश खो बैठा. आगे से ऐसा नहीं होगा,‘‘ गिड़गिड़ा रहा था रणबीर.

उस के इस तरह माफी मांगने पर नेताजी का गुस्सा थोड़ा शांत तो हुआ, पर अंदर ही अंदर उन के मन में नाराजगी ने घर कर लिया था.

नेताजी ने इशारों में रजिया को समझाया और जा कर नहाने को कहा.

नेताजी की डांट का असर बहुत दिनों तक रणबीर पर नहीं रहा. एक नेता का पीए होने के नाते वह जनता के सीधे संपर्क में रहता था, इसलिए उसे गलत तरीके से पैसे कमाने में कोई परेशानी नहीं होती थी. कुछ दिनों बाद ही उस ने लोगों से फिर पैसा उगाहना शुरू कर दिया.

रणबीर सिंह द्वारा बलात्कार किए जाने के सदमे से रजिया बहुत घबराई हुई थी. वह न खाती थी और न ही पीती थी. उस की ये हालत देख कर नेताजी समझ गए कि अगर इस की यही हालत रही, तो इस लड़की के साथ कुछ भी करना ठीक नहीं होगा, क्योंकि गुस्से में आ कर ये लड़की आत्महत्या भी कर सकती है, इसलिए उन्होंने रजिया को प्यारदुलार से समझाना शुरू किया और रणबीर को तो बिलकुल रजिया के पास फटकने नहीं दिया. तब रजिया को कुछ सुरक्षित माहौल का अनुभव हुआ.

जब उन्होंने धीरेधीरे रजिया का विश्वास जीत लिया, तो उसे लगने लगा कि अब उस पर रणबीर का कोई खतरा नहीं है और भविष्य में उस की अस्मत पर कोई आंच नहीं आएगी, तब एक दिन जब नेताजी अपने कमरे में आराम कर रहे थे, तभी उस ने नेताजी को एक कागज के टुकड़े पर टूटीफूटी हिंदी में जो लिखा, वह इस प्रकार था, ‘‘इस दुनिया में हम 2 बहनें ही हैं. मेरे यहां आ जाने से वह कैंप में अकेली रह गई है. आप बड़े दयालु हैं. हो सके तो उस को भी यहीं मेरे पास बुलवा दीजिए. आप को शुक्रिया.‘‘

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‘‘ओह्ह… तो ये मतलब है… इस की एक बहन और भी है. इस लड़की को मानसिक रूप से सही होने के लिए उस की बहन का यहां होना ठीक होगा, तो हम कल ही उस को भी बुलवा लेते हैं.‘‘

फिर क्या था, नेताजी ने तुरंत ही रणबीर सिंह को शरणार्थी कैंप में रजिया की बहन को लाने के लिए भेज दिया. कैंप में होने वाली कागजी कार्यवाही के लिए वहां के प्रबंधक के लिए नजराना भी भिजवाना नहीं भूले थे नेताजी.

‘‘क्या नाम है तुम्हारा?‘‘ नेताजी ने अपने साथ खड़ी रजिया की बहन से इशारों में पूछा.

‘‘जी, हमारा नाम मुमताज है,‘‘ उसे बोलते हुए सुन कर नेताजी हैरान हो गए.

उन्होंने तो सोचा था कि गूंगी रजिया की बहन भी गूंगी ही होगी, पर यह तो बोलती भी है. मतलब यह हुआ कि मुमताज खूबसूरती में भी रजिया से कहीं आगे थी और उस का बोलना तो एक तरह से सोने पे सुहागा हो गया था.

जब मुमताज ने नहाधो कर साफ कपडे़ पहन लिए, तो उसे देख कर रजिया बहुत खुश हो गई और उस से लिपट गई. जब रात को दोनों बहनें पास में लेटीं, तो रजिया ने अपने साथ हुए बलात्कार के बारे में मुमताज को सब बता दिया.

यह जान कर मुमताज के गुस्से का पारावार नहीं रहा, पर उसे वक्त के थपेड़ों ने बहुत ही समझदार लड़की में तबदील कर दिया था, इसलिए उस ने अपने तरीके से ही रणबीर सिंह को सबक सिखाने की बात सोची, क्योंकि वह जानती थी कि सीधी लड़ाई में तो वह रणबीर से नहीं जीत सकती है.

मुमताज को देख कर नेताजी और रणबीर के मुंह में पानी आ गया. दोनों ही उसे भोगने का सपना देखने लगे.

रणबीर ने अपनी आदत के अनुसार ही उस पर डोरे डालने शुरू कर दिए.

‘‘हां सुनो मुमताज, आज मैं बहुत खुश हूं… बताओ, तुम्हें क्या गिफ्ट दूं,‘‘ रणबीर ने मुमताज से कहा.

‘‘पर, भला आप इतना खुश क्यों हो?‘‘ मुमताज ने पूछा.

‘‘क्योंकि, आज मेरा जन्मदिन है. मैं आज किसी को भी दुखी नहीं देखना चाहता और खुशियां बांटना चाहता हूं,‘‘ रणबीर ने मुमताज की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘तो… अगर ऐसा है तो मुझे थोड़ा शहर घुमा दो. मैं काफी दिन से बाहर नहीं गई हूं,‘‘ मुमताज ने भी बनावटी प्रेम दिखाते हुए कहा.

अपने जाल में खुद ही मछली को फंसते देख मन ही मन खुश हो रहा था रणबीर.

शहर में कई जगहों पर घुमाने के बाद एक अच्छे से रैस्टोरैंट में दोनों ने साथ खाना खाया. मुमताज के हावभाव से कतई नहीं लग रहा था कि वह एक शरणार्थी कैंप से आई हुई लड़की है.

इस बीच रणबीर ने कई बार मुमताज के नाजुक अंगों को छूने की कोशिश की, जिसे वह बड़ी ही सफाई से बचा गई थी.

‘‘घूमना तो काफी हो गया… अब बताओ, मैं तुम्हें क्या तोहफा दूं?‘‘ रणबीर ने मुमताज के हाथ को अपने हाथों में लेते हुए कहा. इस बार मुमताज ने कोई विरोध नहीं किया.

‘‘आप मुझे कुछ दिलाना ही चाहते हैं, तो फिर मुझे एक अच्छा सा मोबाइल दिला दीजिए… दरअसल, मुझे फेसबुक चलाने का बहुत शौक है,‘‘ मुसकराते हुए मुमताज ने कहा.

‘‘बस, इतनी सी बात… अभी चल कर दिलवा देता हूं.‘‘

अपनी पसंद का मोबाइल ले कर उस पर गुलाबी रंग का कवर भी लगवा लिया था मुमताज ने.

मुमताज को घुमाने, खिलानेपिलाने और तोहफे के तौर पर रणबीर मन ही मन इतना तो बेफिक्र हो ही चुका था कि अब मुमताज को पाना कठिन नहीं होगा और यही बात सोच कर रणबीर ने मुमताज से कहा, ‘‘मुमताज, तुम ने मोबाइल तो ले लिया है, पर इसे चलाना तो तुम्हें अभी आता नहीं. अगर आज रात तुम मेरे घर आ जाओ, तो मैं तुम्हें सबकुछ सिखा दूंगा… सबकुछ,‘‘ रणबीर ने अपनी आंख दबाते हुए कहा. बदले में मुमताज ने सिर्फ मुसकरा कर हामी भर दी.

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पूरे दिन रणबीर सिंह मुमताज के जिस्म के बारे में कल्पनाएं करता रहा और शाम से ही शराब पीनी भी शुरू कर दी थी.

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