धर्मस्थलों में बरबाद होता बुढ़ापा

हर दौर के युवा व्यवस्था, विसंगतियों और भ्रष्टाचार को ले कर आक्रोशित रहते हैं. वे सोचते रहते हैं कि जिस दिन लाइफ सैटल हो जाएगी और वे पारिवारिक व सामाजिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाएंगे उस दिन जरूर इन खामियों से लड़ेंगे. युवाओं के पास क्रांतिकारी विचार तो होते हैं पर वे उपकरण नहीं होते जिन से वे समाज व देश को बदल सकें. ये उपकरण पैसा और वक्त होते हैं.

सेवानिवृत्ति और 60-65 वर्ष की उम्र तक खासा पैसा ये कल के युवा कमा चुके होते हैं और घरगृहस्थी के अलावा नौकरी या व्यवसाय के काफीकुछ अनुभव भी हासिल कर चुके होते हैं. यानी सैटल हो चुके होते हैं. लेकिन जवानी का वह आक्रोश और हालात वे भूल जाते हैं जो उन्हें उद्वेलित करता था और कुछ करने को उकसाता रहता था.

आज के बुजुर्ग यानी गुजरे कल के युवा कोई आंदोलन खड़ा न करें, यह हर्ज की बात नहीं, हर्ज की बात है इन का बेबस हो कर धर्मस्थलों में जा कर वक्त गुजारना, भजन, कीर्तन, पूजापाठ करना. इस से तो कुछ बदलने से रहा पर धर्म के चक्कर में वे खुद बदल कर सामाजिक विसंगतियों को बढ़ावा दे रहे होते हैं. वे खुद नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं और न ही उन्हें यह बताने वाला कोई होता है.

बरबादी क्यों

सामाजिक संरचना हर दशक में बदलती है पर जो एक बात उस में स्थिर रहती है वह है वृद्धों की उपेक्षा. दरअसल, वे अनुपयोगी करार दिए जा चुके होते हैं. दिक्कत यह है कि ये वृद्ध भी खुद को अनुपयोगी मान लेते हैं और सुकून की तलाश में भटकते हुए धर्मस्थलों का कारोबार बढ़ाते देखे जा सकते हैं.

हर धर्म में वृद्धों के लिए निर्देश दिए गए हैं कि यह उम्र भजनपूजन, ईश्वरीय ध्यान और तीर्थयात्राओं के अलावा जिंदगीभर के पापों को पुण्यों में तबदील करने की होती है. चूंकि यह काम धर्मस्थलों में ज्यादा से ज्यादा वक्त बिता कर ही हो सकता है, इसलिए अधिकांश वृद्ध भगवान के चरणों मेें जा कर मोक्षमुक्ति की कामना किया करते हैं. चूंकि बगैर दानदक्षिणा के धर्म में कुछ नहीं मिलता, इसलिए जिंदगीभर मेहनत से कमाई आमदनी का बड़ा हिस्सा वे तथाकथित भगवान के तथाकथित दूतों को देते रहते हैं.

इस में कोई शक नहीं कि पहले के मुकाबले बुजुर्ग अब ज्यादा तनहा हो चले हैं क्योंकि संतानें बाहर नौकरी करने चली जाती हैं जिस के बाबत उन्हें रोका भी नहीं जा सकता क्योंकि सवाल जिंदगी और कैरियर का होता है. बच्चों को भले ही न रोक पाएं पर बुजुर्ग खुद को तो धर्मस्थलों में जाने से रोक सकते हैं. ऐसा वे नहीं करते तो जाहिर है खुद मान लेते हैं कि वे अब वाकई किसी काम के नहीं रहे. यानी धर्म और धर्मस्थल निकम्मों व निठल्लों के विषय हैं.

बुजुर्गों की एक बड़ी परेशानी यह है कि वे खाली वक्त कहां जा कर गुजारें कि जिस से वे दिल की बातें किसी से साझा कर सकें. नई दिक्कत यह खड़ी हो गई है कि बढ़ते शहरीकरण ने पासपड़ोस, यारदोस्त और नातेरिश्तेदार तक छीन लिए हैं. ऐसे में बचता है तो धर्मस्थल, जो हर कहीं मिल जाता है.

कहने को धर्मस्थल और मंदिर शांति देते हैं, हालांकि सब से ज्यादा बेचैनी और परेशानी यहीं जा कर महसूस होती है जो दिखती नहीं. यह परेशानी है खाली दिमाग वाले घर में किसी विचार को जगह देने की. ये विचार कर्मकांड के रूप में प्रदर्शित होते हैं. इफरात से मंदिरों में बैठे वृद्ध बेवजह की बातें यानी अज्ञात आशंकाओं को ले कर सोचते, घबराते रहते हैं और अपनी समस्याओं व परेशानियों का हल मूर्तियों यानी पत्थरों में ढूंढ़ने की गलती करने लगते हैं.

विकल्प हैं

इफरात से धर्मस्थल बनाए जाने की वजह यह है कि लोगों, खासतौर से वृद्धों, का पैसा निचोड़ा जा सके. वृद्धों की दयनीय हालत में परिवार और समाज की भूमिका एक अलग बहस का मुद्दा है पर यह बात वृद्धों के सोचने की है कि धर्मस्थलों में जा कर उन्हें क्या हासिल होता है. ‘चूंकि फुरसत है, इसलिए मंदिर चलें’ वाली सोच न केवल उन के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए घातक साबित होती है.

धर्मस्थलों में मोक्ष और मुक्ति का झूठा आश्वासन मिलता है जिस के लिए कीमती वक्त और पैसा बरबाद करने की मानसिकता से किसी को कोई फायदा नहीं होता. उलटे, सामाजिक माहौल और बिगड़ता है. जो वृद्ध खुद को बोझ और अनुपयोगी मान लेते हैं वे एक दफा अगर खुद की ताकत व उपयोगिता पर गौर करें तो वे वाकई समाज और देश के लिए काफी उपयोगी साबित हो सकते हैं. मंदिर के बाहर गिड़गिड़ाते भिखारी को दोचार रुपए दे देना समस्या का हल नहीं है, बल्कि यह पुण्य कमाने का भ्रम या अहंकार भर है.

जवानी और अधेड़ावस्था में जिस वक्त की कमी का रोना वे रोते रहते थे अब जब वह बहुतायत से मिलता है तो क्यों नहीं वे समाजोपयोगी या मनपसंद काम करते. ऐसा नहीं है कि उन की इच्छाशक्ति खत्म हो गई है, बल्कि सच यह है कि धर्मस्थलों में लगातार जाजा कर वे अंधविश्वासों और आशंकाओं की जकड़न में आ जाते हैं.

इस जकड़न से मुक्ति के कई उपाय हैं. इन में से पहला, किसी के लिए कुछ करना और कोई न मिले तो खुद के लिए जीना है. समाज कई जरूरतों का मुहताज है, अधिकांश लोग हैरानपरेशान हैं, ऐसे में बुजुर्ग काफीकुछ कर सकते हैं.

वे गरीब बस्तियों में जा कर बच्चों को पढ़ा सकते हैं, सड़क के किनारे पेड़ लगा कर पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं, जो पैसा दानदक्षिणा में बरबाद करते हैं उस से बीमारों और निशक्तों की मदद कर सकते हैं. लेकिन बजाय ऐसे रचनात्मक और सृजनात्मक काम करने के, वे धर्मस्थलों में वक्त जाया करते हैं. ऐसे में उन पर तरस ही आना स्वभाविक है.

देश में, अपवादस्वरूप ही सही, ऐसे भी वृद्ध हैं जो अपनी उपयोगिता और महत्ता बनाए हुए हैं. ये वे वृद्ध हैं जिन्होंने अनुभव और वक्त का सही इस्तेमाल किया है. रेलवेस्टेशनों पर प्यासों को पानी पिलाना वक्त का सही इस्तेमाल नहीं, तो क्या है. रिटायर्ड लोग अगर रचनात्मक काम और समाजसेवा करने लगें तो देश की हुलिया बदलने में देर नहीं लगने वाली. अगर हरेक वृद्ध वक्त का सही इस्तेमाल करते हुए स्कूलों में जा कर बच्चों को पढ़ाए तो इस से बड़ा पुण्य कोई और हो ही नहीं सकता.

मध्य प्रदेश के ग्वालियर में एक पुस्तकालय संचालित करने वाले देवेंद्र शर्मा बताते हैं, ‘‘यह हैरत की बात है कि किताबों और पत्रिकाओं में छिपे और छपे ज्ञान के खजाने को हासिल करने के बजाय वृद्ध मंदिरों में घंटा बजाया करते हैं जबकि पुस्तकालय निशुल्क हैं. मंदिरों में जाने पर कुछ न कुछ पैसा चढ़ाना ही पड़ता है.’’

एक बार दृढ़ और निष्पक्ष हो कर अगर बुजुर्ग अपनी किशोरावस्था व युवावस्था के संकल्पों को याद कर उन पर अमल करने की हिम्मत जुटा पाएं तो देखेंगे कि उन का सपना धर्मस्थल, पूजापाठ और आडंबर तो कतई नहीं थे. उन का सपना भ्रष्टाचार और भेदभावमुक्त देश था जिसे बनाने के लिए यह बेहतर वक्त है. बुढ़ापा  कोई अभिशाप नहीं, बल्कि वह उन्हें कुछ करगुजरने का मौका देता है. यह मौका अगर धर्मस्थलों में जा कर खुद को दिया जाने वाला धोखा बन रहा है तो सच है कि फिर कोई क्या कर लेगा.

औलाद के फेर में ओझाओं का शिकार औरतें

हर शादी शुदा औरत की यही ख्वाहिश होती है कि उस के भी एक औलाद हो. जिन औरतों को औलाद नहीं होती, तो उस के लिए वे हर तरह की कोशिश करने से बाज नहीं आती हैं. दवा, दुआ, तावीज से ले कर तरह तरह की मन्नतें, यहां तक कि औलाद पाने के चक्कर में वे अपना सबकुछ लुटा देती हैं.

रुक्मिणी की शादी को 7 साल बीत चुके थे, पर उस के कोई औलाद नहीं थी. घर वाले भी औलाद न होने के चलते उस पर ध्यान देना कम कर चुके थे.

रुक्मिणी के गांव के एक लड़के ने बताया कि वह एक ओझा को जानता है. उस के पास सैकड़ों औरतों ने झाड़फूंक कराई और वे मां बन गईं.

रुक्मिणी रिश्ते में उस लड़के की भाभी लगती थी. उस ने यकीन कर लिया और उस के साथ उस ओझा के पास चली गई.

ओझा ने बताया कि मामला गंभीर है, इसलिए रुक्मिणी को एक हफ्ता उस के पास रह कर हवन करना पड़ेगा. उस के रहने का इंतजाम हो जाएगा. ओझा की बात सुन कर रुक्मिणी तैयार हो गई.

एक हफ्ते तक औलाद का लालच दे कर ओझा और उस के एक सहयोगी ने रुक्मिणी का यौन शोषण किया और उस से रुपए भी ऐंठे. हां, रुक्मिणी के बच्चा हो गया, तो वह मुंह बंद कर के पति के साथ रहती रही, पर ओझाओं के चक्कर भी लगाती रही.

इसी तरह फरजाना खातून का निकाह हुए महज 2 साल ही बीते थे कि उस की ससुराल वाले फरजाना खातून के पति पर दबाव बनाने लगे कि इस औरत से बच्चा नहीं होगा, तुम दूसरी शादी कर लो. फरजाना उचित इलाज के लिए कहती रही, पर उस की एक न सुनी गई.

ससुराल वालों ने अपने लड़के की दूसरी शादी कर दी. वह दोनों पत्नियों की झाड़फूंक, दुआ तावीज कराता रहा, पर औलाद न हो सकी.

इसी तरह रीता औलाद पाने के चक्कर में एक ओझा के पास गई. ओझा ने कहा कि रात 12 बजे एक पूजा करनी पड़ेगी. उस पूजा से तमाम औरतों को औलादें हुई हैं.

रीता उस की बातों में आ गई. जब आधी रात हुई, तो उस ओझा ने उस के साथ दुष्कर्म किया और डर की वजह से उस की हत्या कर दी. घर वाले जब उसे खोजने लगे, तो कहीं पता नहीं चला.

पुलिस के पास मामला दर्ज कराया गया. पुलिस ने रीता की जमीन में गड़ी लाश बरामद कर उस ओझा को जेल भेज दिया.

एक गांव में बेटा पाने के लिए यज्ञ कराया गया. वहां हजारों औरतें आईं. रोजाना रात को रंगा रंग कार्यक्रम होता. मौके का फायदा उठा कर बहुत सी औरतों की इज्जत के साथ खिलवाड़ किया गया.

चैत नवमी और दुर्गा पूजा के मौके पर उत्तर प्रदेश में कछौसा शरीफ, बिहार में अमझरशरीफ, मनोराशरीफ समेत कई जगहों पर ‘भूतना मेला’ लगता है. वहां ज्यादातर हिस्टीरिया बीमारी से पीडि़त और औलाद की चाह रखने वाली औरतें जाती हैं और अपना सबकुछ लुटा कर घर लौटती हैं.

डाक्टर विमलेंदु कुमार ने बताया कि  औरतों के बच्चा न होने की कई वजहें  हैं, जिन का सही इलाज होने से ही औलाद पैदा हो सकती है. लेकिन बहुत से लोग उचित इलाज नहीं करा कर ओझागुनी, झाड़फूंक के फेर में पड़ कर अपना समय और पैसे की बरबादी के साथसाथ इज्जत तक भी दांव पर लगा देते हैं.

धन दौलत से बढ़ कर रिश्ते नाते

भरतपुर, राजस्थान के ओमी पटवारी अपनी छोटी बहन से बहुत स्नेह करते थे. जब उन की बहन की शादी हुई, तो वे भरतपुर में ही एक किराए के मकान में रहने लगी थी. उस समय ओमी पटवारी की नौकरी धौलपुर में थी. जब उन्हें अपनी बहन के किराए के मकान में रहने का पता लगा, तो वे उसे अपने साथ ही मकान में रहने के लिए ले आए थे.

ऐसा करते समय उन्होंने सोचा था कि अपने घर में रखने से उन की गरीब बहन को किराए के रुपयों की बचत ही नहीं होगी, बल्कि उस के वहां रहने पर मां की देखभाल होती रहेगी, क्योंकि उन की मां का धौलपुर में रहने पर मन नहीं लगता था.

सालों तक बहन उन के मकान में रहते हुए उस मकान को हथियाना चाहती थी. उस ने मां को बहला फुसला कर उन से अपने नाम गुपचुप तरीके से वसीयत करवा ली थी, क्योंकि वह मकान ओमी पटवारी ने अपनी मां के नाम पर खरीदा था.

एक दिन जब उन की मां की मौत हुई, तो उस ने मां का गुपचुप तरीके से अंतिम संस्कार भी कर दिया था. मां की मौत की सूचना उस ने अपने भाई को भी नहीं दी थी.

पड़ोस के लोगों ने जब बहन से उस के भाई ओमी पटवारी के बारे में पूछा, तो उस ने झूठमूठ ही कह दिया था कि उस ने तो उन्हें फोन पर सूचना दी थी, मगर उन्होंने आने से मना कर दिया था. ओमी पटवारी अपनी मां की मौत के समय जयपुर में थे.अपने बड़े भाई का मकान हथियाते समय उन की बहन ने सोचा था कि अब उसे अपने बड़े भाई से क्या मतलब है? उसे उन की अहमियत उस समय महसूस हुई, जब वह अपने बीमार बेटे को उपचार के लिए जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल ले कर आई थी.

महीनों तक उपचार के लिए जयपुर में रहते हुए परेशान हो कर वह दिनरात अपनी भूल पर पछतावा कर रोते हुए यही सोचती रहती थी कि अगर वह अपने भाई के मकान को हथियाने की भूल नहीं करती, तो उसे अपने भाई की बहुत मदद मिलती.

इसी तरह की भूल गांव के गरीब किसान रामलाल की दोनों बेटियों ने की थी. रामलाल ने वहां के सेठजी से कर्ज ले कर धूमधाम से अपनी दोनों बेटियों की शादियां की थीं.

जब रामलाल की मौत हुई, तो उन दोनों बेटियों ने उन की जमीन में अपना हिस्सा ले कर उसे बेच दिया था.

रामलाल का बेटा अपने हिस्से की जमीन बेच कर उस पैसे से उन की शादियों में लिए हुए कर्ज को चुका कर आजकल शहर के एक कारखाने में काम कर के अपनी गुजरबसर कर रहा है. उस की दोनों बहनें अपने भाई से रिश्ता खत्म करने की भूल पर पछतावा करते हुए आंसू बहाती रहती हैं.

इसी तरह से एक राजकीय प्राथमिक विद्यालय में तृतीय श्रेणी के शिक्षक श्यामलाल ने बड़े भाई से अपना रिश्ता खत्म करने की बहुत बड़ी भूल की थी.

जब वे बहुत छोटे थे, तभी उन के पिताजी की मौत हो गई थी. बड़े भाई ने अपने हिस्से की खेती की जमीन को बेच कर न सिर्फ श्यामलाल को पालापोसा था, बल्कि पढ़ा लिखा कर राजकीय शिक्षक भी बनवाया था.

शादी के बाद श्याम लाल की बीवी ने सिखा पढ़ा कर बड़े भाई से अलग करवा दिया था. बड़ा भाई शहर में जा कर अपनी बीवी के साथ मेहनतमजदूरी करने लगा था. उस ने अपने दोनों बेटों को खूब पढ़ाया लिखाया था. वे दोनों बेटे अब पुलिस के बड़े अफसर हैं. श्यामलाल की दोनों बेटियों के साथ उन के गांव के दबंग लोगों के बेटे हमेशा छेड़छाड़ करते रहते थे. एक दिन तो उन्होंने उन के साथ बलात्कार ही कर दिया था.

जब बलात्कार करने वाले नौजवानों के पिताओं से उन की शिकायत की, तो उन्होंने उस शिक्षक और बेटे की इतनी पिटाई की कि वे उस समय अपने बड़े भाई से अलग होने की भूल पर पछतावे के आंसू बहा रहे थे. वे सोच रहे थे कि अगर अपनी बीवी के कहने में आ कर बड़े भाई से अलग हो कर रिश्ता खत्म नहीं करते, तो आज उन की यह हालत नहीं होती. बड़े भाई के दोनों पुलिस अफसर बेटे उन की मदद करते.

लिहाजा, हमें धनदौलत के लिए घर वालों और रिश्तेदारों से अपने रिश्ते खत्म नहीं करने चाहिए, क्योंकि पैसों से भी बढ़ कर होते हैं रिश्तेनाते, जो जरूरत के समय काम आते हैं.

मसला: जरूरी नहीं है स्कूलों में धार्मिक पढ़ाई-लिखाई

28फरवरी, 2023 को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के जहांगीराबाद  इलाके के रसीदिया सीएम राइज स्कूल में 2 टीचरों का बच्चों को क्लास से बाहर निकाल कर नमाज पढ़ने का वीडियो जैसे ही सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, तो हमेशा हिंदूमुसलिम का राग अलापने वालों के कलेजे पर जैसे सांप लोट गया. मामला खबरों की सुर्खियां बना, तो शिक्षा विभाग के आला अफसरों के कानों तक यह बात पहुंची और आननफानन में जांच के आदेश दे दिए.

जहांगीराबाद सीएम राइज रसीदिया स्कूल के ही कुछ टीचरों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि स्कूल में नमाज पढ़ने की यह कोई नई बात नहीं है. हर शुक्रवार को यहां बच्चे भी नमाज पढ़ते हैं और इस के बारे में सब जानते हैं, लेकिन कोई कुछ नहीं कहता.

इस मामले में स्कूल के प्रिंसिपल केडी श्रीवास्तव ने तो पूरी तरह से पल्ला झाड़ते हुए कहा, ‘‘मुझे इस की जानकारी ही नहीं है और न ही मेरी नजर में कभी ऐसी कोई बात सामने आई.’’

सरकारी स्कूल में नमाज पढ़ने पर इतना बवाल मच गया, लेकिन मध्य प्रदेश के गांवकसबों के बहुत सारे स्कूल तो ऐसे भी हैं, जहां पर गणेश पूजा, दुर्गा पूजा जैसे धार्मिक आयोजन के साथसाथ रामचरितमानस के पाठ किए जाते हैं और इन में टीचर और स्टूडैंट भी हिस्सा लेते हैं.

इतना ही नहीं, सैकड़ों स्कूलों में सरस्वती के मंदिर बने हुए हैं, जिन में नियमित रूप से पूजापाठ का आडंबर भी होता है. नरसिंहपुर जिले के रायपुर हायर सैकंडरी स्कूल में तो हिंदू देवीदेवताओं गणेश, शंकर, हनुमान और सरस्वती के मंदिर टीचरों और गांव वालों ने चंदा इकट्ठा कर के बनवाए हैं. इसी तरह हायर सैकंडरी स्कूल खुर्सीपार, केएनवी स्कूल गाडरवारा में भी सरस्वती देवी के मंदिर बने हुए हैं.

मध्य प्रदेश में ऐसे हालात 2-4 स्कूलों के ही नहीं हैं, बल्कि ज्यादातर स्कूलों में तो रोज स्कूल खुलने पर पहले सरस्वती पूजा की जाती है. स्कूलों में देवीदेवताओं के मंदिर और उन में होने वाले पूजापाठ और नमाज के आयोजन साबित करते हैं कि स्कूल तालीम देने के बजाय धार्मिक अखाड़े बन कर रह गए हैं.

जानकारों का कहना है कि वैसे तो ऐसी धार्मिक गतिविधियों को ले कर शासन से कोई साफ निर्देश नहीं हैं, लेकिन ड्यूटी के दौरान किसी सरकारी परिसर या क्लास में नमाज वगैरह नहीं की जा सकती.

इस मामले में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो का कहना है कि क्लास में धार्मिक गतिविधि करना कानूनन गलत है. इस सब के बावजूद भी स्कूलों में धार्मिक आयोजन धड़ल्ले से होते हैं.

भारत का संविधान कहता है कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है, मगर धर्म के नाम पर फैली कट्टरता लोगों के बीच गहरी खाई खोदने का काम कर रही है और कुछ सरकारें इसे खादपानी दे रही हैं.

एडवोकेट जगदीश पटेल ने बताया कि कोई भी ऐसा काम सरकारी भवन या सरकारी संपत्ति पर नहीं करना चाहिए, जो किसी एक धर्म विशेष को प्रमोट करता हो. ऐसी गतिविधियों से देश की संप्रभुता, अखंडता और धर्मनिरपेक्षता पर असर पड़ता है, जो संविधान के प्रावधानों के उलट है.

सिलेबस में भरा पाखंड

कहने को तो हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है, पर चुनी हुई सरकारों की कट्टरता की वजह से शिक्षा नीति और स्कूली सिलेबस भी धार्मिक रंग में पूरी तरह से रंगे हुए हैं. आज स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले सिलेबस में वैज्ञानिक सोच के बजाय धर्म से जुड़ी दकियानूसी कथाकहानियों को अहमियत दी जा रही है.

हमें यह भी सोचना चाहिए कि सिलेबस में अगर किसी धर्म विशेष की बातें या उस से जुड़ी किताबें, ग्रंथ शामिल किए जाएंगे, तो इस का उलटा असर उन छात्रों पर पड़ सकता है,

जो किसी धर्म संप्रदाय को न मानने वाले हों या दूसरे धर्म, संप्रदाय से ताल्लुक रखते हों.

इस बारे में खुद नैशनल काउंसिल फौर ऐजुकेशनल रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) की स्टडी गौरतलब है, जिस के द्वारा तैयार किए गए मैन्युअल का फोकस तकरीबन इसी बात पर है कि स्कूल असैंबली में होने वाली प्रार्थनाएं और स्कूल की दीवारों पर चस्पां की गई देवीदेवताओं की तसवीरें किस तरह अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों में भेदभाव की भावना पैदा करते हैं.

सरकारी फंड का इस्तेमाल

जिन सरकारी स्कूल या मदरसों में धार्मिक शिक्षा दी जाती है, उन्हें सरकार लाखों रुपए फंड के रूप में देती है. संविधान का अनुच्छेद 28 कहता है कि जिस शिक्षण संस्थान को सरकार से फंडिंग मिलती है, वहां धार्मिक शिक्षा नहीं दी सकती है. लेकिन भारत में अभी ज्यादातर मदरसे संविधान के अनुच्छेद 30 के आधार पर चल रहे हैं. इस में भारत के अल्पसंख्यकों को यह अधिकार है कि वे अपने खुद के भाषाई और शैक्षिक संस्थानों की स्थापना कर सकते हैं और बिना किसी भेदभाव के सरकार से ग्रांट भी मांग सकते हैं.

भारत कहने के लिए तो एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन यहां धार्मिक शिक्षा देने पर किसी को कोई एतराज नहीं होता है. और ऐसा नहीं है कि सिर्फ मदरसों को ही सरकार से फंडिंग मिलती है. देश में संस्कृत स्कूलों को भी सरकार से पैसे की मदद मिलती है और कई शिक्षण संस्थानों को भी अलगअलग श्रेणी में मदद दी जाती है. लेकिन इन संस्थानों और मदरसों में फर्क यह है कि मदरसों की मूल भावना में इसलाम को ही केंद्र में रखा जाता है, जबकि इन संस्थानों में धार्मिक शिक्षा पर ज्यादा जोर नहीं होता.

राजनीतिक फायदा

देश में विभिन्न दलों के लोग अपने राजनीतिक हित साधने के लिए बारबार धर्म और राजनीति का तालमेल कराने की वकालत करते हैं. इस का नतीजा यह है कि इस समय देश का सामाजिक तानाबाना किस दौर से गुजर रहा है, यह आज सब के सामने है. टैलीविजन का कोई भी चैनल लगा कर देखिए, आप को सहिष्णुता, असहिष्णुता, धर्म आधारित जनसंख्या, धर्मग्रंथ, धर्म स्थान, सांप्रदायिकता, धर्म परिवर्तन, बीफ, गौवंश, लव जिहाद, धर्मांतरण, मंदिरमसजिद जैसे विषयों पर गरमागरम बहस होती सुनाई देगी.

इन बहसों को देख कर ऐसा लगता है कि देश के सामने इस समय सब से बड़ी समस्याएं यही हैं. देश को विकास, महंगाई नियंत्रण, सामाजिक उत्थान, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, औद्योगीकरण, पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण, सड़क, बिजली, पानी आदि की न तो जरूरत है, न ही राजनीतिक दल व मीडिया इन बातों पर बहस करनेकराने की कोई जरूरत समझते हैं.

दुनिया के सभी देशों में विद्यालय इसलिए खोले जाते हैं, ताकि बच्चों को सामान्य ज्ञान, विज्ञान, व्यावसायिक ज्ञान और उन के अपने जीवन चरित्र और राष्ट्र के विकास में काम आने वाली शिक्षाएं दी जा सकें.

जहां तक धार्मिक शिक्षा दिए जाने का सवाल है, तो इस के लिए तकरीबन सभी धर्मों में अलग धार्मिक शिक्षण संस्थाएं मौजूद हैं, जो अपनेअपने धर्म प्रचार के लिए अपने ही धर्म के बच्चों को अपनेअपने धर्मग्रंथों व अपने धर्म के महापुरुषों के जीवन परिचय और आचरण संबंधी शिक्षा देती हैं.

राजनीतिक दल धर्म और राजनीति का घालमेल करने की गरज से और समुदाय विशेष को अपनी ओर लुभाने के मकसद से अपने राजनीतिक हित साधने के लिए ये सरकारी व गैरसरकारी स्कूलों के सिलेबस में धर्मग्रंथ विशेष को शामिल कराए जाने की वकालत करते देखे जा रहे हैं. कई राज्यों में तो इस प्रकार की पढ़ाई शुरू भी कर दी गई है.

कई राज्य ऐसे भी हैं, जहां किसी एक धर्म के धर्मग्रंथ को स्कूल के सिलेबस में शामिल किए जाने का दूसरे धर्मों के लोग विरोध कर रहे हैं. उन के द्वारा यह मांग की जा रही है कि या तो अमुक धर्मग्रंथ की शिक्षाओं को सिलेबस से हटाया जाए या फिर दूसरे धर्मों के धर्मग्रंथों की शिक्षाओं को भी शामिल किया जाए.

शायद राजनीतिक लोग भी यही चाहते हैं कि इस तरह के विरोधाभासी स्वर उठें और ऐसी आवाजें बुलंद होने के चलते ही समाज धर्म के नाम पर बंटे. फिर देश के लोग रोटी, कपड़ा, मकान, विकास, बेरोजगार, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली और पानी जैसे बुनियादी मसलों से दूर हो कर धर्म के नाम पर बंट जाएं और उसी आधार पर वोट डालें.

धार्मिक शिक्षा की वकालत

मध्य प्रदेश भी देश के ऐसे ही कुछ राज्यों में एक है, जहां हिंदू धर्म के प्रमुख धर्मग्रंथ के रूप में स्वीकार्य भगवत गीता और रामचरितमानस को स्कूली सिलेबस में शामिल करने का फैसला लिया गया है. स्कूलों में गीता के पाठ पढ़ाए जाने के बाद दूसरे धर्मों के लोगों ने इस मांग को ले कर विरोध प्रदर्शन किया है कि स्कूली सिलेबस में कुरान, बाइबिल और गुरुग्रंथ साहिब जैसे धर्मग्रथों के सार भी उन पुस्तकों में शामिल किए जाएं.

इस विरोध के बाद बाइबिल व गुरुग्रंथ जैसे दूसरे धर्मग्रथों की प्रमुख शिक्षाओं को भी राज्य के प्राथमिक और उच्च प्राथमिक सिलेबस में शामिल किए जाने का मसौदा सरकार ने सिलेबस तय करने वाली समिति को भेजा है.

राज्य सरकार द्वारा सिलेबस में विभिन्न धर्मों के प्रमुख धार्मिक ग्रंथों की शिक्षाओं को और इन के सार को शामिल किए जाने के पक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि स्कूल के बच्चे इन की स्टडी कर के बचपन में ही नैतिक शिक्षा हासिल कर सकेंगे और अपने धर्म के साथसाथ दूसरे धर्मों की शिक्षाओं की जानकारी भी हासिल कर सकेंगे.

यह तर्क भी दिया जा रहा है कि इस कदम से बच्चों में अपने धर्म के साथ ही दूसरे धर्म के प्रति सम्मान की भावना पैदा होगी और बच्चों में सर्वधर्म समभाव का बोध विकसित होगा, लेकिन राजनीतिक दलों के नेता आएदिन धर्म के नाम पर लोगों को लड़ाने का काम करते हैं.

दूसरी तरफ सच यह भी है कि विभिन्न धर्मों के धर्मग्रंथों में कई ऐसी दकियानूसी बातें भी हैं, जो आज के वैज्ञानिक युग में गले नहीं उतरती हैं. धार्मिक कथाकहानियों में तो यही बताया गया है कि सूरज पूर्व दिशा से उग कर पश्चिम दिशा में डूबता है. पढ़ने वाले बच्चे भी सहजता से यही मान कर चलते हैं कि सूरज पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, जबकि विज्ञान ने साबित कर दिया है कि सूरज एक तारा है और पृथ्वी उस के चारों ओर घूमती है.

इसी तरह धर्मग्रंथों में सौरमंडल के 9 ग्रहों को देवताओं की तरह पूजनीय बता कर उन की पूजापाठ का विधान बताया गया है, जबकि सचाई यह है कि हमारे सौरमंडल में 8 ग्रह बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नैप्च्यून हैं, जो सूरज के चारों ओर चक्कर काटते हैं.

दूसरी बात यह है कि धर्मग्रंथों की शिक्षा देने के लिए पहले से ही विभिन्न धर्मों के लोग अपनेअपने मदरसे, गुरुकुल, संस्कृत पाठशालाएं और गिरजाघर आदि संचालित कर रहे हैं, जिन में वे अपनेअपने धर्म के बच्चों को अपने धर्मग्रंथ व अपने धर्मगुरुओं से संबंधित शिक्षाएं देते आ रहे हैं. फिर आखिर स्कूली शिक्षा के सिलेबस में किसी भी धर्म के किसी भी धर्मग्रंथ की शिक्षा या उस के सार को शामिल करने की जरूरत ही क्या है?

धार्मिक नाम वाले स्कूल

देश में चलने वाले ज्यादातर प्राइवेट स्कूलों के नाम भी धार्मिक आधार पर रखे गए हैं. मध्य प्रदेश में सरस्वती शिक्षा परिषद हर गांवकसबे में सरस्वती शिशु मंदिर के नाम से स्कूल संचालित कर रही है और बाकायदा इन स्कूलों को सरकारी अनुदान के साथ सांसद, विधायक अपनी निधि में से लाखों रुपए की मदद देते हैं.

नरसिंहपुर जिले में ही सरस्वती शिशु मंदिर, शारदा विद्या निकेतन और श्रीकृष्णा विद्या मंदिर, लवकुश विद्यापीठ, रेवाश्री पब्लिक स्कूल, मां नर्मदा संस्कृत पाठशाला, श्री नरसिंह पब्लिक स्कूल जैसे दर्जनों स्कूल चल रहे हैं.

इसी तरह से पूरे प्रदेश में सैंट मैरी, सैंटट जोसेफ, सैंट जेवियर्स, सैंट थौमस, खालसा कालेज, राधारमण कालेज, श्रीराम इंजीनियरिंग कालेज, लक्ष्मीनारायण इंजीनियरिंग ऐंड मैडिकल कालेज, अंजुमन इसलामिया कालेज जैसे शिक्षण संस्थान धड़ल्ले से चल रहे हैं.

देश में सभी धर्मों के स्कूल चल रहे हैं, जिन में अपनेअपने धर्म की शिक्षा दी जा रही है. आज देश के नौनिहालों को वैज्ञानिक सोच विकसित करने वाली शिक्षा की जरूरत है, मगर धार्मिक कट्टरता की वजह से हम बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने पर आमादा हैं.

धर्म से बढ़ रहा भेदभाव

धार्मिक शिक्षा हमें तार्किक बनाने के बजाय अंधविश्वासी बनाती है. ज्यादातर समस्याओं की जड़ धार्मिक शिक्षा ही है. धार्मिक शिक्षा के चलते सामाजिक व राजनीतिक कट्टरता बढ़ रही है. यह शिक्षा हमें एकदूसरे से भेदभाव करना सिखाती है.

यही वजह है कि देश के कई राज्य घरेलू हिंसा की चपेट में हैं, वहां अंदरूनी धार्मिक, पंथिक, वर्गीय संघर्ष होते रहते हैं. इस से उन्हें आर्थिक व सामाजिक नुकसान झेलना पड़ रहा है.

धार्मिक शिक्षा से समाज में प्रेम, शांति, अहिंसा, इनसानियत की गारंटी नहीं है तो फिर क्यों न ऐसी शिक्षा से दूर रहा जाए? धार्मिक शिक्षा समाज को अंधविश्वासी बनाती है.

धर्म की शिक्षा से सब से ज्यादा फायदा पंडेपुरोहित, मुल्लामौलवियों पादरी का है. यही वे लोग हैं, जो धार्मिक शिक्षा को बनाए रखने में जीजान से लगे हैं.

हर धर्मगुरु अपने धर्म को सब से बेहतर मानता है. सब का अपना अहं है, सब की एकदूसरे के साथ प्रतियोगिता है और वे सब दूसरे धर्म वालों से नफरत करते हैं. धर्म हमें बारबार हिंसा की ओर ले जाते हैं.

आज धर्म मानव कल्याण के नाम पर प्रतियोगिता मात्र बन कर रह गया है और जहां प्रतियोगिता होगी, वहां ईर्ष्या होगी. जहां ईर्ष्या होगी, वहां अशांति होगी.

इस शिक्षा की जरूरतस्कूली सिलेबस में धार्मिक शिक्षा शामिल करने से बच्चों के समय की बरबादी होगी और सांसारिक, उन के भविष्य संबंधी और व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करने में भी बाधा पैदा होगी.

यह जरूरी नहीं कि भविष्य में देश के दूसरे राज्य भी सभी धर्मों के धर्मग्रंथों को स्कूलों में पढ़ाए जाने की इजाजत दें और ऐसा भी मुमकिन है कि धर्म विशेष के लोगों को खुश करने के लिए विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा ऐसा किया भी जाए, मगर इस में कोई दोराय नहीं कि राजनीतिबाजों द्वारा इस विषय पर जो भी फैसला लिया जाएगा, उस के पीछे बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की चिंता तो कम, वोट बैंक साधने की फिक्र ज्यादा होगी.

वैसे भी हमारे देश में इस समय धर्मगुरुओं, प्रवचनकर्ताओं, मौलवियों, पादरियों और ज्ञानियों की एक बाढ़ सी आ गई है और यह बताने की भी जरूरत नहीं है कि ऐसे ‘महान लोग’ व धर्म के ठेकेदार हमें अपने ‘आचरण’ से क्या शिक्षा दे रहे हैं और उन में से कइयों को जेल की हवा खानी पड़ी है.

आज का स्कूली सिलेबस इस तरह का है कि वह शिक्षा आम जिंदगी में किसी काम नहीं आती. हायर सैकंडरी स्कूलों और कालेजों में इलैक्ट्रिक करंट पढ़ने के बाद भी बिजली के घरेलू उपकरणों की सामान्य मरम्मत के लिए भी बिजली मिस्त्री की मदद लेनी पड़ती है.

इसी तरह स्कूल में पढ़ाए जाने वाले संस्कृत विषय की जिंदगी में कोई उपयोगिता समझ नहीं आती. ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए बच्चों के लिए यह भाषा कथापुराण और पूजाहवन करने में काम आती है और इस की बदौलत दानदक्षिणा भी खूब मिल जाती है, मगर पिछड़े दलितों के लिए यह भाषा जबरन थोपी हुई लगती है.

आज स्कूलों में तो बच्चों को केवल विज्ञान, सामान्य ज्ञान, समाजशास्त्र, भूगोल, गणित की तालीम देने के साथसाथ व्यावसायिक शिक्षा की जरूरत ज्यादा है. आज भी देश के गांवकसबों में तकनीकी संस्थानों की कमी है.

यही वजह है कि नौजवान पीढ़ी पढ़लिख कर भी नकारा घूम रही है. धार्मिक शिक्षा की घुट्टी उसे इस तरह पिला दी गई है कि बेरोजगार नौजवान कांवड़ यात्रा, दुर्गा पूजा, गणेश पूजा और धार्मिक यात्रा, भंडारे में अपना कीमती समय गंवा रहे हैं. मौजूदा दौर में ऐसी व्यावसायिक शिक्षा की जरूरत है, जिस के बलबूते नौजवान अपनी रोजीरोटी का जुगाड़ आसानी से कर सकें.

औलाद की चाह बन गई मुसीबत की राह

रमन की शादी हुए 6 साल हो गए, मगर अभी तक कोई औलाद नहीं हुई. चूंकि दोनों पतिपत्नी धार्मिक स्वभाव के थे, इसलिए वे देवीदेवता से मन्नतें मांगते रहते थे, लेकिन तब भी बच्चा न हुआ.

तभी उन्हें पता चला कि एक चमत्कारी बाबा आए हैं. अगर उन का आशीर्वाद मिल जाए, तो बच्चा हो सकता है. यह जान कर रमन और उस की बीवी सीमा उस बाबा के पास पहुंचे.

सीमा बाबा के पैरों पर गिर पड़ी और कहने लगी, ‘‘बाबा, मेरा दुख दूर करें. मैं 6 साल से बच्चे का मुंह देखने के लिए तड़प रही हूं.’’

‘‘उठो, निराश मत हो. तुम्हें औलाद का सुख जरूर मिलेगा…’’ बाबा ने कहा, ‘‘अच्छा, कल आना.’’

अगले दिन सीमा ठीक समय पर बाबा के पास पहुंच गई. बाबा ने कहा, ‘‘बेटी, औलाद के सुख के लिए तुम्हें यज्ञ कराना पड़ेगा.’’

‘‘जी बाबा, मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. बस, मुझे औलाद हो जानी चाहिए,’’ सीमा ने कहा, तो बाबा ने जवाब दिया, ‘‘यह ध्यान रहे कि इस यज्ञ में कोई भी देवीदेवता किसी भी रूप में आ कर तुझे औलाद दे सकते हैं, इसलिए किसी भी हालत में यज्ञ भंग नहीं होना चाहिए, नहीं तो तेरे पति की मौत हो जाएगी.’’

‘‘जी बाबा,’’ सीमा ने कहा और बाबा के साथ एकांत में बने कमरे में चली गई. वहां बाबा खुद को भगवान बता कर उस के अंगों के साथ खेलने लगा.

सीमा कुछ नहीं बोली. वह समझी कि बाबाजी उसे औलाद का सुख देना चाहते हैं, इसलिए वह चुपचाप सबकुछ सहती रही.

लेकिन शरद ऐसे बाबाओं के चोंचलों को अच्छी तरह जानता था, इसलिए जब उस की बीवी टीना ने कहा, ‘‘हमें भी बच्चे के लिए किसी साधुसंत से औलाद का आशीर्वाद ले लेना चाहिए,’’ तब शरद बोला, ‘‘औलाद केवल साधुसंत के आशीर्वाद से नहीं होती है. इस के लिए जब तक पतिपत्नी दोनों कोशिश न करें, तब तक कोई बच्चा नहीं दे सकता.’’

‘‘मगर हम यह कोशिश पिछले 5 साल से कर रहे हैं. हमें बच्चा क्यों नहीं हो रहा है?’’ टीना ने पूछा.

‘‘इस की जांच तो डाक्टर से कराने पर ही पता चल सकती है कि हमें बच्चा क्यों नहीं हो रहा है. समय मिलते ही मैं डाक्टर से हम दोनों की जांच कराऊंगा.’’

टीना ने कहा, ‘‘ठीक है.’’

दोपहर को टीना की सहेली उस से मिलने आई, जो उसे एक नीमहकीम के पास ले गई. नीमहकीम ने टीना से कुछ सवाल पूछे, जिस का उस ने जवाब दे दिया.

इस दौरान ही उस नीमहकीम ने यह पता लगा लिया था कि टीना को माहवारी हुए आज 14वां दिन है, इसलिए वह बोला, ‘‘तुम्हारे अंग की जांच करनी पड़ेगी.’’

‘‘ठीक है, डाक्टर साहब. मैं कब आऊं?’’ टीना ने पूछा.

‘‘जांच आज ही करा लो, तो अच्छा रहेगा,’’ नीमहकीम ने कहा, तो टीना राजी हो गई.

तब वह नीमहकीम टीना को अंदर के कमरे में ले गया, फिर बोला, ‘‘आप थोड़ी देर यहीं बैठिए और इस थर्मामीटर को 5 मिनट तक अपने अंग में लगाइए.’’ टीना ने ऐसा ही किया.

5 मिनट बाद डाक्टर आया. उस के एक हाथ में अंग फैलाने का औजार और दूसरे हाथ में एक इंजैक्शन था, जिस में कोई दवा भरी थी, जिसे देख कर टीना ने पूछा, ‘‘यह क्या है डाक्टर साहब?’’

‘‘इस से तुम्हारे अंग की दूसरी जांच की जाएगी,’’ कह कर नीमहकीम ने टीना से थर्मामीटर ले लिया और टीना को मेज पर लिटा दिया. इस के बाद वह उस के अंग में औजार लगा कर जांच करने लगा.

जांच के बहाने नीमहकीम ने टीना के अंग में इंजैक्शन की दवा डाल दी और कहा, ‘‘कल फिर अपनी जांच कराने आना.’’

टीना अभी तक घबरा रही थी, मगर आसान जांच देख कर खुश हुई. फिर दूसरे दिन भी यही हुआ. मगर उस दिन इंजैक्शन को अंग में आगेपीछे चलाया गया था. इस के बाद उसे 14 दिन बाद आने को कहा गया.

टीना जब 14 दिन बाद नीमहकीम के पास गई, तब वह सचमुच मां बनने वाली थी.

यह जान कर टीना बहुत खुश हुई. मगर जब यही खुशी उस ने अपने पति शरद को सुनाई, तो वह नाराज हो गया.

‘‘बता किस के पास गई थी?’’ शरद चीख पड़ा.

‘‘यह मेरा बच्चा नहीं है. मैं ने कल ही अपनी जांच कराई थी. डाक्टर का कहना है कि मेरे शरीर में बच्चा पैदा करने की ताकत ही नहीं है. तब मैं बाप कैसे बन गया?’’ शरद ने कहा.

शरद के मुंह से यह सुनते ही टीना सब माजरा समझ गई. वह जान गई कि नीमहकीम ने जांच के बहाने उस के अंग में अपना वीर्य डाल दिया था. मगर अब क्या हो सकता था. टीना औलाद के नाम पर ठगी जा चुकी थी.

आज के जमाने में औलाद पैदा करने की कई विधियों का विकास हो चुका है. परखनली से भी कई बच्चे पैदा हो चुके हैं. यह सब विज्ञान के चलते मुमकिन हुआ है. फिर भी लोग पुराने जमाने में जीते हुए ऐसे धोखेबाजों के पास बच्चा मांगने जाते हैं. इस से बढ़ कर दुख की बात और क्या हो सकती है.

पढ़ाई लिखाई में पिछड़ते बच्चे, कुसूरवार कौन

तमाम तरह की सहूलियतें मिलने के बावजूद सरकारी प्राइमरी स्कूलों से ले कर बड़े स्कूलों के छात्र पढ़ाईलिखाई में पिछड़ रहे हैं और राज्य सरकारें यह ढिंढोरा पीट रही हैं कि उन के यहां साक्षरता दर बढ़ी है. सही माने में आज 7वीं 8वीं जमात के छात्रों को ठीक ढंग से जमा, घटा, गुणा, भाग के आसान सवाल भी हल करने नहीं आते हैं. अंगरेजी भाषा के बारे में तो उन का ग्राफ बहुत नीचे है. वे हिंदी भी नहीं लिख सकते हैं, न ही आसानी से पढ़ सकते हैं. क्या है इस की वजह?

स्कूलों में तख्ती लिखने को खत्म कर देने के चलते आज ज्यादातर छात्रों की लिखाई पढ़ने में ही नहीं आ पाती है. ऐसे छात्रों की नोटबुक जांच करने में टीचरों को खूब पसीना बहाना पड़ता है.

सालों पहले तख्ती लिखने पर बहुत जोर दिया जाता था, ताकि बचपन से छात्रों की लिखाई सुंदर हो और उन को वर्णमाला की पहचान हो सके. तब होमवर्क के तौर पर उन को तख्ती लिखने के लिए बढ़ावा दिया जाता था. अगले दिन टीचर उन छात्रों की तख्तियों की जांच करते थे. कच्ची छुट्टी यानी स्कूल इंटरवल में छात्र उन तख्तियों को धोते थे और दोबारा तख्ती लिखते थे.

अब यह बीते जमाने की बात हो गई है. अब तो पहली जमात का छात्र भी जैलपैन या बालपैन का इस्तेमाल करना अपनी शान समझता है. यही वजह है कि छात्रों की लिखाई अच्छी नहीं बन पाती है और इम्तिहान में उन के नंबर कम हो जाते हैं.

कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन होता है. यह कहावत तब कसौटी पर खरी उतरेगी, जब प्राइमरी स्कूलों के छात्रों को पढ़ाईलिखाई के साथसाथ खेलों के लिए भी वक्त दिया जाएगा.

प्राइमरी स्कूलों में पीरियड सिस्टम ही नहीं है, इसलिए यह टीचर की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह पूरे दिन किसकिस सबजैक्ट को कितनी देर पढ़ा कर बच्चों को बीच में रिलैक्स करने के लिए कह दे. सरकारी स्कूलों में खेल पीरियडों के लिए कोई खास तवज्जुह नहीं दी गई है.

अगर खेल पीरियड का इंतजाम हो तो बच्चों में पढ़ाईलिखाई के साथसाथ खेलकूद में भी अच्छा तालमेल हो जाएगा. जहांजहां प्राइमरी स्कूलों के साथ मिडिल, हाई या सीनियर सैकेंडरी स्कूल हैं, वहां बच्चों के लिए स्पोर्ट्स पीरियड भी होता है. बड़े स्कूल के छात्र जब मैदान में खेलते हैं, तब प्राइमरी स्कूल के छात्रों का मन भी खेलने को करता है, पर वे अपने मन की बात किसी से नहीं कह पाते हैं.

ऐसे छात्रों को सिर्फ इतना पता होता है कि उन का स्कूल सुबह 9 बजे लगता है और उन की 3 बजे छुट्टी होती है.

इस बीच उन्हें दोपहर 12 बज कर 20 मिनट से 1 बजे तक का वक्त दोपहर के भोजन के लिए मिलता है यानी स्कूल के 6 घंटों के बीच उन्हें खेलने के लिए समय कोई पीरियड नहीं मिलता है.

हिमाचल प्रदेश की बात की जाए तो एक जिले में डिप्टी डायरैक्टर, ऐजूकेशन ने फरमान जारी किया है कि पहली से  5वीं जमात तक के छात्रों की इकट्ठे ही 3 बजे छुट्टी की जाए. ऐसे डिप्टी डायरैक्टर को कैसे समझाया जाए कि पहलीदूसरी जमात के छात्र इतनी लंबी सिटिंग नहीं कर सकते हैं. उन के लिए तो यह बोरियत भरा काम हो जाएगा.

इन स्कूलों में डिक्टेशन का चलन भी खत्म हो गया है. डिक्टेशन से एक ओर जहां बच्चों को सही रूप से लिखने का अभ्यास होता है, वहीं दूसरी ओर उन के लिखने की रफ्तार बढ़ती है और शब्दों का उच्चारण भी सही ढंग से होता है. उन की गलतियों को सुधारने की गुंजाइश बनी रहती है और वे इम्तिहान में अच्छे ढंग से लिख कर तय समय में पूरे सवाल हल कर पाते हैं.

पहले प्राइमरी स्कूलों में हर शनिवार को आधी छुट्टी के बाद बाल सभा कराई जाती थी, जिस में छात्र बड़े जोश के साथ कविता, एकलगान व एकांकी जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेते थे. उन को इस दिन का बेसब्री से इंतजार रहता था.

पर अब ये बातें यादों का हिस्सा बन गई हैं. अब तो टीचरों को ऐसा लगता है कि इस तरह के आयोजनों का मतलब है समय को बरबाद करना, जबकि इस तरह के आयोजनों से छात्रों का खुद पर यकीन बढ़ता है और उन में कुछ नया कर दिखाने की ललक बढ़ती है.

हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले की बात की जाए, तो यहां 5 शिक्षा खंड, सदर, घुमारवीं एक, घुमारवीं द्वितीय, स्वारघाट व झंडूता शिक्षा खंड हैं. पूरे जिले में कुल 593 प्राइमरी स्कूल हैं.

सदर शिक्षा खंड के तहत 153 स्कूल हैं और छात्रों की तादात 4101, घुमारवीं एक शिक्षा खंड में 106 स्कूल, घुमारवीं द्वितीय शिक्षा खंड में 92 स्कूल और छात्रों की तादाद 2561 है.

स्वारघाट शिक्षा खंड में 120 स्कूल व छात्रों की तादाद 3523 है, जबकि झंडूता शिक्षा खंड में स्कूलों की तादाद 122 है और इन में 3521 छात्र पढ़ रहे हैं.

पर पिछले साल ही जिस डिप्टी डायरैक्टर, प्राइमरी स्कूल ने इस जिले में काम संभाला है, उस शख्स का नाम है पीसी वर्मा. उन्होंने स्कूलों का धड़ाधड़ निरीक्षण कर के प्राइमरी स्कूलों के उन टीचरों के छक्के छुड़ा दिए हैं, जो स्कूलों के लिए बोझ बने हुए हैं.

पीसी वर्मा ने दूरदराज के इलाकों में बने स्कूलों में दस्तक दे कर उन टीचरों को यह कड़ा संदेश दिया है कि वे छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ न कर के अपने फर्ज का पालन करें.

पीसी वर्मा ने 29 दिसंबर, 2015 को सदर शिक्षा खंड के तहत आने वाले ‘सिहड़ा’ व ‘सिहड़ा खास’ स्कूलों में निरीक्षण के दौरान छात्रों की पढ़ाईलिखाई का लैवल जांचा, जो कसौटी पर खरा उतरा, जबकि 12 फरवरी, 2016 को बागी प्राइमरी स्कूल व 25 फरवरी, 2016 को पंजगाई स्कूल में खामियां पाई गईं. उन्होंने टीचरों को इस के लिए कुसूरवार ठहराया.

सदर खंड के खंड प्रारंभिक शिक्षा अधिकारी बनारसी दास का कहना है कि वे नियमित तौर पर स्कूलों का निरीक्षण करते हैं और जो टीचर ड्यूटी के प्रति कोताही बरतता है, उस पर कार्यवाही की जाती है.

सदर खंड के खंड स्रोत केंद्र समवन्यक राजेश गर्ग का कहना है कि पढ़ाईलिखाई में क्वालिटी लाने के लिए सभी एकजुट हो कर कोशिश करें, तो उस के नतीजे अच्छे रहते हैं. जिन टीचरों का काम अच्छा होता है, उन को तरक्की मिलनी चाहिए और जो अपने फर्ज के प्रति लापरवाह रहते हैं उन की डिमोशन होनी चाहिए.

समाजसेवी दया प्रकाश कहते हैं कि अफसर चाहे जितने भी निरीक्षण कर लें, सूचना पहले ही लीक हो जाती है और मोबाइल क्रांति द्वारा सबकुछ दुरुस्त हो जाता है. ऐसे में छात्र पढ़ाईलिखाई में पिछड़ते रहेंगे. ढुलमुल सरकारी नीतियां भी इस के लिए जिम्मेदार हैं.

पैसे और शोहरत के लालच में फंसते युवा

कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो सफलता की राह तक पहुंचते हैं और दूसरों के लिए मिसाल बन जाते हैं जबकि कुछ मंजिल तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देते हैं. ऐसा ही कुछ काम किया है इंडोनेशिया के युवक हेंडी ने. उस के पिता कतर में काम करते थे. हेंडी को बचपन से ही पैसे कमाने की ललक थी.

एक बार वह छुट्टियों में पिता के पास कतर गया था. वहां उस ने कबाब खाया, जो उसे बहुत अच्छा लगा. तभी उस के दिमाग में एक आइडिया आया और वह सोचने लगा कि इतनी बेहतरीन चीज आखिर उस के देश में क्यों पौपुलर नहीं है. अगर वह इसे अपने देश में ही बना कर बेचे तो बहुत अच्छा पैसा कमाएगा.

इंडोनेशिया में उस समय तक कबाब लोगों को ज्यादा पसंद नहीं था. घर वापस आ कर हेंडी ने सीमित साधनों के साथ कबाब को जनजन तक पहुंचाने की ठान ली. 2003 में उस ने एक ठेला गाड़ी ली और कबाब बेचने के लिए अपने एक दोस्त को भी साथ ले लिया, लेकिन जब काम ज्यादा अच्छा नहीं चला तो उस दोस्त ने भी साथ छोड़ दिया, लेकिन हेंडी ने हिम्मत नहीं हारी.

तब वह कालेज में द्वितीय वर्ष में पढ़ रहा था. उस ने सोचा कि ऐसे तो काम नहीं चलेगा इसलिए उस ने पढ़ाई भी छोड़ दी. परिवार वालों ने इस का काफी विरोध किया.

लेकिन हेंडी ने किसी की नहीं सुनी औरअपने काम में लगन से जुट गया. धीरेधीरे काम ने रफ्तार पकड़ ली.

आज वह दुनिया की सब से बड़ी कबाब चेन ‘कबाब टर्की बाबा रफी’ को सफलतापूर्वक चला रहा है. आज हेंडी की कंपनी इंडोनेशिया के अलावा फिलीपींस और मलयेशिया तक फैल चुकी है. उस की कंपनी में काम करने वालों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है और वह 2 हजार को पार कर चुकी है. उस के हजार से ज्यादा आउटलेट्स हैं. इस काम के लिए हेंडी को कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं. इस तरह उस ने साबित कर दिया कि मेहनत के बल पर इंसान किसी भी ऊंचाई को छू सकता है.

लालच से बचें

आज सभी पैसा कमाने की अंधी दौड़ में लगे हैं. युवा भी इस के दीवाने हैं. वे ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने के चक्कर में रहते हैं. लोगों के पास आज जितना पैसा आता जा रहा है उतना ही उन का लालच भी बढ़ रहा है. कभीकभी पैसा तो मिल जाता है, लेकिन उस के चक्कर में अपने दूर हो जाते हैं. कई बार अधिक पैसा कमाने की चाह भी इंसान को गलत रास्ते पर ले जाती है.

आज पैसा ही पहचान बन गया है, इसीलिए सारी भीड़ इस के पीछे भाग रही है. सब रिश्तेनाते व संबंधों में पैसे को ही प्रमुखता दी जाती है, पैसे को ही सर्वश्रेष्ठ समझा जा रहा है. यहां तक कि पैसा कमाने के लिए लोग घर से दूर शहरों में रह कर मशीन की तरह काम कर रहे हैं, जिस कारण उन के पास अपनों के लिए भी समय नहीं है.

विदेश जाने की चाहत

विदेश जाने की ललक, वहां रह कर पैसा कमाने की चाह, यह सपना भारत का हर नौजवान देखता है, लेकिन इसे साकार करना सब के बस की बात नहीं होती. विदेश में काम करने की प्रक्रिया इतनी कठिन है कि उस की औपचारिकता पूरी कर पाना काफी कठिन है. इस के बावजूद हजारों युवा सुनहरे भविष्य का सपना ले कर विदेश काम करने जाते हैं, लेकिन वे वहां धोखा खा जाते हैं.

आज यूरोप और अमेरिका में काम के लिए वीजा पाना टेढ़ी खीर है, लेकिन खाड़ी देशों में काम मिलने में आसानी रहती है. यही कारण है कि हमारे हजारों युवा वहां काम करने के लिए जाते हैं, लेकिन उन्हें परेशानी तब होती है जब वे किसी इसलामिक कानून के उल्लंघन में पकड़े जाते हैं.

वहां हमारे युवा ही ज्यादा क्यों पकड़े जाते हैं, इस के कई कारण हैं. एक तो वहां के सख्त इसलामिक कानून की जानकारी इन युवाओं को नहीं होती और दूसरा न ही इन युवकों को शरीअत के बारे में ज्यादा मालूम होता है. वे वहां अनजाने में इन कानूनों का उल्लंघन कर बैठते हैं, जिस से मुसीबत में फंस जाते हैं.

खाड़ी देशों में अधिकतर वे युवक जाते हैं जिन के वहां रिश्तेदार काम करते हैं या कोई परिचित रहता है. ये कम पढ़ेलिखे युवक वहां जा कर कानून की मार झेलते हैं. उन का कम पढ़ालिखा होना ही उन की परेशानी का सबब बन जाता है. वहां साइन बोर्ड अंगरेजी और अरबी में लिखे होते हैं. वे उन्हें समझ नहीं पाते और छोटीछोटी गलतियां करने के कारण पकड़ लिए जाते हैं.

कभीकभी ऐसे मामले भी देखने में आए हैं जिन में बड़े घराने के युवा पर्यटक वीजा पर वहां जाते हैं और गैरकानूनी तरीके से काम करने लगते हैं, फिर पकड़े जाने पर जेल की हवा खाते हैं.

ऐसे में भारतीय दूतावासों के सामने 2 तरह की चुनौती खड़ी हो जाती है, एक तो जो लोग अनजाने में अपराध कर बैठते हैं, उन के लिए तो वहां की सरकार से गुहार लगाई जा सकती है, लेकिन जो गैरकानूनी तरीके से वहां काम कर रहे होते हैं उन के फंसने पर मामला बहुत पेचीदा हो जाता है, जिस कारण वे जल्द जेल से निकल नहीं पाते, क्योंकि वहां का कानून बहुत कड़ा है.

विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, भारत से बाहर रहने वाले 2 करोड़ 19 लाख प्रवासी भारतीयों में से 27त्न खाड़ी देशों में काम कर रहे हैं. इन में सब से ज्यादा मजदूर वर्ग है जो युवा है. संसार के 68 देशों की जेलों में बंद भारतीयों की सब से बड़ी तादाद खाड़ी देशों में ही है, जिन में युवा ज्यादा हैं.

विदेशी जेलों में बंद कुल भारतीयों में से 45 फीसदी खाड़ी देशों में हैं. इसलामिक कानून के उल्लंघन, चोरी, धोखाधड़ी और गैरकानूनी तरीके से काम करने या वहां रहने के आरोप में खाड़ी के 8 देशों में भारतीय युवा बंद हैं.

सऊदी अरब में लगभग 1,470 और संयुक्त अरब अमीरात में करीब 825 भारतीय युवा जेलों में बंद हैं. इराक, कुवैत, ओमान, कतर, बहरीन और यमन की जेलों में करीब 2,900 भारतीय नागरिक आज भी सजा काट रहे हैं.

इन के परिवार के लोग उन्हें छुड़ाने के लिए दूतावासों और विदेश मंत्रालय के चक्कर काटतेकाटते थक जाते हैं, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिलती. कितने मांबाप तो अपनी जिंदगी की पूरी कमाई भी इसी में लुटा देते हैं, लेकिन बेटे को नहीं छुड़ा पाते. इस तरह न जाने कितने युवक विदेश जा कर पैसा कमाने के लालच में अपनी जिंदगी बरबाद कर रहे हैं.

छात्रों और अभिभावकों के सामने मुख्य प्रश्न है शिक्षा द्वारा रोजगार प्राप्ति अहम हो. लेकिन यह भी सत्य है कि रोजगार प्राप्ति के लिए छात्र जो सामान्य शिक्षा हासिल करते हैं, वही काफी नहीं है. अब सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त अपने को योग्य साबित करने के लिए विशेष डिग्रियों के लिए युवक प्रयत्न करते हैं.

विशेष शिक्षा प्राप्त करने के लिए छात्रों को अतिरिक्त परिश्रम, समय व धन की आवश्यकता होती है, लेकिन सामान्य शिक्षा में भी परीक्षा में नकल, अंकपत्र में हेराफेरी जैसे हथकंडे अपना कर जबतब वे अपनी अयोग्यता का ही परिचय देते हैं.

जो योग्य छात्र अच्छी शिक्षा हासिल कर भी लेते हैं. वे रोजगार के लिए दरदर की ठोकरें खाते हैं. बड़ीबड़ी डिग्रियां ले कर भी बेरोजगार घूमते हैं या छोटेमोटे प्राइवेट स्कूलों में कम वेतन पर नौकरी करते हैं.

अगर इतना भर भी नहीं मिला तो पैसा कमाने के लिए विदेश के रास्ते खोजे जाते हैं. कमाना बुरा नहीं है लेकिन बेइंतहा पैसा कमाने के चक्कर में पनपा लालच व्यक्ति को घोर स्वार्थी बनाता है.

स्कूलों के अलावा अब कोचिंग संस्थानों ने भी शिक्षा को एक अच्छाखासा धंधा बना दिया है. अभिभावकों का भी विश्वास सरकार द्वारा संचालित स्कूलों और कालेजों की अपेक्षा कोचिंग संस्थानों में जमता जा रहा है.

अध्यापक कोचिंग संस्थानों को कमाई का अतिरिक्त व मोटा जरिया जान कर इन में पढ़ाने से गुरेज नहीं करते. शिक्षा में प्रायोगिक शिक्षा का पहले ही अभाव है और समाज का अधिकतम हिस्सा शिक्षा के मूलस्वरूप को ही बिगाड़ने में लगा है.

कब्रिस्तान में भाषाएं और खत्म होती संस्कृति

कहावत है कि किसी संस्कृति को खत्म करना हो तो उस की भाषा नष्ट कर दीजिए. यह जुमला कुछ हद तक सही ही है क्योंकि भाषा किसी समुदाय की प्रमुख पहचान होती है, जो कि तेजी से नष्ट हो रही है. वैश्वीकरण ने दुनिया को सिर्फ फायदे पहुंचाए हों, ऐसा नहीं है. इस ने हम से बहुतकुछ छीना भी है.

छोटीछोटी संसकृतियां वैश्वीकरण की आंधी में तिनके की तरह बह रही हैं. उन की बोलीभाषा, उन की सांस्कृतिक पहचान आदि पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है. कुछ अरसे पहले एक सर्वेक्षण में कहा गया कि पिछले 50 वर्षों में भारत में 250 भाषाएं खत्म हो गईं. भाषाएं अलगअलग वजहों से बड़ी तेजी से मर रही हैं. ऐसे में यह कहा जाने लगा है कि भारत क्या भाषाओं का कब्रिस्तान बनता जा रहा है.

काफी समय से लुप्त होती भाषाओं की चिंता करने वालों के बीच में यह सवाल उठ रहा है. यह मुद्दा काफी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत दुनिया का सब से ज्यादा भाषाओं वाला दूसरा देश है. पिछले 50 वर्षों में भारत की करीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गई हैं. पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे के मुख्य संयोजक गणेश देवी ने कुछ अरसे पहले यह खुलासा किया था. उन का दावा है कि भारत से ‘लोक’ की जबान काटने की सुनियोजित साजिश की जा रही है.

50 वर्षों से पहले 1961 की जनगणना के बाद 1,652 मातृभाषाओं का पता चला था. उस के बाद ऐसी कोई सूची नहीं बनी. उस वक्त माना गया था कि 1,652 नामों में से करीब 1,100 मातृभाषाएं थीं, क्योंकि कई बार लोग गलत सूचनाएं दे देते थे. वड़ोदरा के भाषा शोध और प्रकाशन केंद्र के सर्वे से यह बात सामने आई है. 1971 में केवल 108 भाषाओं की सूची ही सामने आई थी क्योंकि सरकारी नीतियों के मुताबिक किसी भाषा को सूची में शामिल करने के लिए उसे बोलने वालों की तादाद कम से कम 10 हजार होनी चाहिए. यह भारत सरकार ने शर्त के तौर पर रखा था.

इस बार भाषाओं के बारे में निष्कर्ष निकालने के लिए 1961 की सूची को आधार बनाया गया. इस से पहले ब्रिटिश शासनकाल में अंगरेज अफसर जौन अब्राहम ग्रियर्सन की अगुआई में 1894-1928 के बीच इस तरह का भाषाई सर्वे हुआ था. उस के 100 वर्षों बाद भाषा रिसर्च ऐंड पब्लिकेशन सैंटर नामक संस्था की ओर से भारतीय भाषाओं का लोक सर्वेक्षण यानी पीएलएसआई किया गया.

सर्वेक्षण में कहा गया है कि 1961 में भारत में 1,100 भाषाएं बोली जाती थीं. पिछले 50 वर्षों के दौरान इन में से 250 भाषाएं लुप्त हो गई हैं और फिलहाल 850 भाषाएं जीवित हैं.

सर्वेक्षण की प्रासंगिकता के सवाल पर उन के प्रवक्ता ने कहा कि हर शब्द एक अलग विश्वदृष्टि पेश करता है. मिसाल के तौर पर, हम कितने लाख बार रोए होंगे तो एक शब्द पैदा हुआ होगा आंसू, यह शब्द गया तो हमारी विश्वदृष्टि भी गई.

हालांकि, इस सर्वे में बोली और भाषा में वर्गीकरण नहीं किया गया है. इस विषय पर विद्वानों का कहना है कि यह विवाद ही फुजूल है. भाषा सिर्फ भाषा होती है. हम इस धारणा को सिरे से खारिज करते हैं कि जिस भाषा की लिपि नहीं है वह बोली है. विश्व की ज्यादातर भाषाओं के पास लिपि नहीं है.

लिपियों का अभाव

दुनिया में कुल 6 हजार भाषाएं हैं और 300 से ज्यादा के पास अपनी कोई लिपि नहीं है, लेकिन वे बहुत मशहूर भाषाएं हैं. यहां तक कि अंगरेजी की भी अपनी लिपि नहीं है. वह भी उधार की लिपि यानी रोमन में लिखी जाती है. हिंदी देवनागरी में लिखी जाती है. देवनागरी में ही संस्कृत, मराठी, नेपाली आदि भाषाएं भी लिखी जाती हैं. यानी भाषा की अपनी लिपि होनी जरूरी नहीं है.

कुछ विद्वान इस की परिभाषा देते हैं कि जो भाष कराए, वही भाषा है, उस का लिखा जाना जरूरी नहीं है. वेदों के बारे में भी कहा जाता है कि वह बोला हुआ ज्ञान है. श्रुति है. वह पढ़ा अथवा लिखा हुआ ज्ञान बाद में बना.

सैकड़ों भाषाओं के करोड़ों शब्दों की विश्वदृष्टि को अगली पीढ़ी को सौंपने के उद्देश्य से सर्वे किया गया. सर्वे के मुताबिक, करीब 400 भाषाएं ऐसी हैं जो घुमंतू, आदिवासी और गैरअधिसूचित जातियों द्वारा बोली जाती हैं.

सर्वेक्षण में जिन 780 भाषाओं का अध्ययन किया गया, उन में से 400 भाषाओं का व्याकरण और शब्दकोश भी तैयार किया गया है.

अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद जैसे शहरों में 300 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं. अरुणाचल में 90 भाषाएं बोली जाती हैं. दादर और नागर हवेली में गोरपा नाम की एक भाषा मिली जिस का अब तक कोई रिकौर्ड नहीं है. हिंदी बोलने वालों की संख्या लगभग 40 करोड़ है, जबकि सिक्किम में माझी बोलने वालों की संख्या सिर्फ 4 है.

सर्वेक्षण में उन भाषाओं को भी शामिल किया गया जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10 हजार से कम है. सर्वेक्षण में इन भाषाओं को शामिल करने के पीछे देवी ने तर्क दिया कि बंगलादेश युद्घ के बाद भाषाई संघर्ष की संभावनाओं को खत्म करने के लिए रणनीति के तहत उन भाषाओं को जनगणना में शामिल करना बंद कर दिया गया, जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10 हजार से कम हो. यही वजह है कि 1961 की जनगणना में 1,652 भाषाओं का जिक्र है, जबकि 1971 में यही घट कर 182 हो गई और 2001 में 122 रह गई.

सर्वेक्षण में ऐसा माना गया कि 1961 की जनगणना में जिन 1,652 भाषाओं का जिक्र है, उन में से अनुमानतया 1,100 को भाषा का दरजा दिया जा सकता है. भारत सरकार की तरफ से 2006-07 में भारतीय भाषाओं पर सर्वेक्षण कराए जाने की पहल हुई थी, लेकिन यह योजना आगे नहीं बढ़ सकी.

भाषाओं का विमर्श केवल प्रमुख भाषाओं तक सीमित है. जैसे, हाल ही में कर्नाटक और तमिलनाडु में हिंदी थोपने के खिलाफ आंदोलन हुआ. इसी तरह कई हिंदीभाषी राज्यों में अंगरेजी को निशाना बनाया जाता है क्योंकि कुछ लोगों को लगता है कि अंगरेजी की लोकप्रियता भारतीय भाषाओं की कीमत पर बढ़ रही है.

फंड का फेर

हिंदी बनाम अंगरेजी से या हिंदी बनाम कन्नड़ की बहस से एक महत्त्वपूर्ण बहस यह भी चल रही है कि छोटी आदिवासी भाषाएं कैसे राज्यों की अधिकृत भाषाओं के सामने टिक पाएंगी. कागजों पर सरकारें लुप्त हो रही भाषाओं की मदद करते बहुतकुछ दिखाती हैं. 2014 के बाद आई सरकार ने उन भाषाओं का डौक्युमैंटेशन और संरक्षण का काम शुरू किया है जिन्हें बोलने वाले 10 हजार से कम हैं. यह काम सैंट्रल इंस्टिट्यूट औफ लैंग्वेजेज द्वारा किया जा रहा है. जिस के बारे में वहां के कर्मचारियों का कहना है कि उस के पास फंड कम है और योग्य कर्मचारियों की कमी भी है.

इस के अलावा सरकार ने 9 विश्वविद्यालयों में विलुप्त भाषाओं के केंद्र स्थापित किए हैं. अंतर्राष्ट्रीय संस्था फाउंडेशन औफ एनडैंजर्ड लैंग्वैजेज के अध्यक्ष निकोलस औस्टलर का कहना है कि इस मामले में सरकार का समर्थन जरूरी है, मगर लंबे समय में समुदाय तभी फलतेफूलते हैं जब वे मामलों को अपने हाथों में लेते हैं.

वैश्विक स्तर पर देखें तो वहां भी अंगरेजी के वर्चस्व के आगे सैकड़ों भाषाओं पर अस्तित्व का संकट है. संयुक्त राष्ट्र की ओर से 2009 में जारी आंकड़ों के मुताबिक, सब से खराब हालत भारत में है जहां 196 भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं. इस के बाद अमेरिका का स्थान है, जहां 192 भाषाएं विलुप्तप्राय हैं. इंडोनेशिया में 147 भाषाएं मिटने वाली हैं.

दुनिया में 199 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10 से भी कम है. 178 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या 150 लोगों से भी कम है. एक अनुमान के मुताबिक, दुनियाभर में 6,900 भाषाएं बोली जाती हैं, जिन में से 2,500 भाषाओं की स्थिति चिंताजनक है. यदि भाषा संस्कृति का आधार है तो इन भाषाओं के नष्ट होने के साथ ये संस्कृतियां भी नष्ट हो जाएंगी.

गणेश देवी के मुताबिक, दुनिया की 6 हजार भाषाओं में से 4 हजार भाषाओं पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, जिन में से 10 फीसदी भाषाएं भारत में बोली जाती हैं. दूसरे शब्दों में, कुल 780 भाषाओं में से 400 भारतीय भाषाएं विलुप्त हो सकती हैं.

उल्लेखनीय है कि दुनिया की सब से ज्यादा भाषाएं पापुआ न्यू गिनी में हैं. इन की संख्या 838 है. तीसरा नंबर इंडोनेशिया का है जहां 707 भाषाएं हैं. चौथे नंबर पर नाइजीरिया है 526 भाषाओं के साथ. उस के बाद क्रमश: अमेरिका (422), चीन (300), मैक्सिको (289), कैमरून (281), आस्ट्रेलिया (245), ब्राजील (229) के नंबर आते हैं. मगर भारत में अन्य देशों की तुलना में ज्यादा भाषाएं विलुप्त हो रही हैं. पापुआ न्यू गिनी में 98, इंडोनेशिया 143, अमेरिका 191, चीन 144, मैक्सिको 143, आस्ट्रेलिया 108, ब्राजील 190 और कनाडा में 87 भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं.

भारत में 2 तरह की भाषाएं लुप्त हुई हैं. एक तो तटीय इलाकों के लोग ‘सी फार्मिंग’ की तकनीक में बदलाव होने से शहरों की तरफ चले गए. उन की भाषाएं ज्यादा विलुप्त हुईं. दूसरे, जो डीनोटिफाइड कैटेगरी है, बंजारा समुदाय के लोग, जिन्हें एक समय अपराधी माना जाता था. वे अब शहरों में जा कर अपनी पहचान छिपाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे 190 समुदाय हैं, जिन की भाषाएं बड़े पैमाने पर लुप्त हो गई हैं.

गणेश देवी के अनुसार, बंजारों, आदिवासी या अन्य पिछड़े समाजों की भाषाएं पूरे विश्व में लगातार नष्ट हो रही हैं. यह आधुनिकता की सब से बड़ी विडंबना है. ऐसे लोग देश के लगभग हर हिस्से में फैले हैं. ऐसा नहीं है कि ये लोग जीवित नहीं हैं. ये जिंदा हैं और इन की संख्या लाखों में हैं, लेकिन ये अपनी भाषा भूल चुके हैं.

जानकारों का एक समूह मानता है कि ग्लोबलाइजेशन की वजह से मातृभाषाओं की मौत हो रही है. लोग जहां जाते हैं वहीं की भाषा अपना लेते हैं और अपनी भाषा को छोड़ देते हैं.

वैसे, ग्लोबलाइजेशन को कितना ही कोस लीजिए, वह वक्त का तकाजा है. उस में छोटे समुदायों के आपस में जुड़ने से दुनिया एक गांव बनती जा रही है. माइग्रेशन, परिवहन और संचार के साधन लोगों को पास ला रहे हैं. इस में पुरानी भाषाओं और बोलियों का क्षय होना स्वाभाविक है. मगर उस में से जो प्रमुख भाषाएं उभर कर आ रही हैं उन में से करोड़ों लोग जुड़ते हैं.

जब देखें लड़का तो कुछ बातें ध्यान में रखें

अब वह जमाना नहीं रहा जब युवकयुवती देखने जा कर अपनी पसंदनापसंद बताता था. बदलते दौर में अब न सिर्फ युवक बल्कि युवती भी लड़का देखने जाती है और दस तरह की बातें पौइंट आउट करती है जैसे वह दिखने में कैसा है? उस का वे औफ टौकिंग कैसा है? बौडी फिजिक बोल्ड है या नहीं ममाज बौय तो नहीं है? वगैरावगैरा.

आज बराबर की हिस्सेदारी के कारण युवतियां किसी चीज से समझौता करना पसंद नहीं करतीं. यह ठीक भी है कि जिस के साथ ताउम्र रहना है उस के बारे में जितना हो सके जान लेना चाहिए ताकि आगे किसी तरह का कोई डाउट न रहे.

ऐसे में आप जब लड़का देखने जाएं तो कुछ बातें ध्यान में रखें और खुद भी ऐसा कुछ न करें जो आप की नैगेटिव पर्सनैलिटी को दर्शाए.

  • जब भी आप युवक से पहली बार मिलें तो उस की बौडी लैंग्वेज पर खास ध्यान दें. इस से आप को उस की आधी पर्सनैलिटी का तो ऐसे ही अंदाजा हो जाएगा. बात करते हुए देख लें कि कहीं वह बात करने से ज्यादा अपने हाथपैर तो नहीं हिला रहा. बात करते हुए फेस पर अजीब से रिऐक्शन तो नहीं आ रहे. इस से आप को उसे जज करने में काफी आसानी होगी.
  •  बात करते समय इस बात पर गौर फरमाएं कि कहीं वह तू से बात करना तो शुरू नहीं करता कि यार, मुझे तो बिलकुल तेरे जैसी लड़की चाहिए, तू तो आज बहुत क्यूट लग रही है. अगर ऐसा कहे तो समझ जाएं कि वह आप के लायक युवक नहीं है, क्योंकि जो पहली बातचीत में ही तू तड़ाक पर आ जाए उस से भविष्य में रिस्पैक्ट की उम्मीद नहीं की जा सकती.
  • भले ही उस युवक का सैलरी पैकेज काफी अच्छा हो, लेकिन इस का यह मतलब तो नहीं कि उस की हर बात में सैलरी का ही जिक्र हो. जैसे अगर हम दोनों की शादी हो गई तो तुम ऐश करोगी, तुम्हें ब्रैंडेड चीजें यूज करने का मौका मिलेगा, क्योंकि मैं औफिस के काम से विदेश भी जाता रहता हूं. इस से आप को अंदाजा हो जाएगा कि उसे अपनी सैलरी पर घमंड है.
  • युवक को जानने के साथसाथ आप उस की फैमिली को भी एकनजर में जानने की कोशिश करें. आप को उन की बातचीत के तरीके से पता लग जाएगा कि वे कैसे विचारों के लोग हैं. लड़की को जौब करवाने के फेवर में हैं या नहीं. घर में लड़की से ज्यादा लड़के को तो महत्त्व नहीं देते. इन सारी बातों का पता होने पर आप को डिसीजन लेने में काफी आसानी होगी.
  • बातोंबातों में कहीं दहेज की ओर तो इशारा नहीं है. जैसे हमारी बड़ी बहू तो शादी में हर चीज लाई थी, हमारा लड़का तो 15 लाख रुपए सालाना कमाता है, हमारे यहां तो रिश्तेदारों का शादी में खास खातिरदारी का रिवाज है. आप को जो देना है अपनी लड़की को देना है, हमें कुछ नहीं चाहिए जैसी बातें अगर मीटिंग में की जा रही हैं तो समझ जाएं कि उन्हें लड़की से ज्यादा दहेज में इंट्रस्ट है.
  • आप की फैमिली लड़की को आप से बात करने के लिए कह रही है और वह इस के लिए मम्मी से परमिशन ले कर खुद को ममाज बौय दिखाने की कोशिश करे तो समझ जाएं कि लड़के की खुद की कोई पर्सनैलिटी नहीं है और वह हर बात के लिए मम्मी पर डिपैंड रहता है.
  • अगर थोड़ी सी सीरियस बात के बाद वह सीधा कपड़ों पर आ जाए जैसे मुझे तो सूट वगैरा बिलकुल पसंद नहीं हैं. मैं तो चाहता हूं कि मेरी लाइफ पार्टनर हमेशा हौट ड्रैसेज पहने, इस से आप को यह समझने में आसानी होगी कि उसे आप से ज्यादा छोटे कपड़ों में इंट्रस्ट है, जो हैप्पी मैरिड लाइफ के लिए सही नहीं है.
  • कहीं ऐसा तो नहीं कि फर्स्ट मीटिंग में ही युवक आप से फ्यूचर प्लानिंग के बारे में बात करना शुरू कर दे कि हम तो शादी के बाद अकेले रहेंगे, इस तरह चीजों को मैनेज करेंगे, मुझे तो लड़के बहुत पसंद हैं इस से आप को उस की मैच्योरिटी के बारे में पता चल जाएगा.
  • जरूरी नहीं कि जब हम इस तरह की मीटिंग के लिए कहीं बाहर जाएं तो हमेशा लड़की वाले ही बिल पे करें. भले ही आप के पेरैंट्स उन्हें बिल पे न करने दें, लेकिन फिर भी यह बात जानने के लिए थोड़ी देर तक बिल पे न करें. अगर वह एक बार भी बिल पे करने का जिक्र न करे तो समझ जाएं कि वह सिर्फ फ्री में खानेपीने वाले सिद्धांत पर चलने वाला है.
  • भले ही आप काफी स्मार्ट हों, लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि आप लड़के के गुणों को देखने के बजाय उस की स्मार्टनैस के बेस पर ही उसे पौइंट्स दें. एक बात मान कर चलें कि स्मार्टनैस थोड़े दिन ही अच्छी लगती है उस के बाद तो व्यक्ति के गुणों के बल पर ही जिंदगी चलती है. इसलिए आउटर के साथसाथ इनर पर्सनैलिटी को भी ध्यान में रखें.
  • हमारे घर में यह होता है, हम ऐसे रहते हैं, हम यह नहीं खाते, मौल्स के अलावा हम कहीं और से शौपिंग नहीं करते. भले ही आप का लिविंग स्टैंडर्ड काफी हाई हो, लेकिन अगर आप इस तरह की बातें लड़के से करेंगी तो वह चाहे आप कितनी भी सुंदर क्यों न हों, आप से शादी नहीं करेगा.
  • माना कि युवतियों को शौपिंग का शौक होता है, लेकिन इस का मतलब यह तो नहीं कि आप युवक से 20 मिनट में 15 मिनट शौपिंग को ले कर ही बात करें. जैसे मैं हफ्ते में जब तक एक बार शौपिंग नहीं कर लेती तब तक मुझे चैन नहीं आता, क्या तुम्हें शौपिंग पसंद है? अगर हमारी शादी हो गई तो क्या तुम मेरे साथ हर वीकैंड पर शौपिंग पर चला करोगे? ऐसी बातों से सिर्फ यही शो होगा कि आप को मैरिज से ज्यादा शौपिंग में इंट्रस्ट है जो आप की नैगेटिव पर्सनैलिटी को शो करेगा.

  • आज सोशल मीडिया का जमाना है, लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि हर जगह सोशल मीडिया ही हावी हो. ऐसे में जब आप लड़के से बात कर रही हैं तो यह न पूछ बैठें कि आप सोशल साइट्स पर ऐक्टिव हैं कि नहीं. अगर हैं तो अपनी आईडी दीजिए ताकि मैं अपनी फ्रैंडलिस्ट में आप को ऐड कर सकूं. इस से लड़के तक यही मैसेज जाएगा कि आप सोशल मीडिया को ले कर कितनी क्रेजी हैं तभी इतनी सीरियस टौक में आप सोशल मीडिया को ले आई हैं.
  • जब भी आप लड़के से मिलने जाएं तो उस का बायोडाटा अच्छी तरह पढ़ लें कि वह कहां जौब करता है, इस से पहले उस ने किनकिन कंपनियों में जौब की है, उस की फैमिली में कितने मैंबर्स हैं और कौन क्या करता है. यहां तक कि उस की कंपनी व पद के बारे में भी जानकारी रखें. इस से जब वह अपनी कंपनी के बारे में बता रहा होगा तो आप की तरफ से भी अच्छा फीडबैक मिल पाएगा.पहली मुलाकात में ही आप उस से अपना नंबर शेयर न करें, क्योंकि आप को क्या पता कि बात बनेगी या नहीं. इसलिए इस बात को अपने
  • पेरैंट्स पर छोड़ दें, क्योंकि अगर आप का रिश्ता बना तो पेरैंट्स खुद ही आप को नंबर दिलवा देंगे ताकि आप को एक दूसरे को जानने का मौका मिल सके.
  • अगर बड़े किसी टौपिक पर बात कर रहे हैं कि जैसे हम शादी तो अपने होम टाउन से ही करेंगे तो ऐसे में आप बीच में टांग न अड़ाने लगें कि नहीं आंटी ऐसा नहीं होगा. आप के इस व्यवहार से आप की बदतमीजी ही शो होगी इसलिए जब तक जरूरी न हो तब तक बीच में न बोलें.
  • अगर आप को लड़के की कोई बात पसंद नहीं आ रही तो एकदम से गुस्से में न आ जाएं बल्कि शांत तरीके से अपनी बात रखें, इस से उस पर आप का अच्छा प्रभाव पड़ेगा और उसे लगेगा कि आप चीजों को अच्छे से ऐडजस्ट करना जानती हैं.

इस तरह आप को अपने लाइफ पार्टनर के सिलैक्शन में आसानी होगी.

गोरखधंधा : मर्दानगी बेचने वालों से सावधान

‘यह लीजिए साहब… पुश्तैनी जोड़ों के दर्द को जड़ से मिटा देगी… यह जड़ीबूटी डायबिटीज, पेट की खराबी, सुस्ती, थकावट सब दूर कर देगी… काम में मन न लगना, मन अशांत रहना, हर मर्ज की दवा है हमारे पास,’ जैसी बातें कह कर ठग ग्राहकों को खूब लूटते हैं.

‘यह दवा आप को किसी डाक्टर के पास या मैडिकल स्टोर में नहीं मिलेगी.

‘साहब, हम इसे जंगल से ढूंढ़ ढूंढ़ कर लाते हैं. हमारे खानदान के लोगों को ही इस जड़ी के बारे में मालूम है. यह हिमालय की चोटी पर उगती है, बर्फ में ढूंढ़नी पड़ती है. बहुत महंगी बिकती है. इसे खाने के बाद सामने वाला चारों खाने चित नहीं हुआ, तो सारा पैसा वापस.’

ऐसी ही बातें सुन कर खदान में काम करने वाले एक मजदूर ने सड़क किनारे तंबू लगा कर दवा बेचने वाले से तेल लिया. उसे अंग पर लगाने के थोड़ी देर बाद तकलीफ होनी शुरू हो गई. अंग फूल कर मोटा हो गया. उस में जलन व दर्द होने लगा. धीरे धीरे तकलीफ इतनी बढ़ गई कि वह छटपटाने लगा.

उस मजदूर की बीवी ने पड़ोसियों की मदद से उसे अस्पताल पहुंचाया. डाक्टरों ने फौरन इलाज कर के दर्द व जलन दूर कर दी. पर तेल लगाने से जो छूत की बीमारी हुई थी, उसे ठीक होने में डेढ़ महीना लग गया.

इसी तरह एक आदमी ने सैक्स ताकत बढ़ाने के लिए सड़क किनारे दवा बेचने वाले से दवा ली. दवा खाने के थोड़ी देर बाद हाथपैरों में ऐंठन शुरू हो गई. उस की बीवी पति की हालत देख कर घबरा गई. उस ने पड़ोसियों को बुलाया, जो उसे अस्पताल ले गए. डाक्टर ने इलाज किया, जहां वह काफी समय बाद ठीक हुआ.

जब उस आदमी ने डाक्टर से ताकत की दवा लेने के बारे में बताया, तो डाक्टर ने उसे बताया कि ऐसी दवाओं में नशीली चीजें होती हैं. उन्हीं के असर से उसे ऐसी तकलीफ हो गई थी.

सारणी में सड़क के किनारे तंबू लगा कर दवा बेचने वाले तथाकथित वैद्य के पास एक आदमी पहुंचा. बाहर से साधारण दिखने वाले तंबू के अंदर का नजारा चकाचौंध कर देने वाला था. सामने सैकड़ों शीशियों में गोलियां, चूर्ण, कैप्सूल, जड़ीबूटियां वगैरह रखी हुई थीं.

उस ने मरीज के रूप में अपना हाथ दिखाया, तो उस वैद्य ने हाथ की नाड़ी को पकड़ कर कहा, ‘शरीर में गरमी हो गई है. इस से शरीर का धातु पतला हो कर बाहर चला जा रहा है. शरीर में पानी की मात्रा बढ़ रही है, जिस से वह फूल गया है.’

वैद्य ने 750 रुपए की एक महीने की दवा लेने को कहा और पौष्टिक चीजें खाने की राय दी. जब उस से कहा गया कि मैं तो पूछताछ करने आया हूं, तो वह वैद्य घबरा गया. अपनेआप को संभालते हुए उस ने कहा कि मैं तो मजाक कर रहा था. इतने रुपए की दवा नहीं लगेगी.

जब उस से पूछा कि धातु क्या होता है? दवा से अंग कैसे मोटा हो जाता है? जवानी की ताकत बढ़ाने वाली दवा में क्याक्या मिलाते हैं? तो उस ने सवालों के जवाब देने से मना कर दिया और कहा कि वह कल अपने गुरु से इन सवालों के जवाब मालूम कर के बता देगा.

दूसरे दिन वहां पर तंबू नहीं था. वैसे, उस तंबू वाले तथाकथित वैद्य की कमाई का अंदाजा उस के पास मौजूदा रंगीन टैलीविजन, मोटरसाइकिल, मेटाडोर वगैरह से लगाया जा सकता है.

खानदानी इलाज करने वाले तथाकथित वैद्यों की जवान पीढ़ी भी इसी काम में लगी हुई है. इस काम में लगे ज्यादातर नौजवान नासमझ हैं. उस की वजह यह है कि एक ही जगह पर अधिक दिनों तक तंबू लगा कर न रहने से बच्चे स्कूली पढ़ाई नहीं कर पाते हैं.

उन का कहना है कि पढ़लिख कर उन्हें कौन सी नौकरी करनी है. उन्हें तो बाप दादाओं से मिले हुनर का ही काम करना है. जड़ीबूटी बेचना उन की विरासत है. वह इसे छोड़ना नहीं चाहते हैं. उन की औरतें भी इसी काम में लगी रहती हैं. मर्दों को बुला कर सैक्स की दवा बेचने में उन्हें शर्म या झिझक महसूस नहीं होती.

इन के पास केवल आदमी ही इलाज के लिए जाते हैं, ऐसा नहीं है. तमाम औरतें व स्कूली छात्राएं छाती बढ़ाने, ढीली छाती को कसने, पेट गिराने, बांझपन, ल्यूकोरिया, माहवारी संबंधी बीमारियां, ठंडापन, बालों का झड़ना, कीलमुहांसे वगैरह की शिकायतें ले कर इन तंबुओं में पहुंचती हैं.

पिछले दिनों एक मामला सामने आया. जब एक कालेज की छात्रा कीलमुहांसे के इलाज के लिए तंबू में पहुंची, तब तंबू के तथाकथित वैद्य ने उसे छेड़ दिया. जब बात कालेज के छात्रों को पता चली, तो उन्होंने आ कर तंबू उखाड़ दिया. तथाकथित वैद्य वहां से फरार हो गया.

सैक्स मामलों के जानकार डाक्टर का कहना है कि सड़क के किनारे तंबू लगा कर दवा बेचने वालों से किसी भी तरह का इलाज नहीं कराना चाहिए. इन्हें दवाओं के बारे में सही जानकारी नहीं होती, जिस की वजह से इन की दी हुई दवाएं इस्तेमाल करने पर फायदा होने के बजाय नुकसान होता है.

इन के द्वारा दी गई जवानी बढ़ाने वाली दवाओं में नशीली चीजों का इस्तेमाल किया जाता है, जो शरीर को काफी नुकसान पहुंचाती हैं.

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