दिल्ली : मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी, सियासत के फंदे में दिल्ली की आधी सरकार

अरविंद केजरीवाल की मजबूत दिल्ली सरकार में वित्त, योजना, शिक्षा, भूमि और भवन, जागरूकता, सेवा, श्रम, रोजगार, लोक निर्माण विभाग, कला और संस्कृति और भाषाएं, ऊर्जा, आवास, शहरी विकास, जल, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण, इंडस्ट्रीज, आबकारी, स्वास्थ्य के अलावा कई और मंत्रालय संभालने वाले उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को 26 फरवरी, 2023 को शराब घोटाला मामले में सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया था.

मंत्रालयों के लिहाज से दिल्ली की आधी सरकार चलाने वाले मनीष सिसोदिया को शायद इस बात की भनक पहले से ही लग गई थी, तभी तो सीबीआई दफ्तर रवाना होने से पहले उन्होंने दिल्ली वालों के नाम एक चिट्ठी लिखी थी, जिसे मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शेयर किया था.

इस चिट्ठी में मनीष सिसोदिया ने किसी का नाम लिए बगैर कहा था कि ‘ये लोग आज मुझे गिरफ्तार करने वाले हैं. उन्होंने मुझ पर झूठे आरोप लगाए हैं. मुझे यकीन है कि ये सभी मामले अदालत में खारिज हो जाएंगे, लेकिन इस में कुछ समय लग सकता है. हो सकता है मुझे कुछ समय के लिए जेल में रहना पड़े , लेकिन मैं इसे ले कर बिलकुल भी चिंतित नहीं हूं.’

मनीष सिसोदिया का ‘ये लोग’ कहना एक बड़ा इशारा है कि किस तरह देश की केंद्र सरकार दिल्ली में आम आदमी पार्टी को कमजोर करने के लिए सरकारी एजेंसियों का सहारा ले रही है और दिल्ली में शिक्षा की बेहतरी को बड़ा आंदोलन बनाने वाले ‘शरीफ उपमुख्यमंत्री’ पर ही बड़ा वार किया है.

दूसरी ओर आबकारी घोटाला मामले में सीबीआई का आरोप था कि मनीष सिसोदिया के कंप्यूटर से कुछ फाइलें डिलीट कर दी गई थीं. इन्हें फौरैंसिक टीम ने रिट्राइव किया. इन में मनीष सिसोदिया के खिलाफ अहम सबूत मिले.

इस मामले में सीबीआई ने 17 अगस्त, 2022 को मामला दर्ज किया था. सीबीआई ने 6 महीने की जांच और कई ठिकानों पर छापेमारी के बाद मनीष सिसोदिया के खिलाफ यह कार्यवाही की. इस से पहले मनीष सिसोदिया को अक्तूबर, 2022 में भी पूछताछ के लिए बुलाया गया था.

याद रहे कि सीबीआई ने 17 अगस्त, 2022 को नई आबकारी नीति (2021-22) में धोखाधड़ी, रिश्वतखोरी के आरोप में मनीष सिसोदिया समेत 15 लोगों पर मामला दर्ज किया था. 19 अगस्त, 2022 को सीबीआई ने मनीष सिसोदिया और आम आदमी पार्टी के 3 और सदस्यों के आवास पर छापा मारा था.

मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी से सीबीआई को क्या मिलेगा या मनीष सिसोदिया का आगे क्या होगा, यह तो देरसवेर पता चल ही जाएगा, पर एक बड़ा सवाल यहां यह उठता है कि अब अरविंद केजरीवाल 33 में से 18 महकमे संभालने वाले मनीष सिसोदिया की भरपाई कैसे करेंगे और कौन ऐसा चेहरा होगा जो दिल्ली की आम आदमी पार्टी को मजबूती देगा?

यह सवाल पूछने की सब से बड़ी वजह यह है कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के पास कोई भी महकमा नहीं है. आम आदमी पार्टी के कद्दावर नेता सत्येंद्र जैन पहले से ही जेल में बंद हैं. मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी भी चुन कर ऐसे समय हुई, जब बोर्ड के इम्तिहान शुरू हो गए थे. दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग के कामों पर इस गिरफ्तारी का यकीनन असर पड़ेगा.

इतना ही नहीं, पंजाब में जो अलगाववाद का ढिंढोरा पीटा जा रहा है और वहां आम आदमी पार्टी को कमजोर किए जाने की जो कोशिश हो रही है, उसी के साथसाथ राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं और साल 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में भी यह पार्टी जुटी हुई है. पर अब मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी से आम आदमी पार्टी की राह में सियासी दिक्कतें खड़ी हो सकती हैं.

तो क्या यह समझ लिया जाए कि आगामी चुनावों के मद्देनजर यह केंद्र सरकार द्वारा आम आदमी पार्टी को कमजोर करने की कोई साजिश है? इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि जिस तरह से अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के बाद पंजाब में अपनी जीत का परचम लहराया है, वह किसी चमत्कार से कम नहीं है.

कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के साथसाथ अकाली दल भी इसी मुगालते में था कि पंजाब के लोग अरविंद केजरीवाल पर भरोसा नहीं करेंगे, पर उन सब दलों ने मुंह की खाई और बेशक आम आदमी पार्टी का कोई सियासी विचार या नीतियां नहीं हैं, फिर भी उस ने एक बार को वह कर के दिखा दिया जो उस ने कहा था.

केंद्रीय एजेंसियों का शिकार बन चुके शिव सेना के तेजतर्रार नेता संजय राउत ने इस मसले पर मनीष सिसोदिया का पक्ष लेते हुए कहा, “सिसोदिया पर हुई कार्यवाही बताती है कि केंद्र सरकार विपक्ष का मुंह बंद कराना चाहती है. हम सिसोदियाजी के साथ हैं. महाराष्ट्र हो, झारखंड हो, दिल्ली हो, केंद्र सीबीआई और ईडी का इस्तेमाल कर विपक्षी नेताओं को जेल भेज रही है या उन्हें समर्पण करने पर मजबूर कर रही है, चाहे वे सिसोदिया हों, नवाब मलिक हों, अनिल देशमुख हों या फिर मैं. क्या भाजपा में सारे संत हैं?” संजय राउत का यह उछलता सवाल भाजपा कैच कर पाएगी या नहीं, यह तो फिलहाल कहा नहीं जा सकता, पर जनता यह सोचने पर जरूर मजबूर होगी कि क्या वाकई भाजपा में सारे संत हैं?

अमीरों की ऐसी हरकत ने करा डाली बेइज्जती

पूरा देश गांव वालों और गरीबों को कोसता रहता है कि वे जहां चाहे पैंट खोल कर पेशाब कर देते हैं. गनीमत है कि अब अमीरों की पोल खोल रही है. एक शंकर मिश्राजी बिजनैस क्लास का महंगा टिकट ले कर न्यूयौर्क से 26 नवंबर को दिल्ली एयर इंडिया की फ्लाइट में आ रहे थे. उन्होंने इतनी पी रखी थी कि उन्हें होश नहीं था कि क्या कर रहे हैं. उन के बराबर बैठी एक महिला को शायद उन्होंने गली की दीवार सम?ा कर उस पर पैंट खोल कर पेशाब कर दिया. ऐसा काम जो अगर गरीब या गांव वाले कर देते तो तुरंत उन की मारकुटाई शुरू हो जाती. पर ये ठहरे मिश्राजी, इन्हें कौन कुछ कहेगा.

जब मामला जनवरी के पहले सप्ताह में शिकायत करने पर सामने आया तो इस महान उच्च कोटि में जन्म लेने वाले, एक विदेशी कंपनी में काम करने वाले की खोज हुई वरना एयरलाइंस ने इस मामले को रफादफा कर दिया क्योंकि इस से जगदगुरु भारत की और एयर इंडिया कंपनी की बेइज्जती होती.

मामला खुलने के कई दिन बाद तक इस मिश्राजी को पकड़ा नहीं जा सका. उस के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने दिल्ली में कुछ मामले दर्ज किए हैं पर पक्का है कि गवाहों के अभाव में वह कुछ साल में छूट जाएगा और देश की दीवारों पर गरीबों के लिए लिखता रहेगा कि यहां पेशाब करना मना है, जुर्म है.

मरजी से जहां भी पेशाब करना और जहां भी जितना भी पीना शायद यह भी उच्च कोटि में जन्म लेने से मिलने वाले हकों में से एक है. घरों की दीवारों पर कोई निचली जाति का पेशाब तो छोडि़ए थूक भी दे तो हंगामे खड़े हो जाते हैं पर ऊंचे लोग जो भी चाहे कर लें, उन के लिए अलग कानून हैं. ये अलग कानून किताबों में नहीं लिखे, संविधान में नहीं हैं पर हर पुलिस वाले के मन में हैं, हर बेचारी औरत के मन में हैं और जजों के मन में लिखे हुए हैं.

गरीबों के मकान ढहा दो, गांवों की जमीन सस्ते में सरकार खरीद ले, सरकार किसान से ट्रैक्टर, खाद, डीजल पर जम कर टैक्स ले पर उस की फसल की उसे सही कीमत न दे या ऐसा माहौल बना दे कि प्राइवेट व्यापारी भी न दे, यह मंजूर है.

भारत की गंदगी के लिए ऊंची जातियां ज्यादा जिम्मेदार हैं क्योंकि जब वे घरों या फैक्टरियों से कूड़ा निकालती हैं तो चिंता नहीं करतीं कि कौन कैसे इन्हें निबटाएगा और उस का हाल क्या होगा. उन के लिए तो सफाई वाले दलित, किसान, मजदूर और हर जाति की औरतें एक बराबर हैं. शंकर मिश्रा को तलब लगी होती तो भी वह किसी पुरुष पर पेशाब नहीं करता. एक प्रौढ़ औरत को उस की दबीछिपी ऊंची भावना ने नीच मान रखा है और उस पर पेशाब कर डाला.

अब देश की सारी दीवारों से ‘यहां पेशाब करना मना है’ मिटा देना चाहिए और अगर लगाना है तो एयर इंडिया की फ्लाइटों में लगाएं और औरत पैसेंजरों को पेशाब प्रूफ किट दें जैसे कोविड के दिनों में दी गई थीं. ऊंची जाति वालों का राज आज जोरों पर है. ऐसे मामले और कहां हो रहे होंगे, पर खबर नहीं बन रहे, क्या पता. यह भी तो डेढ़ महीने बाद सामने आया.

 

सरकार की नीति: रोजगार एक अहम मुद्दा

गूगल पर बेरोजगारों के फोटो खंगालते हुए बहुत से फोटो दिखे जिन में बेरोजगार प्रदर्शन के समय तखतियां लिए हुए थे जिन पर लिखा था ‘मोदी रोजी दो वरना गद्दी छोड़ो’, ‘शिक्षा मंत्री रोजी दो वरना त्यागपत्र छोड़ो’, ‘रोजीरोटी जो न दे वह सरकार निकम्मी हैं.’

ये नारे दिखने में अच्छे लगते हैं. बेरोजगारों का गुस्सा भी दर्शाते हैं पर क्या किसी काम के हैं. रोजगार देना अब सरकारों का काम हो गया. अमेरिका के राष्ट्रपति हो या जापान के प्रधानमंत्री हर समय बेरोजगारी के आंकड़ों पर उसी तरह नजर रखते हैं जैसे शेयर होल्डर अडानी के शेयरों के दामों पर. पर न तो यह नजर रखना नौकरियां पैदा करती है और न शेयरों के दामों को ऊंचानीचा करती है.

रोजगार पैदा करने के लिए के लिए जनता खुद जिम्मेदार है. सरकार तो बस थोड़ा इशारा करती है. सरकार उस ट्रैफिक पुलिसमैन की तरह होती है जो ट्रैफिक उस दिशा में भेजता है जहां सडक़ खाली है. पर ट्रैफिक के घटतेबढऩे में पुलिसमैन की कोई भी वेल्यू नहीं है. सरकारें भी नौकरियां नहीं दे सकतीं, हां सरकारें टैक्स इस तरह लगा सकती हैं, नियमकानून बना सकती हैं कि रोजगार पैदा करने का माहौल पैदा हो.

हमारे देश में सरकारें इस काम को इस घटिया तरीके से करती हैं कि वे रोजगार देती हैं तो केवल टीचर्स को, हर ऐसे टीचर्स जो रोजगार पैदा करने लायक स्टूडेंट बना सकें.

ट्रैफिक का उदाहरण लेते हुए कहा जा सकता है कि ट्रैफिक कांस्टेबल को वेतन और रिश्वत का काम किया जाता है. खराब सडक़ें बनाई जाती हैं जिन पर ट्रैफिक धीरेधीरे चले, सडक़ों पर कब्जे होने दिए जाते हैं ताकि सडक़ें छोटी हो जाए और दुकानोंघरों से वसूली हो सके.

ऐसे ही पढ़ाई में हो रहा है. टीचर्स एपायंट करना, स्कूल बनवाने, बुक बनवाने, एक्जाम करने में सरकार आगे पर नौकरी लगा पढ़ाने में कोई नहीं. सरकार जानबूझ कर माहौल पैदा करती है कि बच्चे पढ़ें ही नहीं, खासतौर पर किसानों, मजदूरों, मैकेनिकों, सफाई करने वालों को तो पढ़ाते ही नहीं है. वे सिर्फ मोबाइलों पर फिल्में देखना जानते हैं. ट्रैफिक पुलिसमैन बनी सरकार अपनी जेब भर रही है.

मोदी सरकार अगर इस्तीफा दे देगी तो जो नई सरकार आएगी वह भी उसी ढांचे में ढली होगी क्योंकि यहां पढ़ाने का मतलब होता है पौराणिक पढ़ाई जिस में पढ़ाने वाला गुरू होता है जो मंत्रों को रटवाता है और उस के बदले दान, दक्षिणा, खाना, गाय, औरतें, घर पाना है और गॢमयों में पंखों के नीचे और सॢदयों में धूप में सुस्ताना है, कोङ्क्षचग में वह सिर्फ पेपर लीक करवा कर पास कराने का ठेका लेता है.

जब असली काम की नौबत आती है, पढ़ालिखा सीरिया और तुर्की के मकानों की तरह भूकंप में छह जाता है. अब जब भूकंप के लिए…..एरडोगन और इरशाद जिम्मेदार नहीं तो मोदी क्यों. इसलिए चुप रहो, शोर न मचाओ.

जाति के अधार पर होती है शादियां

ऊंची जातियोंखासतौर पर ब्राह्मणों को एक परेशानी यह रहती है कि हिंदू समाज में चतुर्वर्ण के नाम से जानी जाने वाली 4 जातियों के लोग कितने मिलते हैंयह न पता चले. 1872 से जब से अंगरेजों ने जनगणना शुरू की थीउन्होंने जाति के हिसाब से ही लोगों की गिनती शुरू की थी. उन्होंने तो धर्म को भी बाहर कर दिया था.

1949 में जब कांग्रेस सरकार आई तो वह मोटेतौर पर कट्टर तौर पर ब्राह्मणों की सरकार थी या उन की थी जो ब्राह्मणों के बोल को अपना भाग समझते थे. वल्लभभाई पटेलराजेंद्र प्रसाद जैसे नेता घोर जातिवादी थे. जवाहर लाल नेहरू ब्राह्मणवादी न होते हुए भी ब्राह्मण लौबी को मना नहीं पाए और भीमराव अंबेडकर की वजह से शैड्यूल कास्ट और शैड्यूल ट्राइबों की गिनती तो हुई पर बाकी ब्राह्मणोंक्षत्रियोंवैश्यों व शूद्रों यानी पिछड़ों की जातियों की गिनती नहीं हुई. कांग्रेस ने 195119611971198119912001 (वाजपेयी)2011 में जनगणना में जाति नहीं जोड़ी.

नरेंद्र मोदी की 2021 (जो टल गई) में तो जाति पूछने का सवाल ही नहीं उठता था. इसलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चौंकाने वाला फैसला लिया कि वे अलग से एक माह में बिहार में जातियों के हिसाब से गिनती कराएंगे.

गिनती इसलिए जरूरी है कि पिछड़े जो एक अंदाजे से हिंदू आबादी के 60 फीसदी हैंसरकारी नौकरियोंपढ़ाईप्राइवेट नौकरियों में मुश्किल से 10 फीसदी हैं. जनता की 3 फीसदी ऊंची ब्राह्मण जातियों ने सरकारी रुतबे वाले ओहदों में से 60-70 फीसदी पर कब्जा कर रखा है. प्राइवेट सैक्टर का 60-70 फीसदी 3 फीसदी बनियों के पास है. 60-70 फीसदी पिछड़ों और 20 फीसदी शैड्यूल कास्टों के पास निचले मजदूरीकिसानीघरों में नौकरी करनेसेना में सिपाही बननेपुलिस में कांस्टेबलसफाईढुलाईमेकैनिक बनने जैसे काम हैं. उन्हें शराब व धर्म का नशा बहकाता है और इसी के बल पर पहले कांग्रेस ने राज किया और अब भाजपा कर रही है.

पढ़ाई के दरवाजे खोलने और सरकारी रुतबों वाली नौकरियां देने के लिए रिजर्वेशन एक अच्छा और अकेला तरीका है और सही रिजर्वेशन तभी दिया जा सकता है जब पता रहे कि कौन कितने हैं. जाति की गिनती का काम इसलिए जरूरी है कि देश के पंडों ने ही हिंदुओं को जातियों में बांट रखा है और अब थोड़ी मुट्ठीभर सस्ती पढ़ाई की सीटें या रुतबे वाली कुरसियां हाथ से निकल रही हैं तो वे जाति नहीं’ है का हल्ला मचा रहे हैं.

आज किसी युवक या युवती का शादी के लिए बायोडाटा देख लो. उस में जातिउपजातिगौत्र सब होगा. क्योंअगर जाति गायब हो गई है तो लोग क्यों एक ही जाति में शादी करें. अगर ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य शादियां आपस में कर लें तो इसे अंतर्जातीय शादियां नहीं कहा जा सकता. समाज ब्राह्मण युवती के साथ जाट युवक और क्षत्रिय युवक के साथ शैड्यूल कास्ट युवती की शादी को जब तक आम बात न मान ले तब तक देश में जाति मौजूद हैमाना जाएगा.

रिजर्वेशन के लिए जाति गणना जरूरी है पर यह सामाजिक बुराई दूर करने की गारंटी नहीं है. लोगों के दफ्तरों में जाति गुट बना लिए. छात्रों ने स्कूलों और कालेजों में बना लिए हैं. नीतीश कुमार के पास इस मर्ज की कोई वैक्सीन है क्यारिजर्वेशन सरकारी शिक्षा की सीटें और पावर की सीटों पर छोटा सा हिस्सा देने के लिए ऐसा ही है जैसे कोविड के लिए डोलोपैरासीटामोल (क्रोसीन) लेनाइस से ज्यादा नहीं. यह बीमारी से नहीं लड़ने की ताकत देती हैबीमार को राहत देती है. पर जब तक वैक्सीन न बनेयही सही.

जातिवाद के नाम पर हुई जनगणना

ऊंची जातियों, खासतौर पर ब्राह्मणों को एक परेशानी यह रहती है कि हिंदू समाज में चतुर्वर्ण के नाम से जानी जाने वाली 4 जातियों के लोग कितने मिलते हैं, यह न पता चले. 1872 से जब से अंगरेजों ने जनगणना शुरू की थी, उन्होंने जाति के हिसाब से ही लोगों की गिनती शुरू की थी. उन्होंने तो धर्म को भी बाहर कर दिया था.

1949 में जब कांग्रेस सरकार आई तो वह मोटेतौर पर कट्टर तौर पर ब्राह्मणों की सरकार थी या उन की थी जो ब्राह्मणों के बोल को अपना भाग समझते थे. वल्लभभाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद जैसे नेता घोर जातिवादी थे. जवाहर लाल नेहरू ब्राह्मणवादी न होते हुए भी ब्राह्मण लौबी को मना नहीं पाए और भीमराव अंबेडकर की वजह से शैड्यूल कास्ट और शैड्यूल ट्राइबों की गिनती तो हुई पर बाकी ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों व शूद्रों यानी पिछड़ों की जातियों की गिनती नहीं हुई. कांग्रेस ने 1951, 1961, 1971, 1981, 1991, 2001 (वाजपेयी), 2011 में जनगणना में जाति नहीं जोड़ी.

नरेंद्र मोदी की 2021 (जो टल गई) में तो जाति पूछने का सवाल ही नहीं उठता था. इसलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चौंकाने वाला फैसला लिया कि वे अलग से एक माह में बिहार में जातियों के हिसाब से गिनती कराएंगे.

गिनती इसलिए जरूरी है कि पिछड़े जो एक अंदाजे से हिंदू आबादी के 60 फीसदी हैं, सरकारी नौकरियों, पढ़ाई, प्राइवेट नौकरियों में मुश्किल से 10 फीसदी हैं. जनता की 3 फीसदी ऊंची ब्राह्मण जातियों ने सरकारी रुतबे वाले ओहदों में से 60-70 फीसदी पर कब्जा कर रखा है. प्राइवेट सैक्टर का 60-70 फीसदी 3 फीसदी बनियों के पास है. 60-70 फीसदी पिछड़ों और 20 फीसदी शैड्यूल कास्टों के पास निचले मजदूरी, किसानी, घरों में नौकरी करने, सेना में सिपाही बनने, पुलिस में कांस्टेबल, सफाई, ढुलाई, मेकैनिक बनने जैसे काम हैं. उन्हें शराब व धर्म का नशा बहकाता है और इसी के बल पर पहले कांग्रेस ने राज किया और अब भाजपा कर रही है.

पढ़ाई के दरवाजे खोलने और सरकारी रुतबों वाली नौकरियां देने के लिए रिजर्वेशन एक अच्छा और अकेला तरीका है और सही रिजर्वेशन तभी दिया जा सकता है जब पता रहे कि कौन कितने हैं. जाति की गिनती का काम इसलिए जरूरी है कि देश के पंडों ने ही हिंदुओं को जातियों में बांट रखा है और अब थोड़ी मुट्ठीभर सस्ती पढ़ाई की सीटें या रुतबे वाली कुरसियां हाथ से निकल रही हैं तो वे ‘जाति नहीं’ है का हल्ला मचा रहे हैं.

आज किसी युवक या युवती का शादी के लिए बायोडाटा देख लो. उस में जाति, उपजाति, गौत्र सब होगा. क्यों? अगर जाति गायब हो गई है तो लोग क्यों एक ही जाति में शादी करें. अगर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शादियां आपस में कर लें तो इसे अंतर्जातीय शादियां नहीं कहा जा सकता. समाज ब्राह्मण युवती के साथ जाट युवक और क्षत्रिय युवक के साथ शैड्यूल कास्ट युवती की शादी को जब तक आम बात न मान ले तब तक देश में जाति मौजूद है, माना जाएगा.

रिजर्वेशन के लिए जाति गणना जरूरी है पर यह सामाजिक बुराई दूर करने की गारंटी नहीं है. लोगों के दफ्तरों में जाति गुट बना लिए. छात्रों ने स्कूलों और कालेजों में बना लिए हैं. नीतीश कुमार के पास इस मर्ज की कोई वैक्सीन है क्या? रिजर्वेशन सरकारी शिक्षा की सीटें और पावर की सीटों पर छोटा सा हिस्सा देने के लिए ऐसा ही है जैसे कोविड के लिए डोलो, पैरासीटामोल (क्रोसीन) लेना, इस से ज्यादा नहीं. यह बीमारी से नहीं लड़ने की ताकत देती है, बीमार को राहत देती है. पर जब तक वैक्सीन न बने, यही सही.

 

आदिवासी आरक्षण: सवालों की सूली पर

होना तो यह चाहिए था कि आदिवासी समुदाय की होने के नाते छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसुइया उइके नए विधेयक का स्वागत करते हुए न केवल उस पर दस्तखत कर अपनी मंजूरी देतीं, बल्कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का शुक्रिया भी अदा करतीं, जो उन्होंने गैरआदिवासी होते हुए भी आदिवासियों के भले की पहल की, लेकिन हुआ उलटा.
राज्यपाल महोदया ने विधेयक को सवालों की सूली पर लटका कर जता दिया कि उन्हें अपने समाज के लोगों की बदहाली से ज्यादा भगवा गैंग के उन उसूलों की फिक्र है, जिन के तहत आदिवासियों को पिछड़ा और बदहाल बनाए रखने की साजिश सदियों से रची जाती रही है.
राजनीति में दिलचस्पी और दखल रखने वालों को बेहतर याद होगा कि ये वही अनुसुइया उइके हैं, जिन का नाम राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू से पहले और ज्यादा चला था, क्योंकि उन के पास अनुभव ज्यादा है और वे खासी पढ़ीलिखी भी हैं.
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के तामिया के कालेज में असिस्टैंट प्रोफैसर की नौकरी करते हुए वे समाजसेवा के कामों में भी हिस्सा लेने लगी थीं और आदिवासी हितों खासतौर से औरतों के मुद्दे जोरशोर से उठाया करती थीं.
अब से तकरीबन 35 साल पहले मध्य प्रदेश की राजनीति में आदिवासी मर्द तो कई थे, लेकिन औरतों का टोटा था. तब छिंदवाडा के सांसद कमलनाथ की नजर तेजतर्रार बौयकट बाल रखने वाली अनुसुइया उइके पर पड़ी और वे उन्हें सक्रिय राजनीति में ले आए. आदिवासियों ने भी उन्हें हाथोंहाथ लिया और साल 1985 में दमुआ विधानसभा से उन्हें कांग्रेस के टिकट से जिता कर विधानसभा भेजा.
बाद में मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया. उस वक्त में धाकड़ आदिवासी नेता जमुना देवी के बाद अनुसुइया उइके दूसरी नेत्री थीं, जिन से आदिवासियों ने कई उम्मीदें बांध ली थीं.
ये उम्मीदें तब टूटी थीं, जब अनुसुइया उइके कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गई थीं और उन्होंने आदिवासियों के हक का राग अलापना बंद कर दिया था. साल 2019 में छत्तीसगढ़ का राज्यपाल बना कर भाजपा ने उन्हें उन की वफादारी का इनाम दे दिया था. राष्ट्रपति पद की दौड़ में वे केवल इसलिए पिछड़ गई थीं, क्योंकि उन पर कांग्रेसी होने का ठप्पा लगा था.
आदिवासी समाज के भले का विधेयक पिछले साल दिसंबर की
2 तारीख को विधानसभा में छत्तीसगढ़ लोक सेवा संशोधन विधेयक 2022 सभी दलों की रजामंदी से पास किया था, जिस में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण के इंतजाम नए सिरे से किए गए थे, जिस के तहत अनुसूचित जनजाति यानी एसटी को 32 फीसदी, अनुसूचित जाति यानी एससी को 13 फीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण दिया गया था.
आर्थिक तौर पर कमजोर यानी गरीबों के लिए भी 4 फीसदी आरक्षण के इंतजाम इस में किए गए हैं. इस तरह कुल आरक्षण 76 फीसदी हो गया. इस व्यवस्था को और सरल तरीके से समझें, तो अगर किसी भी सरकारी नौकरी की 100 पोस्ट निकलती हैं, तो उन में आदिवासियों के 32, दलितों के 13 ओबीसी के 27 और गरीब तबके के 4 उम्मीदवार नौकरी से लग जाते, बाकी 24 नियुक्तियां सामान्य वर्ग के यानी सवर्ण तबके के खाते में जातीं.
इसे आरक्षण का एक आदर्श मौडल हर लिहाज से कहा जा सकता है, क्योंकि राज्य में कुल आबादी का तकरीबन
32 फीसदी आदिवासी और 42 फीसदी पिछड़े हैं, जो हर लिहाज से बेहतर हालत में हैं. इतना ही नहीं 12 फीसदी दलितों को भी उम्मीद और जरूरत के मुताबिक आरक्षण मिल गया है.
तो फिर अडं़गा क्यों
इस विधेयक के पास होते ही कांग्रेसियों ने कुदरती तौर पर जश्न मनाया और आतिशबाजी चलाई, लेकिन जैसे ही कुछ सीनियर मंत्री राज्यपाल के पास विधेयक ले कर पहुंचे तो बात बिगड़ गई, जबकि हर कोई उम्मीद कर रहा था कि अनुसुइया उइके तुरंत दस्तखत कर देंगी, लेकिन ऐसा उन्होंने किया नहीं, उलटे राज्य सरकार से दस सवाल पूछ डाले, जिन का मजमून यह था कि आरक्षण देने के पहले उस ने जातिगत आंकड़ों का सर्वे किया है या नहीं और क्या 50 फीसदी से ज्यादा रिजर्वेशन दिया जा सकता है. उन्होंने कानून के जानकारों से मशवरा लेने की बात कहते हुए भी जोश से भरे मंत्रियों को टरका दिया.
इस से आदिवासी युवाओं की उम्मीदों को झटका लगा, क्योंकि सरकारी नौकरियां उन के हाथ में आने से पहले ही खिसकती नजर आ रही थीं. इधर मौका देख कर भूपेश बघेल और कांग्रेसियों ने अनुसुइया उइके पर चढ़ाई कर दी. देखते ही देखते विधेयक अधर में लटक गया. हैरत तो तब और हुई, जब दस बेकार से सवालों के जवाब भी सरकार ने दे दिए, लेकिन राज्यपाल टस से मस नहीं हुईं.
तूल पकड़ते इस मामले पर सियासत उस वक्त और गरमा गई, जब अनुसुइया उइके दिल्ली जा कर अपने आकाओं से इस मसले को ले कर मिलीं, पर किसी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या गृह मंत्री ने आदिवासियों से हमदर्दी नहीं दिखाई. अगर दिखाई होती तो तय है कि वे तुरंत दस्तखत कर विधेयक राज्य सरकार को दे देतीं और यह कानून की शक्ल में लागू हो जाता.
देरी का नुकसान यह हुआ कि बेमतलब के मुद्दे खड़े होने लगे, मसलन यह कि रोस्टर कैसा रहेगा? जिन 16 जिलों में पिछड़ों की तादाद ज्यादा है वहां नौकरियां कैसे दी जाएंगी?
मौका देख कर भाजपाई भी मैदान में यह कहते हुए कूद पड़े कि पिछड़ों को ज्यादा आरक्षण दिया जाना चाहिए, क्योंकि उन की आबादी ज्यादा है. लेकिन अब तक यह हवा भी आंधी बन कर फिजांओं में धमक देने लगी थी कि राज्यपाल भाजपा के इशारे पर नाच रही हैं, जो आदिवासियों के भले की तरफ पीठ कर सोती हैं, इसलिए तरहतरह के अड़ंगे डाल रही हैं. रही बात पिछड़ों की, तो उन का आरक्षण भी भूपेश बघेल सरकार ने बढ़ाया ही है, इसलिए भाजपा के बहकावे में वे नहीं आएं.
रिमोट कंट्रोल हैं राज्यपाल
अनुसुइया उइके पर भाजपा के इशारे पर नाचने का इलजाम कांग्रेसी तो लगाते ही रहे, लेकिन खुल कर बात कही भारतीय ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता लौटन राम निषाद ने कि अनुसुइया उइके अगर आदिवासी न होतीं, तो भाजपा के दफ्तर में झाड़ू लगा रही होतीं.
उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा और संघ का जन्म ही सामाजिक न्याय, संविधान व लोकतंत्र के विरोध में हुआ है. इन्होंने मंडल कमीशन का भी विरोध किया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी लोटन राम निषाद ने यह कहते हुए निशाना साधा कि वे पिछड़ों का शिकार करने के लिए संघ का चारा हैं.
बात सही है, क्योंकि भगवा गैंग का पूरा ध्यान सवर्णों और उन में भी ब्राह्मणों की तरफ ज्यादा है. मंदिरों और पूजापाठ पर बेतहाशा पैसा फूंका जा रहा है. राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदू राष्ट्र बनाया जा रहा है, जिस से दलित, पिछड़े और आदिवासी पिछड़ रहे हैं. दिनरात हिंदूमुसलिम का राग अलापा जाना भी किसी सुबूत का मुहताज नहीं.
ऐसे बिगड़ते माहौल में आदिवासियों को अगर आरक्षण मिल रहा था, तो भगवा गैंग को यह नागवार गुजरा और उस ने राज्यपाल के जरीए उस में भी टांग फंसा दी.
फायदे में कांग्रेस
इस साल छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने हैं. लिहाजा, यह विधेयक बड़ा मुद्दा बन गया है, जिस का पूरा फायदा कांग्रेस उठाएगी. पिछड़ों का समर्थन और साथ तो उसे मिला ही हुआ है, अब आदिवासी भी उस के खेमे में पूरी तरह आ सकते हैं. सधे और मंझे हुए खिलाड़ी की तरह भूपेश बघेल ने अपनी चाल चल दी है, जिस में भाजपा फंस भी गई है.
अगर अनुसुइया उइके दिल्ली की तरफ नहीं ताकतीं, तो कांग्रेस को कोई खास फायदा नहीं होता. कांग्रेस की मंशा बहुत साफ है कि अगर आदिवासियों और पिछड़ों के आधे से कुछ ज्यादा वोट भी उसे मिल जाएं, तो दूसरी बार सत्ता में आने से उसे कोई रोक नहीं सकता.
10 साल सत्ता में रहने के बाद भी भाजपा ने इन तबकों के भले के लिए ऐसा कुछ किया नहीं, जिस के दम पर वोट मांगे जा सकें, इसीलिए साल 2018 के चुनाव में रमन सिंह सरकार औंधे मुंह गिरी थी. तब कांग्रेस को 90 में से
68 सीटें मिली थीं और भाजपा महज
15 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. इस नतीजे से साबित यह भी हुआ था कि अकेले सवर्णों के बूते भाजपा सत्ता हासिल नहीं कर सकती.
नुकसान में आदिवासी
ऐसा नहीं है कि यह बात अकेले छत्तीसगढ़ में सिमट कर रह गई है, बल्कि उस से सटे मध्य प्रदेश , महाराष्ट्र और ओडिशा के आदिवासियों में भी गलत मैसेज गया है कि भाजपा नहीं चाहती कि आदिवासी पढ़ेंलिखें, सरकारी नौकरियों में ज्यादा आएं, गैरतमंद और पैसे वाले बनें. उस की नजर में तो यह हक केवल ऊंची जाति वालों का ही है, जिन की तूती मोदी राज में देशभर में बोल रही है.
किसी को इस बात से भी मतलब नहीं कि तकरीबन 90 फीसदी आदिवासी नौजवान बेरोजगार घूम रहे हैं और पेट पालने के लिए दूसरे शहरों में जा कर मेहनतमजदूरी और दूसरी छोटमोटी नौकरियां करने पर मजबूर हैं.
इस हकीकत से भी कोई वास्ता नहीं रखना चाहता कि 50 फीसदी से भी ज्यादा आदिवासी बच्चे मिडिल के बाद स्कूली पढ़ाई छोड़ देने पर मजबूर रहते हैं, क्योंकि घरखर्च चलाने के लिए उन्हें कमाने के लिए दुनिया के बाजार में उतरना पड़ता है. अब यही बच्चे अगर ग्रेजुएशन कर पाएं, तो अच्छी सरकारी नौकरी, जो आरक्षण से ही मुमकिन
है, हासिल कर गैरत की जिंदगी जी
सकते हैं.
कहने का मतलब यह नहीं कि एक विधेयक से रातोंरात उन की बदहाली दूर हो जाएगी, लेकिन कुछ न होने से कुछ होना बेहतर तो होता है.

लोगों के लिए शादियां बनी जुआ

शादियां अब हर तरह के लोगों के लिए एक जुआ बन गई हैं जिस में सबकुछ लुट जाए तो भी बड़ी बात नहीं. राजस्थान की एक औरत ने साल 2015 में कोर्ट मैरिज की पर शादी के बाद बीवी मर्द से मांग करने लगी कि वह अपनी जमीन उस के नाम कर दे वरना उसे अंजाम भुगतने पड़ेंगे. शादी के 8 दिन बाद ही वह लापता हो गई पर उस से मिलतीजुलती एक लाश दूर किसी शहर में मिली जिसे लावारिस सम?ा कर जला दिया.

औरत के लापता होने के 6 माह बाद औरत के पिता ने पुलिस में शिकायत की कि उस के मर्द ने उन की बेटी की एक और जने के साथ मिल कर हत्या कर दी है. दूर थाने की पुलिस ने पिता को जलाई गई लाश के कपड़े दिखाए तो पिता ने कहा कि ये उन की बेटी के हैं. मर्द और उस के एक साथी को जेल में ठूंस दिया गया. 7 साल तक मर्द जेलों में आताजाता रहा. कभी पैरोल मिलतीकभी जमानत होती.

अब 7 साल बाद वह औरत किसी दूसरे शहर में मिली और पक्की शिनाख्त हुई तो औरत को पूरी साजिश रचने के जुर्म में पकड़ लिया गया है. आज जब सरकार हल्ला मचा रही है कि यूनिफौर्म सिविल कोड लाओक्योंकि आज इसलाम धर्म के कानून औरतों के खिलाफ हैं. असलियत यह है कि हिंदू मर्दों और औरतों दोनों के लिए हिंदू कानून ही अब आफत बने हुए हैं. अब गांवगांव में मियांबीवी के ?ागड़े में बीवी पुलिस को बुला लेती है और बीवी के रिश्तेदार आंसू निकालते छातियां पीटते नजर आते हैं तो मर्दों को गिरफ्तार करना ही पड़ता है.

शादी हिंदू औरतों के लिए ही नहींमर्दों के लिए भी आफत है. जो सीधी औरतें और गुनाह करना नहीं जानतीं वे मर्द के जुल्म सहने को मजबूर हैं पर मर्द को छोड़ नहीं सकतींक्योंकि हिंदुओं का तलाक कानून ऐसा है कि अगर दोनों में से एक भी चाहे तो बरसों तलाक न होगा. हिंदू कानूनों में छोड़ी गई औरतों को कुछ पैसा तो मिल सकता है पर उन को न समाज में इज्जत मिलती हैन दूसरी शादी आसानी से होती है.

चूंकि तलाक मुश्किल से मिलता है और चूंकि औरतें तलाक के समय मोटी रकम वसूल कर सकती हैंकोई भी नया जना किसी भी कीमत पर तलाकशुदा से शादी करने को तैयार नहीं होता. सरकार को हिंदूमुसलिम करने के लिए यूनिफौर्म सिविल कोड की पड़ी हैजबकि जरूरत है ऐसे कानून की जिस में शादी एक सिविल सम?ौता होउस में क्रिमिनल पुलिस वाले न आएं.

जब औरतें शातिर हो सकती हैंअपने प्रेमियों के साथ मिल कर पति की हत्या कर सकती हैंनकली शादी कर के रुपयापैसा ले कर भाग सकती हैंन निभाने पर पति की जान को आफत बना सकती हैं तो सम?ा जा सकता है कि देश का कानून खराब है और यूनिफौर्म सिविल कोड बने या न बने हिंदू विवाह कानून तो बदला जाना चाहिए जिस में किसी जोरजबरदस्ती की गुंजाइश न हो. यदि लोग अपनी बीवियों के फैलाए जालों में फंसते रहेंगे और औरतें मर्दों से मार खाती रहेंगी तो पक्का है कि समाज खुश नहीं रहेगा और यह लावा कहीं और फूटेगा.     

उच्चतम न्यायालय : एक अदृश्य शिकंजा

देश में आजकल राजनीतिक मंच पर एक रोचक प्रहसन चल रहा है. जिसे देश देख रहा है. इसमें देश के उच्चतम न्यायालय अर्थात सुप्रीम कोर्ट पर अपना प्रभाव नहीं देखकर, प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार के कानून मंत्री लगातार अलग-अलग वेशभूषा में आकर कभी कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का वे सम्मान करते हैं ,कभी कहते हैं कि हमारा उच्चतम न्यायालय स्वतंत्र है और धीरे से स्थितियां यह बनाने का प्रयास किया जा रहा है कि देश का उच्चतम न्यायालय पूरी तरह उनके अंकुश में आ जाए.

दरअसल ,यह सरकार के अनुरूप,  पूर्ववर्ती परंपराओं और कॉलेजियम सिस्टम के कारण नहीं हो पा रहा है. आज केंद्र में बैठी सरकार की सारी कवायद इसी में लगी हुई है कि किसी भी तरह उच्चतम न्यायालय पर अपना अंकुश हो जाए.

वर्तमान में न्यायाधीशों की नियुक्ति एक कॉलेजियम सिस्टम के तहत हो रही हैं जिसमें सरकार का कोई दखल नहीं है. ऐसे में नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार चाहती है कि किसी तरह कुछ ऐसी बात बन जाए कि जिस तरह अन्य संवैधानिक संस्थाओं सहित सीबीआई प्रवर्तन निदेशालय में नियुक्ति की डोर केंद्र सरकार के पास है वैसा ही कुछ उच्चतम न्यायालय में भी हो जाए तो अपने मनमाफिक न्यायाधीश बैठाकर देश को अपनी  एकांगी  मंशा के अनुरूप देश पर स्वतंत्र रूप से सत्ता संचालन किया जाए. आज यह प्रयास इसी पटकथा के तहत किया जा रहा है. इस तरह हम कह सकते हैं कि देश आज एक जैसे चौराहे पर खड़ा है जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. ऐसे में देश में लोकतंत्र को बचाने वली शक्तियों को आज अपनी भूमिका निभानी होगी.

नरेंद्र मोदी के कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने मौका मिलते ही 22 जनवरी 2022 को  को हाई कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के विचारों का समर्थन करने की कोशिश की है, उनके मुताबिक -“सुप्रीम कोर्ट ने खुद न्यायाधीशों की नियुक्ति का फैसला कर संविधान का ‘अपहरण’ किया है.”

देश जानता है कि हालिया समय में उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव बढ़ा है. ऐसे समय में यह बयान आना यह बताता है कि कौन-कौन कितना गिर और  उठ सकता है. अगर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम सिस्टम के तहत नियुक्तियां कर रही है  तो आज केंद्र में बैठे हुए सत्ताधारिओं को पीड़ा क्यों हो रही है.

कानून मंत्री की मंशा

कानून मंत्री किरण रिजीजू ने दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरएस सोढ़ी (सेवानिवृत्त) के एक साक्षात्कार का वीडियो साझा करते हुए कहा -” यह एक न्यायाधीश की आवाज है और अधिकांश लोगों के इसी तरह के समझदारीपूर्ण ‘विचार’ हैं. यहां यह भी समझना आवश्यक है कि आज केंद्र सरकार आंख बंद कर चाहती है कि उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति उसके मुंहर से होनी चाहिए. समझने वाली बात यह है कि अगर कोई एक पार्टी जो सत्ता में आ जाती है और उसे 5 साल के लिए उसे जनादेश मिला है वह अपने लाभ के लिए लंबे समय तक का कोई फैसला कैसे ले सकती है.

साक्षात्कार में न्यायमूर्ति सोढ़ी ने यह भी कहा कि शीर्ष अदालत कानून नहीं बना सकती, क्योंकि उसके पास ऐसा करने का अधिकार नहीं है. उन्होंने कहा कि कानून बनाने का अधिकार संसद का है. मंत्री ने ट्वीट किया कि चुने हुए प्रतिनिधि लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं और कानून बनाते हैं. हमारी न्यायपालिका स्वतंत्र है और हमारा संविधान सर्वोच्च है.

रिजीजू ने पूर्व न्यायमूर्ति सोढीं का खुलकर समर्थन करते हुए कहा यह ‘एक न्यायाधीश की आवाज’ है और अधिकांश लोगों के इसी तरह के समझदारीपूर्ण ‘विचार’ हैं.

किरण रिजिजू कानून मंत्री से यह पूछना चाहिए कि आप समझदारी भरी बातें क्यों नहीं कर रहे हैं एक न्यायाधीश कहता है तो आप ताली बजा रहे हैं सिस्टम काम कर रहा है तो आप गाल बजा रहे हैं. एक पूर्व न्यायाधीश कुछ कहता है तो आप समर्थन में खड़े हो जाते हैं देश का उच्चतम न्यायालय का पूरा ढांचा चल रहा है तो आपको तकलीफ होती है. कोई इनसे पूछे कि आपको आखिर तकलीफ क्यों है क्या आपको पता नहीं है कि अगर संसद कोई गलत कानून बनाती है जो सविधान की मंशा के खिलाफ है तो उसे सुप्रीम कोर्ट रोक सकती है, क्या आपको यह पता नहीं है कि अगर संसद कानून बना सकती है तो फिर देश का उच्चतम न्यायालय भी कानून बनाता है और यह अधिकार संविधान से उसे मिला अधिकार है.

पाठकों को याद होगा कि पिछले दिनों उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इसी शैली में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम और एक संबंधित संविधान संशोधन को रद्द करने के लिए शीर्ष अदालत पर सवाल उठाया है . स्मरण रहे -आप वही धनदीप जगदीप धनखड़ हैं जिन्होंने राज्यसभा में एक विवादित अध्यादेश पास करवा दिया था और जो बाद में सरकार को वापस देना पड़ा था . कुल मिलाकर के देश में माहौल उच्चतम न्यायालय के कालेजियम प्रणाली के विरोध में बनाने का प्रयास जारी है एक अंकुश लगाने की कोशिश की जा रही है जिसके परिणाम आने वाले समय में सकते हैं.

रिजीजू ने खुलकर  न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कालेजियम प्रणाली को भारतीय संविधान के प्रतिकूल बताया है. वहीं, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम और एक संबंधित संविधान संशोधन को रद्द करने के लिए शीर्ष अदालत पर सवाल उठाया है. इधर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्तियों को मंजूर देने में देरी पर भी शीर्ष अदालत ने सरकार से सवाल किया है. भारतीय जनता पार्टी की सरकार सुप्रीम कोर्ट पर जैसा प्रभाव चाहती है तो वह भूल जाती है कि आने वाले समय में अगर सत्ता हाथ से निकल गई तो जो पार्टी सत्ता में आएगी वह इसका गलत उपयोग करेगी, तब आप पछताएंगे.

इंटरनेट बना गुस्सा निकालने का साधन

आजकल इंटरनैट आम आदमियों का अपना गुस्सा निकालने का सहज साधन बन गया है. दिल्ली, मुंबई एयरपोर्टों पर अब बहुत अधिक भीड़ होने लगी है और लोगों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह वादा खूब याद आ रहा है कि वे देश के रेलवे स्टेशनों को एयरपोर्टों जैसा शानदार बना देंगे. लोग कह रहे हैं कि एयरपोर्टों और स्टेशनों में बराबर की भीड़, पार्क के निर्माण, बाहर गाडि़यों की अफरातफरी, धक्कामुक्की बराबर है.

स्टेशन तो एयरपोर्ट नहीं बन सके, पर एयरपोर्ट भारतीय स्टेशन जरूर बन गए हैं.नरेंद्र मोदी सरकार को बधाई.आम हवाई चप्पल पहनने वाला हवाईर् यात्रा तो आज भी नहीं कर रहा पर हवाई चप्पल ही ऐसी महंगी और फैशनेबल हो गई है कि गोवा, चेन्नई, बैंगलुरु में कितने ही रबड़ की ब्रांडेड चप्पलें पहने भी दिख जाएंगे. वह वादा भी उन्होंने पूरा कर दिया.सुविधा के नाम पर कुछ स्टेशन ठीकठाक हुए हैं,

‘वंदे भारत’ नाम की कुछ ट्रेनें चली हैं पर आज अब किराए इतने बढ़ा दिए गए हैं कि एक  बार ट्रेन में जा कर 4 दिन खराब करना और 4 दिन की मजूरी खराब करने से हवाई यात्रा करना ज्यादा सस्ता है. रेलों के बढ़ते दाम, हवाई यात्रा के घटते दामों ने यह वादा भी पूरा कर लिया.

वैसे भी देश की जनता हमेशा वादों को सच होता ऐसे ही मानती रही है जैसे वह मूर्ति के आगे मन्नत को पूरी होना मानती रही है. 4 में से एक काम तो हरेक का अपनी मरजी का अपनेआप हो ही जाता है. बीमार ठीक हो जाते हैं, देरसवेर छोटीमोटी नौकरी लग ही जाती है, लड़की को काला अधपढ़ा सा पति भी मिल जाता है, 10-20 साल बाद अपना मकान बन ही जाता है, 10 में से 2-3 के धंधे भी चल निकलते हैं और इन सब को मूर्ति की दया सम?ा कर सिर ?ाकाने वाले, अंटी खाली करने वालों, चुनावी वादों में से कुछ को भी सही होता देख कर वोट डाल ही आते हैं.

जहां तक हवाई यात्रा का सवाल है, यह देश के लिए जरूरी है, जैसे आज बिजली और उस से चलने वाली चीजें फ्रिज, कूलर, पंखा, बत्ती, एसी, टीवी, मोबाइल, लैटपटौप हरेक के लिए जरूरी है, वैसे ही हवाई यात्रा हरेक के लिए जरूरी हैं. पहले जो शान हवाई यात्रा में रहती थी, जब टिकट आज के रुपए की कीमत के हिसाब से महंगे थे, वह अब कहां.

उस के लिए अमीरों ने प्राइवेट जैट रखने शुरू कर दिए हैं. नरेंद्र मोदी भी या तो 8,000 करोड़ के प्राइवेट जैट में सफर करते हैं या 20-25 किलोमीटर की यात्रा हो तो हैलीकौप्टर में आतेजाते हैं. हवाई चप्पल पहनने वाली जनता इस शान की बात भूल जाए.हवाई यात्रा जरूरी इसलिए है कि देश बहुत बड़ा है और लोग गांवों से शहरों की ओर जा रहे हैं.

उन्हें जब भी गांव वापस जाना होता है तो उन के पास 7-8 दिन रेल के सफर के नहीं होते. वे यह काम हवाई यात्रा से घंटों में कर सकते हैं.दुनियाभर में हवाई यात्रा अब रेल यात्रा की तरह हो गई है. ट्रेनें और पानी के जहाज तो अब खास लोगों के लिए रह जाएंगे जिन में होटलों जैसी सुविधाएं होंगी. लोग चलते या तैरते होटलों का मजा लेंगे और हवाई यात्रा बस काम के लिए करेंगे.

शादियां अब हर तरह के लोगों के लिए एक जुआ बन गईर् हैं जिस में सबकुछ लुट जाए तो भी बड़ी बात नहीं. राजस्थान की एक औरत ने साल 2015 में कोर्ट मैरिज की पर शादी के बाद बीवी मर्द से मांग करने लगी कि वह अपनी जमीन उस के नाम कर दे वरना उसे अंजाम भुगतने पड़ेंगे. शादी के 8 दिन बाद ही वह लापता हो गई पर उस से मिलतीजुलती एक लाश दूर किसी शहर में मिली जिसे लावारिस सम?ा कर जला दिया.

औरत के लापता होने के 6 माह बाद औरत के पिता ने पुलिस में शिकायत की कि उस के मर्द ने उन की बेटी की एक और जने के साथ मिल कर हत्या कर दी है. दूर थाने की पुलिस ने पिता को जलाई गई लाश के कपड़े दिखाए तो पिता ने कहा कि ये उन की बेटी के हैं. मर्द और उस के एक साथी को जेल में ठूंस दिया गया.

7 साल तक मर्द जेलों में आताजाता रहा. कभी पैरोल मिलती, कभी जमानत होती.अब 7 साल बाद वह औरत किसी दूसरे शहर में मिली और पक्की शिनाख्त हुई तो औरत को पूरी साजिश रचने के जुर्म में पकड़ लिया गया है. आज जब सरकार हल्ला मचा रही है कि यूनिफौर्म सिविल कोड लाओ, क्योंकि आज इसलाम धर्म के कानून औरतों के खिलाफ हैं.

असलियत यह है कि हिंदू मर्दों और औरतों दोनों के लिए हिंदू कानून ही अब आफत बने हुए हैं. अब गांवगांव में मियांबीवी के ?ागड़े में बीवी पुलिस को बुला लेती है और बीवी के रिश्तेदार आंसू निकालते छातियां पीटते नजर आते हैं तो मर्दों को गिरफ्तार करना ही पड़ता है.शादी हिंदू औरतों के लिए ही नहीं, मर्दों के लिए भी आफत है. जो सीधी औरतें और गुनाह करना नहीं जानतीं वे मर्द के जुल्म सहने को मजबूर हैं पर मर्द को छोड़ नहीं सकतीं, क्योंकि हिंदुओं का तलाक कानून ऐसा है कि अगर दोनों में से एक भी चाहे तो बरसों तलाक न होगा. हिंदू कानूनों में छोड़ी गई औरतों को कुछ पैसा तो मिल सकता है पर उन को न समाज में इज्जत मिलती है, न दूसरी शादी आसानी से होती है.

चूंकि तलाक मुश्किल से मिलता है और चूंकि औरतें तलाक के समय मोटी रकम वसूल कर सकती हैं, कोई भी नया जना किसी भी कीमत पर तलाकशुदा से शादी करने को तैयार नहीं होता. सरकार को हिंदूमुसलिम करने के लिए यूनिफौर्म सिविल कोड की पड़ी है, जबकि जरूरत है ऐसे कानून की जिस में शादी एक सिविल सम?ौता हो, उस में क्रिमिनल पुलिस वाले न आएं.जब औरतें शातिर हो सकती हैं, अपने प्रेमियों के साथ मिल कर पति की हत्या कर सकती हैं, नकली शादी कर के रुपयापैसा ले कर भाग सकती हैं, न निभाने पर पति की जान को आफत बना सकती हैं तो सम?ा जा सकता है कि देश का कानून खराब है और यूनिफौर्म सिविल कोड बने या न बने हिंदू विवाह कानून तो बदला जाना चाहिए जिस में किसी जोरजबरदस्ती की गुंजाइश न हो. यदि लोग अपनी बीवियों के फैलाए जालों में फंसते रहेंगे और औरतें मर्दों से मार खाती रहेंगी तो पक्का है कि समाज खुश नहीं रहेगा और यह लावा कहीं और फूटेगा.

 

लड़कियों का अन्याय सहना है गलत

एक युवा साधारण से दर्जी के यहां काम करने वाला, दिल्ली सहित कई शहरों में जा कर बीसियों लड़कियों और कुछ लड़कों का बलात्कार कर पाए यह घिनौनी हरकत न केवल डरा देने वाली है, इस समाज के अन्याय को सहने की गलत आदत की पुष्टि भी करती है. वह युवक तो अब कहता है कि उस ने 400-500 लड़कियों से जबरदस्ती की है पर पुलिस उस की निशानदेही पर केवल 15-20 तक पहुंच पाई है, क्योंकि वह युवक अनजान लड़कियों को पकड़ता था, उन्हें अकेले में ले जा कर दुराचार करता और छोड़ देता था. उसे खुद नहीं मालूम कि वे कहां रहती थीं.

इन लड़कियों के मातापिताओं ने मुंह सी रखे थे, यह ज्यादा भयावह है. इस तरह के दुर्जन होते हैं, इस का अंदाजा है पर उन के सताए लोग आज भी कानून व्यवस्था व सामाजिक मान्यताओं से इतना ज्यादा डरते हैं कि वे यातना का दुख सह लेते हैं पर हुए अपराध की सूचना नहीं देते.

आमतौर पर जेब कतरी जाए, चेन खींच ली जाए, घर में चोरी हो जाए, तो लोग तुरंत पुलिस तक पहुंच जाते हैं पर सैकड़ों मातापिता अपनी बच्चियों के साथ हुई बलात्कार की घटना की शिकायत पुलिस में यह सोच न करें कि कहीं उन की इज्जत पर बट्टा न लग जाए, यह सरकार की नाक काटने के बराबर है. यह कैसी सरकार है जिस ने इस सीरियल अपराध पर मुंह सी रखा है और जो सफाई मिल रही है वह छोटे इंस्पैक्टरों से मिल रही है.

साफ है हमारे यहां सरकारें राज करने आती हैं, राज चलाने नहीं. नेता चुनाव लड़ कर, जीत कर पद का लाभ उठाना चाहते हैं, कर्तव्य पूरा नहीं करना चाहते. यदि जनता को नेताओं व पुलिस पर भरोसा होता तो इन पीडि़तों में से आधे तो अपने क्षेत्र के नेताओं से मिलते और व्यथा सुनाते. लगता है आम आदमी को पूरा एहसास है कि सरकार तो क्या सरकार का सांसद, विधायक, पार्षद, सरपंच, पंच सब इस तरह राजनीति के स्विमिंग पूल में नहाने में व्यस्त हैं कि जनता की समस्याओं से कोई लेनादेना नहीं और उन के दरवाजे खटखटाने से कोई लाभ नहीं.

देश की स्थिति इस बुरी तरह खराब होगी कि एक अदना सा पर हिम्मती युवा इतना जघन्य काम लगातार कई सालों तक कर सके, देश की नाक कटाने वाला है. हम अपने को किस तरह का विश्व गुरु कहते हैं, किस मुंह से अपनी सभ्यता का बखान करते हैं, कैसे अपनी संस्कृति का ढोल पीटते हैं जब हमारे बीच ऐसे युवा मजे से सामाजिक व्यवस्था तारतार कर हमें जानवरों माफिक बनाते हैं? तिरंगे को सलाम या तिरंगे के अपमान पर बौखलाना देशभक्ति नहीं है, यह सिर्फ दिखावा है. जो देश समाज को सुरक्षा न दे सके उसे ज्यादा हांकना तो नहीं चाहिए.

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