होना तो यह चाहिए था कि आदिवासी समुदाय की होने के नाते छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसुइया उइके नए विधेयक का स्वागत करते हुए न केवल उस पर दस्तखत कर अपनी मंजूरी देतीं, बल्कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का शुक्रिया भी अदा करतीं, जो उन्होंने गैरआदिवासी होते हुए भी आदिवासियों के भले की पहल की, लेकिन हुआ उलटा.
राज्यपाल महोदया ने विधेयक को सवालों की सूली पर लटका कर जता दिया कि उन्हें अपने समाज के लोगों की बदहाली से ज्यादा भगवा गैंग के उन उसूलों की फिक्र है, जिन के तहत आदिवासियों को पिछड़ा और बदहाल बनाए रखने की साजिश सदियों से रची जाती रही है.
राजनीति में दिलचस्पी और दखल रखने वालों को बेहतर याद होगा कि ये वही अनुसुइया उइके हैं, जिन का नाम राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू से पहले और ज्यादा चला था, क्योंकि उन के पास अनुभव ज्यादा है और वे खासी पढ़ीलिखी भी हैं.
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के तामिया के कालेज में असिस्टैंट प्रोफैसर की नौकरी करते हुए वे समाजसेवा के कामों में भी हिस्सा लेने लगी थीं और आदिवासी हितों खासतौर से औरतों के मुद्दे जोरशोर से उठाया करती थीं.
अब से तकरीबन 35 साल पहले मध्य प्रदेश की राजनीति में आदिवासी मर्द तो कई थे, लेकिन औरतों का टोटा था. तब छिंदवाडा के सांसद कमलनाथ की नजर तेजतर्रार बौयकट बाल रखने वाली अनुसुइया उइके पर पड़ी और वे उन्हें सक्रिय राजनीति में ले आए. आदिवासियों ने भी उन्हें हाथोंहाथ लिया और साल 1985 में दमुआ विधानसभा से उन्हें कांग्रेस के टिकट से जिता कर विधानसभा भेजा.
बाद में मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया. उस वक्त में धाकड़ आदिवासी नेता जमुना देवी के बाद अनुसुइया उइके दूसरी नेत्री थीं, जिन से आदिवासियों ने कई उम्मीदें बांध ली थीं.
ये उम्मीदें तब टूटी थीं, जब अनुसुइया उइके कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गई थीं और उन्होंने आदिवासियों के हक का राग अलापना बंद कर दिया था. साल 2019 में छत्तीसगढ़ का राज्यपाल बना कर भाजपा ने उन्हें उन की वफादारी का इनाम दे दिया था. राष्ट्रपति पद की दौड़ में वे केवल इसलिए पिछड़ गई थीं, क्योंकि उन पर कांग्रेसी होने का ठप्पा लगा था.
आदिवासी समाज के भले का विधेयक पिछले साल दिसंबर की
2 तारीख को विधानसभा में छत्तीसगढ़ लोक सेवा संशोधन विधेयक 2022 सभी दलों की रजामंदी से पास किया था, जिस में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण के इंतजाम नए सिरे से किए गए थे, जिस के तहत अनुसूचित जनजाति यानी एसटी को 32 फीसदी, अनुसूचित जाति यानी एससी को 13 फीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण दिया गया था.
आर्थिक तौर पर कमजोर यानी गरीबों के लिए भी 4 फीसदी आरक्षण के इंतजाम इस में किए गए हैं. इस तरह कुल आरक्षण 76 फीसदी हो गया. इस व्यवस्था को और सरल तरीके से समझें, तो अगर किसी भी सरकारी नौकरी की 100 पोस्ट निकलती हैं, तो उन में आदिवासियों के 32, दलितों के 13 ओबीसी के 27 और गरीब तबके के 4 उम्मीदवार नौकरी से लग जाते, बाकी 24 नियुक्तियां सामान्य वर्ग के यानी सवर्ण तबके के खाते में जातीं.
इसे आरक्षण का एक आदर्श मौडल हर लिहाज से कहा जा सकता है, क्योंकि राज्य में कुल आबादी का तकरीबन
32 फीसदी आदिवासी और 42 फीसदी पिछड़े हैं, जो हर लिहाज से बेहतर हालत में हैं. इतना ही नहीं 12 फीसदी दलितों को भी उम्मीद और जरूरत के मुताबिक आरक्षण मिल गया है.
तो फिर अडं़गा क्यों
इस विधेयक के पास होते ही कांग्रेसियों ने कुदरती तौर पर जश्न मनाया और आतिशबाजी चलाई, लेकिन जैसे ही कुछ सीनियर मंत्री राज्यपाल के पास विधेयक ले कर पहुंचे तो बात बिगड़ गई, जबकि हर कोई उम्मीद कर रहा था कि अनुसुइया उइके तुरंत दस्तखत कर देंगी, लेकिन ऐसा उन्होंने किया नहीं, उलटे राज्य सरकार से दस सवाल पूछ डाले, जिन का मजमून यह था कि आरक्षण देने के पहले उस ने जातिगत आंकड़ों का सर्वे किया है या नहीं और क्या 50 फीसदी से ज्यादा रिजर्वेशन दिया जा सकता है. उन्होंने कानून के जानकारों से मशवरा लेने की बात कहते हुए भी जोश से भरे मंत्रियों को टरका दिया.
इस से आदिवासी युवाओं की उम्मीदों को झटका लगा, क्योंकि सरकारी नौकरियां उन के हाथ में आने से पहले ही खिसकती नजर आ रही थीं. इधर मौका देख कर भूपेश बघेल और कांग्रेसियों ने अनुसुइया उइके पर चढ़ाई कर दी. देखते ही देखते विधेयक अधर में लटक गया. हैरत तो तब और हुई, जब दस बेकार से सवालों के जवाब भी सरकार ने दे दिए, लेकिन राज्यपाल टस से मस नहीं हुईं.
तूल पकड़ते इस मामले पर सियासत उस वक्त और गरमा गई, जब अनुसुइया उइके दिल्ली जा कर अपने आकाओं से इस मसले को ले कर मिलीं, पर किसी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या गृह मंत्री ने आदिवासियों से हमदर्दी नहीं दिखाई. अगर दिखाई होती तो तय है कि वे तुरंत दस्तखत कर विधेयक राज्य सरकार को दे देतीं और यह कानून की शक्ल में लागू हो जाता.
देरी का नुकसान यह हुआ कि बेमतलब के मुद्दे खड़े होने लगे, मसलन यह कि रोस्टर कैसा रहेगा? जिन 16 जिलों में पिछड़ों की तादाद ज्यादा है वहां नौकरियां कैसे दी जाएंगी?
मौका देख कर भाजपाई भी मैदान में यह कहते हुए कूद पड़े कि पिछड़ों को ज्यादा आरक्षण दिया जाना चाहिए, क्योंकि उन की आबादी ज्यादा है. लेकिन अब तक यह हवा भी आंधी बन कर फिजांओं में धमक देने लगी थी कि राज्यपाल भाजपा के इशारे पर नाच रही हैं, जो आदिवासियों के भले की तरफ पीठ कर सोती हैं, इसलिए तरहतरह के अड़ंगे डाल रही हैं. रही बात पिछड़ों की, तो उन का आरक्षण भी भूपेश बघेल सरकार ने बढ़ाया ही है, इसलिए भाजपा के बहकावे में वे नहीं आएं.
रिमोट कंट्रोल हैं राज्यपाल
अनुसुइया उइके पर भाजपा के इशारे पर नाचने का इलजाम कांग्रेसी तो लगाते ही रहे, लेकिन खुल कर बात कही भारतीय ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता लौटन राम निषाद ने कि अनुसुइया उइके अगर आदिवासी न होतीं, तो भाजपा के दफ्तर में झाड़ू लगा रही होतीं.
उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा और संघ का जन्म ही सामाजिक न्याय, संविधान व लोकतंत्र के विरोध में हुआ है. इन्होंने मंडल कमीशन का भी विरोध किया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी लोटन राम निषाद ने यह कहते हुए निशाना साधा कि वे पिछड़ों का शिकार करने के लिए संघ का चारा हैं.
बात सही है, क्योंकि भगवा गैंग का पूरा ध्यान सवर्णों और उन में भी ब्राह्मणों की तरफ ज्यादा है. मंदिरों और पूजापाठ पर बेतहाशा पैसा फूंका जा रहा है. राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदू राष्ट्र बनाया जा रहा है, जिस से दलित, पिछड़े और आदिवासी पिछड़ रहे हैं. दिनरात हिंदूमुसलिम का राग अलापा जाना भी किसी सुबूत का मुहताज नहीं.
ऐसे बिगड़ते माहौल में आदिवासियों को अगर आरक्षण मिल रहा था, तो भगवा गैंग को यह नागवार गुजरा और उस ने राज्यपाल के जरीए उस में भी टांग फंसा दी.
फायदे में कांग्रेस
इस साल छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने हैं. लिहाजा, यह विधेयक बड़ा मुद्दा बन गया है, जिस का पूरा फायदा कांग्रेस उठाएगी. पिछड़ों का समर्थन और साथ तो उसे मिला ही हुआ है, अब आदिवासी भी उस के खेमे में पूरी तरह आ सकते हैं. सधे और मंझे हुए खिलाड़ी की तरह भूपेश बघेल ने अपनी चाल चल दी है, जिस में भाजपा फंस भी गई है.
अगर अनुसुइया उइके दिल्ली की तरफ नहीं ताकतीं, तो कांग्रेस को कोई खास फायदा नहीं होता. कांग्रेस की मंशा बहुत साफ है कि अगर आदिवासियों और पिछड़ों के आधे से कुछ ज्यादा वोट भी उसे मिल जाएं, तो दूसरी बार सत्ता में आने से उसे कोई रोक नहीं सकता.
10 साल सत्ता में रहने के बाद भी भाजपा ने इन तबकों के भले के लिए ऐसा कुछ किया नहीं, जिस के दम पर वोट मांगे जा सकें, इसीलिए साल 2018 के चुनाव में रमन सिंह सरकार औंधे मुंह गिरी थी. तब कांग्रेस को 90 में से
68 सीटें मिली थीं और भाजपा महज
15 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. इस नतीजे से साबित यह भी हुआ था कि अकेले सवर्णों के बूते भाजपा सत्ता हासिल नहीं कर सकती.
नुकसान में आदिवासी
ऐसा नहीं है कि यह बात अकेले छत्तीसगढ़ में सिमट कर रह गई है, बल्कि उस से सटे मध्य प्रदेश , महाराष्ट्र और ओडिशा के आदिवासियों में भी गलत मैसेज गया है कि भाजपा नहीं चाहती कि आदिवासी पढ़ेंलिखें, सरकारी नौकरियों में ज्यादा आएं, गैरतमंद और पैसे वाले बनें. उस की नजर में तो यह हक केवल ऊंची जाति वालों का ही है, जिन की तूती मोदी राज में देशभर में बोल रही है.
किसी को इस बात से भी मतलब नहीं कि तकरीबन 90 फीसदी आदिवासी नौजवान बेरोजगार घूम रहे हैं और पेट पालने के लिए दूसरे शहरों में जा कर मेहनतमजदूरी और दूसरी छोटमोटी नौकरियां करने पर मजबूर हैं.
इस हकीकत से भी कोई वास्ता नहीं रखना चाहता कि 50 फीसदी से भी ज्यादा आदिवासी बच्चे मिडिल के बाद स्कूली पढ़ाई छोड़ देने पर मजबूर रहते हैं, क्योंकि घरखर्च चलाने के लिए उन्हें कमाने के लिए दुनिया के बाजार में उतरना पड़ता है. अब यही बच्चे अगर ग्रेजुएशन कर पाएं, तो अच्छी सरकारी नौकरी, जो आरक्षण से ही मुमकिन
है, हासिल कर गैरत की जिंदगी जी
सकते हैं.
कहने का मतलब यह नहीं कि एक विधेयक से रातोंरात उन की बदहाली दूर हो जाएगी, लेकिन कुछ न होने से कुछ होना बेहतर तो होता है.

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