Hindi Story: मास्टर मटरूराम

Hindi Story, लेखक – हरे राम मिश्र

दिल्ली के पहाड़गंज में बने उस चमचमाते होटल में, जहां मास्टर मटरूराम हर महीने की 28 तारीख को अपने कारोबार के सिलसिले में रात को रुकते थे, तीसरे फ्लोर के कमरा नंबर 2 में 19 साल की एक बेहद खूबसूरत बर्फ सी सफेद, गोरे बदन वाली लड़की जूली बिस्तर पर बिछी, पर सिकुड़न भरी सफेद चादर पर आड़ीतिरछी बिना कपड़ों के पड़ी हुई थी.

आखिर एक घंटे तक मास्टर मटरूराम द्वारा रौंदे जाने के बाद वह बेसुध हो कर अपनी बचीखुची ताकत को दोबारा इकट्ठा कर के अगली बार के लिए खुद को दिमागी और जिस्मानी तौर पर तैयार कर रही थी.

मास्टर मटरूराम जैसे कांइयां और पैसा वसूल सोच के शख्स, जो पूरी दुनिया को सिर्फ नफा और नुकसान के नजरिए से ही देखने का आदी था, ने बहुत ही दर्दनाक तरीके से किए गए सैक्स से जूली को अंदर तक हिला डाला था.

जूली इस बेइंतिहा दर्द को महसूस कर सकती थी. बेदर्दी से रौंदे जाने से उपजी थकान और दर्द से टूटते बदन से वह बेदम सी हो गई थी. वह मन ही मन बुदबुदा रही थी कि किस ‘कसाई’ से आज उस का पाला पड़ गया है.

जूली होटल के इस कमरे को छोड़ कर भागना चाहती थी, लेकिन अपने उस चचेरे भाई, जो इस धंधे में उस का ‘दलाल’ भी था, को धोखा नहीं दे सकती थी. यही ‘दलाल’ उस के लिए 30 फीसदी कमीशन पर अकसर अमीर ग्राहक का जुगाड़ कर देता था, जो अमूमन कौर्पोरेट कंपनियों के अफसरों से ले कर बड़े सरकारी मुलाजिम और नेता तक होते थे.

चूंकि उस के सिर पर दिल्ली के एक मंत्री का हाथ था. लिहाजा, पुलिस के लफड़े और बेगार में अपनी ‘सैक्स सेवा’ देने से वह बच जाती थी.

जूली हमबिस्तरी के लिए अकसर अमीर ग्राहक ही चुनती थी, क्योंकि अपनी कैंसर से पीडि़त मां के इलाज, जांच और दवा के लिए उसे अकसर बड़ी रकम का जुगाड़ करना होता था. जिस्म के बाजार में वह यह जान चुकी थी कि जवानी ढलते ही उसे कुत्ता भी नहीं सूंघेगा, इसलिए सेवा के बदले पूरा पैसा वसूल करना उस के दिमाग में भरा हुआ था.

खैर, होटल पहुंचते ही मास्टर मटरूराम ने अपने ड्राइवर अनोखेलाल तिवारी को पहले ही बाहर भेज दिया था. वह उन का बेहद ही खास कारिंदा था, जो अकसर उन की गैरहाजिरी में उन की फर्म का हिसाबकिताब भी देख लेता था और कभीकभी नकद रकम भी उन के घर तक ले आता था.

इस होटल में चखना, दारू और डिनर का इंतजाम अनोखेलाल ही करता था. मास्टर मटरूराम और अनोखेलाल की पहचान उन के टैंपो चलाने के दिनों से थी. दोनों साथ बैठ कर देशी ठर्रा पीते थे.

समय के साथ मास्टर मटरूराम नेता बन गए और अनोखेलाल मामूली ड्राइवर ही रह गया. भले ही दोनों हमउम्र थे, लेकिन उन के बीच विश्वास की डोर बहुत मजबूत थी.

मास्टर मटरूराम अनोखेलाल पर काफी भरोसा करते थे और अनोखेलाल ने कभी उस भरोसे को दागदार नहीं होने दिया था.

अनोखेलाल को ड्राइवर रखने का एक फायदा और था. अपने समाज की मीटिंग में सामने खड़ी जनता को मटरूराम बहुत दावे से बताते थे कि अपनी गुलामी के दिन अब जा चुके हैं. हमें अब ताकतवर होना है और उन्हें नौकर रखना है, जिन्होंने हम पर अब तक राज किया है.

हालांकि, असलियत यह थी कि अपनी जातबिरादरी के लोगों को मास्टर मटरूराम ने इसलिए ड्राइवर नहीं रखा, क्योंकि जात और समाज को यह नहीं जानना चाहिए कि मास्टर मटरूराम असल में क्या हैं, वरना सियासत में दिक्कत होती है. अपनी जात से एक खास दूरी सियासत में जमे रहने के लिए बहुत जरूरी होती है, ऐसा मास्टर मटरूराम का मानना था.

खैर, इसी कमरे में सफेद रोशनी से चमचमाते बिस्तर से कुछ ही दूरी पर रखे गए एक बड़े से सोफे पर एक सफेद वी कट कच्छा पहने मास्टर मटरूराम बैठ कर ह्विस्की पी कर उस का स्वाद ले रहे थे. वे 1-2 पैग से ज्यादा कभी नहीं पीते थे, लेकिन कम से कम 2 घंटे जरूर लगाते थे.

सामने रखी टेबल पर काजू और बादाम के साथ भुने हुए लहसुन और सामने पीसों में कटे हुए सेब, केला और प्याज की पकौड़ी की प्लेट सजी हुई थी. बस वे हर चुसकी के बाद चखना मुंह में भरते और आंखें मूंद कर दोनों के स्वाद का पूरा मजा लेते.

हालांकि, कमरे में ही बिना कपड़ों के लेटी जूली से मास्टर मटरूराम ने एक बार भी यह नहीं पूछा कि क्या वह भी उन के साथ कुछ खानापीना चाहेगी?

इस मामले में मास्टर मटरूराम इस तरह से बरताव कर रहे थे, जैसे कमरे में कोई और मौजूद ही न हो या फिर उन्हें एक ‘धंधेवाली’ को तवज्जुह देने की कोई जरूरत नहीं है.

कमरे की सफेद रोशनी में गोरे और साफ चेहरे वाले मास्टर मटरूराम के चेहरे पर एक अलग किस्म की चमक दिख रही थी. उन्होंने गले में सोने की एक मोटी चेन भी पहन रखी थी, जो इस रोशनी में कुछ अलग ही चमक रही थी. अपनी चालढाल और बरताव में वे खुद को दबंग के तौर पर दिखाते थे.

शराब की चुसकी के बीच कुछ देर के बाद वे अपनी मूंछ भी मरोड़ते थे. उन के अपने इलाके में कुछ ऊंची जाति के लोग उन्हें एक खूनी मानते थे, जिस ने कम से कम एक ब्राह्मण की हत्या की है. हालांकि, इस का सच क्या है, इस पर किसी के पास कोई ठोस सुबूत नहीं था. पुलिस आज तक उन्हें पूछताछ के लिए भी नहीं बुला सकी थी.

उन के समाज के लोग यह मानते थे कि इस तरह जंजीर पहनने का मतलब इलाके के क्षत्रियों को यह बताना होता है कि हम आप को कुछ नहीं सम?ाते. हम भी इन क्षत्रियों से किसी भी मामले में कम नहीं हैं.

हमारे समाज का नेता भी क्षत्रियों से कमतर बरताव किसी भी कीमत पर नहीं करता है. हम भी अब जमींदार हैं और कोई हमें टक्कर नहीं दे सकता.

शराब पीते हुए, उस की चुसकी के बीच अपने आई फोन से बीचबीच में किसी को तेज आवाज में मास्टर मटरूराम गंदीगंदी गालियां देते और फिर भुना काजू खाते. शायद यह उन के घर का केयरटेकर था, जो उन के जातसमाज से ही आता था. उस का काम उन के विदेशी कुत्ते की ढंग से देखभाल करना था, जिस में नाकाम होने पर वह मास्टर मटरूराम से गालियां सुन रहा था.

दरअसल, मास्टर मटरूराम का महंगा विदेशी कुत्ता किसी देशी कुतिया के चक्कर में गेट से बाहर निकल कर भाग गया था, जिसे देशी कुत्तों ने नोंचनोंच कर घायल कर दिया था. इस तरह उन का कुत्ता करैक्टर का ‘लूज’ होता जा रहा था. लूज करैक्टर का कुत्ता घर की रखवाली नहीं कर सकता, ऐसा उन का मानना था.

जिस काम के लिए आज अचानक मास्टर मटरूराम को दिल्ली आना पड़ा था, वह खास काम था.

दरअसल, मास्टर मटरूराम को एक ऐसा फोन आने की उम्मीद थी, जिस से उन्हें 50 लाख की तीसरी किस्त की सूचना मिलने वाली थी. 2 किस्त वे पहले ही ले चुके थे.

पैसा कल मिलना था. बस, फोन पर केवल जगह का फिक्स होना बाकी था, जिस के लिए वे दिल्ली के इस होटल में इंतजार और मजा कर रहे थे.

थोड़ा सुरूर में आने पर फोन पर ही वे अपनी किसी तथाकथित प्रेमिका को मसूरी ट्रिप पर ले चलने और ‘मस्ती’ करने के प्लान के बारे में भी बोलते थे.

मास्टर मटरूराम भले ही इन दिनों अपने इलाके के बड़े नेता बन चुके थे, लेकिन यहां तक पहुंचने के लिए उन की 20 साल की जद्दोजेहद थी. यह एक ऐसे लड़के का उदय था, जो अपने परिवार के चमड़ा छीलने और संवारने के पुश्तैनी काम को छोड़ कर, कपड़ा सिलने के काम में शिफ्ट होता है.

हालांकि, यहां से भी मन उचटने पर वह टैंपो ड्राइवर बनता है. फिर टैंपो यूनियन का कार्यकर्ता और फिर अपनी ग्राम पंचायत का सदस्य बनने से ले कर सरपंच और जिला लैवल का नेता बन जाता है. ‘मास्टर’ शब्द उन के कपड़ा सिलने के समय का लोगों का दिया हुआ नाम था, जिसे उन्होंने अपने नाम के पहले जोड़ लिया था.

अपनी 20 साल की इस सियासी जिंदगी में मास्टर मटरूराम ने यह सीखा कि जातसमाज का नेता बनना आसान नहीं है. उन्होंने अपने पैर जमाने के लिए काफी मेहनत की थी.

उन के मुताबिक, समाज की समस्याओं को पहचानना, उस के खिलाफ लड़ाई का बीड़ा उठाना, भाषणों में उन्हें दोहराना ही समाज के भीतर किसी नेता के मशहूर होने का सब से बेहतर तरीका है.

उन का यह भी सोचना था कि समाज की समस्याओं पर बात करना, समस्याओं के हल करने के बारे में बात करना ही समाज में मजबूती दिलाता है. इस के साथ खुद को सामाजिक और पैसे के तौर पर मजबूत करने पर भी काम होना चाहिए. बिना पैसे की मजबूती के सियासी मजबूती का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि चुनाव में पैसा लगता है.

भले ही मास्टर मटरूराम 5वीं जमात से आगे स्कूल नहीं जा सके, लेकिन अपने अनुभव से यह सीख लिया कि जातसमाज का ‘विश्वास’ कैसे जीता जाता है. वे मानते थे कि कम बोलना भी अपने समाज पर असर जमाने का एक अच्छा तरीका होता है.

अपने शुरुआती दिनों में तकरीबन 3 साल तक टैंपो यूनियन के संगठन में बिताने के बाद मास्टर मटरूराम ने अपने समुदाय के लिए एक संगठन बनाया था. संगठन में इस नजरिए को मजबूत करने की बात हुई कि अपनी जातसमाज के लोग पहले राजा थे. अब हमें वह दौर फिर से वापस लाना है. अपने समाज को शासक बनाना है.

इस के लिए उन्होंने अपने समाज के किसी एक काल्पनिक देवता के नाम को गढ़ा और खुद को उस का वंशज घोषित किया, जो एक बड़ा काम करने के, अपने समाज के उद्धार के लिए इस धरती पर आ चुका था. ऐसा शख्स, जो समाज के लिए खटने और कुछ चमत्कार करने के लिए आया था.

शुरुआत में मास्टर मटरूराम के जातसमाज के लोगों ने उन के इस दावे पर कम ध्यान दिया, लेकिन कुछ समय बाद ऊंची जाति के लड़कों से ‘तूतूमैंमैं’ या सामान्य सी मारपीट के बाद इलाके के लोगों का ध्यान उन की तरफ गया. आखिर इन ब्राह्मण के लौंडों को पीटने की हिम्मत किसी आम कलेजे में नहीं हो सकती. यह उन की निगाह में संघर्ष की शुरुआत थी. और फिर, आम लोग उन के राजा बननेबनाने की बात में रुचि भी लेने लगे.

तकरीबन एक साल में ही मास्टर मटरूराम ने समाज से मिले चंदे पर एक कार खरीदी, कुछ पैसे भी जोड़े और अपने छोटे भाई को सीमेंटबालू की सप्लाई का एक कारोबार भी शुरू करवा दिया, जो चल निकला.

अपनी जातसमाज के लिए काम करते हुए मास्टर मटरूराम को इसी समाज से पहचान, पैसा, प्रचार सबकुछ मिला. सरपंच के अगले चुनाव में वे ब्राह्मणों के उम्मीदवार को हराते हुए सरपंच भी बने और कुछ साल के भीतर ही वे जिला पंचायत के सदस्य भी बन गए.

इलाके में ब्राह्मण ज्यादा नहीं थे, कोरियों की तादाद ज्यादा थी. ब्राह्मणों के मैदान से हटते ही कोरियों से इन के समुदाय का सीधा मुकाबला होने लगा.

इलाके में मास्टर मटरूराम की जातसमाज और कोरी, दोनों समुदायों की तादाद तकरीबन बराबर थी. मास्टर मटरूराम को लगने लगा कि वे एक दिन विधायक भी बन सकते हैं और कोरियों के दबदबे वाली इस सीट से उन्हें खदेड़ा जा सकता है.

मास्टर मटरूराम अपनी मुहिम में लग गए और ‘अपना वोट अपना समाज’ का नारा बुलंद करने लगे. उन की लोकप्रियता बढ़ चुकी थी. आखिर कपड़ा सिलने वाला एक मामूली दर्जी, जिसे गांव में सब ‘मास्टर’ बोलते थे, आज अपने समाज की एक ऐसी हस्ती बन चुके थे, जिन्हें इलाके के सामाजिक संगठन, जातसमाज की पंचायतें अपने यहां बुला कर मंच पर ‘इज्जत’ देते थे.

ऐसा मास्टर, जो आम आदमी से अपनी जाति का अभिमान बन चुका था. अब समाज के लोग पुलिस थाने जाने से पहले उन का आशीर्वाद लेना जरूरी समझते थे.

हालांकि, मास्टर मटरूराम अब विधायक बनना चाहते थे. उन्हें इस के लिए पैसे की जरूरत भी थी.

लिहाजा, उन्होंने ठेकेदारी का काम भी शुरू किया. काम चल निकला. पैसे से मजबूत होने के साथ वे अपने समाज का बड़ा चेहरा पहले ही बन चुके थे. कई दलों में उन्हें अब समाज के नेता के तौर पर मंच पर बुलाया जाता था.

वे भाईचारा सम्मेलनों में शिरकत करते थे. वे मंच पर जाते भी थे तो इस नीयत से कि कोई पार्टी उन्हें टिकट दे कर उम्मीदवार बना दे. इस मुकाम पर पहुंचने में उन्होंने 25 साल का लंबा समय बिताया. अब उन की उम्र 44 साल हो गई थी.

चुनाव के समय कई पार्टियों के नेता उन से उन की जाति का वोट ट्रांसफर कराने के लिए मेलजोल रखते थे, क्योंकि उन की जेब में तकरीबन 10 से 15 हजार वोट ट्रांसफर कराने की ताकत आ गई थी, लेकिन इस के लिए वे बड़ी रकम भी लेते थे. वोटिंग के 3 दिन पहले वे तय करते थे कि किसे समर्थन देंगे.

पिछले 2 चुनाव में उन्होंने सत्ताधारी पार्टी के स्थानीय विधायक से 10 लाख रुपए ले कर अपनी जाति के वोट ट्रांसफर करवाए थे. इस के लिए उन्होंने बड़ी चालाकी से ब्राह्मणों और क्षत्रियों को कौम का दुश्मन बता दिया था.

हालांकि, इस बार के चुनाव में उम्मीदवार उलटफेर कोरी ने मास्टर मटरूराम को 30 लाख दे कर उन दलितों के वोट हासिल किए, जिन्हें वे जात का दुश्मन नंबर 3 बता चुके थे.

इस बार मास्टर मटरूराम ने अपनी जातसमाज के लोगों को समझाया कि ब्राह्मण और क्षत्रियों को बेइज्जत करने के लिए इस बार रघु पांडे की जगह उलटफेर कोरी को सपोर्ट देना है. वे चुने जाने के बाद समाज के महल्लों में विकास का काम करवाएंगे. उन्होंने भाषण भी दिया और उलटफेर कोरी के लिए खूब प्रचार भी किया.

उन के भाषण में यह बात बहुत साफ थी कि समाज के लिए काम करने वाले लोगों को समाज का साथ मिलेगा. हालांकि, वह काम क्या था, जिस पर काम होना है, इस के बारे में सार्वजानिक तौर पर कभी उन्होंने कुछ भी नहीं कहा.

खैर, विधानसभा के चुनाव हुए. चुनाव में उलटफेर कोरी की जीत हुई. ब्राह्मण और क्षत्रिय समुदाय के साथ आने, यादव समुदाय के खुले सहयोग के बावजूद 2 बार के विधायक रघु पांडे चुनाव हार गए.

पिछली बार मास्टर मटरूराम ने उन्हें समर्थन किया था, लेकिन इस बार वह समर्थन के एवज में मांगी गई बढ़ी रकम देने को तैयार नहीं हुए, लिहाजा मटरूराम ने नया लौजिक गढ़ कर 20 हजार वोट का ट्रांसफर करवा कर पूरा पाला बदल दिया.

चुनाव के बाद 2 साल बीते. मास्टर मटरूराम के जातसमाज के इलाकों में विधायक उलटफेर कोरी की तरफ से विकास का कोई काम नहीं हुआ. इस से जुड़ी जातसमाज के लोगों की शिकायतों पर भी मास्टर मटरूराम ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

हालांकि, इस इलाके के विकास के लिए वर्तमान विधायक उलटफेर कोरी ने पैस्टीसाइड बनाने वाली एक कंपनी को सरकार से कारखाना लगाने का करार करवा दिया. जब जगह को चुना गया, तो सब से पहले कारखाने से निकलने वाले कचरे और गंदे जहरीले पानी पर बात शुरू हुई. कुछ एनजीओ कार्यकर्ताओं ने इलाके में कारखाना लगाए जाने के खिलाफ स्लोगन लिखना शुरू कर दिया.

मास्टर मटरूराम के समुदाय के लोगों ने भी इस के खिलाफ धरनाप्रदर्शन शुरू कर दिया, क्योंकि कारखाने से जहरीले पानी की निकासी दलितों के गांव की तरफ होनी थी. तकरीबन 8,000 की आबादी सीधे इस की जद में थी.

मास्टर मटरूराम के जातसमाज के कुछ जोशीले नौजवानों ने कारखाने के बनने का काम मारपीट कर जबरिया रुकवा दिया. इस के खिलाफ इलाके के ऊंचे और पिछड़े समुदाय के कुछ लोग कारखाना बनने के पक्ष में खड़े हो गए.

वे लोग चाहते थे कि कारखाना लगे, ताकि जमीन का मोटा मुआवजा ले कर वे शहर में फ्लैट खरीद सकें, लेकिन मास्टर मटरूराम के गांव के लोग कारखाने से निकलने वाले जहरीले पानी और कचरे से काफी डरे हुए थे.

यही नहीं, इलाके के कोरी समुदाय के लोग इस प्रोजैक्ट का रुकना अपने समाज की बेइज्जती समझने लगे. इस के लिए विधायक के लोगों ने गांव में कारखाना लगाने का विरोध कर रहे लोगों पर हमला कर उन को जम कर पीटा. औरतों और लड़कियों को नंगा कर दिया गया. जब रोज हंगामा बढ़ने लगा, तो सरकार को भी दखल देने की जरूरत महसूस हुई.

मास्टर मटरूराम भी इस मारपीट के बाद आंदोलन में शामिल हो गए. उन्होंने इस आंदोलन को ‘दलित बनाम पिछड़ा’ एंगल दे दिया. लेकिन इस के पक्ष में खड़े ब्राह्मणों और क्षत्रियों को कैसे और कहां सैट करें, यह तय नहीं कर पा रहे थे. फिर इन्हें भी दलित जातसमाज विरोधी घोषित किया गया.

क्षेत्र के कोरियों के बहिष्कार का ऐलान खुलेआम किया जाने लगा. कहा गया कि अब कोरियों, ब्राह्मणों और क्षत्रियों की फसल हमारे समाज के लोग नहीं काटेंगे.

पूरे क्षेत्र में हंगामा बढ़ने लगा. रोज के तनाव से हिंसा हुई और पुलिस फायरिंग में 2 लोग मारे गए.

अब राज्य सरकार को भी इस प्रोजैक्ट के पूरा होने में शक होने लगा. बातचीत के रास्ते समस्या के समाधान पर जोर दिया जाने लगा. स्थानीय प्रशासन ने इस के लिए कंपनी के अफसरों से ले कर एनजीओ के कार्यकर्ताओं तक की मीटिंग बुलाई.

जहरीले पानी से प्रभावित गांव के लोगों ने मटरूराम को इसलिए प्रतिनिधि चुना, क्योंकि वे समाज के नेता थे और समाज की बात ठीक से इस मीटिंग में रख सकते थे.

3 बार की मीटिंग बेनतीजा रही, लेकिन चौथी मीटिंग से पहले ही कंपनी के अफसरों ने एनजीओ कार्यकर्ताओं को मोटा फंड देने की बात कह कर आंदोलन से ही बाहर कर दिया. सब अपना सामान समेट कर रात में ही चले गए. कोरी समुदाय पहले से ही इस कारखाने के पक्ष में था, लिहाजा स्थानीय विधायक को भी मामले में शामिल किया गया. मीटिंग के बाहर ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज प्रोजैक्ट लगाए जाने के पक्ष में नारेबाजी कर रहे थे.

मास्टर मटरूराम इस बार की मीटिंग में फिर शामिल हुए. कुल 3 लोगों की मीटिंग हुई. यह तय हुआ कि कारखाने का कचरा नए रास्ते से गांव के बाहर बहने वाली नदी में मिलाया जाएगा.

अब यह दलितों की आबादी की तरफ नहीं जाएगा.

लेकिन मास्टर मटरूराम अपनी बात पर कायम रहे कि इस कारखाने से उन के समाज को क्या फायदा होगा और यह गांव में क्यों लगे? हवापानी सब जहरीले हो जाएंगे और बदले में हमारे समाज को कुछ मिलेगा भी नहीं. वे कुछ भी मानने को तैयार नहीं थे.

काफी सोचविचार के बाद यह तय हुआ कि 3 करोड़ रुपए खर्च कर के मामला सैटल किया जाएगा. एक करोड़ विधायक उलटफेर कोरी को मिलेंगे.

50 लाख मास्टर मटरूराम लेंगे. 5 लाख पुलिस के और बाकी रकम जिले के प्रशासन को मिलेगी.

सब बाहर निकले और बताया कि सम?ाता हो गया है. यह कंपनी अपना डिजाइन बदलेगी. मास्टर मटरूराम ने कौम की जीत की घोषणा की. विधायकजी ने भीड़ के सामने हाथ जोड़े और अपनी गाड़ी से चले गए.

जिन समुदायों की जमीन का अधिग्रहण होना था, उन्हें भी खुशी हुई कि चलो, अब जमीन का बड़ा मुआवजा मिलेगा और शान से थार गाड़ी में घूमेंगे और शहर में जमीन खरीदेंगे. हालांकि, गांव के उन दलितों को इस सम?ाते में क्या मिला, इस बारे में कोई ठोस बात ही नहीं हुई.

कारखाना बनने लगा. मास्टर मटरूराम की जातसमाज के लोग कारखाने में मजदूर बने और उलटफेर कोरी के लोगों ने सीमेंटबालू मजदूर सप्लाई का काम शुरू कर दिया. सब को तय रकम की 2 किस्तें जल्द ही मिल गईं.

तकरीबन 3 महीने बाद उसी सौदे की तीसरी किस्त लेने के लिए मास्टर मटरूराम दिल्ली के इस होटल में रुके हुए थे. वे फोन का इंतजार कर रहे थे.

थोड़ी देर में उन्हें एक फोन आया कि कल 10 बजे बेनी स्टेडियम के बगल के फार्महाउस में मिलिए, काम हो जाएगा. यह नंबर 10 बजे चालू मिलेगा. ओके कह कर बात दोनों ओर से खत्म हुई.

मास्टर मटरूराम ने गिलास की बची ह्विस्की को एक सांस में पूरा पी लिया. गरम रोस्टेड चिकन खाया. पैसे मिलने की खुशी में उन का जोश ज्यादा बढ़ गया. मुंह साफ किया और अपने बैग से एक गोली निकाली और उसे चूसने लगे. इस के बाद वे फोन पर ही पोर्न मूवी देखने लगे.

5 मिनट के बाद अचानक मास्टर मटरूराम ने अपना जांघिया उतारा और जूली के ऊपर चढ़ गए. जूली के कटे होंठों से निकलते खून को वे चाटने लगे. शराब और चिकन में लगे मसाले की बास भरी महक से जूली का गला भर गया.

रात के 12 बजने वाले थे. पिछले आधे घंटे से वे जूली को रौंद रहे थे. यह राउंड जूली के लिए पहले से और ज्यादा दर्द देने वाला था. लेकिन मास्टर मटरूराम और ज्यादा जोश में आ चुके थे. अब वे जूली को रौंदने में लगे हुए थे.

आखिर मास्टर मटरूराम ने आगामी विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए पैसे का इंतजाम जो कर लिया था. भले ही उस समाज को उन्होंने धोखा दिया था, जिस ने उन्हें एक मामूली टैंपो ड्राइवर से ऊपर उठा कर ‘हीरो’ बना दिया था.

मास्टर मटरूराम का मानना था कि जातसमाज वाले केवल चमत्कार को ही सिर झुकाते हैं, इसलिए उन्हें अपने समाज में मजबूत बने रहने के लिए बड़े चमत्कार करते रहना जरूरी था. यही उन की सियासत की समझ का कुल हासिल था, जहां धोखा, फरेब, ऐयाशी, भ्रष्टाचार सब जायज है, क्योंकि जातसमाज को सिर्फ चमत्कारी लोग ही चाहिए.

उस चमत्कार के पीछे कितना घना अंधेरा है, लोकतंत्र और समाज को निगलने वाला कितना बड़ा साम्राज्य है, कितनी ज्यादा गहरी कालिख है, यह किसी को जाननेसम?ाने में दिलचस्पी नहीं है.

खैर, अब रात के 2 बज रहे थे. मास्टर मटरूराम उसी बिस्तर पर निढाल हो कर नंगे ही सो गए. जूली भी वहीं पड़ी रही. सुबह के 5 बजे उस ने अपने कपड़े पहने, रिसैप्शन से बैग लिया और अंधेरी गलियों में गुम हो गई.

मास्टर मटरूराम ने अपनी कौम को जो धोखा दिया था, उस की कीमत लेने के लिए वे सुबह से ही 10 बजने का इंतजार करते हुए बादाम मिक्स बिसकुट के साथ चाय की चुसकी लेने लगे. तय समय पर उन्होंने अपना हिस्सा लिया और एक नई जूली के शिकार में इस बार गोवा चले गए.

हालांकि, इस पैस्टीसाइड कारखाने के जहरीले कचरे का बहाव मास्टर के जातसमाज के गांव की ओर ही हुआ, जिस पर अब कोई बोलने को तैयार नहीं था. उन लोगों ने जो भरोसा किया था, मास्टर मटरूराम ने उसे तारतार कर दिया था.

Social Story: गुनाहगार कौन?

Social Story: अब बबली को स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता था. मांबाप ने सोचा कि वह पढ़ाई से बचना चाहती है, पर बबली अब गुमसुम रहने लगी थी. वह डाक्टर बनना चाहती थी, लेकिन अब स्कूल जाने के नाम पर उसे कंपकंपी आती थी. एक दिन स्कूल से फोन आया कि बबली ने बड़ा कांड कर दिया है. आखिर क्या किया था बबली ने, जो वह पुलिस हिरासत में चली गई?

‘‘बबली, ओ बबली… उठ न बेटा, स्कूल के लिए लेट हो जाएगी. फिर पता है न, तेरे सर भी गुस्सा करेंगे. चल, उठ जल्दी से तैयार हो जा, मैं रसोई में नाश्ता बनाने जा रही हूं.’’

‘‘मम्मी, मुझे सोने दो न. आज मुझे स्कूल नहीं जाना है.’’

‘‘क्या हो गया है तुझे? पहले जब छोटी थी, कितना खुश होती थी स्कूल जाने के नाम पर. जैसेजैसे बड़ी होती जा रही है, मति मारी गई है. रोज का तेरा यही राग है, स्कूल नहीं जाना, स्कूल नहीं जाना. अगर स्कूल नहीं जाएगी तो बिना पढ़े ही डाक्टर बन जाएगी क्या? या नहीं बनना डाक्टर?’’

फिर बबली को चिढ़ाते हुए मम्मी ने आगे कहा, ‘‘चल, ठीक है. तुझे तो डाक्टर बनना नहीं, छुटकी बन जाएगी डाक्टर. तू सो जा आराम से,’’ कहते हुए वे वहां से जाने लगीं.

बबली उठ कर मां का हाथ पकड़ते हुए बोली, ‘‘किस ने कहा मुझे डाक्टर नहीं बनना… और छुटकी जब वकील बनना चाहती है, तो क्यों उसे आप जबरदस्ती डाक्टर बनाएंगी? डाक्टर तो मैं ही बनूंगी. लेकिन मम्मी, यह स्कूल अच्छा नहीं है, मुझे किसी और स्कूल में भेज दो.’’

‘‘बेटा, शहर का सब से अच्छा और सब से सस्ता स्कूल है. और तू कह रही है कि यह स्कूल अच्छा नहीं है. जानती भी है कि इस स्कूल में एडमिशन के लिए लोग तरसते हैं, क्योंकि बेशक इस स्कूल की फीस सब से कम है, ताकि हर मिडिल क्लास अपने बच्चों को अच्छी तालीम दिला सके, लेकिन पूरे शहर में इस के मुकाबले का स्कूल नहीं है.

‘‘तुम दोनों बहनों का यहां एडमिशन हो गया, यह हमारी खुशकिस्मती है. चल, अब जल्दी से उठ कर तैयार हो जा. मैं नाश्ता बना रही हूं. छुटकी तो तैयार भी हो चुकी है.’’

‘‘लेकिन, मम्मी…’’

‘‘बस, अब कोई बहस नहीं,’’ कहते हुए मां रसोई की ओर चल दीं.

बबली बेमन से उठ कर बाथरूम में घुस गई. तैयार हो कर वह बाहर निकली, तो इतने में पापा आ गए.

पापा रोज सुबहसुबह सब्जी मंडी जाया करते थे. वहां से बच्चों की पसंद की ताजा सब्जी और फल छांट कर ले आते और जब भी फल खिलाते खुद अपने हाथों से काट कर उन के मुंह में डालते थे. बच्चे भी जब तक पापा न खिलाएं, फल को हाथ तक नहीं लगाते थे.

दोनों बहनें पापा की लाड़ली जो ठहरीं, लेकिन पढ़ाई में दोनों एक से बढ़ कर एक होशियार. बड़ी वाली बबली बचपन से ही कहती थी, ‘‘पापा, मैं डाक्टर बनूंगी और छुटकी कहती है कि मैं तो काले कोट वाली वकील बनूंगी.’

पापा ने भी बच्चों की इच्छा पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. शहर के सब से बड़े और नामी स्कूल में दोनों का एडमिशन कराया. बड़ी बेटी बबली अब 5वीं क्लास में है, जबकि छोटी बेटी छुटकी तीसरी क्लास में.

दोनों लड़कियों को मातापिता ने बताया था कि सब से पहले जा कर स्कूल के साथ बने मंदिर में माथा टेकना है और उस के बाद स्कूल में जाना है.

उस स्कूल के साथ लगते ही महादेव का बहुत ही प्राचीन मंदिर था. जब स्कूल बना तो मैनेजमैंट कमेटी द्वारा स्कूल के साथ ही एक महादेव का मंदिर भी बनवाया गया, ताकि बच्चों में भक्ति भावना का संचार हो.

बबली और छुटकी भी रोज मंदिर जाती थीं, लेकिन जैसेजैसे बबली बड़ी होती गई, वह स्कूल जाने से जी चुराने लगी, कभी पेटदर्द का बहाना, तो कभी सिरदर्द. उदास होने के साथसाथ वह चिड़चिड़ी भी होती जा रही थी. कुछ पूछो तो ‘कुछ नहीं’ कह कर बात को टाल देती थी.

लेकिन 10वीं क्लास तक आतेआते बबली की देह भी पलटने लगी. वैसे तो वह पहले से भी कमजोर और मुरझाई सी नजर आती, लेकिन इस के बावजूद उस का सीना उम्र और कदकाठी के मुताबिक कुछ ज्यादा ही भारी हो गया था.

मां इस बदलाव से हैरानपरेशान थीं. वे बबली से बातोंबातों में पूछती भी थीं, ‘‘मां अपनी बेटी की सब से करीबी सखी होती है. मां से कभी भी कोई परेशानी नहीं छिपानी चाहिए. कोई भी परेशानी हो, तो मुझ से बेझिझक कहना,’’ लेकिन बबली कभी कोई बात न करती थी, बस गुमसुम सी अपनी पढ़ाई में मस्त रहती.

लेकिन आज अचानक स्कूल से फोन आया, ‘‘जल्दी से स्कूल आइए, आप की बेटी बबली ने मंदिर के पुजारी का खून कर दिया है…’’

यह सुनते ही मातापिता के पैरों तले से जमीन निकल गई. वे दौड़ेदौड़े गए तो देखा कि मंदिर के अंदर की तरफ बने एक कमरे में खून से लथपथ पुजारी की लाश पड़ी थी. भांग घोंटने वाला भारी सा मूसल बबली के हाथ में था.

मंदिर में उस जगह प्रिंसिपल साहब, दूसरे टीचर और बहुत से छात्र जमा थे. लोग तरहतरह की अटकलें लगा रहे थे कि आखिर बबली ने पुजारी का खून क्यों किया?

इतने में सायरन बजाती हुई पुलिस की वैन आ गई, जिस में 2 लेडी कौंस्टेबल भी थीं.

एक पुलिस अफसर ने सभी को मंदिर खाली करने को कहा, तो सब वहां से बाहर आ गए. लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज कर कुछ जरूरी पूछताछ कर मंदिर को सील कर दिया गया और बबली को पुलिस वैन में बैठा कर ले गई.

बबली के पापा उसी समय अपने एक दोस्त के पास गए. उस से बातचीत कर के फौरन वकील को ले कर पुलिस स्टेशन गए, लेकिन कत्ल का केस था, तो ऐसे कैसे जमानत होती.

उस दिन शनिवार और अगले दिन इतवार था. 2 दिन तक कुछ नहीं हो सकता. सोमवार कोर्ट खुलने पर ही कोई कार्यवाही होगी. जवान होती लड़की पुलिस स्टेशन में अकेली, न जाने क्या हो, क्या न हो? मातापिता का कलेजा फटा जा रहा था. 2 रातें वहीं पुलिस स्टेशन के बाहर बैठ कर काटी उन लोगों ने.

आखिर सोमवार को कोर्ट खुला और केस चला. एक हफ्ते तक बचाव पक्ष का वकील अपनी दलीलें देता और अगले दिन की तारीख ले लेता, ताकि कोई तो सुराग मिले लड़की को बचाने का.

लेकिन इधर बबली मुंह खोलने को तैयार नहीं थी. जब भी पूछो कि यह क्यों और कैसे हुआ, तो एक ही बात कहती, ‘‘मैं ने मारा है पुजारी को और मुझे इस बात का कोई दुख नहीं. आप को जो भी सजा देनी है दे दो.’’

15 दिन के बाद जब बचाव पक्ष बचाव का कोई ठोस कारण न बता सका, तो जज ने फैसले की तारीख मुकर्रर कर दी.

आज सुनवाई का आखिरी दिन था. बचाव पक्ष का वकील अपनी कोशिशों से हार चुका था, ‘‘देखिए भाई साहब, मैं ने पूरी कोशिश की कि आप की बेटी को सजा न हो, लेकिन आप की बेटी ही जब साथ नहीं दे रही, तब मैं भी क्या कर सकता हूं. जब वह खुद ही कह रही है कि उस ने मारा है पुजारी को, तो मैं कैसे साबित करूं कि उस ने नहीं मारा.’’

वकील साहब की बात सुन कर बबली के मातापिता दोनों की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. उन्हें कुछ समझे नहीं आ रहा था कि बबली आखिर कुछ बोल क्यों नहीं रही है?

कोर्ट शुरू हुआ, केस की सुनवाई के लिए दोनों पक्षों को बुलाया गया. सामने जज साहब अपनी कुरसी पर बैठे थे. कोर्ट परिसर खचाखच भरा हुआ था, क्योंकि आज स्कूल के सभी टीचर और छात्र भी कोर्ट में आए हुए थे.

जज साहब ने बोलना शुरू किया, ‘‘पुजारी मर्डर केस का फैसला सुनाने से पहले अगर किसी पक्ष को कुछ कहना हो तो कह सकते हैं, वरना इस केस का फैसला अभी सुना दिया जाएगा.’’

इतना सुनते ही जैसे सरकारी वकील अपनी जगह पर खड़े हुए कि अचानक बबली की मम्मी के दिमाग में न जाने क्या सूझा कि वे छुटकी को ले कर बबली के सामने आ गईं और रोते हुए दोनों हाथ बांध कर बोलीं, ‘‘बबली… बेटा, तू सच क्यों नहीं बताती कि क्या हुआ था उस वक्त? पुजारी को किस ने, क्यों और कैसे मारा? तू उस वक्त वहां क्या करने गई थी?

‘‘देख, तेरे चुप रहने से तेरी छुटकी की जिंदगी पर भी असर पड़ेगा. लोग न जाने इस पर कैसेकैसे लांछन लगाएंगे. इस की कहीं शादी नहीं होगी. इस की जिंदगी बरबाद हो जाएगी…’’

इस तरह से मां के मुंह से बातें सुन कर और उन्हें रोताबिलखता देख कर बबली फूट पड़ी, ‘‘मैं अपनी छुटकी की जिंदगी हरगिज बरबाद नहीं होने दूंगी. मैं उसे किसी को आंख उठा कर भी नहीं देखने दूंगी. जो भी उस की तरफ बुरी नजर से देखेगा, आंखें निकाल लूंगी मैं उस की. कोई उसे छूना भी चाहेगा तो खत्म कर दूंगी उसे, जैसे मैं ने पुजारी को मारा है.

‘‘हां, मैं ने मारा है पुजारी को, क्योंकि वह मेरी तरह मेरी छुटकी को भी बरबाद करना चाहता था. भला, मैं अपनी छुटकी को कैसे भेज देती बरबादी के रास्ते पर…’’

बबली बोले जा रही थी कि बीच में सरकारी वकील बोल उठे, ‘‘जज साहब, जब सब सुबूत सामने आ चुके हैं, फैसला होने ही वाला है, तो अब इन बातों का क्या मतलब है? आप अपना फैसला सुनाइए.’’

लेकिन इधर बबली के बोलते ही ?ाट से बचाव पक्ष के वकील खड़े हो गए, ‘‘जज साहब, शायद मेरी क्लाइंट पुजारी के बारे में कुछ कहना चाहती है. मेरी आप से दरख्वास्त है कि फैसला सुनाने से पहले मेरी मुवक्किल को अपनी सफाई देने का एक मौका और दिया जाए, ऐसा न हो कि कानून के हाथों एक मासूम बेगुनाह को सजा हो जाए,’’ बचाव पक्ष के वकील ने जज से अपील की.

जज साहब ने बचाव पक्ष के वकील की रिक्वैस्ट पर गौर करते हुए बबली से कहा, ‘‘बेटा, अगर तुम अपने बचाव में कुछ कहना चाहती हो तो तुम्हें मौका दिया जाता है. अदालत कभी नहीं चाहेगी कि किसी बेगुनाह को सजा हो.’’

वकील ने कहा, ‘‘बबली बेटा, तुम ने कहा कि पुजारी छुटकी की जिंदगी बरबाद करना चाहते थे. भला पुजारी ऐसा क्यों करेंगे, जबकि वे तो इतने अच्छे इनसान थे? वे तो कितनी ही लड़कियों को आगे बढ़ाने के लिए पैसा खर्च दिया करते थे और कितनी ही गरीब लड़कियों के घर बसाए थे उन्होंने, तो भला वे किसी की जिंदगी कैसे बरबाद कर सकते थे?

‘‘लगता है कि तुम्हें कोई गलतफहमी हुई है… जज साहब, मैं ऐसे देवता जैसे इनसान के खिलाफ इतनी घटिया बातें नहीं सुन सकता, इसलिए मैं कोर्ट से बाहर जाने की इजाजत चाहता हूं. न जाने यह लड़की उस महापुरुष के बारे में और क्याक्या कहेगी?’’

ऐसा कहते हुए वकील साहब कोर्ट से बाहर की ओर जाने लगे, तो बबली के पापा ने उन की तरफ हैरानी से देखा कि ये तो बचाव पक्ष के वकील हैं और ये उलटा बबली को ही गलत कहने लगे.

तब वकील साहब ने बबली के पापा को चुपचाप बैठे रहने का इशारा किया और खुद बाहर की तरफ चले गए.

इतने में उन्हें पीछे से आवाज आई, ‘‘रुकिए, वकील साहब…’’

वकील साहब ने पलभर रुक कर पीछे मुड़ कर देखा. बबली का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था, होंठ गुस्से में कांप रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे वह अभी किसी का खून कर देगी.

वकील साहब के रुकने पर बबली ने बोलना शुरू किया, ‘‘वकील साहब, आप भी उस देवता की काली करतूतें तो सुनते जाइए. क्या आप जानते हैं कि आप का वह देवता छोटीछोटी मासूम बच्चियों के साथ क्या करता था?

‘‘नहीं न… चलिए, मैं आप को बताती हूं, क्योंकि जो वह बाकी बच्चियों के साथ करता था, वही वो मेरे साथ भी करता था…’’

थोड़ी देर रुक कर बबली फिर बोली, ‘‘जब मैं छोटी थी, तो मंदिर में महादेव के दर्शन करने जाती तो देखती थी कि कभीकभी पुजारी किसी न किसी लड़की को अपने साथ चिपकाए हुए उस की पीठ पर हाथ फेर रहा होता था और उस से बातें कर रहा होता था. मुझे नहीं मालूम था कि वह ऐसा क्यों करता था और उन लड़कियों से क्याक्या बात करता था.

‘‘महादेव के मंदिर के अलावा दूसरी तरफ एक और मंदिर था. पुजारी अकसर वहीं बैठता था और उस मंदिर के अंदर जा कर एक और कमरा था, जहां अकसर अंधेरा रहता था. पुजारी कभीकभी बड़ी लड़कियों को कहता कि आज इस कमरे में मेरे गुरुजी के दर्शन करने जरूर आना. अगर कोई छोटी बच्ची गुरुजी के दर्शन करने को कहती, तो पुजारी मना कर देता था.

‘‘जब मैं तीसरी क्लास में थी, तब पुजारी मुझे भी कहता था कि आजा तुझे अंदर से अच्छा वाला प्रसाद दूंगा और मैं बर्फी के लालच में दूसरे मंदिर के अंदर चली जाती थी.

‘‘वहां पुजारी मुझे बर्फी का एक टुकड़ा देता और मुझे अपने साथ कस कर चिपका लेता था. लेकिन जब वह मुझे अपने साथ चिपकाता तो मुझे कुछ सख्त सा चुभता. मैं तब कुछ नहीं समझती थी.

‘‘लेकिन, जैसेजैसे मैं बड़ी होती गई, समझ गई और जब मैं प्रसाद लेने के लिए मना करती तो भी वह मुझे जबरदस्ती अंदर ले जाता और कहता कि जो इस तरफ एक बार आ जाता है, वह फिर छोड़ नहीं सकता, वरना पाप चढ़ता है… और यह बात किसी को बताना नहीं, वरना पिता की मौत हो जाती है.

‘‘मैं डर की वजह से किसी से कुछ न कहती और उस तरफ मुझे जाना पड़ता, जिस से पुजारी रोज कभी मुझे गलत जगह छेड़ता, कभी मेरे सीने को जोर से दबाता, लेकिन 2 साल पहले की बात है कि एक दिन उस ने मुझ से कहा कि मैं स्कूल की छुट्टी के बाद उस के पास किसी को बिना बताए आ जाऊं.

‘‘जब मैं ने मना किया तो बोला तुम्हारी मरजी, पर अगर तुम्हारे पापा मर गए तो मुझे कुछ मत कहना. मैं तो बता दूंगा कि इस ने मेरी बात नहीं मानी.

‘‘और उस दिन उस ने मेरे साथ गलत काम किया और फिर जब भी मौका मिलता, मुझे पापा की मौत का डर दिखा कर गलत काम करता रहता,’’ कहतेकहते बबली फूटफूट कर रो पड़ी.

थोड़ी देर चुप रहने के बाद बबली दोबारा बोली, ‘‘एक दिन पुजारी मुझ से बोला कि मैं तुझ से बोर हो गया हूं, अब तू पुरानी हो गई है. अब कोई नई चीज चखने का मन कर रहा है. तू ऐसा कर आज अपनी बहन छुटकी को ले आ.’’

‘‘मैं ने मना किया, तो वह मुझे मेरी नंगी तसवीरें दिखाने लगा,’’ कहतेकहते बबली रोने लगी. थोड़ी देर बाद अपने आंसू पोंछते हुए बबली ने फिर से बोलना शुरू किया, ‘‘पुजारी ने कहा कि अगर तू छुटकी को ले कर नहीं आएगी, तो पूरे शहर में तुम्हारी ये तसवीरें लग जाएंगी. उस के बाद क्या होगा वह तू खुद ही सोच ले…’’

‘‘वकील साहब, क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उस वक्त मुझ पर क्या बीती होगी उस समय वे तसवीरें देख कर… मैं तो सन्न रह गई. मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया. मैं परेशान हो गई कि क्या करूं और क्या न करूं.’’

‘‘पुजारी फिर से बोला कि क्या सोच रही हो, जल्दी से छुटकी को ले आ, वरना छुट्टी का समय खत्म हो जाएगा.

‘‘मैं सोचने लगी कि अगर छुटकी को लाती हूं तो उस की जिंदगी बरबाद और अगर नहीं लाती तो पूरे घर वालों की इज्जत और जिंदगी दांव पर है. फिर अचानक मेरी नजर भांग घोंटने वाले मूसल पर पड़ी.

‘‘मैं ने अपना दुपट्टा उठाया और गले में डालने के लिए इतनी जोर से लहराया कि एक पल्ला पुजारी के मुंह पर आ गया, जिस से एक पल के लिए उस की आंखें ढक गईं.

‘‘मैं ने झट से मूसल उठाया और आव देखा न ताव धड़ाधड़ पुजारी के सिर पर वार करना शुरू कर दिया. उसे संभलने का मौका भी न दिया और कुछ ही पल में पुजारी का शरीर शांत हो गया.

‘‘जैसे ही मैं ने देखा कि मेरे हाथ लहू से भर गए और पुजारी बेहोश जमीन पर पड़ा है, मैं ने दरवाजा खोला, तो देखा कि 3-4 लोग मंदिर में दर्शन करने आए हुए थे, क्योंकि कभीकभी बाहर के लोग भी मंदिर में दर्शन करने आ जाते थे.

‘‘मुझे ऐसे देख कर उन्होंने शोर मचा दिया. उस के बाद का तो आप को पता ही है. हां, मैं ने खून किया है पुजारी का, मैं गुनाहगार हूं, लेकिन मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं है. आप को जो सजा देनी है, दीजिए.’’

जज साहब खामोश बैठे बबली की आपबीती सुन रहे थे. बबली के मुंह से ये सब बातें सुन कर स्कूल की दूसरी लड़कियों में भी हिम्मत आई और वे सब रोते हुए बोलीं, ‘जज साहब, बबली सही कह रही है. वह पुजारी हमारे साथ भी यही करता था और हमारी नंगी तसवीरें दिखा कर हमें मुंह बंद रखने की धमकी देता था.

‘जज साहब, बबली गुनाहगार नहीं है, गुनाहगार तो हम हैं, जिन्होंने उसे आज तक जिंदा छोड़ कर इतनी लड़कियों की जिंदगी बरबाद करने का मौका दिया.’

जज साहब हैरानपरेशान से उन सब लड़कियों की बातें सुन रहे थे और उन के चेहरों की तरफ देखे जा रहे थे.

अचानक मेज पर एक जोरदार थाप के साथ जज साहब बोले, ‘‘और्डर, और्डर… सभी अपनी जगह पर बैठ जाएं. सब को अपनी बात कहने का मौका दिया जाएगा.’’

बचाव पक्ष के वकील ने कहा, ‘‘जज साहब, माफ कीजिए, मुझे कोर्ट से बाहर जाने का नाटक करना पड़ा. मुझे केवल शक ही नहीं, बल्कि यकीन था कि कहीं न कहीं कोई ऐसी बात है, जो बबली बता नहीं पा रही और बबली ने जो किया वह गलत भी नहीं किया, क्योंकि मैं बबली का पूरा रिकौर्ड छान चुका था.

‘‘ऐसी मासूम लड़की हत्या कैसे कर सकती है? जज साहब, सुबूत जो कुछ भी कह रहे थे, मेरा दिल उन्हें गवारा नहीं कर रहा था, इसलिए मुझे नाटक खेलना पड़ा.

‘‘अगर मैं यह नाटक न करता, तो बबली की जबान कभी उस का साथ न देती और कभी भी सचाई सामने
न आती.’’

इधर सारी लड़कियां भी बारबार यही कहने लगीं, ‘जज साहब, सजा हमें दीजिए, गुनाहगार तो हम हैं.’

जज साहब बोले, ‘‘सब शांति से बैठ जाएं…’’ सब के बैठने के बाद फिर जज साहब बोले, ‘‘माना कि बबली ने खून किया है, लेकिन बबली ने समाज के एक सड़े हुए अंग को काटा है.

‘‘और बच्चियो, न गुनाहगार आप हो और न ही बबली. गुनाहगार तो वह पुजारी था, गुनाहगार उस जैसे लोग होते हैं, बबली जैसे नहीं. आप सहम गई थीं, डर गई थीं, इसलिए वह शैतान अपनी मनमानी करता रहा. पहलेपहल बबली भी आप सब की तरह डर गई थी, लेकिन इस ने बाद में हिम्मत से काम लिया और आगे किसी और लड़की या बहन की जिंदगी को बरबाद होने से बचा लिया.

‘‘लिहाजा, अदालत बबली को कोई सजा नहीं देगी, बल्कि सभी बच्चियों, लड़कियों और औरतों से यही कहेगी कि ऐसे शैतानों का धरती पर जिंदा रहना ही गुनाह है.’’

सभी ने तालियां बजाते हुए बबली का कोर्ट से बाहर आ कर स्वागत किया और बबली अपनी छोटी बहन छुटकी और मां के गले लग गई.

Family Story: खुशी के रास्ते

Family Story: श्वेता एक दबंग चौधरी परिवार की बेटी थी और उस की शादी भी अच्छे खातेपीते घर में हुई थी. वह नौकरी नहीं करना चाहती थी, पर सास ने उसे नौकरी करने पर जोर दिया. वह कालेज में लैक्चरर हो गई. एक दिन गाड़ी खराब होने की वजह से श्वेता के पति का दोस्त युवराज उसे कालेज छोड़ने गया. फिर यह सिलसिला चल निकला. आगे क्या हुआ?

श्वेता चौधरी बचपन से ही ऐसे घर में पलीबढ़ी थी, जिस की चौधराहट की धमक पूरे इलाके में थी. उस के दादा चौधरी जबर सिंह की धाक भी उस समय पूरे इलाके में थी. वे खुद तो जिला पंचायत के सदस्य थे ही, अपने बेटे यानी श्वेता के पिता चौधरी समर सिंह को भी गांव का प्रधान बनवा रखा था. जिले के डीएम और एसपी के साथ उन की अच्छी उठबैठ थी, इसलिए सरकारी महकमे में भी उन की अच्छी पकड़ थी. वहां उन का काम बेरोकटोक होता था.

श्वेता को भी कभी किसी चीज की कोई कमी नहीं रही थी. उसे जो चीज पसंद आ जाती, उसे ले कर छोड़ती थी. वह बचपन से ही जिद्दी और मनमानी हो गई थी, बिलकुल अपने पापा और दादा की तरह दबंग.

जब श्वेता शादी के लायक हुई, तो उस ने अपने दादा जबर सिंह को चेताया, ‘‘दादाजी, मेरी शादी शहर में करना, मैं गांव में नहीं रहूंगी.’’

‘‘अरी मेरी लाडो, तू चिंता क्यों करती है? हम तेरे लिए गांव में लड़का ढूंढ़ेंगे ही नहीं. शहर के चौधरियों से मेरी खूब जानपहचान है, देखना, जल्दी ही तेरे लिए कोई अच्छा सा लड़का मिल जाएगा. लेकिन, एक परेशानी है…’’

‘‘वह क्या दादाजी?’’

‘‘बस, वह लड़का हमारी लाडो को पसंद आ जाए.’’

‘‘अरे दादाजी, आप भी मजाक करने से बाज नहीं आते,’’ इतना कह कर श्वेता दालान से घर के अंदर चली गई.

जबर सिंह मुसकराते हुए फिर से अपना हुक्का गुड़गुड़ाने लगे.

कुछ ही दिनों के बाद श्वेता की शादी दिल्ली के कनाट प्लेस के एक अमीर चौधरी परिवार में कर दी गई.

उस समय श्वेता कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से वनस्पति शास्त्र में पीएचडी कर रही थी और उस की थीसिस पूरी होने वाली थी.

श्वेता का पति हरबंस अपने घर के कारोबार को देखता था. कमला नगर में वह एक पेइंगगैस्ट चलाता था. 4 डंपर किराए पर चलाता था. ऐसे ही उस के और भी काम थे. कुलमिला कर उस की अच्छीखासी आमदनी थी और श्वेता को कोई कमी न थी. अपना हनीमून भी वे फ्रांस में मना कर आए थे.

कुछ दिनों के बाद श्वेता की पीएचडी भी पूरी हो गई. उस ने अपने शौक और रुतबे के लिए यह डिगरी ली थी. नौकरी करने का न उस का कोई मन था और न ही जरूरत. उस के परिवार की सात पुश्तों में से कभी किसी ने नौकरी नहीं की थी. नौकरी करना उस के खून में ही नहीं था.

श्वेता की सासू मां दमयंती पुराने जमाने की पढ़ीलिखी औरत थीं. जब वे इस घर में बहू बन कर आई थीं, तो उन की बड़ी चाह थी कि वे नौकरी करें, लेकिन हरबंस के बुजुर्गों ने उन की यह चाह पूरी नहीं होने दी थी.

उन का कहना था, ‘हमारे घर में कौन सी कमी है, जो हम बहू की कमाई खाएंगे… हम अपनी बहू से नौकरी कराएंगे, तो दुनिया हमारे मुंह पर थूकेगी.’

इसी दकियानूसी सोच के चलते दमयंती से यह मौका छीन लिया गया था, लेकिन अब दुनिया बदल चुकी थी. दमयंती अब घर की मालकिन थीं. वे चाहती थीं कि जो वे नहीं कर पाईं, वह उन की बहू कर के दिखाए.

उन्होंने सब के विरोध के बावजूद श्वेता को नौकरी करने के लिए बढ़ावा दिया, ‘‘श्वेता, समय बदल गया है.

अब हर पढ़ीलिखी औरत अपने पैरों पर खड़ी होने की कोशिश कर रही है. तू ने तो पीएचडी कर रखी है.

घर में बैठ कर क्या करेगी? चार पैसे कमा कर लाएगी, तो घर में ही नहीं, बल्कि बाहर भी तेरी इज्जत और रुतबा बढ़ेगा.’’

लेकिन श्वेता तो उलटे बांस बरेली को. उस की तो नौकरी करने की जरा भी इच्छा नहीं थी. हरबंस भी नहीं चाहता था कि श्वेता नौकरी करे. लेकिन इस समय घर में श्वेता और हरबंस की नहीं, बल्कि दमयंती की ज्यादा चलती थी.

दमयंती ने श्वेता पर नौकरी करने का दबाव बनाया, तो हरबंस और श्वेता को झुकना पड़ा. वह दिल्ली के ही एक डिगरी कालेज में लैक्चरर हो गई. उस का कालेज घर से महज 10 किलोमीटर दूर था.

लेकिन एक दिन ऐनवक्त पर श्वेता की कार खराब हो गई. हरबंस और ड्राइवर ने कार की खराबी ठीक करने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे. घर में दूसरी कार भी थी, लेकिन उसी समय हरबंस को भी कहीं जाना था.

अभी श्वेता कैब बुक करा कर कालेज जाने की सोच ही रही थी कि तभी हरबंस का दोस्त युवराज अपनी कार से वहां आ पहुंचा. वह अपने औफिस जा रहा था.

हरबंस को घर के बाहर परेशान हालत में खड़ा देख वह बोला, ‘‘यार हरबंस, क्या परेशानी है? हमारे रहते तू परेशान… यह कैसे हो सकता है यार…’’

‘‘नहीं, युवराज. ऐसी कोई बड़ी परेशानी नहीं है. कार खराब हो गई है. तेरी भाभी को कालेज जाना था और मुझे भी अभी निकलना है.’’

‘‘यार हरबंस, तू ने भी क्या बात कह दी… अरे यार, हम किसलिए हैं. तुझे न खटके तो श्वेता भाभी को मैं कालेज के गेट पर छोड़ दूंगा. मेरी कंपनी का औफिस भी उधर ही है.’’

‘‘अरे युवराज, ऐसा कुछ नहीं है. मैं अभी कैब बुक कर देता हूं. तुझे परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है.’’

तभी गेट पर खड़ी दमयंती बोली, ‘‘हरबंस, इस में गलत ही क्या है. युवराज शाम को श्वेता को उधर से लेता भी आएगा. ड्राइवर को तू ले जाना. दोस्तों पर इतना तो भरोसा करना ही पड़ता है.’’

‘‘मां, तुम नहीं जानतीं…’’ हरबंस कहना चाहता था कि ये दोस्त एक नंबर के बदमाश होते हैं. लेकिन युवराज के सामने वह यह बात गटक गया.

‘‘अरे, मैं सब जानती हूं. दुनिया देखी है मैं ने. बहू, जल्दी से आ. युवराज उधर ही जा रहा है. तुझे यह कालेज तक छोड़ देगा और वापस भी ले आएगा,’’ दमयंती ने भी बड़े विश्वास से और्डर सा देते हुए कहा.

हरबंस कुछ कहना चाहता था, लेकिन उस के होंठ फड़फड़ा कर रह गए. श्वेता तो गैरमर्द के साथ कार में बैठ कर बिलकुल भी नहीं जाना चाहती थी. लेकिन, सासू मां का आदेश और हरबंस की लाचारी देख वह युवराज की कार में पिछली सीट पर बैठ गई.

अब ऐसा अकसर होने लगा कि श्वेता युवराज की कार में बैठ कर जाने लगी. युवराज मजाकिया और मिलनसार स्वभाव का था. वह जल्दी ही श्वेता से हिलमिल गया.

श्वेता का संकोच भी जल्दी ही दूर हो गया. वह अब कार की पिछली सीट पर नहीं, बल्कि ड्राइविंग सीट की बगल वाली सीट पर बैठने लगी.

हरबंस को यह बात पसंद नहीं थी कि श्वेता आएदिन युवराज की कार में बैठ कर कालेज जाए, लेकिन उस की मां दमयंती उसे समझतीं, ‘‘बेटा, कौन से जमाने में जी रहे हो… बहू नौकरी करने घर से बाहर निकलेगी तो गैरमर्दों से बातें करेगी ही. क्या वह अपने कालेज में जवान लड़कों और आदमियों से बात नहीं करती?

उसे तो सब से मिलनाजुलना पड़ता ही है.

‘‘वह युवराज के साथ जा रही है, तो तेरा कार का खर्चा बच ही रहा है. उसे भागना ही होगा तो युवराज क्या किसी और के साथ भी भाग जाएगी.’’

‘‘मां, तुम यह कैसी अनापशनाप बातें कर रही हो?’’

‘‘हरबंस, मैं एक औरत हूं और एक औरत के दिल को अच्छी तरह समझती हूं. भागने वाली औरत को तू सात तालों में भी बंद कर दे, वह तेरे कहने से भी नहीं रुकेगी. न भागने वाली औरत कोठे से भी वापस आ जाती है.’’

हरबंस को अपनी मां की बातें बड़ी अजीब लग रही थीं. उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. अगर वह अपनी मां की बात न माने तो दकियानूसी और शक्की कहलाए और माने तो श्वेता को युवराज के साथ जाना बरदाश्त करना पड़े. वह चक्की के दो पाटों के बीच पिस रहा था.

अब तो युवराज श्वेता को ले जाने के लिए रोज उस के घर के सामने कार रोक देता और श्वेता भी पहले से ही सजधज कर उस की कार में जा बैठती. शर्म की दीवारें धीरेधीरे गिर चुकी थीं. आग और घी कब तक दूर रहते. युवराज और श्वेता इतने पास आ चुके थे कि अब उन का दूर रहना मुश्किल हो गया.

एक दिन श्वेता युवराज के साथ ही चली गई. वह घर वापस नहीं आई. हरबंस ने उसे फोन किया, तो उस की बातें सुन कर हरबंस के होश उड़ गए.

श्वेता ने बिना लागलपेट के कहा, ‘हरबंस, मेरा इंतजार मत करना. युवराज और मैं ने एक मंदिर में शादी कर ली है. अब मैं उस की हो गई हूं,’ कह कर श्वेता ने फोन काट दिया.

हरबंस के पैरों तले से जमीन निकल चुकी थी. उस ने श्वेता के नाम एक फ्लैट कर दिया था. इनकम टैक्स से बचने के लिए लाखों रुपए श्वेता के खाते में ट्रांसफर कर दिए थे. लाखों के गहने श्वेता के पास थे.

उस दिन हरबंस ने अपनी मां को खूब खरीखोटी सुनाई, ‘‘मां, यह श्वेता से तुम्हारा नौकरी कराने का लालच ही था, जो आज हमें ले डूबा. तुम्हें ही पड़ी थी उस से नौकरी करवाने की.

‘‘मैं ने तो क्या, श्वेता ने भी नौकरी करने से मना किया था, लेकिन तुम पर तो मौडर्न बनने का भूत सवार था और फिर कार का खर्च बचाने के चक्कर में उसे युवराज के साथ भेजने लगीं. अब चखो बदनामी का मजा.’’

‘‘हरबंस, यह समझ ले कि जो हुआ, सही हुआ. तू एक औरत को नहीं समझता. अच्छा हुआ वह बहुत जल्दी और आसानी से चली गई, नहीं तो ऐसी औरतें अपने इश्क और आशिक के चक्कर में अपने पति की जान तक ले लेती हैं.’’

‘‘हां मां, आप सही कह रही हो. आजकल की घटनाओं को सुन कर तो रूह कांप जाती है. कहीं आदमी औरत के टुकड़े कर के फ्रिज में दफन कर रहा है, तो कहीं औरत आदमी के टुकड़े कर रही है. समझ में नहीं आता कि समाज को क्या होता जा रहा है…’’

‘‘बेटा, यह कोई नई बात नहीं है. यह तो हमेशा से होता आया है. बस, फर्क इतना है कि सोशल मीडिया के जमाने में ये बातें एकदम फैल जाती हैं.’’

हरबंस कारोबारी था. उस का दिमाग पैसे की ओर दौड़ता था. किसी तरह का घाटा उसे सहन न था. उसे श्वेता के जाने की इतनी चिंता नहीं थी, जितनी अपने पैसे, गहने और फ्लैट की चिंता थी. इन सब को पाने के लिए हरबंस ने बिरादरी के खास लोगों की पंचायत बुला ली.

पंचायत में श्वेता, युवराज और उन की तरफ के लोगों को भी बुलाया गया. सब को लगता था कि पंचायत हंगामेदार होगी और लंबी खिंचेगी. मजा और चटकारे लेने वाले तो यही चाह रहे थे, लेकिन श्वेता ने पंचायत ज्यादा देर तक न चलने दी.

श्वेता ने यह कह कर पंचायत खत्म करवा दी, ‘‘अब मैं युवराज की हूं और उस की ही रहूंगी. जोकुछ भी हरबंस ने मेरे नाम किया है, फ्लैट, 30 लाख रुपए, गहने, जेवरात, मैं उन सब को हरबंस को लौटाने को तैयार हूं. मुझे दौलत नहीं युवराज चाहिए.’’

कुछ पंचों ने विवाद बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन युवराज इतने से संतुष्ट था. हरबंस ने कहा, ‘‘मैं भी यही चाहता हूं कि श्वेता अब युवराज के पास ही रहे और मेरे पैसे वगैरह मुझे वापस कर दे. उस ने इस के लिए हामी भर दी है, तो मुझे पंचायत को आगे नहीं बढ़ाना है.’’

इस के बाद एक समझौतापत्र पर दस्तखत हो गए, तो पंचायत वहीं खत्म हो गई. कोर्टकचहरी के चक्कर काटने से दोनों बच गए. आसानी से फैसला हो जाने पर पंचों को भी कोई तवज्जुह नहीं मिली. वे खिसयाते हुए अपनेअपने घरों को चले गए.

लेकिन श्वेता के दादा और पिता जबर सिंह और समर सिंह ने युवराज को धौंसडपट देने की कोशिश की. श्वेता ने उन की शिकायत पुलिस से कर दी. पुलिस ने उन्हें अपनी भाषा में कानून का पाठ पढ़ा दिया.

युवराज और श्वेता अब भी हरबंस के घर के सामने से ही अपनी कार में बैठ कर निकलते हैं.

लेकिन कमाल की बात यह थी कि हरबंस अपनी दौलत वापस पा कर खुश था. उस के चेहरे पर रत्तीभर भी शिकन नहीं थी. श्वेता नाम का चैप्टर उस ने अपनी जिंदगी से ही निकाल दिया था. जल्दी ही हरबंस बड़े धूमधाम के साथ दूसरी बीवी ले आया.

ऐसे मामलों में बीवी के छोड़ जाने पर अकसर जहां पति डिप्रैशन में चला जाता है, लेकिन इस मामले में हरबंस के चेहरे की खुशी किसी की समझ में नहीं आ रही थी. वह दूसरी बीवी के साथ खुश था.

इस बात से श्वेता को भी मिर्ची लगी हुई थी. उसे यह उम्मीद नहीं थी कि हरबंस इतनी जल्दी दूसरी शादी कर लेगा. वह तो एक औरत की तरह सोचती थी कि हर मर्द की तरह हरबंस भी उस की याद में तड़पेगा, परेशान होगा, मजनूं की तरह पागल हो जाएगा.

लेकिन हरबंस ने जता दिया था कि यह नए जमाने का दस्तूर है, जिस में एक औरत के धोखा देने का मतलब गम में डूब जाना नहीं, बल्कि खुशी के रास्ते तलाशना है.

Hindi Story: आतंक

Hindi Story, लेखक – पुष्पेश कुमार ‘पुष्प’

दिवाकर आज सुबहसवेरे ही रामकिशन को खोजने आया था. घर पर दिवाकर को आया देख रामकिशन की पत्नी साधना के होशोहवास उड़ गए. आते ही दिवाकर ने पूछा, ‘‘रामकिशन कहां है?’’

साधना घबराई हुई आवाज में बोली, ‘‘वे घर पर नहीं हैं.’’

साधना का जवाब सुन कर दिवाकर ने उसे अजीब सी निगाहों से घूरा और तेज कदमों से बाहर निकल गया.

साधना दिवाकर को आया देख कर एक अनजाने डर से थरथर कांप रही थी. उस की सम झ में नहीं आ रहा था कि 15 साल बाद दिवाकर उस के घर पर क्यों आया है और आखिर उस का इरादा क्या है?

साधना के मन में तरहतरह के खयाल आने लगे, क्योंकि दिवाकर के भाई मनोज की हत्या उस के पति रामकिशन ने की थी. हत्या की वजह थी रामकिशन की फसल को मनोज द्वारा चोरीछिपे काटना.

साधना सोचने लगी कि क्या दिवाकर अपने भाई मनोज की हत्या का बदला लेने आया था? आखिर इतने सालों के बाद उस का पति जेल से बाहर आया है. उस का तो सबकुछ खत्म हो गया है. जीने की तमन्ना न होने के बावजूद वह जीना चाहता है. जिंदा लाश बना वह जिंदगी की नई किरण की तलाश में भटक रहा है.

इस सब के बीच दिवाकर का आना साधना को अच्छा नहीं लगा.

साधना अपनेआप को ताकत देते हुए सोचने लगी कि आज 15 साल बाद उस का पति घर का बना स्वादिष्ठ खाना खाएगा. मटरपनीर की सब्जी और पूरियां उसे बहुत पसंद हैं, लेकिन दिवाकर का खयाल आते ही साधना का सारा जोश पलभर में ही छूमंतर हो गया.

तभी घर के भीतर से साधना की बूढ़ी सास ने पूछा, ‘‘कौन आया था साधना?’’

‘‘कोई नहीं मांजी… दिवाकर आया था,’’ साधना बोली.

दिवाकर तो चला गया था, लेकिन अपने पीछे डर का एक भयंकर नाग छोड़ गया था. साधना को वह नाग बारबार डरा रहा था.

साधना को घुटन सी महसूस हुई, तो उस ने घर के सारे दरवाजे और खिड़कियां खोल दीं, मानो इस उमस भरी गरमी से कुछ राहत मिले.

फिर अपने मन को शांत करते हुए साधना सोचने लगी कि रामकिशन के आते ही गरमगरम पूरियां तल देगी. सब्जी तो बना ही ली है.

रात को 10 बजे जब रामकिशन घर आया, तो साधना को लगा कि कमरे में मौजूद उमस अब खत्म हो गई है. वह तेज आवाज में बोली, ‘‘यह भी कोई घर आने का समय है… सारा दिन भूखेप्यासे कहां बैठे थे.’’

जेल जाने के पहले रामकिशन देर रात तक लोगों के साथ गपें लड़ाया करता था, लेकिन कभी साधना ने इस बात के लिए मना नहीं किया. रामकिशन सम झ नहीं पा रहा था कि आज साधना के बरताव में इतना बदलाव कैसे आ गया? लेकिन वह चुप ही रहा.

रामकिशन अब पहले जैसा जवान और फुरतीला नहीं रहा था. वह भीतर ही भीतर खोखला हो चुका था, मानो उस के शरीर में दीमक लग गया हो, जो धीरेधीरे उसे कमजोर करता जा रहा था. बीते पल उसे एक दुखांत नाटक जैसे लग रहे थे.

‘‘अब उठो भी… जाओ और हाथमुंह धो लो. मैं तुम्हारे लिए पूरियां तल रही हूं. मटरपनीर की सब्जी बनाई है,’’ साधना स्नेह में डूब कर बोली.

खाना खाने के बाद रामकिशन बिस्तर पर गिर गया. साधना पैर दबाते हुए बोली, ‘‘तुम्हारे पीछे दिवाकर आया था. आखिर क्या करने आया था वह? मैं तो कुछ सम झ ही नहीं पाई, लेकिन उस का आना मुझे ठीक नहीं लगा. न जाने उस के मन में क्या चल रहा था. वह मु झे घूर रहा था.’’

दिवाकर का नाम सुनते ही रामकिशन की आंखों से नींद कोसों दूर चली गई. वह उठ कर बैठ गया, मानो कमरे में उस का दम घुटने लगा हो. उसे बीती बातें याद आने लगीं, जब पुलिस उसे पकड़ कर ले जा रही थी, तो दिवाकर ने उसे रास्ते में रोक कर कहा था, ‘रामकिशन, कानून चाहे जो भी सजा दे, पर मैं अपने भाई मनोज की हत्या का बदला ले कर ही रहूंगा. मैं तुम्हारे आने का बेसब्री से इंतजार करूंगा.

‘जब तक मैं तुम से अपने भाई का बदला नहीं ले लेता, मेरे मन की आग शांत नहीं होगी,’ दिवाकर की गुस्से से दहकती वे आंखें आज फिर उसे दहला गई थीं.

दिवाकर और रामकिशन के खेत एक ही साथ थे. दिवाकर का भाई मनोज उस की हर फसल को चोरीछिपे काट लेता था. उस ने कई बार मनोज को सम झाने की कोशिश की थी, लेकिन हर बार मनोज इस बात से इनकार कर देता था. वह कहता था, ‘मैं तुम्हारी फसल क्यों काटूंगा? तुम्हारी फसल कौन काट कर ले जाता है, मैं क्या जानूं? चोरी कोई और करे और आरोप मु झ पर लगाते हो.

‘अपनी फसल की देखभाल क्यों नहीं करते? चोरी का आरोप लगा कर मु झे बदनाम मत करो,’ लेकिन मनोज अपनी आदत से बाज नहीं आ रहा था.

एक दिन गांव के सुरेश ने आ कर कहा था, ‘रामकिशन, तुम यहां हो और वहां मनोज तुम्हारी फसल को काट कर ले जा रहा है.’

यह सुनते ही रामकिशन गुस्से से कांप गया. वह फौरन अपने खेत की ओर भागा. सचमुच, मनोज उस की फसल काट कर ले जा रहा था. उस ने मनोज को ऐसा करने से रोका, लेकिन मनोज जबरदस्ती फसल ले जाने लगा.

रामकिशन ने मनोज को जोर से धक्का दिया. वह दूर जा गिरा. फिर दोनों में उठापटक होने लगी. थोड़ी ही देर में इस मामूली लड़ाई ने अचानक बड़ा रूप ले लिया. मनोज ने अपनी कमर से पिस्तौल निकाल ली.

रामकिशन अपने बचाव में उस से पिस्तौल छीनने लगा. इसी छीना झपटी में पिस्तौल से गोली चल गई और
सीधी मनोज के सीने में जा धंसी.

कुछ देर छटपटाने के बाद मनोज ने वहीं दम तोड़ दिया. यह देख कर रामकिशन की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. वह अपनेआप को संभालते हुए किसी तरह गांव की ओर चल पड़ा.

मनोज की मौत की खबर जंगल की आग की तरह पूरे गांव में फैल गई. जल्दी ही पुलिस आ गई और रामकिशन को गिरफ्तार कर लिया.

पुलिस के सामने रामकिशन ने कहा, ‘मैं ने मनोज की हत्या नहीं की, बल्कि अपनी जान बचाने के लिए मैं उस से पिस्तौल छीनने लगा था. इसी बीच गोली चल गई और उस की मौत हो गई. मनोज चोरीछिपे मेरी फसल काट रहा था…’

यह सब सोचते हुए रामकिशन की आंखों से नींद कोसों दूर चली गई. वह बेचैन हो गया. उसे दिवाकर की कसम याद आ गई थी.

अब रामकिशन ने घर से बाहर निकलना भी बंद कर दिया. वह सारा दिन चोरों की तरह घर में छिपा रहता, लेकिन दिवाकर द्वारा छोड़ा गया डर का काला नाग उसे डरा जाता.

दिवाकर फिर दोबारा रामकिशन को खोजने नहीं आया. रामकिशन सोचता, ‘दिवाकर इतना कठोर नहीं हो सकता. मु झे मारने से क्या उस का भाई वापस आ जाएगा? गलती किसी की और सजा मु झे मिली. इस घटना के चलते मेरा पूरा परिवार ही बिखर गया. क्या उसे बेऔलाद साधना और मेरी बूढ़ी मां पर तरस नहीं आएगा? इन 15 सालों में मैं ने अपना सबकुछ खो दिया है. मेरा तो वंश में कोई दीया जलाने वाला भी नहीं रहा…’ यह सब सोचने के बाद भी रामकिशन के मन में दिवाकर का डर बैठा हुआ था.

सुहानी चांदनी रात में आकाश में टिमटिमाते तारों की बरात को देख कर रामकिशन का मन खुली हवा में सांस लेने को मचल उठा और वह खुली हवा में सांस लेने के लिए घर से बाहर निकल पड़ा.

थोड़ी देर के बाद एक कठोर आवाज ने रामकिशन को बुरी तरह से चौंका दिया, ‘‘रामकिशन…’’

यह आवाज जानीपहचानी सी लग रही थी. रामकिशन ने मुड़ कर देखा, तो सामने दिवाकर पिस्तौल लिए खड़ा था.

यह देख कर रामकिशन की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उस के दिल की धड़कन तेज हो गई और वह ‘धड़ाम’ से जमीन पर गिर गया.

‘‘रामकिशन, मैं ने कहा था न कि कानून तुम्हें जितनी सजा दे दे, लेकिन मैं अपने भाई मनोज की हत्या का बदला ले कर ही रहूंगा. आज वह दिन आ गया है. मैं कई दिनों से तुम्हारी खोज में था. जब तक मैं तुम्हें मौत की नींद नहीं सुला दूं, मेरे भाई की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी. तेरे मरने के बाद ही मेरे दिल में धधकती बदले की आग को ठंडक मिलेगी,’’ कहते हुए दिवाकर की आंखों में खून उतर आया था.

यह सुनते ही रामकिशन की घिग्घी बंध गई. उसे लगा मानो उस के सामने दिवाकर नहीं, बल्कि मौत खड़ी है.

रामकिशन काफी नरम आवाज में बोला, ‘‘दिवाकर, मैं पिछले 15 सालों तक जेल की कालकोठरी में रहा. इन 15 सालों में मैं ने अपना सबकुछ खो दिया है. अब मेरे लिए इस दुनिया में बचा ही क्या है… मैं तो बस एक जिंदा लाश हूं. मैं ने तुम्हारे भाई की हत्या नहीं की. हत्या तो वह मेरी करना चाहता था, पर गलती से गोली उसे जा लगी. इस में मेरा कोई कुसूर नहीं है..’’

यह सुन कर दिवाकर का हाथ ठिठक गया और सोचने लगा, ‘क्या सचमुच रामकिशन जिंदा है? यह तो जिंदा लाश बन गया है. इस का तो पूरा परिवार ही बिखर गया है. क्या मनोज ने अपनी मौत का बदला नहीं ले लिया है? भला, मैं मरे हुए को क्यों मारूं? यह खुद ही तड़पतड़प कर मर जाएगा…’ दिवाकर को लगा मानो रामकिशन की बेबसी ने उसे पंगु बना दिया है.

दिवाकर ने एक गहरी सांस ले कर चांदनी रात में तारों से पटे आकाश को देखा. उसे लगा कि खुले आकाश की खूबसूरती वह पहली बार देख रहा था.

बेहोश रामकिशन को वहीं गिरा छोड़ कर दिवाकर पिस्तौल अपने हाथ में लिए घर की ओर चल पड़ा, तभी उस ने पीछे मुड़ कर रामकिशन की ओर देखा और बोला, ‘‘रामकिशन, मैं तु झे यों ही डराता रहूंगा और घुटघुट कर जीने को मजबूर कर दूंगा. मैं तेरी जिंदगी को नरक बना दूंगा.’’

उधर रामकिशन को घर आने में देरी होने पर साधना का मन किसी अनहोनी के डर से कांप उठा. साधना रामकिशन की खोज में निकल पड़ी.

बदहवास सी साधना चारों ओर देखती चली जा रही थी कि अचानक चांद की दूधिया रोशनी में उस की निगाह रामकिशन पर पड़ी, जो खेत में गिरा पड़ा था और दिवाकर अपने हाथ में पिस्तौल लिए चला जा रहा था.

यह देख कर साधना की चीख निकल पड़ी, ‘‘दिवाकर… अरे, मार दिया चांडाल ने…’’ वह तेज कदमों से भागती हुई बदहवास पड़े रामकिशन के ऊपर ‘धड़ाम’ से गिर गई.

साधना के गिरते ही रामकिशन ने धीरे से अपनी आंखें खोलीं और साधना को एकटक देखने लगा. अचानक उसे अपनेआप से नफरत होने लगी. वह सोचने लगा, ‘ऐसी बेइज्जती की जिंदगी जीने से अच्छा है कि मैं मर जाऊं…’

रामकिशन को लगा कि क्यों न वह दिवाकर से पिस्तौल छीन कर अपनेआप को गोली मार लेता…
यह सोचते हुए रामकिशन आकाश में टिमटिमाते तारों को देखता हुआ शून्य में खो गया.

News Story: क्रिकेट और फिक्सिंग का गड़बड़झाला

News Story: अनामिका ने सोचा, ‘मैं ने केक का कोई और्डर नहीं दिया था और न ही किसी और से कहा था, तो फिर यह किस ने सरप्राइज दिया? विजय से तो अभी कहासुनी हुई है. कहीं उसी ने तो यह केक नहीं भिजवाया है?’

अनामिका ने दरवाजा खोला, तो विजय को डिलीवरी बौय की ड्रैस में देख कर हंसने लगी और बोली, ‘‘तुम पागलवागल तो नहीं हो… यह क्या हुलिया बना रखा है. पर, सच कहूं, तो इस ड्रैस में जंच रहे हो…’’

‘‘हो गई तुम्हारी मसखरी. यार, जैसे तुम नाक फुला कर आई हो न, मु झे तो लगा था कि तुम मु झे भगा दोगी. सौरी, मैं ने वह सब कहा, जो तुम से कहना नहीं चाहिए था,’’ विजय ने ईमानदारी के साथ कहा.

‘‘अरे बेबी, ठीक है. बहस अपनी जगह है और रिश्ता अपनी जगह. लेकिन कभी किसी को उस की जाति से जज नहीं करना चाहिए. मु झे दुख हुआ था, क्योंकि तुम ने मानो मेरे पापा की सारी मेहनत को एकदम से ही खारिज कर दिया था.’’

‘‘अनामिका, आई लव यू. चलो, अब मुंह मीठा करते हैं. तुम्हारा फेवरेट केक लाया हूं,’’ विजय बोला.

‘‘हमारी कैफे वाली डेट तो खराब हो गई थी, पर आज यह केक वाली डेट नहीं खराब होनी चाहिए. तुम अंदर आओ. मैं 5 मिनट में तैयार होती हूं. हम यह केक किसी पार्क में खाएंगे. मौसम भी अच्छा है और आज संडे भी है,’’ अनामिका बोली और सीधा अपने बाथरूम में जा घुसी.

थोड़ी देर के बाद अनामिका तैयार हो कर आई, तो उसे याद आया कि विजय तो डिलीवरी बौय की ड्रैस में है. वह बोली, ‘‘चलें, डिलीवरी बौय…’’

‘‘यार, तुम मेरी ज्यादा टांग मत खींचो. वैसे भी पार्क में किस के पास टाइम होगा मेरी ड्रैस पर ध्यान देने का.’’

पर विजय की एक ड्रैस वहां रखी थी. उस ने कपड़े बदल लिए थे. थोड़ी देर के बाद अनामिका और विजय एक बड़े से पार्कनुमा ग्राउंड में बैठे थे. चूंकि छुट्टी का दिन था, तो वहां कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे. वे दोनों एक बैंच पर जा कर बैठ गए और केक का लुत्फ उठाने लगे. रास्ते में उन्होंने कोल्डड्रिंक और कुछ चिप्स भी खरीद लिए थे.

‘‘अनामिका, याद है, जब उस दिन हम दोनों में जाति को ले कर तीखी बहस हुई थी, तब तुम्हारे जाने के बाद मैं ने सुधा दीदी को फोन कर के सब बता दिया था. यह केक लाने का आइडिया उन्हीं का था,’’ विजय ने कहा.

‘‘वही मैं सोचूं कि तुम में तो इतनी अक्ल है नहीं कि मेरे लिए केक ले आओ,’’ अनामिका हंसते हुए बोली.

‘‘वैरी फनी… और मारो ताना,’’ इतना कह कर विजय बच्चों का क्रिकेट मैच देखने लगा.

अनामिका जानती है कि विजय को क्रिकेट बहुत पसंद है. खेलना भी और देखना भी. वह बोली, ‘‘यार, इन बच्चों को देखो. सस्ते से बैट, गेंद भी ज्यादा महंगी नहीं, 3 विकेट और वे भी बिना बेल्स की… फिर भी इन सब के चेहरे ध्यान से देखो… कितना ऐंजौय कर रहे हैं ये सब.’’

‘‘वह सब तो ठीक है, पर जब मैच स्टेडियम में हो, जहां लाखों की भीड़ अपने पसंदीदा खिलाड़ी को चीयर कर रही हो, हर चौकेछक्के पर चीयरलीडर्स डांस कर रही हों, डीजे पर गाने बज रहे हों, तो मजा ही कुछ और आता है,’’ विजय ने अपनी ही धुन में कह दिया.

‘‘ओ हैलो, खेल तो खेल है. ये सामने खेल रहे बच्चे भी वही कर रहे हैं, जो स्टेडियम में स्टार क्रिकेटर करते हैं. वैसे भी मु झे यह खेल समझ ही नहीं आता है. मैदान पर अंपायर मिला कर 15 लोग होते हैं, पर हरकत में या तो गेंदबाज दिखता है या फिर बल्लेबाज. ज्यादा से ज्यादा वह फील्डर, जो बल्लेबाज के शौट पर गेंद उठाने जाता है. बाकी सब तो बुत ही बने खड़े रहते हैं.

‘‘सच कहूं, तो मु झे तो क्रिकेट पसंद ही नहीं है. इस से अच्छे खेल तो हमारे गुल्लीडंडा और पिट्ठू हैं. हर खिलाड़ी चौकस रहता है. थोड़ी ही देर में सब पसीनापसीना.’’

‘‘क्या तुम ने कभी आईपीएल का मैच स्टेडियम में देखा है? माहौल ही अलग होता है, जैसे कोई उत्सव.

नएनए खिलाड़ी एक मैच में बढि़या खेल कर रातोंरात स्टार बन जाते हैं,’’ विजय ने थोड़ा मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘पर, फिर भी मु झे इस खेल से बढि़या तो स्विमिंग लगता है. हर तैराक को अपना बैस्ट देना होता है. सब को बराबर का मौका मिलता है. जो ज्यादा बड़ा और तेज तैराक, वही जीतता है.

‘‘अमेरिका का महान तैराक माइकल फेल्प्स का नाम तो याद होगा ही. उन्होंने ओलिंपिक खेलों में अकेले कुल 28 मैडल जीते हैं. इन में कुल 23 गोल्ड मैडल, 3 सिल्वर मैडल और 2 ब्रौंज मैडल शामिल हैं.

‘‘और सिंक्रोनाइज्ड स्विमिंग तो सुना ही होगा. माइकल फेल्प्स तो अकेला तैराक था, जिस ने अपने दम पर इतना ज्यादा नाम कमाया, पर सिंक्रोनाइज्ड स्विमिंग में तो टीम वर्क होता है. इस में कई तैराकों को संगीत की लय पर पानी में अपनी तैराकी का प्रदर्शन करना पड़ता है, जिस में डांस और जिमनास्टिक शामिल रहते हैं.’’

‘‘तुम क्रिकेट पसंद नहीं करती तो क्या इस की वैल्यू खत्म हो जाती है… इस खेल में पैसा है, नाम है, इज्जत है… और क्या चाहिए किसी को…’’ विजय ने कहा.

‘‘और मैच फिक्सिंग भी… सट्टेबाजी भी… क्यों?’’ अनामिका बोली, ‘‘अभी आईपीएल में भी यही खबर चल रही है. इस पर भी थोड़ी रोशनी डालिए विजय सरजी…’’ अनामिका बोली.

विजय पहले तो चुप रहा, पर अनामिका के ज्यादा जोर देने पर वह बोला, ‘‘खबरों के मुताबिक तो इंडियन प्रीमियर लीग पर मैच फिक्सिंग का साया मंडरा रहा है. भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने मैच फिक्सिंग के डर को देखते हुए सभी फ्रैंचाइजी मालिकों, खिलाडि़यों और सहयोगी स्टाफ ही नहीं, बल्कि कमेंटेटर्स तक को चेतावनी जारी कर दी है.

‘‘बीसीसीआई की भ्रष्टाचार निरोधक सुरक्षा इकाई का मानना है कि हैदराबाद का एक तथाकथित कारोबारी के सट्टेबाजों से संबंध हैं. ऐसे में कोई भी उस के लालच के झांसे में न आए.

‘‘इतना ही नहीं, उस कारोबारी को टीम के होटलों और मैचों में भी देखा गया है, जहां वह खिलाडि़यों और कर्मचारियों से दोस्ती करने की कोशिश करता है और उन्हें निजी पार्टियों में इनवाइट करता है. ऐसी घटनाएं भी हुई हैं, जब उस ने न केवल खिलाडि़यों को, बल्कि उन के परिवारों को भी उपहार दिए हैं.

‘‘रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि इस शख्स द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफार्म के जरीए विदेश में रहने वाले खिलाडि़यों या कोचों के रिश्तेदारों से संपर्क करने की भी कोशिश की गई है.’’

‘‘पर आईपीएल के छठे सीजन में भी तो एक टीम के प्रदर्शन से ऐसा महसूस हुआ था कि मैच फिक्स किया गया था. यह क्या मामला था?’’ अनामिका ने पूछा.

‘‘अच्छा, वह मामला. आईपीएल के छठे सीजन में मैच फिक्सिंग के आरोप के बाद राजस्थान रौयल्स टीम के 3 खिलाड़ी एस. श्रीसंत, अजीत चंदीला और अंकित चव्हाण को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार किया था.

हालांकि, लीग तो चलती रही थी, लेकिन राजस्थान रौयल्स पर 2 साल का बैन लगा था. खिलाडि़यों को कोर्ट से लंबी लड़ाई के बाद क्लीन चिट मिल गई थी, लेकिन उस के बाद उन का कैरियर चौपट हो गया था.

‘‘चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक एन. श्रीनिवासन के दामाद गुरुनाथ मयप्पन पर भी धोखाधड़ी के आरोप लगे थे. इस के चलते इस टीम पर 2 साल का बैन भी लगा था. हालांकि, बाद में कोर्ट ने इस मामले में भी क्लीन चिट दे दी थी.’’

‘‘इस बार भी राजस्थान रौयल्स टीम पर आरोप लगे हैं. राजस्थान क्रिकेट संघ की तदर्थ समिति के संयोजक जयदीप बिहानी ने टीम पर मैच फिक्सिंग में शामिल होने का आरोप लगाया था,’’ अनामिका ने कहा.

‘‘यह खबर भी आई थी. इंडियन प्रीमियर लीग की फ्रैंचाइजी राजस्थान रौयल्स टीम लखनऊ सुपर जायंट्स के खिलाफ चौंकाने वाली हार के बाद विवादों में घिर गई थी.

‘‘मैच नंबर 36 में 181 रनों के टारगेट का पीछा करते हुए संजू सैमसन की अगुआई वाली टीम को आखिरी ओवर में जीत के लिए सिर्फ 9 रन चाहिए थे और उस के पास 6 विकेट भी हाथ में थे, लेकिन सभी को चौंकाते हुए टीम 2 रन से मुकाबला हार गई थी.

‘‘इस से पहले भी राजस्थान रौयल्स टीम दिल्ली कैपिटल्स के खिलाफ एक और मैच में आखिरी ओवर में 9 रन नहीं बना सकी थी, जबकि 7 विकेट बाकी थे. राजस्थान रौयल्स यह मुकाबला सुपर ओवर में हार गई थी.

‘‘पर मैच फिक्सिंग के आरोप लगने से क्रिकेट की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है. आज भी लोग क्रिकेट मैच देखने के लिए हजारों रुपए खर्च करते हैं,’’ विजय बोला.

‘‘पर, यह गलत है. खेल मनोरंजन के लिए होता है. और अगर कोई मैच फिक्स है या उस पर सट्टा लग रहा है, तो यह खेल प्रेमियों के साथ चीटिंग है. उन्हें भरमाया जा रहा है. खेल पर पैसा हावी है और यह क्रिकेट की साख पर बट्टा लगा रहा है,’’ अनामिका बोली और विजय के पास से उठ कर उन बच्चों के पास जा बैठी, जो उस क्रिकेट मैच का मजा ले रहे थे. उन बच्चों में से एक मायूस बैठा था. अनामिका ने उस से पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम्हें क्रिकेट देखना पसंद नहीं है क्या?’’

वह बच्चा बोला, ‘‘ऐसा नहीं है दीदी, पर ये बड़े बच्चे मुझे खेलने का मौका ही नहीं देते हैं. हर रविवार को बुला लेते हैं, पर सिर्फ फील्डिंग करा कर भगा देते हैं. न बल्लेबाजी करने देते हैं और न ही गेंदबाजी.’’

इतने में एक बल्लेबाज ने एक ऐसा जोरदार शौट लगाया कि गेंद सीधा अनामिका के कंधे पर आ कर लगी. वह दर्द से बिलबिला उठी.

बल्लेबाज ने वहीं से कहा, ‘‘सौरी दीदी…’’

पर तब तक विजय भागता हुआ उस बल्लेबाज के पास पहुंच गया और उस का कान उमेठते हुए बोला, ‘‘खेलने की तमीज नहीं है. भला कोई इतनी तेज शौट मारता है क्या…’’

वह लड़का शर्मिंदा हो कर बोला, ‘‘भैया, मैं ने जानबू झ कर नहीं मारा.’’

इतने में अनामिका भी वहां पहुंच गई और विजय से बोली, ‘‘बच्चे को क्यों डांट रहे हो? अपनी भड़ास इस पर मत निकालो. खेल में तो छोटीमोटी चोट लगती रहती है. तुम इन्हें धमका कर इन सब का खेल मत खराब करो.’’

‘‘तुम्हारा दर्द कैसा है अब?’’ विजय ने पूछा.

‘‘तुम्हारी इस हरकत ने और बढ़ा दिया है. तुम्हें बच्चे को नहीं डांटना चाहिए था. मैं जा रही हूं,’’ इतना कह कर अनामिका वहां से जाने लगी.

विजय को लगा कि इतनी मुश्किल से तो अनामिका मानी थी, पर अब फिर नाराज हो गई है. वह उस के पीछे भागा और उस बच्चे से बोला, ‘‘सौरी, तुम सब खेलो. पर, आगे से ध्यान रखना कि किसी को चोट न लगे.’’

वह लड़का बोला, ‘‘कोई बात नहीं भैया, आप पहले दीदी को मनाओ. कहीं आप क्लीन बोल्ड न हो जाओ.’’

उस लड़के के इतना कहते ही बाकी बच्चे भी हंसने लगे. यह बात अनामिका ने भी सुन ली थी. वह मुसकराई जरूर, पर पलट कर नहीं देखा.

Funny Story: स से सरकारी शिक्षक, स से सत्यानाश

Funny Story: शर्माजी दिल्ली से पटना जाने वाली ट्रेन में सवार हुए. विंडो सीट पर बैठा साथी मुसाफिर हथेली पर खैनी रगड़ रहा था. तय समय पर ट्रेन चल पड़ी. थोड़ी देर बाद उस साथी मुसाफिर ने शर्माजी से बातचीत करना शुरू कर दिया और बीचबीच में खैनी मिले थूक को खिड़की से बाहर ट्रांसफर कर रहा था.

नाम, पता और मंजिल की जानकारी लेने के बाद वह साथी मुसाफिर पूछ बैठा, ‘‘और बताइए शर्माजी, क्या करते हैं आप?’’

शर्माजी ने कहा, ‘‘भाई, आज की तारीख में धरती पर कौन सा ऐसा काम है, जो हम नहीं करते.’’

साथी मुसाफिर ने चौंकते हुए पूछा, ‘‘आप का मतलब…?’’

शर्माजी ने बताया, ‘‘भाई साहब, हम लोगों के घर जाजा कर उन के परिवार की पूरी जानकारी जमा करते हैं. मसलन, परिवार में कितने लोग हैं, उन की उम्र, पढ़ाईलिखाई वगैरह…’’

साथी मुसाफिर ने बीच में टोकते हुए कहा, ‘‘अजी, हम सम झ गए… आप जनगणना महकमे में काम करते हैं.’’

शर्माजी ने हलकी मुसकान बिखेरते हुए कहा, ‘‘अरे, नहीं भाई. कैंप लगा कर कभी बच्चों को पोलियो की खुराक पिलाते हैं, तो कभी अपने संस्थान में पेट के कीड़ों की गोली, एनीमिया की गोली, तो कभी हैपेटाइटिस का टीका भी लगवाते हैं.’’

साथी मुसाफिर तपाक से बोला, ‘‘सम झ गए, आप हैल्थ महकमे में कंपाउंडर हैं.’’

शर्माजी दोबारा मुसकराते हुए बोले, ‘‘अभी भी आप नहीं सम झे… हम न छोटेछोटे बच्चों को अपने संस्थान में दोपहर में मुफ्त भोजन करवाते हैं,

हर साल कपड़े, साइकिल वगैरह भी बांटते हैं…’’

साथी मुसाफिर ने बीच में टोकते हुए कहा, ‘‘तो ऐसा बोलिए न कि आप एनजीओ चलाते हैं. वाकई, बड़ा नेक काम कर रहे हैं भाई आप.’’

शर्माजी खिलखिला कर हंसते हुए बोले, ‘‘भैया, हम कोई एनजीओ या रिलायंस जियो नहीं चलाते हैं. हम तो संस्थान के लिए कपड़ा, चावल, अंडा, कौपीकिताब, जूताचप्पल, राजमा वगैरह की खरीदारी करते हैं और उस का हिसाबकिताब रखते हैं.’’

वह साथी मुसाफिर फिर बोला, ‘‘अच्छाअच्छा, आप अकाउंटैंट हैं.’’

शर्माजी भी अपनी गरदन हिलाते हुए बोले, ‘‘नहीं, वह भी नहीं हैं. दरअसल, मैं पंचायत चुनाव, विधानसभा चुनाव से ले कर संसदीय चुनाव तक करवाता हूं.’’

साथी मुसाफिर मुसकराते हुए बोला, ‘‘तो ऐसे बोलिए न महाराज कि इलैक्शन कमीशन में काम करते हैं.’’

शर्माजी फिर बोले, ‘‘न… अभी भी आप नहीं सम झ पाए. हम वह भी नहीं हैं. वैसे, हम छात्रों को हर महीने स्कौलरशिप भी बांटते हैं.’’

साथी मुसाफिर ने चौंकते हुए कहा, ‘‘कहीं आप जनकल्याण महकमे में बड़े अफसर तो नहीं हैं…’’

शर्माजी ने गरदन उचकाते हुए कहा, ‘‘अरे नहीं भाई, बड़ा अफसर बनना हमारे नसीब में कहां… वैसे, कभीकभी हम अपने हक के लिए सरकार के खिलाफ मोरचा खोल कर अधनंगा आंदोलन भी करते हैं. हालांकि, इस के एवज में हम पुलिस की लाठियां भी खा लेते हैं.’’

साथी मुसाफिर ने सिर खुजाते हुए कहा, ‘‘मतलब, आप या तो क्रांतिकारी हैं या फिर समाजसेवी…’’

शर्माजी तल्ख शब्दों में बोले, ‘‘कमाल करते हैं भाई, क्या मैं आप को असामाजिक तत्त्व दिख रहा हूं? आप की जानकारी के लिए मैं बता दूं कि असामाजिक तत्त्वों और कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कभीकभी हमें दंडाधिकारी भी बनना पड़ता है.’’

साथी मुसाफिर हैरानी से देखते हुए बोला, ‘‘तो फिर आप किसी कोर्ट में मजिस्ट्रेट हैं…’’

शर्माजी ने यह सुन कर भी ‘न’ के संकेत में मुंह बनाया.

साथी मुसाफिर ने झुं झलाते हुए कहा, ‘‘गजब है जनाब, आप तो अपनेआप में एक पहेली हैं जी. आखिर आप किस महकमे में और किस पद पर काम करते हैं भाई?’’

शर्माजी ने लंबी सांस लेते हुए कहा, ‘‘देखिए, जब हम इन कामों से फ्री होते हैं, तो कभीकभी बच्चों को पढ़ालिखा भी देते हैं.’’

साथी मुसाफिर खैनी को खिड़की से बाहर थूकते हुए धीरे से कहा, ‘‘मतलब, कहीं आप सरकारी स्कूल मास्टर…’’

शर्माजी ने उस आदमी के कंधे पर हाथ रख कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘एकदम सही पकड़े हैं आप. दरअसल, मैं ‘शिक्षक दिवस’ पर हुए एक कार्यक्रम में सम्मानित होने के लिए दिल्ली आया था.’’

Hindi Story: एक अंबर सूना सा

Hindi Story: ‘‘अंबर, क्या कह रहे हो तुम… बहू को तलाक चाहिए… पर अभी तुम्हारी शादी को तो सिर्फ 4 महीने ही हुए हैं,’’ मां ने हैरान होते हुए कहा.

‘‘आप लोगों के कहने पर मैं ने शादी कर ली थी, पर अब दिल्ली की एक लड़की यहां इस छोटे से शहर में खुश नहीं रह पा रही है, तो मैं क्या करूं,’’ अंबर ने झल्लाते हुए कहा.

‘‘ठीक है, मैं बहू से बात करती हूं… देखती हूं कि माजरा क्या है,’’ मां ने कहा और अंदर चली गईं.

दिल्ली से 800 किलोमीटर की दूरी पर तराई के इलाके में बसा हुआ यह छोटा सा शहर था. यहां पर गन्ने की फसल ज्यादा होने के चलते लोग इसे ‘चीनी का कटोरा’ भी कहते थे.

इस जगह पर आज से 20 साल पहले देव रायजादा ने एक इंगलिश मीडियम स्कूल की स्थापना की थी और इसी जगह को अपनी कर्मभूमि भी बनाया था.

अच्छे स्कूलों की कमी के चलते देव रायजादा का ‘स्टार इंटरनैशनल स्कूल’ खूब चलने लगा था और देव रायजादा ने इस छोटी सी जगह पर अच्छा मुकाम हासिल कर लिया था.

देव रायजादा के 2 बेटे थे. बड़े बेटे का नाम अंबर और छोटे बेटे का नाम धीरज था. दोनों की पढ़ाईलिखाई नैनीताल में हुई थी. जब बड़ा बेटा अंबर नैनीताल में मैनेजमैंट का कोर्स पूरा कर के आया, तो देव रायजादा ने अपना स्कूल का बिजनैस उसे सौंपने में जरा भी देर नहीं की.

इस के बाद अंबर ने स्कूल में कई मौडर्न बदलाव किए. पहले से बेहतर स्टाफ बहाल किया और कुछ दिनों में ही ‘स्टार इंटरनैशनल स्कूल’ की गिनती शहर के ही नहीं, बल्कि पूरे जिले के अच्छे स्कूलों में होने लगी.

स्कूल चलने लगा, तो देव रायजादा निश्चिंत हो गए और अंबर की शादी के लिए लड़की तलाशने लगे. अब अगर लड़का अच्छी पढ़ाई कर के आया है, तो लड़की भी पढ़ीलिखी और ऊंचे घराने की होनी चाहिए.

अंबर ने शादी के लिए बहुत नानुकर भी की, पर देव रायजादा को अपने बेटे की शादी कराने की बड़ी हसरत थी, इसलिए अंबर भी कुछ कह न सका.

अंबर की शादी दिल्ली से हुई थी. लड़की विद्या भी बड़े घराने से थी. विदाई के बाद वह ससुराल आ गई.

जहां ससुराल आने के बाद लड़की के चेहरे पर चमक आनी चाहिए, वहां विद्या का चेहरा मुरझाने लगा.

सभी घर के लोगों ने भी इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, क्योंकि शादी के बाद पहली बार ससुराल आने पर थोड़ाबहुत एडजस्ट करने में समय तो लगता ही है.

पर आज अचानक से बहू के द्वारा तलाक दिए जाने की बात ने सब को हिला कर रख दिया था, पर अंबर अब भी सामान्य ही दिख रहा था.

मां ने जब बहू से तलाक की वजह जाननी चाही, तो उस ने नपेतुले शब्दों में उन से यह कह दिया, ‘‘तलाक के पीछे की वजह आप अपने बेटे से ही पूछिएगा,’’ कह कर विद्या अपने मायके जाने की तैयारी करने लगी.

सब को लग रहा था कि हो सकता है कि पतिपत्नी में कोई ?ागड़ा हुआ हो और बहुत मुमकिन है कि विद्या वापस आ जाए, पर काफी समय बीतने के बाद भी विद्या तो नहीं आई, अलबत्ता तलाक के लिए उस के वकील का फोन जरूर आ गया.

तलाक देने के लिए अंबर भी उत्सुक दिखा. इस तरह अंबर और विद्या में तलाक हो गया.

कितने नाजों से अंबर की शादी कराई थी देव रायजादा ने और शादी के बाद इतनी जल्दी बेटे का तलाक हो जाने से देव रायजादा और उन की पत्नी बहुत दुखी हो रहे थे. पूरे कसबे में उन की किरकिरी हो रही थी.

अपनी पूरी जिंदगी में देव रायजादा ने औरतों को दोयम दर्जे की निगाह से ही देखा था और अपने स्कूल में
काम करने वाली हर औरत का जिस्मानी और दिमागी शोषण करने में भी देव रायजादा का कोई सानी नहीं था.

स्कूल के होस्टल में महिला वार्डन के पद पर जो भी महिला आती, देव रायजादा उस से पहले तो बहुत शालीनता से पेश आते, फिर धीरेधीरे उस से हंसीठिठोली और मजाक का मौका देख कर उसे अपनी हवस का शिकार बना लेते.

अगर महिला वार्डन को अपना जिस्मानी शोषण कराना मंजूर होता, तो वह चुपचाप काम करती रहती और अगर कोई इस के खिलाफ आवाज उठाती तो देव रायजादा उस पर ?ाठे आरोप लगा कर उसे नौकरी से ही निकाल देते थे.

कुछ इस तरह की नजर देव रायजादा रखते थे अपने महिला स्टाफ पर और आज उसी का लड़का ऐसा नकारा निकेलगा, जिस से अपनी एक खूबसूरत बीवी भी नहीं संभाली जाएगी, यह बात देव रायजादा के लिए बहुत बेइज्जती वाली थी.

एक तरफ तो देव रायजादा कसबे के एक इज्जतदार आदमी के रूप में अपनेआप को दिखाते थे, तो वहीं दूसरी तरफ उन का असली चेहरा एक ऐयाश का था, पर उन की बीवी मालिनी उतनी ही अंधविश्वासी और तंत्रमंत्र में यकीन करने वाली थीं. अपने विशाल भवन में वास्तु के आधार पर कुछ न कुछ तोड़फोड़ कराना व साधु और तांत्रिकों को अनुष्ठान के नाम पर घर पर बुलवाना और कुछ न कुछ देते रहना देव रायजादा के परिवार का पसंदीदा काम था.

‘‘देखो, हमारा अंबर कितना हैंडसम है. शादी में घोड़ी पर बैठा हुआ कितना बांका जवान लग रहा था. मैं तो कहती हूं कि हो न हो, उसे किसी की बुरी नजर लग गई है,’’ मालिनी ने अपने पति देव रायजादा से चिंता जाहिर की, तो उन की हां में हां मिलाते हुए देव रायजादा भी सोच में पड़ गए.

‘‘आप कहें तो हम एक तांत्रिक को बुला कर अंबर की बुरी नजर उतरवा दें, ताकि उस की जिंदगी भी दोबारा पटरी पर आ सके?’’ मालिनी ने कहा, तो देव रायजादा भी उन का खुल कर विरोध नहीं कर सके. उस दिन सुबह से ही मालिनी और देव रायजादा ज्यादा जोश में नजर आ रहे थे. होते भी क्यों न, आज उन के यहां एक बड़े तांत्रिक जो आने वाले थे… स्वर्णकांत महाराज.

इन तांत्रिक का रुतबा और अहमियत इसलिए भी बढ़ जाती थी, क्योंकि ये एक ‘पुण्यात्मा’ नाम के टैलीविजन चैनल पर आते थे और देखने वालों को तंत्रमंत्र की जानकारी देते थे.

पूरे घर में स्वर्णकांत महाराज के लिए खास इंतजाम किए गए थे. गुरुजी के लिए फूस की एक कुटिया बना दी गई थी, पर उन्हें गरमी न लग जाए, इसलिए उसी कुटिया में एक एयरकंडीशनर लगा दिया गया था और नौकरचाकरों को भी उन की सेवा में रहने के लिए आदेश दे दिया गया था.

ये कोई ऐसे तांत्रिक नहीं थे, जो हवनकुंड के सामने बैठ कर धुएं में कुछ नशीली चीज मिला कर लोगों को ठगते हों, बल्कि तांत्रिक स्वर्णकांत का लोगों को ठगने का तरीका कुछ मौडर्न सा था.

तांत्रिक स्वर्णकांत लोगों का हाथ पकड़ते, उन से कुछ सवाल पूछते और उस के बारे में सबकुछ जान लेने का दावा करते थे. अंबर को भी आज शाम को उन के पास लाया जाना था.

अपनी फूस की झांपड़ी में आंखों को बंद किए हुए स्वर्णकांत महाराज बैठे हुए थे. रायजादा दंपती अपने बेटे अंबर को ले कर आए और तांत्रिक को प्रणाम करते हुए अंबर को उन के पास जाने को कहा.

तांत्रिक स्वर्णकांत ने अंबर की ओर देखा, उस का दायां हाथ अपने हाथ में पकड़ा और कुछ देर तक बुदबुदाने का नाटक किया और रायजादा दंपती की ओर देख कर बोले, ‘‘अंबर कुछ परेशान है. इसे कुछ समय चाहिए. मैं इसे कुछ क्रियाएं बता दूंगा, जिन्हें करने से इसे आराम मिलेगा.’’

‘‘पर स्वामीजी, शादी के 4 महीने बाद ही बहू का इस तरह मेरे बेटे से मोह भंग हो जाना कैसे हुआ?’’ देव रायजादा ने हाथ जोड़ते हुए पूछा.

‘‘कुलटा थी वह…’’ स्वर्णकांत ने थोड़ा गुस्सा होते हुए कहा, ‘‘किसी दूसरे मर्द के चक्कर में थी तेरी बहू… वह भी एक शादीशुदा मर्द के साथ, इसीलिए तेरे इस राजमहल जैसे घर में भी उसे अच्छा नहीं लगा और वह भाग गई.’’

अपनी बहू के बारे में ऐसी बातें सुन कर रायजादा दंपती सन्न रह गए और दांतों तले उंगली दबाने लगे.

‘‘चलो, अच्छा हुआ, जो ऐसी लड़की से पिंड छूट गया,’’ मालिनी ने धीरे से कहा.

तकरीबन एक हफ्ते तक तांत्रिक स्वर्णकांत ‘रायजादा हाउस’ में रुके और उन की तमाम तरह की समस्याओं का कुछ न कुछ हल बताते रहे. जाते समय पूरे 5 लाख रुपए का चैक देव रायजादा ने स्वर्णकांत महाराज के चरणों में अर्पित कर दिया.

स्वर्णकांत महाराज ने जातेजाते यह भी बताया कि ‘रायजादा हाउस’ में पौजिटिव ऊर्जा की कमी है, इसीलिए उन पर आएदिन कुछ न कुछ संकट आता रहता है. इस पौजिटिव एनर्जी को बढ़ाने के लिए अपने घर के बीचोंबीच एनर्जी बढ़ाने वाले लाल रंग के बड़ेबड़े पत्थर लगवाने होंगे, जो सिर्फ स्वर्णकांत के आश्रम में ही अभिमंत्रित किए जाते हैं.

स्वर्णकांत ने यहां से पहुंचते ही उन पत्थरों को तैयार कर के देव रायजादा को भेजने की बात कह दी और स्वर्णकांत के एक चेले ने उन पत्थरों को अभिमंत्रित कर के यहां तक भेजने का खर्चा साढ़े 3 लाख रुपए बताया, जिस का भुगतान भी बड़ी ही श्रद्धा के साथ चैक के रूप में देव रायजादा ने तुरंत ही कर दिया था.

अगले कुछ महीनों में देव रायजादा ने अंबर के अंदर कुछ पौजिटिव से बदलाव होते देखे. अब अंबर ने अपनी जिंदगी को थोड़ा संवारने की कोशिश की थी और अपनेआप को स्कूल के कामकाजों में बिजी कर लिया था.

अंबर के पापा को उस का यह बदला हुआ रूप देख कर बहुत अच्छा लग रहा था और वे मन ही मन एक बार फिर से अंबर की शादी बड़े ही धूमधाम से कराने की बात सोच रहे थे.

देव रायजादा इस बार एक ऐसी बहू लाना चाहते थे, जो कम पैसे वाली हो, ताकि इस घर में अपना मुंह न खोल सके और हर हाल में रहने को तैयार रहे.

इस बाबत उन्होंने सब से पहले अपने गुरुजी से बात की और उन्हें बताया कि वे अंबर के लिए एक लड़की ढूंढ़ रहे हैं.

इतना सुनते ही तांत्रिक स्वर्णकांत ने उन्हें तुरंत अपने एक भक्त की लड़की के बारे में बताते हुए कहा कि वे उस के पूरे परिवार को जानते हैं और लड़की व परिवार बहुत शालीन है और अंबर के साथ जोड़ी एकदम परफैक्ट रहेगी.

अंबर को लड़की की तसवीर दिखाई गई, पर वह अब भी शादी करने के लिए राजी नहीं था. देव रायजादा ने समझा कि एक बार शादी नाकाम हो जाने के चलते बेटा दोबारा शादी करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है, पर धीरेधीरे नई बहू सब सही कर देगी, ऐसा मान कर स्वर्णकांत द्वारा बताई गई लड़की के साथ शादी की बात आगे बढ़ानी शुरू कर दी गई.

ठीक उसी दौरान देश में कोरोना की दूसरी लहर आई, जिस में लौकडाउन लगा दिया गया और शादी जैसे कार्यक्रमों में भीड़ के जमा होने पर भी रोक लगा दी गई.

देव रायजादा इस बात से परेशान हो उठे, क्योंकि वे अपने लड़के की शादी बड़े ही धूमधाम से करना चाहते थे. उन की यह परेशानी दूर करते हुए स्वर्णकांत ने कहा कि वरवधू एक सादा समारोह में तंत्र विद्या से शादी कर लेंगे और तांत्रिक स्वर्णकांत के चारों ओर फेरे ले लेंगे तो शादी हो जाएगी.

तांत्रिक के रंग में रंगे हुए रायजादा दंपती को भला इस से अच्छी बात और क्या लग सकती थी. स्वर्णकांत के बताए मुताबिक ही अंबर की शादी रूही नाम की लड़की से हो गई. इस शादी में घर के लोगों को छोड़ कर और किसी को न्योता नहीं दिया गया था.

शादी के बाद देव रायजादा ने अंबर और रूही से हनीमून पर जाने को कहा, तो रूही तपाक से बोल पड़ी, ‘‘पापाजी, ये हनीमून वगैरह तो अंगरेजों के चोंचले हैं. हमें तो यहां रह कर आप लोगों की सेवा करनी है बस.’’

नईनवेली बहू के इस तरह से प्यार जताने पर रायजादा दंपती बहुत खुश हुए.

रूही दूसरी बहुओं की तरह शरमा कर घर के अंदर बैठने वाली नहीं थी, बल्कि उस ने तो स्कूल के कामों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना भी शुरू कर दिया था और बहुत जल्दी ही वह सारा कामकाज भी समझ गई थी.

रूही की लगन और टैलेंट को देख कर देव रायजादा ने उसे स्कूल का मैनेजिंग डायरैक्टर बना दिया था.

इस दौरान कई बार तांत्रिक स्वर्णकांत भी अपनी मरजी से ‘रायजादा हाउस’ में आता और अपनी एसी वाली कुटिया में कई दिन तक रहता. देव रायजादा खुश थे कि गुरुजी का आशीर्वाद भी उन्हें भरपूर मिल रहा है.

अंबर की दूसरी शादी हुए तकरीबन 7 महीने बीत गए थे. रात के 11 बजे होंगे. अंबर अपने मम्मीपापा के पास आया. वह बहुत परेशान सा लग रहा था. उस ने अपने पापा की ओर देखा और बताया, ‘‘पापा, वह बात ऐसी है कि रूही पेट से हो गई है.’’

‘‘अरे वाह, यह तो बड़ी खुशी की बात है,’’ देव रायजादा अंबर को गले लगाने के लिए आगे बढ़े, तो अंबर दो कदम पीछे हट गया, ‘‘पर पापा, दिक्कत वह नहीं है.’’

‘‘अरे, इस में दिक्कत की क्या बात है, मेरा शेर आज पापा बन गया है. यह तो खुशी की बात है.’’

‘‘नहीं पापा, मैं इस बच्चे का बाप नहीं हूं, बल्कि मैं तो बाप बन ही नहीं सकता, क्योंकि मैं गे हूं,’’ कह कर अंबर ने अपना सिर नीचे ?ाका लिया था और उस का स्वर भी एकदम धीमा पड़ गया था.

‘‘तो फिर उस बच्चे का बाप कौन है? तुम ने यह बात मुझे पहले क्यों नहीं बताई?’’ देव रायजादा ने पूछा, तो अंबर ने उन्हें बताया कि वह तो पहले ही उन्हें सब सच बताना चाहता था, पर आप ने सुनने की कोशिश ही नहीं की. अपनी पहली बीवी को जिस दिन अंबर ने यह राज बताया था, वह उसी दिन उसे छोड़ कर चली गई थी.

‘‘पर, गुरुजी तो कह रहे थे कि वह कुलटा है,’’ मां ने कहा.

गुरुजी का नाम आने पर अंबर ने कहना शुरू किया, ‘‘दरअसल, आप लोग जब उस दिन मुझे गुरुजी के सामने ले कर गए थे और उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा था, तभी मैं ने अपने बारे में उन्हें सब सचसच बता दिया था, जिस को सुनने के बाद उन्होंने मुझे निश्चिंत करते हुए कहा था कि मैं चिंता नहीं करूं, वे अपनी शक्ति से मुझे सही कर देंगे और जैसा वे कहते हैं, मैं वैसा ही करता चलूं,’’ कहते हुए अंबर की आंखों में आंसू तैरने लगे थे.

‘‘फिर तो तुम्हारे गे होने की बात गुरुजी को हम लोगों को भी बतानी चाहिए थी. शायद हम लोग तुम पर दूसरी शादी का दबाव ही नहीं डालते,’’ पापा ने कहा.

‘‘हमें अभी चल कर गुरुजी से इन सारी बातों और समस्याओं का हल पूछना होगा और फिर यह भी जानना होगा कि जब वह बच्चा तुम्हारा नहीं है, तो भला किस का है?’’ मां ने कहा.

वे तीनों स्वर्णकांत महाराज की कुटिया की ओर चल दिए, पर कुटिया के पास पहुंच कर उन्हें ठिठक जाना पड़ा, क्योंकि अंदर से रूही की आवाज आ रही थी, ‘‘मान गई तुम को… कितनी आसानी से इन पढ़ेलिखे और पैसे वाले लोगों को अंधविश्वास के चक्कर में फंसा कर बेवकूफ बनाते हो…

‘‘मैं ने अंबर के बैंक अकाउंट को खाली कर दिया है. जल्दी बताओ, अब हमें और क्या करना है?’’

बाहर खड़े रायजादा परिवार के कान यह सुनते ही सन्न रह गए थे.

‘‘करना क्या है मेरी मैना… यहां से सबकुछ बटोर कर किसी और मुरगे को तलाशना है, जो पैसे वाला भी हो और अंधविश्वासी भी. आखिर तुम्हें मेरे होने वाले बच्चे के लिए पैसे भी तो चाहिए,’’ स्वर्णकांत के बोलने का लहजा एकदम बदला हुआ था.

इतना सब सुनने के बाद अब और सहन कर पाने की ताकत देव रायजादा में नहीं थी. वे अंदर घुस गए और अपनी पिस्तौल स्वर्णकांत पर तान कर बोले, ‘‘मैं सब समझ गया. यह सब तुम दोनों का बनाबनाया खेल है. मैं अभी पुलिस को बुलाता हूं और तुम दोनो का गंदा खेल खत्म कराता हूं.’’

देव रायजादा कुछ और बोलते, इस से पहले ही स्वर्णकांत उलटा उन्हें ही धमकी देते हुए बोला कि अगर वे पुलिस को बुलाएंगे तो उन की ही बदनामी होगी कि उन का लड़का गे है और उन की बहू के पेट में एक तांत्रिक का बच्चा पल रहा है.

स्वर्णकांत महाराज की इस बात पर देव रायजादा खामोश ही रहे. इतना ही नहीं, अपनी इज्जत बचाने के लिए देव रायजादा को 10 लाख रुपए और देने पड़े.

Hindi Story: सवा किलो चांदी

Hindi Story, लेखक – सी. दुबे

आएदिन की कलह से ग्यारसीबाई तंग आ गई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे और क्या न करे. अपने घर वाले को वह पचासों बार समझा चुकी थी, मगर वह सवा किलो चांदी को भूल ही नहीं पाता था. जब देखो, तब ग्यारसीबाई को ताना मारता रहता था, ‘‘चिराग ले कर ढूंढ़ने पर भी ऐसे अक्लमंद कहीं नहीं मिलेंगे. सवा किलो चांदी अपने हाथ से उतार कर दे दी. चोरडाकू को भी लोग इतने सस्ते में नहीं निबटाते.’’

ऐसे तानों से तिलमिला कर ग्यारसीबाई ने बारबार कैफियत दी थी, ‘‘मुझे क्या पता था कि मां जाया सगा भाई ही मुझे लूट लेगा. मैं ने तो भोलेपन में अपने बदन के सारे गहने उतार कर उसे दे दिए थे.

‘‘उस ने कहा था, ‘बाई, तेरे ये गहने मैं जल्दी ही छुड़वा दूंगा. अभी मेरे गले की यह फांसी तू निकलवा दे.

इन गहनों को गिरवी रख कर बैंक का कर्ज जमा कर देने दे, नहीं तो घर पर कुर्की आ जाएगी. घर, जमीन सब नीलाम हो जाएंगे. बापदादा की लाज अब तेरे हाथ में है.’

‘‘मैं ने बाप के घर की लाज रखने को उस मुए को सारे गहने दे दिए थे. मुझे क्या पता था कि वक्त निकल जाने पर वह तोते की तरह आंखें फेर लेगा. मैं ने आफत जान कर भाई के गले की फांसी निकाली. मुसीबत के वक्त एकदूसरे की मदद करते ही हैं. मुझे क्या पता था कि होम करते हाथ जलेंगे?

‘‘उस मुए के पेट में ‘पाप’ था. वह कुछ सालों तक मुझे झांसा देता रहा. कहता रहा कि इस साल हाथ तंग है, फसल बिगड़ गई. आते साल तेरे गहने छुड़ा दूंगा. आते साल भी उस ने ऐसा ही बहाना कर दिया. इसी तरह 3-4 साल निकल गए. बाद में उस ने कह दिया कि तेरे गहने तो साहूकार के यहां डूब गए, ब्याज ही ब्याज में गल गए.

‘‘मैं ने तकाजा किया कि डूब गए तो दूसरे बनवा कर दे. मुझे तो अपनी सवा किलो चांदी चाहिए. तब मुए ने हाथ खड़े कर दिए. वह बोला, ‘सवा किलो चांदी तो 100 बरस में भी मुझ से नहीं दी जाएगी.’

‘‘तो क्या बाप के दिए गहने तू खा जाएगा? तब मुए ने बेशरम की तरह जवाब दे दिया था, ‘मैं ने कहां खाए? तेरे गहने तो साहूकार खा गया.’

‘‘मैं ने जब ज्यादा ही तकाजा शुरू किया, तो उस ने साफ कह दिया था, ‘गहनों का नाम मत ले. समझ ले, दादा ने दिए ही नहीं थे.’

‘‘उस के इन छक्केपंजों से मैं समझ गई थी कि उस की नीयत खराब है, इसलिए मैं ने भी साफसाफ कह दिया था, ‘देख बाबू, मेरी सवा किलो चांदी तो तुझे हर हालत में देनी होगी. मेरे घर वाले मेरी नाक में दम कर रहे हैं.’

‘‘मगर, उस बेशरम के पास तो बस एक ही जवाब था, ‘नहीं हैं मेरे पास. जब होंगे, तब दे दूंगा.’

‘‘मैं खूब रोई, गिड़गिड़ाई, मांबाप की बेइज्जती होने की बात कही, मगर वह बेईमान टस से मस न हुआ. मेरी भौजाई ने तो मुझे धक्के दे कर घर से बाहर निकाल दिया.

‘‘जिस भाई को ‘बीरबीर’ कह के इतराती रही, वह मुआ देखता रहा. अपनी औरत को उस ने नहीं टोका. जिस भाई के लिए मैं ने ‘मनौतियां’ मानी, उसी ने मुझे चालबाजी से लूट लिया.

‘‘तब सारी बात मेरी समझ में आ गई. दुनिया के छलकपट मैं समझने लगी. मगर ब्याह के बाद के उन शुरुआती सालों में तो पीहर ही प्यारा लगता था, इसीलिए ठगी गई. उस समय भाई और भौजाई की पढ़ाई पट्टी में मैं आ गई. अभी जैसा समय होता तो मैं उन बेईमानों को चांदी की सलाई भी न देती.

‘‘उन बेईमानों ने मेरी सवा किलो चांदी भी हड़प ली और नाता भी तोड़ लिया. बोलना ही बंद कर दिया. पीहर का मेरा रास्ता बंद कर दिया. मेरा इस में क्या कुसूर है?’’

ग्यारसीबाई की ऐसी कैफियतों का उस के घर वाले पर कोई असर नहीं होता था. वह बस एक ही बात की रट लगाए था, ‘‘सवा किलो चांदी ला.’’

ग्यारसीबाई झुंझला कर पूछती थी, ‘‘कहां से लाऊं?’’

घर वाला तपाक से कह देता था, ‘‘कहीं से भी ला. तेरे मांबाप ने जमाने के सामने तो बड़ा नाम कर दिया कि सवा किलो चांदी दी बेटी को. मगर, ससुराल वालों को उस में से छल्ला भी नहीं मिला.’’

फूटफूट कर रोती हुई ग्यारसीबाई विलाप करने लगती थी, ‘‘अगर मेरे मांबाप जिंदा होते, तो मैं उन के पास फरियाद ले कर जाती. उस मुए राक्षस से कहकह कर मैं तो हार गई. फरियाद कहां ले जाऊं?’’

ग्यारसीबाई के आदमी को इन बातों से कोई मतलब नहीं था. वह तो बस एक ही बात जानता था, ‘सवा किलो चांदी’. इसलिए घर में आएदिन कलह मची रहती थी.

ग्यारसीबाई को अपने घर वाले का यह तकाजा गलत नहीं लगता था. वह मानती थी कि उन की सवा किलो चांदी की रट ठीक है, क्योंकि उस पर उन का भी हक है. शादी में नातेरिश्ते वालों ने और जातबिरादरी वालों ने सवा किलो चांदी देखी थी.

वह चांदी के गहने पहन कर ससुराल आई थी. वे अगर चाहते तो सारे गहने यहीं उतरवा लेते, बिना गहनों के पीहर भेजते. किंतु दोनों घरों की इज्जत के लिए उन्होंने ऐसा नहीं किया.

जब भी वह ससुराल से पीहर गई, तो गहनों से सजीधजी ही गई. भाई की कारिस्तानी से ही वह पीहर से बिना गहनों के आई. फिर भी इन लोगों ने धीरज रखा. सोचा कि मुसीबत में ऐसा होता है.

मगर जब भाई ने हाथ ही ऊंचे कर दिए, तो इन का धीरज कैसे कायम रह सकता था? इन के हक की चीज उस बेईमान ने छीन ली. दूसरे कोई होते तो मारे जूतों के उस को ठीक कर देते. मगर ये तो अभी भी शरीफों की तरह ही तकाजा कर रहे थे. वही मुआ बदमाशी पर उतर आया था. लड़नेझगड़ने को तैयार था.

किंतु ग्यारसीबाई को इसी बात का दुख होता था कि उस का घरवाला उस की मजबूरी क्यों नहीं समझ रहा है. उस ने अपने आदमी को अगर धोखा दिया होता, तो वह अपनेआप को दोषी मानती. किंतु यहां तो धोखा उस के खुद के साथ ही हुआ था. फिर भी घरवाला उसी को टोंचता रहता. वह सोचती कि ऐसा ही है तो वह अपने साले से जा कर झगड़े. बीवी से झगड़ने में क्या तुक है.

ऐसी सलाह देने पर बात हमेशा बढ़ जाती थी. ग्यारसीबाई इस सवाल का जवाब देने के बजाय सवाल ही करती थी, ‘‘तुम और मैं क्या अलगअलग हैं?’’

‘‘अलगअलग भले ही नहीं हैं… मगर, भाईबहन के बीच में मैं कभी नहीं बोलूंगा.’’

‘‘क्यों नहीं बोलोगे? तुम उस से डरते हो क्या?’’

‘‘उस जैसे चार को पानी पिला सकता हूं मैं. उस से कम नहीं हूं.’’

‘‘नहीं हो… तभी तो कहती हूं कि जाओ, उस ठग को जूते मारो और अपनी सवा किलो चांदी ले आओ. बिना जूतों के वह खाक भी नहीं देगा.’’

‘‘नहीं, यह मुझ से नहीं होगा.’’

‘‘क्यों नहीं होगा?’’

‘‘उस ने कभी कुछ ऐसीवैसी बात कह दी, तो मामला बढ़ सकता है?’’

‘‘बढ़ सकता है तो बढ़ने दो. उस की लाश गिरा दोगे तो भी मैं उस के नाम ले कर नहीं रोऊंगी.’’

‘‘हां… तू तो यही चाहती है कि तेरी सवा किलो चांदी के लिए मैं फांसी पर चढ़ जाऊं?’’

‘‘तो चुपचाप बैठो. उठतेबैठते मुझे सुइयां क्यों चुभोते हो?’’

‘‘तुझे तो सुइयां चुभाऊंगा ही, क्योंकि तू ने ही यह बखेड़ा खड़ा किया है. सवा किलो चांदी कोई कम होती है? भाव मालूम है चांदी का? इतनी चांदी होती तो कई रुके काम पूरे हो जाते. मगर तू बैरिन बन गई. तू ने मुंह का कौर छीन लिया.’’

‘‘मैं ने छीना?’’

‘‘और नहीं तो किस ने छीना? हो सकता है कि यह सब भाईबहन की मिलीभगत हो?’’

अपने आदमी की यही तोहमत ग्यारसीबाई को जला देती थी. ऐसे में उस की मंशा होती थी कि कुछ खा कर सो जाए या किसी कुएं या नदी में छलांग लगा दे. किंतु आंचल से बंधी 3 औलादों की वजह से वह ऐसा नहीं कर पा रही थी. ऐसा इरादा करते ही उसे यह खयाल आ जाता था कि उन के न रहने से उस की औलाद यतीम हो जाएगी. घरवाले को तो दूसरी बीवी मिल जाएगी. वह सौत इन बच्चों की जिंदगी जहर बना देगी.

इसी खयाल से ग्यारसीबाई अपनी जिंदगी को खत्म नहीं कर पा रही थी. घर में घुसे कलह को वह बरदाश्त किए जा रही थी. अपने आदमी के तानों से उस का दिल छलनी सा हो गया था, फिर भी वह सहती जा रही थी.

एक रोज बात बहुत बढ़ जाने पर ग्यारसीबाई के घरवाले ने गुस्से में बावला सा हो कर उस की चोटी पकड़ कर दरवाजे के बाहर धकेलते हुए साफ कह दिया, ‘‘जा, सवा किलो चांदी ले कर आ, नहीं तो भाग यहां से.’’

‘फटाक’ से दरवाजा बंद हो जाने पर बच्चे फूटफूट कर रोने लगे. उन का बाप उन्हें डांटते हुए चुप कराने लगा. बच्चे जब चुप नहीं हुए तो वह उन्हें पीटने लगा. बाहर सीढि़यों पर बैठी ग्यारसीबाई से यह बरदाश्त नहीं हुआ.

उस ने अपने कानों में उंगलियां दे लीं. फिर वह भागने लगी. उस के पैर आगे नहीं बढ़ रहे थे, फिर भी वह अपनेआप को धकेलती हुई सी बढ़ती रही. गांव से बाहर पंचायती कुएं के पास जा कर उस ने सोचा कि इस में छलांग लगा दे और छुटकारा पा ले. बच्चे अपनी जिंदगी खुद भोगेंगे.

वह कुएं में छलांग लगाने ही वाली थी कि उसे खयाल आया कि सारे गांव के पानी को जहर बनाने से तो यही अच्छा होगा कि पीहर की देहरी पर जान दे दे. उस मुए पर जगत थूकेगा तो सही. यहां जान देने से तो उस पर आंच भी नहीं आएगी.

यही सोच कर ग्यारसीबाई ने अपनी बाट पकड़ ली. यादों का ज्वार सा उस के भीतर उठने लगा. उसे याद आया कि इसी राह से वह दुलहन बन कर ससुराल आई थी. उस समय इस राह को वह मुड़मुड़ कर देखती रही थी.

इसी राह ने उसे मौका मिलते ही पीहर की ओर दौड़ाया था. हर बार पीहर से लौटते समय वह आंसू बहाती हुई ससुराल लौटी थी. ससुराल में रहते हुए भी पीहर की याद उसे आती रहती थी.

बच्चे होने के बाद भी पीहर के प्रति उस का लगाव कम नहीं हुआ था. भाई ने मिठास में अगर खटाई नहीं घोली होती तो वह इस राह की दीवानी अभी भी रहती. भाई ने इस मनभावन राह पर कांटे बिछा दिए थे.

पर उस वक्त उस राह पर चलते हुए ग्यारसीबाई को यही लग रहा था कि जैसे वह कांटों पर चल रही है और उस के पैर लहूलुहान हो रहे हैं.

अपने पीहर के घर के पास आ कर ग्यारसीबाई ठिठक गई. वह आंखें फाड़फाड़ कर उस घर को देखने लगी.

उसे इस भरी दोपहरी में ऐसा लगा, जैसे उस के मांबाप खपरैल वाली छत पर बैठे हुए हाथ हिलाहिला कर
उसे बुला रहे हैं, ‘आ, ग्यारसी.’

ग्यारसीबाई ललक कर बढ़ी, तभी उस के भाई बाबू की तीखी आवाज गूंजी, ‘‘आगे कदम न बढ़ाना… नहीं तो टांगें तोड़ दूंगा.’’

ग्यारसीबाई ने गुस्से भरी आवाज में कहा, ‘‘तोड़.’’

बाबू ने राह रोकते हुए कहा, ‘‘देख, वापस हो जा, नहीं तो सच में…’’

‘‘मेरी चांदी दे दे… मैं अभी चली जाऊंगी.’’

‘‘कौन सी चांदी…? चांदी नहीं है मेरे पास.’’

‘‘क्यों नहीं है?’’

‘‘बस नहीं है.’’

‘‘नहीं देगा तो मैं इस देहरी पर धरना दूंगी. यहीं पर जान दे दूंगी.’’

‘‘तू यहां धरना देगी, तो मैं लात मार कर भगा दूंगा.’’

‘‘भगा… तू अगर ‘कंस’ है, तो यह भी कर ले,’’ कहते हुए ग्यारसीबाई देहरी की ओर बढ़ने लगी.

बाबू ने उस का हाथ थाम लिया और उसे खींचते हुए घर से दूर ले जाने लगा. ग्यारसीबाई जमीन पर बैठ गई और जोरजोर से चिल्लाने लगी, ‘‘बचाओ रे, बचाओ, यह ‘कंस’ मेरे गहने खा गया और अब मुझे यहां मरने भी नहीं दे रहा है.’’

शोर सुन कर आसपास के लोग आ गए. बाबू की बीवी और उस के बच्चे भी आ गए. वे ग्यारसीबाई का दूसरा हाथ पकड़ कर घसीटने लगे. लोगों ने बीचबचाव कर के उस के हाथ छुड़वाए.

उन लोगों ने बाबू को समझाया, ‘औरत जात पर हाथ मत उठा, नहीं तो फंस जाएगा. तू अपना दरवाजा बंद कर ले. यह कब तक बैठेगी? मरना आसान नहीं है. तू बेकार में परेशान न हो.’

ग्यारसीबाई को भी लोगों ने सलाह दी, ‘बाई, घर जा. इन तिलों में तेल नहीं है. यह समझ ले कि गहने चोरी
हो गए.’

ग्यारसीबाई अपना रोना रोने लगी. बाबू और उस के घर के लोग पड़ोसियों का कहना मान कर घर में चले गए और भीतर से दरवाजा बंद कर लिया.

ग्यारसीबाई को दिलासा देदे कर लोग अपनेअपने काम में लग गए. अब वह अपने मांबाप का नाम लेले कर स्यापा करने लगी. भाई को कोसने लगी.

तभी ‘धड़ाम’ से दरवाजा खुला और ग्यारसीबाई की भौजाई झाड़ू लिए बाहर आई. अपनी ननद को झाड़ू से पीटते हुए वह गरजी, ‘‘मेरे दरवाजे पर यह नाटक मत कर. भाग यहां से.’’

ग्यारसीबाई ने झाड़ू पकड़ते हुए भौजाई को कस कर लात जमा दी. वह धड़ाम से गिर पड़ी.

ग्यारसीबाई उस की छाती पर चढ़ कर गरजी, ‘‘तू ने ही मेरे भाई को बिगाड़ा है. मैं तेरा खून पी जाऊंगी.’’

ऐसा कहते हुए ग्यारसीबाई अपनी भौजाई का गला दबाने लगी. बरसों का रुका गुस्सा तब फट पड़ा. उस पल उस में इतनी ताकत आ गई कि वह अपने से तगड़ी भौजाई को दबाए रही.

गला दबाने पर भौजाई चीखी, ‘‘बचाओ… बचाओ…’’

घर में से बाबू और उस के दोनों बच्चे दौड़े आए. वे ग्यारसीबाई के हाथों को खींचखींच कर उस की पकड़ ढीली करने के लिए जूझने लगे. मगर ग्यारसीबाई पर तो जैसे पागलपन सवार हो गया था. वह इन तीनों के काबू में नहीं आ रही थी.

वे लातघूंसे जमा रहे थे, फिर भी वह भौजाई को छोड़ नहीं रही थी. उस का गला दबाते हुए गरज रही थी, ‘‘तू ने मेरी जिंदगी में जहर घोल दिया. सवा किलो चांदी के लिए ही तू ने बेईमानी कर ली.’’

बाबू ने पूरी ताकत लगा कर ग्यारसीबाई को खींचा. उस की बेटी ने ग्यारसीबाई के हाथ में काट लिया, तब कहीं उस के हाथों की कैंची छूटी. भौजाई की चीखें अब बंद हो गईं. वह फुरती से उठी और ग्यारसीबाई पर लातघूंसों की बरसात सी करने लगी. तभी ग्यारसीबाई के 15 और 13 बरस के दोनों बेटे दौड़े हुए आए और अपनी मां पर ढाल की तरह पसरते हुए बोले, ‘‘मत मारो हमारी मां को.’’

ग्यारसीबाई की भौजाई ने दांत पीसते हुए कहा, ‘‘मेरा गला घोंट रही थी, तब तुम ढाल बनने नहीं आए? अब आ गए तुम भी? लो प्रसाद.’’

भौजाई और उस के बेटेबेटी उन दोनों पर लातघूंसे जमाने लगे. ग्यारसीबाई गरजी, ‘‘इन पर हाथ उठाओगे, तो मैं तुम्हारी बोटीबोटी काट डालूंगी.’’

भाई से हाथ छुड़ाने की कोशिश करते हुए ग्यारसीबाई बेटों को बचाने झपटी. हाथ छुड़ा पाने पर वे लातें
चलाने लगीं.

आसपास के लोग बीचबचाव की कोशिश करने लगे. जैसेतैसे वे दोनों तरफ के लोगों को अलगअलग कर पाए. ग्यारसीबाई और उस के दोनों बेटों को खींच कर घर से दूर ले जा कर वे बोले, ‘जाओ अब.’

मगर ग्यारसीबाई वापस जाने को राजी न हुई. वह बोली, ‘‘मैं तो यहीं मरूंगी.’’

आसपास वालों ने ग्यारसीबाई को समझाया, ‘बाई, तू जान भी दे देगी तो भी ये तेरी चांदी नहीं देंगे. इसलिए समझ ले कि चांदी चोर ले गए. ये बच्चे खालिस चांदी हैं. इन्हें संभाल.’

ग्यारसीबाई को समझाते हुए वे उस के बच्चों से बोले, ‘अपनी मां को ले जाओ.’

बच्चे तो यह चाहते ही थे. इसीलिए मां को धकेलते से वे ले चले.

घर आ कर उन दोनों ने अपने पिता से कहा, ‘‘अब सवा किलो चांदी का कभी नाम मत लेना. मां का यह कर्ज हम ने अपने सिर पर ले लिया है. उस सवा किलो चांदी के बदले हम ढाई किलो चांदी तुम को देंगे. हमारी मां से अब इस बाबत में एक लफ्ज भी मत कहना.’’

ग्यारसीबाई, उस का घरवाला और बड़ी बेटी इन उगते सूरज जैसे लड़कों को टकटकी लगा कर देखने लगे. हर चेहरा खुशियों और उम्मीदों के मीठे रस में डूब सा गया था.

Hindi Story: अनोखा मिलन

Hindi Story: शाम का समय था. मैं ग्राहकों की भीड़ में उलझ हुआ था कि अचानक एक लाल रंग की चमचमाती कार मेरी दुकान के सामने आ कर रुकी. मैं ने ग्राहकों को पिज्जा देते हुए जब उस गाड़ी पर नजर डाली, तो मेरी आंखें कुछ देर के लिए वहां टिकी रह गईं.

मेरी नजरें वहां टिकती भी क्यों न, उस गाड़ी में से 3 लड़कियां जींसटीशर्ट में बाहर निकली थीं, तो वहीं एक खूबसूरत हसीना सलवारसूट पहने उन के साथ मेरी दुकान की तरफ बढ़ती हुई आ रही थी.

उस लड़की की बड़ीबड़ी नीले रंग की आंखें, लहराते हुए सुनहरे घने लंबे बाल, सुर्ख गाल और पतलेपतले गुलाबी होंठ देख कर तो मैं पागल ही हो गया था.

यों तो मेरी दुकान पर रोजाना दर्जनों लड़कियां पिज्जा खाने आती रहती थीं, पर उन के चेहरे पर मैं ने कभी ऐसी कशिश नहीं देखी थी, जो इस लड़की के चेहरे में थी.

लाल रंग के सलवारसूट में तो वह लड़की कयामत ही ढा रही थी. उस ने भले ही अपने उभारों पर दुपट्टा डाल रखा था, पर उस की उठी हुई मदमस्त छाती उस के हुस्न पर चार चांद लगा रही थी.

मैं ने अपनी जिंदगी में इतनी हसीन और कमसिन लड़की आज तक नहीं देखी थी. उसे देख कर ऐसा लग रहा था मानो आसमान से कोई हूर उतर कर जमीन पर आ गई हो.

मैं न चाहते हुए भी उस के ऊपर से अपनी नजरें नहीं हटा पा रहा था. मैं अभी उसे एकटक देख ही रहा था कि अचानक उस लड़की ने बड़ी मीठी आवाज में कहा, ‘‘ऐ मिस्टर, जरा 4 तीखी चटनी वाले पिज्जा जल्दी से दो.’’

जैसे वह लड़की खूबसूरती की मलिका थी, उस से कहीं ज्यादा उस की मीठी आवाज थी.

मैं उस लड़की की खूबसूरती और मीठी आवाज में इतना खो गया था कि मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि कब मेरा हाथ ओवन के चिमटे से टकरा गया और मैं ने ‘आह’ करते हुए अपना हाथ झटका.

तभी वह खूबसूरती की मलिका हंसते हुए बोली, ‘‘ऐ मिस्टर, जितना ध्यान तुम मेरे ऊपर दे रहे हो, उतना ध्यान अगर अपने काम पर देते तो यह हाथ नहीं जलता.’’

हंसते हुए उस लड़की के मोती जैसे दांत उस की खूबसूरती में चार चांद लगा रहे थे.

मैं तो पहली ही नजर में उस का दीवाना हो गया था. अब उस की हंसी ने मुझे और भी उस का दीवाना बना दिया था.

उस लड़की ने मुझ से क्या कहा था, मुझे इस का कोई होश ही नहीं रहा था.

मैं अपने काम में बिजी हो कर भी उसे अपनी तिरछी नजरों से देख रहा था, जो अपनी सहेलियों से हंसहंस कर बातें कर रही थी.

तभी वह लड़की उठी और मेरे पास आई और बोली, ‘‘ऐ मजनू की औलाद, पहले कभी लड़की नहीं देखी क्या?’’

मैं शरमा कर कर बोला, ‘‘जी मैडम, देखी तो बहुत हैं, पर आप जैसी खूबसूरत आज तक देखने को नहीं मिली. आप को देख कर तो ऐसा लग रहा है जैसे परियों के देश से कोई परी जमीन पर उतर कर मेरी दुकान में आ गई हो.’’

तभी वह लड़की गुस्से में बोली, ‘‘मैं कोई परीवरी नहीं हूं और न ही मेरा नाम मैडम है. हिना नाम है मेरा… हिना… समझे…’’

हिना के गुस्से में भी मुसकराहट शामिल थी. मैं ने भी मुसकरा कर कहा, ‘‘जी हिनाजी, नाम बताने का शुक्रिया…’’

‘‘मैं नाम बताने नहीं आई हूं. हमारा और्डर दो जल्दी… मुझे बहुत तेज भूख लगी है.’’

मैं ने फौरन 4 पिज्जा बनाए और उन में कुछ ज्यादा ही मक्खन डाल कर फौरन उन की टेबल पर सर्व कर दिया.

वे चारों पिज्जा खाने लगीं और आपस में मेरे बनाए पिज्जा की तारीफ करती रहीं.

हिना पिज्जा खा रही थी और अपनी तिरछी निगाहों से मुझे देख रही थी. जब भी मेरी निगाह उस से टकराती, मैं मुसकरा कर उसे अपने प्यार का इजहार करने की कोशिश करता.

कुछ देर बाद हिना अपनी एक सहेली के साथ उठ कर मेरे पास आई और बोली, ‘‘कितना पैसा हुआ मिस्टर?’’

मैं हंसते हुए बोला, ‘‘हिनाजी, मेरा नाम मिस्टर नहीं, बल्कि शान है. आप मुझे इसी नाम से पुकारें.’’
हिना ने कहा, ‘‘अच्छा शानजी, कितना पैसा हुआ?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘400 रुपए.’’

हिना ने पर्स से 500 का नोट निकाला और बोली, ‘‘रख लो… तुम्हारे पिज्जा का तो जवाब ही नहीं… यह हमें बहुत पसंद आया.’’

मैं बोला, ‘‘शुक्रिया. पर, मैं वही कीमत लेता हूं, जो मेरा हक है. ये लीजिए आप के 100 रुपए.’’

जब मैं ने हिना के हाथ में 100 रुपए दिए, तो उस के नाजुक हाथ की छुअन पा कर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. दूध की तरह सफेद हाथ… इतने कोमल कि दिल किया चूम लूं.

जब हिना अपनी गाड़ी में बैठ रही थी, तो उस ने एक नजर फिर से मेरे ऊपर डाली, तो मैं ने मुसकराते हुए अपने उस हाथ को चूम लिया.

यह देख कर हिना भी मुसकराते हुए गाड़ी में बैठ कर चली गई.

रातभर हिना का खूबसूरत चेहरा मेरी आंखों के सामने घूमता रहा. मैं नींद से कोसों दूर करवट बदलता रहा और इस उम्मीद में सुबह होने का इंतजार करता रहा कि आज फिर हिना मेरी दुकान पर पिज्जा खाने जरूर आएगी, पर सुबह से शाम हो गई और मैं हिना का इंतजार करता रहा, पर वह नहीं आई.

मैं उदास हो कर एक तरफ बैठ गया. न जाने क्यों आज दुकान पर ग्राहकी भी कम थी और मेरा मन भी दुकान पर नहीं लग रहा था.

मैं हिना के बारे में सोचसोच कर मायूस हो रहा था कि तभी हिना की गाड़ी मेरी दुकान के सामने आ कर रुकी.

मैं खुशी से झूम उठा और खड़े हो कर हिना का गाड़ी से बाहर निकलने का इंतजार करने लगा.

तभी कुछ देर बाद हिना गुलाबी रंग का सलवारसूट पहन कर मेरे सामने आई और बोली, ‘‘मुझे 3 पिज्जा जल्दी से पार्सल कर दो.’’

हिना के कहते ही मैं पिज्जा बनाने में लग गया. तब तक वह मेरे काउंटर के सामने खड़ी रही.

कुछ देर बाद वह खुद ही बोली, ‘‘लगता है कि आज रात तुम सो नहीं पाए. तुम्हारी आंखें सूजी हुई सी लग
रही हैं.’’

मैं हंसते हुए बोला, ‘‘क्या बताऊं हिनाजी… जब से तुम्हें देखा है, चारों तरफ तुम्हारा ही चेहरा दिखाई देता है.

मैं ने पूरी रात करवट बदलते हुए गुजारी है.’’

हिना ने धीरे से पूछा, ‘‘ऐसा क्या है मेरे चेहरे में…?’’

मैं बोला, ‘‘क्या नहीं है आप के चेहरे में… जिस ने मुझे आप का दीवाना बना दिया है. आप जैसी खूबसूरत

हसीन लड़की मैं ने अपनी जिंदगी में नहीं देखी है. मैं तो आप के हुस्न का दीवाना हो गया हूं.’’
हिना हंसते हुए बोली, ‘‘तुम पागल हो गए हो…’’

मैं ने कहा, ‘‘आप ने मुझे पागल बना दिया है. आप की आवाज, आप की खूबसूरती, आप का हुस्न… आप को देख कर ऐसा लगता ही नहीं कि आप कोई इनसान हो. मुझे तो आप परी देश से आई हुई कोई परी लगती हो.’’

हिना हंसते हुए बोली, ‘‘आप की बातों को सुन कर तो यहां से जाने का ही दिल नहीं करता.’’

मैं ने भी फौरन जवाब देते हुए कहा, ‘‘आप मत जाओ. मेरे दिल में तो बस चुकी हो, मेरी जिंदगी में भी आ जाओ.’’

हिना ने कहा, ‘‘अच्छा, तो आप मुझे अपनी जिंदगी में शामिल करना चाहते हो… पर, उस के लिए तुम्हें मुझ से निकाह करना पड़ेगा… समझे?’’

‘‘मैं आप से निकाह करने को तैयार हूं. बस, आप की हां का इंतजार था.’’

‘‘ठीक है, मैं सोच कर बताती हूं.’’

मैं ने हिना का मोबाइल नंबर ले लिया. अब हम दोनों घंटों प्यारभरी बातें करते, शादी के सपने देखते और खूब घूमतेफिरते.

मेरी और हिना की प्रेम कहानी खूब चल रही थी, फिर एक दिन वह वक्त भी आ गया, जब हमारे प्यार की खबर हिना के अब्बू को लग गई.

हिना के अब्बू उस इलाके के अमीर लोगों में शुमार थे और वे किसी भी कीमत पर हिना की शादी मुझ से करने को तैयार नहीं थे.

हिना मुझ से बहुत मुहब्बत करती थी, इसलिए उस ने मुझ से वादा किया कि वह शादी करेगी तो सिर्फ मुझ से, वरना अपने अब्बू का घर छोड़ कर मेरे पास आ जाएगी.

आज हिना अपने अब्बू से हमारी शादी की बात करने वाली थी. मेरा दिल बहुत घबरा रहा था, क्योंकि हिना के अब्बू कभी भी मुझ जैसे गरीब लड़के से अपनी बेटी की शादी के लिए राजी न होते और हिना उन का सामना कैसे करेगी, यह सोच कर मैं बहुत परेशान था.

मुझे हिना और उस के अब्बू के बीच क्या बात हुई, इस का तो कुछ पता न चला, पर 3 दिन बाद हिना के अब्बू ने दुकान मालिक से कह कर मेरी दुकान जरूर खाली करा दी और मेरा कामधंधा बंद हो गया.

उस के कुछ दिन बाद हिना के अब्बू एक सुनसान जगह पर 4-5 लोगों के साथ आए और मुझ से बोले, ‘‘तेरी भलाई इसी में है कि तू यह शहर छोड़ कर कहीं दूसरी जगह चला जा.’’

मैं ने इनकार किया, तो उन के साथ आए लोगों ने मेरी जम कर पिटाई की, फिर वे बोले, ‘‘देख, हिना ने अपनी मरजी से शादी कर ली है.’’

वे मुझे हिना की शादी का फोटो दिखाते हुए बोले, ‘‘अब उसे भूल जा और उस की जिंदगी से दूर चला जा. वैसे भी तुझे इस एरिया में कोई दुकान नहीं देगा और तू ने अगर हिना से मिलने की कोशिश की तो तेरे लिए अच्छा नहीं होगा.’’

हिना की शादी की तसवीर देख कर मैं पूरी तरह टूट चुका था. मैं हताश हो कर अपने एक दोस्त के पास दूसरे शहर चला गया और उस के कमरे पर रहने लगा.

मेरा अब कुछ काम करने में दिल नहीं लगता था. जिंदगी थम सी गई थी. न किसी से बोलना, न कोई काम और न हंसी… सब गायब हो चुका था.

मेरे दोस्त ने मुझे काफी समझाया और कहा, ‘‘अगर तुम यों ही अपनी जिंदगी बरबाद करते रहोगे, तो फिर
कैसे चलेगा…

‘‘मेरे दोस्त, हिम्मत मत हारो. जिंदगी में तो सुखदुख लगा ही रहता है. अगर तुम्हारा यहां काम करने को मन नहीं करता, तो मेरा एक दोस्त दुबई में रहता है. तुम उस के पास चले जाओ. मैं सब इंतजाम कर देता हूं. तुम अपनी मुहब्बत को अब भूल जाओ. वह अब किसी और की अमानत बन चुकी है.’’

उस की ये बातें सुन कर मेरी आंखों से खुद ब खुद आंसू बहने लगे और मैं ने उस से कहा, ‘‘ठीक है, मैं दुबई चला जाता हूं, पर मेरे दोस्त, मुझे मेरी मुहब्बत को भूलने के लिए मत कहो.’’

मेरे दोस्त ने मेरे लिए अपने एक खास दोस्त से बातचीत कर ली. उस का दुबई में होटल था, जहां उस ने मेरी नौकरी की बात पक्की कर ली.

दुबई के लिए एक हफ्ते बाद की टिकट हो चुकी थी. मैं ने अब दुबई जाना ही बेहतर समझा.

अगले दिन मैं जब सो कर उठा, तो मेरे दोस्त को तेज बुखार था. मैं उसे सहारा दे कर पास के दवाखाने पर ले गया. डाक्टर ने कुछ जांच करने के बाद मेरे दोस्त को एक हफ्ता आराम करने की हिदायत दी.

हम दवा ले कर घर आ गए. अभी एक दिन ही हुआ था कि उस की तबीयत में कुछ सुधार हुआ, तो वह काम पर जाने के लिए उठा. यह देख कर मैं ने उसे काम पर जाने से रोक लिया और बोला, ‘‘तुम्हारी हालत सही नहीं है. तुम अभी आराम करो.’’

मेरा दोस्त बोला, ‘‘यार, अगर मैं काम पर नहीं जाऊंगा, तो उस से मेरे ग्राहक तो टूटेंगे ही, साथ ही एक बेवा, जो अपने एक साल के बेटे के साथ टूटेफूटे घर में रहती है, उस की भी कमाई नहीं होगी.’’

मैं हैरान हो कर बोला, ‘‘क्या मतलब…? कौन बेवा…?’’

‘‘अरे भाई, यहां पास की ही एक बस्ती में एक बेवा घर पर खाना बना कर औनलाइन बेचती है, जिस की डिलीवरी मैं करता हूं.’’

मैं उस से बोला, ‘‘ठीक है, आज मैं डिलीवरी करता हूं. बस, तुम अच्छी तरह से आराम करो.’’

मैं ने उस से वह पता लिया, जहां से मुझे खाना लेना था और जहां खाना पहुंचाना था.

मैं जब खाना लेने वाले पते पर पहुंचा और कुंडी खटखटाई तो अंदर से एक औरत फटेपुराने कपड़े पहने बाहर आई और बोली, ‘‘जी, आप कौन…?’’

मैं ने जैसे ही उस औरत पर नजर डाली, मैं हैरान रह गया. वह औरत कोई और नहीं, मेरी हिना थी.

हिना ने भी मुझे पहचान लिया था और बोली, ‘‘शान, तुम यहां कैसे…? आओ, अंदर आओ.’’

मैं हिना के साथ उस के घर के अंदर पहुंच गया और उस से पूछने लगा, ‘‘तुम ने तो अपनी मरजी से किसी अमीर लड़के से शादी कर ली थी, फिर तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?’’

हिना ने रोते हुए बताया, ‘‘मैं तुम से शादी करने के लिए अपने अब्बू से लड़ कर जैसे ही घर से बाहर निकली कि अचानक उन के सीने में तेज दर्द शुरू हो गया और वे ‘धड़ाम’ से जमीन पर गिर पड़े.

‘‘मैं ने जल्दी से उन्हें उठाया और एंबुलैंस बुला कर उन्हें अस्पताल ले गई, जहां डाक्टर ने कुछ देर उन का ट्रीटमैंट करने के बाद मुझे बताया, ‘तुम्हारे अब्बू को हार्टअटैक आया है. इन की तबीयत काफी नाजुक है.

हालांकि, अब वे खतरे से बाहर हैं, पर यह ध्यान रखना कि उन्हें किसी भी तरह की कोई तकलीफ न हो और न ऐसी बात करना, जिसे सोच कर उन की तबीयत फिर से खराब हो जाए. वैसे, आप उन से मिल सकती हैं.’

‘‘मैं जैसे ही अपने अब्बू से मिली, उन्होंने मुझे देख कर मुंह फेर लिया. मैं सम?ा गई कि मेरी ही वजह से उन की यह हालत हुई है. उन्हें खुश रखने के लिए मैं ने उन से कहा कि आप नाराज मत होना, मैं वही करूंगी जो आप कहोगे.

‘‘मेरी बात सुन कर उन का चेहरा खिल उठा और मुसकराते हुए वे बोले, ‘तो फिर मैं जहां तुम्हारी शादी करूंगा, तुम्हें मंजूर होगा.’

‘‘मैं ने ‘हां’ में सिर हिला दिया और अपनी खुशी को अपने अब्बू की खुशी की खातिर बलिदान कर दिया.

‘‘उस के कुछ ही दिन बाद मेरे अब्बू ने मेरी शादी इस उम्मीद में कर दी कि बड़े घराने में उन की बेटी को सारी खुशियां मिलेंगी.

‘‘पर, उन का ऐसा सोचना गलत साबित हुआ. शादी के एक साल बाद ही एक हादसे में मेरे शौहर इस दुनिया से चल बसे.

‘‘सुसराल वालों ने यह कह कर मुझे और मेरे मासूम बेटे को घर से निकाल दिया कि इस मनहूस औरत की वजह से ही उन के जवान बेटे की मौत हुई है.

‘‘वहां से निकाले जाने के बाद मैं ने अपने अब्बू के घर जाना बेहतर नहीं समझा, क्योंकि मेरी बरबादी की वजह कुछ हद तक वे ही थे, जिन्होंने पैसे के लालच में मेरे प्यार को मुझ से जुदा कर दिया था.

‘‘उस के बाद मैं ने यह घर किराए पर ले लिया और जोकुछ बचत थी, उस से खाने का छोटा सा औनलाइन बिजनैस शुरू कर लिया.’’

मुझे हिना की बातें सुन कर बहुत दुख हुआ. तभी उस का छोटा सा बेटा मेरी गोद में आ कर बैठ गया, जिसे मैं प्यार करने लगा. यह देख कर हिना की आंखों के आंसू रुक गए और उस के चेहरे पर एक मुसकान दिखाई दी.

फिर हिना ने मुझ से पूछा, ‘‘तुम कहां थे इतने दिन और शादी वगैरह की या नहीं? कितने बच्चे हैं तुम्हारे?’’

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे सिवा मैं भला किसी और से शादी कैसे कर सकता था? मेरे रोमरोम में तो तुम बसी थी.’’

‘‘तुम्हारी शादी के बाद तुम्हारे अब्बू ने मेरी पिज्जा की दुकान बंद करा दी और अपनी ताकत के बल पर मुझे वहां कोई दुकान न लेने दी. उन का इस पर भी पेट न भरा, तो उन्होंने कुछ गुंडों से मेरी पिटाई कराई और तुम्हारा शादी का फोटो दिखाते हुए मु?ो यह शहर छोड़ कर जाने की धमकी दे डाली.

‘‘उस के बाद मैं इस शहर में अपने एक दोस्त के पास आ गया. कामधंधा करने को मन नहीं करता था, बस यों ही घर में पड़ा रहता और तुम्हें याद करता रहता, तुम्हारी यादों में तड़पता रहता था.

‘‘इसी तरह 2 साल निकल गए. मेरे दोस्त ने दुबई में मेरे लिए काम तलाश लिया और अब मैं ने वहां जाने का इरादा कर लिया है.

‘‘पिछले 2 दिन से उस दोस्त की तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब थी. उसे डाक्टर ने आराम के लिए बोला था, पर वह जबरदस्ती काम पर आना चाहता था, तो मैं ने उसे आराम करने के लिए कहा और खुद उस के काम के लिए निकल पड़ा.

‘‘आज पहली बार मैं काम के लिए निकला, तो मेरी मुलाकात तुम से हो गई और हमारा यह मिलन एक अनोखा मिलन बन गया.’’

मैं ने हिना का हाथ अपने हाथ में पकड़ते हुए कहा, ‘‘अब तो तुम भी गरीब हो गई हो, अब तुम भी मेरे जैसी बन गई हो, अब तो तुम से शादी करने से मुझे कोई नहीं रोक सकेगा. अब हमारे बीच की अमीरी की दीवार ढह गई है.’’

इतना सुनते ही हिना मेरे गले से लग गई और बोली, ‘‘वाकई, यह मिलन एक अनोखा मिलन है.’’

मैं ने उसे अपनी बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘अब तुम्हारी और तुम्हारे बेटे की जिम्मेदारी मेरी हुई.’’

यह सुन कर हिना की आंखों में आंसू आ गए और वह मेरे गले से लगते हुए बोली, ‘‘शादी के बाद तुम्हें मेरे लिए पिज्जा बनाना पड़ेगा… समझे?’’ कहते हुए हिना हंसने लगी.

हिना की बात सुन कर मुझे भी हंसी आ गई. मैं ने उस से कहा, ‘‘मैं तुम्हारे लिए पिज्जा की पूरी दुकान ही खोल लूंगा.’’

इस तरह हिना का और मेरा अनोखा मिलन हो गया और हम दोनों ने शादी कर ली.

Hindi Story: मोची का बेटा

Hindi Story: ‘‘कहो राजप्रसाद, कैसे हो?’’

‘‘आओ दिनेश भैया, बैठो. इस बार तो बहुत दिनों के बाद आए हो. बताइए भैया, कैसे आना हुआ?’’ राजप्रसाद ने मुसकराते हुए पूछा.

मैं ने उस की सामान की पेटी पर बैठते हुए कहा, ‘‘राजप्रसाद, तुम्हारे पास कोई किस काम के लिए आ सकता है? देखना, जरा इस सैंडल पर पौलिश कर देना.’’

राजप्रसाद ने सैंडल ले ली और मु झे पहनने के लिए चप्पल दे दी.

‘‘बस भैया, ये जूते टांक दूं और फिर मैं आप की सैंडल पर पौलिश करता हूं.’’

‘‘हां, राजप्रसाद, मु झे कोई जल्दी नहीं है. आराम से कर देना,’’ मैं ने सहजता से कहा.

राजप्रसाद उस जूते को गांठने में लग गया और मैं अपने विचारों में खो गया.

राजप्रसाद को मैं कई सालों से जानता था. वह न जाने कितने सालों से सड़क के किनारे इसी नीम के पेड़ के नीचे बैठा अपना मोची का काम करता आ रहा है.

बिना दीवारों और बिना छत की पेड़ की छांव ही उस की खुली दुकान है. इस दुकान पर कोई भी बिना रोकेटोके आ सकता है.

पेड़ की छांव पृथ्वी की घूर्णन गति से घूमती हुई सुबह से शाम तक अपना पाला बदल देती है, इसलिए राजप्रसाद ने एक लोहे की छड़ को धरती के सीने में गाड़ रखा है और उस पर एक बड़ी छतरी को बांध कर अपनी दुकान का शामियाना तान रखा है. चेहरे पर हरदम मुसकान उस की खुशहाल जिंदगी की गवाह है.

मेहनत के पसीने से भीगी उस की बनियान उस की श्रमशक्ति की खास पहचान है. उस की ईमानदारी और मेहनत देख कर मन में अपनेआप ही इज्जत का भाव पैदा होता है.

थोड़ी देर के बाद दिनेश ने पूछा, ‘‘राजप्रसाद, यहां बैठते हुए तुम्हें कितने साल हो गए?’’

‘‘अरे भैया, बस ये ही तकरीबन 30-35 साल.’’

‘‘एक लंबा अरसा हो गया फिर तो राजप्रसाद. तुम ने तो यहां की दुनिया को खूब बदलते देखा होगा, क्यों?’’

‘‘हां भैया, इतने अरसे में तो यहां की पूरी दुनिया ही बदल गई. सामने एकमंजिला दुकानें थीं, अब देखो, यहां बहुमंजिला इमारत खड़ी है. किराएदार, मकान मालिक, दुकान मालिक सब बदल गए.

‘‘पहले यह दुकान अखबारों और पत्रिकाओं की दुकान हुआ करती थी. यहां नौकरी के फार्म खूब बिका करते थे. जब से चीजें औनलाइन हुई हैं, यह दुकान स्टेशनरी और स्कूल की किताबों की दुकान बन कर रह गई.’’

दुनियादारी की बातों से हट कर कुछ सोचते हुए मैं ने कहा, ‘‘अच्छा राजप्रसाद, अगर बुरा न मानो तो एक बात पूछ लूं तुम से…’’

‘‘अरे भैया, बुरा क्यों मानेंगे? आप एक नहीं, दो बातें पूछो,’’ राजप्रसाद ने बड़े विश्वास के साथ कहा.
तब मैं ने थोड़ा हिचकिचाते हुए पूछा, ‘‘क्या इस मोचीगीरी के काम से तुम्हारा घरखर्च निकल जाता है?’’

‘‘अरे भैया, आप खर्चे की बात कर रहे हो, इसी की आमदनी से मैं ने अपना मकान बना लिया है. 2 बेटियों को पढ़ालिखा कर उन की अच्छे परिवारों में शादी कर दी है.

‘‘मेरी एक बेटी तो सरकारी मास्टरनी है, सरकारी. दूसरी बेटी भी शादी के बाद पीएचडी कर रही है.’’

‘‘अरे वाह राजप्रसाद. तुम ने तो कमाल कर दिया. मैं तो सोचता था कि इस काम से तुम्हारे घर का खर्चा भी बड़ी मुश्किल से निकलता होगा.’’

‘‘नहीं भैया, ऐसा कुछ नहीं है. मोचीगीरी में इतना काम है कि संभाले नहीं संभलता. लोग तो यह सम झते हैं कि हमारे पास केवल जूतेचप्पल टांकने और उन पर पौलिश करने का काम भर है, लेकिन हमारे पास इस के अलावा भी किसानों, दुकानदारों और यहां तक कि फैक्टरियों तक से चमड़े का सामान सिलाई के लिए आता है.’’

‘‘ये सब चीजें तो राजप्रसाद हम जैसों के खयाल में ही नहीं आती हैं,’’ दिनेश बोला.

‘‘भैया, दुनिया की सोच बदलने में जमाने गुजर जाते हैं. आज भी हमें सदियों पुराने मोची की ही नजर से देखा जाता है. वही फटेपुराने कपड़ों वाला, टूटेफूटे मकान में रहने वाला,’’ राजप्रसाद की बात को सुन कर मैं भी सोच में पड़ गया.

मैं ने भी वही सदियों पुरानी सोच पाल रखी थी. मैं ने सच स्वीकारते हुए कहा, ‘‘राजप्रसाद, तुम ने तो आज मेरी भी सोच बदल दी. मेरी सोच भी दूसरों की ही तरह थी. अच्छा, तुम्हारे क्या कोई बेटा भी है?’’

‘‘हां भैया, एक बेटा भी है. उस ने कुछ दिन पहले ही एमबीए किया है और नोएडा में एक कंपनी में उस की नईनई नौकरी लगी है. अभी उस का 3 लाख रुपए से कुछ ज्यादा का सालाना पैकेज है. इतना तो मैं यहां बैठेबैठे कमा लेता हूं.’’

‘‘तो फिर राजप्रसाद, तुम ने अपने बेटे को इसी काम में क्यों नहीं लगाया?’’

‘‘अब देखो भैया, मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं, हमारे यहां कामधंधे को ले कर लोगों की सोच बड़ी खराब है. मोचीगीरी के काम को सब छोटा काम सम झते हैं. खुद मैं भी इसी सोच का शिकार हूं.

‘‘वह कंपनी में नौकरी कर रहा है, तो उस की इज्जत है. लेकिन दुनिया वाले नहीं सम झते हैं कि वह दूसरों की नौकरी ही कर रहा है. मैं खुद के धंधे का मालिक हूं, लेकिन मेरा कोई सम्मान नहीं. भैया, मैं तो बस मोची हूं, मोची.’’

राजप्रसाद की बात सच्ची, पर दमदार थी. उस की पते की बात पर मैं ने कहा, ‘‘राजप्रसाद, तुम बिलकुल सही कहते हो. कोई कुछ भी कहे, अपना काम अपना होता है और दूसरों की नौकरी बजाने से लाख बेहतर होता है.’’

‘‘है न भैया, मैं ने तो अपने बेटे से भी यही कहा था कि इसी जमेजमाए काम को संभाल ले. अगर यहां बैठने में लाज आती है, तो दुकान खुलवाए देता हूं, वहीं 2 लड़के रख लेना.’’

‘‘तो फिर उस ने क्या जवाब दिया राजप्रसाद?’’

‘‘कहने लगा, पापा, आप भी कैसी बातें करते हो? मैं एमबीए कर के दूसरों की जूतियां टांकूंगा क्या? आज छोटी पोस्ट पर हूं, कल बड़ी पोस्ट मिलेगी. आज छोटा पैकेज है, कल बड़ा पैकेज मिलेगा. मु झे भी लगा, बेटा कह तो सही रहा है.’’

‘‘हां, राजप्रसाद. तुम्हारे बेटे ने एमबीए किया है, उस की भी अपनी सोच, अपना स्वाभिमान है.’’

अब तक राजप्रसाद ने मेरी सैंडल पौलिश कर दी थी. मैं ने उस से विदा ली.

फिर बहुत लंबे समय तक उधर जाना नहीं हुआ. इस के बाद जब एक दिन उधर जाना हुआ तो मु झे अचानक से राजप्रसाद की याद आई. उस से मिलने को न जाने क्यों मन आतुर था. बहाना वही पुराना, लेकिन इस बार सैंडल नहीं जूतों पर पौलिश कराना था.

लेकिन आज नीम अकेला था. कुछ उदास. उस के नीचे की दुनिया गायब थी. उस जगह को देख कर लगता था, यहां से कोई बहुत पहले अपना तंबू उखाड़ कर ले जा चुका है.

एकबारगी लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि राजप्रसाद इस दुनिया से ही चला गया हो. आज की दुनिया में इस शरीर और सड़क हादसों पर कोई भरोसा नहीं… कब क्या हो जाए.

अब तो दिल की धड़कनों के साथ जिज्ञासा भी बढ़ गई. सामने वाले दुकानदार से पता किया तो उस ने अपने चमकीले दांतों से मुसकान बिखेरते हुए बड़े सम्मान के साथ कहा, ‘‘अच्छा, आप राजप्रसादजी के बारे में पूछ रहे हो.’’

उस के मुंह से ‘राजप्रसाद’ की जगह ‘राजप्रसादजी’ सुन कर तो मैं भी कुछ अचकचाया.

मैं ने सोचा कि कोई गलतफहमी न हो, इसलिए कहा, ‘‘हां, वह राजप्रसाद मोची ही है.’’

‘‘हां जी, हां. मैं भी उन्हीं की बात कर रहा हूं. अब तो उन की जिंदगी बदल चुकी है. वह देखो, वह रहा उन का शोरूम, जिस पर लिखा है ‘राजप्रसाद बूट्स ऐंड शूज’. अब वे वहीं बैठते हैं मालिक बन कर.’’

मैं ने हैरानी से कांच का दरवाजा खोल कर जैसे ही शोरूम में प्रवेश किया, तो मेरी नजर सामने रखे चमचमाते जूतों और चप्पलों पर पड़ी. तभी काउंटर से किसी जानीपहचानी आवाज ने पुकारा, ‘‘अरे भैया, इधर आओ. कितने दिनों के बाद दिखाई दिए हो. आओ बैठो. अरे गुड्डू जाओ, जरा भैया के लिए चाय बोल कर आओ.’’

‘‘अरे नहीं, राजप्रसादजी,’’ मैं उन का रुतबा और शानोशौकत देख कर उन के नाम में ‘जी’ लगाने से खुद को रोक नहीं पाया.

‘‘अरे भैया, हम कोई ‘जी’ नहीं हैं. हम वही पुराने वाले राजप्रसाद हैं. हमें ‘राजप्रसाद’ ही बोलिए, आप के मुंह से सुन कर अच्छा भी लगता है और प्रेम की मिठास भी आती है. पुराने दिन याद आते हैं.’’

मैं ने सोफे पर बैठते हुए कहा, ‘‘लेकिन, यह तो बताओ कि यह सब हुआ कैसे?’’

‘‘भैया, यह सब तो बेटा देव ही बताएगा. उसी की जबान से सुनना. बड़ा मजा आएगा. बड़ी रोचक कहानी है. बस, कुछ ही देर में वह आने वाला है.’’

यह सुन कर मैं उस रोचक किस्से को सुनने के लिए उतावला हो उठा.

कुछ ही देर बाद उस शोरूम के सामने एक चमचमाती कार आ कर रुकी. उस में से बनाठना एक स्मार्ट नौजवान उतरा. वही हमारे मोची का बेटा था. ऐसा लगता था कुदरत ने जैसे उसे फुरसत के पलों में गढ़ा था, बेहद हैंडसम.

राजप्रसाद ने उस का और मेरा परिचय कराया. उस ने पैर छू कर मेरा आशीर्वाद लिया.

तब राजप्रसाद ने उस से कहा, ‘‘बेटा देव, ये मेरे बहुत पुराने परिचित हैं, लेखक भी हैं. ये तुम से कुछ जानना चाहते हैं. इन से कुछ भी मत छिपाना.’’

देव मुझे अपने केबिन में ले गया. तब उस ने मुझे अपना रोचक किस्सा सुनाना शुरू किया.

‘‘जी अंकल, एमबीए करने के बाद मेरी नौकरी एक बड़ी कंपनी में लग गई. जब मैं पहले दिन अपने औफिस गया, तो वहां बेला को देख कर चौंक गया.’’

‘‘यह बेला कौन है बेटा?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अंकल, बेला से मेरी जानपहचान बचपन से थी. वह मेरे ही महल्ले में रहती थी. बेला को पहले से ही पता था कि मेरी नौकरी वहां लगने वाली है.

‘‘जैसे ही मैं अपने औफिस में पहुंचा, बेला खटाक से वहां आई और बोली, ’’आ गया चिकने. क्या तु झे पता नहीं था कि मैं यही पर हूं? चल, अब देखती हूं तुझे.’’

‘‘अरे बाप रे, कोई लड़की ऐसे बोलती है क्या?’’ मैं ने हैरानी से कहा.

‘‘अंकल, उस की बात मत पूछो. वह बचपन से ही मुंह भरभर कर गालियां बका करती थी. जैसे उस का मुंह न हो, गालियों की खान हो. मांबहन की गालियां तो हरदम उस के होंठों पर ही रहती थीं.

‘‘खैर, उस समय तो बेला वहां से चली गई, लेकिन मेरे दिल में सिहरन पैदा कर गई, क्योंकि वह क्या कर सकती है, इस का अंदाजा लगाना भी मुश्किल था.’’

‘‘अरे देव, ऐसा क्यों कहते हो? क्या बेला इतनी बुरी थी?’’

‘‘अंकल, आप आगे का किस्सा सुनो, फिर आप ही फैसला करना कि वह कैसी थी.’’

‘‘अच्छा सुनाओ, अब तो तुम ने इस किस्सागोई में मेरी दिलचस्पी और बढ़ा दी. आखिर कैसी थी बेला, यह जानने को मैं उतावला हो उठा हूं.’’

‘‘अंकल, मु झे भी अपना बचपन याद आ गया, जब बेला और मैं बचपन में साथसाथ खेला करते थे. जैसेजैसे हमारा बचपन पीछे छूटा और हमें लड़कालड़की के फर्क का पता चला, तो धीरेधीरे हमारा साथसाथ खेलनाकूदना भी छूट गया.

‘‘वह कदकाठी में भी मेरे से बड़ी लगती थी. आप को तो मालूम ही होगा कि लड़कियां लड़कों से पहले बड़ी हो जाती हैं.’’

‘‘हां बेटा, आगे सुनाओ.’’

‘‘अंकल, बेला अलग ही मिजाज की थी. उसे लड़कों से दोस्ती करना खूब पसंद था. जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही उस ने कई बौयफैं्रड बना लिए थे. बातबात पर आंख मारना उस की आदत बन गई थी.

वह मु झे भी अपना बौयफ्रैंड बनाना चाहती थी, लेकिन मु झे तो पढ़नेलिखने से ही फुरसत नहीं थी.’’

इस कहानी में मुझे रस आ रहा था. मैं ने कहा, ‘‘देव, बड़ी अजीब और रसीली लड़की थी बेला.’’

‘‘हां अंकल, वह ऐसी ही थी रोमांटिक टाइप. बेला ने 12वीं क्लास तक आतेआते सारी हदें पार कर दी थीं.

वह अपने यारों के साथ खूब इधरउधर घूमा करती थी. उस के बारे में बहुतकुछ सुनने को मिलने लगा था.

‘‘ऐसा लगता था कि अब वह खुल कर खेलने लगी है. लेकिन एक दिन मेरे साथ कुछ अलग हुआ.’’

‘‘क्या हुआ था देव? क्या तुम ने उसे रंगे हाथों पकड़ लिया था?’’

‘‘नहीं अंकल, मै इन बातों में था ही नहीं. हुआ यह कि एक दिन बेला ने मु झे किसी लड़की से बातें करते देख लिया.’’

‘‘तो इस में कौन सी बड़ी बात थी. आजकल तो यह बड़ी सामान्य सी बात है.’’

‘‘अंकल, यह किसी और के लिए सामान्य बात हो सकती थी, लेकिन बेला के लिए नहीं. अगले दिन कालेज से लौटते वक्त बेला ने मु झे एक सुनसान सी जगह पर रोक लिया और छूटते ही गाली दे कर बोली, ‘क्यों बे, बहन के… चिकने. उस लौंडिया से बहुत हंसहंस कर बातें कर रहा था. मु झ से बातें करते हुए तेरी… में आग लग जाती है. तु झे मजा चाहिए तो यह ले…’ कह कर उस ने मु झे दोनों हाथों से पकड़ लिया और जबरदस्ती मेरे होंठ और गाल चूम लिया.

मैं अपनेआप को उस से छुड़ा कर जाने लगा, तो वह मुसकराई और कहा, ‘जा बेटा, आज तो सड़क पर था छोड़ दिया, लेकिन तू बचने वाला नहीं. और अगर आज के बाद किसी और लौंडियाफौंडिया से बात की, तो फिर देख लेना…’’

‘‘अरे देव, बेला की इतनी हिम्मत?’’

‘‘अंकल, मेरे मन में बेला ने दहशत पैदा कर दी थी. इस के बाद किसी लड़की से बात करने से पहले मैं हजार बार सोचता था और पहले चारों तरफ नजरें घुमा कर देख लेता था कि कहीं आसपास बेला तो नहीं है.’’

‘‘ओह, पर वह लड़की थी ही ऐसी. न शर्म, न लिहाज.’’

‘‘लेकिन अंकल, वह पढ़ाई में भी बहुत काबिल थी, तभी तो औफिस में भी वह मेरे से ऊंचे ओहदे पर थी. फिर भी मैं सबकुछ भूल कर अपने काम में लग गया.

‘‘बाद में बेला के बारे में बहुतकुछ सुनने को मिलने लगा था. लेकिन औफिस में दिखावे के लिए बड़ी सतीसावित्री बनी घूमती थी और अपने काम में कोई चूक नहीं होने देती थी.’’

‘‘फिर भी देव, वह चैन से तो न बैठी होगी…’’

‘‘अंकल, कुछ दिन तो वह ऐसे ही मु झ से मिलने की नाकाम कोशिश करती रही, लेकिन बेला जैसी लड़की ऐसी अनदेखी को बरदाश्त नहीं कर पाती है. एक दिन बेला सीधे मेरे औफिस में पहुंच गई और उस ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. मु झे उस के इरादे का जरा सा भी अहसास नहीं था.’’

‘‘आखिर क्या था उस का इरादा देव?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अंकल, मु झे बताते हुए भी शर्म आती है. पहले वह मेरे पास आ कर मु झ से सट कर खड़ी हुई. मैं ने बचने की कोशिश की, तो मेरे गालों पर चिकोटी काटते हुए गंदी गाली दे कर बोली, ‘बच कर कहां भागता है. ले ले न तू भी जवानी के मजे.’

‘‘अंकल, तभी मैं ने उसे डपटते हुए कहा, ‘बेला, तुम पागल हो गई हो क्या? दूर हटो.’

‘‘लेकिन, ऐसा लगता था, जैसे वह आज हवस की पुजारिन बन कर आई हो. उस ने अपनी शर्ट के ऊपर के
2 बटन खोले, अपनी ब्रा ऊपर की और बोली, ‘ले ले जवानी का मजा.’’’

‘‘ओह देव, यह तो हद हो गई. कोई लड़की ऐसा करती है भला. यह तो सीधेसीधे जबरदस्ती की कोशिश थी.’’

‘‘अंकल, मैं ने खुद को बचाते हुए उसे जोर से धक्का दिया. उस का सिर दीवार में जा कर लगा. वह चिल्लाई, ‘बाहर जा कर बताऊंगी सब को. तू मु झ से जबरदस्ती करने की कोशिश कर रहा था. आज भी दुनिया ऐसे मामलों में औरतों की बातों पर यकीन करती है मर्दों की नहीं.’

‘‘वह तो अपने कपड़े ठीक कर के मेरे औफिस से बाहर चली गई, लेकिन उस की बात सुन कर मैं घबरा गया. तभी मेरी नजर सामने सीसीटीवी कैमरे पर पड़ी.

कुछ देर के लिए मु झे तसल्ली हुई कि दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा. फिर भी अपना शक दूर करने के लिए चपरासी को बुला कर पूछा कि सीसीटीवी कैमरा काम कर रहा है कि नहीं. उस ने बताया कि यह खराब है और इस को बदला जाना है. अब मेरा पक्ष रखने वाला कोई नहीं था.’’

‘‘फिर तो तुम्हारे साथ बहुत बुरा हुआ होगा?’’

‘‘हां अंकल, मु झे बहुत जलील कर के औफिस से निकाला गया. मेरी एक न सुनी गई. तब मु झे समाज में ऐसे मामलों में आदमी और औरत के होने का फर्क सम झ में आया.’’

‘‘क्या कोई पुलिस कंप्लैंट हुई तुम्हारे खिलाफ?’’

‘‘बस अंकल, यही एक मेहरबानी हुई. कंपनी ने किसी बखेड़े में न पड़ते हुए मु झे नौकरी से बरखास्त कर दिया. जब मैं कंपनी के औफिस से बाहर निकल रहा था, तब बेला के कड़वे करेले से शब्द मेरे कानों में पड़े, ‘मोची का बेटा है, मोची का बेटा ही रहेगा. अब जिंदगीभर उस नीम के पेड़ के नीचे बैठ कर दूसरों की जूतियां गांठ…’

‘‘मैं बेला के इन कड़वे शब्दों को सुन कर तिलमिला उठा.’’

‘‘यह सुन कर कोई भी तिलमिला जाता देव. यह तुम्हारा सब्र और सम झदारी थी, जो तुम ने इस जहर के प्याले को पी लिया. कोई और होता तो बखेड़ा खड़ा कर देता… फिर?’’

‘‘इस घटना के बाद मेरा मन नौकरी से भी उचट गया. मैं ने पापा से बात की, तो उन्होंने मु झे घर बुला लिया और मोची की दुकान खोलने की बात कही. लेकिन मेरे मन में कुछ और ही चल रहा था.

‘‘मैं जूतों का एक शोरूम खोलने के मूड में था. कुछ पैसा पापा के पास था, कुछ बैंक से लोन लिया और कानपुर की एक जूता कंपनी 20 फीसदी रकम पहले देने पर शोरूम के लिए माल उठवाने के लिए तैयार हो गई. बाकी पापा का अनुभव और मेरी मेहनत थी. बस, यही मेरी कहानी थी अंकल.’’

‘‘लेकिन देव, मेरी नजर में तो कहानी अभी अधूरी है. आखिर बेला का क्या हुआ?’’

तब देव ने हंसते हुए कहा, ‘‘अंकल, आप ने भी कैसा सवाल पूछ लिया? वह जो चाहती थी, उसे वह मिला. मैं जो चाहता था, मुझे वह मिला.’’

‘‘मतलब…?’’ मैं ने हैरानी से पूछा. मु झे लगा कि कहानी में अभी भी कोई मोड़ है.

‘‘मतलब यह कि कंपनी को जल्दी ही बेला की असलियत पता चल गई. सुनने में आया कि उसे कंपनी से धक्के मार कर बाहर निकाला गया. उस की गंदी हरकतों की वजह से उस का अपने परिवार से पहले ही नाता टूट चुका था, किसी और ने भी उस का साथ नहीं दिया. उस का जोड़ा हुआ पैसा कब तक चलता?’’

‘‘फिर, क्या किया उस ने?’’

‘‘फिर उसे कहीं नौकरी न मिली. उस ने शहर तक बदले, लेकिन अपनी हरकतें न बदलीं. उस के बदनाम किस्से उस से पहले दूसरी जगह पहुंच जाते. वह जलील होती और उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता.

काश, उस ने कंपनी और शहर बदलने के बजाय अपनी हरकतें बदली होतीं.’’

‘‘अब कहां पर है वह देव?’’

‘‘अंकल सुना है कि वह अब मेरठ की बदनाम गली का हिस्सा बन चुकी है. वही दलदल, जिस में गिर कर कभी कोई औरत बाहर नहीं आती.’’

मेरी कहानी पूरी हो चुकी थी. मैं चाय पी कर और बापबेटे से विदा ले कर बाहर आया. मैं एक नजर कामयाबी की उस सीढ़ी पर डालने से खुद को रोक न सका, जिस पर एक मोची के बेटे का फलसफा लिखा था ‘राजप्रसाद बूट्स ऐंड शूज’.

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