सम्मान: क्यों आसानी से नही मिलता सम्मान- भाग 1

यों तो इस तरह के पत्र आते रहते थे और मैं उन्हें अनदेखा करता रहता था, लेकिन इन पत्रों पर गौर करना तब से शुरू कर दिया जब से शहर के एक लेखक ने मित्रमंडली में बताया कि उसे अब तक देश की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से एक हजार सम्मान मिल चुके हैं. मित्र लोग वाहवाह कर उठे. एक दिन मुझ से पूछा, ‘‘तुम्हें कोई सम्मान नहीं मिला आज तक? तुम भी तो काफी समय से लिख रहे हो.’’ उस समय मैं ने स्वयं को अपमानित सा महसूस किया.

मेरे शहर के इस लेखक मित्र के बारे में अकसर अखबार में छपता रहता था कि शहर का गौरव बढ़ाने वाले लेखक को दिल्ली की एक प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था से एक और पुरस्कार. मैं ने अपने लेखक मित्र से पूछा, ‘‘इन पुरस्कारों की क्या योग्यता होती है?’’

उस ने गर्व से कहा, ‘‘मेहनत, लगन और लेखन. इस में कोई भाईभतीजावाद नहीं चलता. जो अच्छा लेखक होता है उसे सम्मान मिलता ही है.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप की आयु तो मुझ से बहुत कम है. आप ने शायद मेरे बाद ही लिखना शुरू किया है. अब तक कितना लिख चुके हो.’’

उन्होंने नाराज हो कर कहा, ‘‘ कितना लिखा है, यह जरूरी नहीं है और आयु का लेखन से लेनादेना नहीं है. मेरी 2 किताबें छप चुकी हैं. मैं ने 20 कविताएं और 10 के आसपास कहानियां लिखी हैं. लेकिन लेखन इतना शानदार है कि साहित्यिक संस्थाएं स्वयं को रोक नहीं पातीं मुझे सम्मान देने से.’’

मैंने कहा, ‘‘मुझे भी बताइए कहां से कैसे सम्मान मिलते हैं? क्या करना पड़ता है? पुस्तकें कैसे छपती हैं?’’

उन्होंने कहा, ‘‘आप बड़े स्वार्थी हैं. साहित्य सेवा का काम है. साहित्य से यह उम्मीद मत रखिए कि आप को कुछ मिले. आप को देना ही देना होता है. 2 पुस्तकें मैं ने स्वयं के खर्च पर छपवाई हैं. और सम्मान मिलते हैं योग्यता पर.’’

खैर, दोस्त ने अपना उत्तर दे दिया. मैं ने फिर वे पत्र निकाले जिन्हें मैं अनदेखा करता रहता था. जो पत्र बचे हुए थे, उन्हें पढ़ना शुरू किया. काफी तो मैं फाड़ चुका था, बेकार समझ कर. ठीक वैसे ही जैसे अकसर मोबाइल पर एसएमएस आते रहते हैं कि आप को 10 करोड़ मिलने वाले हैं कंपनी की ओर से. आप इनकम टैक्स और अन्य खर्च के लिए हमारी बैंक की शाखा में फलां नंबर के अकाउंट में 10 हजार रुपए डिपौजिट करवा दें.

बाद में समाचारपत्रों से खबर मिलती है कि इन्हें ठग लिया गया है. इन की रकम डूब चुकी है. बैंक अकाउंट से सारे रुपए निकाल कर इनाम का लालच देने वाले गायब हो चुके हैं. खाता बंद हो चुका है. पुलिस की विवेचना जारी है. ऐसे ठगों से जनता सावधान रहे.

पहले पत्र में लिखा था कि हमारी अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक संस्था ने आप को श्रेष्ठ लेखन का पुरस्कार देने का निर्णय लिया है. यदि आप इच्छुक हों तो कृपया अपना पासपोर्ट साइज कलर फोटो, संपूर्ण परिचयपत्र, साहित्यिक उपलब्धियां और 1,500 रुपए का एमओ या नीचे दिए बैंक खाते में राशि जमा करें. एक फौर्म भी संलग्न था. प्रविष्टि भेजने की अंतिम तारीख निकल चुकी थी. दूसरा पत्र भी इसी तरह था. बस, अंतर राशि की अधिकता और पुरस्कार श्रेष्ठ कविता पर था. साथ में पुस्तक की 2 प्रतियां भेजनी थीं. इस की भी अंतिम तिथि निकल चुकी थी.

सम्मान का लोभ हर लेखक को होता है, थोड़ा सा मुझे भी हुआ. मैं ने पत्र के अंत में दिए नंबरों पर बात करने की सोची. पहले को फोन किया, कहा, ‘‘महोदय, आप की संस्था अच्छा कार्य कर रही है. अंतिम तिथि निकल चुकी है. कुछ प्रश्न भी हैं मन में.’’

उन्होंने उधर से कहा, ‘‘आप भेज दीजिए. अंतिम तिथि की चिंता मत कीजिए. हम आप की प्रविष्टि को एडजस्ट कर लेंगे.’’

मैं ने दूसरा प्रश्न किया, ‘‘जनाब, साहित्यिक उपलब्धियों में क्या लिखूं? लिख तो पिछले 20 साल से रहा हूं लेकिन कोई उपलब्धि नहीं हुई. बस, कहानियां, लेख लिख कर अखबार में भेजता रहता हूं. फिर उसी अखबार, जिस में रचना छपी होती है, को खरीदता भी हूं क्योंकि समाचारपत्र वालों से पूछने पर यही उत्तर मिलता है, ‘हम छाप कर एहसान कर रहे हैं. आप 2 रुपए का अखबार नहीं खरीद सकते. हमारे पास और भी काम हैं.’

‘‘‘हम अखबार की प्रति नहीं भेज सकते. आप चाहें तो अपनी रचनाएं न भेजें. हमें कोई कमी नहीं है रचनाओं की. रोज 10-20 लेखकों की रचनाएं आती हैं और हां, भविष्य में रचनाएं छपवाना चाहें तो पहला नियम है कि अखबार की वार्षिक, आजीवन सदस्यता ग्रहण करें. साथ ही, समाचारपत्र में दिया साहित्य वाला कूपन भी चिपकाएं. आजकल नया नियम बना है लेखकों के लिए. आप लोगों को छाप रहे हैं तो अखबार को कुछ फायदा तो पहुंचे.’’’

उधर से साहित्यिक संस्था वाले ने अखबार वालों को कोसा. उन्हें व्यापारी बताया और खुद को लेखकों को प्रोत्साहन देने वाला सच्चा उपासक. ‘‘आप उपलब्धि में जो चाहे लिख कर भेज दीजिए. जैसे, पिछले कई वर्षों से लगातार लेखन कार्य. चाहे तो अखबार में छपी रचनाओं की फोटोकौपी भेज दीजिए. ज्यादा नहीं, दोचार.’’

मैं ने फिर पूछा, ‘‘श्रीमानजी, ये 1,500 रुपए किस बात के भेजने हैं?’’ उन्होंने समझाया. मैं ने समझने की कोशिश की. ‘‘देखिए सर, सम्मानपत्र छपवाने का खर्चा, संस्था के बैनरपोस्टर लगवाने का खर्चा और आप के लिए चायनाश्ता का इंतजाम भी करना होता है. आप को संस्था का स्मृतिचिह्न भी दिया जाएगा. शौल ओढ़ा कर माला पहनाई जाएगी. आप को जो सुंदर आमंत्रणपत्र भेजा है उस की छपवाई से ले कर डाक व्यय तक. फिर मुख्य अतिथि के रूप में बड़े अधिकारी, नेताओं को बुलाना पड़ता है. उन की खातिरदारी, सेवा में लगने वाला व्यय. बहुत खर्चा होता है साहब. जो हौल हम किराए पर लेते हैं उस का भी खर्चा.’’

गरम लोहा: बबीता ने क्यों ली पति व बच्चों के साथ कहीं न जाने की प्रतिज्ञा?- भाग 2

‘‘मैं भी तुम सब के साथ ही लंबा सफर कर के आई हूं. मैं भी इनसान हूं, इसलिए थकान मुझे भी होती है, पर तुम लोगों के हिसाब से आराम करने का हक मुझे नहीं है. तुम लोगों की सोच यह है कि बाहर बिखरे सारे काम निबटाना मुझ अकेली की जिम्मेदारी है. इसलिए मैं ने भी अब तय कर लिया है कि अब आगे से मैं तुम लोगों के साथ कहीं भी आनेजाने का प्रोग्राम नहीं बनाऊंगी. प्रोग्राम बनाने में तो तुम तीनों आगे रहते हो पर जाने के समय की तैयारी में न कोई हाथ बंटाने को तैयार होता है और न ही आने के बाद बिखरे कामों को समेटने में. जाते वक्त अपने कपड़े तक छांट कर नहीं देते हो तुम सब कि कौनकौन से रखूं. ऊपर से वहां पहुंच कर नखरे दिखाते हो कि मम्मा, यह शर्ट क्यों रख ली. यह तो मुझे बिलकुल पसंद नहीं, यह जींस क्यों रख ली यह तो टाइट होती है. वापस आने के बाद इस समय कितने काम हैं करने को, जिन में तुम लोग मेरी मदद कर सकते हो पर तुम में से किसी के कान पर जूं नहीं रेंग रही है. तुम सब को आराम चाहिए. तुम सब को एसी चाहिए पर क्या मुझे जरूरत महसूस नहीं हो रही इन चीजों की?’’

मेरी बात का तीनों पर तुरंत असर पड़ा. गौरव तुरंत टीवी बंद कर के उठ गया. पति भी एसी बंद कर बाहर आ गए. उन दोनों की देखादेखी छोटा भी अनमना सा चादर फेंक कर हाल में आ कर खड़ा हो गया.

तीनों ही अपने करने लायक काम की तलाश में इधरउधर नजर डाल ही रहे थे कि अचानक मेरा सेलफोन बज उठा. गुस्से की वजह से मेरा फोन उठाने का मन नहीं कर रहा था पर मम्मी का नाम देख कर फोन उठाने को मजबूर हो गई.

‘‘हैलो बबीता, तुझे खुशखबरी देनी थी. आयूष की शादी पक्की हो गई है. लड़की वाले अभी यहीं बैठे हैं. हम सगाई और शादी की तारीख तय कर रहे हैं. तय होते ही तुम्हें दोबारा फोन करूंगी. तारीख बहुत जल्दी की तय करेंगे, इसलिए बस तुम फटाफट आने की तैयारी शुरू कर दो, क्योंकि जब तक तुम नहीं आओगी मैं कोई भी काम ठीक से नहीं कर पाऊंगी,’’ कह कर मम्मी ने फोन रख दिया.

मम्मी के फोन रखते ही मैं चहक उठी, ‘‘सुनो, आयूष की शादी पक्की हो गई है और शादी की बहुत जल्दी की तारीख भी निकलने वाली है. मम्मी ने हमें तैयारी शुरू कर देने को कहा है.’’

‘‘पर मम्मा आप जाएंगी क्या मामा की शादी में?’’ छोटे बेटे ने बड़ी मासूमियत से कहा.

‘‘हां, क्यों नहीं जाऊंगी? क्या तुम लोगों को नहीं जाना मामा की शादी में?’’ मैं ने आश्चर्य से ऋतिक की ओर देखा.

‘‘जाना तो था पर अभीअभी तो आप ने भीष्म प्रतिज्ञा की है कि अब आप हम लोगों के साथ कहीं आनेजाने का प्रोग्राम नहीं बनाएंगी, तो मैं नानी को फोन कर के बता देता हूं कि मम्मा मामा की शादी में नहीं आ पाएंगी. आप हम लोगों का इंतजार न करें.’’

बस फिर क्या था. अपूर्व को भी मौका मिल गया बच्चों के साथ मिल कर मेरी टांग खींचने का. उन्होंने ऋतिक के हाथ से फोन ले लिया और कहने लगे कि बेटा मेरे होते हुए तुम नानी को यह खबर दो, कुछ ठीक नहीं लगता. लाओ, मैं ठीक से समझा कर बता देता हूं नानी को कि वे अपनी प्यारीदुलारी बेटी का इंतजार न करें शादी में.

थोड़ी देर पहले ही मेरे गुस्से का जो असर तीनों पर पड़ा था और तीनों ही मेरी मदद के लिए आ गए थे उस पर मम्मी के फोन से पानी फिर गया.

मेरा मूड अच्छा हुआ देख थोड़ाबहुत इधरउधर कर के दोबारा फिर सब टीवी के सामने जा बैठे. अब दोबारा चीखनेचिल्लाने के बजाय मैं ने अकेले ही काम में जुट जाना बेहतर समझा.

दूसरे दिन से अपूर्व अपने औफिस और बच्चे स्कूल में व्यस्त हो गए. मैं भी बिखरे काम समेटने के साथसाथ आयूष की शादी की कल्पना में जुट गई.

लेकिन जब आयूष की शादी में जाने और शादी की तैयारी के बारे में सोचना शुरू किया तो जाने के पहले की तैयारी और आने के बाद के बिखरे काम के बारे में सोच कर मेरा मानसिक तनाव फिर से बढ़ गया.

अपूर्व और बच्चों के असहयोगात्मक रवैए के कारण कहीं आनेजाने के नाम पर सचमुच मुझे घबराहट होने लगी थी. मुझे दिलोजान से चाहने वाले मेरे पति और बच्चे कहीं भी आनेजाने की तैयारी में कोई भी मदद नहीं करते थे. सब से अधिक परेशानी मुझे होती है सब के कपड़ों के चयन में. कब और किस अवसर पर तीनों कौनकौन से कपड़े पहनेंगे यह भी मुझे अकेले ही तय करना पड़ता है. बच्चों को साथ बाजार चल कर पसंद के कपड़े लेने को कहती हूं तो जवाब मिलता है, ‘‘प्लीज मम्मा, तुम ले आओ. हमें शौपिंग पर जाना बिलकुल पसंद नहीं है. जब कहती हूं कि बेटा मुझे तुम लोगों की पसंदनापसंद समझ में नहीं आती है तो कहते हैं कि आप व्हाट्सऐप पर फोटो भेज देना हम बता देंगे कि पसंद हैं या नहीं.’’

मैं जब हार कर अपनी पसंद के कपड़े ले जाती तो कभी किसी को रंग पसंद नहीं आता तो कभी डिजाइन. मैं गुस्सा हो कर कहती कि इसीलिए कहती हूं कि अपने कपड़े खरीदने मेरे साथ चला करो पर कोई मेरी बात नहीं मानता. अब कल चलो मेरे साथ और इन्हें बदल कर अपनी पसंद के लेना.उन्हें क्या पता कि मां जब तक अपने बच्चों को नए कपड़े नहीं पहना लेती खुद अपने तन पर नए कपड़े नहीं डालती. बच्चों का पहनावा और संस्कार मां की परवरिश और सुघड़ता को उजागर करते हैं, इसलिए मेरे बच्चे और पति का पहनावा हर अवसर पर सलीकेदार हो, इस का मैं विशेष ध्यान रखती हूं

राजकुमारी- भाग 3: क्या पूरी हो सकी उसकी प्रेम कहानी

बहनों की बात को ले कर उस ने राजकुमारी से पूछा, ‘‘सीधी सी बात है कि बहनों की शादी के बाद तुम शादी करोगी. करोगी न…?’’ राजकुमारी ने एक मीठी सी मुसकान के साथ कहा, ‘‘जी हां.’’ ‘‘यह तो तुम देख रही हो कि मैं ने अब तक शादी नहीं की. तुम्हें देखने के बाद शादी करना चाहता हूं. मुझे एक ऐसी ही पत्नी की तलाश थी.’’ ‘‘मुझ से…? मैं तो…’’ राजकुमारी का गला सूख गया. निर्मल कुमार ने मुसकराते हुए आगे कहा, ‘‘जब तुम मेरी बीवी बन जाओगी, तो जोकुछ मेरा है, वह तुम्हारा होगा. एक शानदार जिंदगी तुम्हारे सामने है. तुम्हारे लिए कोई परेशानी बाकी नहीं रहेगी.

मकान छुड़ा लेना, बहनों की शादी पर जितना चाहे खर्च करना, मुझे कोई एतराज नहीं होगा.’’ राजकुमारी ने फौरन हामी नहीं भरी और इनकार भी नहीं किया. निर्मल कुमार ने उसे देखते हुए कहा, ‘‘इस बात का जवाब आराम से देना…’’ ‘‘हांहां, सोच लो, आराम से सोचो और तब मुझे बताओ. वैसे, मेरा यकीन है कि मेरी बात को तुम ठुकराओगी नहीं, मंजूर कर लोगी. अच्छा, चलो तुम्हें छोड़ते चलते हैं.’’ घर आ कर राजकुमारी रातभर सो नहीं सकी. वह बारबार बिस्तर से उठती और पानी पीती… इसी तरह सवेरे के  6 बज गए.  एक तरफ राजेश था, जिस से वह बेहद प्यार करती थी. वह रातोंरात चाहे राजेश के साथ रही हो, पर उस ने कभी भी जिस्मानी संबंध नहीं बनाए थे.

वह निर्मल कुमार से कम उम्र का भी था और सुंदर भी. वह उसे बहुत चाहती थी.  पर राजेश के साथ भी लगभग यही परेशानियां थीं. इन दोनों ने शादी इसीलिए नहीं की थी कि इस से घर वालों पर असर पड़ता था.  दूसरी ओर निर्मल कुमार एक करोड़पति था. उस की सारी उलझनें चुटकी बजाते ही हल हो सकती थीं. दूसरे दिन वह दिनभर इन्हीं खयालों में गुम रही. वह दफ्तर भी नहीं गई.  2-3 रोज बाद जब राजेश से मिली, तो उसे सारी बातें बता दीं.  राजेश उन दिनों काफी बिजी रहने लगा था. वह कहता था कि शादी के लिए पैसा जमा करने के लिए उस ने  2 पार्टटाइम नौकरियां पकड़ी हैं. राजेश ने पूछा, ‘‘फिर, तुम ने क्या फैसला किया?’’ राजकुमारी ने जमीन की ओर नजरें करते हुए कहा, ‘‘मैं सोच रही हूं, अपने परिवार के लिए यह कुरबानी दे ही दूं… तुम्हें कोई एतराज तो नहीं होगा?’’ सुनते ही राजेश का चेहरा पीला पड़ गया. लेकिन जल्दी ही उस ने अपनेआप पर काबू पा लिया.

राजकुमारी किसी मुजरिम की तरह नजरें नीचे किए बैठी थी, इसलिए वह राजेश का चेहरा नहीं देख पाई थी. राजेश ने धीरे से कहा, ‘‘मुझे भला क्या इनकार हो सकता है? इस ‘सच’ को मान लेना चाहिए तुम्हें.’’ राजकुमारी बोली, ‘‘लेकिन, मैं ने फैसला कर लिया है, जो मैं तुम्हें 2-3 रोज में बताऊंगी. प्लीज, उस दौरान मुझ से कुछ पूछना नहीं.’’ ‘‘छोड़ो इन बातों को,’’ राजेश हंसते हुए बोला, ‘‘तुम निर्मल कुमार की बात मान लो. मेरा क्या, मां कहीं से गांव की लड़की पकड़ कर ब्याह कर देगी.’’ दोनों जब उठे तो राजकुमारी एक फैसले पर पहुंच चुकी थी. राजकुमारी निर्मल कुमार की होने को तैयार हो गई थी और दोनों अपनीअपनी मंजिल की ओर चल पड़े. उस रात वह बहुत खुश थी. फिर भी करवटें बदलती रही. दूसरे दिन भी वह दफ्तर नहीं गई. उसे बुखार हो गया. इसी तरह 4 दिन बीत गए. छठे दिन जब वह दफ्तर जा रही थी, तो उस के दिमाग में हलचल मच गई.

उसे आज निर्मल कुमार को अपना फैसला सुनाना था.  निर्मल कुमार को लगा कि वह राजेश के लिए कहीं चली न गई हो. उस के घर पर जा कर देखा, तो राजकुमारी का कमरा खुला दिखा.  एक घंटे तक न कोई आया और न कोई गया तो वह चुपचाप घर चला गया. राजकुमारी किसी भी कीमत पर राजेश को खोना नहीं चाहती थी. उस की मुहब्बत के आगे निर्मल कुमार की दौलत कुछ भी नहीं थी. उस के दिल की धड़कन तेज हो गई और राजेश की मुहब्बत रंग लाने लगी.  उस ने जब दफ्तर में प्रवेश किया, तो पता चला कि निर्मल साहब आ चुके हैं. वह उन के कमरे में गई और थोड़ी मुसकान के बाद बोली, ‘‘सर, आप बहुत महान हैं कि आप ने मुझे अपनाने का फैसला किया था. पर, मैं अपना दिल तो राजेश को दे चुकी हूं. मैं आप से शादी नहीं कर सकती. यह मेरा इस्तीफा है. मैं राजेश से शादी करूंगी.’’ निर्मल कुमार बोला, ‘‘तुम उस राजेश से बात कर रही हो न, जो इंपैक्ट इंडस्ट्री में काम करता है. उस के मालिक ने अपनी सांवली लड़की के लिए राजेश को तैयार कर लिया था. पर, मैं ने उन्हें बता दिया है कि राजेश और तुम कितनी ही रातें एक कमरे में गुजार चुके हो.

उन के पास तुम्हारे घर के वीडियो पहुंच चुके हैं. उन्होंने आज ही राजेश को धक्के दे कर नौकरी से निकल दिया है.  ‘‘राजेश तुम्हें धोखा देता रहा है. तुम जैसी लड़की से मैं भी अब शादी करने से इनकार करता हूं. इंपैक्ट इंडस्ट्री के मालिक ने राजेश को मेरे भेजे वीडियो के आधार पर उस के खिलाफ मुकदमा भी कर दिया है. वह अब जेल में है. जाओ, जेल में मिल आओ.’’ राजकुमारी उस से आगे एक लफ्ज भी नहीं सुन सकी. उस के हाथ से कागज छूट कर गिर पड़े. राजकुमारी की दुनिया उजड़ चुकी थी. न निर्मल साथ रहा, न राजेश.

गरम लोहा: बबीता ने क्यों ली पति व बच्चों के साथ कहीं न जाने की प्रतिज्ञा?- भाग 1

अपूर्व और बच्चों को मेरी टांग खींचने का अच्छा मौका मिल गया था. सब से पहले छोटे बेटे ऋतिक ने मोबाइल हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘लाओ मम्मा, मैं नानी को फोन कर के बता देता हूं कि आप मामा की शादी में नहीं आ पाएंगी, क्योंकि आप ने भीष्म प्रतिज्ञा की है कि आप हम लोगों के साथ अब कहीं नहीं जाओगी.’’

ऋतिक की बात पूरी होते ही अपूर्व ने उस के हाथ से फोन लेते हुए कहा, ‘‘अरे बेटा, मेरे होते हुए तुम नानी से बात करो यह मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है. लाओ फोन मुझे दो. मैं नानी को ठीक से समझा देता हूं कि वे साले साहब की शादी की सारी तैयारी अकेले ही कर लें, क्योंकि उन की लाडली ने कहीं भी न जाने की प्रतिज्ञा कर ली है.’’

मेरे दिमाग के गरम पारे पर मां के फोन से पानी की जो ठंडी फुहार पड़ी थी वह पुन: इन लोगों की चुहलबाजी से ज्वलंत होने लगी.

हुआ यों था कि शिमला में 1 सप्ताह तक छुट्टियां बिता कर हम बस घंटा भर पहले ही घर आए थे. घर में घुसते ही अपूर्व और बच्चे एसी और टीवी औन कर के बैठ गए और फिर 1-1 कर के फरमाइशें शुरू कर दीं, ‘‘बबीता, फटाफट 1 कप चाय पिलाओ… होटल की चाय पी कर मन खराब हुआ पड़ा है.’’

‘‘मम्मा, प्लीज साथ में प्याज के पकौड़े भी बना देना. रास्ते में कहीं पकौड़े बन रहे थे. उन की महक मेरी नाक में ऐसी समाई कि मैं ने वहीं तय कर लिया था कि घर पहुंच कर सब से पहले मम्मा से पकौड़े बनवाऊंगा, बड़े बेटे गौरव ने अपनी इच्छा जताई.’’

‘‘मम्मा, आप ने मुझ से वादा किया था कि घर पहुंचते ही मुझे नूडल्स खिलाओगी. अब मुझ से सब्र नहीं हो रहा है. फटाफट अपना वादा पूरा करो,’’ छोटे बेटे ऋतिक ने भी उन दोनों के सुर में सुर मिलाया.

मेरे कानों में उन तीनों की बातें पड़ तो रही थीं पर ध्यान घर में बिखरे काम पर था.

बालकनी में सप्ताह भर के पेपर्स के बंडल बिखरे पड़े थे, जिन्हें हमारी गैरमौजूदगी में भी पेपर वाला डालता गया था, क्योंकि उसे हम मना करना भूल गए थे. उन्हें उठा कर खोल कर अलमारी में रखना था. सामने और पीछे दोनों तरफ की बालकनियों के गमलों के पौधे 1 सप्ताह में पानी के अभाव में झुलस से गए थे. उन में पानी डालना था. घर में इतनी धूल दिखने लगी थी कि फर्श पर चप्पलों के निशान बन रहे थे. कामवाली तो कल सुबह ही आएगी. अत: झाड़ूपोंछा भी करना ही पड़ेगा. सारे कमरों की बैडशीटें बदलनी हैं. किचन समेत पूरे घर की डस्टिंग करनी पड़ेगी. सूटकेस और बैग्स को खाली कर के धूप दिखा कर ऊपर की अलमारी में रखना है. सब से बढ़ कर तो गंदे कपड़ों के अंबार से निबटना है. कपड़े मशीन में धुलने डालने हैं. धुलने के बाद सूखने डालना और फिर सूखने के बाद उठा कर अंदर लाने हैं.

इस सब के अलावा सप्ताह भर बाहर का खाना खा कर ऊब चुके अपूर्व और बच्चों की दिली तमन्ना कि आज घर का बना स्वादिष्ठ खाना खाने को मिलेगा, बिना कहे ही मैं समझ रही थी.

2-4 दिन के लिए भी घर छोड़ कर कहीं चले जाओ तो आने के बाद काम का अंबार देख कर मन इतना घबरा जाता है कि यह सोचने लग जाती हूं कि गई ही क्यों? अपूर्व और बच्चे तो बस सूटकेस और बैग्स को घर के अंदर पहुंचा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. उन्हें किसी और काम से मतलब नहीं रह जाता. मैं अकेली सारे काम निबटातेनिबटाते अधमरी हो जाती हूं.

अपूर्व और बच्चे तो अपनीअपनी फरमाइशें मुझे सुना कर टीवी के सामने बैठ गए और मैं किचन में खड़ी सोचने लगी कि कहां से काम शुरू करूं.

मुझे पता था कि जब तक तीनों की खानेपीने की फरमाइशें पूरी नहीं कर दूंगी तब तक ये शोर मचाते रहेंगे और मैं कोई भी काम ढंग से नहीं कर पाऊंगी. हालांकि लंबे सफर से आने के बाद नहाए बिना कुछ करने का मन नहीं कर रहा था, पर नहाने का इरादा त्याग कर जल्दीजल्दी प्याज काटने में जुट गई. गैस पर एक तरफ 2 कप चाय चढ़ा दी और दूसरी तरफ भगौने में नूडल्स बनने रख दी. तीसरे आंच पर कड़ाही में तेल गरम होते ही फटाफट पकौड़े तल कर सारा सामान ट्रे में लगा कर उन के पास पहुंच गई.

सब के साथ खुद भी सफर की थकान कम करने के इरादे से बैठ कर मैं ने भी चाय पी और उस के बाद पल्लू कमर में ठूंस कर काम निबटाने उठ गई.

सोचा सब से पहले कपड़ों को मशीन में डाल दूं. मशीन में कपड़े अपनेआप धुलते रहेंगे और मैं उस दौरान दूसरे काम करती रहूंगी.

मशीन लगाने के नाम पर मुझे पानी का खयाल आया कि पता नहीं टंकी में कितना पानी है? पर जब मैं ने ऋतिक से कहा कि जा कर देख कर आ कि टंकी में कितना पानी है ताकि मैं अपना काम उसी हिसाब से शुरू करूं तो वह मुंह तक चादर ओढ़ कर सो गया और अपने बड़े भाई की ओर इशारा कर के मुझे सलाह दे डाली कि इसे भेज दो.

उस की हरकत पर गुस्सा तो बहुत आया पर मैं बिना कुछ कहे चुपचाप वहां से बाहर निकल आई.

गौरव ने शायद मेरी नाराजगी को महसूस कर लिया. अत: उस ने बिना मेरे कुछ कहे ही उठते हुए कहा, ‘‘मम्मा, मैं देख कर आता हूं.’’

‘शुक्र है, किसी को तो दया आई मुझ पर,’ सोचते हुए मैं ने सूटकेस और बैग खाली करना शुरू कर दिए.

‘‘मम्मा, टंकी पूरी भरी हुई है… अब प्लीज कम से कम 1 घंटे तक आप मुझ से कोई काम करने को मत कहिएगा,’’ कहते हुए वह फिर से टीवी के सामने बैठ गया.

मैं अकेली इतने सारे कामों को ले कर परेशान हो रही हूं पर मेरे पति और बच्चों को इस की कोई परवाह नहीं है. कोई झूठमूठ भी मदद के लिए नहीं उठ रहा है. कहीं जाने का प्रोग्राम बनाने में तो तीनों ही बहुत तेज रहते हैं पर जाने से पहले की तैयारी में न कोई हाथ बंटाने को तैयार होता है और न ही वापस आने के बाद फैले कामों को समेटने में.

‘बस अब बहुत हो गया. ये सब मेरे सीधेपन का ही नतीजा है. मैं तो हरेक की सुविधा के लिए खटती रहती हूं पर इन्हें मेरी रत्ती भर भी परवाह नहीं रहती. अब तो इन्हें इन की गलती का और घर के प्रति जिम्मेदारियों का एहसास कराना ही पड़ेगा,’ यह सोचते हुए मैं कमरे में पहुंच गई.

राजकुमारी- भाग 2: क्या पूरी हो सकी उसकी प्रेम कहानी

चारों ओर एक आह सी निकलती महसूस होती थी. पार्टी में जितने भी लोग थे, सभी उसी को घूर रहे थे. दावत खत्म होने के बाद निर्मल कुमार जब अपने कमरे में पहुंचा तो खुद को बहुत थकाथका सा महसूस करने लगा. उसे बिस्तर पर पड़ेपड़े बहुत देर हो गई. करवटें बदलतेबदलते रात के 3 बज गए. रहरह कर उसे राजकुमारी का मासूम चेहरा दिखाई देता. आज उसे अपने अंदर अधूरेपन का एहसास हो रहा था. बहुतकुछ होते हुए भी वह अपनेआप को बहुत गरीब समझ रहा था. उस की यह गरीबी एक औरत ही दूर कर सकती थी. और वह मालदार औरत थी राजकुमारी.

उस के दिल में कहीं से एक सदमे की लहर आई, जिस ने उसे अपने लपेटे में ले लिया. उसे ऐसा लगा जैसे वह इस दुनिया में अकेला है. उसे कोई चाहने वाला नहीं, प्यार करने वाला नहीं, उस की जवानी को अपनी बांहों में भरने वाला कोई नहीं है. निर्मल कुमार अपनेआप को एक बड़े कैदखाने में बंद पा रहा था, जिस से बाहर निकलने का एक ही रास्ता था, लेकिन वह भी बंद था. फिर उसे अपनेआप में शोर सुनाई देने लगा. पहली बार यह शोर गूंजा था. कितनी ही देर वह इस शोर को सुनता रहा.

क्या राजकुमारी को वह अपना जीवनसाथी बना सकता है? वह सोच रहा था, ‘वह इनकार तो नहीं कर देगी? वह किसी और से तो प्यार नहीं करती? अगर वह किसी से मुहब्बत करती है तो क्या हुआ, मेरे पास तुरुप के पत्ते हैं. मैं अपना सबकुछ उस हुस्न की मलिका के कदमों में डाल दूंगा.’  सोचतेसोचते वह बिस्तर पर लेट गया. अब वह बहुत खुश था. जैसे उस ने राज को पा लिया हो.  अगले दिन उस ने राजकुमारी का शाम को अपनी गाड़ी में पीछा किया. वह रिकशे में 10 लोगों के साथ जहां उतरी, वह कच्चेपक्के मकानों की बस्ती थी. दूसरे दिन पार्क की बैंच पर बैठते हुए राजेश ने कहा, ‘‘कल कहां थी राज? तुम घर पर भी नहीं थी.’’ ‘‘हां, मैं परसों तुम को बताना भूल गई थी… हमारे मालिक ने दफ्तर के तमाम लोगों को खाने पर बुलाया था,’’ राजकुमारी ने राजेश की ओर देखते  हुए कहा. ‘‘अरे भई, निर्मल सेठ?है, जवान है. उस की पार्टी हो तो हमारी गुंजाइश कहां, हम ठहरे गरीब आदमी…’’ सुन कर राजकुमारी ने फौरन कहा, ‘‘यह बात तो है… निर्मल बहुत अमीर है, लेकिन उस में जरा सा भी घमंड नहीं है.’’

राजेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘फिर मैं ऐसा समझूं कि मेरी 3,650 दिनों की तपस्या बेकार गई, कहीं तुम्हारा इरादा…’’ ‘‘नहीं…’’ राजकुमारी बोली, ‘‘सब से पहली बात तो यह है कि कहां निर्मल कुमार और कहां मैं. मेरा उस के बारे में सोचना ही बेकार है.’’ ‘‘तुम कितनी मालदार हो, तुम्हें नहीं मालूम…’’ राजेश बोला, ‘‘बस एक बात है, 100 साल पहले मुझे तुम से प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा…’’ राजकुमारी ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘मालूम है बाबा, अब उठो.’’ अगले दिन जब निर्मल कुमार के कमरे में राजकुमारी आई, तो वह अपनी कुरसी से खड़ा हो गया और बोला, ‘‘आओ राजकुमारी, मैं तुम्हें बुलाने ही वाला था.’’  वह उसे कुरसी की ओर इशारा करते हुए आगे बोला, ‘‘बैठोबैठो.’’ निर्मल कुमार के इस तरह बोलने पर वह जरा हैरान हुई और ‘जी’ कहती हुई बैठ गई. ‘‘कहो, तुम्हें हमारी पार्टी कैसी लगी?’’

निर्मल कुमार की आंखों में एक खास चमक देखते हुए राजकुमारी ने कहा, ‘‘पार्टी बहुत शानदार रही.’’  वह सोच रही थी कि राजेश उस के दिल में बसा हुआ है तो क्या हुआ, खूबसूरत मर्द तो अपने अंदर चुंबक का असर रखते हैं. वह निर्मल कुमार को गौर से देखने लगी. फिर आंखें झुका कर वह बोली, ‘‘जी कहिए, क्या हुक्म है?’’ ‘‘हुक्म नहीं, गुजारिश है… वह यह है कि आज शाम मैं तुम से एक खास बात करना चाहता हूं. तुम कल साढ़े  7 बजे होटल डिलाइट में मुझ से मिलना. अब तुम जा सकती हो. लेकिन ध्यान रहे, मुलाकात का किसी को पता न चले, समझीं?’’ राजकुमारी ‘ठीक है’ कहते हुए कमरे से बाहर चली गई. उस के दिमाग में कितने ही सवाल उठ खड़े हुए. उसे महसूस हो गया था कि निर्मल कुमार उस पर डोरे डाल रहा है.  उस पार्टी की रात की पार्टी में भी वह उस की निगाहों के इशारे को पढ़ चुकी थी. और उसे वह यकीन भी हो गया कि उस का मालिक ऐयाश नहीं है.

वह अपनी जवानी की आग नहीं बुझाना चाहता, वह जीवनसाथी चाहता है. फिर एक और डर भी उसे परेशान कर रहा था कि अमीर मर्द एक गरीब लड़की को अपनी बीवी कैसे बना सकता है?  शाम को वह राजेश से मिली, तो कुछ खिंचीखिंची सी थी. राजेश ने उस का मन रखने को कहा ‘‘चलो, तुम्हारे कमरे में चलते हैं. वहां बैठ कर बात करेंगे.’’ उधर निर्मल कुमार बेचैन था, पर अगले दिन का इंतजार नहीं करना चाहता था. वह उसी बस्ती तक चला गया और राजकुमारी के कमरे के सामने भी चाय की दुकान में बैठ कर राजकुमारी के दर्शन का इंतजार करने लगा. उस ने उन 2-3 घंटों में बहुतकुछ देख लिया, पर उस का राजकुमारी ने प्रति लगाव कम नहीं हुआ था.

जब अगले दिन दोनों शाम को मिले, तो राजकुमारी ने सिर उठाया और उस से कोई बात नहीं छिपाई. लेकिन जानबूझ कर राजेश के बारे में कुछ नहीं बताया. बाकी सबकुछ सचमुच बता दिया कि मातापिता हैं, 2 बहनें हैं, मकान गिरवी रखा है, दोनों बहनों की शादी बड़ी उलझन बनी हुई है, क्योंकि शादी करने के लिए रकम नहीं है, और हजारों रुपए का कर्ज भी चढ़ा हुआ है, जिसे अपनी पगार से बचा कर वह उतारने की कोशिश कर रही है. उस की कहानी सुन कर निर्मल कुमार वैसे तो दिल ही दिल में बहुत खुश हुआ. पर अब उसे राजेश के बारे में पता करना था. इस हुस्न की मलिका को खरीदने के लिए वह ज्यादा जरूरी था. उस ने बड़ी आसानी से राजेश के बारे में पता कर लिया था. फिर भी उसे भरोसा था कि राजकुमारी और राजेश की सिर्फ दोस्ती है और वह उस की अच्छी साथी बन सकती है, चाहे गरीब घर की क्यों न हो.

राजकुमारी- भाग 1: क्या पूरी हो सकी उसकी प्रेम कहानी

उस का नाम ही राजकुमारी था. वैसे तो वह कहीं की राजकुमारी नहीं थी, लेकिन वह सचमुच राजकुमारी लगती थी. उस की खूबसूरती, रखरखाव, बातचीत करने का अंदाज और उस की शाही चाल उसे वाकई राजकुमारी बनाए हुए थे, जबकि वह एक मामूली घर की लड़की थी. जब उस ने पहले दिन दफ्तर में कदम रखा, तो न केवल कुंआरों के, बल्कि शादीशुदा लोगों के दिलों की धड़कनें भी तेज हो गई थीं. ‘चांदी जैसा रूप है तेरा सोने जैसे बाल, एक तू ही धनवान है गोरी बाकी सब कंगाल’, जैसी गजल उन के सामने आ गई थी. सपनों की हसीन शहजादी उन के सामने थी.

दफ्तर की दूसरी लड़कियों और औरतों ने भी जलन और तारीफ भरी नजरों से देखा था उसे. वह सब से अलग नजर आ रही थी. उस पर जवानी ही कुछ ऐसी टूट कर बरस रही थी कि दफ्तर में सभी चौंक पड़े थे. लंबा कद, घने बाल, भरी छातियां, पतली कमर और चाल में कोमलता. लेकिन वह वहां नौकरी करने आई थी, इश्क करने नहीं. उसे औरों से ज्यादा अपने काम से लगाव था. उस ने किसी की तरफ नजर भर कर मुसकरा कर भी नहीं देखा. उस के चेहरे पर खामोशी छाई रहती थी और आंखों में चिंता तैरती रहती थी. ऐसा लगता था कि वह बहुत सी परेशानियों से एकसाथ लड़ रही है. वह एक मामूली साड़ी बांधे हुए थी, लेकिन दूसरी औरतों और लड़कियों के मुकाबले उस की वह मामूली साड़ी भी खूब जंच रही थी उस पर. कई दिन बीत गए. वह सिर्फ अपने काम से काम रखती.

यदि वह किसी की माशूका न होती तो किसी न किसी को अपना दिल दे बैठती. खूबसूरत नौजवानों की इस दफ्तर में भी कमी नहीं थी. आमतौर पर उस तरह की खूबसूरत लड़कियां सहयोगियों पर दाना फेंक कर अपना काम निकालती हैं, पर राजकुमारी उन में से न थी. यह ऐसा सैंटर था, जिस में छोटीछोटी सैकड़ों मेजें लगी थीं. इस कंपनी का मालिक था निर्मल कुमार. अच्छीखासी दौलत होने के बावजूद उस ने अभी तक शादी नहीं की थी. अपनी पसंद की लड़की उसे अभी तक नहीं मिली थी. वह रोशन खयाल और गहरी सोच रखने वाला इनसान था. उस की उम्र 32 साल की थी. वह लंदन से पढ़ कर लौटा था.  उस ने आज तक वहां काम कर रही किसी लड़की की ओर ध्यान नहीं दिया था.

तकरीबन 4 साल से बड़ी सूझबूझ और लगन से वह कंपनी को चला रहा था. उस की कई दोस्त थीं, पर वह किसी से भी प्रेम नहीं करता था, क्योंकि उस की सब दोस्त लड़कियां खुले विचारों की थीं और कितनों के साथ रह चुकी थीं. निर्मल कुमार खुद भी कभी किसी के साथ नहीं सोया था उसे ऐसी लड़की चाहिए थी, जो कहीं भी मुंह मार ले. निर्मल कुमार ने जब पहली बार राजकुमारी को देखा था, तो उस का दिल भी धड़का था. आखिर वह उस के हुस्न की खुशबू से कैसे बच सकता था? वह लाखों में एक थी. निर्मल कुमार पहले मर्द था, मालिक बाद में. राजकुमारी जब भी किसी काम से निर्मल कुमार के सामने जाती, तो वह दो नजर भर देखे बगैर नहीं रह सकता था. इस से पहले भी उस की मुलाकात कई खूबसूरत पढ़ीलिखी ऊंचे घराने वालियों से होती रही थी. लंदन और मुंबई में भी वह कई हसीन लड़कियों से मिल चुका था, लेकिन उस ने उन में से किसी एक के लिए भी अपने दिल में तड़प महसूस नहीं की थी. उसे लगा कि राजकुमारी उतनी ही साफ थी जितना दिखती थी.

उस ने कभी काम के अलावा कुछ बात करने की कोशिश नहीं की, जबकि उस के स्टार्टअप में हर लड़की हर दूसरेतीसरे हफ्ते कोई पर्सनल प्रौब्लम लिए खड़ी होती थी. राजकुमारी में उस ने जैसे कोई खास बात महसूस की थी. वह दिन में 2-3 बार उसे जरूर बुलाता. राजकुमारी की मौजूदगी उसे तड़पाने लगती थी. जब वह कमरे से चली जाती तो उस की पीड़ा और बढ़ जाती. वह अपनी मेज  पर सिर टेक देता और आंखें बंद हो जातीं. फिर वह सोचता कि यह उसे क्या  होता जा रहा है, वह क्यों दीवानगी के खयाल पालने लगा है? इसी तरह कई हफ्ते बीत गए. राजकुमारी को भी अब महसूस होने लगा था कि निर्मल कुमार उस में दिलचस्पी लेने लगा है. लेकिन वह जल्दी ही दिमाग से यह बात निकाल देती. वह अपने और निर्मल कुमार के बीच के फासले को जानती थी.

वह 12,000 रुपए पाने वाली मामूली नौकर थी और निर्मल कुमार करोड़ों का मालिक था. उस के दिल में निर्मल कुमार को पाने या अपनाने की कोई ख्वाहिश नहीं थी, क्योंकि उस का राजकुमार तो राजेश था, जो उस के दिल का मालिक था. उस का और राजेश का साथ उसी समय से था, जब वह 10वीं में पढ़ती थी. लगभग 10 साल पहले की सी ताजगी थी. फिलहाल दोनों ही अपनीअपनी जिंदगी की परेशानियों में उलझे हुए थे. इसी कारण वे अपने सपनों की दुनिया को आबाद नहीं कर सके थे. राजेश भी बहुत सुंदर और गठीला नौजवान था. वह जहां काम करता था, वहां उस की बड़ी इज्जत थी. फैक्टरी का मालिक भी उस पर बहुत मेहरबान था. राजकुमारी और राजेश रोजाना शाम को किसी छोटे से ढाबे या पार्क में मिलते थे. वे देर तक बातें करते रहते थे. हर रोज एक ही परेशानी उन के सामने होती थी.

वे दोनों बातें कर के दिल की भड़ास निकाल लेते थे और अपने दुखों को जैसे बांट लेते थे.  ऐसा करने से उन को बड़ी शांति मिलती थी. कभीकभार जब मौका मिलता, तो दोनों एकदूसरे के साथ रातभर रहते, पर दोनों ने वादा कर रखा था कि वे पक्का शादी करेंगे. दोनों एक ही जाति के थे और घर वाले मंजूर कर लेंगे. यह भी उन्हें मालूम था. निर्मल कुमार ने एक रोज अपने दफ्तर के साथी लोगों को रात के खाने की दावत दी. नवंबर का महीना था. सर्दी शुरू हो चुकी थी. राजकुमारी पार्टी में आई, तो बादामी रंग की साड़ी पहने हुए थी. उस पर चौकलेटी रंग का शाल देखने वालों को बड़ी भली मालूम हो रही थी.  उस के अंगअंग से जवानी उबल रही थी. जब वह हंसती थी तो देखने वालों का कलेजा मुंह को आ जाता था.

भाभी: क्यों बरसों से अपना दर्द छिपाए बैठी थी वह- भाग 3

उन की ननद का विवाह तय हो गया और तारीख भी निश्चित हो गई थी. लेकिन किसी भी शुभकार्य के संपन्न होते समय वे कमरे में बंद हो जाती थीं. लोगों का कहना था कि वे विधवा हैं, इसलिए उन की परछाईं भी नहीं पड़नी चाहिए. यह औरतों के लिए विडंबना ही तो है कि बिना कुसूर के हमारा समाज विधवा के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखता है. उन के दूसरे विवाह के बारे में सोचना तो बहुत दूर की बात थी. उन की हर गतिविधि पर तीखी आलोचना होती थी. जबकि चाचा का दूसरा विवाह, चाची के जाने के बाद एक साल के अंदर ही कर दिया गया. लड़का, लड़की दोनों मां के कोख से पैदा होते हैं, फिर समाज की यह दोहरी मानसिकता देख कर मेरा मन आक्रोश से भर जाता था, लेकिन कुछ कर नहीं सकती थी.

मेरे पिताजी पुश्तैनी व्यवसाय छोड़ कर दिल्ली में नौकरी करने का मन बना रहे थे. भाभी को जब पता चला तो वे फूटफूट कर रोईं. मेरा तो बिलकुल मन नहीं था उन से इतनी दूर जाने का, लेकिन मेरे न चाहने से क्या होना था और हम दिल्ली चले गए. वहां मैं ने 2 साल में एमए पास किया और मेरा विवाह हो गया. उस के बाद भाभी से कभी संपर्क ही नहीं हुआ. ससुराल वालों का कहना था कि विवाह के बाद जब तक मायके के रिश्तेदारों का निमंत्रण नहीं आता तब तक वे नहीं जातीं. मेरा अपनी चाची  से ऐसी उम्मीद करना बेमानी था. ये सब सोचतेसोचते कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

‘‘उठो दीदी, सांझ पड़े नहीं सोते. चाय तैयार है,’’ भाभी की आवाज से मेरी नींद खुली और मैं उठ कर बैठ गई. पुरानी बातें याद करतेकरते सोने के बाद सिर भारी हो रहा था, चाय पीने से थोड़ा आराम मिला. भाभी का बेटा, प्रतीक भी औफिस से आ गया था. मेरी दृष्टि उस पर टिक गई, बिलकुल भाई पर गया था. उसी की तरह मनमोहक व्यक्तित्व का स्वामी, उसी तरह बोलती आंखें और गोरा रंग.

इतने वर्षों बाद मिली थी भाभी से, समझ ही नहीं आ रहा था कि बात कहां से शुरू करूं. समय कितना बीत गया था, उन का बेटा सालभर का भी नहीं था जब हम बिछुड़े थे. आज इतना बड़ा हो गया है. पूछना चाह रही थी उन से कि इतने अंतराल तक उन का वक्त कैसे बीता, बहुतकुछ तो उन के बाहरी आवरण ने बता दिया था कि वे उसी में जी रही हैं, जिस में मैं उन को छोड़ कर गई थी. इस से पहले कि मैं बातों का सिलसिला शुरू करूं, भाभी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दामादजी क्यों नहीं आए? क्या नाम है बेटी का? क्या कर रही है आजकल? उसे क्यों नहीं लाईं?’’ इतने सारे प्रश्न उन्होंने एकसाथ पूछ डाले.

मैं ने सिलसिलेवार उत्तर दिया, ‘‘इन को तो अपने काम से फुरसत नहीं है. मीनू के इम्तिहान चल रहे थे, इसलिए भी इन का आना नहीं हुआ. वैसे भी, मेरी सहेली के बेटे की शादी थी, इन का आना जरूरी भी नहीं था. और भाभी, आप कैसी हो? इतने साल मिले नहीं, लेकिन आप की याद बराबर आती रही. आप की बेटी के विवाह में भी चाची ने नहीं बुलाया. मेरा बहुत मन था आने का, कैसी है वह?’’ मैं ने सोचने में और समय बरबाद न करते हुए पूछा.

‘‘क्या करती मैं, अपनी बेटी की शादी में भी औरों पर आश्रित थी. मैं चाहती तो बहुत थी…’’ कह कर वे शून्य में खो गईं.’’

‘‘चलो, अब चाचाचाची तो रहे नहीं, प्रतीक के विवाह में आप नहीं बुलाएंगी तो भी आऊंगी. अब तो विवाह के लायक वह भी हो गया है.’’

‘‘मैं भी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाह रही हूं,’’ उन्होंने संक्षिप्त उत्तर देते हुए लंबी सांस ली.

‘‘एक बात पूछूं, भाभी, आप को भाई की याद तो बहुत आती होगी?’’ मैं ने सकुचाते हुए उन्हें टटोला.

‘‘हां दीदी, लेकिन यादों के सहारे कब तक जी सकते हैं. जीवन की कड़वी सचाइयां यादों के सहारे तो नहीं झेली जातीं. अकेली औरत का जीवन कितना दूभर होता है. बिना किसी के सहारे के जीना भी तो बहुत कठिन है. वे तो चले गए लेकिन मुझे तो सारी जिम्मेदारी अकेले संभालनी पड़ी. अंदर से रोती थी और बच्चों के सामने हंसती थी कि उन का मन दुखी न हो. वे अपने को अनाथ न समझें,’’ एक सांस में वे बोलीं, जैसे उन्हें कोई अपना मिला, दिल हलका करने के लिए.

‘‘हां भाभी, आप सही हैं, जब भी ये औफिस टूर पर चले जाते हैं तब अपने को असहाय महसूस करती हूं मैं भी. एक बात पूछूं, बुरा तो नहीं मानेंगी? कभी आप को किसी पुरुषसाथी की आवश्यकता नहीं पड़ी?’’ मेरी हिम्मत उन की बातों से बढ़ गई थी.

‘‘क्या बताऊं दीदी, जब मन बहुत उदास होता था तो लगता था किसी के कंधे पर सिर रख कर खूब रोऊं और वह कंधा पुरुष का हो तभी हम सुरक्षित महसूस कर सकते हैं. उस के बिना औरत बहुत अकेली है,’’ उन्होंने बिना संकोच के कहा.

‘‘आप ने कभी दूसरे विवाह के बारे में नहीं सोचा?’’ मेरी हिम्मत बढ़ती जा रही थी.

‘‘कुछ सोचते हुए वे बोलीं,  ‘‘क्यों नहीं दीदी, पुरुषों की तरह औरतों की भी तो तन की भूख होती है बल्कि उन को तो मानसिक, आर्थिक सहारे के साथसाथ सामाजिक सुरक्षा की भी बहुत जरूरत होती है. मेरी उम्र ही क्या थी उस समय. लेकिन जब मैं पढ़ीलिखी न होने के कारण आर्थिक रूप से दूसरों पर आश्रित थी तो कर भी क्या सकती थी. इसीलिए मैं ने सब के विरुद्ध हो कर, अपने गहने बेच कर आस्था को पढ़ाया, जिस से वह आत्मनिर्भर हो कर अपने निर्णय स्वयं ले सके. समय का कुछ भी भरोसा नहीं, कब करवट बदले.’’

उन का बेबाक उत्तर सुन कर मैं अचंभित रह गई और मेरा मन करुणा से भर आया, सच में जिस उम्र में वे विधवा हुई थीं उस उम्र में तो आजकल कोई विवाह के बारे में सोचता भी नहीं है. उन्होंने इतना समय अपनी इच्छाओं का दमन कर के कैसे काटा होगा, सोच कर ही मैं सिहर उठी थी.

‘‘हां भाभी, आजकल तो पति की मृत्यु के बाद भी उन के बाहरी आवरण में और क्रियाकलापों में विशेष परिवर्तन नहीं आता और पुनर्विवाह में भी कोई अड़चन नहीं डालता, पढ़ीलिखी होने के कारण आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के साथ जीती हैं, होना भी यही चाहिए, आखिर उन को किस गलती की सजा दी जाए.’’

‘‘बस, अब तो मैं थक गई हूं. मुझे अकेली देख कर लोग वासनाभरी नजरों से देखते हैं. कुछ अपने खास रिश्तेदारों के भी मैं ने असली चेहरे देख लिए तुम्हारे भाई के जाने के बाद. अब तो प्रतीक के विवाह के बाद मैं संसार से मुक्ति पाना चाहती हूं,’’ कहतेकहते भाभी की आंखों से आंसू बहने लगे. समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा न करने के लिए कह कर उन का दुख बढ़ाऊंगी या सांत्वना दूंगी, मैं शब्दहीन उन से लिपट गई और वे अपना दुख आंसुओं के सहारे हलका करती रहीं. ऐसा लग रहा था कि बरसों से रुके हुए आंसू मेरे कंधे का सहारा पा कर निर्बाध गति से बह रहे थे और मैं ने भी उन के आंसू बहने दिए.

अगले दिन ही मुझे लौटना था, भाभी से जल्दी ही मिलने का तथा अधिक दिन उन के साथ रहने का वादा कर के मैं भारी मन से ट्रेन में बैठ गई. वे प्रतीक के साथ मुझे छोड़ने के लिए स्टेशन आई थीं. ट्रेन के दरवाजे पर खड़े हो कर हाथ हिलाते हुए, उन के चेहरे की चमक देख कर मुझे सुकून मिला कि चलो, मैं ने उन से मिल कर उन के मन का बोझ तो हलका किया.

एक डाली के तीन फूल- भाग 3: 3 भाईयों ने जब सालो बाद साथ मनाई दीवाली

मुझे व गोपाल को अपनेअपने परिवारों सहित देख भाई साहब गद्गद हो गए. गर्वित होते हुए पत्नी से बोले, ‘‘देखो, मेरे दोनों भाई आ गए. तुम मुंह बनाते हुए कहती थीं न कि मैं इन्हें बेकार ही आमंत्रित कर रहा हूं, ये नहीं आएंगे.’’

‘‘तो क्या गलत कहती थी. इस से पहले क्या कभी आए हमारे पास कोई उत्सव, त्योहार मनाने,’’ भाभीजी तुनक कर बोलीं.

‘‘भाभीजी, आप ने इस से पहले कभी बुलाया ही नहीं,’’ गोपाल ने  झट से कहा. सब खिलखिला पड़े.

25 साल के बाद तीनों भाई अपने परिवार सहित एक छत के नीचे दीवाली मनाने इकट्ठे हुए थे. एक सुखद अनुभूति थी. सिर्फ हंसीठिठोली थी. वातावरण में कहकहों व ठहाकों की गूंज थी. भाभीजी, मीना व गोपाल की पत्नी के बीच बातों का वह लंबा सिलसिला शुरू हो गया था, जिस में विराम का कोई भी चिह्न नहीं था. बच्चों के उम्र के अनुरूप अपने अलग गुट बन गए थे. कुशाग्र अपनी पौकेट डायरी में सभी बच्चों से पूछपूछ कर उन के नाम, पते, टैलीफोन नंबर व उन की जन्मतिथि लिख रहा था.

सब से अधिक हैरत मु झे कनक को देख कर हो रही थी. जिस कनक को मु झे मुंबई में अपने पापा के बड़े भाई को इज्जत देने की सीख देनी पड़ रही थी, वह यहां भाई साहब को एक मिनट भी नहीं छोड़ रही थी. उन की पूरी सेवाटहल कर रही थी. कभी वह भाईर् साहब को चाय बना कर पिला रही थी तो कभी उन्हें फल काट कर खिला रही थी. कभी वह भाई साहब की बांह थाम कर खड़ी हो जाती तो कभी उन के कंधों से  झूल जाया करती. भाई साहब मु झ से बोले, ‘‘श्याम, कनक को तो तू मेरे पास ही छोड़ दे. लड़कियां बड़ी स्नेही होती हैं.’’

भाई साहब के इस कथन से मु झे पहली बार ध्यान आया कि भाई साहब की कोई लड़की नहीं है. केवल 2 लड़के ही हैं. मैं खामोश रहा, लेकिन भीतर ही भीतर मैं स्वयं से बोलने लगा, ‘यदि हमारे बच्चे अपने रिश्तों को नहीं पहचानते तो इस में उन से अधिक हम बड़ों का दोष है. कनक वास्तव में नहीं जानती थी कि पापा के बिग ब्रदर को ताऊजी कहा जाता है. जानती भी कैसे, इस से पहले सिर्फ 1-2 बार दूर से उस ने अपने ताऊजी को देखा भर ही था. ताऊजी के स्नेह का हाथ कभी उस के सिर पर नहीं पड़ा था. ये रिश्ते बताए नहीं जाते हैं, एहसास करवाए जाते हैं.’’

दीवाली की संध्या आ गई. भाभीजी, मीना व गोपाल की पत्नी ने विशेष पकवान व विविध व्यंजन बनाए. मैं ने, भाई साहब व गोपाल के घर को सजाने की जिम्मेदारी ली. हम ने छत की मुंडेरों, आंगन की दीवारों, कमरों की सीढि़यों व चौखटों को चिरागों से सजा दिया. बच्चे किस्मकिस्म के पटाखे फोड़ने लगे. फुल झड़ी, अनार, चक्कर घिन्नियों की चिनगारियां उधरउधर तेजी से बिखरने लगीं. बिखरती चिनगारियों से अपने नंगे पैरों को बचाते हुए भाभीजी मिठाई का थाल पकड़े मेरे पास आईं और एक पेड़ा मेरे मुंह में डाल दिया. इस दृश्य को देख भाई साहब व गोपाल मुसकरा पड़े. मीना व गोपाल की पत्नी ताली पीटने लगीं, बच्चे खुश हो कर तरहतरह की आवाजें निकालने लगे.

कुशाग्र मीना से कहने लगा, ‘‘मम्मी, मुंबई में हम अकेले दीवाली मनाते थे तो हमें इस का पता नहीं चलता था. यहां आ कर पता चला कि इस में तो बहुत मजा है.’’

‘‘मजा आ रहा है न दीवाली मनाने में. अगले साल सब हमारे घर मुंबई आएंगे दीवाली मनाने,’’ मीना ने चहकते हुए कहा.

‘‘और उस के अगले साल बेंगलुरु, हमारे यहां,’’ गोपाल की पत्नी तुरंत बोली.

‘‘हां, श्याम और गोपाल, अब से हम बारीबारी से हर एक के घर दीवाली साथ मनाएंगे. तुम्हें याद है, मां ने भी हमें यही प्रतिज्ञा करवाई थी,’’ भाई साहब हमारे करीब आ कर हम दोनों के कंधों पर हाथ रख कर बोले.

हम दोनों ने सहमति में अपनी गर्दन हिलाई. इतने में मेरी नजर छत की ओर जाती सीढि़यों पर बैठी भाभीजी पर पड़ी, जो मिठाइयों से भरा थाल हाथ में थामे मंत्रमुग्ध हम सभी को देख रही थीं. सहसा मु झे भाभीजी की आकृति में मां की छवि नजर आने लगी, जो हम से कह रही थी, ‘तुम एक डाली के 3 फूल हो.’

भाभी: क्यों बरसों से अपना दर्द छिपाए बैठी थी वह- भाग 2

मैं मन ही मन सोचती, मेरी हमउम्र भाभी और मेरे जीवन में कितना अंतर है. शादी के बाद ऐसा जीवन जीने से तो कुंआरा रहना ही अच्छा है. मेरे पिता पढ़ेलिखे होने के कारण आधुनिक विचारधारा के थे. इतनी कम उम्र में मैं अपने विवाह की कल्पना नहीं कर सकती थी. भाभी के पिता के लिए लगता है, उन के रूप की सुरक्षा करना कठिन हो गया था, जो बेटी का विवाह कर के अपने कर्तव्यों से उन्होंने छुटकारा पा लिया. भाभी ने 8वीं की परीक्षा दी ही थी अभी. उन की सपनीली आंखों में आंसू भरे रहते थे अब, चेहरे की चमक भी फीकी पड़ गई थी.

विवाह को अभी 3 महीने भी नहीं बीते होंगे कि भाभी गर्भवती हो गईं. मेरी भोली भाभी, जो स्वयं एक बच्ची थीं, अचानक अपने मां बनने की खबर सुन कर हक्कीबक्की रह गईं और आंखों में आंसू उमड़ आए. अभी तो वे विवाह का अर्थ भी अच्छी तरह समझ नहीं पाई थीं. वे रिश्तों को ही पहचानने में लगी हुई थीं, मातृत्व का बोझ कैसे वहन करेंगी. लेकिन परिस्थितियां सबकुछ सिखा देती हैं. उन्होंने भी स्थिति से समझौता कर लिया. भाई पितृत्व के लिए मानसिक रूप से तैयार तो हो गया, लेकिन उस के चेहरे पर अपराधभावना साफ झलकती थी कि जागरूकता की कमी होने के कारण भाभी को इस स्थिति में लाने का दोषी वही है. मेरी मां कभीकभी भाभी से पूछ कर कि उन्हें क्या पसंद है, बना कर चुपचाप उन के कमरे में पहुंचा देती थीं. बाकी किसी को तो उन से कोई हमदर्दी न थी.

प्रसव का समय आ पहुंचा. भाभी ने चांद सी बेटी को जन्म दिया. नन्हीं परी को देख कर, वे अपना सारा दुखदर्द भूल गईं और मैं तो खुशी से नाचने लगी. लेकिन यह क्या, बाकी लोगों के चेहरों पर लड़की पैदा होने की खबर सुन कर मातम छा गया था. भाभी की ननदें और चाची सभी तो स्त्री हैं और उन की अपनी भी तो 2 बेटियां ही हैं, फिर ऐसा क्यों? मेरी समझ से परे की बात थी. लेकिन एक बात तो तय थी कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है. मेरे जन्म पर तो मेरे पिताजी ने शहरभर में लड्डू बांटे थे. कितना अंतर था मेरे चाचा और पिताजी में. वे केवल एक साल ही तो छोटे थे उन से. एक ही मां से पैदा हुए दोनों. लेकिन पढ़ेलिखे होने के कारण दोनों की सोच में जमीनआसमान का अंतर था.

मातृत्व से गौरवान्वित हो कर भाभी और भी सुडौल व सुंदर दिखने लगी थीं. बेटी तो जैसे उन को मन बहलाने का खिलौना मिल गई थी. कई बार तो वे उसे खिलातेखिलाते गुनगुनाने लगती थीं. अब उन के ऊपर किसी के तानों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. मां बनते ही औरत कितनी आत्मविश्वास और आत्मसम्मान से पूर्ण हो जाती है, उस का उदाहरण भाभी के रूप में मेरे सामने था. अब वे अपने प्रति गलत व्यवहार की प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिरोध भी करने लगी थीं. इस में मेरे भाई का भी सहयोग था, जिस से हमें बहुत सुखद अनुभूति होती थी.

इसी तरह समय बीतने लगा और भाभी की बेटी 3 साल की हो गई तो फिर से उन के गर्भवती होने का पता चला और इस बार भाभी की प्रतिक्रिया पिछली बार से एकदम विपरीत थी. परिस्थितियों ने और समय ने उन को काफी परिपक्व बना दिया था.

गर्भ को 7 महीने बीत गए और अचानक हृदयविदारक सूचना मिली कि भाई की घर लौटते हुए सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई है. यह अनहोनी सुन कर सभी लोग स्तंभित रह गए. कोई भाभी को मनहूस बता रहा था तो कोई अजन्मे बच्चे को कोस रहा था कि पैदा होने से पहले ही बाप को खा गया. यह किसी ने नहीं सोचा कि पतिविहीन भाभी और बाप के बिना बच्चे की जिंदगी में कितना अंधेरा हो गया है. उन से किसी को सहानुभूति नहीं थी.

समाज का यह रूप देख कर मैं कांप उठी और सोच में पड़ गई कि यदि भाई कमउम्र लिखवा कर लाए हैं या किसी की गलती से दुर्घटना में वे मारे गए हैं तो इस में भाभी का क्या दोष? इस दोष से पुरुष जाति क्यों वंचित रहती है?

एकएक कर के उन के सारे सुहाग चिह्न धोपोंछ दिए गए. उन के सुंदर कोमल हाथ, जो हर समय मीनाकारी वाली चूडि़यों से सजे रहते थे, वे खाली कर दिए गए. उन्हें सफेद साड़ी पहनने को दी गई. भाभी के विवाह की कुछ साडि़यों की तो अभी तह भी नहीं खुल पाई थी. वे तो जैसे पत्थर सी बेजान हो गई थीं. और जड़वत सभी क्रियाकलापों को निशब्द देखती रहीं. वे स्वीकार ही नहीं कर पा रही थीं कि उन की दुनिया उजड़ चुकी थी.

एक भाई ही तो थे जिन के कारण वे सबकुछ सह कर भी खुश रहती थीं. उन के बिना वे कैसे जीवित रहेंगी? मेरा हृदय तो चीत्कार करने लगा कि भाभी की ऐसी दशा क्यों की जा रही थी. उन का कुसूर क्या था? पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष पर न तो लांछन लगाए जाते हैं, न ही उन के स्वरूप में कोई बदलाव आता है. भाभी के मायके वाले भाई की तेरहवीं पर आए और उन्हें साथ ले गए कि वे यहां के वातावरण में भाई को याद कर के तनाव में और दुखी रहेंगी, जिस से आने वाले बच्चे और भाभी के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा. सब ने सहर्ष उन को भेज दिया यह सोच कर कि जिम्मेदारी से मुक्ति मिली. कुछ दिनों बाद उन के पिताजी का पत्र आया कि वे भाभी का प्रसव वहीं करवाना चाहते हैं. किसी ने कोई एतराज नहीं किया. और फिर यह खबर आई कि भाभी के बेटा हुआ है.

हमारे यहां से उन को बुलाने का कोई संकेत दिखाई नहीं पड़ रहा था. लेकिन उन्होंने बुलावे का इंतजार नहीं किया और बेटे के 2 महीने का होते ही अपने भाई के साथ वापस आ गईं. कितना बदल गई थीं भाभी, सफेद साड़ी में लिपटी हुई, सूना माथा, हाथ में सोने की एकएक चूड़ी, बस. उन्होंने हमें बताया कि उन के मातापिता उन को आने नहीं दे रहे थे कि जब उस का पति ही नहीं रहा तो वहां जा कर क्या करेगी लेकिन वे नहीं मानीं. उन्होंने सोचा कि वे अपने मांबाप पर बोझ नहीं बनेंगी और जिस घर में ब्याह कर गई हैं, वहीं से उन की अर्थी उठेगी.

मैं ने मन में सोचा, जाने किस मिट्टी की बनी हैं वे. परिस्थितियों ने उन्हें कितना दृढ़निश्चयी और सहनशील बना दिया है. समय बीतते हुए मैं ने पाया कि उन का पहले वाला आत्मसम्मान समाप्त हो चुका है. अंदर से जैसे वे टूट गई थीं. जिस डाली का सहारा था, जब वह ही नहीं रही तो वे किस के सहारे हिम्मत रखतीं. उन को परिस्थितियों से समझौता करने के अतिरिक्त कोई चारा दिखाई नहीं पड़ रहा था. फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया था. सारा दिन सब की सेवा में लगी रहती थीं.

एक डाली के तीन फूल- भाग 2: 3 भाईयों ने जब सालो बाद साथ मनाई दीवाली

मैं विचारों में डूबा ही था कि मेरी बेटी कनक ने कमरे में प्रवेश किया. मु झे इस तरह विचारमग्न देख कर वह ठिठक गई. चिहुंक कर बोली, ‘‘आप इतने सीरियस क्यों बैठे हैं, पापा? कोई सनसनीखेज खबर?’’ उस की नजर मेज पर पड़ी चिट्ठी पर गई. चिट्ठी उठा कर वह पढ़ने लगी.

‘‘तुम्हारे ताऊजी की है,’’ मैं ने कहा.

‘‘ओह, मतलब आप के बिग ब्रदर की,’’ कहते हुए उस ने चिट्ठी को बिना पढ़े ही छोड़ दिया. चिट्ठी मेज पर गिरने के बजाय नीचे फर्श पर गिर कर फड़फड़ाने लगी.

भाई साहब के पत्र की यों तौहीन होते देख मैं आगबबूला हो गया. मैं ने लपक कर पत्र को फर्श से उठाया व अपनी शर्ट की जेब में रखा, और फिर जोर से कनक पर चिल्ला पड़ा, ‘‘तमीज से बात करो. वह तुम्हारे ताऊजी हैं. तुम्हारे पापा के बड़े भाई.’’

‘‘मैं ने उन्हें आप का बड़ा भाई ही कहा है. बिग ब्रदर, मतलब बड़ा भाई,’’ मेरी 18 वर्षीय बेटी मु झे ऐसे सम झाने लगी जैसे मैं ने अंगरेजी की वर्णमाला तक नहीं पड़ी हुई है.

‘‘क्या बात है? जब देखो आप बच्चों से उल झ पड़ते हो,’’ मेरी पत्नी मीना कमरे में घुसते हुए बोली.

‘‘ममा, देखो मैं ने पापा के बड़े भाई को बिग ब्रदर कह दिया तो पापा मु झे लैक्चर देने लगे कि तुम्हें कोई तमीज नहीं, तुम्हें उन्हें तावजी पुकारना चाहिए.’’

‘‘तावजी नहीं, ताऊजी,’’ मैं कनक पर फिर से चिल्लाया.

‘‘हांहां, जो कुछ भी कहते हों. तावजी या ताऊजी, लेकिन मतलब इस का यही है न कि आप के बिग ब्रदर.’’

‘‘पर तुम्हारे पापा के बिग ब्रदर… मतलब तुम्हारे ताऊजी का जिक्र कैसे आ गया?’’ मीना ने शब्दों को तुरंत बदलते हुए कनक से पूछा.

‘‘पता नहीं, ममा, उस चिट्ठी में ऐसा क्या लिखा है जिसे पढ़ने के बाद पापा के दिल में अपने बिग ब्रदर के लिए एकदम से इतने आदरभाव जाग गए, नहीं तो पापा पहले कभी उन का नाम तक नहीं लेते थे.’’

‘‘चिट्ठी…कहां है चिट्ठी?’’ मीना ने अचरज से पूछा.

मैं ने चिट्ठी चुपचाप जेब से निकाल कर मीना की ओर बढ़ा दी.

चिट्ठी पढ़ कर मीना एकदम से बोली, ‘‘आप के भाई साहब को अचानक अपने छोटे भाइयों पर इतना प्यार क्यों उमड़ने लगा? कहीं इस का कारण यह तो नहीं कि रिटायर होने की उम्र उन की करीब आ रही है तो रिश्तों की अहमियत उन्हें सम झ में आने लगी हो?’’

‘‘3 साल बाद भाई साहब रिटायर होंगे तो उस के 5 साल बाद मैं हो जाऊंगा. एक न एक दिन तो हर किसी को रिटायर होना है. हर किसी को बूढ़ा होना है. बस, अंतर इतना है कि किसी को थोड़ा आगे तो किसी को थोड़ा पीछे,’’ एक क्षण रुक कर मैं बोला, ‘‘मीना, कभी तो कुछ अच्छा सोच लिया करो. हर समय हर बात में किसी का स्वार्थ, फरेब मत खोजा करो.’’

मीना ने ऐलान कर दिया कि वह दीवाली मनाने देहरादून भाईर् साहब के घर नहीं जाएगी. न जाने के लिए वह कभी कुछ दलीलें देती तो कभी कुछ, ‘‘आप की अपनी कुछ इज्जत नहीं. आप के भाई ने पत्र में एक लाइन लिख कर आप को बुलाया और आप चलने के लिए तैयार हो गए एकदम से देहरादून एक्सप्रैस में, जैसे कि 24 साल के नौजवान हों. अगले साल 50 के हो जाएंगे आप.’’

‘‘मीना, पहली बात तो यह कि अगर एक भाई अपने दूसरे भाई को अपने आंगन में दीवाली के दीये जलाने के लिए बुलाए तो इस में आत्मसम्मान की बात कहां से आ जाती है? दूसरी बात यह कि यदि इतना अहंकार रख कर हम जीने लग जाएं तो जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा.’’

‘‘मुझे दीवाली के दिन अपने घर को अंधेरे में रख कर आप के भाई साहब का घर रोशन नहीं करना. लोग कहते हैं कि दीवाली अपने ही में मनानी चाहिए,’’ मीना  झट से दूसरी तरफ की दलीलें देने लग जाती.

‘‘मीना, जिस तरीके से हम दीवाली मनाते हैं उसे दीवाली मनाना नहीं कहते. सब में हम अपने इन रीतिरिवाजों के मामले में इतने संकीर्ण होते जा रहे हैं कि दीवाली जैसे जगमगाते, हर्षोल्लास के त्योहार को भी एकदम बो िझल बना दिया है. न पहले की तरह घरों में पकवानों की तैयारियां होती हैं, न घर की साजसज्जा और न ही नातेरिश्तेदारों से कोई मेलमिलाप. दीवाली से एक दिन पहले तुम थके स्वर में कहती हो, ‘कल दीवाली है, जाओ, मिठाई ले आओ.’ मैं यंत्रवत हलवाई की दुकान से आधा किलो मिठाई ले आता हूं. दीवाली के रोज हम घर के बाहर बिजली के कुछ बल्ब लटका देते हैं. बच्चे हैं कि दीवाली के दिन भी टेलीविजन व इंटरनैट के आगे से हटना पसंद नहीं करते हैं.’’

थोड़ी देर रुक कर मैं ने मीना से कहा, ‘‘वैसे तो कभी हम भाइयों को एकसाथ रहने का मौका मिलता नहीं, त्योहार के बहाने ही सही, हम कुछ दिन एक साथ एक छत के नीचे तो रहेंगे.’’ मेरा स्वर एकदम से आग्रहपूर्ण हो गया, ‘‘मीना, इस बार भाई साहब के पास चलो दीवाली मनाने. देखना, सब इकट्ठे होंगे तो दीवाली का आनंद चौगुना हो जाएगा.’’

मीना भाई साहब के यहां दीवाली मनाने के लिए तैयार हो गई. मैं, मीना, कनक व कुशाग्र धनतेरस वाले दिन देहरादून भाईर् साहब के बंगले पर पहुंच गए. हम सुबह पहुंचे. शाम को गोपाल पहुंच गया अपने परिवार के साथ.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें