अपने जैसे लोग : नीरज के मन में कैसी थी शंका – भाग 2

एक दिन शाम को नीरज जब काम से लौटा तो पंकज का कान पकड़े हुए उसे घसीटते हुए लाया और बरामदे में पटक दिया. मैं दोपहर का काम निबटा कर लेटी हुई एक पत्रिका पढ़तेपढ़ते शायद सो गई थी.

अचानक ही पंकज की चिल्लाहट से हड़बड़ा कर उठ बैठी. ‘‘देखा नहीं तुम ने, वहां बड़े मजे से उन लड़कों की साइकिल में धक्का लगा रहा था, जैसे गुलाम हो उन का. शर्म नहीं आती. मारमार कर खाल उतार दूंगा अगर आगे से उन के पास गया या कोई ऐसी हरकत की तो…’’ उस की गाल पर एक थप्पड़ और मारते हुए नीरज पंकज को मेरी ओर धकेलते हुए अंदर चला गया. नीरज के इतने क्रोधित होने पर आश्चर्य हो रहा था मुझे. आखिर इस में पंकज का क्या दोष? उसे साइकिल नहीं मिली तो वह बच्चों के साथ साइकिल को धक्का लगा कर ही अपनी अतृप्त भावना की तृप्ति करने पहुंच गया. वह क्या जाने गुलाम या बादशाह को? बच्चे का दिल तो निर्दोष होता है. मुझे दुख था तो नीरज के सोचने के ढंग पर. ऊंचनीच की भावना उसे परेशान कर रही थी.

मैं समझ गई कि कोई ऐसा भाव उस के हृदय में घर कर गया था जो हर समय उन लोगों की नजरों में उसे हीन बना रहा था और दूसरों के धनदौलत का महत्त्व उस के मस्तिष्क में बढ़ता ही जा रहा था. यद्यपि हीन हम लोग किसी भी प्रकार से नहीं थे. जब तक यह गलत भावना नीरज के मन से दूर न होगी, हमारा इस कालोनी में रहना दूभर हो जाएगा. ऐसा मुझे दिखाई देने लगा था. मैं ने भी सोच लिया कि मुझे उसी बदहाली में जाने की अपेक्षा नीरज के मन में बैठी उस भावना से लड़ाई करनी है. बड़े सोचविचार के बाद मैं ने एक कदम उठाया. नीरज के दफ्तर चले जाने के बाद मैं उन बड़े लोगों के संपर्क में आने का प्रयत्न करती रही. उन के घर में प्रवेश करने के साथ ही उन के हृदयों में प्रवेश कर के यह जानने की कोशिश करती रही कि क्या हम अपने साधारण से वेतन व साधारण जीवन स्तर के साथ उन के समाज में आदर पा सकते हैं.

सब से पहले मैं ने अपना परिचय बढ़ाया कोठी नंबर 5 की सौदामिनी से. उन के पति एक बड़ी फर्म के मालिक हैं. अनेक वर्ष विदेश रह कर आए हैं और उन के नीचे कार्य करने वाले अनेक कर्मचारी भी विदेशों से प्रशिक्षित हैं. कई सुंदर नवयुवतियां भी इन के नीचे स्टेनो, टाइपिस्ट व रिसैप्शनिस्ट का कार्य करती हैं. स्वाभाविक है कि गांगुली साहब पार्टियों और क्लबों में अधिक व्यस्त रहते हैं. एक दिन सौदामिनी ने अपने हृदय की व्यथा व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘क्या करूं, शीलाजी? अपने एक बच्चे को तो इन के इसी व्यसन के पीछे गंवा बैठी हूं. हर समय इन के साथ या तो बाहर रहना पड़ता था या घर में ही डिनर व पार्टियों में व्यस्त रहती थी. बच्चे की देखरेख कर ही नहीं पाई, आया के भरोसे ही रहा. वह न जाने कैसा बासी व गंदा दूध पिलाती रही कि बच्चे का जिगर खराब हो गया और काफी इलाज के बावजूद चल बसा.

‘‘अब प्रदीप 2 वर्ष का हो गया है. उसे छोड़ते मुझे डर लगता है. जब से यह हुआ, इन के और मेरे संबंधों में दरार पड़ती जा रही है. ये बाहर रहते हैं और मैं घर में पड़ी जलती रहती हूं.’’ वे लगभग रो पड़ीं. ‘‘अरे, इस समस्या का हल तो बहुत आसान है. आप प्रदीप को पंकज के साथ हमारे यहां भेज दिया कीजिए. दोनों खेलते रहेंगे. प्रदीप जब पंकज के साथ हिल जाएगा तो आप के पीछे से हमारे घर ठहर भी जाया करेगा. फिर आप शौक से गांगुली साहब के साथ बाहर जाइए.’’

सौदामिनी का मुंह एक ओर तो हर्ष से दमक उठा, दूसरी ओर वे आश्चर्य से मेरे मुंह की ओर देखती रह गईं, ‘‘आप कैसे करेंगी इतना सब मेरे लिए? आप को परेशानी होगी.’’ ‘‘नहीं, आप बिलकुल चिंता न कीजिए. मैं प्रदीप को जरा भी कष्ट नहीं होने दूंगी और मुझे भी उस के कारण कोई परेशानी नहीं होगी. फिर हमारे पंकज का दिल भी तो उस के साथ बहल जाएगा. वह भी तो बेचारा अकेला सा रहता है.’’ मैं ने हंसते हुए उन से विदा ली थी और अगली ही शाम को वे स्वयं प्रदीप को ले कर हमारे यहां आ गई थीं. कितनी ही देर बैठीबैठी वे हमारे छोटे से घर की गृहसज्जा की प्रशंसा करती रही थीं.

प्रदीप प्रतिदिन हमारे यहां आने लगा. अपने ढेर सारे खिलौने भी ले आता. दोनों बच्चे खेल में ही मस्त रहते. मैं बीचबीच में दोनों को खानेपीने को देती रहती. कभीकभी कहानियां भी सुनाती और पुस्तकों में से तसवीरें भी दिखाती. अब जब भी सौदामिनी चाहतीं, बड़े शौक से प्रदीप को हमारे यहां छोड़ जातीं.

आरंभ में नीरज ने बहुत आपत्ति उठाई थी, ‘‘देख लेना, भलाई के बदले में बुराई ही मिलेगी. ये बड़े लोग किसी का एहसान थोड़े ही मानते हैं.’’ ‘‘मैं कोई भी कार्य बदले की भावना से नहीं करती. बस, इतना ही जानती हूं कि इंसान को इंसानियत के नाते अपने चारों ओर के लोगों के प्रति अपना थोड़ाबहुत फर्ज निभाते रहना चाहिए. फिर, इस से हमारा पंकज भी तो बहल जाता है. मुझे तो फायदा ही है.’’

‘‘खाक बहल जाता है, देखूंगा कितने दिन ऐसे बहलाओगी उसे,’’ नीरज चिढ़ते हुए अंदर चला गया था. परंतु नीरज को यह अभी तक मालूम नहीं था कि जब से प्रदीप हमारे यहां आने लगा था, तब से पंकज मानसिक रूप से बहुत स्वस्थ रहने लगा था. वह अधिकतर प्रदीप या उस के खिलौनों में व्यस्त रहता. मुझे भी घर का कार्य करने में सहूलियत हो गई. पहले पंकज ही मुझे अधिक व्यस्त रखता था. मैं दिन में कुछ कढ़ाईसिलाई व अपने लेखन का कार्य भी नियमित रूप से करने लगी.

एक दिन शाम को हम घूमने निकले तो गांगुली साहब सुयोगवश बाहर ही खड़े मिल गए. बड़े ही विनम्र हो कर हाथ जोड़ते हुए स्वयं ही आगे बढ़ कर बोले, ‘‘आइए, शीलाजी, आप ने हम पर जो एहसान किया है वह कभी भी उतार नहीं पाऊंगा. सच, अकेले में कितना बुरा लगता था बाहर जाना. आप ने हमारी समस्या हल कर दी.’’ ‘‘मुझे शर्मिंदा न कीजिए, गांगुली साहब, पड़ोसी के नाते यह तो मेरा फर्ज था.’’ ‘‘आइए, अंदर आइए.’’ वे हमें अंदर ले गए. सौदामिनी भी आ गईं. काफी देर बैठे बातें करते रहे. बातों के दौरान ही मैं ने गांगुली साहब को जब अपना छोटा सा यह सुझाव दिया कि आधुनिक युग में रहते हुए भी घर से बाहर उन्हें इतना व्यस्त नहीं रहना चाहिए कि पत्नी घर में ऊब जाए. वे कहने लगे, ‘‘हां, मैं स्वयं ही आप के इस सुझाव के बारे में सोच चुका हूं. मैं ने परसों ही आप का लेख पढ़ा था. आप के विचार वास्तव में सराहनीय हैं. मैं तो बहुत खुश हूं कि आप जैसे योग्य, प्रतिभावान और कर्तव्यनिष्ठ हस्ती इस कालोनी में आई.’’ इतना कह कर वे जोर से हंस दिए.

हम खुशीखुशी बाहर निकल कर घर के सामने आए ही थे कि देखा पंकज और प्रदीप दोनों साइकिल से खेल रहे हैं. आश्चर्य तो नीरज को तब हुआ जब उस ने देखा कि पंकज तो गद्दी पर बैठा है और प्रदीप उसे धक्का दे रहा है. ‘‘देखो तो सही कैसे बादशाह की तरह गद्दी पर जमा बैठा है और उस से साइकिल खिंचवा रहा है. कहीं मिसेज गांगुली ने देख लिया तो…’’

‘‘वे कितनी ही बार बच्चों को ऐसे खेलता हुआ देख चुकी हैं. कोई भावना उन के मुख पर कभी दिखाई नहीं दी. सब आप के दिल का वहम है,’’ मैं ने उचित अवसर देख कर कहा और वह चुप हो गया. शायद वह अपनी गलती अनुभव करने लगा था.

अनोखी जोड़ी: विशाल ने अवंतिका को तलाक देने से क्यों मना कर दिया? -भाग 2

‘‘हां.’’

घर आया तो टैक्सी से उतरते हुए अवंतिका बोली, ‘‘चाय पी कर जाना.’’

‘‘तुम कहती हो तो जरूर पीऊंगा. तुम्हारे हाथ की अदरक वाली चाय पिए हुए 8 वर्ष हो गए हैं.’’

चाय तो क्या पी विशाल ने वह रात भी वहीं बिताई और वह भी एकदूसरे की बांहों में. आखिर पतिपत्नी तो वे थे ही. तलाक तो अभी हुआ नहीं था.

सुबह उठे तो दोनों में दांपत्य का खुमार जोरों पर था. पत्नी को बांहों में लेते हुए विशाल बोला, ‘‘अब अकेले नहीं रहेंगे. तलाक को मारो गोली.’’

अवंतिका ने भी सिर हिला कर हामी भर दी.

‘‘अगर हम बेवकूफी न करते तो अभी तक हमारे घर में 2-3 बच्चे होते. खैर, कोई बात नहीं…अब सही. क्यों?’’ विशाल बोला.

‘‘बिलकुल,’’ अवंतिका ने जवाब दिया, ‘‘अब पारिवारिक सुख रहेगा, श्री और श्रीमती विशाल स्वरूप और उन के रोतेठुनकते बच्चे, बच्चों के स्कूल टीचरों की चमचागीरी आदि. क्यों प्रिये, तुम घबरा तो नहीं गए?’’

‘‘घबराऊं और वह भी जब तुम्हारा साथ रहे? नामुमकिन.’’

घड़ी पर निगाह पड़ी तो विशाल बोला, ‘‘अरे, घंटे भर में मुझे आफिस पहुंचना है. अवंतिका प्लीज, मेरे स्नान के लिए पानी गरम कर दो.’’

अवंतिका जैसे ही रसोई में पानी गरम करने गई विशाल ने विवेक को फोन लगाया, ‘‘यार, मैं अवंतिका के घर से बोल रहा हूं. वह मान गई है और हमारे घर की बगिया में फिर से बहार आ गई है.’’

विशाल कपडे़ पहन कर बाहर निकला तो देखा अवंतिका फोन पर किसी से बात कर रही थी, ‘‘नहीं पल्लवी, आज मैं हड़ताल में नारे लगाने नहीं आऊंगी, क्योंकि वहां पुलिस मुझे गिरफ्तार कर सकती है और आज मेरे लिए बहुत अहम दिन है.’’

विशाल पूछ बैठा, ‘‘अवंतिका, यह गिरफ्तार होने का क्या मामला है?’’

‘‘बात यह है विशाल कि बड़ी तेल कंपनियां अपने उत्पाद का दाम बढ़ाए जा रही हैं…मुझे इस के विरुद्ध हड़ताल करने वालों का साथ देना था.’’

‘‘क्या बेवकूफी की बातें करती हो. आखिर तेल कंपनियों को भी तो कमाना है, और अगर जनता कीमत दे सकती है तो वे दाम क्यों न बढ़ाएं?’’

‘‘मिस्टर, मुझे अर्थशास्त्र नहीं सिखाओ,’’ गुस्से में अवंतिका बोली और एक प्लेट उठाई तो वार से बचने के लिए विशाल सीढि़यों से नीचे दौड़ पड़ा.

‘‘नमस्कारम्,’’ विशाल को देख हेमंत मुसकराया.

उधर विशाल की तरफ प्लेट फेंकते हुए अवंतिका चीखी, ‘‘निकल जाओ मेरे घर से.’’

आफिस पहुंचते ही विशाल ने विवेक को बताया, ‘‘अभी मैं ने फोन पर जो कहा था वह भूल जाओ. उस बेवकूफ की औंधी खोपड़ी अभी भी वैसी ही है. ऐसी नकचढ़ी युवती के साथ मैं नहीं रह सकता.’’

विवेक फोन पर बात कर रहा था. उस ने चोगा विशाल को थमा दिया और फुसफुसाया, ‘‘मुंशी साहब.’’

मुंशी साहब का फोन कान से लगाने के बाद विशाल के मुंह से केवल ये शब्द ही निकले, ‘जी हां सर,’ ‘बहुत अच्छा सर,’ ‘बिलकुल ठीक सर’ और ‘धन्यवाद सर.’

फोन रख कर विशाल ने ठंडी सांस ली, ‘‘अंतर्राष्ट्रीय शाखा का प्रबंधक होने का मतलब जानते हो विवेक. लंदन, पेरिस व रोम में अब मेरा आफिस होगा. निजी वायुयान, वर्ष में डेढ़ महीने की छुट्टी. कंपनी के खर्चे पर दुनिया घूमने का अवसर. मुंशी साहब ने तो छप्पर फाड़ कर मेरी झोली भर दी.’’

विवेक हंस पड़ा, ‘‘अब बीवी का क्या होगा?’’

‘‘तुम चिंता न करो. उस बेवकूफ को मना लूंगा. वार्षिक आम सभा में कितने दिन बाकी हैं?’’

‘‘10 दिन.’’

आफिस से विशाल टैक्सी ले कर  सीधे अवंतिका के घर की ओर भागा. देखा, वह एक टैक्सी पर सवार हो कर कहीं जा रही थी. उस ने अपने टैक्सी चालक के सामने 500 का नोट रखते हुए कहा, ‘‘भैया, वह जो टैक्सी गई है उसे पकड़ना है.’’

अवंतिका की टैक्सी हवाई अड्डे की ओर दौड़ रही थी. विशाल ने सोचा, जरूर वह तलाक लेने विदेश जा रही है. तभी हवाई अड्डे के पास की बत्ती लाल हो गई और दोनों टैक्सियां एकदूसरे के आगेपीछे रुकीं. विशाल उतर कर दौड़ा और अवंतिका का हाथ थाम लिया, ‘‘डार्लिंग, तुम्हें जो करना है करो. मैं कभी तुम्हें रोकूंगा नहीं, क्योंकि तुम से प्रेम जो करता हूं.’’

अवंतिका भी अपनी टैक्सी से उतरी और उस की बांहों में समा गई. बाद में वे दोनों वापस अपने आशियाने की ओर चल पडे़. विशाल ने विवेक को फोन किया, ‘‘भाई, किला फतह हो गया.’’

राह में अवंतिका ने समझाया, ‘‘विशाल, अभी हम दोनों को अपना प्रेम मजबूत करना है इसलिए मैं तुम से अलग दूसरे कमरे में सोती हूं.’’

विशाल क्या करता. चुपचाप मान गया.

रात में बिस्तर में जब विशाल ने करवट बदली तो एक बदन से हाथ टकरा गया. सोचा, अवंतिका का दिल द्रवित हो गया होगा और पास आ कर सो गई होगी. जब मुंह पर हाथ फेरा तो बढ़ी हुई दाढ़ी मिली. बत्ती जलाई तो देखा हेमंत साहब आराम से खर्राटे ले रहे हैं.

वह उठ कर दूसरे कमरे में पहुंचा तो अवंतिका के पलंग पर नारी का खुशबूदार बदन था. अंधेरे में चादर उठा कर जब विशाल उस में घुसा तो वह चीखी. उसे छोड़ कर जब विशाल अपने बिस्तर में फिर घुसा तो हेमंत ने करवट बदली और विशाल के मुंह पर हाथ फेर धीरे से बोला, ‘‘तुम्हें ठंड तो नहीं लग रही है, प्रिये.’’

वादियों का प्यार: कैसे बन गई शक की दीवार – भाग 2

कहीं ऐसा तो नहीं कि साकेत ने पहले कोई लड़की पसंद कर के उस से सगाई कर ली हो और फिर तोड़ दी हो या फिर प्यार किसी से किया हो और शादी मुझ से कर ली हो? आखिर हम ने साकेत के बारे में ज्यादा जांचपड़ताल की ही कहां है. जीजाजी भी उस के काफी वक्त बाद मिले थे. कहीं तो कुछ गड़बड़ है. मुझे पता लगाना ही पड़ेगा.

पता नहीं इसी उधेड़बुन में मैं कब तक खोई रही और फिर यह सोच कर शांत हो गई कि जो कुछ भी होगा, साकेत से पूछ लूंगी.

किंतु रात को अकेले होते ही साकेत से जब मैं ने यह बात पूछनी चाही तो साकेत मुझे बाहों में भर कर बोले, ‘देखो, कल रात कालका मेल से शिमला जाने के टिकट ले आया हूं. अब वहां सिर्फ तुम होगी और मैं, ढेरों बातें करेंगे.’ और भी कई प्यारभरी बातें कर मेरे निखरे रूप का काव्यात्मक वर्णन कर के उन्होंने बात को उड़ा दिया.

मैं ने भी उन उन्मादित क्षणों में यह सोच कर विचारों से मुक्ति पा ली कि ज्यादा से ज्यादा यह होगा कि प्यार किसी और से किया होगा पर विवाह तो मुझ से हो गया है. और मैं थकान से बोझिल साकेत की बांहों में कब सो गई, मुझे पता ही न चला.

दूसरे दिन शिमला जाने की तैयारियां चलती रहीं. तैयारियां करते हुए कई बार वही सवाल मन में उठा लेकिन हर बार कोई न कोई बात ऐसी हो जाती कि मैं साकेत से पूछतेपूछते रह जाती. रात को कालका मेल से रिजर्व कूपे में हम दोनों ही थे. प्यारभरी बातें करतेकरते कब कालका पहुंच गए, हमें पता ही न चला. सुबह 7 बजे टौय ट्रेन से शिमला पहुंचने के लिए उस गाड़ी में जा बैठे.

घुमावदार पटरियों, पहाड़ों और सुरंगों के बीच से होती हुई हमारी गाड़ी बढ़ी जा रही थी और मैं साकेत के हाथ पर हाथ धरे आने वाले कल की सुंदर योजनाएं बना रही थी. मैं बीचबीच में देखती कि साकेत कुछ खोए हुए से हैं तो उन्हें खाइयों और पहाड़ों पर उगे कैक्टस दिखाती और सुरंग आने पर चीख कर उन के गले लग जाती.

खैर, किसी तरह शिमला भी आ गया. पहाड़ों की हरियाली और कोहरे ने मन मोह लिया था. स्टेशन से निकल कर हम मरीना होटल में ठहरे.

कुछ देर आराम कर के चाय आदि पी कर हम माल रोड की सैर को निकल पड़े.

साकेत सैर करतेकरते इतनी बातें करते कि ऊंची चढ़ाई हमें महसूस ही न होती. माल रोड की चमकदमक देख कर और खाना खा कर हम अपने होटल लौट आए. लौटते हुए काफी रात हो गई थी व पहाड़ों की ऊंचाईनिचाई पर बसे होटलों व घरों की बत्तियां अंधेरे में तारों की झिलमिलाहट का भ्रम पैदा कर रही थीं. दूसरे दिन से घूमनेफिरने का यही क्रम रहने लगा. इधरउधर की बातें करतेकरते हाथों में हाथ दिए हम कभी रिज, कभी माल रोड, कभी लोअर बाजार और कभी लक्कड़ बाजार घूम आते.

दर्शनीय स्थलों की सैर के लिए तो साकेत हमेशा टैक्सी ले लेते. संकरी होती नीचे की खाई देख कर हम सिहर जाते. हर मोड़ काटने से पहले हमें डर लगता पर फिर प्रकृति की इन अजीब छटाओं को देखने में मग्न हो जाते.

इस प्रकार हम ने वाइल्डफ्लावर हौल, मशोबरा, फागू, चैल, कुफरी, नालडेरा, नारकंडा और जाखू की पहाड़ी सभी देख डाले.

हर जगह ढेरों फोटो खिंचवाते. साकेत को फोटोग्राफी का बहुत शौक था. हम ने वहां की स्थानीय पोशाकें पहन कर ढेरों फोटो खिंचवाईं. मशोबरा के संकरे होते जंगल की पगडंडियों पर चलतेचलते साकेत कोई ऐसी बात कह देते कि मैं खिलखिला कर हंस पड़ती पर आसपास के लोगों के देखने पर हम अचानक अपने में लौट कर चुप हो जाते.

नारकंडा से हिमालय की चोटियां और ग्लेशियर देखदेख कर प्रकृति के इस सौंदर्य से और उन्मादित हो जाते.

इस प्रकार हर जगह घूम कर और माल रोड से खापी कर हम अपने होटल लौटने तक इतने थक जाते कि दूसरे दिन सूरज उगने पर ही उठते.

इस तरह घूमतेघूमते कब 10 दिन गुजर गए, हमें पता ही न चला. जब हम लौट कर वापस दिल्ली पहुंचे तो शिमला की मस्ती में डूबे हुए थे.

साकेत अब अपनी वर्कशौप जाने लगे थे. मैं भी रोज दिन का काम कराने के लिए रसोई में जाने लगी.

एक दिन चुपचाप मैं अपने कमरे में खिड़की पर बैठी थी कि साकेत आए. मैं अभी कमरे में उन के आने का इंतजार ही कर रही थी कि मेरी सासूजी की आवाज आई, ‘साकेत, कल काम पर मत जाना, तुम्हारी तारीख है.’ और साकेत का जवाब भी फुसफुसाता सा आया, ‘हांहां, मुझे पता है पर धीरे बोलो.’

उन लोगों की बातचीत से मुझे कुछ शक सा हुआ. एक बार आगे भी मन में यह बात आई थी लेकिन साकेत ने टाल दिया था. मुझे खुद पर आश्चर्य हुआ, पहले दिन जिस बात को साकेत ने प्यार से टाल दिया था उसे मैं शिमला के मस्त वातावरण में पूछना ही भूल गई थी. खैर, आज जरूर पूछ कर रहूंगी. और जब साकेत कमरे में आए तो मैं ने पूछा, ‘कल किस बात की तारीख है?’

साकेत सहसा भड़क से उठे, फिर घूरते हुए बोले, ‘हर बात में टांग अड़ाने को तुम्हें किस ने कह दिया है? होगी कोई तारीख, व्यापार में ढेरों बातें होती हैं. तुम्हें इन से कोई मतलब नहीं होना चाहिए. और हां, कान खोल कर सुन लो, आसपड़ोस में भी ज्यादा आनेजाने की जरूरत नहीं. यहां की सब औरतें जाहिल हैं. किसी का बसा घर देख नहीं सकतीं. तुम इन के मुंह मत लगना.’ यह कह कर साकेत बाहर चले गए.

मैं जहां खड़ी थी वहीं खड़ी रह गई. एक तो पहली बार डांट पड़ी थी, ऊपर से किसी से मिलनेजुलने की मनाही कर दी गई. मुझे लगा कि दाल में अवश्य ही कुछ काला है. और वह खास बात जानने के लिए मैं एड़ीचोटी का जोर लगाने के लिए तैयार हो गई.

दूसरे दिन सास कहीं कीर्तन में गई थीं और साकेत भी घर पर नहीं थे. काम वाली महरी आई. मैं उस से कुछ पूछने की सोच ही रही थी कि वह बोली, ‘मेमसाहब, आप से पहले वाली मेमसाहब की साहबजी से क्या खटरपटर हो गई थी कि जो वे चली गईं, कुछ पता है आप को?’

यह सुन कर मेरे पैरों तले जमीन खिसकने लगी. कुछ रुक कर वह धीमी आवाज में मुझे समझाती हुई सी बोली, ‘साहब की एक शादी पहले हो चुकी है. अब उस से कुछ मुकदमेबाजी चल रही है तलाक के लिए.’ सुन कर मेरा सिर चकरा गया.

सगाई और शादी के समय साकेत का खोयाखोया रहना, सगाई के लिए मांबाप तक को न लाना और शादी में सिर्फ 5 आदमियों को बरात में लाना, अब मेरी समझ में आ गया था. पापा खुद सगाई के बाद आ कर घरबार देख गए थे. जा कर बोले थे, ‘भई, अपनी सुनीता का समय बलवान है. अकेला लड़का है, कोई बहनभाई नहीं है और पैसा बहुत है. राज करेगी यह.’

उन को भी तब इस बात का क्या गुमान था कि श्रीमान एक शादी पहले ही रचाए हुए हैं.

जीजाजी भी तब यह कह कर शांत हो गए थे, ‘लड़का मेरा जानादेखा है पर पिछले 5 वर्षों से मेरी इस से मुलाकात नहीं हुई, इसलिए मैं इस से ज्यादा क्या बता सकता हूं.’

इन्हीं विचारों में मैं न जाने कब तक खोई रही और गुस्से में भुनभुनाती रही कि वक्त का पता ही न चला. अपने संजोए महल मुझे धराशायी होते लगे. साकेत से मुझे नफरत सी होने लगी.

परवरिश : सोचने पर क्यों विवश हुई सुजाता – भाग 2

दीदी की बहू को देखती तो दिल में एक हूक सी उठती. काश, राहुल ने भी लड़की ढूंढ़ने का काम मुझ पर छोड़ा होता. छांट कर खानदानी बहू ढूंढ़ती. आखिर रिश्तेदारी भी कोई चीज होती है. संबंधी भी तो अच्छे होने चाहिए. मातापिता अच्छे होते हैं तभी तो लड़की में अच्छे संस्कार आते हैं.

लेकिन जब राहुल से कहा तो तुरंत  जवाब मिल गया, ‘ये पुराने जमाने की घिसीपिटी बातें मत करो मुझ से. जिस लड़की से हम थोड़ी देर के लिए मिलते हैं उस के बारे में हम क्या जानते हैं और जिस को मैं ने पसंद किया है उसे मैं पिछले 4 साल से जानता हूं. नियोनिका अच्छी लड़की है मां और वैसे भी, परिवार और बीवी में संतुलन रखने का काम तो लड़के का है, और वह मुझे अच्छी तरह से आता है.’

दिल किया कि कहूं, तू तो मां और अपने बीच ही संतुलन नहीं रख पाया, कितनी लड़ाई करता है. अब बीवी और परिवार के बीच तू क्या संतुलन रखेगा? फिर भी उस तुनकमिजाज लड़के से ऐसी गंभीर बात सुन कर कुछ अच्छा सा लगा.

उधर, बहू के आने के बाद दीदी व्यस्त हो गईं. उन के उत्साह की कोई सीमा नहीं थी. हम सभी खुश थे. जीजाजी के जाने के बाद उदासी व गम में डूबी दीदी को जिंदगी जीने का खूबसूरत बहाना मिल गया था. लेकिन कुछ समय बाद ही उन का उत्साह कुछ कम होने लगा. फोन पर भी उन की बातें गमगीन होने लगीं. उत्साह की जगह चुप्पी व उच्छ्वासों ने ले ली. मैं बहू के बारे में कोई बात करती तो अकसर टाल जातीं. जिस बेटे की तारीफ करते दीदी की जबान नहीं थकती थी, उस के बारे में बात करने पर दीदी अकसर टाल जातीं.

मुझे कारण समझ में नहीं आ रहा था. बेटा तो दीदी का हमेशा से ही आज्ञाकारी था. बहू भी ठीक ही लगती थी. मिलना ही कितना होता था उस से. फिर भी जितना देखा चुलबुली सी लगी थी. पता नहीं दीदी को क्या दुख खाए जा रहा है. जीजाजी के जाने का दुख तो खैर अपनी जगह पर है ही. पर 2 साल हो गए हैं उन को गए हुए. दीदी कभी इतनी गमगीन नहीं दिखीं.

इन से कहा तो बोले, ‘तुम दीदी को उन के हाल पर छोड़ दो, उन का अब एक परिवार है, तुम बेकार बात में अपनी टांग मत अड़ाओ. दीदी को हमेशा अपनी मर्जी की आदत रही है. अब बहू आ गई है, बेटेबहू की अपनी जिंदगी है, हो सकता है अब उन्हें अकेलापन महसूस हो रहा हो?’

हो सकता है यही कारण हो. मैं ने अपने मन को समझा लिया, हो सकता है बहू के आने से थोड़ाबहुत अनदेखा महसूस कर रही हों. मेरे बेटे ने तो लड़की पसंद कर ही ली थी, ना की गुंजाइश ही कहां थी. मैं भी अपना मन पक्का कर शादी की तैयारियों में जुट गई. शादी की तैयारी करतेकरते उदासी का स्थान आखिर उत्साह ने ले ही लिया, मैं भी भूल गई कि बेटा अपनी मर्जी से ब्याह कर रहा है.

शादी में दीदी भी परिवार सहित आईं. दीदी की बहू में अब नई बहू का सा छुईमुईपन नहीं था. आखिर वह भी अब 1 साल के बेटे की मां बन चुकी थी. अक्षत भी पहले की तरह मां की हां में हां मिलाते नहीं दिखा, बल्कि मां से बातबात पर टोकाटाकी करता व तिरस्कार करता सा दिखा. मुझे आश्चर्य व दुख हुआ, जब बेटा ही मां से इस भाषा में बात करता है, मां की कमियां गिनाता रहता है तो बहू से क्या उम्मीद कर सकते हैं.

मुझे अपनी भी चिंता हो आई. मेरा बेटा तो हमेशा लड़ाई में ही बात करता है. अब बहू के सामने भी ऐसे ही बोलेगा तो दूसरी जाति की वह अनजानी लड़की, जिस का मैं ने इस घर में आने का विरोध भी किया था, मेरी क्या इज्जत करेगी? सासससुर को क्या मानेगी?

खैर, विवाह संपन्न हुआ और मेरे बेटेबहू हनीमून पर चले गए. दीदी 1-2 दिन रुकना भी चाह रही थीं पर अक्षत बिलकुल नहीं माना, शायद उस को अपने 1 साल के बच्चे की देखभाल की चिंता थी. मैं ने भी बहुत कहा पर अक्षत का रवैया तो हमारे प्रति भी पराया सा हो गया था.

‘दीदी, राहुल और नियोनिका हनीमून से लौट आएं तब मैं आऊंगी इस बार आप के पास…’

‘अच्छा…’ दीदी खास उत्साहित नहीं दिखीं. मेरे कुछ दिन शादी के बाद के कार्य निबटाने में बीत गए. लगभग 10 दिन बाद राहुल और नियोनिका वापस आ गए. घर आ कर भी वे अत्यधिक व्यस्त थे. आएदिन कोई न कोई उन को डिनर और लंच पर बुला लेता. उस के बाद थोडे़ दिन के लिए नियोनिका मायके चली गई और राहुल को भी मैं ने ठेलठाल कर उस के साथ भेज दिया. यही सही समय था. मैं ने इन को मुश्किल से मनाया और 2-4 दिन के लिए दीदी के पास चली गई.

अक्षत और उस की पत्नी ने मुझे खास तवज्जो नहीं दी. लगता था जैसे पहले वाला अक्षत कहीं खो गया है. दीदी अलबत्ता खुश हो गईं. इस बार मैं ने दीदी को पकड़ ही लिया.

‘दीदी, मुझे सच बताओ…क्या गम खाए जा रहा है आप को, आधी भी नहीं रह गई हो. चेहरा तो देखो अपना,’ मैं बोली.

‘कुछ नहीं…’ दीदी की आंखें भर आईं.

‘कुछ तो है, दीदी, मुझे भी नहीं बताओगी तो किसे बताओगी?’ दीदी चुप आंसू पोंछती  रहीं. मैं उन का हाथ सहलाने लगी, ‘बोलो न, दीदी.’

‘पता नहीं सुजाता, अक्षत को क्या हो गया है. बातबात पर मुझे टोकता है, मुझ पर चिल्लाता है. यों तो बात ही नहीं करता और जब बात करता है तो कड़वा ही बोलता है. बहू तो तीखी है ही, पलट कर जवाब देना उस का स्वभाव ही है…पर अक्षत भी हमेशा उस का साथ देता है. उसे मुझ में कमियां दिखाई देती हैं. कैसे दिन बिताऊं इन दोनों के साथ? मेरे सामने जोर से भी न हंसने वाला मेरा बेटा, जिस ने कभी मुझ से अलग जाने की हिम्मत नहीं की थी, आज मुझ पर अपनी बीवी के सामने इतनी जोर से चिल्लाता है कि सहन नहीं होता,’ दीदी फफकफफक कर रोने लगीं.

‘पर ऐसा क्यों करता है अक्षत?’

‘पता नहीं, पुरानीपुरानी बातें याद करकर के मुझ पर दहाड़ता रहता है. पढ़ने वाले बच्चों पर तो बंधन सभी लगाते हैं सुजाता, मैं ने क्या गलत किया?’

अक्षत का आचरण समझ में नहीं आ रहा था. बहू आखिर कितनी भी खराब क्यों न हो, तब भी क्या अक्षत का उसे समझाना जरूरी नहीं. और कम से कम अगर उस की बीवी पर नहीं चलती तो वह अपना व्यवहार तो ठीक रख सकता है मां के साथ? दीदी जो कुछ बातें बता रही थीं, लग रहा था जैसे मेरा किशोरावस्था का राहुल मेरे सामने आ खड़ा है. तब दीदी कहती थीं, ‘मैं तेरी जगह होती तो थप्पड़ लगा देती.’ क्या अब अक्षत को थप्पड़ लगा सकती हैं दीदी? क्या बहू को चुप करवा सकती हैं?

पहल: क्या शीला अपने मान-सम्मान की रक्षा कर पाई? – भाग 2

‘‘बेशक है न,’’ मजाक में पूछे प्रश्न का शीला ने सीधा और सच्चा जवाब दे दिया, ‘‘परिस्थितियों ने साथ दिया तो… तो डाक्टर बनूं.’’

‘‘ऐक्सीलैंट,’’ शीला के उत्तर पर तीनों ने एकदूसरे की ओर देखा. इस देखने में व्यंग्य का पुट घुला था, यह मुंह और मसूर की दाल. फिर तीनों के ठहाके फूट उठे.

फिर कुछ क्षणों का मौन.

तीनों ने देखा, शीला स्मृतियों की धुंध में खोई बाहर के दृश्यों को देख रही है. तीनों की नजरें परस्पर गुंथ गईं. आंखों ही आंखों में मौन संकेत हुए. फिर आननफानन एक मादक गुदगुदा देने वाली योजना की रूपरेखा तीनों के जेहन में आकृति लेने लगी.

‘‘कहां खो गईं आप?’’

‘‘जी?’’ शीला हौले से मुसकरा दी.

‘‘आज पहला दिन था. रैगिंग तो हुई होगी?’’ अतुल ने प्रश्न किया तो शीला एक पल के लिए सकपका गई. दिमाग में आज हुई रैगिंग का एकएक कोलाज मेढक की तरह फुदकने लगा. 3 सीनियरों का उसे घेर कर द्वितीय तल के एक क्लासरूम में ले जाना फिर ऊलजलूल द्विअर्थी यक्ष प्रश्नों का सिलसिला. शीला मन ही मन घबरा रही थी. पर रैगिंग का स्तर खूब नीचे नहीं उतरा था और तीनों छात्र मर्यादा के भीतर ही रहे थे.

‘‘आप न भी बताएंगी तो भी अनुमान लगाना कठिन नहीं कि रैगिंग के नाम पर बेहद घटिया हरकत की गई होगी आप के साथ,’’ अतुल फुफकारा, ‘‘बीसी कालेज के छात्रों को हम अच्छी तरह जानते हैं. इस शहर के सब से ज्यादा बदतमीज और लफंगे छात्र, हंह.’’

शीला मौन रही. क्या कहती भला?

‘‘एकदम ठीक बोल रहा दादा,’’ पिंटू इस बार अपने लहजे में बंगाली टोन का छौंक डालते हुए हिनहिनाया, ‘‘माइरी, अइसा अभद्रो व्यवहार से ही तो हमारा छात्र समुदाय बदनाम हो रहा. इस बदनामी को साफ करने का एक उपाय है, दोस्तो,’’ इसी बीच मादक योजना की रूपरेखा मुकम्मल आकार ले चुकी थी, ‘‘क्यों न हम इस नए दोस्त को नए प्रवेश की मुबारकबाद देने के लिए छोटी सी पार्टी दे दें?’’

‘‘गजब, क्या लाजवाब आइडिया है, अतुल,’’ यादव समर्थन में चहक उठा, ‘‘मुबारकबाद का मुबारकबाद और बदनामी का परिमार्जन भी.’’

‘‘पर बड़े भाई, पार्टी होगी कहां और कब?’’

‘‘पार्टी आज ही होगी यार और अभी कुछ देर बाद,’’ अतुल हंसा. दरअसल, योजना बनी ही इतनी मादक थी कि भीतर का रोमांच लहजे के संग बह कर बाहर टपकना चाह रहा था, ‘‘अगले स्टेशन पर हम उतर जाएंगे. स्टेशन के पास ही बढि़या होटल है, ‘होटल शहनाई.’ वहीं पार्टी दे देंगे. ओके.’’

शीला अतुल के अजूबे और अप्रासंगिक प्रस्ताव पर चकित रह गई. किसी अन्य कालेज के अपरिचित छात्र. अचानक इतनी उदारता.

‘‘नो, नो, थैंक्स मित्रो, मेरे सीनियर्स ने वैसा कुछ भी नहीं किया है अभद्र, जैसा आप सब समझ रहे हैं.’’

‘‘चलिए ठीक है. माना कि आप के सीनियर्स शरीफ हैं पर पार्टी तो हमारी ओर से तोहफा होगी आप को. परिचय और अंतरंगता इसी तरह तो बनती है. हम छात्र किसी भी कालेज के हों, हैं तो एक ही बिरादरी के.’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं. अब तो मिलना होता ही रहेगा न. पार्टी फिर कभी,’’ शीला ने दृढ़ता से इनकार कर दिया.

‘‘उफ, 12 बजे हैं अभी. 3:25 बजे की लोकल पकड़वा देंगे. देर नहीं होगी.’’

‘‘सौरी…मैं ने कहा न, मैं पार्टी स्वीकार नहीं कर सकती,’’ शीला ने चेहरा खिड़की की ओर फेर लिया.

कुछ क्षणों का बेचैनी भरा मौन.

‘‘इधर देखिए दोस्त,’’ अतुल की तर्जनी शीला की ठोढ़ी तक जा पहुंची, ‘‘जब मैं ने कह दिया कि पार्टी होगी, तो फिर पार्टी होगी ही. हम अगले स्टेशन पर उतर रहे हैं.’’

अतुल के लहजे में छिपी धमकी की तासीर से शीला भीतर तक कांप उठी.

‘‘आखिर हम भी तो आप के सीनियर्स ही हुए न,’’ तीनों बोले.

शीला ने डब्बे में बैठे यात्रियों का सिंहावलोकन किया. लगभग सभी यात्री अवाक् और हतप्रभ थे. किसी ने सोचा भी न था कि ऊंट इस तरह करवट ले बैठेगा.

‘‘अरे भैया, लड़की का पार्टी के लिए मन नहीं है तो काहे जबरदस्ती कर रहे ससुर?’’ नेताजी ने बीचबचाव की पहल की तो पिंटू तुनक कर खड़ा हो गया, ‘‘ओ बादशाहो, तुसी वड्डे मजाकिया हो जी. त्वाडे दिल विच्च इस कुड़ी के लिए एन्नी हमदर्दी क्यों फड़फड़ा रेहंदी है, अयं?’’

नेताजी की ओर कड़ी दृष्टि से देखते हुए अतुल शीला से मुखातिब हो कर बोला, ‘‘आइए, गेट के पास चलते हैं.’’

‘‘नहींनहीं, मैं नहीं जाऊंगी,’’ शीला की आंखों में भय उतर आया, ‘‘प्लीज…’’

‘‘अब नखरे मत दिखा,’’ यादव और अतुल भी खडे़ हो गए. यादव ने शीला की कलाई थाम ली तो शीला ने झटके से छुड़ाते हुए विनम्र भाव से कहा, ‘‘प्लीज, छोड़ दें मुझे. पार्टी फिर कभी,’’ फिर सहायता के लिए प्रोफैसर से गुहार लगाते हुए चीख पड़ी, ‘‘देखिए न, सर…’’

‘‘आप लोग छात्र हैं या आतंकवादी, अयं? इस तरह जबरदस्ती नहीं कर सकते,’’ प्रतिरोध करने की उत्तेजना में प्रोफैसर सीट से खड़े हो गए.

‘‘शटअप,’’ यादव ने चीखते हुए प्रोफैसर को इतनी जोर से धक्का दिया कि वे लड़खड़ाते हुए धप्प से सीट पर लुढ़क गए.

तभी जीआरपी के 2 जवान गश्त लगाते हुए उधर से गुजरे. शीला को जैसे नई जान मिल गई हो, वह चीख पड़ी, ‘जीआरपी अंकल.’

शिवानंद के आगे बढ़ते कदम ठिठक गए. पीछे मुड़ कर बर्थ के भीतर तक झांका तो दृष्टि सब से पहले अतुल से टकराई. वे खिल उठे, ‘‘अरे, अतुल बाबू, आप? नत्थूराम, ई अतुल बाबू हैं, आईजी रेल, तिवाड़ी साहब के सुपुत्र.’’

‘‘अंकल, आप इस टे्रन में?’’ अतुल शिवानंद से हाथ मिलाते हुए मुसकराया.

‘‘जनता को भी न सरकार और पुलिस विभाग को बदनाम करने में बड़ा मजा मिलता है एकरा माय के. शिकायत किहिस है जे टे्रन में लूटडकैती, छेड़छाड़, किडनैपिंग बढ़ रहा है. बस… आ गया ऊपर से और्डर लोकलवा सब में गश्त लगाने का, हंह. लेकिन अभी तक एक्को केस ऐसा नय मिल सका है.’’

‘‘जनता की बात छोडि़ए,’’ अतुल ने लापरवाही से कंधे झटके. शिवानंद ने युवती की ओर देख कर संकेत से पूछा, ‘‘ई आप के साथ हैं?’’

‘‘जी हां, क्लासफ्रैंड हैं हमारी,’’ अतुल मुसकराया तो शीला का मन हुआ, सारी बात बता दे पर जबान से बोल नहीं फूटे.

‘‘मैडम, अतुल बाबू बड़े सज्जन और सुशील नौजवान हैं. इन की दोस्ती से आप फायदे में ही रहेंगी. अच्छा, अतुल बाबू, सर को हमारा परनाम कहिएगा.’’

शीला की आंखों के आगे सारी स्थिति आईने की तरह साफ हो गई. अतुल आईजी रेल का लड़का है. पावर और पैसा, जब दोनों ही चीजें हों जेब में तो यादव और पिंटू जैसे वफादार चमचे वैसे ही दौड़े आएंगे जैसे गुड़ को देख कर चींटियां. सिपाहियों के जाते ही तीनों एक बार फिर जोरों से हंस पड़े. पिंटू ने आगे बढ़ कर शीला की कलाई थाम ली और खींच कर उसे उठाने का प्रयास करने लगा. शीला की इच्छा हुई, एक झन्नाटेदार तमाचा उस के गाल पर जड़ दे. बड़ी मुश्किल से ही उस ने क्रोध को जज्ब किया. इस तरह रिऐक्ट करने से बात ज्यादा बिगड़ सकती है.

तभी न जाने किस जेब से निकल कर अतुल की हथेली में छोटा सा रिवौल्वर चमक उठा.

‘‘किसी ने भी चूंचपड़ की तो…’’ रिवौल्वर यात्रियों की ओर तानते हुए वह गुर्रा उठा, ‘‘मनीष मिश्रा केस के बारे में तो सुना होगा न?’’

मनीष मिश्रा, वही जिस के तार स्वयं पीएम साहब से जुड़े हुए थे. बदमाशों ने चलती टे्रन से बाहर फेंक दिया था उसे. अपराध? सफर कर रही एक लड़की से छेड़खानी का मुखर विरोध. यात्रियों के बदन भय से कंपकंपाने लगे और रोंगटे खड़े हो गए.

सब से पहले नेताजी उठे, ‘‘थानापुलिस में तो एतना पहचान है कि का कहें ससुर. पर ई छात्र लोग का आपसी मामला न है. पुलिस हस्तक्षेप नहीं कर सकती.’’

फिर प्रोफैसर साहब भी अटैची संभालते हुए उठ खड़े हुए, ‘‘जब इतने प्यार से पार्टी दे रहे हैं ये लोग तो क्या हर्ज है स्वीकारने में? पर घर लौट कर मेरा आलेख पढि़एगा जरूर.’’

धीरेधीरे शकीला के अलावा सभी यात्री डब्बे के दूसरे हिस्सों में चले गए. शकीला वहीं बैठी रही. हिजड़ा होते हुए भी इतना तो समझ चुकी थी कि अकेली लड़की मुसीबत में पड़ गई है. ये लोग इसे जबरदस्ती अगवा करने पर उतारू हैं. पर इस हाल में वह करे भी तो क्या?

प्यार की राह में : क्या पूरा हुआ अंशुला- सुनंदा का प्यार – भाग 2

सुनंदा भी पढ़ने में तेज थी और वह खुद भी कुछ करना चाहती थी, कुछ बनना चाहती थी, इसलिए 12वीं क्लास पास करने के बाद उस ने एक सरकारी कालेज में दाखिला ले लिया था. उस दिन सड़क की सफाई करने के बाद अपनी मां के लिए दवाएं ले कर जब सुनंदा घर पहुंची थी, तो उस ने देखा कि उस के महल्ले के एकलौते सरकारी नल के आगे लंबी कतार लगी थी. इतनी बड़ी आबादी वाले महल्ले में केवल एक ही नल था. समय पर पानी भरना भी जरूरी था,

नहीं तो पानी ही नहीं मिलेगा. ऐसी हालत में लोग आपस में लड़ेंगे नहीं तो और क्या करेंगे. सरकारी नल के सामने लगी कतार में आधा घंटा खड़े होने के बाद सुनंदा को पानी मिला. पानी भरने और घर के दूसरे काम निबटाने के बाद सुनंदा अपनी बीमार मां को दवा खिला कर कालेज पहुंची थी. कालेज में सुनंदा की ज्यादा सहेलियां नहीं थीं, क्योंकि कोई भी एक ऐसी लड़की से दोस्ती करना पसंद नहीं करता, जिस की मां या वह लड़की खुद सड़क पर झाड़ू लगाने का काम करती हो. इस कालेज में सुनंदा की बस एक ही सहेली थी सरोज, जिस ने सुनंदा की सारी सचाई और उस के घर की हालत को जानते हुए सुनंदा से दोस्ती की थी, लेकिन उस दिन सरोज भी कालेज नहीं आई थी.

कालेज में सारे लैक्चर अटैंड करने के बाद जब सुनंदा घर के लिए निकली, तो कालेज के बाहर ही उसे अंशुल मिल गया था और उस ने पूछा था, ‘अरे, आप यहां…? क्या आप इस कालेज में पढ़ती हैं?’ सुनंदा अपने कदम बिना रोके ही बोली थी, ‘जी, मैं बीए फर्स्ट ईयर की स्टूडैंट हूं.’ ‘अरे वाह… मतलब, आप काम भी करती हैं और पढ़ाई भी,’ अंशुल ने हैरान होते हुए कहा था. जवाब में सुनंदा ने कहा था, ‘मेरी मां सड़क पर झाड़ू लगाने का काम करती हैं. किसी वजह से जब वे काम पर नहीं जा पाती हैं, तभी मैं उन के बदले काम पर जाती हूं.’ ‘ओह… मगर, आप पढ़ाई और काम दोनों साथसाथ कैसे कर लेती हैं?’ यह सुन कर एक पल के लिए सुनंदा के कदम ठहर गए थे और वह होंठों पर थोड़ा व्यंग्यात्मक मुसकान लाते हुए बोली थी, ‘गरीबी, जरूरतें और कुछ करने की चाह इनसान से कुछ भी करा सकती है.’

इतना कह कर सुनंदा तेज कदमों से आगे बढ़ गई थी और सुनंदा से ऐसा जवाब सुन कर अंशुल पलभर के लिए वहीं ठहर गया था. अंशुल और सुनंदा का कालेज भले ही एक नहीं था, लेकिन दोनों का कालेज रूट एक ही था. सुनंदा के गर्ल्स कालेज से कुछ ही दूर अंशुल का बौयज कालेज था और कालेज का समय भी एक ही था. इस वजह से वे दोनों अकसर रास्ते में टकरा जाते थे और उन के बीच बातें होने लगी थीं. धीरेधीरे सुनंदा के दिल में अंशुल के प्रति प्रेम के अंकुर फूटने लगे थे, लेकिन सुनंदा अपने और अंशुल के बीच जो जाति और हैसियत का फासला था, उसे भी जानती थी, इसलिए वह अंशुल से हमेशा एक दूरी बना कर रखती थी. इस तरह एक साल बीत गया था. एक दिन जब सरोज कालेज पहुंची, तो उस की आंखें सूजी हुई थीं. यह देख कर सुनंदा ने उस से पूछा था,

‘अरे, तुझे क्या हुआ…? तेरी आंखें ऐसी क्यों लग रही हैं?’ इस पर सुनंदा के गले लग कर सरोज फूटफूट कर रोने लगी थी. सुनंदा उसे शांत कराते हुए बोली थी, ‘बात क्या है? कुछ तो बता. या यों ही रोती रहेगी?’ इस पर सरोज सिसकारियां भरते हुए बोली थी, ‘इस हफ्ते मेरी सगाई है और अगले महीने शादी.’ यह सुन कर सुनंदा हैरानी से बोली थी, ‘और तेरी पढ़ाई का क्या होगा?’ ‘पापा कह रहे हैं कि अब जो करना है, अपनी ससुराल में जा कर ही करना,’ सरोज रोते हुए बोली थी. इधर सुनंदा अपनी पक्की सहेली सरोज की शादी और उस की पढ़ाई को ले कर परेशान थी, उधर अंशुल का दिल भी सुनंदा के लिए धड़कने लगा था, जिसे छिपा पाना अब अंशुल के लिए मुश्किल हो गया था. इसी बीच एक दिन सरोज अपनी शादी से 15 दिन पहले कालेज में अपनी शादी का कार्ड देने आई थी. वह सुनंदा से हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए बोली थी, ‘मैं तुझे अपनी शादी में नहीं बुला पाऊंगी,

क्योंकि पापा ने तुझे शादी में बुलाने से मना किया है.’ यह सुन कर सुनंदा को बहुत दुख हुआ कि वह अपनी एकलौती सहेली की शादी में शामिल नहीं हो पाएगी, लेकिन उसे जरा भी बुरा नहीं लगा, क्योंकि वह जातिवाद, ऊंचनीच का भेदभाव और लोगों का अपने प्रति इस तरह का बरताव बचपन से झेलती आई थी. अब तो वह इस की आदी हो चुकी थी. सरोज की शादी हो गई और सुनंदा अकेली रह गई. ऐसे समय में अंशुल बना सुनंदा का साथी और फिर यही साथी सुनंदा का हमसफर बनने का भी दम भरने लगा था. धीरेधीरे सुनंदा को भी अंशुल पर यकीन होने लगा था और वे दोनों साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे थे. सुनंदा पटिया पर बैठी टकटकी लगाए आसमान को देखती यही सब सोच रही थी. रहरह कर उस के मन में बस यही सवाल आ रहा था कि अंशुल सहीसलामत तो होगा न और यह खत उसे किस ने भेजा होगा? जिस ने भी भेजा है, वह खुद अब तक क्यों नहीं आया है? थर्ड ईयर का फाइनल एग्जाम देने और यूपीएससी इम्तिहान की तैयारी के लिए कोचिंग इंस्टीट्यूट में एडमिशन लेने के बाद अंशुल दिल्ली से कानपुर अपने घर चला गया था,

लेकिन उस के बाद न कभी वह कानपुर से लौटा और न ही कभी उस का कोई फोन आया. सुनंदा ने अंशुल के कुछ दोस्तों और उस के रूममेट से जानने की कोशिश की थी कि आखिर अंशुल है कहां, पर किसी के पास कोई जवाब नहीं था. सुनंदा ने कई बार उसे फोन भी किया, पर हर बार अंशुल का फोन स्विच औफ ही बताता था. सुनंदा पूरी तरह से निराश हो चुकी थी, लेकिन इस के बावजूद उसे अंशुल और अपने प्यार पर पूरा यकीन था. उसे यह भी यकीन था कि अंशुल उसे इस तरह अकेले छोड़ कर कभी नहीं जाएगा, वह जरूर लौटेगा. अचानक 6 महीने के बाद सुनंदा को यह गुमनाम खत मिला, जिसे पढ़ कर अंशुल के बारे में जानने के लिए सुनंदा यहां आ गई. सुनंदा अपने ही विचारों में गुम थी कि तभी वहां एक लंबी कार आ कर रुकी,

जिस में से तकरीबन सुनंदा के उम्र से थोड़ी सी बड़ी एक शादीशुदा औरत उतरी. माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी, मांग में सिंदूर, गले में लंबा सा मंगलसूत्र… उस औरत को देख कर सुनंदा हैरत में पड़ गई. उस औरत ने बिलकुल वैसी ही साड़ी पहनी थी, जैसी साड़ी सुनंदा ने दिल्ली के कमला मार्केट से पसंद कर के अंशुल को दी थी… जब अंशुल ने कहा था कि ‘मुझे एक साड़ी खरीदनी है अपने किसी खास के लिए’. उस समय सुनंदा अंशुल से यह पूछ नहीं पाई थी कि उसे साड़ी किस के लिए खरीदनी है. वह औरत सुनंदा के एकदम सामने आ कर खड़ी हो गई और बोली, ‘लगता है कि तुम अंशुल और उस के प्यार को अब तक भूली नहीं हो और आज भी उसे पाने की चाह रखती हो, तभी तो खत पढ़ते ही यहां दौड़ी चली आई. ‘‘तुम्हें क्या लगता है कि तुम जैसी सड़कों पर झाड़ू लगाने वाली लड़की किसी ऊंचे खानदान की बहू बन सकती है? या फिर यह लगता है कि अंशुल पूरे परिवार से बगावत कर के अपने घर की इज्जत ताक पर रख कर तुम से शादी कर लेगा? अगर ऐसा कोई भी विचार तुम्हारे मन में है, तो अंशुल का यह खत पढ़ लो… अब वह कभी भी तुम्हारे पास लौट कर नहीं आएगा,’’ इतना कह कर उस औरत ने खत सुनंदा की ओर बढ़ा दिया. सुनंदा कंपकंपाते हाथों से वह खत खोल कर पढ़ने लगी, जिस में लिखा था: ‘मुझे माफ कर दो सुनंदा

हृदय परिवर्तन : क्या सुनंदा अपने सौतेले बच्चों को मां जैसा प्यार दे पाई- भाग 2

सुनंदा ने अतीत को भुला दिया और विनय को अपनाने में ही भलाई समझी. विनय उस के रूपरंग का इस कदर दीवाना हो गया कि न तो उसे बच्चों की सुध रही न ही रिश्तदारों की. सब से कन्नी काट ली. और तो और सुनंदा के रूपसौंदर्य को ले कर इस कदर शंकित हो गया कि उसे छोड़ कर औफिस जाने में भी गुरेज करता. मैं अब उस के घर कम ही जाता. मुझे लगता विनय को मेरी मौजूदगी मुनासिब नहीं लगती. वह हर वक्त सुनंदा के पीछे साए की तरह रहता. उस के रंगरूप को निहारता. सुनंदा अपने पति की इस कमजोरी को भांप  गई. फिर क्या था अपने फैसले उस पर थोपने लगी. विनय के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से सब से ज्यादा परेशान अमन और मोनिका थे. वे दोनों एकदम से अलगथलग पड़ गए. विनय कहीं से आता तो सीधे सुनंदा के कमरे में जा कर उसे आलिंगनबद्ध कर लेता. बच्चों का हालचाल लेना महज औपचारिकता होती.

सुनंदा के रिश्ते में शादी थी. विनय व सुनंदा अपनी बेटी के साथ वहां जा रहे थे. अमन भी जाना चाहता था. उस ने दबी जबान से जाने की इच्छा जाहिर की तो विनय ने उसे डांट दिया, ‘‘जा कर पढ़ाई करो. कहीं जाने की जरूरत नहीं.’’ अमन उलटे पांव अपने कमरे में आ कर अपनी मां की तसवीर के सामने सुबकने लगा. तभी राधिका आ गई. उस को समझाबुझा कर शांत किया. विनय वही करता जो सुनंदा कहती. विनय का सारा ध्यान सुनंदा की बेटी शुभी पर रहता. बहाना यह था कि वह बिन बाप की बेटी है. विनय सुनंदा के रंगरूप पर इस कदर फिदा था कि उसे अपने खून से उपजे बच्चों का भी खयाल नहीं था. अमन किधर जा रहा है, क्या कर रहा है, उस की कोई सुध नहीं लेता. बस बच्चों के स्कूल की फीस भर देता, उन की जरूरत का सामान ला देता. इस से ज्यादा कुछ नहीं. अमन समझदार था. पढ़ाईलिखाई में अपना वक्त लगाता. थोड़ाबहुत भावनात्मक सहारा उसे अपनी बूआ राधिका से मिल जाता, जो विनय की उपेक्षा से उपजी कमी को पूरा कर देता.

अब विनय अपने पुश्तैनी मकान को छोड़ कर शारदा के मकान में रहने लगा. यह वही मकान था जिसे शारदा की मां अपने मरने के बाद अपने नाती अमन के नाम कर गई थीं. पुश्तैनी मकान में संयुक्त परिवार था, जहां उस की निजता भंग होती. भाईभतीजे उस के व्यवहार में आए परिवर्तन का मजाक उड़ाते. अब जब वह अकेले रहने लगा तो सुनंदा के प्रति कुछ ज्यादा ही स्वच्छंद हो गया. राधिका कभीकभार बच्चों का हालचाल लेने आ जाती. मुझे अमन से विनय का हालचाल मिलता रहता. विनय के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से मैं भी आहत था. सोचता उसे राह दिखाऊं मगर डर लगता कहीं अपमानित न होना पड़े. अमन से पता चला कि सुनंदा मां बनने वाली है तो विश्वास नहीं हुआ. 2 बच्चे पहली पत्नी से तो वहीं सुनंदा से एक 8 वर्षीय बेटी. और पैदा करने की क्या जरूरत थी? अमन इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने चला गया. मोनिका बी.ए. में थी. वह खुद 45 की लपेट में था. ऐसे में बाप बनने की क्या तुक? यहीं से मेरा मन उस से तिक्त हो गया. मुझे दोनों घोर स्वार्थी लगे. मैं ने राधिका से पूछा. पहले तो उस ने आनाकानी की, बाद में हकीकत बयां कर दी. कहने लगी कि इस में मैं क्या कर सकती हूं. यह उन दोनों का निजी मामला है. उस ने पल्लू झाड़ लिया, जो अच्छा न लगा. कम से कम विनय को समझा तो सकती थी. दूसरी शादी करते वक्त मैं ने उसे आगाह किया था कि यह शादी तुम दोनों सिर्फ एकदूसरे का सहारा बनने के लिए कर रहे हो. तुम्हें अकेलेपन का साथी चाहिए, वहीं सुनंदा को एक पुरुष की सुरक्षा. जहां तुम्हारे बच्चों की देखभाल करने के लिए एक मां मिल जाएगी, वहीं सुनंदा की बेटी को एक बाप का साया. विनय मुझ से सहमत था. मगर अचानक दोनों में क्या सहमति बनी कि सुनंदा ने मां बनने की सोची?

सुनंदा ने एक लड़के को जन्म दिया. वह बहुत खुश थी. विनय की खुशी भी देखने लायक थी मानों पहली बार पिता बन रहा हो. राधिका को सोने की अंगूठी दी. वह बेहद खुश थी. कुछ दिनों के बाद एक होटल में पार्टी रखी गई. मैं भी आमंत्रित था. रिश्तेदार पीठ पीछे विनय की खिल्ली उड़ा रहे थे मगर वह इस सब से बेखबर था. सुनंदा से चिपक कर बैठा अपने नवजात शिशु को खेला रहा था. अमन और मोनिका उदास थे. उदासी का कारण था उन की तरफ से विनय की बेरुखी. रुपयापैसा दे कर बच्चों को बहलाया जा सकता है, मगर उन का दिल नहीं जीता जा सकता. अमन और मोनिका को सिर्फ मांबाप का प्यार चाहिए था. मां नहीं रहीं, मगर पिता तो अपने बच्चों को भावनात्मक संबल दे सकता था. मगर इस के उलट पिता अपनी नई पत्नी के साथ रासरंग में डूबा था. जबकि दूसरी शादी करने के पहले उस ने अमन व मोनिका को विश्वास में लिया था. अब उन्हीं के साथ धोखा कर रहा था. पूछने पर कहता कि मैं ने दोनों की परवरिश में कया कोई कमी रख छोड़ी है? उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ाया और अब क्व10 लाख दे कर अमन को इंजीनियरिंग करवा रहा हूं.

अब विनय से कौन तर्क करे. जिस का जितना बौद्धिक स्तर होगा वह उतना ही सोचेगा. राधिका भी दोनों बच्चों की तरफ से स्वार्थी हो गई थी. परित्यक्त राधिका को विनय से हर संभव मदद मिलती रहती सो वह अमन और मोनिका में ही ऐब ढूंढ़ती.मेरे जेहन में एक बात रहरह कर शूल की तरह चुभती कि आखिर सुनंदा ने एक बेटे की मां बनने की क्यों सोची? अमन मौका देख कर मेरे पास आया और व्यथित मन से बोला, ‘‘क्या आप को यह सब देख कर अच्छा लग रहा है? यह मेरे साथ मजाक न हीं कि इस उम्र में मेरे पिता बाप बने हैं.’’ गुस्सा तो मुझे भी आ रहा था. मैं ने उस के मुंह पर विनय पर कोई टीकाटिप्पणी करने से बचने की कोशिश की पर ऐसे समय मुझे शारदा की याद आ रही थी. वह बेचारी अगर यह सब देख रही होती तो क्या बीतती उस पर. किस तरह से उस के बच्चों को बड़ी बेरहमी के साथ उस का ही बाप हाशिये पर धकेल रहा था. कैसे पुरुष के लिए प्यारमुहब्बत महज एक दिखावा होता है. शारदा से उस ने प्रेम विवाह किया था. कैसे इतनी जल्दी उसे भुला कर सुनंदा का हो गया. तभी 2 बुजुर्ग दंपती मेरे पास आ कर खड़े हो गए. उन की बातचीत से जाहिर हो रहा था कि सुनंदा के मांबाप हैं. बहुत खुश सुनंदा की मां अपने पति से बोली, ‘‘अब सुनंदा का परिवार संपूर्ण हो गया. 1 लड़का 1 लड़की.’’

तो इसका मतलब विनय के परिवार से अमन और मोनिका हटा दिए गए, मेरे मन में यह विचार आया. घर आ कर मैं ने गहराई से चिंतनमनन किया तो पाया कि सुनंदा द्वारा एक बेटे की मां बनना विनय के साथ रिश्तों को प्रगाढ़ बनाने का जरीया था. ऐसे तो विनय की 2 संतानें और सुनंदा की 1. लेकिन आज तो विनय उस के रूपजाल में फंसा हुआ है, कल जब उस का अक्स उतर जाएगा तब वह क्या करेगी? हो सकता है वह अपने दोनों बच्चों की तरफ लौट जाए तब तो वह अकेली रह जाएगी. यही सब सोच कर सुनंदा ने एक पुत्र की मां बनने की सोची ताकि पुत्र के चलते विनय खून के रिश्ते से बंध जाए. साथ ही पुत्र के बहाने धनसंपत्ति में हिस्सा भी मिलेगा वरना अमन और मोनिका ही सब ले जाएंगे, उस के हिस्से में कुछ नहीं आएगा. औसत बुद्धि का विनय सुनंदा की चाल में आसानी से फंस गया यह सोच कर मुझे उस की अक्ल पर तरस आया.

कचरे वाले : गंदगी फैलाने वाले लोग हैं कौन

मंगलवार की सुबह औफिस के लिए निकलते वक्त पत्नी ने आवाज दी, ‘‘आज जाते समय यह कचरा लेते जाइएगा, 2 दिनों से पड़ेपड़े दुर्गंध दे रहा है.’’ मैं ने नाश्ता करते हुए घड़ी पर नजर डाली, 8 बजने में 10 मिनट बाकी थे. ‘‘ठीक है, मैं देखता हूं,’’ कह कर मैं नाश्ता करने लगा. साढ़े 8 बज चुके थे. मैं तैयार हो कर बालकनी में खड़ा मल्लपा की राह देख रहा था. कल बुधवार है यानी सूखे कचरे का दिन. अगर आज यह नहीं आया तो गुरुवार तक कचरे को घर में ही रखना पड़ेगा.

बेंगलुरु नगरनिगम का नियम है कि रविवार और बुधवार को केवल सूखा कचरा ही फेंका जाए और बाकी दिन गीला. इस से कचरे को सही तरह से निष्क्रिय करने में मदद मिलती है. यदि हम ऐसा नहीं करते तो मल्लपा जैसे लोगों को हमारे बदले यह सब करना पड़ता है. मल्लपा हमारी कालोनी के कचरे ढोने वाले लड़के का नाम था. वैसे तो बेंगलुरु के इस इलाके, केंपापुरा, में वह हमेशा सुबहसुबह ही पहुंच जाता था लेकिन पिछले 2 दिनों से उस का अतापता न था. मैं ने घड़ी पर फिर नजर दौड़ाई, 5 मिनट बीत चुके थे. मैं ने हैलमैट सिर पर लगाया और कूड़ेदान से कचरा निकाल कर प्लास्टिक की थैली में भरने लगा. कचरे की थैली हाथ में लिए 5 मिनट और बीत गए, लेकिन मल्लपा का अतापता न था.

मैं ने तय किया कि सोसाइटी के कोने पर कचरा रख कर औफिस निकल लूंगा. दबेपांव मैं अपने घर के बरामदे से बाहर निकला और सोसाइटी के गेट के पास कचरा रखने लगा. ‘‘खबरदार, जो यहां कचरा रखा तो,’’ पीछे से आवाज आई. मैं सकपका गया. देखा तो पीछे नीलम्मा अज्जी खड़ी थीं. ‘‘अभी उठाओ इसे, मैं कहती हूं, अभी उठाओ.’’

‘‘पर अज्जी, मैं क्या करूं, मल्लपा आज भी नहीं आया,’’ मैं ने सफाई देने की कोशिश की. ‘‘जानती हूं, लेकिन सोसाइटी की सफाई तो मुझे ही देखनी होती है न. तुम तो यहां कचरा छोड़ कर औफिस चल दोगे, आवारा कुत्ते आ कर सारा कचरा इधरउधर बिखेर देंगे, फिर साफ तो मुझे ही करना होगा न,’’ उन का स्वर तेज था. मैं ने कचरा वापस कमरे में रखने में ही भलाई समझी.

‘‘तुम तो गाड़ी से औफिस जाते हो, इस कूड़े को रास्ते में किसी कूडे़दान में क्यों नहीं फेंक देते,’’ उन्होंने सलाह दी. ‘‘बात तो ठीक कहती हो अज्जी, घर में रखा तो यह ऐसे ही दुर्गंध देता रहेगा,’’ यह कह कर कचरे का थैला गाड़ी की डिग्गी में डाल लिया, सोचा कि रास्ते में किसी कूड़े के ढेर में फेंक दूंगा. सफाई के मामले में वैसे तो बेंगलुरु भारत का नंबर एक शहर है, लेकिन कूड़े का ढेर ढूंढ़ने में ज्यादा दिक्कत यहां भी नहीं होती. मैं अभी कुछ ही दूर गया था कि सड़क के किनारे कूड़े का एक बड़ा सा ढेर दिख गया. मैं ने कचरे से छुटकारा पाने की सोच, गाड़ी रोक दी. अभी डिग्गी खोली भी नहीं थी कि एक बच्ची मेरे सामने आ कर खड़ी हो गई. ‘‘अंकल, क्या आप मेरी हैल्प कर दोगे, प्लीज.’’

‘‘हां बेटा, बोलो, आप को क्या हैल्प चाहिए,’’ मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा. उस ने झट से अपने साथ के 2 बच्चों को बुलाया जो वहां सड़क के किनारे अपनी स्कूलबस का इंतजार कर रहे थे. उन में से एक से बोली, ‘‘गौरव, वह बोर्ड ले आओ, अंकल हमारी हैल्प कर देंगे.’’

गौरव भाग कर गया और अपने साथ एक छोटा सा गत्ते का बोर्ड ले आया. उस के साथ 3-4 बच्चे और मेरी गाड़ी के पास आ कर खड़े हो गए. छोटी सी एक बच्ची ने वह गत्ते का बोर्ड मुझे थमाते हुए कहा, ‘‘अंकल, आप यह बोर्ड यहां ऊपर टांग दीजिए, प्लीज.’’

‘‘बस, इतनी सी बात,’’ कह कर मैं ने वह बोर्ड वहां टांग दिया. बोर्ड पर लिखा था, ‘कृपया यहां कचरा न फेंकें, यह हम बच्चों का स्कूलबस स्टौप है.’

बोर्ड टंगा देख सभी बच्चे तालियां बजाने लगे. मैं ने एक नजर अपनी बंद पड़ी डिग्गी पर दौड़ाई और वहां से निकल पड़ा. कोई बात नहीं, घर से औफिस का सफर 20 किलोमीटर का है, कहीं न कहीं तो कचरे वालों का एरिया होगा, यह सोच मैं ने मन को धीरज बंधाया और गाड़ी चलाने लगा.

आउटर रिंग रोड पर गाड़ी चलते समय कहीं भी कचरे का ढेर नहीं दिखा तो हेन्नुर क्रौसिंग से आगे बढ़ने पर मैं ने लिंग्रज्पुरम रोड पकड़ ली. मैं ने सोचा कि रैजिडैंशियल एरिया में तो जरूर कहीं न कहीं कचरे का ढेर मिलेगा या हो सकता है कि कहीं कचरे वालों की कोई गाड़ी ही मिल जाए. अभी थोड़ी दूर ही चला था कि रास्ते में गौशाला दिख गई. साफसुथरे कपड़े पहने लोगों के बीच कुछ छोटीमोटी दुकानें थीं और पास ही कचरे का ढेर भी लगा था, लेकिन यह क्या, वहां तो गौशाला के कुछ कर्मचारी सफाई करने में लगे थे.

मैं ने गाड़ी की रफ्तार और तेज कर दी और सोचने लगा कि इस कचरे को आज डिग्गी में ही ढोना पड़ेगा. लिंग्रज्पुरम फ्लाईओवर पार करने के बाद मैं लेजर रोड पर गाड़ी चला रहा था. एमजी रोड जाने के लिए यहां से 2 रास्ते जाते थे. एक कमर्शियल स्ट्रीट से और दूसरा उल्सूर लेक से होते हुए. उल्सूर लेक के पास गंदगी ज्यादा होगी, यह सोच कर मैं ने गाड़ी उसी तरफ मोड़ दी.

अनुमान के मुताबिक मैं बिलकुल सही था. रोड के किनारे लगी बाड़ के उस पार कचरे का काफी बड़ा ढेर था. थोड़ा और आगे बढ़ा तो 2-3 महिलाएं कचरे के एक छोटे से ढेर से सूखा व गीला कचरा अलग कर रही थीं. उन्हें नंगेहाथों से ऐसे करते देख मुझे बड़ी घिन्न आई. थोड़ी ग्लानि भी हुई. हम अपने घरों में छोटीछोटी गलतियां करते हैं सूखे और गीले कचरे को अलग न कर के. यहां इन बेचारों को यह कचरा अपने हाथों से बिनना पड़ता है.

मुझे डिग्गी में रखे कचरे का खयाल आया, जो ऐसे ही सूखे और गीले कचरे का मिश्रण था. मन ग्लानि से भर उठा. धीमी चल रही गाड़ी फिर तेज हो गई और मैं एमजी रोड की तरफ बढ़ गया. एमजी रोड बेंगलुरु के सब से साफसुथरे इलाकों में से एक है.

चौड़ीचौड़ी सड़कें और कचरे का कहीं नामोनिशान नहीं. सफाई में लगे कर्मचारी वहां भी धूल उड़ाते दिख रहे थे. लेकिन मुझे जेपी नगर जाना था. इसीलिए मैं ने बिग्रेड रोड वाली लेन पकड़ ली. सोचा शायद यहां कहीं कूड़ेदान मिल जाए, लेकिन लगता है, इस सूखेगीले कचरे के मिश्रण की लोगों की आदत सुधारने के लिए नगरनिगम ने कूड़ेदान ही हटा दिए थे.

शांतिनगर, डेरी सर्किल, जयदेवा हौस्पिटल होते हुए अब मैं अपने औफिस के नजदीक वाले सिग्नल पर खड़ा था. सामने औफिस की बड़ी बिल्ंिडग साफ नजर आ रही थी. वहां कचरा ले जाने की बात सोच कर मन में उथलपुथल मच गई. आसपास नजर दौड़ाई तो सामने कचरे की एक छोटी सी हाथगाड़ी खड़ी थी और गाड़ी चलाने वाली महिला कर्मचारी पास में ही कचरा बिन रही थी. यह सूखे कचरे की गाड़ी थी.

मैं ने मन ही मन सोचा, ‘यही मौका है, जब तक वह वहां कचरा बिनती है, मैं अपने कचरे की थैली को उस की गाड़ी में डाल के निकल लेता हूं,’ था तो यह गलत, क्योंकि उस बेचारी ने सूखा कचरा जमा किया था और मैं उस में मिश्रित कचरा डाल रहा था, लेकिन मेरे पास और कोई उपाय नहीं था. मैं ने साहस कर के गाड़ी की डिग्गी खोली, लेकिन इस से पहले कि मैं कचरा निकाल पाता, सिग्नल ग्रीन हो गया.

पीछे से गाडि़यों का हौर्न सुन कर मैं ने अपनी गाड़ी वहां से निकालने में ही भलाई समझी. अब मैं औफिस के अंदर पार्किंग में था. कचरा रखने से कपड़े की बनी डिग्गी भरीभरी दिख रही थी.

मैं ने गाड़ी लौक की और लिफ्ट की तरफ जाने लगा, तभी सिक्योरिटी गार्ड ने मुझे टोक दिया, ‘‘सर, कहीं आप डिग्गी में कुछ भूल तो नहीं रहे,’’ उस ने उभरी हुई डिग्गी की तरफ इशारा किया. ‘‘नहींनहीं, उस में कुछ इंपौर्टेड सामान नहीं है,’’ मैं ने झेंपते हुए कहा और लिफ्ट की तरफ लपक लिया.

औफिस में दिनभर काम करते हुए एक ही बात मन में घूम रही थी कि कहीं, कोई जान न ले कि मैं घर का कचरा भी औफिस ले कर आता हूं. न जाने इस से कितनी फजीहत हो. बहरहाल, शाम हुई. मैं औफिस से जानबूझ कर थोड़ी देर से निकला ताकि अंधेरे में कचरा फेंकने में कोई दिक्कत न हो.

गाड़ी स्टार्ट की और घर की तरफ निकल लिया, फिर से वही रास्ता. फिर से वही कचरे के ढेर. इस बार कोई बंदिश न थी और न ही कोई रोकने वाला, लेकिन फिर भी मैं कचरा नहीं फेंक पाया. कचरे के ढेर आते रहे और मैं दृढ़मन से गाड़ी आगे बढ़ाता रहा. न जाने क्या हो गया था मुझे.

अब कुछ ही देर में घर आने वाला था. सुबह निकलते वक्त पत्नी की बात याद आई, ‘अंदर से आवाज आई, छोड़ो यह सब सोचना. एक तुम्हारे से थोड़े न, यह शहर इतना साफ हो जाएगा.’ मैं ने सोसाइटी के पीछे वाली सड़क पकड़ ली. लगभग 1 किलोमीटर दूर जाने के बाद एक कचरे का ढेर और दिखा. मैं ने गाड़ी रोकी, डिग्गी खोली और कचरा ढेर के हवाले कर दिया.

सुबह से जो तनाव था वह अचानक से फुर्र हो गया. मन को थोड़ी राहत मिली. रास्तेभर से जो जंग मन में चल रही थी, वह अब जीती सी लग रही थी.

तभी सामने एक औटोरिकशा आ कर रुका, देखा तो मल्लपा अपनी बच्ची को गोद में लिए उतर रहा था. ‘‘नमस्ते सर, आप यहां.’’

‘‘नहीं, मैं बस यों ही, और तुम यहां? कहां हो इतने दिनों से, आए नहीं?’’ ‘‘मेरा तो घर यहीं पीछे है. क्या बताऊं सर, मेरी बच्ची की तबीयत बहुत खराब है. बस, इसी की तिमारदारी में लगा हूं 2 दिनों से.’’

‘‘क्या हुआ इसे?’’ ‘‘संक्रमण है, डाक्टर कहता है कि गंदगी की वजह से हुआ है.’’

‘‘ठीक तो कहा डाक्टर ने, थोड़ी साफसफाई रखो,’’ मैं ने सलाह दी. ‘‘अब साफ जगह कहां से लाएं. हम तो कचरे वाले हैं न, सर,’’ यह कह कर मुसकराता हुआ वह अपने घर की ओर चल दिया.

सामने उस का घर था, बगल में कचरे का ढेर. वहां खड़ा मैं, अब, हारा हुआ सा महसूस कर रहा था.

फलक से टूटा इक तारा: सान्या का यह एहसास -भाग 1

‘‘मां तुम समझती क्यों नहीं, आजकल तो सभी मातापिता अपने बच्चों को छूट देते हैं, तुम क्यों नहीं मुंबई जाने देती मुझे?’’ सान्या जिद पर अड़ी थी और उस की मां 2 दिन से उसे समझा रही थी, ‘बेटी, हम मध्यवर्गीय लोग हैं, तुम पढ़ाई में इतनी अच्छी हो कि डाक्टर, इंजीनियर बन सकती हो, क्यों इस फालतू के डांस शो के लिए जिद पर अड़ी हो?’

‘‘नहीं मां, मैं जाऊंगी डांस शो में,’’ पैर पटकते हुए सान्या कमरे की तरफ बढ़ गई और जा कर पलंग पर औंधेमुंह लेट गई. उस की मां दरवाजे पर दस्तक देते हुए बोली, ‘‘बेटी, तुम बात समझने की कोशिश करो, मैं तुम्हारी दुश्मन नहीं, दरवाजा तो खोलो.’’

सान्या कहां सुनने वाली थी. उसे तो मुंबई जाना था डांस शो के लिए. वह तो मशहूर मौडल बनना चाहती थी. कहां पसंद था उसे यह साधारण लोगों की तरह जीना? वह तो खुले आसमान में उड़ जाना चाहती थी पंछियों की तरह, जहां कोई रोकटोक न हो, जितना चाहो उड़ो. दूरदूर तक खुला आसमान, न तो रीतिरिवाज की बंदिश न ही समाज के बंधन. उस की मां कैसे कह देती, ‘बेटी, तुम जाओ.’ वह बेचारी तो स्वयं संयुक्त परिवार के बंधनों में फंसी थी. यदि वह आज उसे छूट देगी तो यह इस के बाद मौडलिंग में जाने की जिद करेगी. और फिर, वह देवरजेठ समेत अन्य रिश्तेदारों को क्या जवाब देगी? देर तक सान्या की मां इसी उधेड़बुन में उलझी रही और फिर मन ही मन बोली, ‘सान्या के पिताजी घर आएं तो रात को उन से जरूर इस विषय में बात करूंगी.’

रात को खाना खा कर परिवार के सभी सदस्य सोने के लिए अपने कमरे में चले गए और तभी सान्या की मां ने मौका पा कर उस के पिताजी से कहा, ‘‘सुनिए जी, बच्ची का बड़ा मन है डांस शो में जाने के लिए, वैसे हमें उसे रोकना नहीं चाहिए, कितना अच्छा डांस करती है हमारी सान्या. हर वर्ष स्कूल के सालाना कार्यक्रम में भाग लेती है और इनाम भी ले कर आती है हमारी बेटी. हां कह दीजिए न, एक बार मुंबई में डांस शो में जा कर आ जाएगी तो उस का दिल नहीं टूटेगा.’’

सान्या के पिताजी बोले, ‘‘एक बार जाने में तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन वह आगे मौडलिंग के लिए भी तो जिद करेगी, कैसे भेजेंगे उसे?’’

‘‘आप इस डांस शो के लिए तो हां कीजिए, फिर उसे मैं समझा दूंगी,’’ सान्या की मां ने मुसकराते हुए कहा.

अगले दिन जब सान्या की मां व पिताजी ने उसे डांस शो में जाने के लिए हामी भरी तो उसे एक बार को तो विश्वास ही नहीं हुआ. वह कहने लगी, ‘‘मांपिताजी, आप लोग मान गए? कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही हूं?’’ मां बोली, ‘‘नहीं बेटी, यह हकीकत है. लेकिन इस के बाद तुम अपनी पढ़ाई में जुट जाओगी, मुझ से वादा करो.’’

‘‘हां मां, पक्का, फिर कभी जिद  नहीं करूंगी,’’ इतना कह सान्या अपनी मां से लिपट गई, ‘‘थैंक्यू मां, थैंक्यू पिताजी, आप दोनों कितने अच्छे हैं.’’ वह खुशी के मारे उछल पड़ी.

अगले ही दिन से डांस शो व मुंबई जाने की तैयारी शुरू हो गई. ऐसा करतेकरते शो का दिन भी आ गया और सान्या अपने मातापिता के साथ मुंबई डांस स्टूडियो में पहुंच गई. उस के मातापिता को दर्शकों में विशिष्ट अतिथि का स्थान मिला था. एकएक

कर सभी कंटैस्टैंट स्टेज पर आए. वे इतने बड़े स्टेज पर अपनी बेटी का डांस शो देखने को उत्सुक थे. स्टेज की साजसजावट, निर्णायक मंडल व दर्शकगण कुल मिला कर सभीकुछ बड़ा ही अच्छा लग रहा था. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि बचपन में 2 चोटियां बना कर घूमने वाली सान्या बड़ी फिल्मी हस्तियों के सामने अपना नृत्य प्रस्तुत करेगी. 3 लोगों का डांस पूरा हुआ और चौथा नंबर सान्या का था.

जैसे ही स्टेज पर उस का नाम पुकारा गया, सान्या के पिताजी का सीना फूल कर चौड़ा हो गया और अगले ही पल सान्या झूम कर स्टेज पर आ पहुंची. उस की नाचने की अदा सब से अलग थी. सभी दर्शकों और निर्णायक मंडल के सदस्यों की तालियों की गड़गड़ाहट से हौल गूंज उठा था. सान्या की मां उस के पिताजी के पास सरक कर मुंह पर हाथ रख कर धीरे से फुसफुसाती हुईर् बोली, ‘‘देखना जी, हमारी सान्या ही प्रथम आएगी, इस का फाइनल्स के लिए जरूर सलैक्शन होगा.’’ जवाब में सान्या के पिताजी ने अपना सिर हामी भरते हुए हिला दिया था.

खैर, शो खत्म हुआ. उस के पिताजी शाम को उसे मुंबई घुमाने के लिए ले कर गए. मरीन ड्राइव पर समुद्र की आतीजाती लहरें सड़क पर ठंडी फुहारें फेंक रही थीं. और हैंगिंग गार्डन में बुड्ढी का जूता देख सान्या बहुत खुश हो गई. कई पुरानी फिल्मों को वहां फिल्माया गया है. सान्या तो अपने सपनों की नगरी में आ पहुंची थी. वह तो सदा के लिए यहां बस जाना चाहती थी. किंतु मांपिताजी तो चाहते हैं कि वह आगे पढ़ाई करे और इस चमकदमक की दुनिया से दूर रहे.

खैर, अगले 2 दिनों में छोटा कश्मीर, नैशनल पार्क, एस्सेल वर्ल्ड आदि सभी जगहों पर घूम कर सान्या अपने मातापिता के साथ घर आ गई. लेकिन आने के बाद वह मुंबई और वहां का बड़ा सा स्टेज ही देखती रही. वह तो चाहती ही न थी कि उस रात की कभी सुबह भी हो. कितनी अच्छी होती है न सपनों की दुनिया. जो सोचो वही हकीकत में रूपांतरित होता नजर आता है. काश, उस का यह सपना हकीकत बन जाए. तभी घड़ी का अलार्म बजा और घर्रघर्र की आवाज ने उसे सोने नहीं दिया. उस ने झट से बटन दबा कर अलार्म बंद कर दिया.

थोड़ी देर में मां की आवाज आई, ‘‘बेटी सान्या, उठो न, तुम्हें कालेज जाने में देर हो जाएगी.’’

‘‘जी मां,’’ कहते हुए सान्या ने अलसाई आंखों से सूर्य को देखा. बाथरूम में जा ठंडे पानी के छींटे अपनी आंखों पर मारे और मां के पास रसोई में जा कर अपने लिए चाय ले कर आई. अखबार पढ़ने के साथ चाय की चुस्कियां लेते हुए सान्या पेज थ्री में फिल्मी हस्तियों के फोटो देख रहे थी. उन्हें देख वह तो रोज ही ख्वाब संजोने लगती कि उसे मुंबई से बुलावा आ रहा है. हर वक्त मुंबईमुंबई, बस मुंबई.

उस की मां उसे समझाती, ‘‘सान्या, हम साधारण लोग हैं, मुंबई में तो बड़बड़े लोग रहते हैं. यह जो फिल्मी दुनिया है न, वास्तविक दुनिया से बहुत अलग है.’’ जवाब में सान्या कहती, ‘‘पर मां, वहां भी तो इंसान ही बसते हैं न. बस, एक बार मैं वहां चली जाऊं, फिर देखना, पैसा, शोहरत सब है वहां. यहां इस छोटे से कसबे में क्या रखा है? आज पढ़ाई पूरी कर भी लूंगी तो कल किसी सरकारी नौकरी वाले डाक्टर, इंजीनियर से तुम मेरा ब्याह कर दोगी और फिर रोज वही चूल्हाचौका. जो जिंदगी तुम ने जी है, वही मुझे जीनी होगी. क्या फायदा मां ऐसी जिंदगी का? मां मैं बड़े शहर में जाना चाहती हूं, मुंबई जाना चाहती हूं, कुछ अलग करना चाहती हूं.’’ मां ने उसे टालते हुए कहा, ‘‘अच्छाअच्छा, अभी तो पहले पढ़ाई पूरी कर ले.’’ लेकिन सान्या का कहां पढ़नेलिखने में मन लगने वाला था. उसे तो फैशन वर्ल्ड अच्छा लगता था, वह तो जागते हुए भी डांस शो और मौडलिंग के सपने देखती थी.

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