काश, तुम भाभी होती

पुनीत पटना इंजीनियरिंग कालेज में प्रीफाइनल ईयर में पढ़ रहा था. उस का भाई प्रेम इंजीनियरिंग कर 2 साल पहले अमेरिका नौकरी करने गया था. उस के पिता सरकारी नौकरी में थे. वह साइकिल से ही कालेज जाया करता था. एक दिन जाड़े के मौसम में वह कालेज जा रहा था. उस दिन उस का एग्जाम था. अचानक उस की साइकिल की चेन टूट गई. ठंड में इतनी सुबह कोई साइकिल रिपेयर की दुकान भी नहीं खुली थी और न ही कोई अन्य सवारी जल्दी मिलने की उम्मीद थी. उस के पास समय  भी बहुत कम बचा था. कालेज अभी  3 किलोमीटर दूर था. वह परेशान रोड पर खड़ा था. तभी एक लड़की स्कूटी से आई और बोली, ‘‘मे आई हैल्प यू?’’

पुनीत ने अपनी परेशानी का कारण बताया. लड़की स्कूटी पर बैठ गई और पुनीत से बोली ‘‘आप साइकिल पर बैठ जाएं और मेरे कंधे को पकड़ लें. बिना पैडल किए मेरे साथ कुछ दूर चलें. मेरा कालेज आधा किलोमीटर पर है. उस के बाद मैं आप को इंजीनियरिंग कालेज तक छोड़ दूंगी.’’

थोड़ी दूर पर मगध महिला कालेज के गेट पर उस ने दरबान को साइकिल रिपेयर करवाने के लिए बोल कर पुनीत से कहा, ‘‘आप मेरी स्कूटी पर बैठ जाएं, मैं आप को ड्रौप कर देती हूं. कालेज से लौटते वक्त अपनी साइकिल दरबान से ले लेना. हां, उसे रिपेयर के पैसे देना न भूलना.’’

उस लड़की ने पुनीत को कालेज ड्रौप कर दिया. पुनीत ने कहा ‘‘थैंक्स, मिस… क्या नाम…?’’

लड़की बिना कुछ बोले चली गई. कुछ दिनों बाद पुनीत कालेज से लौटते समय सोडा फाउंटेशन रैस्टोरैंट में एक किनारे टेबल पर बैठा था. पुनीत लौन में जिस टेबल पर बैठा था उस पर सिर्फ 2 कुरसियां ही थीं. दूसरी कुरसी खाली थी. बाकी सारी टेबलें भरी थीं.

वह अपना सिर झुकाए कौफी सिप कर रहा था कि एक लड़की की आवाज उस के कानों में पहुंची, ‘‘मे आई सिट हियर?’’ उस ने सिर उठा कर लड़की को देखा तो वह स्कूटी वाली लड़की थी. उस ने कहा, ‘‘श्योर, बैठो… सौरी बैठिए. इट्स माय प्लेजर. उस दिन आप का नाम नहीं पूछ सका था.’’

वह बोली, ‘‘मैं वनिता और फाइनल ईयर एमए में हूं.’’

‘‘और मैं पुनीत, थर्ड ईयर बीटेक में हूं.’’

दोनों में कुछ फौर्मल बातें हुईं. पुनीत बोला, ‘‘मैं रीजेंट में इवनिंग शो देखने जा रहा था. अभी शो शुरू होने में थोड़ा टाइम बाकी था, तो इधर आ गया.’’

वनिता ने अपना बिल पे किया और वह बाय कह कर चली गई. पुनीत ने वनिता का बिल पे करना चाहा था पर उस ने मना कर दिया.

इधर पुनीत के भाई प्रेम की शादी उस के पिता ने एक लड़की से तय कर रखी थी. बस, प्रेम की हां की देरी थी. उन्होंने लड़की की विधवा मां को वचन भी दे रखा था. पर प्रेम अमेरिका में पटना की ही किसी पिछड़ी जाति की लड़की से प्यार कर रहा था बल्कि कुछ दिनों से साथ रह भी रहा था. उस लड़की से अपनी शादी की इच्छा जताते हुए प्रेम ने मातापिता से अनुरोध किया था.

प्रेम के मातापिता दोनों बहुत पुराने विचारों के थे और खासकर पिता बहुत जिद्दी व कड़े स्वभाव के थे. उन्होंने दोनों बेटों को साफसाफ बोल रखा था कि वे बेटों की शादी अपनी मरजी से अच्छी स्वजातीय लड़की से ही करेंगे. उन्होंने प्रेम को भी बता दिया था कि यह रिश्ता मानना ही होगा वरना मातापिता के श्राद्ध के बाद जो करना हो करे.

मातापिता के दबाव में प्रेम ने टालने की नीयत से उन से कहा कि वे पुनीत को लड़की देखने को भेज दें, उसे पसंद आए तो सोच कर बताऊंगा. इधर प्रेम ने पुनीत को सचाई बता दी थी.

पुनीत की मां ने उस से कहा, ‘‘जा बेटे, अपने भैया की दुलहनिया देख कर आओ.’’

पुनीत मातापिता के बताए पते पर होने वाली भाभी को देखने गया. पुनीत ने उसे महल्ले में पहुंचने पर घर की सही लोकेशन पूछने के लिए दिए गए नंबर पर फोन किया. फोन एक लड़की ने उठाया और निर्देश देते हुए कहा, ‘‘मैं बालकनी में खड़ी रहूंगी, आप बाईं तरफ सीधे आगे आएं.’’

वनिता ने उस लड़की से परिचय कराते हुए कहा, यह मेरी सहेली कुमुद…

पुनीत उस पते पर पहुंचा तो बालकनी में वनिता को देख कर चकित हुआ. वनिता ने उसे अंदर आने को कहा. वहां 2 प्रौढ़ महिलाओं के साथ वनिता एक और लड़की के साथ बैठी हुई थी. वनिता ने उस लड़की से परिचय कराते हुए कहा, ‘‘यह मेरी सहेली कुमुद, यह उस की मां और उस किनारे में मेरी मां.’’ दोनों की माताएं उन लोगों को बातें करने के लिए बोल कर चली गईं.

वनिता पुनीत से बोली, ‘‘कुमुद मैट्रिक तक मेरे ही स्कूल में पढ़ी है. मुझ से एक साल सीनियर थी. हमारे पड़ोस में ही रहती थी. इस के पिता अब नहीं रहे. इस की मां कुमुद की शादी को ले कर काफी चिंतित हैं.’’

पुनीत बोला ‘‘क्यों?’’

‘‘कुमुद ही आप के भाई की गर्लफ्रैंड है. कुछ महीनों से अमेरिका में वे साथ ही रह रहे हैं. दोनों में फिजिकल रिलेशनशिप भी चल रहा है. वैसे, आप के मातापिता मुझ से रिश्ता करना चाहते हैं. पर मैं कुमुद की जिंदगी से खिलवाड़ नहीं करूंगी. कुमुद को मैं अपनी बहन समझती हूं. मैं प्रेम और कुमुद के बीच रोड़ा नहीं बन सकती हूं. आप अपने पेरैंट्स को समझाएं कि अपनी जिद छोड़ दें वरना प्रेम, कुमुद और मेरी तीनों की जिंदगी तबाह हो जाएगी.’’

पुनीत कुछ पल खामोश था. फिर बोला, ‘‘मैं किसी को दुखी नहीं देखना चाहता हूं. घर जा कर बात करता हूं. डोंट वरी. मुझ से जो बन पड़ेगा, अवश्य करूंगा. मैं आप को फोन करूंगा.’’

पुनीत के जाने के बाद कुमुद ने वनिता से कहा, ‘‘तुम्हें अगर प्रेम पसंद है तो तुम्हारे लिए मैं प्रेम से रिलेशन ब्रेक कर सकती हूं.’’

‘‘अरे, ऐसी कोई बात नहीं है. मां मेरे लिए जरूरत से ज्यादा चिंतित है. वैसे भी, प्रेम तुम्हारे अलावा किसी और के साथ रिलेशन में होता तो भी मेरे लिए उस से शादी की बात सोचना भी असंभव थी.’’

‘‘मैं एक बात कहूं?’’

‘‘हां, श्योर.’’

‘‘पुनीत बहुत अच्छा लड़का है. अगर तेरा किसी और से चक्कर नहीं चल रहा है तो तू उस से शादी कर ले.’’

‘‘क्या बात करती हो? मैं मास्टर्स कर रही हूं और वह तो अभी बीटैक थर्ड ईयर में है.’’

‘‘पगली, तुम्हें पता नहीं है कि उस का कैंपस सलैक्शन भी हो गया है. और प्रेम बोल रहा था कि पुनीत सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहा है. कंपीट कर गया तो समझ तेरी लौटरी लग जाएगी, नहीं तो इंजीनियर है ही.’’

‘‘फिर भी, तुम क्या समझती हो मैं जा कर उसे प्रपोज करूं?’’

‘‘नहीं, मैं अभी प्रेम की मां को फोन पर इस प्रपोजल के लिए बोल देती हूं. घर आ कर पुनीत ने मातापिता को विस्तार से समझाया. उस ने कहा, ‘‘भैया चाहते तो अमेरिका में ही कोर्ट मैरिज कर लेते, तो उस स्थिति में आप क्या कर लेते. भैया ने आप का सम्मान करते हुए आप से अनुमति मांगी है. मैं ने उस लड़की को देखा है, कुमुद नाम है उस का. काफी अच्छी लड़की है. वह भी आई हुई है. आजकल वयस्क जोड़ों को जातपांत और धर्म शादी करने से नहीं रोक सकते. आप 3 लोगों की खुशियां क्यों छीनना चाहते हैं?’’

मां ने कहा, ‘‘तुम मुझे कुमुद से मिलवाओ, फिर मैं पापा को समझाने की कोशिश करूंगी.’’

‘‘वह तो कल सुबह मुंबई की फ्लाइट से जा रही है. वहीं से अमेरिका चली जाएगी.’’

फिर पुनीत और मां दोनों जा कर कुमुद से मिले. मांबेटे दोनों ने मिल कर पिताजी को काफी समझाया. तब उन्होंने कहा, ‘‘मुझे समाज में शर्मिंदा होना पड़ेगा. वनिता की बूढ़ी विधवा मां को वचन दे चुका हूं. रिश्तेदारी में भी इस बारे में काफी लोगों को बता चुका हूं.’’

उसी समय अमेरिका से प्रेम ने मां से फोन पर कुछ बात की. मां ने कहा, ‘‘हम ने तुम्हारे लिए वनिता की मां को बोल रखा था. वनिता में तुम्हें क्या खराबी नजर आती है. वैसे भी कुमुद तो पिछड़ी जाति की है. तेरे पापा को समझाना बहुत मुश्किल है.’’

प्रेम ने कहा, ‘‘आप लोगों ने पहले मुझे वनिता के बारे में कभी नहीं बताया था. वनिता को मैं ने देखा जरूर है पर मेरे मन में उस से शादी की बात कभी नहीं थी. और जहां तक कुमुद की जाति का सवाल है तो आप लोग दकियानूसी विचारों को छोड़ दें. अमेरिका, यूरोप और अन्य उन्नत देशों में आदमी की पहचान उस की योग्यता से है, न कि धर्म या जाति से. यह उन की उन्नति का मुख्य कारण है. और हां, अगर मैं शादी करूंगा तो कुमुद से ही वरना शादी नहीं करूंगा,’’ इतना बोल कर प्रेम ने फोन काट दिया.

उस की मां ने पुनीत से पूछा ‘‘यह वनिता कैसी लड़की है रे?’’

‘‘मां, वह बहुत अच्छी लड़की है. पढ़नेलिखने और देखने में भी. मैं उस से  2 बार पहले भी मिल चुका हूं.’’

फिर उस के मातापिता दोनों ने आपस में कुछ देर अकेले में बात कर पुनीत से कहा, ‘‘अब इस समस्या का हल तुम्हारे हाथ में है.’’

‘‘मैं भला इस में क्या कर सकता हूं?’’

‘‘कुमुद को हम बड़ी बहू स्वीकार कर लेंगे. पर तुम्हें भी हमारी इज्जत रखनी होगी. वनिता तेरी पत्नी बनेगी.’’

‘‘अभी तो मुझे पढ़ना है. वैसे वह एमए फाइनल में है मां. हो सकता है उम्र में मुझ से बड़ी हो.’’

‘‘लव मैरिज में सीनियरजूनियर या उम्र का खयाल तुम लोग आजकल कहां करते हो. और क्या पता कुमुद प्रेम से बड़ी हो? मैं वनिता की मां को फोन करती हूं. अगर थोड़ी बड़ी भी हुई तो क्या बुराई है इस में,’’ इतना बोल कर उस ने वनिता की मां से फोन पर कुछ बात की.

पुनीत गंभीर हो कर कुछ सोचने लगा था. थोड़ी देर बाद मां ने कहा, ‘‘पुनीत, तुम वनिता से बात कर लो. मैं ने उस की मां  को कहा कि कल शाम तुम दोनों रैस्टोरैंट में मिलोगे.’’ पुनीत और वनिता दोनों अगली शाम को उसी रैस्टोरैंट में मिले. पुनीत बोला, ‘‘मां ने अजब उलझन में डाल दिया है. मैं क्या करूं? आप को ठीक लग रहा है?’’

वनिता बोली, ‘‘मुझे तो कुछ बुरा नहीं दिखता इस में? हां, ज्यादा अहमियत आप की पसंद की है. मैं आप की पसंदनापसंद के बारे में नहीं जानती हूं.’’

‘‘आप तो हर तरह से अच्छी हैं, आप को कोई नापसंद कर ही नहीं सकता. फिर भी मुझे कुछ देर सोचने दें.’’

‘‘हां, वैसे दोनों में किसी को जल्दी भी नहीं है. पर मुझे कुमुद की चिंता है. वैसे हम दोनों के परिवार और कुमुद के परिवार सभी की भलाई इसी में है, और हां, मां बोल रही थी कि मैं पढ़ाई में आप से सीनियर हूं.’’

पुनीत चुपचाप सिर झुकाए बैठा था. तो वनिता बोली, ‘‘मैं अगर सीनियर लगती हूं तो इस साल एग्जाम ड्रौप कर दूंगी. मंजूर?’’

पुनीत हंसते हुए बोला, ‘‘नहीं, आप ऐसा कुछ नहीं करें. आप अपना पीजी इसी साल करें.’’

‘‘एक शर्त पर.’’

‘‘वह क्या?’’

‘‘अभी इसी वक्त से हम लोग आप कहना छोड़ कर एकदूसरे को तुम कहेंगे.’’

‘‘आप भी… सौरी तुम भी न…. पर मेरी भी एक शर्त है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘शादी पढ़ाई पूरी होने के बाद ही होगी, भले सगाई अभी हो जाए.’’

‘‘मंजूर है. फोन पर रोज बात करनी होगी और वीकैंड में यहीं मिला करेंगे.’’

‘‘एग्रीड.’’

दोनों एकसाथ हंस पड़े. अगले पल वे वहां से निकल कर एकदूसरे का हाथ पकड़े सड़क पार कर सामने फैले गांधी मैदान में टहलने लगे.

पुनीत बोला, ‘‘पर मुझे एक बात का अफसोस रह गया. मैं तो घाटे में रहा.’’

‘‘कौन सी बात?’’ वनिता ने पूछा.

‘‘अगर भैया की शादी तुम से और मेरी शादी किसी और लड़की से होती तो मैं विनविन सिचुएशन में होता न.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘तुम मेरी भाभी होतीं, तो मेरे दोनों हाथों में लड्डू होते.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पत्नी पर तो हंड्रेड परसैंट हक रहता ही और अगर तुम मेरी भाभी होतीं तो देवर के नाते भाभी से छेड़छाड़ करने और मजाक करने का हक बोनस में बनता ही था.’’

‘यू नौटी बौय,’ बोल कर वनिता उस के कान खींचने लगी.

Mother’s Day 2024- कन्याऋण : कन्याऋण : क्या नेहा की शादी का फैसला सही साबित हुआ? – भाग 2

अनुभा की सलाह का उस की सास पर कोई असर नहीं हुआ. वह बोलीं, ‘बहू, यह जरूरी नहीं है कि जो तुम्हारी मौसेरी बहन के साथ हुआ, वैसा ही नेहा के साथ भी घटित हो. मुझे गोमती जीजी ने भरोसा दिया है कि उन के रिश्तेदार बहुत भले और नेक इनसान हैं, वे हमारी नेहा को बहुत प्यार से रखेंगे.’

‘मांजी दूसरे लोगों की बातों से तो हम अपनी नेहा के भविष्य का फैसला नहीं कर सकते,’ अनुभा बोली, ‘नेहा की शादी कर के हमें क्या लाभ होगा? कल को शादी के बाद वह गर्भवती हो गई और उस की संतान भी उस जैसी ही होगी तो कितनी मुसीबत हो जाएगी?’

अनुभा की बात सुन कर सास और भी झल्ला गईं. वह आवेश में बोलीं, ‘वाह बहू, तुम भी कितनी दूर की सोचती हो, तुम्हारी अपनी कोई बेटी नहीं है न इसीलिए तुम क्या जानो, कन्यादान का धर्म क्या होता है? कोई भी मां अपनी बेटी को जीवन भर कुंआरी नहीं रख सकती. मैं तो अब तक यही समझ रही थी कि नेहा को उस की दोनों छोटी भाभियां तो नहीं चाहतीं पर कम से कम तुम तो उस को दिल से चाहती हो पर आज तुम्हारी बातों को सुन कर लगा कि वह मेरा भ्रम था.

‘तुम्हें शायद इस बात की चिंता है कि नेहा की शादी के लिए तुम्हारे पति को 2-4 लाख रुपए की व्यवस्था करनी पड़ेगी पर तुम्हें घबराने की जरूरत नहीं है. तुम्हारे ससुरजी ने नेहा के जन्म के समय ही उस के विवाह के लिए 25 हजार की एफ.डी. करवा दी थी जो अब ब्याज समेत 5 लाख की है. मैं उसी से नेहा के विवाह की सारी व्यवस्था कर लूंगी.’

नवीन इतनी देर तक मौन रह कर दोनों की बातें सुन रहा था. अंत में वह अनुभा को डांटते हुए बोला, ‘तुम मां से क्यों बहस कर रही हो. जब उन को तुम्हारी बात ठीक नहीं लग रही है तो इस विषय पर चर्चा बंद करो.’

फिर नवीन मां से बोला, ‘मां, आप जो भी फैसला करेंगी, मुझे मान्य है. नेहा के विवाह के लिए रुपए की व्यवस्था की चिंता करने की आप को जरूरत नहीं है, मैं सारा इंतजाम कर दूंगा.’

2 माह बाद नेहा के विवाह की तारीख तय हो गई. इस बीच नवीन और उस के दोनों भाई नेहा के ससुराल जा कर लड़के और उस के परिवार से मिल आए. वहां से वापस लौटने के बाद नवीन ने नेहा की ससुराल वालों के लालचीपूर्ण रवैये और लड़के के दब्बूपन के बारे में मां को बता कर अपना असंतोष दिखाया था पर मां अपने निर्णय पर दृढ़ रही थीं.

विवाह की तैयारियों में व्यस्त अनुभा जब भी नेहा को देखती, उस की आंखें भर आतीं. नेहा शादीविवाह का असली मतलब क्या है, इस बात से पूरी तरह अनजान थी पर अपने लिए आए ढेर सारे सामान को देख कर उस की आंखें खुशी से चमक उठती थीं. वह बारबार अनुभा से पूछती, ‘भाभी, यह सारी चीजें मेरी हैं न? भाभी, बबलू, टीना, रीना और मिनी मुझे अपनी चीजें छूने नहीं देते. दोनों भाभियां भी मुझे अपना सामान नहीं देखने देतीं, अब मैं भी अपना सामान किसी को छूनेनहीं दूंगी.’ कभी नेहा कहती, ‘भाभी, शादी में मुझे भी घाघराचुन्नी पहनाओगी न.

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हां, साथ में

मैचिंग चूडि़यां भी पहनाना. मुझे लाल रंग बहुत अच्छा लगता है.’

नेहा की बालसुलभ जिज्ञासाएं देख कर कभी अनुभा सोचती, चलो, नेहा के जीवन में कभी तो खुशी के क्षण आए, चाहे थोडे़ समय के लिए ही सही. उस ने शादी के पहले नेहा को उस के वैवाहिक जीवन के बारे में भी जानकारी देने का प्रयास किया. उस का, अपने पति तथा ससुराल के दूसरे सदस्यों से कैसा व्यवहार हो, इस बारे में भी उसे विस्तार से समझाया.

नेहा उस की बातें सुन कर कुछ क्षण तो गंभीर हो जाती पर फिर अपनी वही बालसुलभ बातें और हरकतें करने लगती.

अनुभा को यह देख कर हैरानी होती कि ज्यादातर रिश्तेदार नेहा की शादी के फैसले पर उस की सास को बधाइयां देते हुए कहते, ‘चलो जी, आप ने तो बेटी की शादी कर के बहुत अच्छा किया. अब आप कन्याऋण से उऋण हो जाएंगी.’ उन की बातें सुन कर उस की सास अपने चेहरे पर गर्वीली मुसकान लाते हुए उस की ओर नजर डालती, ताकि उस को एहसास हो कि नेहा के विवाह का विरोध कर वह कितनी बड़ी गलती कर रही थी.

नेहा के ससुराल जाने के बाद घर एकदम सूना हो गया. उस की बालसुलभ हरकतें रहरह कर अनुभा को याद हो आतीं. मांजी भी नेहा के जाने के बाद से उदास रहने लगी थीं. यद्यपि वे सब के सामने अपनी मनोदशा जाहिर नहीं करतीं पर सब की तरह उन के मन में भी यह आशंका जरूर थी कि नेहा ससुराल में एडजस्ट हो पाएगी कि नहीं.

नेहा को ससुराल गए एक माह से अधिक हो गया था. शुरूशुरू में तो उस से हर दिन ही फोन पर बात हो जाती थी और वह खुश भी लगती थी पर धीरेधीरे उस की आवाज में उदासी छलकने लगी. अब फोन पर वह बोलने लगी थी, ‘भाभी, मुझे यहां अच्छा नहीं लगता. यह लोग सारे समय मुझे देख कर हंसते हैं और मुझे पागल कह कर चिढ़ाते हैं. ये सब बहुत गंदे हैं, राजेश भी इन के साथ मेरा मजाक उड़ाता है.’

नेहा की बातें सुन कर अनुभा को थोड़ी चिंता होनी लगी थी पर वह नेहा को यही समझाती कि वह जिद न करे. सब की बात माने.

पिछले एक सप्ताह से वे जब भी फोन करते नेहा के ससुराल वाले कोई न कोई बहाना बना कर उस से बात नहीं होने देते. कभी कहते, नेहा बाजार गई है, कभी बाथरूम में है तो कभी सो रही है. एक दिन नवीन ने राजेश से बात करने की कोशिश की पर वह भी उन से बात करने से कतराता रहा.

उस दिन रविवार था. नवीन, मांजी और अनुभा ड्रांइगरूम में बैठे नेहा की ही बात कर रहे थे कि नवीन बोला, ‘मां, आज एक बार मैं फिर नेहा से बात करने की कोशिश करता हूं, यदि आज भी उस से बात नहीं हो पाती है तो मैं कल नेहा को कुछ दिनों के लिए उस के ससुराल से ले कर आने की सोच रहा हूं.’

इतना कह कर नवीन नेहा के ससुराल फोन डायल करने लगा. संयोग से उस दिन नेहा ने ही फोन उठाया था.

नवीन की आवाज सुनते ही वह फोन पर ही जोरजोर से रो पड़ी, ‘भैया, आप लोग फोन क्यों नहीं करते? आप यहां से मुझे ले जाओ. ये लोग बहुत खराब हैं. मुझे बहुत तंग करते हैं. मैं इन के पास नहीं रहूंगी.’

नेहा आगे कुछ कहती उस के पहले ही किसी ने रिसीवर उस के हाथ से छीन कर रख दिया था.

अब तो कुछ सोचने का प्रश्न ही नहीं था. उन लोगों ने तय किया कि शाम की ट्रेन से ही नवीन और अनुभा नेहा के ससुराल जा कर एक बार वस्तुस्थिति की जानकारी लें. नेहा की बात सुन कर घर में सब का ‘मूड’ खराब हो गया था.

सुबह अचानक अपने घर में नवीन और अनुभा को देख कर नेहा के ससुराल वाले सकपका गए. नेहा को जब उन के आने का पता चला तो वह दौड़ती हुई आई और नवीन को देखते ही उस से लिपट गई. नेहा की आंखों में दहशत और खौफ देख कर दोनों घबरा गए और अनुभा ने ज्यों ही उस की पीठ पर हाथ फेरा, वह जोरजोर से सुबक पड़ी. बारबार एक ही बात दोहरा रही थी, ‘भाभी, मुझे अपने साथ ले चलो, ये सब लोग बहुत गंदे हैं. मैं इन के घर कभी नहीं आऊंगी.’

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Mother’s Day 2024- कन्याऋण : नेकन्याऋण : क्या नेहा की शादी का फैसला सही साबित हुआ? – भाग 3

नेहा को इस तरह रोते देख कर एक बार तो उस की सास और ससुराल के दूसरे लोग घबरा गए पर तुरंत ही उस की सास अपने को संभालती उन पर हावी होने का प्रयास करते हुए बोली, ‘आप लोगों ने मेरे साथ बहुत बड़ा धोखा किया है. मुझ से कहा गया था कि लड़की थोड़ी भोली और नादान है पर शादी के बाद पता चला कि आप की बहन तो मानसिक रूप से अविकसित है. हम लोगों ने फिर भी इस को समझाने और निभाने की बहुत कोशिश की पर यह तो बहुत ही जिद्दी और ढीठ है. अच्छा हुआ, आप खुद अपनी बहन को लेने आ गए, वरना हमें इस को आप के पास पहुंचाना पड़ता.’

नेहा की सास को समझाने का प्रयास करते हुए नवीन ने कहा, ‘मांजी, हम लोगों ने तो गौतमी मौसी के माध्यम से सारी बातों का पहले ही खुलासा कर दिया था पर उस समय तो आप ने इस रिश्ते से इनकार नहीं किया बल्कि नेहा को अपनाने के एवज में हम से दहेज के अलावा 3 लाख रुपए नकद अलग से मांगे थे, जो हम ने आप को दिए, फिर धोखे में रखने का प्रश्न ही कहां उठता है?’

‘3 लाख रुपए दे कर आप ने मुझ पर कोई एहसान नहीं किया है,’ नेहा के जेठ ने जोर से कहा, ‘राजेश के लिए तो इस से भी अधिक दहेज देने वालों के प्रस्ताव आ रहे थे पर मेरी ही मति फिर गई थी कि मैं आप के झांसे में आ गया. अब मुझे आप से कोई बहस नहीं करनी, आप अपनी बहन को ले कर लौट जाएं तो बेहतर होगा.’

इसी बीच नेहा के ससुर और ननदोई भी आ गए. नवीन और अनुभा को अचानक अपने घर में देख कर वे हैरान लग रहे थे. नेहा के ससुर ने उस के ननदोई का जैसे ही नवीन से परिचय कराया और वह हाथ मिलाने के लिए नवीन की तरफ बढ़ा, नेहा नवीन को अपनी ओर खींचते हुए चिल्ला पड़ी, ‘भैया, इस के पास मत जाना, यह बहुत खराब है. इस ने जैसे मुझे काटा था, आप को भी काट लेगा.’

नेहा क्या कह रही है, एक बार तो किसी को समझ में नहीं आया. लेकिन उस के ननदोई जरूर सकपका गए थे पर नेहा फिर उस की ओर इशारा करते हुए बोली, ‘भैया, इस को मारो, यह बहुत गंदा है. जब राजेश अपनी मां के साथ बाहर गया हुआ था तो इस ने जबरन मेरे कमरे में घुस कर मेरे साथ बहुत गंदी हरकतें कीं और मैं ने जब इसे रोका तो इस ने मुझे काटा और मेरे सारे कपड़े उतार कर मेरे साथ जबरदस्ती की,’ इतना बताते हुए नेहा अपनी साड़ी का पल्ला फेंकते हुए अपने ब्लाउज को खोल अपने शरीर पर जगहजगह काटे और खरोंचों के निशान दिखाने लगी.

नेहा के इस रहस्योद्घाटन से कमरे में सन्नाटा सा छा गया. उस के ससुराल वालों की निगाहें झुक गईं. खासकर उस के ननदोई का तो बुरा हाल था. नवीन ने दोनों हाथों से अपनी आंखों को ढांपते हुए अनुभा से कहा, ‘अनुभा प्लीज, नेहा को कमरे में ले जा कर उस के कपड़े ठीक करो. अब हमें एक पल भी यहां नहीं ठहरना है.’

नेहा के ससुर ने इतना कुछ हो जाने पर भी नेहा की बात को झुठलाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘नेहा एकदम झूठ बोल रही है. हमारे जवांई बाबू तो बहुत नेक और शरीफ इनसान हैं, वह भला ऐसी गंदी हरकत क्यों करेंगे?’

नवीन ने उन की ओर घृणा से देखते हुए कहा, ‘मुझे आप की कोई सफाई नहीं सुननी है. मेरी बहन कभी भी झूठ नहीं बोलती. मेरी बहन के साथ जो घिनौना और वहशियाना कुकर्म आप के घर में हुआ है, उस के लिए शर्मिंदगी या अफसोस जाहिर करने के बजाय आप फिर झूठ बोल कर मुझ पर हावी होना चाहते हैं, धिक्कार है आप लोगों को. पिछले सप्ताह भर से आप नेहा को हम से बात नहीं करने दे रहे थे, तभी मुझे दाल में कुछ काला होने का शक हो गया था पर अपने ही घर की बहूबेटियों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार आप लोग करेंगे, इस की मैं ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी.’

नवीन ने वहां से उठते हुए बेहद दुखी मन से कहा, ‘आज से हमारे बीच के सारे रिश्ते खत्म हो गए. ऐसे दरिंदे और हैवान लोगों के बीच अपनी बहन को छोड़ने के बजाय मैं उसे आजीवन अपने घर में रखना बेहतर समझूंगा. पर यह याद रखें, मैं इतनी आसानी से आप को छोड़ने वाला नहीं. आप की इस हरकत के लिए आप को जेल की हवा नहीं खिलाई तो मेरा भी नाम नवीन नहीं.’

नवीन की इस धमकी से नेहा के सासससुर घबरा गए. उन्होंने हाथ जोड़ कर नवीन को शांत करने का प्रयास किया पर वह यह कहते हुए उठ गया कि मुझे आप से अब कोई बहस नहीं करनी है. मैं अपनी बहन को हमेशा के लिए ले कर जा रहा हूं.

नेहा के साथ भारी मन से वे घर लौट आए थे. मांजी ने जब नेहा को देखा और उस के साथ हुए हादसे के बारे में सुना तो वह सिर थाम कर बैठ गई थीं.

बहुत देर बाद जब वे सामान्य हुईं तो बोलीं, ‘बेटा, यह सब मेरी वजह से हुआ है. मैं मां होते हुए भी अपनी बेटी का सब से बड़ा अहित कर गई. तुम लोगों की बात मान कर नेहा के  विवाह के लिए जिद नहीं करती तो आज मेरी बेटी की यह दुर्दशा नहीं होती. कन्याऋण से उऋण होने के बदले मैं तो तन, मन, धन तीनों से हाथ धो बैठी.’

नेहा के बारे में सोचतेसोचते अनुभा इतनी खो गई कि उस को समय का पता ही नहीं चला. नेहा ने जब आ कर उसे बताया कि मां बुला रही हैं तो वह यथार्थ की दुनिया में वापस आई.

अनुभा मांजी को गंभीर देख कर उन के पास जा कर बैठ गई. मांजी की आंखों में अभी भी आंसू थे. अपने आंसू पोंछते हुए वह बोलीं, ‘‘अनुभा, तुम जब से नेहा को डाक्टर के पास दिखा कर आई हो, मुझे चिंता लग रही है. बेटी, तुम मुझ से लाख छिपाओ पर मैं हकीकत जान गई हूं.’’

मांजी से नजरें चुराते अनुभा बोली ‘‘मांजी आप व्यर्थ ही चिंता कर रही हैं…’’

मांजी ने उस को बीच में ही टोका, ‘‘बेटी, उम्र में तुम से बड़ी होने के कारण मेरे जीवन के अनुभव भी तुम से अधिक हैं. तुम्हारा नजरें चुरा कर मुझ से बात करना मेरे विश्वास को पुख्ता करता है. मैं चाहती हूं कि अब अधिक समय सोचने में नष्ट करने से बेहतर है कि इस समस्या का अविलंब समाधान हो.’’ अपना गला साफ कर के मांजी फिर बोलीं, ‘‘नेहा जब अपना रखरखाव भी ठीक से करने में असमर्थ है तो इस स्थिति में वह मां बनने की जिम्मेदारी कैसे संभाल सकती है? ससुराल के लोग कैसे हैं यह तुम देख कर आई हो. इसीलिए मैं ने सारी स्थितियों पर विचार कर के ही यह फैसला किया है कि हम जितनी जल्दी नेहा को इस समस्या से मुक्ति दिलवा दें, उतना ही बेहतर है. यह शायद मेरा सब से बड़ा प्रायश्चित होगा.’’

अनुभा, मांजी में आए इस अप्रत्याशित बदलाव को देख कर हैरान थी. डेढ़ 2 माह पहले जो महिला कन्यादान के ऋण से उऋण होने तथा किसी भी हालत में बेटी को कुंआरी नहीं रखने की पुरातन विचारधारा में विश्वास करती थी, आज वह अचानक ही इतनी आधुनिक और व्यावहारिक कैसे हो गईं? खैर, जो भी हो मांजी का यह बदलाव उसे बहुत समयोचित लगा.

सलाहकार: कैसे अपनों ने उठाया शुचिता का फायदा

छात्रछात्राओं का प्रिय शगल हर एक अध्यापक- अध्यापिका को कोई नाम देना होता है और चाहे अध्यापक हों या प्राध्यापक, सब जानबूझ कर इस तथ्य से अनजान बने रहते हैं, शायद इसलिए कि अपने जमाने में उन्होंने भी अपने गुरुजनों को अनेक हास्यास्पद नामों से अलंकृत किया होगा. ऋतिका इस का अपवाद थीं. वह अंगरेजी साहित्य की प्रवक्ता ही नहीं होस्टल की वार्डन भी थीं, लेकिन न तो लड़कियों ने खुद उन्हें कोई नाम दिया और न ही किसी को उन के खिलाफ बोलने देती थीं.

मिलनसार, आधुनिक और संवेदनशील ऋतिका का लड़कियों से कहना था : ‘‘देखो भई, होस्टल के कायदे- कानून मैं ने नहीं बनाए हैं, लेकिन मुझे इस होस्टल में रह कर पीएच.डी. करने की सुविधा इसलिए मिली है कि मैं किसी को उन नियमों का उल्लंघन न करने दूं. मैं नहीं समझती कि आप में से कोई भी लड़की होस्टल के कायदेकानून तोड़ कर मुझे इस सुविधा से वंचित करेगी.’’

इस आत्मीयता भरी चेतावनी के बाद भला कौन लड़की मैडम को परेशान करती? वैसे लड़कियों की किसी भी उचित मांग का ऋतिका विरोध नहीं करती थीं. खाना बेस्वाद होने पर वह स्वयं कह देती थीं, ‘‘काश, मुझ में होस्टल की मैनेजिंग कमेटी के सदस्यों को दावत पर बुला कर यह खाना खिलाने की हिम्मत होती.’’

लड़कियां शिकायत करने के बजाय हंसने लगतीं. ऋतिका मैडम का व्यवहार सभी लड़कियों के साथ सहृदय था. किसी के बीमार होने पर वह रात भर जाग कर उस की देखभाल करती थीं. पढ़ाई में कोई दिक्कत होने पर अपना विषय न होते हुए भी वह यथासंभव सहायता कर देती थीं, लेकिन अगर कभी कोई लड़की व्यक्तिगत समस्या ले कर उन के पास जाती थी तो बजाय समस्या सुनने या कोई हल सुझाने के वह बड़ी बेरुखी से मना कर देती थीं.

लड़कियों को उन की बेरुखी उन के स्वभाव के अनुरूप तो नहीं लगती थी फिर भी किसी ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया. मनोविज्ञान की छात्रा श्रेया ने कुछ दिनों में ही यह अटकल लगा ली कि ऊपर से सामान्य लगने वाली ऋतिका मैम, भीतर से बुरी तरह घायल थीं और जिंदगी को सजा समझ कर जी रही थीं.

मगर उन से पूछने का तो सवाल ही नहीं था क्योंकि अगर उस का प्रश्न सुन कर ऋतिका मैडम जरा सी भी उदास हो गईं तो सब लड़कियां उन का होस्टल में रहना मुश्किल कर देंगी. एम.ए. की छात्रा होने के कारण श्रेया अन्य लड़कियों से उम्र में बड़ी और ऋतिका मैडम से कुछ ही छोटी थी, सो प्राय: हमउम्र होने के कारण दोनों में दोस्ती हो गई और दोनों एक ही कमरे में रहने लगीं.

एक दिन एक पत्रिका द्वारा आयोजित निबंध लेखन प्रतियोगिता में भाग ले रही छात्रा रश्मि उन के कमरे में आई. ‘‘मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं हिंदी में निबंध लिखूं या अंगरेजी में?’’

‘‘लिखना तो उसी भाषा में चाहिए जिस में तुम सुंदरता से अपने भाव व्यक्त कर सको,’’ श्रेया बोली.

‘‘दोनों में ही कर सकती हूं.’’

‘‘इस की दोनों भाषाओं पर अच्छी पकड़ है,’’ ऋतिका मैडम के स्वर में सराहना थी जिसे सुन कर रश्मि का उत्साहित होना स्वाभाविक ही था.

‘‘इस प्रतियोगिता में मैं प्रथम पुरस्कार जीतना चाहती हूं, सो आप सलाह दें मैडम, कौन सी भाषा में लिखना अधिक प्रभावशाली रहेगा?’’ रश्मि ने ऋतिका से मनुहार की.

‘‘तुम्हारी शिक्षिका होने के नाते बस, इतना ही कह सकती हूं कि तुम अच्छी अंगरेजी लिखती हो और सलाह तो मैं किसी को देती नहीं,’’ ऋतिका मैडम ने इतनी रुखाई से कहा कि रश्मि सहम कर चली गई.

‘‘जब आप को पता है कि उस की अंगरेजी औसत से बेहतर है, तो उसे उसी भाषा में लिखने को कहना था क्योंकि अंगरेजी में जीत की संभावना अधिक है,’’

श्रेया बोली. ‘‘इतनी समझ रश्मि को भी है.’’

‘‘फिर भी बेचारी आश्वस्त होने आप के पास आई थी और आप ने दुत्कार दिया,’’ श्रेया के स्वर में भर्त्सना थी, ‘‘मैडम, आप से सलाह मांगना तो सांड को लाल कपड़ा दिखाना है.’’

ऋतिका ने अपनी हंसी रोकने का असफल प्रयास किया, जिस से प्रभावित हो कर श्रेया पूछे बगैर न रह सकी : ‘‘आखिर आप सलाह देने से इतना चिढ़ती क्यों हैं?’’

‘‘चिढ़ती नहीं श्रेया, डरती हूं,’’ ऋतिका मैडम आह भर कर बोलीं, ‘‘मेरी सलाह से एकसाथ कई जीवन बरबाद हो चुके हैं.’’ ‘‘किसी आतंकवादी गिरोह की आप सदस्या रह चुकी हैं?’’ श्रेया ने उन की ओर कृत्रिम अविश्वास से देखा. ऋतिका ने गहरी सांस ली,

‘‘असामाजिक तत्त्व ही नहीं शुभचिंतक भी जिंदगियां तबाह कर सकते हैं, श्रेया.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘बड़ी लंबी कहानी है.’’

‘‘मैडम, आज पढ़ाई यहीं बंद करते हैं. कल रविवार को कहीं घूमने न जा कर पढ़ाई कर लेंगे,’’ कह कर श्रेया उठी और उस ने कमरे का दरवाजा बंद किया, बत्ती बुझा कर बोली, ‘‘अब आप शुरू हो जाओ. कहानी सुनाने से आप का दिल हलका हो जाएगा और मेरी जिज्ञासा शांत.’’

‘‘मेरा दिल तो कभी हलका नहीं होगा मगर चलो, तुम्हारी जिज्ञासा शांत कर देती हूं.

‘‘शुचिता मेरी स्कूल की सहपाठी थी. जब वह 7वीं में पढ़ती थी तो उस के डाक्टर मातापिता उसे दादी के पास छोड़ कर मस्कट चले गए थे. जब भी वह उन्हें याद करती, दादी प्रार्थना करने को कहतीं या उसे दिलासा देने को राह चलते ज्योतिषियों से कहलवा देती थीं कि उस के मातापिता जल्दी आएंगे.

‘‘मस्कट कोई खास दूर तो था नहीं, सो दादी से शुचि की उदासी के बारे में सुन कर अकसर उस के मातापिता में से कोई न कोई बेटी से मिलने आता रहता था. इस तरह शुचि भाग्य और भविष्यवक्ताओं पर विश्वास करने लगी. विदेश से लौटने पर उस के आधुनिक मातापिता ने शुचि को बहुत समझाया मगर उस की अंधविश्वास के प्रति आस्था नहीं डिगी.

‘‘रजत शुचि का पड़ोसी और मेरे पापा के दोस्त का बेटा था, सो एकदूसरे के घर आतेजाते मालूम नहीं कब हमें प्यार हो गया, लेकिन यह हम दोनों को अच्छी तरह मालूम था कि सही समय पर हमारे मातापिता सहर्ष हमारी शादी कर देंगे, मगर अभी से इश्क में पड़ना गवारा नहीं करेंगे.

लेकिन मिले बगैर भी नहीं रहा जाता था, सो मैं पढ़ने के बहाने शुचि के घर जाने लगी. शुचि के मातापिता नर्सिंग होम में व्यस्त रहते थे इसलिए रजत बेखटके वहां आ जाता था. जिंदगी मजे में गुजर रही थी. मैं शुचि से कहा करती थी कि प्यार जिंदगी की अनमोल शै है और उसे भी प्यार करना चाहिए. तब उस का जवाब होता था, ‘करूंगी मगर शादी के बाद.’

‘‘‘उस में वह मजा नहीं आएगा जो छिपछिप कर प्यार करने में आता है.’

‘‘‘न आए, मगर जब मैं अपने मम्मीपापा को यह वचन दे चुकी हूं कि मैं शादी उन की पसंद के डाक्टर लड़के से करूंगी, जो उन का नर्सिंग होम संभाल सके तो फिर मैं किसी और से प्यार कैसे कर सकती हूं?’

‘‘असल में शुचि के मातापिता उसे डाक्टर बनाना चाहते थे लेकिन शुचि की रुचि संगीत साधना में थी, सो दामाद डाक्टर पर समझौता हुआ था. हम सब बी.ए. फाइनल में थे कि रजत का चचेरा भाई जतिन एम.बी.ए. करने वहां आया और रजत के घर पर ही रहने लगा.

‘‘एक रोज शुचिता पर नजर पड़ते ही जतिन उस पर मोहित हो गया और रजत के पीछे पड़ गया कि वह उस की दोस्ती शुचिता से करवाए. रजत के असलियत बताने का उस पर कोई असर नहीं हुआ. मालूम नहीं जतिन को कैसे पता चल गया कि रजत मुझ से मिलने शुचिता के घर आता है. उस ने रजत को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया कि या तो वह उस की दोस्ती शुचिता के साथ करवाए नहीं तो वह हमारे मातापिता को सब बता देगा.

‘‘इस से बचने की मुझे एक तरकीब समझ में आई कि शुचिता के अंधविश्वास का फायदा उठा कर उस का चक्कर जतिन के साथ चला दिया जाए. रजत के रंगकर्मी दोस्त सुधाकर को मैं ने अपने और शुचिता के बारे में सबकुछ अच्छी तरह समझा दिया. एक रोज जब मैं और शुचिता कालिज से घर लौट रहे थे तो साधु के वेष में सुधाकर हम से टकरा गया और मेरी ओर देख कर बोला कि मैं चोरी से अपने प्रेमी से मिलने जा रही हूं. उस के बाद उस ने मेरे और रजत के बारे में वह सब कहना शुरू कर दिया जो हम दोनों के अलावा शुचिता को ही मालूम था, सो शुचिता का प्रभावित होना स्वाभाविक ही था.

‘‘शुचिता ने साधु बाबा से अपने घर चलने को कहा. वहां जा कर सुधाकर ने भविष्यवाणी कर दी कि शीघ्र ही शुचिता के जीवन में भी उस के सपनों का राजकुमार प्रवेश करेगा. सुधाकर ने शुचिता को आश्वस्त कर दिया कि वह कितना भी चाहे प्रेमपाश से बच नहीं सकेगी क्योंकि यह तो उस के माथे पर लिखा है. उस ने यह भी बताया कि वह कहां और कैसे अपने प्रेमी से मिलेगी.

‘‘शुचिता के यह पूछने पर कि उस की शादी उस व्यक्ति से होगी या नहीं, सुधाकर सिटपिटा गया, क्योंकि इस बारे में तो हम ने उसे कुछ बताया ही नहीं था, सो टालने के लिए बोला कि फिलहाल उस की क्षमता केवल शुचिता के जीवन में प्यार की बहार देखने तक ही सीमित है. वैसे जब प्यार होगा तो विवाह भी होगा ही. सच्चे प्यार के आगे मांबाप को झुकना ही पड़ता है.

‘‘उस के बाद जैसे सुधाकर ने बताया था उसी तरह जतिन धीरेधीरे उस के जीवन में आ गया. शुचिता का खयाल था कि जब साधु बाबा की कही सभी बातें सही निकली हैं तो मांबाप के मानने वाली बात भी ठीक ही निकलेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जतिन ने यहां तक कहा कि उसे उन का एक भी पैसा नहीं चाहिए…वे लोग चाहें तो किसी गरीब बच्चे को गोद ले कर उसे डाक्टर बना कर अपना नर्सिंग होम उसे दे दें. शुचिता ने भी जतिन की बात का अनुमोदन किया. शुचिता के मातापिता को मेरी और अपनी बेटी की गहरी दोस्ती के बारे में मालूम था, सो एक रोज वह दोनों हमारे घर आए.

‘‘‘देखो ऋतिका, शुचि हमारी इकलौती बेटी है. हम ने रातदिन मेहनत कर के जो इतना बढ़िया नर्सिंग होम बनाया है या दौलत कमाई है इसीलिए कि हमारी बेटी हमेशा राजकुमारियों की तरह रहे. जतिन अच्छा लड़का है लेकिन उस की एक बंधीबधाई तनख्वाह रहेगी. वह एक डाक्टर जितना पैसा कभी नहीं कमा पाएगा और फिर हमारे इतनी लगन से बनाए नर्सिंग होम का क्या होगा? अपनी बेटी के रहते हम किसी दूसरे को कैसे गोद ले कर उसे सब सौंप दें? हम ने शुचि के लिए डाक्टर लड़का देखा हुआ है जो हर तरह से उस के उपयुक्त है और उस के साथ वह बहुत खुश रहेगी. तुम भी उसे जानती हो.’

‘‘‘कौन है, अंकल?’

‘‘‘तुम्हारा भाई कुणाल. उस के अमेरिका से एम.एस. कर के लौटते ही दोनों की शादी कर देंगे.’ ‘‘ ‘मैं ठगी सी रह गई. शुचिता मेरी भाभी बन कर हमेशा मेरे पास रहे इस से अच्छा और क्या होगा? जतिन तो आस्ट्रेलिया जाने को कटिबद्ध था.

‘‘‘आप ने यह बात छिपाई क्यों?’ मैं ने पूछा, ‘क्या पता भैया ने वहीं कोई और पसंद कर ली हो.’

‘‘‘उसे वहां इतनी फुरसत ही कहां है? और फिर मैं ने कुणाल और तुम्हारे मम्मीपापा को साफ बता दिया था कि मैं कुणाल को अमेरिका जाने में जो इतनी मदद कर रहा हूं उस की वजह क्या है. उन सब ने तभी रिश्ता मंजूर कर लिया था. तुम्हें बता कर क्या ढिंढोरा पीटना था?’

‘‘अब मैं उन्हें कैसे बताती कि मुझे न बताने से क्या अनर्थ हुआ है. तभी मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी. शुचिता के जिस अंधविश्वास का सहारा ले कर मैं ने उस का और जतिन का चक्कर चलवाया था, एक बार फिर उसी अंधविश्वास का सहारा ले कर उस चक्कर को खत्म भी कर सकती थी लेकिन अब यह इतना आसान नहीं था.

रजत कभी भी मेरी मदद करने को तैयार नहीं होता और अकेली मैं कहां साधु बाबा को खोजती फिरती? मैं ने शुचिता की मम्मी को सलाह दी कि वह शुचि के अंधविश्वास का फायदा क्यों नहीं उठातीं? उन्हें सलाह पसंद आई. कुछ रोज के बाद उन्होंने शुचिता से कहा कि वह उस की और जतिन की शादी करने को तैयार हैं मगर पहले दोनों की जन्मपत्री मिलवानी होगी. अगर कुछ गड़बड़ हुई तो ग्रह शांति की पूजा करा देंगे.

‘‘अंधविश्वासी शुचिता तुरंत मान गई. उस ने जबरदस्ती जतिन से उस की जन्मपत्री मंगवाई. मातापिता ने एक जानेमाने पंडित को शुचिता के सामने ही दोनों कुंडलियां दिखाईं. पंडितजी देखते ही ‘त्राहिमाम् त्राहिमाम्’ करने लगे. ‘‘‘इस कन्या से विवाह करने के कुछ ही समय बाद वर की मृत्यु हो जाएगी. कन्या के ग्रह वर पर भारी पड़ रहे हैं.’

‘‘‘उन्हें हलके यानी शांत करने का कोई उपाय जरूर होगा पंडितजी. वह बताइए न,’ शुचिता की मम्मी ने कहा. ‘‘ ‘ऐसे दुर्लभ उपाय जबानी तो याद होते नहीं, कई पोथियां देखनी होंगी.’

‘‘‘तो देखिए न, पंडितजी, और खर्च की कोई फिक्र मत कीजिए. अपनी बिटिया की खुशी के लिए आप जो पूजा या दान कहेंगे हम करेंगे.’

‘‘‘मगर पूजा से अमंगल टल जाएगा न पंडितजी?’ शुचिता ने पूछा.

‘‘‘शास्त्रों में तो यही लिखा है. नियति में लिखा बदलने का दावा मैं नहीं करता,’ पंडितजी टालने के स्वर में बोले.

‘‘‘ऐसा है बेटी. जैसे डाक्टर अपने इलाज की शतप्रतिशत गारंटी नहीं लेते वैसे ही यह पंडित लोग अपनी पूजा की गारंटी लेने से हिचकते हैं,’ शुचिता के पापा हंसे.

‘‘उस के बाद शुचिता ने कुछ और नहीं पूछा. अगली सुबह उस के कमरे से उस की लाश मिली. शुचिता ने अपनी कलाई की नस काट ली थी. उस ने अपने अंतिम पत्र में लिखा था कि पंडितजी की बात से साफ जाहिर है कि उस की जिंदगी में जतिन का साथ नहीं लिखा है, वह जतिन से बेहद प्यार करती है.

उस के बगैर जीने की कल्पना नहीं कर सकती और न ही उस का अहित चाहती है, सो आत्महत्या के सिवा उस के पास कोई और विकल्प नहीं है. ‘‘शुचिता की आत्महत्या के लिए उस के मातापिता स्वयं को अपराधी मानते हैं, मगर असली दोषी तो मैं हूं जिस की सलाह पर पहले एक नकली ज्योतिषी ने शुचिता का जतिन से प्रेम करवाया और मेरी सलाह से ही उस प्रेम संबंध को तोड़ने के लिए फिर एक झूठे ज्योतिषी का सहारा लिया गया.

‘‘शुचिता के मातापिता और उस से अथाह प्यार करने वाला जतिन तो जिंदा लाश बन ही चुके हैं. मगर मेरे कुणाल भैया, जो बचपन से शुचिता से मूक प्यार करते थे और जिस के कारण ही वह बजाय इंजीनियर बनने के डाक्टर बने थे, बुरी तरह टूट गए हैं और भारत लौटने से कतरा रहे हैं इसलिए मेरे मातापिता भी बहुत मायूस हैं. यही नहीं मेरे इस तरह क्षुब्ध रहने से रजत भी बेहद दुखी हैं. तुम ही बताओ श्रेया, इतना अनर्थ कर के, इतने लोगों को संत्रास दे कर मैं कैसे खुश रह सकती हूं या सलाहकार बनने की जुर्रत कर सकती हूं?’’

 

Mother’s Day 2024- कन्याऋण : कन्याऋण : क्या नेहा की शादी का फैसला सही साबित हुआ? – भाग 1

नेहा के ससुराल से लौट कर आने के बाद से ही मांजी बहुत दुखी और परेशान लग रही हैं. बारबार वह एक ही बात कहती हैं, ‘‘अनुभा बेटी, काश, मैं ने तुम्हारी बात मान ली होती तो आज मुझे यह दिन नहीं देखना पड़ता. तुम ने मुझे कितना समझाया था पर मैं अपने कन्याऋण से उऋण होने की लालसा में नेहा की जिंदगी से ही खिलवाड़ कर बैठी. अब तो अपनी गलती सुधारने की गुंजाइश भी नहीं रही.’’

अनुभा समझ नहीं पा रही थी कि मांजी को कैसे धीरज बंधाए. जब से उस ने नेहा को सुबहसुबह बाथरूम में उलटियां करते देखा उस का माथा ठनक गया था और आज जब डा. ममता ने उस के शक की पुष्टि कर दी तो लगता है अनर्थ ही हो गया.

डाक्टर के यहां से लौटने के बाद मांजी ने जब उस से पूछा तो उन की मानसिक अवस्था को देखते हुए वह उन से सच नहीं बोल पाई और यह कह दिया कि एसिडिटी के कारण नेहा को उलटियां हो रही थीं. लेकिन अनुभा को लगा था कि उस की सफाई से मांजी के चेहरे से शक और संदेह के बादल छंट नहीं पाए थे. उन्हें सच क्या है, इस का आभास हो गया था.

सहसा अनुभा की नजरें नेहा की ओर उठीं. वह सारी चिंताओं से अनजान अपनी गुडि़या से खेल रही थी. उस के साथ क्या हो रहा था और आगे क्या होगा? उस का जरा सा भी एहसास उसे नहीं था. अबोध नेहा को देख कर तो उस का मन यह सोच कर और भी खराब हो गया कि कैसे वह भविष्य में आने वाली मुश्किलों का सामना कर पाएगी.

यद्यपि नेहा उस की ननद है पर अनुभा ने सदैव उसे अपनी बेटी की तरह ही समझा है. जब शादी होने के बाद अनुभा ससुराल आई थी, उस समय नेहा 4 साल की रही होगी.

ससुराल आने पर अनुभा ने जब पहली बार नेहा को देखा, तभी उस के प्रति उस के मन में सहानुभूति और प्रेम जाग उठा था, क्योंकि मायके में उस के घर के पास ही मंदबुद्धि और मानसिक रूप से विकलांग बच्चों का एक स्कूल था. इस कारण ऐसे बच्चों के मनोभावों से उस का पूर्व परिचय रहा था. वह जानती थी कि नेहा का बौद्धिक और शैक्षणिक विकास आम बच्चों की तरह नहीं हो सकता इसलिए नेहा की सारी जिम्मेदारियां उस ने शुरू से ही अपने ऊपर ले ली थीं.

अनुभा ने नेहा को मानसिक रूप से अविकसित बच्चों के विशेष मनो- चिकित्सा केंद्र में प्रवेश भी दिलवाया था ताकि अपने समान बच्चों के बीच रह कर उस में किसी प्रकार की हीनभावना नहीं आ पाए. वह नेहा को घर पर भी उस की समझ के अनुसार कभी माला पिरोने, कभी पेंटिंग करने तो कभी घर के छोटेमोटे कामों में व्यस्त रखती थी.

नेहा को भी शुरू से ही अनुभा से गहरा लगाव हो गया था. वह हर समय भाभीभाभी कह कर उस के इर्दगिर्द घूमती रहती. जबकि नेहा की नासमझी की हरकतों से तंग आ कर कई बार मांजी अपना आपा खो कर उस पर हाथ उठा देतीं. उस के भाई तथा दूसरी भाभियां भी नेहा को बातबात में टोकते या डांटते रहते थे.

नेहा उम्र में जरूर बड़ी हो रही थी पर उस की बुद्धि और समझ तो 5-6 साल के बच्चे जितनी हो कर ठहर गई थी. घर में नेहा को किसी की भी डांट पड़ती तो वह भाग कर अनुभा के पास चली आती. वह कभी उसे प्यार से समझाती तो कभी गंभीर हो कर उस की गलती का एहसास करवाने का प्रयास करती.

नेहा 18 वर्ष की हो गई. उस की हमउम्र लड़कियों के जब शादीविवाह होने लगे तो वह भी कभीकभी बहुत भोलेपन से उस से पूछती, ‘भाभी, मेरा विवाह कब होगा? मेरा दूल्हा घोड़ी पर बैठ कर कब आएगा?’

वह नेहा को समझाती, ‘अभी तो तुम्हें पढ़लिख कर बहुत होशियार बनना है, फिर कहीं जा कर तुम्हारा विवाह होगा.’ नेहा उस के इस तरह समझाने पर संतुष्ट हो कर सबकुछ भूल कर खेलने में व्यस्त हो जाती पर नेहा के ऐसे सवाल उसे अकसर भविष्य की चिंता में डाल जाते.

एक दिन सास ने उस के पति नवीन के सामने नेहा के विवाह का प्रसंग छेड़ते हुए बताया कि उन की पड़ोसिन गोमती देवी ने अपने रिश्ते के चाचा के बेटे के लिए नेहा के रिश्ते की बात चलाई है. मांजी के मुंह से अचानक नेहा के विवाह की चर्चा सुन कर नवीन और अनुभा दोनों ही अवाक् रह गए.

नवीन ने कहा भी, ‘मां, नेहा जिस स्थिति में है, उस का विवाह करना क्या उचित होगा? दूसरे, क्या वे लोग नेहा के बारे में सबकुछ जानते हैं. यदि उन लोगों को अंधेरे में रख कर हम ने विवाह किया तो यह रिश्ता कितने दिन निभ पाएगा?’

नवीन की बातों को सुन कर मांजी एक बार तो गंभीर हो गईं, फिर कुछ सोच कर बोलीं, ‘बेटा, मैं ने गोमती देवी से सारी बात स्पष्ट करने के बाद ही तुम्हारे सामने इस रिश्ते की बात छेड़ी है. लड़के के एक पांव में पोलियो होने की वजह से वह बैसाखी से चलता है. उन लोगों ने इस संबंध को स्वीकार करने के बदले में 3 लाख रुपए नकद मांगे हैं, बाकी जो कुछ दहेज में हम नेहा को दें, वह हमारी इच्छा है. अब जब अपनी बेटी में ही कमी है तो हमें थोड़ा झुकना तो पडे़गा ही.’

मांबेटे की बातचीत सुन रही अनुभा अब स्वयं को रोक नहीं सकी और बोली, ‘मांजी, बीच में बोलने के लिए मैं क्षमा चाहूंगी पर मैं एक बात जरूर कहना चाहूंगी कि नेहा के विवाह का फैसला करने से पहले हमें एक बार सारी स्थितियों पर गंभीरता से विचार कर लेना चाहिए.’

‘सारी स्थितियों को स्पष्ट करने से तुम्हारा तात्पर्य क्या है बहू?’ मांजी ने उसे टोकते हुए पूछा.

‘मांजी, मेरे कहने का मतलब है कि दूसरों के बहलावे में आ कर हमें नेहा की शादी का फैसला नहीं करना चाहिए. मैं ने तो अपनी मौसी की लड़की को देखा है. उस की स्थिति भी कमोबेश नेहा जैसी ही थी. मेरी मौसी ने रुपयों का लालच दे कर एक गरीब घर के लड़के से अपनी बेटी का विवाह कर दिया पर शादी के 2 माह बाद ही उस के ससुराल वालों ने उसे यह कहते हुए वापस लौटा दिया कि उस कम दिमाग लड़की के साथ उन के बेटे का निभाव नहीं हो सकता. उन्होंने मेरी मौसी के रुपए भी हड़प लिए और उन की बेटी को भी वापस भेज दिया. मांजी, मुझे डर है कि हमारी नेहा के साथ भी ऐसा ही कुछ न घट जाए.’

विकराल शून्य : निशा की कौनसी बीमारी से बेखबर था सोम?

‘‘कैसी विडंबना है, हम पराए लोगों को तो धन्यवाद कहते हैं लेकिन उन को नहीं, जो करीब होते हैं, मांबाप, भाईबहन, पत्नी या पति,’’ अजय ने कहा.

‘‘उस की जरूरत भी क्या है? अपनों में इन औपचारिक शब्दों का क्या मतलब? अपनों में धन्यवाद की तलवार अपनत्व को काटती है, पराया बना देती है,’’ मैं ने अजय को जवाब दिया.

‘‘यहीं तो हम भूल कर जाते हैं, सोम. अपनों के बीच भी एक बारीक सी रेखा होती है, जिस के पार नहीं जाना चाहिए, न किसी को आने देना चाहिए. माना अपना इनसान जो भी हमारे लिए करता है वह हमारे अधिकार या उस के कर्तव्य की श्रेणी में आता है, फिर भी उस ने किया तो है न. जो मांबाप ने कर दिया उसी को अगर वे न करते या न कर पाते तो सोचो हमारा क्या होता?’’ अजय बोला.

अजय की गहरी बातें वास्तव में अपने में बहुत कुछ समाए रखती हैं. जब भी उस के पास बैठता हूं, बहुत कुछ नया ही सीख कर जाता हूं.

बड़े गौर से मैं अजय की बातें सुनता था जो अजय कहता था, गलत या फिजूल उस में तो कुछ भी नहीं होता था. सत्य है हमारा तो रोमरोम किसी न किसी का आभारी है. अकेला इनसान संपूर्ण कहां है? क्या पहचान है एक अकेले इनसान की? जन्म से ले कर बुढ़ापे तक मनुष्य किसी न किसी पर आश्रित ही तो रहता है न.

‘‘मेरी पत्नी सुबह से शाम तक बहुत कुछ करती है मेरे लिए, सुबह की चाय से ले कर रात के खाने तक, मेरे कपड़े, मेरा कमरा, मेरी व्यक्तिगत चीजों का खयाल, यहां तक कि मेरा मूड जरा सा भी खराब हो तो बारबार मनाना या किसी तरह मुझे हंसाना,’’ मैं अजय से बोला.

‘‘वही सब अगर वह न करे तो जीवन कैसा हो जाए, समझ सकते हो न. मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिन की बीवियां तिनका भी उठा कर इधरउधर नहीं करतीं. पति ही घर भी संभालता है और दफ्तर भी. पत्नी को धन्यवाद कहने में कैसी शर्म, यदि उस से कुछ मिला है तुम्हें? इस से आपस का स्नेह, आपस की ऊष्मा बढ़ती है, घटती नहीं,’’ अजय ने कहा.

सच ही कहा अजय ने. इनसान इतना तो समझदार है ही कि बेमन से किया कोई भी प्रयास झट से पहचान जाता है. हम भी तो पहचान जाते हैं न, जब कोई भावहीन शब्द हम पर बरसाता है.

उस दिन देर तक हम साथसाथ बैठे रहे. अपनी जीवनशैली और उस के तामझाम को निभाने के लिए ही मैं इस पार्टी में आया था, जहां सहसा अजय से मुलाकात हो गई थी. हमारी कंपनी के ही एक डाइरेक्टर ने पार्टी दी थी, जिस में मैं हाजिर हुए बिना नहीं रह सकता था. इसे व्यावसायिक मजबूरी कह लो या तहजीब का तकाजा, निभाना जरूरी था.

12 घंटे की नौकरी और छुट्टी पर भी कोई न कोई आयोजन, कैसे घर के लिए जरा सा समय निकालूं? निशा पहले तो शिकायत करती रही लेकिन अब उस ने कुछ भी कहनासुनना छोड़ दिया है. समूल सुखसुविधाओं के बावजूद वह खुश नजर नहीं आती. सुबह की चाय और रात की रोटी बस यही उस की जिम्मेदारी है. मेरा नाश्ता और दोपहर का खाना कंपनी के मैस में ही होता है. आखिर क्या कमी है हमारे घर में जो वह खुश नजर नहीं आती? दिन भर वह अकेली होती है, न कोई रोकटोक, न सासससुर का मुंह देखना, पूरी आजादी है निशा को. फिर भी हमारे बीच कुछ है, जो कम होता जा रहा है. कुछ ऐसा है जो पहले था अब नहीं है.

सुबह की चाय और अखबार वह मेरे पास छोड़ जाती है. जब नहा कर आता हूं, मेरे कपड़े पलंग पर मिलते हैं. उस के बाद यंत्रवत सा मेरा तैयार होना और चले जाना. जातेजाते एक मशीनी सा हाथ हिला कर बायबाय कर देना.

मैं पिछले कुछ समय से महसूस कर रहा हूं, अब निशा चुप रहती है. हां, कभी माथे पर शिकन हो तो पूछ लेती है, ‘‘क्या हुआ? क्या आफिस में कोई समस्या है?’’

‘‘नहीं,’’ जरा सा उत्तर होता है मेरा.

आज शनिवार की छुट्टी थी लेकिन पार्टी थी, सो यहां आना पड़ा. निशा साथ नहीं आती, उसे पसंद नहीं. एक छत के नीचे रहते हैं हम, फिर भी लगता है कोसों की दूरी है.

मैं पार्टी से लौट कर घर आया, चाबी लगा कर घर खोला. चुप्पी थी घर में. शायद निशा कहीं गई होगी. पानी अपने हाथ से पीना खला. चाय की इच्छा नहीं थी. बीच वाले कमरे में टीवी देखने बैठ गया. नजर बारबार मुख्य

द्वार की ओर उठने लगी. कहां रह गई यह लड़की? चिंता होने लगी मुझे. उठ कर बैडरूम में आया और निशा की अलमारी खोली. ऊपर वाले खाने में कुछ उपहार पड़े थे. जिज्ञासावश उठा लिए. समयसमय पर मैं ने ही उसे दिए थे. मेरा ही नाम लिखा था उन पर. स्तब्ध रह गया मैं. निशा ने उन्हें खोला तक नहीं था. महंगी साडि़यां, कुछ गहने. हजारों का सामान अनछुआ पड़ा था. क्षण भर को तो अपना अपमान लगा यह मुझे, लेकिन दूसरे ही क्षण लगा मेरी बेरुखी का इस से बड़ा प्रमाण और क्या होगा?

उपहार देने के बाद मैं ने उन्हें कब याद रखा. साड़ी सिर्फ दुकान में देखी थी, उसे निशा के तन पर देखना याद ही नहीं रहा. कान के बुंदे और गले का जड़ाऊ हार मैं ने निशा के तन पर सजा देखने की इच्छा कब जाहिर की? वक्त ही नहीं दे पाता हूं पत्नी को, जिस की भरपाई गहनों और कपड़ों से करता रहा था. जरा भी प्यार समाया होता इस सामान में तो मेरे मन में भी सजीसंवरी निशा देखने की इच्छा होती. मेरा प्यार और स्नेह ऊष्मारहित है. तभी तो न मुझे याद रहा और न ही निशा ने इन्हें खोल कर देखने की इच्छा महसूस की होगी. सब से पुराना तोहफा 4 महीनों पुराना है, जो निशा के जन्मदिन का उपहार था. मतलब यह कि पिछले 4 महीनों से यह सामान लावारिस की तरह उस की अलमारी में पड़ा है, जिसे खोल कर देखने तक की जरूरत निशा ने नहीं समझी.

यह तो मुझे समझ में आ गया कि निशा को गहनों और कपड़ों की भूख नहीं है और न ही वह मुझ से कोई उम्मीद करती है.

2 साल का वैवाहिक जीवन और साथ बिताया समय इतना कम, इतना गिनाचुना कि कुछ भी संजो नहीं पा रहा हूं, जिसे याद कर मैं यह विश्वास कर पाऊं कि हमारा वैवाहिक जीवन सुखमय है.

निशा की पूरी अलमारी देखी मैं ने. लाकर में वे सभी रुपए भी वैसे के वैसे ही पड़े थे. उस ने उन्हें भी हाथ नहीं लगाया था.

शाम के 6 बज गए. निशा लौटी नहीं थी. 3 घंटे से मैं घर पर बैठा उस का इंतजार कर रहा हूं. कहां ढूंढू उसे? इस अजनबी शहर में उस की जानपहचान भी तो कहीं नहीं है. कुछ समय पहले ही तो इस शहर में ट्रांसफर हुआ है.

करीब 7 बजे बाहर का दरवाजा खुला. बैडरूम के दरवाजे की ओट से ही मैं ने देखा, निशा ही थी. साथ था कोई पुरुष, जो सहारा दे रहा था निशा को.

‘‘बस, अब आप आराम कीजिए,’’

सोफे पर बैठा कर उस ने कुछ दवाइयां मेज पर रख दी थीं. वह दरवाजा बंद कर के चला गया और मैं जड़वत सा वहीं खड़ा रह गया. तो क्या निशा बीमार है? इतनी बीमार कि कोई पड़ोसी उस की सहायता कर रहा है और मुझे पता तक नहीं. शर्म आने लगी मुझे.

आंखें बंद कर चुपचाप सोफे से टेक लगाए बैठी थी निशा. उस की सांस बहुत तेज चल रही थी. मानो कहीं से भाग कर आई हो. मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी पास जाने की. शब्द कहां हैं मेरे पास जिन से बात शुरू करूंगा. पैसों का ढेर लगाता रहा निशा के सामने, लेकिन यह नहीं समझ पाया, रुपयापैसा किसी रिश्ते की जगह नहीं ले सकता.

‘‘क्या हुआ निशा?’’ पास आ कर मैं ने उस के माथे पर हाथ रखा. तेज बुखार था, जिस वजह से उस की आंखों से पानी भी बह रहा था. जबान खिंच गई मेरी. आत्मग्लानि का बोझ इतना था कि लग रहा था कि आजीवन आंखें न उठा पाऊंगा.

किसी गहरी खाई में जैसे मेरी चेतना धंसने लगी. अच्छी नौकरी, अच्छी तनख्वाह के साथ मेरा घर, मेरी गृहस्थी कहीं उजड़ने तो नहीं लगी? हंसतीखेलती यह लड़की ऐसी कब थी, जब मेरे साथ नहीं जुड़ी थी. मेरी ही इच्छा थी कि मुझे नौकरी वाली लड़की नहीं चाहिए. वैसी हो जो घर संभाले और मुझे संभाले. इस ने तो मुझे संभाला लेकिन क्या मैं इसे संभाल पाया?

‘‘आप कब आए?’’ कमजोर स्वर ने मुझे चौंकाया. अधखुली आंखों से मुझे देख रही थी निशा.

निशा का हाथ कस कर अपने हाथ में पकड़ लिया मैं ने. क्या उत्तर दूं, मैं कब आया.

‘‘चाय पिएंगे?’’ उठने का प्रयास किया निशा ने.

‘‘कब से बीमार हो?’’ मैं ने उठने से उसे रोक लिया.

‘‘कुछ दिन हो गए.’’

‘‘तुम्हारी सांस क्यों फूल रही है?’’

‘‘ऐसी हालत में कुछ औरतों को सांस की तकलीफ हो जाती है.’’

‘‘कैसी हालत?’’ मेरा प्रश्न विचित्र सा भाव ले आया निशा के चेहरे पर. वह मुसकराने लगी. ऐसी मुसकराहट, जो मुझे आरपार तक चीरती गई.

फिर रो पड़ी निशा. रोना और मुसकराना साथसाथ ऐसा दयनीय चित्र प्रस्तुत करने लगा मानो निशा पूर्णत: हार गई हो. जीवन में कुछ भी शेष नहीं बचा. डर लगने लगा मुझे. हांफतेहांफते निशा का रोना और हंसना ऐसा चित्र उभार रहा था मानो उसे अब मुझ से

कोई भी आशा नहीं रही. अपना हाथ खींच लिया निशा ने.

तभी द्वार घंटी बजी और विषय वहीं थम गया. मैं ही दरवाजा खोलने गया. सामने वही पुरुष खड़ा था, मेरी तरफ कुछ कागज बढ़ाता हुआ.

‘‘अच्छा हुआ, आप आ गए. आप की पत्नी की रिपोर्ट्स मेरी गाड़ी में ही छूट गई थीं. दवा समय से देते रहिए. इन की सांस बहुत फूल रही थी इसलिए मैं ही छोड़ने चला आया था.’’

अवाक था मैं. निशा को 4 महीने का गर्भ था और मुझे पता तक नहीं. कुछ घर छोड़ कर एक क्लीनिक था, जिस के डाक्टर साहब मेरे सामने खड़े थे. उन्होंने 1-2 कुशल स्त्री विशेषज्ञ डाक्टरों का पता मुझे दिया और जल्दी ही जरूरी टैस्ट करवा लेने को कह कर चले गए. जमीन निकल गई मेरे पैरों तले से. कैसा नाता है मेरा निशा से? वह कुछ सुनाना चाहती है तो मेरे पास सुनने का समय नहीं. तो फिर शादी क्यों की मैं ने, अगर पत्नी का सुखदुख भी नहीं पूछ सकता मैं.

चुपचाप आ कर बैठ गया मैं निशा के पास. मैं पिता बनने जा रहा हूं, यह सत्य अभीअभी पता चला है मुझे और मैं खुश भी नहीं हो पा रहा. कैसे आंखें मिलाऊं मैं निशा से? पिछले कुछ महीनों से कंपनी में इतना ज्यादा काम है कि सांस भी लेने की फुरसत नहीं है मुझे. निशा दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी और मैं ने एक बार भी पूछा नहीं, उसे क्या तकलीफ है.

निशा के विरोध के बावजूद मैं उसे उठा कर बिस्तर पर ले आया. देर तक ठंडे पानी की पट्टियां रखता रहा. करीब आधी रात को उस का बुखार उतरा. दूध और डबलरोटी ही खा कर गुजारा करना पड़ा उस रात, जबकि यह सत्य है, 2 साल के साथ में निशा ने कभी मुझे अच्छा खाना खिलाए बिना नहीं सुलाया.

सुबह मैं उठा तो निशा रसोई में व्यस्त थी. मैं लपक कर उस के पास गया. कुछ कह पाता, तब तक तटस्थ सी निशा ने सामने इशारा किया. चाय ट्रे में सजी थी.

‘‘यह क्या कर रही हो तुम? तुम तो बीमार हो,’’ मैं ने कहा.

‘‘बीमार तो मैं पिछले कई दिनों से हूं. आज नई बात क्या है?’’

‘‘देखो निशा, तुम ने एक बार भी मुझे नहीं बताया,’’ मैं ने कहा.

‘‘बताया था मैं ने लेकिन आप ने सुना ही नहीं. सोम, आप ने कहा था, मुझे इस घर में रोटीकपड़ा मिलता है न, क्या कमी है, जो बहाने बना कर आप को घर पर रोकना चाहती हूं. आप इतनी बड़ी कंपनी में काम करते हैं. क्या आप को और कोई काम नहीं है, जो हर पल पत्नी के बिस्तर में घुसे रहें? क्या मुझे आप की जरूरत सिर्फ बिस्तर में होती है? क्या मेरी वासना इतनी तीव्र है कि मैं चाहती हूं, आप दिनरात मेरे साथ वही सब करते रहें?’’ निशा बोलती चली गई.

काटो तो खून नहीं रहा मेरे शरीर में.

‘‘आप मुझे रोटीकपड़ा देते हैं, यह सच

है. लेकिन बदले में इतना बड़ा अपमान भी करें, क्या जरूरी है? सोम, आप भूल गए, पत्नी का भी मानसम्मान होता है. रोटीकपड़ा तो मेरे पिता के घर पर भी मिलता था मुझे. 2 रोटी तो कमा भी सकती हूं. क्या शादी का मतलब यह होता है कि पति को पत्नी का अपमान करने का अधिकार मिल जाता है?’’ निशा बिफर पड़ी.

याद आया, ऐसा ही हुआ था एक दिन. मैं ने ऐसा ही कहा था. इतनी ओछी बात पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकल गई थी. सच है, उस के बाद निशा ने मुझ से कुछ भी कहना छोड़ दिया था. जिस खबर पर मुझे खुश होना चाहिए था उसे बिना सुने ही मैं ने इतना सब कह दिया था, जो एक पत्नी की गरिमा पर प्रहार का ही काम करता.

निशा को बांहों में ले कर मैं रो पड़ा. कितनी कमजोर हो गई है निशा, मैं देख ही नहीं पाया. कैसे माफी मांगूं अपने कहे की. लाखों रुपए हर महीने कमाने वाला मैं इतना कंगाल हूं कि न अपने बच्चे के आने की खबर का स्वागत कर पाया और न ही शब्द ही जुटा पा रहा हूं कि पत्नी से माफी मांग सकूं.

पत्नी के मन में पति के लिए एक सम्मानजनक स्थान होता है, जिसे शायद मैं खो चुका हूं. लाख हवा में उड़ता रहूं, आना तो जमीन पर ही था मुझे, जहां निशा ने सदा शीतल छाया सा सुख दिया है मुझे.

मेरे हाथ हटा दिए निशा ने. उस के होंठों पर एक कड़वी सी मुसकराहट थी.

‘‘ऐसा क्या हुआ है मुझे, जो आप को रोना आ गया. आप रोटीकपड़ा देते हैं मुझे, बदले में संतान पाना तो आप का अधिकार है न. डाक्टर ने कहा है, कुछ औरतों को गर्भावस्था में सांस की तकलीफ हो जाती है. ठीक हो जाऊंगी मैं. आप की और घर की देखभाल में कोई कमी नहीं आएगी,’’ निशा ने कहा.

‘‘निशा, मुझ से गलती हो गई. मुझे माफ कर दो. पता नहीं क्यों मेरे मुंह से

वह सब निकल गया,’’ मैं निशा के आगे गिड़गिड़ाया.

‘‘सच ही आया होगा न जबान पर, इस में माफी मांगने की क्या जरूरत है? मैं जैसी हूं वैसी ही बताया आप ने.’’

‘‘तुम वैसी नहीं हो, निशा. तुम तो संसार की सब से अच्छी पत्नी हो. तुम्हारे बिना मेरा जीना मुश्किल हो जाएगा. अगर मैं अपनी कंपनी का सब से अच्छा अधिकारी हूं तो उस के पीछे तुम्हारी ही मेहनत और देखभाल है. यह सच है, मैं तुम्हें समय नहीं दे पाता लेकिन यह सच नहीं कि मैं तुम से प्यार नहीं करता. तुम्हें गहनों, कपड़ों की चाह होती तो मेरे दिए तोहफे यों ही नहीं पड़े होते अलमारी में. तुम मुझ से सिर्फ जरा सा समय, जरा सा प्यार चाहती हो, जो मैं नहीं दे पाता. मैं क्या करूं, निशा, शायद आज संसार का सब से बड़ा कंगाल भी मैं ही हूं, जिस की पत्नी खाली हाथ है, कुछ नहीं है जिस के पास. क्षमा कर दो मुझे. मैं तुम्हारी देखभाल नहीं कर पाया.’’ मैं रोने लगा था.

मुझे रोते देख कर निशा भी रोने लगी थी. रोने से उस की सांस फूलने लगी थी. निशा को कस कर छाती से लगा लिया मैं ने. इस पल निशा ने विरोध नहीं किया. मैं जानता हूं, मेरी निशा मुझ से ज्यादा नाराज नहीं रह पाएगी. मुझे अपना घर बचाने के लिए कुछ करना होगा. घर और बाहर में एक उचित तालमेल बनाना होगा, हर रिश्ते को उचित सम्मान देना होगा, वरना वह दिन दूर नहीं जब मेरे बैंक खातों में तो हर पल शून्य का इजाफा होगा ही, वहीं शून्य अपने विकराल रूप में मेरे जीवन में भी स्थापित हो जाएगा.

बिन फेरे हम तेरे: क्यों शादी के बाद भी अकेली रह गई नीतू

कहने और सुनने में कुछ अजीब लगता है, लेकिन यह भी एक सच्चा रिश्ता है, दिल का रिश्ता है. जब दिल से दिल जुड़ जाता है, तो चाहे हम साथसाथ न रहें, लेकिन हमें एकदूसरे की फिक्र होती है, एकदूसरे के प्रति लगाव होता है, इसी को प्यार कहा जाता है.

नीतू और सोहन का रिश्ता भी कुछ ऐसा ही है. उन्होंने शादी नहीं की और न ही साथसाथ रहते हैं, लेकिन एकदूसरे की फिक्र रहती है उन्हें, एकदूसरे का खयाल रखते हैं वे.

नीतू और सोहन को आज 20 साल हो गए हैं इस रिश्ते को निभाते हुए. कभी उन्होंने मर्यादा को नहीं तोड़ा है. दुखसुख में हमेशा एकदूसरे के साथ रहे. आज समाज भी उन को इज्जत की नजर से देखता है, क्योंकि सब जान गए हैं कि इन का रिश्ता तन का नहीं, मन का है. इन का रिश्ता दिखावा नहीं, बल्कि सच्चा है.

नीतू एक साधारण परिवार से थी. वह ज्यादा पढ़ीलिखी भी नहीं थी. बड़ी 2 बहनों की शादी हो गई थी. एक भाई भी था सूरज.

सूरज चाहता था कि पहले नीतू की शादी हो जाए, तब वह करेगा. हालांकि, वह नीतू से बड़ा था. अच्छा घरबार देख कर नीतू की शादी कर दी गई.

सूरज का एक बचपन का दोस्त था सोहन. सूरज के घर अकसर उस का आनाजाना होता था. वह नीतू को पसंद करता था और वह भी उसे मन ही मन चाहने लगी थी, लेकिन किसी में कहने की हिम्मत नहीं थी, क्योंकि सोहन उन की जाति का नहीं था और वे जानते थे कि उन की शादी नहीं हो सकती है. इस बात को न ही घर वाले और न ही गांव वाले स्वीकार करेंगे.

नीतू की ससुराल वालों का असली चेहरा तब नजर आया, जब वह शादी के बाद पग फेरे के लिए नहीं आ पाई, लेकिन जब वह कुछ दिनों के बाद आई, तो उस के चेहरे पर चोटों के निशान

देख कर उस के परिवार वाले दंग रह गए. नीतू ने बताया कि उन्होंने पैसों की  मांग की है.

इस तरह अकसर 10-15 दिनों के बाद नीतू अपनी ससुराल से मार खा कर आती और पैसे ले जाती.

सोहन का अकसर नीतू के गांव किसी न किसी काम से चक्कर लग जाता था. उसे नीतू की मार और पैसों के बारे में भी सब पता लग गया था.

सोहन ने सूरज से बहुत बार कहा, ‘‘सूरज, नीतू को घर वापस ले आ. वे लोग किसी दिन उसे मार देंगे. ऐसे लालची लोगों से क्या रिश्ता रखना…’’

लेकिन सूरज और उस का परिवार नहीं मानते थे. सूरज कहता, ‘‘गांव वाले क्या कहेंगे कि शादीशुदा लड़की को घर में बैठा लिया. तुम्हें तो पता है कि यहां गांव में ऐसा नहीं होता है.’’

एक दिन सोहन जब नीतू के गांव किसी काम से गया, तो न जाने उस के मन में क्यों बेचैनी हो रही थी. वह नीतू के घर चला गया. पहले भी वह सूरज के साथ कभीकभी चला जाता था उस के घर. जब वह वहां पहुंचा, तो वहां का मंजर देख कर उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई.

नीतू के तन के कपडे़ चीथड़े बन चुके थे और चोट लगने की वजह से उस के माथे से खून बह रहा था, लेकिन अभी भी उसे मारा जा रहा था और वह गिड़गिड़ा कर बारबार एक बात कह रही थी, ‘‘मेरा भाई इतने पैसे कहां से लाएगा.’’

‘‘हमें नहीं पता… जहां मरजी से लाओ… हमें तो पैसे चाहिए, वरना अपने घर वापस चली जाओ. हम ने कोई धर्मशाला नहीं खोल रखी है, जो तुम्हें खिलाते रहें…’’ उस की सास चिल्लाई.

सोहन यह मंजर देख कर बौखला गया और नीतू को अपने साथ ले आया. जब नीतू घर पहुंची और सोहन ने सारा किस्सा सूरज को बताया, लेकिन सूरज फिर से वही बात दोहराने लगा, ‘‘हम नीतू को इस घर में नहीं रख सकते. इस की अब शादी हो गई है. इस का जीनामरना अब वहीं पर है. जैसे लाए हो, वैसे ही इसे वापस छोड़ आओ.’’

सोहन नहीं माना और नीतू भी वापस उस नरक में नहीं जाना चाहती थी. सोहन ने नीतू से कहा, ‘‘मेरी अब शादी हो गई है, इसलिए अब हम शादी तो नहीं कर सकते, लेकिन मैं तुम्हें उस नरक में भी वापस नहीं जाने दूंगा.

‘‘शहर में मेरा एक दोस्त है. मैं तुम्हें उस के घर कुछ समय के लिए छोड़ दूंगा और थाने जा कर हम तेरी ससुराल वालों के खिलाफ केस भी करेंगे. तुझे उस से तलाक दिलवा कर तेरी दोबारा शादी करा दूंगा.’’

लेकिन नीतू अब दोबारा शादी नहीं करना चाहती थी. उस का मन तो अभी भी सोहन में बसा हुआ था. वह उसी की यादों के सहारे जिंदगी बिताना चाहती थी.

सोहन नीतू को शहर ले आया और अपने दोस्त के घर ठहरा दिया. उस का दोस्त सबइंस्पैक्टर था. उस के परिवार ने नीतू का बहुत खयाल रखा और उस की हर मुमकिन मदद भी की. नीतू को तलाक दिलवाया और उसे सिलाई का कोर्स भी करवाया.

सोहन ने उसे सिलाई मशीन खरीद कर दे दी, ताकि वह अपना खर्चा खुद उठा सके और किसी पर बोझ न बने. नीतू की खैरियत जानने के लिए वह समयसमय पर शहर आता रहता है. दुखसुख में भी वह हमेशा उस की मदद करता है.

नीतू अपने इस बेनाम रिश्ते से बंधी, बिन फेरों की बिन ब्याही दुलहन की तरह अपनी जिंदगी काट रही है, लेकिन वह खुश है अपने इस रिश्ते से. उन का यह पावन रिश्ता है. कोई कसमें नहीं, कोई वादे नहीं, फिर भी वे एकदूजे के हैं.

इमोशनल अत्याचार : खतरनाक मोड़ पर रक्षिता की जिंदगी

रक्षिता का सामाजिक बहिष्कार तो मानो हो ही चुका था. रहीसही कसर उस के दोस्त वरुण ने पूरी कर दी थी. रक्षिता को ऐसा लग रहा था कि वह जैसे कोई सपना देख रही हो. 20 दिनों में उस की जिंदगी तहसनहस हो चुकी थी.

20 दिनों पहले रक्षिता के पापा की हार्टअटैक से मौत हो चुकी थी. पापा की मौत के बाद भाई ने अपना असली रंग दिखा दिया. कहते हैं सफलता मिलने के बाद इंसान अपना असली रंग दिखाता है, लेकिन यहां तो दुख की घड़ी में भाई ने रक्षिता को अपना असली चेहरा दिखा दिया था.

अब क्या किया जाए. मां पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह चुकी थी. दादी की भी एक साल पहले मृत्यु हो गई थी. रक्षिता ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे.

रिश्तेदारों के सामने भाई ने हाथ नचा कर पुष्टि कर दी थी कि रक्षिता की वजह से ही पापा की मृत्यु हुई. बूआ, जो उसे बहुत मानती थीं, ने भी साफ कह दिया था, ‘ऐसी लड़की से वे कोई नाता नहीं रखना चाहतीं.’

उस के भाई ने उस से साफतौर पर कह दिया था, ‘अब घर वापस आने की जरूरत नहीं है. तुम्हारी शादी पर खर्च करने की मेरी कोई मंशा नहीं है.’ उस ने दिल्ली जाने का टिकट उस के हाथ में थमा दिया.

‘कोई बात नहीं, कम से कम वरुण तो साथ देगा ही. अब जब समस्या आ ही गई है तो समाधान भी ढूंढ़ना ही पड़ेगा,’ अपनी आंखें पोंछते हुए रक्षिता ने मन ही मन सोचा.

दिल्ली आ कर उस ने दोबारा औफिस जौइन कर लिया. रक्षिता ने वरुण से मिलने की काफी कोशिश की पर वरुण ने उस से दोबारा मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. रक्षिता ने सोचा कि हो सकता है वरुण औफिस के काम में बिजी हो.

एक दिन जब कैंटीन में रक्षिता की सपना से मुलाकात हुई तब उसे हकीकत मालूम हुई. सपना ने बताया, ‘‘रक्षिता, मैं तुम्हें एक बात बताना चाहती हूं. उम्मीद है कि तुम इसे हलके में नहीं लोगी.’’

‘‘पर बताओ तो सही बात क्या है,’’ रक्षिता परेशान होते हुए बोली.

‘‘वरुण कह रहा था कि तुम्हारे रोनेधोने की कहानियां सुनने का स्टेमिना उस में नहीं है.’’

यह सुनते ही रक्षिता के चेहरे की हवाइयां उड़ गईं. अब उसे मालूम हो गया था कि वरुण उस से कटाकटा सा क्यों रहता है. उस के प्यार ने ही तो उसे हिम्मत बंधाई थी. उसी के बलबूते उस ने अपने भाई की बातों का बहिष्कार किया था. उस से लड़ी थी, लेकिन अब तो सारी उम्मीदें चकनाचूर होती नजर आ रही थीं.

वरुण के प्यार में वह काफी आगे बढ़ चुकी थी.

पापा की मृत्यु ने उसे अंदर तक झकझोर दिया था. उस के बाद भाई ने और अब वरुण की बेवफाई ने उसे पूरी तरह तोड़ दिया था.

उस के मन में अब तरहतरह के खयाल आ रहे थे. अब क्या होगा. कौन शादी करेगा उस से. पापा की मृत्यु के बाद उन की नौकरी उस के भाई को मिल चुकी थी. घर और थोड़ीबहुत प्रौपर्टी पर भाई ने पहले ही अपना कब्जा जमा लिया था. रिश्तेदारों ने भी भाई का ही साथ दिया था. अब रक्षिता को पता चल गया था कि वह दुनिया में अकेली है. उस का संघर्ष सही माने में अब शुरू हुआ है.

पहली बार पता चला कि लड़के सामाजिक सुरक्षा, भावनात्मक सुरक्षा, रिश्तों की सुरक्षा के साथ पैदा होते हैं. खाली हाथ तो सिर्फ लड़कियां ही पैदा होती हैं.

लोग रक्षिता को लैक्चर देते कि तुम खुद सफल हो कर दिखाओ ताकि वरुण तुम्हें छोड़ने के निर्णय को ले कर पछताए. पर वह किसकिस को समझाए. ऐसा तो फिल्मों में ही संभव है. और रिश्तों की सुरक्षा के बिना वह कितना व क्या कर लेगी.

धीरेधीरे समय बीतने लगा और रक्षिता ने अब किसी प्राइवेट इंस्टिट्यूट में इवनिंग क्लासेस ले कर एलएलबी की पढ़ाई शुरू कर दी. उस ने सोचा कि एक डिगरी भी हो जाएगी और खाली समय भी आराम से कट जाएगा.

नीलेश से उस की वहीं मुलाकात हुई थी. लेकिन वह अब लड़कों से इतना उकता चुकी थी कि उन से बातें करने में भी कतराती थी. नीलेश एक अंगरेजी अखबार में काम करता था. एमबीए करने के बाद उस ने एक दैनिक न्यूजपेपर के विज्ञापन विभाग में नौकरी जौइन की थी. अब एलएलबी की पढ़ाई रक्षिता के साथ कर रहा था.

अब तक बेवकूफ बनी रक्षिता को इतनी समझ आ चुकी थी कि जिंदगी बिताने के लिए एक साथी की अहम जरूरत होती है और इस के लिए जरूरी नहीं कि उसे प्यार किया जाए. प्यार का दिखावा भी किया जा सकता है लेकिन फिर से दिल लगा बैठी तो पता नहीं कितनी तकलीफ होगी.

नीलेश से उस का मेलजोल इस कदर बढ़ा कि धीरेधीरे बात शादी तक पहुंच गई. दिखावा ही सही, पर रक्षिता ने शादी करने में देरी नहीं की. नीलेश की मां ने भी खुलेदिल से रक्षिता को स्वीकार किया. सब ने प्रेमविवाह होने के बावजूद उस का खूब स्वागत किया था और भरपूर प्यार दिया था. पर रक्षिता ने मन की गांठें नहीं खोलीं. उसे लगता था कि एक बार भावनात्मक रूप से जुड़ गई तो गई काम से.

उस के व्यवहार से ससुराल में सभी खुश थे. गलती से भी उस ने कोई कटु शब्द नहीं बोला था. उसे गुस्सा आता ही नहीं था. बातचीत वह बहुत ज्यादा नहीं करती थी. जब भी कोई किसी की बुराई शुरू करता तो वह वहां से खिसक जाती थी.

लेकिन उस की आंखें उस दिन खुलीं जब नीलेश की मां अपनी बहन को बता रही थी, ‘‘बड़ा शौक था मुझे अपनी बहू में बेटी ढूंढ़ने का. वह तो बिलकुल मशीन है. आज तक मैं उस की सास ही हूं, मां नहीं बन पाई.’’

यह सुन कर रक्षिता अपने इमोशंस रोक न सकी और उस पर हुए इमोशनल अत्याचार आंसू बन कर बहने लगे. आंसुओं के साथ बहुतकुछ बह रहा था.

निशि डाक: अंधेरी रात में किसने भूपेश को पुकारा

आज खेत से लौटने में रात हो गई थी. भूपेश ने इस बार अपने खेत में गेहूं की फसल बोई थी. आवारा जानवरों से फसल को उजड़ने से बचाना था, सो रातरातभर जाग कर रखवाली करनी पड़ती थी. बाड़ लगाने का भी कोई ज्यादा फायदा नहीं था, क्योंकि आवारा पशु उसे भी काट डालते थे. आज तो खेत में पानी भी लगाना था, सो भूपेश को लौटने में बहुत रात हो गई थी.

अगलबगल के खेतों वाले बाकी साथी भी चले गए थे. भूपेश को रात में अकेले ही लौटना पड़ा. घर पर मां इंतजार कर रही थी. रात सायंसायं कर रही थी. खेतोंखेतों होता हुआ भूपेश चला आ रहा था. पीपल, नीम, आम, बबूल के पेड़ों की छाया ऐसी लग रही थी जैसे प्रेतात्माएं आ कर खड़ी हो गई हों. बीचबीच में किसी पक्षी की आवाज सन्नाटे को चीर जाती थी. ‘ऐसी गहरी काली रात में ही अकेले आदमी को प्रेतात्माएं घेरने की कोशिश करती हैं. वे अकसर खूबसूरत औरत का वेश बना कर आती हैं और बड़ी ही मीठी आवाज में बुलाती हैं…

‘अम्मां कहती हैं कि अंधियारी रात में अगर कोई औरत मीठी आवाज में बुलाए तो पीछे मुड़ कर मत देखो, बस सीधे चलते चले जाओ.  ‘प्रेतात्मा 2 बार ही पुकारती है और अगर मुड़ कर देखो भी तो तीसरी आवाज पर मुड़ो, क्योंकि प्रेतात्मा तो  2 बार ही आवाज दे सकती है…’

अम्मां की इस सीख को याद करता हुआ भूपेश चला जा रहा था. नहर की मेंड़ के किनारे झाड़झंखाड़, मूंज और झरबेरी की झाड़ियां उगी हुई थीं. इन जगहों पर सांपबिच्छू, कीड़ेमकोड़े भी रहते थे.  भूपेश के मोबाइल फोन में टौर्च थी, जिस से वह रास्ता देखता जा रहा था. उस की भी बैटरी डिस्चार्ज हो जाने का खतरा था. अपने डर को काबू में करते हुए वह जल्दीजल्दी कदम बढ़ा रहा था.

‘‘क्या आप राजपुर गांव तक जा रहे हैं?’’ पीछे से एक मधुर आवाज आई. राजपुर भूपेश के गांव का ही नाम था. यह सुन कर उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं और चाल तेज हो गई. भूपेश को लगा कि निशि डाक यानी रात की आत्मा उसे आवाज दे रही है. अगर वह उस के चंगुल में फंस गया, तो निशि डाक उसे बंधक बना लेगी, उस के अंदर घुस जाएगी और फिर वह आत्मा का गुलाम बन जाएगा.

‘‘क्या आप राजपुर गांव तक जा रहे हैं?’’ फिर वही मधुर आवाज आई. ‘2 बार आवाज आ गई है. पीछे मुड़ कर नहीं देखना है…’ दिल की तेज धड़कनों के साथ भूपेश चलता जा  रहा था.  तीसरी बार फिर वही आवाज गूंजी, ‘‘क्या आप राजपुर गांव जा रहे हैं?’’

‘आत्मा तो बस 2 बार आवाज देती है. इस ने तीसरी बार भी आवाज दी है, तो इस का मतलब यह आत्मा नहीं है…’ भूपेश ने सोचा और डरतेडरते सिर घुमाया और टौर्च की रोशनी में देखा कि यह तो उसी के गांव की एक लड़की गौरी है… गांव के पंडितजी की बेटी. शहर जाती है. बीए की पढ़ाई कर रही है.

‘‘गौरी, तुम इतनी रात को कहां से आ रही हो?’’ डरी हुई आवाज में भूपेश ने पूछा. अभी उस का अपने डर और घबराहट पर काबू नहीं हुआ था. ‘‘आज मैं कालेज से देर में छूट पाई थी और फिर बस भी देर से मिली, इसी के चलते देर हो गई,’’ गौरी ने बताया. रास्ता तकरीबन कट ही चुका था.

भूपेश और गौरी हंसतेबतियाते घर आ गए थे. भूपेश और गौरी दोनों तकरीबन हमउम्र थे. बचपन में वे एक ही स्कूल में पढ़े थे. साथ खेले, लड़ेझगड़े थे, उन के बीच प्यार का बीज पिछली रात की आत्मा ने बो दिया था. भूपेश के पिता खेतीकिसानी करने वाले एक मेहनती इनसान थे. सामाजिक रूढि़यों और व्यवस्था के मुताबिक वे निचली जाति के कहे जाते थे. गौरी ब्राह्मण परिवार से थी. उस के पिता पंडित गंगाधर शास्त्री पीढि़यों से चला आ रहा पंडिताई का धंधा करते थे. आसपास के गांवों में भी उन का अच्छाखासा सम्मान था.

ग्रेजुएशन कर रहा भूपेश पढ़ाई के साथसाथ पिता की खेतीबारी में भी अपना पूरा योगदान देता था. वह बहुत मेहनती था. कुछ बन कर मातापिता को सुख देना चाहता था. छोटे भाई और बहन को भी पढ़ने और आगे बढ़ने का मौका मिले, यह उस की दिली तमन्ना थी.

‘‘कुछ पढ़तीलिखती भी हो या बस ऐसे ही मौजमस्ती करने जाती हो कालेज में?’’ एक दिन भूपेश ने गौरी को छेड़ा.  ‘‘अरे, अगर मैं फेल हो गई, तो पिताजी डिगरी भी पूरी नहीं करने देंगे… घर पर बिठा देंगे,’’ गौरी ने कहा, ‘‘और तुम्हारा क्या इरादा है… आगे क्या करोगे?’’ ‘‘ग्रेजुएशन की डिगरी ले कर फिर सरकारी नौकरी के लिए तैयारी करूंगा. अम्मांबाबूजी को कुछ बन कर दिखाना है. उन्होंने बहुत दुख उठाए हैं मेरे लिए,’’ भूपेश ने कहा.

कुछ समय के बाद भूपेश का रिजल्ट आ गया था. वह फर्स्ट डिवीजन में पास हो गया था और आगे की तैयारी के लिए इलाहाबाद जाने की सोच रहा था.  जब से गौरी को यह बात पता लगी थी, उस की भूखप्यास गायब हो गई थी.  ‘न जाने कब लौटेगा अब वह… तब तक तो पिता और भाई मेरा ब्याह कहीं और करवा देंगे…’ यही सब सोच कर गौरी को घबराहट होती थी.

‘‘तुम इलाहाबाद चले गए, तो पीछे से मेरे घर वाले मेरी शादी करा ही देंगे. वैसे भी मेरे पिता और भाई हमारी शादी को कभी राजी नहीं होंगे,’’ गौरी ने कहा. ‘‘तुम बस अपनी शादी मत होने देना. जब मैं अच्छी नौकरी पा लूंगा, फिर तुम्हारा हाथ मांगूंगा. तब तुम्हारे पिता मना नहीं कर पाएंगे,’’ भूपेश गौरी को दिलासा दे रहा था.

गौरी गांव में ही रह गई और भूपेश इलाहाबाद चला गया. गौरी को आज भी याद थी उस के बचपन की वह घटना, जब गांव के ही रूपेंद्र ठाकुर के परिवार ने अपने ही घर की बेटी को मार कर फांसी पर लटका दिया था, क्योंकि वह गांव के ही एक पासी लड़के से इस कदर दिल लगा बैठी थी कि उस के साथ भाग जाने को भी तैयार हो गई थी.  यह पता चलने पर उस के पिता और भाइयों ने ही उस का गला घोंट कर उसे फंदे से लटका दिया था और पुलिस को घूस दे कर मामला रफादफा करवा  दिया था. वह पासी लड़का और उस का पूरा परिवार ठाकुरों के डर से जान बचा कर गांव छोड़ कर भाग गया था और शहर में मजदूरी करने लगा था.

3 साल बीत गए थे. गौरी ने बीए कर लिया था. उस के लिए वर की तलाश जोरों पर थी. इस बीच भूपेश 1-2 दिन के लिए घर आता और चला जाता. उस ने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगा रखा था. परिवार वालों पर पैसे का बोझ न पड़े, इसलिए वह शहर में ट्यूशन पढ़ा कर अपने खर्चे पूरे करता था.

‘‘लो पंडितजी, मिठाई खाओ…’’ एक दिन भूपेश के पिता सारे गांव में लड्डू बांट रहे थे. खुशी उन के चेहरे से छलक रही थी.

‘‘क्या खुशखबरी है भूपेश के बापू?’’ पंडित गंगाधर शास्त्री ने हंस  कर पूछा.

‘‘भूपेश को डिगरी कालेज में पढ़ाने की नौकरी मिल गई है. शुरू में ही 60,000 रुपए महीना मिलेंगे. अपने गांव का पहला लड़का है, जो इतनी बड़ी पोस्ट पर पहुंचा है. अखबार में भी खबर छपी है,’’ बेटे की कामयाबी ने पिता की छाती गर्व से चौड़ी कर दी थी.

यह सुन कर पंडित गंगाधर शास्त्री के मन में जलन ने जन्म ले लिया. दिल से आह सी निकली. पर फिर मन ने यह भी माना कि भूपेश है भी मेहनती और लगनशील, इसीलिए इस मुकाम तक पहुंचा है, वरना उन के दोनों बेटों में से तो एक भी इंटर भी सही से पास नहीं कर पाया था. दोनों को मजबूरन अपने पंडिताई के धंधे में ही उतारना पड़ा था. गौरी ने भी यह खबर सुनी, तो उस के दिल में खुशी की एक लहर दौड़ गई. अब इंतजार था कि कब भूपेश घर वापस आएगा.

भविष्य क्या होगा, यह तो समय ही बताएगा, पर उम्मीद की एक लौ तो जली ही थी. आखिर वह दिन आ ही गया. भूपेश घर आया, तो उस के परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई. भूपेश अब गौरी के पिता से अपने रिश्ते की बात करने को बेताब था.

‘‘नमस्कार बाबूजी,’’ कहते हुए भूपेश ने पंडित गंगाधर शास्त्री के पैर छुए.

‘‘अरे, आओ भूपेश. बहुत अच्छी नौकरी लग गई है तुम्हारी. सारे गांव का नाम रोशन कर दिया तुम ने तो.’’ ‘‘सब आप के आशीर्वाद का ही फल है बाबूजी,’’ भूपेश ने कहा.

‘‘बहुत बढ़िया. ऐसे ही तरक्की करो जीवन में,’’ इस बार उन का आशीर्वाद दिल से निकला था.

‘‘बाबूजी, एक बात कहनी है आप से,’’ डरतेडरते भूपेश किसी तरह बोल पाया.

‘‘हां, बोलो बेटा… इस में पूछने की क्या बात है,’’ पंडितजी ने कहा.

‘‘अगर आप को मंजूर हो, तो मैं गौरी का हाथ आप से मांगना चाहता हूं. मैं उसे जीवन में कभी कोई दुख नहीं दूंगा,’’ भूपेश किसी तरह बोल पाया. सुनते ही पंडितजी सन्न रह गए. कुछ बोल न फूटे. उन्हें अंदाजा तो था कि गौरी और भूपेश में अच्छी बोलचाल है, पर वे दोनों शादी करना चाहते हैं, उन्होंने इतना नहीं सोचा था. पंडित गंगाधर शास्त्री की चुप्पी को उन की नाराजगी जान कर भूपेश चुपचाप वहां से चला गया. सब कशमकश में थे.

गौरी के दोनों भाई गुस्से से आगबबूला हो रहे थे. ‘‘उस हरामखोर की इतनी हिम्मत… नौकरी लग गई तो अपनी औकात भूल गया… हम से बराबरी करने लगा…’’ बड़ा बेटा कह रहा था.

‘‘आप कहो तो अभी हाथपैर तोड़ कर फेंक आएं…’’ छोटा बेटा हां में हां मिला रहा था. पंडितजी ने उन्हें शांत रहने को कहा. दोनों समझ नहीं पा रहे थे कि पिताजी को क्या हो गया है. एक नीची जाति के लड़के की इतनी हिम्मत कि ब्राह्मणों की बेटी का हाथ मांगे. वे दोनों अपनी बहन को भी कोस रहे थे.

पंडितजी ऊहापोह में थे. ब्राह्मण थे, पर वे एक पढ़ेलिखे और प्रैक्टिकल इनसान भी थे. वे भूपेश की पढ़ाईलिखाई, उस की कामयाबी से खुश थे और उन की बेटी उस के साथ सुखी रहेगी, इस का भी उन्हें यकीन था.  उन की आंखों पर धर्मांधता का परदा नहीं चढ़ा था. उन के दोनों बेटे, जो फुजूल के तेवर दिखा रहे थे, उस का उन्हें एहसास था. उन्होंने भूपेश को अपने पिता के साथ खेतों में मेहनत करते, पीठ पर भारी वजन लादे हुए अनाज ढोते हुए और पढ़ाई करते हुए देखा था.

दिन बीत रहे थे. भूपेश के जाने का दिन आ गया था. जाते समय वह हिम्मत जुटा कर पंडित गंगाधर शास्त्री के पैर छूने गया. ‘‘जा रहा हूं बाबूजी,’’ कह कर वह पंडितजी के पैर छूने के लिए झुका. ‘‘जाओ बेटा, अपना काम मन लगा कर करना. शिक्षा देना एक महान और पवित्र काम है. कभी अपने कर्तव्य से मुंह मत मोड़ना,’’ पंडितजी ने अपना आशीर्वाद दिया और आगे कहा,

‘‘तुम्हारी और गौरी की शादी की बात हम तुम्हारे मातापिता के साथ मिल कर तय कर लेंगे.’’ यह सुन कर भूपेश खुश हो गया था. सब मुरझाए फूल खिल गए थे. खेतों में सरसों फूल रही थी. वसंत आ गया था. निशि डाक यानी रात की आत्मा से शुरू हुई कहानी अपने मुकाम पर पहुंच गई थी.

समझौता: रामेश्वर ने अपने हक से किया समझौता

‘‘क्या करूं, वह मेरी बचपन की सहेली है,’’ अनसुना करते हुए दुर्गा बोली.

‘‘देख दुर्गा, आखिरी बार कह रहा हूं कि अब तू मानमल की लुगाई से कभी नहीं मिलेगी…’’ एक बार फिर समझाते हुए रामेश्वर बोला, ‘‘बोलती है और कभीकभार हलवापूरी भी भिजवा देती है. बड़ा प्रेम दिखाने लगी है आजकल उस से.’’

‘‘अरे, मनुष्य योनि में जन्म लिया है तो प्रेम से रहना चाहिए,’’ दुर्गा एक बार फिर समझाते हुए बोली.

‘‘बड़ी आई प्रेम दिखाने वाली…’’ गुस्से से रामेश्वर बोला, ‘‘वहां उस का प्रेम कहां गया था, जब मानमल ने अपना रास्ता बंद किया? हम ने थाने में रपट लिखवा दी. अदालत में पेशी चल रही है. वह हमारा दुश्मन है, फिर भी उन से प्रेम जताती है.’’

‘‘देखो, वह अदालती दुश्मनी है…’’ समझाते हुए दुर्गा बोली, ‘‘यह क्यों नहीं समझते कि वह पैसे वाला है. हम से ऊंची जात का भी है.’’

‘‘हम से ऊंची जात का हुआ तो क्या हुआ. क्या हम ढोर हैं. देख दुर्गा, कान खोल कर अच्छी तरह सुन ले. अब तू उस दुश्मन की औरत से नहीं बोलेगी और न ही मिलेगी.’’

‘‘झगड़ा तुम्हारा मानमल से है, उस की औरत से तो नहीं है,’’ दुर्गा बोली.

‘‘मानमल और उस की लुगाई क्या अलगअलग हैं?’’ गुस्से से रामेश्वर बोला, ‘‘है तो उस की लुगाई.’’

‘‘झगड़ा झगड़े की जगह होता है. तुम मत बोलो, मैं तो बोलूंगी.’’

‘‘रस्सी जल गई, मगर ऐंठन नहीं गई,’’ रामेश्वर गुस्से से बोला.

‘‘तुम एक बात कान खोल कर सुन लो. तुम्हारा लाड़ला मांगीलाल, जो 12वीं में पढ़ रहा है और मानमल का लड़का भी 12वीं जमात में मांगीलाल के साथ पढ़ रहा है. दोनों में गहरी दोस्ती है. वे साथसाथ स्कूल जाते हैं और आते भी हैं. मुझे तो रोक लोगे, उसे कैसे रोकोगे?’’

‘‘अरे, तुम मांबेटे दोनों मिल कर दुश्मन से कहीं मुकदमे को हरवा न दो,’’ शक जाहिर करते हुए रामेश्वर बोला.

‘‘जैसा तुम सोच रहे हो मांगीलाल के बापू, वैसा नहीं है. हम में मुकदमे संबंधी कोई बात नहीं होती…’’ एक बार फिर दुर्गा बोली, ‘‘हमारे बीच घरेलू बातें

ही होती हैं.’’

‘‘मतलब, तुम उस से मिलनाजुलना बंद नहीं करोगी?’’ रामेश्वर ने पूछा और कहा, ‘‘जैसी तेरी मरजी. अब मैं कुछ भी नहीं कहूंगा.’’

इस के बाद रामेश्वर झल्लाते हुए घर से बाहर निकल गया.

यह कहानी जिस गांव की है उस गांव का नाम है रिंगनोद जो पिंगला नदी के किनारे बसा हुआ है. एक जमाना था जब यह नदी 12 महीने बहती रहती थी. उस जमाने में इस नदी में पुल नहीं बना हुआ था, इसलिए शहर जाने के लिए नदी में से हो कर जाना पड़ता था. मगर आज तो यह नदी गरमी आतेआते सूख जाती है. अब तो इस के ऊपर बड़ा पुल बन गया है, तो गांव शहर से पूरी तरह जुड़ गया है.

इसी गांव के रहने वाला रामेश्वर जाति से अनुसूचित है और मानमल बनिया है. उस की गांव में किराने की दुकान के साथ खेती भी है. वह ज्यादा पैसे वाला है, इसलिए अच्छा दबदबा है. रामेश्वर के पास केवल खेती है.

वह इसी पर ही निर्भर है. बापदादा के जमाने से दोनों के खेत असावती रोड पर पासपास हैं. जावरा से सीतामऊ तक कंक्रीट की रोड बन गई है, जो उन के खेत के पास से ही निकली है. इसी सड़क से लगा हुआ एक रास्ता है, जो दोनों की सुविधा के लिए था. दोनों का अपने खेत पर जाने के लिए यही एक रास्ता था.

रामेश्वर के खेत थोड़े से अंदर थे और मानमल के खेत सड़क से लगे हुए थे. उस रास्ते को ले कर अभी तक दोनों में कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ, मगर जब से पक्का रोड बना है, तब से मानमल के भीतर खोट आ गया. वह अपनी जमीन पर होटल खोलना चाहता था. अगर वह दीवार बना कर निकलने का गलियारा देता, जो होटल के लिए कम जमीन पड़ती इसलिए उस ने अपनी दबंगता के बल पर जहां से रामेश्वर के खेत शुरू होते हैं, वहां रातोंरात दीवार खिंचवा दी.

रामेश्वर ने एतराज किया कि इस जमीन पर उस का भी हक है. बापदादा के जमाने से यह रास्ता बना हुआ है. मगर मानमल बोला था, ‘‘देख रामेश्वर, यह सारी जमीन मेरी है.’’

‘‘तेरी कैसे हो गई भई?’’ रामेश्वर ने पूछा.

‘‘मेरी जमीन सड़क से शुरू होती है और जो सड़क से शुरू हुई वह मेरी हुई न,’’ मानमल ने कहा.

‘‘मगर, मैं अब कहां से निकलूंगा?’’

‘‘यह तुझे सोचना है. अरे, बापदादा ने गलती की तो इस की सजा क्या मैं भुगतूंगा?’’

‘‘देखो मानमलजी, आप बड़े लोग हो. मैं आप से जरा नीचा हूं. इस का यह मतलब नहीं है कि नाजायज कब्जा कर लें.’’

‘‘अरे, आप की जमीन है तो

कागज दिखाओ? मेरी तो यहां दीवार बनेगी.’’

‘‘मैं दीवार नहीं बनने दूंगा,’’ विरोध जताते हुए रामेश्वर बोला.

‘‘कैसे नहीं बनने देगा. जमीन मेरी है. इस पर चाहे मैं कुछ भी करूं, तुम कौन होते हो मुझे रोकने वाले?’’

‘‘मतलब, तुम दीवार बनाओगे और मेरा रास्ता रोकोगे?’’

‘‘पटवारी ने भी इस जमीन का मालिक मुझे बना रखा है.’’

‘‘देखो, मैं आखिरी बार कह रहा हूं, तुम यहां दीवार मत बनाओ.’’

‘‘मैं तो दीवार बनाऊंगा… तुझ से जो हो कर ले.’’

‘‘ठीक है, मैं तुझे कोर्ट तक खींच कर ले जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है, ले जा.’’

फिर मानमल के खिलाफ रामेश्वर ने थाने में शिकायत दर्ज कर दी. पुलिस ने चालान बना कर कोर्ट में पेश कर दिया. कोर्ट ने फैसला आने तक जैसे हालात थे, वैसे रहने का आदेश दिया.

पुलिस ने मुकदमा कायम कर दिया. पूरे 5 साल हो गए, पर कोई फैसला न हो पाया. तारीख पर तारीख बढ़ती गई. दोनों परिवारों में पैसा खर्च होता रहा.

रामेश्वर इस मुकदमे से टूट गया. पैसा अलग खर्च हो रहा था और मानमल फैसला जल्दी न मिले, इसलिए पैसे दे कर तारीखें आगे बढ़वाता रहा ताकि रामेश्वर टूट जाए और मुकदमा हार जाए.

मगर रामेश्वर की जोरू दुर्गा मानमल की लुगाई से संबंध बढ़ा रही है. उस के घर भी काफी आनाजाना करती है. कभीकभार मिठाइयां भी खिला रही है, जबकि रामेश्वर और मानमल एकदूसरे को देखना भी पसंद नहीं करते थे, बल्कि कोर्ट में जब भी तारीख लगती थी और मानमल से उस का सामना होता था, तब मानमल उसे देख कर हंसता था. यह जताने की कोशिश करता था कि मुकदमा लड़ने की हैसियत नहीं है, फिर भी लड़ रहा है.

मुकदमा तो वे ही लड़ सकते हैं, जिन के पास पैसों की ताकत है.10 साल तक अगर और मुकदमा चलेगा तो जमीन बिक जाएगी. मुकदमा लड़ना हंसीखेल नहीं है. मानमल तो चाहता है कि रामेश्वर बरबाद हो जाए.

5 साल के मुकदमे ने रामेश्वर की कमर तोड़ दी. अब भी न जाने कितने साल तक चलेगा. वकील का घर भरना है. वह तो केवल खेती के ऊपर निर्भर है, जबकि मानमल के किराने की दुकान भी अच्छी चल रही है और भी न जाने क्याक्या धंधा कर रहा है. खेती भी उस से ज्यादा है, इसलिए मुकदमे के फैसले से वह निश्चिंत है.

मगर, रामेश्वर जब भी तारीख पर जाता है, तारीख आगे बढ़ जाती है और जब तारीख आगे बढ़ जाती है, तब मानमल मन ही मन हंसता है. उस की हंसी में बहुत ही गहरा तंज छिपा हुआ रहता है.

‘‘चाय पी लो,’’ दुर्गा चाय का कप लिए खड़ी थी. तब रामेश्वर अपनी सोच से बाहर निकला.

‘‘क्या सोच रहे थे?’’ दुर्गा ने पूछा.

‘‘इस मुकदमे के बारे में?’’ हारे हुए जुआरी की तरह रामेश्वर ने जवाब दिया.

‘‘बस सोचते रहना, पहले ही कोई समझौता कर लेते, तब ये दिन देखने को नहीं मिलते,’’ दुर्गा ने कहा.

रामेश्वर नाराज हो कर बोला, ‘‘तुम जले पर नमक छिड़क रही हो? एक तो मैं इस मुकदमे से टूट गया हूं, फिर न जाने कब फैसला होगा. मानमल पैसा दे कर तारीख पर तारीख बढ़ाता जा रहा है और तुझे मजाक सूझ रहा है.’’

‘‘मेरा यह मतलब नहीं था,’’ दुर्गा ने सफाई दी.

‘‘तब क्या मतलब था तेरा? एक तो दुश्मन की औरत से बोलती हो… कितनी बार कहा है कि तुम उस से संबंध

मत बनाओ, मगर मेरी एक भी नहीं सुनती हो.’’

‘‘देखोजी, उस से संबंध बनाने से मेरा भी लालच है.’’

‘‘क्या लालच है?’’

‘‘जैसे आप टूट रहे हो न, वैसे मानमल भी चाहता है कि कोई बीच का रास्ता निकल जाए.’’

‘‘तुझे कैसे मालूम?’’

‘‘मानमल की जोरू बताती रहती है,’’ दुर्गा बोली.

‘‘समझौता क्यों नहीं कर

लेता है? रास्ता क्यों बंद कर

रहा है?’’

‘‘वह रास्ता देने को

तैयार है.’’

‘‘जब वह देने को तैयार है, तब तारीखें क्यों बढ़वाता है? यह तो वही हुआ कि आप खावे काकड़ी और दूसरे को दे आकड़ी,’’ नाराजगी से रामेश्वर बोला.

‘‘आप कहें तो मैं उस की जोरू से बात कर के देखती हूं,’’ दुर्गा ने रामेश्वर को सलाह दी.

‘‘कोई जरूरत नहीं है उस से बात करने की. अब तो अदालत से ही फैसला होगा…’’ इनकार करते हुए रामेश्वर बोला, ‘‘तू औरत जात ठहरी. मानमल की चाल को तू क्या समझे.’’

‘‘ठीक है तो लड़ो मुकदमा और वकीलों का भरो पेट,’’ दुर्गा ने कहा, फिर उन के बीच सन्नाटा पसर गया.

रामेश्वर इसलिए नाराज है कि दुर्गा अपने दुश्मन की जोरू से पारिवारिक संबंध बनाए हुए है. दुर्गा इसलिए नाराज है कि हर झगड़ा अदालत से नहीं निबटा जा सकता है. थोड़ा तुम झुको, थोड़ा वह झुके. मगर मांगीलाल के पापा तो जरा भी झुकने को तैयार नहीं हैं.

मगर इसी बीच एक घटना घट गई.

मानमल और उस की पत्नी का अचानक उन के घर आना.

मानमल की जोरू बोली, ‘‘दुर्गा, हम इसलिए आए हैं कि हम दोनों जमीन

के जिस टुकड़े के लिए अदालत में

लड़ रहे हैं, उस का फैसला तो न जाने कब होगा.’’

‘‘हां बहन,’’ दुर्गा भी हां में हां मिलाते हुए बोली, ‘‘अदालत में सालों लग जाते हैं फैसला होने में.’’

‘‘भाई रामेश्वर, हम आपस में मिल कर ऐसा समझौता कर लें कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे,’’ मानमल समझाते हुए बोला.

‘‘कैसा समझौता? मैं समझा नहीं,’’ रामेश्वर नाराजगी से बोला.

‘‘तुम नाराज मत होना. मैं ने बहुत सोचसमझ कर यह फैसला लिया है कि तुम्हें 5 फुट जमीन का गलियारा देता हूं ताकि तुम्हें अपने खेत में आनेजाने के लिए कोई तकलीफ न पड़े…’’ समझाते हुए मानमल बोला, ‘‘मैं 5 फुट छोड़ कर दीवार बना लेता हूं.’’

‘‘वाह मानमलजी, वाह, खूब फैसला लिया. मुझे इतना बेवकूफ समझ लिया कि बाकी की 10 फुट जमीन खुद रख रहे हो. मुझे आधी जमीन चाहिए,’’ रामेश्वर भी गुस्से से अड़ गया.

‘‘देखो नाराज मत होना. जिस जमीन के लिए तुम अदालत में लड़ रहे हो. अदालत देर से सही मगर फैसला मेरे पक्ष में देगी. मैं ने सारे सुबूत लगा रखे हैं, जबकि मैं अपनी मरजी से तुम्हें गलियारा दे रहा हूं, इसलिए ले लो वरना बाद में पछताना न पड़े.’’

‘‘देखोजी, इतना भी मत सोचो, कोर्ट का फैसला तो न जाने कब आएगा. अगर हमारे खिलाफ आएगा, तब हमें 5 फुट जमीन से भी हाथ धोना पड़ेगा,’’

दुर्गा समझाते हुए बोली.

‘‘हां भाई साहब, मत सोचो, जो हम दे रहे हैं वह कबूल कर लो…’’ मानमल की पत्नी ने प्रस्ताव रखते हुए कहा, ‘‘हम तो आप की भलाई की बात कर रहे हैं ताकि हमारे बीच अदालत का फैसला खत्म हो जाए.’’

‘‘मैं फायदे का सौदा कर रहा हूं रामेश्वर,’’ एक बार फिर समझाते हुए मानमल बोला, ‘‘इस के बावजूद तुम्हें लगे कि कोर्ट के फैसले तक इंतजार करूं, तब भी मुझे कोई एतराज नहीं है,’’ कह कर मानमल ने गेंद रामेश्वर के पाले में फेंक दी.

रामेश्वर के लिए इधर खाई उधर कुआं थी. शायद मानमल को यह एहसास हो गया हो कि 15 फुट जमीन, जिस के लिए सारी लड़ाई है, वह खुद ही हार रहा हो, इसलिए फैसला आए उस के पहले ही यह समझौता कर रहा है. बड़ा चालाक है मानमल. यह इस तरह कभी हार मानने वाला नहीं है.

लगता है कि अपनी हार देख कर ही यह फैसला लिया हो. वह कचहरी के चक्कर काटतेकाटते हार गया है. इस ने अपनी जमीन पर होटल बना लिया है. जो चल भी रहा है. इस ने कहा भी है कि इस तरफ दीवार खींच कर पूरा इंतजाम करना चाहता है. तभी तो समझौता करने के लिए आगे आया है. इस में भी इस का लालच है.

उसे चुप देख कर मानमल एक बार फिर बोला, ‘‘अब क्या सोच रहे हो?’’

‘‘ठीक है, मुझे यह समझौता मंजूर है. यह घूंट भी पी लेता हूं,’’ कह कर रामेश्वर ने अपने हथियार डाल दिए.

यह सुन कर मानमल खुशी से खिल उठा. उस ने रामेश्वर को गले से लगा लिया. फिर उन दोनों ने यह भी फैसला लिया कि अगली तारीख पर कोर्ट से मुकदमा वापस ले लेंगे. कोर्ट से दोनों के समझौते के मुताबिक कागज ले लेंगे. इस के बाद वे दोनों चले गए.

चुप्पी तोड़ते हुई दुर्गा बोली, ‘‘अच्छा हुआ जो समझौता कर लिया?’’

‘‘मानमल की गरज थी तो उस ने समझौता किया है?’’ चिढ़ कर रामेश्वर बोला.

‘‘उस की तो पूरी की पूरी जमीन हड़पने की योजना थी. मगर, यह सब मैं ने मानमल की बीवी को समझाया था.

‘‘उस ने ही मानमल को मनाया था. इसी वजह से मैं ने संबंध बनाए थे, आप के लाख मना करने के बाद भी. 5 फुट का गलियारा देने के लिए मैं ने ही मानमल की बीवी के सामने प्रस्ताव रखा था,’’ कह कर दुर्गा ने अपनी बात पूरी कर दी. रामेश्वर कोई जवाब नहीं दे पाया.  द्य

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