गलत फैसला : बदल गई सुखराम की जिंदगी

रौयल स्काई टावर को बनते हुए 2 साल हो गए. आज यह टावर शहर के सब से ऊंचे टावर के रूप में खड़ा है. सब से ऊंचा इसलिए कि आगरा शहर में यही एक 22 मंजिला इमारत है. जब से यह टावर बन रहा है, हजारों मजदूरों के लिए रोजीरोटी का इंतजाम हुआ है. इस टावर के पास ही मजदूरों के रहने के लिए बनी हैं  झोपडि़यां.

इन्हीं  झोंपडि़यों में से एक में रहता है सुखराम अपनी पत्नी चंदा के साथ. सुखराम और चंदा का ब्याह 2 साल पहले ही हुआ था. शादी के बाद ही उन्हें मजदूरी के लिए आगरा आना पड़ा. वे इस टावर में सुबह से शाम तक साथसाथ काम करते थे और शाम से सुबह तक का समय अपनी  झोंपड़ी में साथसाथ ही बिताते थे. इस तरह एक साल सब ठीकठाक चलता रहा.

एक दिन चंदा के गांव से चिट्ठी आई. चिट्ठी में लिखा था कि चंदा के एकलौते भाई पप्पू को कैंसर हो गया है और उन के पास इलाज के लिए पैसे का कोई इंतजाम नहीं है.

सुखराम को लगा कि ऐसे समय में चंदा के भाई का इलाज उस की जिम्मेदारी है, पर पैसा तो उस के पास भी नहीं था, इसलिए उस ने यह बात अपने साथी हरिया को बता कर उस से सलाह ली.

हरिया ने कहा, ‘‘देखो सुखराम, गांव में तुम्हारे पास घर तो है ही, क्यों न घर को गिरवी रख कर बैंक से लोन ले लो. बैंक से लोन इसलिए कि घर भी सुरक्षित रहेगा और बहुत ज्यादा मुश्किल का सामना भी नहीं करना पड़ेगा.’’

कहते हैं कि बुरा समय जब दस्तक देता है, इनसान भलेबुरे की पहचान नहीं कर पाता. यही सुखराम के साथ हुआ. उस ने हरिया की बात पर ध्यान न दे कर यह बात ठेकेदार लाखन को बताई.

लाखन ने उस से कहा, ‘‘क्यों चिंता करता है सुखराम, 20,000 रुपए भी चाहिए तो ले जा.’’

सुखराम ने चंदा को बिना बताए  लाखन से 20,000 रुपए ले लिए और चंदा के भाई का इलाज शुरू हो गया.

चंदा सम झ नहीं पा रही थी कि इतना पैसा आया कहां से, इसलिए उस ने पूछा, ‘‘इतना पैसा आप कहां से लाए?’’

तब सुखराम ने लाखन का गुणगान किया. जब कुछ दिनों बाद पप्पू चल बसा, तो उस के अंतिम संस्कार का इंतजाम भी सुखराम ने ही किया.

इस घटना के कुछ ही दिनों के बाद सुखराम की मां भी चल बसीं. वे गांव में अकेली रहती थीं, इसलिए पड़ोसी ही मां का सहारा थे. पड़ोसियों ने सुखराम को सूचित किया.

सुखराम चंदा के साथ गांव लौटा और मां का अंतिम संस्कार किया.  जिंदगीभर गांव में खाया जो था, इसलिए खिलाना भी जरूरी समझा.

मकान सरपंच को महज 15,000 रुपए में बेच दिया. तेरहवीं कर के आगरा लौटने तक सुखराम के सभी रुपए खर्च हो चुके थे, क्योंकि गांव में मां का भी बहुत लेनदेन था.

इतिहास गवाह है कि चक्रव्यूह में घुसना तो आसान होता है, पर उस में से बाहर निकलना बहुत मुश्किल. जिंदगी के इस चक्रव्यूह में सुखराम भी बुरी तरह फंस चुका था. जैसे ही वह आगरा लौटा, शाम होते ही लाखन शराब की बोतल हाथ में लिए चला आया.

वह सुखराम से बोला, ‘‘सुखराम, मु झे अपना पैसा आज ही चाहिए और अभी…’’

सुखराम ने उसे अपनी मजबूरी बताई. वह गिड़गिड़ाया, पर लाखन पर इस का कोई असर नहीं हुआ. वह बोला, ‘‘तुम्हारी परेशानी तुम जानो, मु झे तो मेरा पैसा चाहिए. जब मैं ने तुम्हें पैसा दिया है, तो मु झे वापस भी चाहिए और वह भी आज ही.’’

सुखराम और चंदा की सम झ में कुछ नहीं आ रहा था. वे उस के सामने मिन्नतें करने लगे.

लाखन ने कुटिलता के साथ चंदा की ओर देखा और बोला, ‘‘ठीक है सुखराम, मैं तु झे कर्ज चुकाने की मोहलत तो दे सकता हूं, लेकिन मेरी भी एक शर्त है. हफ्ते में एक बार तुम मेरे साथ शराब पियोगे और घर से बाहर रहोगे… उस दिन… चंदा के साथ… मैं…’’

इतना सुनते ही सुखराम का चेहरा तमतमा उठा. उस ने लाखन का गला पकड़ लिया. वह उसे धक्के मार कर घर से बाहर निकाल देना चाहता था, लेकिन क्या करता? वह मजबूर था. चंदा चाहती थी कि उस की जान ले ले, मगर वह खून का घूंट पी कर रह गई. उस के पास भी कोई दूसरा रास्ता नहीं था. जब लाखन नहीं माना और उस ने सुखराम के साथ मारपीट शुरू कर दी तो चंदा लाखन के आगे हाथ जोड़ कर सुखराम को छोड़ने की गुजारिश करने लगी.

लाखन ने सुखराम की कनपटी पर तमंचा रख दिया तो वह मन ही मन टूट गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे, इसलिए कलेजे पर पत्थर रख कर उस ने लाखन को अपने शरीर से खेलने की हामी भर दी.

लाखन बहुत खुश हुआ, क्योंकि चंदा गजब की खूबसूरत थी. उस का जोबन नदी की बाढ़ की तरह उमड़ रहा था. उस की आंखें नशीली थीं. यही वजह थी कि पिछले 2 साल से लाखन की बुरी नजर चंदा पर लगी थी.

बुरे समय में पति का साथ देने के लिए चंदा ने ठेकेदार लाखन के साथ सोना स्वीकार किया और सुखराम की जान बचाई.

सुखराम ने उस दिन से शराब को गम भुलाने करने का जरीया बना लिया. इस तरह हवस के कीचड़ में सना लाखन चंदा की देह को लूटता रहा. जब सुखराम को पता चला कि चंदा पेट से है, तो उस ने चंदा से बच्चा गिराने की बात की, पर वह नहीं मानी.

सुखराम बोला, ‘‘मैं उस बच्चे को नहीं अपना सकता, जो मेरा नहीं है.’’

चंदा ने उसे बहुत सम झाया, पर वह न माना. चंदा ने भी अपना फैसला

सुना दिया, ‘‘मैं एक औरत ही नहीं, एक मां भी हूं. मैं इस बच्चे को जन्म ही नहीं दूंगी, बल्कि उसे जीने का हक भी दूंगी.’’

इस बात पर दोनों में  झगड़ा हुआ. सुखराम ने कहा, ‘‘ठेकेदार के साथ सोना तुम्हारी मजबूरी थी, पर उस के बच्चे को जन्म देना तो तुम्हारी मजबूरी नहीं है.’’

चंदा ने जवाब दिया, ‘‘तुम्हारा साथ देने के लिए मैं ने ऐसा घोर अपराध किया था, लेकिन अब मैं कोई गलती नहीं करूंगी… जो हमारे साथ हुआ, उस में इस नन्हीं सी जान का भला क्या कुसूर? जो भी कुसूर है, तुम्हारा है.’’

इस के बाद चंदा सुखराम को छोड़ कर चली गई. वह कहां गई, किसी को नहीं मालूम, पर आज सुखराम को हरिया की कही बात याद आई. वह सिसक रहा था और सोच रहा था कि काश, उस ने गलत फैसला न लिया होता.

एस्कॉर्ट और साधु: मानस और विद्या का बिगड़ता रिश्ता

मानस डाइनिंग टेबल पर बैठा हुआ नाश्ते का इंतजार कर रहा था, पर विद्या की पूजा थी कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी. घर के मंदिर से घंटी की आवाजें लगातार मानस के कानों से टकरा रही थीं, पर इन सब से मानस को कोफ्त हो रही थी.

‘‘लगता है, आज भी औफिस की कैंटीन में ही नाश्ता करने पड़ेगा… और फिर मेरे लिए तो यह रोज का ही किस्सा है,’’ बुदबुदाते हुए उठा था मानस.

रोज बाहर नाश्ता करना मानस के रूटीन में आ गया था. इस सब की वजह उस की पत्नी विद्या ही थी. वह पूजापाठ में इतनी तल्लीन रहती कि सवेरे जल्दी उठने के बाद भी वह अपने पति को नाश्ता नहीं दे पाती थी.

विद्या का मानना था कि पूजापाठ इनसान को जीवन में जरूर करना चाहिए, क्योंकि इस से उस की अगली जिंदगी तय होती है और अगले जन्म में इनसान को पैसा, गाड़ी, मकान वगैरह का भरपूर सुख मिलता है.

ऐसा नहीं था कि विद्या कोई अनपढ़गंवार थी, बाकायदा उस ने यूनिवर्सिटी से बीए तक की पढ़ाई की थी, पर अपने घर के माहौल का उस पर ऐसा गहरा असर पड़ा था, जिस ने उसे धर्मभीरु बना दिया था.

अपने और मानस के कपड़ों के रंग के चुनाव विद्या दिन के मुताबिक करती थी, मसलन सोमवार को सफेद, मंगलवार को लाल से ले कर शनिवार को काले कपड़े पहनने तक के टाइम टेबल के मुताबिक ही चलती थी.

इतने तक तो कोई बात नहीं थी, मानस सहन कर लेता था, पर असली समस्या जब आती, जब मानस औफिस के काम से थका हुआ घर आता और रात को अपनी पत्नी से उस की देह की डिमांड कर के अपनी थकान मिटाना चाहता था, पर अकसर विद्या का कोई न कोई व्रत होता, कहीं एकादशी या कहीं किसी मन्नत पूरी करने के लिए व्रत या कहीं कोई साप्ताहिक व्रत.

अगर जानेअनजाने में मानस का हाथ भी उसे छू जाता, तो विद्या तुरंत ही जा कर गंगाजल पी लेती थी. कोई भी मर्द अपने पेट की आग को तो मार सकता है, पर अगर कई दिनों तक सैक्स का सुख नहीं मिले तो उसे अपने जिस्म की गरमी को सहन कर पाना उस के लिए नामुमकिन सा हो जाता है. ऐसा ही हाल मानस का था. विद्या के बहुत ज्यादा धार्मिक होने के चलते वह अनदेखा सा महसूस करता था.

प्यार में साथ नहीं मिलने पर कभीकभी बेचारा मानस अपने शरीर के उफान को दबा कर रह जाता और रातभर करवटें बदलता रहता. लिहाजा, अगले दिन औफिस में भी वह सुस्त रहता और कभीकभी काम लेट हो जाने के चलते उसे डांट भी पड़ जाती थी.

औफिस के बाकी साथियों का चेहरा जहां खिला हुआ रहता था, वहीं मानस का चेहरा बुझाबुझा सा रहता था.

‘‘क्या बात है मानस? आजकल तुम बुझेबुझे से रहते हो?’’ मानस के साथ काम करने वाली लिली ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं लिली… बस थोड़ी घरेलू समस्याएं हैं… इसीलिए थोड़ा परेशान रहता हूं.’’

‘‘कोई बात नहीं, धीरेधीरे सब सही हो जाएगा,’’ लिली ने कहा.

लिली का इस तरह से मानस के बारे में हालचाल पूछना, मानस को बहुत अच्छा लगा था.

अगले दिन औफिस से छुट्टी के समय मानस के मोबाइल पर लिली का फोन आया.

‘‘अरे मानस… अगर तुम मुझे लिफ्ट दे दो, तो मुझे घर जाने में आसानी रहेगी… दरअसल, मेरी स्कूटी पंक्चर हो गई है.’’

‘‘क्यों नहीं… बाहर आ जाओ… मैं तो पार्किंग स्टैंड पर ही खड़ा हूं.’’

मानस जब लिली को घर छोड़ने जा रहा था, तब लिली का साथ उसे बहुत अच्छा लग रहा था, ‘‘आओ… मानस अंदर आओ…

एकएक कप चाय हो जाए,’’ लिली ने मुसकरा कर जब चाय का औफर दिया, तो मानस उस के साथ अंदर ड्राइंगरूम में आ गया.

ड्राइंगरूम में लिली का पति पहले से बैठा हुआ था.

‘‘इन से मिलो… ये हैं मेरे पति राकेश. और राकेश, ये हैं मेरे औफिस के साथी मानस गोस्वामी,’’ लिली ने एकदूसरे का परिचय कराया.

‘‘आप लोग बैठो… मैं आप लोगों के लिए चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर लिली चाय बनाने चली गई और मानस और राकेश बैठ कर बातें करते रहे.

कुछ देर बाद मानस ने लिली के घर से विदा ली. वापसी में वह सोच रहा था कि लिली का पति कितना खुशकिस्मत है, जो इतनी मौडर्न और खूबसूरत बीवी मिली है और एक मैं हूं, औफिस से घर आओ तो भी मैडम पूजापाठ में या सत्संग में बिजी होती हैं, रात में भी उस के ध्यान करने का समय होता है… मेरी भी कोई जिंदगी है…’’

मानस ने औफिस में भी लोगों को अपनी पत्नी की तारीफ करते हुए सुना था कि कैसे उन की पत्नियां उन के खानेपीने का खयाल रखती हैं और खुद भी सजसंवर कर रूमानी मूड में रहती हैं.

जब मर्द को घर से प्यार नहीं मिलता, तब वह बाहर की दुनिया में प्यार तलाशता है. ऐसा ही हाल मानस का हो गया था और पिछले कुछ दिनों में लिली ने जो उस से निकटता बढ़ाई थी, उस से तो मानस को यह ही महसूस होने लगा था कि लिली उस से प्यार करती है.

‘पर भला वह क्यों मुझ से प्यार करने लगी… लिली के पास तो खुद ही एक  हैंडसम पति है,’ अपनेआप से बात करता हुआ मानस सोच रहा था.

‘तो क्या हुआ… आजकल तो नाजायज संबंध बनाना आम बात है और फिर लिली भी तो मुझ से निकटता दिखाती है. अगर मेरे हाथ उस के नाजुक अंगों से छू भी जाएं, तो भी वह बुरा नहीं मानती है… यह प्यार ही तो है… अब मैं इस वैलेंटाइन डे पर लिली से अपने प्यार का इजहार कर ही दूंगा,’ मन ही मन सोच रहा था मानस और जब वैलेंटाइन डे आया, तो एक प्यार भरा मैसेज टाइप कर के मानस ने लिली के मोबाइल पर भेज दिया और लिली के जवाब का इंतजार करने लगा.

जवाब तो नहीं आया, उलटा लिली जरूर आई और सब औफिस वालों के सामने मानस को खूब खरीखोटी सुनाई.

‘‘मैं तो आप को शरीफ आदमी समझ कर आप से बात करने लगी थी… मुझे क्या पता था कि आप किसी और ताक में हैं… आज के बाद मेरी तरफ नजर उठा कर भी मत देखिएगा, नहीं तो ठीक नहीं होगा,’’ गुस्से में लाल होती हुई लिली ने कहा.

जब मानस ने बहाना बनाया कि गलती से किसी दूसरे का मैसेज लिली पर फौरवर्ड हो गया था, तब जा कर बात शांत हुई थी.

उसी औफिस में मानस और लिली का एक कौमन दोस्त रहता था. विजय नाम का वह इनसान भी कभी लिली से प्यार किया करता था, पर लिली की शादी हो जाने के बाद से उस का लिली से अफेयर चलाने का कोई भी चांस खत्म हो गया था.

लिली को इस तरह से मानस द्वारा मैसेज किया जाना विजय को रास नहीं आया और उस ने मन ही मन मानस को सबक सिखाने की बात सोची.

औफिस के बाद विजय ने मानस का हमराज बनना चाहा कि क्यों मानस ने ऐसी हरकत की है, तो मानस गुस्से से फट गया, ‘‘अरे यार, किसी चीज की भी हद होती है…

अब भूखा आदमी अगर खाना ढूंढ़ने बाहर जाए, तो भला इस में क्या गलत है, मुझे घर में शारीरिक संतुष्टि नहीं मिलती, इसलिए मुझे लगा कि बाहर कहीं दांव आजमाना चाहिए… इसीलिए भावनाओं में बह गया मैं और उसे मैसेज कर बैठा.’’

‘‘यार, मेरी पत्नी भी कुछ इसी तरह की थी… आएदिन नखरे किया करती थी… मैं भी परेशान हुआ… फिर मैं ने इस समस्या का एक हल निकाल लिया,’’ तिरछी मुसकराहट के साथ विजय कह रहा था.

‘‘हल निकाला… क्या बीवी ही बदल दी तू ने क्या?’’ मानस ने पूछा.

‘‘बीवी नहीं बदली… पर खुद को बदल लिया…’’ विजय ने मोबाइल पर एक फोन नंबर दिखाते हुए कहा.

‘यह एक मसाज सैंटर चलाने वाले दलाल का नंबर है… जब मुझे मजा करना होता है, तब मैं इस नंबर पर फोन लगाता हूं और यह एक ऐस्कौर्ट को एक तय जगह या होटल या कभीकभी कार में ही भेज देता है…’’

‘‘ऐस्कौर्ट यानी… तू मुझे धंधे वाली के पास जाने को कह रहा है?’’

‘‘अरे नहीं… आजकल बड़े घर की लड़कियां अपने मजे और शौक के लिए ऐस्कौर्ट का काम करती हैं…’’ विजय ने अपना ज्ञान बघारा.

शाम को जब थका हुआ मानस घर आया, तो विद्या धार्मिक चैनल देख रही थी और जब मानस ने उस से चाय बना लाने के लिए कहा, तो वह बोली, ‘‘अरे, अभी थोड़ा रुक जाओ… देखते नहीं कि गुरुजी ‘समस्त कष्ट निवारण यज्ञ’ का तरीका बता रहे हैं… ऐसा करो, तुम खुद ही बना लो और एक कप मुझे भी दे देना.’’

झक मार कर मानस बैडरूम में चला गया.

रात हुई तो मानस ने बढि़या खुशबू वाला इत्र लगाया. दुकानदार ने दावा किया था कि इसे इस्तेमाल करेंगे, तो औरत आप से किसी बेल की तरह चिपकी रहेगी…

मानस ने विद्या के होंठों को चूमना चाहा, तो वह तुरंत ही पीछे हट गई और बोली, ‘‘नहीं, मुझे तंग मत करो… कल मेरा व्रत है… इसलिए यह सब आज नहीं. और सुनो… परसों मैं ने ‘समस्त कष्ट निवारण यज्ञ’ का आयोजन किया है, जिस के लिए मैं ने एक आचार्यजी से बात कर ली है. वे सुबह ही आ जाएंगे और 4-5 घंटे कार्यक्रम चलेगा… आप भी घर में ही रहना.’’

विद्या की बातें सुन कर मानस को गुस्सा आ गया, ‘‘नहीं, मैं तो घर में नहीं रुक पाऊंगा. तुम्हें जो करना है, करो. और अब जो मुझे करना है, वह मैं करूंगा,’’ और यह कह कर वह मुंह फेर कर सोने लगा.

अगली सुबह औफिस में जैसे ही विजय से मुलाकात हुई, वैसे ही मानस ने उस से कहा, ‘‘भाई मेरे शरीर में बहुत दर्द हो रहा है. लग रहा है, मुझे भी मसाज कराना पड़ेगा… जरा वह मसाज सैंटर वाला नंबर मुझे भी देना… मैं भी ऐंजौय करना चाहता हूं.’’

विजय ने शरारती ढंग से देखते हुए मानस को नंबर दिया और मानस ने उस नंबर पर बात की.

दलाल ने मानस को बताया कि कल उसे ठीक 12 बजे एक मैसेज आएगा, जिस पर पहुंचने का पता होगा और साथ ही एक अकाउंट नंबर भी लिखा होगा, जिस पर उसे एडवांस पेमेंट करनी होगी, तभी मसाज की सुविधा मिल पाएगी.

मानस ने सारी बात मान ली और अगले दिन बेसब्री से 12 बजने का इंतजार करने लगा.

उधर, विद्या ने भी ‘समस्त कष्ट निवारण यज्ञ’ रखवाया था. सुबह होते ही वह उसी की तैयारी करने में बिजी हो गई, जबकि मानस के अंदर बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

ठीक 12 बजे मानस के मोबाइल पर एक मैसेज आया, जिस में एक एकाउंट नंबर था और एक होटल का नाम भी था, जहां पहुंचने पर उसे पहले से बुक एक कमरे में जाना था, जहां उसे मसाज की सुविधा दी जानी थी.

मानस को होटल के कमरे तक पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं हुई और वह बेसब्री से ऐस्कौर्ट का इंतजार करने लगा.

वह समय भी आ गया, जब कमरे के अंदर एक लड़की आई. उसे देख कर मानस के पसीने छूट गए.

‘‘भला इतनी खूबसूरत लड़की भी ऐसा काम कर सकती है… पर, मुझे क्या, मैं ने भी तो पूरे 10,000 रुपए दिए हैं इस के लिए… अब तो मुझे वसूलना भर है,’’ ऐसा सोच कर मानस किसी भूखे भेडि़ए की तरह उस लड़की पर टूट पड़ा.

अभी मजा लेते हुए मानस को कुछ ही समय हुआ था कि होटल के कमरे का दरवाजा अचानक से खुल गया और 2 आदमी अंदर घुंस आए, जिन में से एक के हाथ में मोबाइल था और वे लगातार मानस और उस लड़की का वीडियो बनाने में लगा हुआ था.

मानस चौंक पड़ा था और वह लड़की अपने कपड़े पहनने लगी थी.

‘‘तुम ने ठीक पहचाना… इस मोबाइल में तुम्हारी पूरी फिल्म बन गई है… अब ये हम पर है कि इसे हम किसकिस को दिखाएं… इंटरनैट पर डालें या तुम्हारे घरपरिवार वालों को दे दें… या तुम्हारे औफिस में इसे सब के मोबाइलों पर भेज दें… फैसला तुम्हारे हाथ में है,’’ उन में से एक आदमी बोला.

अचानक से मानस का माथा ठनका, ‘‘आखिरकार ऐसा क्यों कर रहे हो तुम लोग…’’ मानस चीखा.

‘‘एक लाख रुपए के लिए… नहीं तो यह वीडियो अभी वायरल कर दिया जाएगा… पैसे दो और यह वीडियो हम तुम्हारे सामने ही डिलीट कर देंगे.’’

मानस ने देखा कि कमरे में सिर्फ वे 2 आदमी ही खड़े थे. वह लड़की वहां से जा चुकी थी. मानस को समझते देर नहीं लगी कि यह पूरा एक ही गैंग है और इन्हें बिना पैसे दिए इन से छुटकारा पाना मुमकिन नहीं होगा, इसलिए उस ने बिना देर किए पूरे 50,000 रुपए नैटबैंकिंग की मदद से उन दोनों द्वारा बताए गए अकाउंट नंबर पर ट्रांसफर कर दिए और बाकी के 50,000 रुपए का चैक काट दिया.

उन दोनों आदमियों ने भी शराफत दिखाते हुए वह वीडियो मानस के सामने ही डिलीट कर दिया.

अपना पैसा लुटा कर भारी मन से घर लौटने लगा था मानस. जब वह घर पहुंचा, तो वहां का दृश्य देख कर उस के हाथपैर फूल गए.

कमरे में चारों तरफ धुआं फैला हुआ था और विद्या एक कोने में सिर नीचे किए बैठी थी.

मानस ने विद्या से पूछा, तो पता चला कि जो साधु ‘समस्त कष्ट निवारण यज्ञ’ कराने के लिए घर में आया था, उस ने यज्ञ के बहाने घर में नशीला धुआं भर दिया, जिस से विद्या बेहोश होने लगी और तब वह साधु घर में रखी हुई कीमती चीजें, नकदी और गहने ले कर चंपत हो गया.

विद्या रो रही थी. मानस भी दुखी था और सोच रहा था कि अति हर चीज की बुरी होती है.

विद्या की पूजा की अति ने ही आज हम दोनों को इस मुकाम तक पहुंचा दिया है.

पर भला अपने लुटने की बात मानस विद्या से कैसे कहता, सो दोनों एकदूसरे के आंसू पोंछते रहे.

विद्या ने इतना जरूर कहा कि आज के बाद वह किसी साधु को घर में नहीं घुसाएगी. उस की आंखों पर तना हुआ अंधविश्वास का परदा हट रहा था.

लम्हे पराकाष्ठा के : रूपा और आदित्य की खुशी अधूरी क्यों थी

लगातार टैलीफोन की घंटी बज रही थी. जब घर के किसी सदस्य ने फोन नहीं उठाया तो तुलसी अनमनी सी अपने कमरे से बाहर आई और फोन का रिसीवर उठाया, ‘‘रूपा की कोई गुड न्यूज?’’ तुलसी की छोटी बहन अपर्णा की आवाज सुनाई दी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. ये तो सब जगह हो आए. कितने ही डाक्टरों को दिखा लिया. पर, कुछ नहीं हुआ,’’ तुलसी ने जवाब दिया.

थोड़ी देर के बाद फिर आवाज गूंजी, ‘‘हैलो, हैलो, रूपा ने तो बहुत देर कर दी, पहले तो बच्चा नहीं किया फिर वह व उस के पति उलटीसीधी दवा खाते रहे और अब दोनों भटक रहे हैं इधरउधर. तू अपनी पुत्री स्वीटी को ऐसा मत करने देना. इन लोगों ने जो गलती की है उस को वह गलती मत करने देना,’’ तुलसी ने अपर्णा को समझाते हुए आगे कहा, ‘‘उलटीसीधी दवाओं के सेवन से शरीर खराब हो जाता है और फिर बच्चा जनने की क्षमता प्रभावित होती है. भ्रू्रण ठहर नहीं पाता. तू स्वीटी के लिए इस बात का ध्यान रखना. पहला एक बच्चा हो जाने देना चाहिए. उस के बाद भले ही गैप रख लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ध्यान रखूंगी,’’ अपर्णा ने बड़ी बहन की सलाह को सिरआंखों पर लिया.

अपनी बड़ी बहन का अनुभव व उन के द्वारा दी गई नसीहतों को सुन कर अपर्णा ने कहा, ‘‘अब क्या होगा?’’ तो बड़ी बहन तुलसी ने कहा, ‘‘होगा क्या? टैस्टट्यूब बेबी के लिए ट्राई कर रहे हैं वे.’’

‘‘दोनों ने अपना चैकअप तो करवा लिया?’’

‘‘हां,’’ अपर्णा के सवाल के जवाब में तुलसी ने छोटा सा जवाब दिया.

अपर्णा ने फिर पूछा, ‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’

तुलसी ने बताया, ‘‘कमी आदित्य में है.’’

‘‘तो फिर क्या निर्णय लिया?’’

‘‘निर्णय मुझे क्या लेना था? ये लोग ही लेंगे. टैस्टट्यूब बेबी के लिए डाक्टर से डेट ले आए हैं. पहले चैकअप होगा. देखते हैं क्या होता है.’’

दोनों बहनें आपस में एकदूसरे के और उन के परिवार के सुखदुख की बातें फोन पर कर रही थीं.

कुछ दिनों के बाद अपर्णा ने फिर फोन किया, ‘‘हां, जीजी, क्या रहा? ये लोग डाक्टर के यहां गए थे? क्या कहा डाक्टर ने?’’

‘‘काम तो हो गया…अब आगे देखो क्या होता है.’’

‘‘सब ठीक ही होगा, अच्छा ही होगा,’’ छोटी ने बड़ी को उम्मीद जताई.

‘‘हैलो, हैलो, हां अब तो काफी टाइम हो गया. अब रूपा की क्या स्थिति है?’’ अपर्णा ने काफी दिनों के बाद तुलसी को फोन किया.

‘‘कुछ नहीं, सक्सैसफुल नहीं रहा. मैं ने तो रूपा से कह दिया है अब इधरउधर, दुनियाभर के इंजैक्शन लेना बंद कर. उलटीसीधी दवाओं की भी जरूरत नहीं, इन के साइड इफैक्ट होते हैं. अभी ही तुम क्या कम भुगत रही हो. शरीर, पैसा, समय और ताकत सभी बरबाद हो रहे हैं. बाकी सब तो जाने दो, आदमी कोशिश ही करता है, इधरउधर हाथपैर मारता ही है पर शरीर का क्या करे? ज्यादा खराब हो गया तो और मुसीबत हो जाएगी.’’

‘‘फिर क्या कहा उन्होंने?’’ अपनी जीजी और उन के बेटीदामाद की दुखभरी हालत जानने के बाद अपर्णा ने सवाल किया.

‘‘कहना क्या था? सुनते कहां हैं? अभी भी डाक्टरों के चक्कर काटते फिर रहे हैं. करेंगे तो वही जो इन्हें करना है.’’

‘‘चलो, ठीक है. अब बाद में बात करते हैं. अभी कोई आया है. मैं देखती हूं, कौन है.’’

‘‘चल, ठीक है.’’

‘‘फोन करना, क्या रहा, बताना.’’

‘‘हां, मैं बताऊंगी.’’

फोन बंद हो चुका था. दोनों अपनीअपनी व्यस्तता में इतनी खो गईं कि एकदूसरे से बात करे अरसा बीत गया. कितना लंबा समय बीत गया शायद किसी को भी न तो फुरसत ही मिली और न होश ही रहा.

ट्रिन…ट्रिन…ट्रिन…फोन की घंटी खनखनाई.

‘‘हैलो,’’ अपर्णा ने फोन उठाया.

‘‘बधाई हो, तू नानी बन गई,’’ तुलसी ने खुशी का इजहार किया.

‘‘अरे वाह, यह तो बड़ी अच्छी न्यूज है. आप भी तो नानी बन गई हैं, आप को भी बधाई.’’

‘‘हां, दोनों ही नानी बन गईं.’’

‘‘क्या हुआ, कब हुआ, कहां हुआ?’’

‘‘रूपा के ट्विंस हुए हैं. मैं अस्पताल से ही बोल रही हूं. प्रीमैच्यौर डिलीवरी हुई है. अभी इंटैंसिव केयर में हैं. डाक्टर उन से किसी को मिलने नहीं दे रहीं.’’

‘‘अरे, यह तो बहुत गड़बड़ है. बड़ी मुसीबत हो गई यह तो. रूपा कैसी है, ठीक तो है?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है. चिंता की कोई बात नहीं. डाक्टर दोनों बच्चियों को अपने साथ ले गई हैं. इन में से एक तो बहुत कमजोर है, उसे तो वैंटीलेटर पर रखा गया है. दूसरी भी डाक्टर के पास है. अच्छा चल, मैं तुझ से बाद में बात करती हूं.’’

‘‘ठीक है. जब भी मौका मिले, बात कर लेना.’’

‘‘हां, हां, मैं कर लूंगी.’’

‘‘तुम्हारा फोन नहीं आएगा तो मैं फोन कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है.’’

दोनों बहनों के वार्त्तालाप में एक बार फिर विराम आ गया था. दोनों ही फिर व्यस्त हो गई थीं अपनेअपने काम में.

‘‘हैलो…हैलो…हैलो, हां, क्या रहा? तुम ने फोन नहीं किया,’’ अपर्णा ने अपनी जीजी से कहा.

‘‘हां, मैं अभी अस्पताल में हूं,’’ तुलसी ने अभी इतना ही कहा था कि अपर्णा ने उस से सवाल कर लिया, ‘‘बच्चियां कैसी हैं?’’

‘‘रूपा की एक बेटी, जो बहुत कमजोर थी, नहीं रही.’’

‘‘अरे, यह क्या हुआ?’’

‘‘वह कमजोर ही बहुत थी. वैंटीलेटर पर थी.’’

‘‘दूसरी कैसी है?’’ अपर्णा ने संभलते व अपने को साधते हुए सवाल किया.

‘‘दूसरी ठीक है. उस से डाक्टर ने मिलवा तो दिया पर रखा हुआ अभी अपने पास ही है. डेढ़ महीने तक वह अस्पताल में ही रहेगी. रूपा को छुट्टी मिल गई है. वह उसे दूध पिलाने आई है. मैं उस के साथ ही अस्पताल आई हूं,’’ तुलसी एक ही सांस में कह गई सबकुछ.

‘‘अरे, यह तो बड़ी परेशानी की बात है. रूपा नहीं रह सकती थी यहां?’’ अपर्णा ने पूछा.

‘‘मैं ने डाक्टर से पूछा तो था पर संभव नहीं हो पाया. वैसे घर भी तो देखना है और यों भी अस्पताल में रह कर वह करती भी क्या? दिमाग फालतू परेशान ही होता. बच्ची तो उस को मिलती नहीं.’’

डेढ़ महीने का समय गुजरा. रूपा और आदित्य नाम के मातापिता, दोनों ही बहुत खुश थे. उन की बेटी घर आ गई थी. वे दोनों उस की नानीदादी के साथ जा कर उसे अस्पताल से घर ले आए थे.

रूपा के पास फुरसत नहीं थी अपनी खोई हुई बच्ची का मातम मनाने की. वह उस का मातम मनाती या दूसरी को पालती? वह तो डरी हुई थी एक को खो कर. उसे डर था कहीं इसे पालने में, इस की परवरिश में कोई कमी न रह जाए.

बड़ी मुश्किल, बड़ी मन्नतों से और दुनियाभर के डाक्टरों के अनगिनत चक्कर लगाने के बाद ये बच्चियां मिली थीं, उन में से भी एक तो बची ही नहीं. दूसरी को भी डेढ़ महीने बाद डाक्टर ने उसे दिया था. बड़ी मुश्किल से मां बनी थी रूपा. वह भी शादी के 10 साल बाद. वह घबराती भी तो कैसे न घबराती. अपनी बच्ची को ले कर असुरक्षित महसूस करती भी तो क्यों न करती? वह एक बहुत घबराई हुई मां थी. वह व्यस्त नहीं, अतिव्यस्त थी, बच्ची के कामों में. उसे नहलानाधुलाना, पहनाना, इतने से बच्चे के ये सब काम करना भी तो कोई कम साधना नहीं है. वह भी ऐसी बच्ची के काम जिसे पैदा होते ही इंटैंसिव केयर में रखना पड़ा हो. जिसे दूध पिलाने जाने के लिए उस मां को डेढ़ महीने तक रोज 4 घंटे का आनेजाने का सफर तय करना पड़ा हो, ऐसी मां घबराई हुई और परेशान न हो तो क्यों न हो.

रूपा का पति यानी नवजात का पिता आदित्य भी कम व्यस्त नहीं था. रोज रूपा को इतनी लंबी ड्राइव कर के अस्पताल लाना, ले जाना. घर के सारे सामान की व्यवस्था करना. अपनी मां के लिए अलग, जच्चा पत्नी के लिए अलग और बच्ची के लिए अलग. ऊपर से दवाएं और इंजैक्शन लाना भी कम मुसीबत का काम है क्या. एक दुकान पर यदि कोई दवा नहीं मिली तो दूसरी पर पूछना और फिर भी न मिलने पर डाक्टर के निर्देशानुसार दूसरी दवा की व्यवस्था करना, कम सिरदर्द, कम व्यस्तता और कम थका देने वाले काम हैं क्या? अपनी बच्ची से बेइंतहा प्यार और बेशुमार व्यस्तता के बावजूद उस में अपनी बच्ची के प्रति असुरक्षा व भय की भावना नहीं थी बिलकुल भी नहीं, क्योंकि उस को कार्यों व कार्यक्षेत्रों में ऐसी गुंजाइश की स्थिति नहीं के बराबर ही थी.

रूपा और आदित्य के कार्यों व दायित्वों के अलगअलग पूरक होने के बावजूद उन की मानसिक और भावनात्मक स्थितियां भी इसी प्रकार पूरक किंतु, स्पष्ट रूप से अलगअलग हो गई थीं. जहां रूपा को अपनी एकमात्र बच्ची की व्यवस्था और रक्षा के सिवा और कुछ सूझता ही नहीं था, वहीं आदित्य को अन्य सब कामों में व्यस्त रहने के बावजूद अपनी खोई हुई बेटी के लिए सोचने का वक्त ही वक्त था.

मनुष्य का शरीर अपनी जगह व्यस्त रहता है, दिलदिमाग अपनी जगह. कई स्थितियों में शरीर और दिलदिमाग एक जगह इतने डूब जाते हैं, इतने लीन हो जाते हैं, खो जाते हैं और व्यस्त हो जाते हैं कि उसे और कुछ सोचने की तो दूर, खुद अपना तक होश नहीं रहता जैसा कि रूपा के साथ था. उस की स्थिति व उस के दायित्व ही कुछ इस प्रकार के थे कि उस का उन्हीं में खोना और खोए रहना स्वाभाविक था किंतु आदित्य? उस की स्थिति व दायित्व इस के ठीक उलट थे, इसलिए उसे अपनी खोई हुई बेटी का बहुत गम था. उस का गम तो सभी को था मां, नानी, दादी सभी को. कई बार उस की चर्चा भी होती थी पर अलग ही ढंग से.

‘‘उसे जाना ही था तो आई ही क्यों थी? उस ने फालतू ही इतने कष्ट भोगे. इस से तो अच्छा था वह आती ही नहीं. क्यों आई थी वह?’’ अपनी सासू मां की दुखभरी आह सुन कर आदित्य के भीतर का दर्द एकाएक बाहर आ कर बह पड़ा.

कहते हैं न, दर्द जब तक भीतर होता है, वश में होता है. उस को जरा सा छेड़ते ही वह बेकाबू हो जाता है. यही हुआ आदित्य के साथ भी. उस की तमाम पीड़ा, तमाम आह एकाएक एक छोटे से वाक्य में फूट ही पड़ी और अपनी सासू मां के निकले आह भरे शब्द ‘जाना ही था तो आई ही क्यों थी’ उस के जेहन से टकराए और एक उत्तर बन कर बाहर आ गए. उत्तर, हां एक उत्तर. एक मर्मात्मक उत्तर देने. अचानक ही सब चौंक कर एकसाथ बोल उठे. रूपा, नानी, दादी सब ही, ‘‘क्या दिया उस ने?’’

‘‘अपना प्यार. अपनी बहन को अपना सारा प्यार दे दिया. हम सब से अपने हिस्से का सारा प्यार उसे दिलवा दिया. अपने हिस्से का सबकुछ इसे दे कर चली गई. कुछ भी नहीं लिया उस ने किसी से. जमीनजायदाद, कुछ भी नहीं. वह तो अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी इसे दे कर चली गई. अपनी बहन को दे गई वह सबकुछ. यहां ताकि अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी.’’

सभी शांत थीं. स्तब्ध रह गई थीं आदित्य के उत्तर से. हवा में गूंज रहे थे आदित्य के कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट से शब्द, ‘चली गई वह अपने हिस्से का सबकुछ अपनी बहन को दे कर. यहां तक कि अपनी मां का दूध भी

कैसी दूरी : शीला की कसक

आधी रात का गहरा सन्नाटा. दूर कहीं थोड़ीथोड़ी देर में कुत्तों के भूंकने की आवाजें उस सन्नाटे को चीर रही थीं. ऐसे में भी सभी लोग नींद के आगोश में बेसुध सो रहे थे. अगर कोई जाग रहा था, तो वह शीला थी. उसे चाह कर भी नींद नहीं आ रही थी. पास में ही रवि सो रहे थे.

शीला को रहरह कर रवि पर गुस्सा आ रहा था. वह जाग रही थी, मगर वे चादर तान कर सो रहे थे. रवि के साथ शीला की शादी के 15 साल गुजर गए थे. वह एक बेटे और एक बेटी की मां बन चुकी थी.

शादी के शुरुआती दिन भी क्या दिन थे. वे सर्द रातों में एक ही रजाई में एकदूसरे से चिपक कर सोते थे. न किसी का डर था, न कोई कहने वाला. सच, उस समय तो नौजवान दिलों में खिंचाव हुआ करता था. शीला ने तब रवि के बारे में सुना था कि जब वे कुंआरे थे, तब आधीआधी रात तक दोस्तों के साथ गपशप किया करते थे. तब रवि की मां हर रोज दरवाजा खोल कर डांटते हुए कहती थीं, ‘रोजरोज देर से आ कर सोने भी नहीं देता. अब शादी कर ले, फिर तेरी घरवाली ही दरवाजा खोलेगी.’

रवि जवाब देने के बजाय हंस कर मां को चिढ़ाया करते थे.

जैसे ही रवि के साथ शीला की शादी हुई, दोस्तों से दोस्ती टूट गई. जैसे ही रात होती, रवि चले आते उस के पास और उस के शरीर के गुलाम बन जाते. भंवरे की तरह उस पर टूट पड़ते. उन दिनों वह भी तो फूल थी. मगर शादी के सालभर बाद जब बेटा हो गया, तब खिंचाव कम जरूर पड़ गया.

धीरेधीरे शरीर का यह खिंचाव खत्म तो नहीं हुआ, मगर मन में एक अजीब सा डर समाया रहता था कि कहीं पास सोए बच्चे जाग न जाएं. बच्चे जब बड़े हो गए, तब वे अपनी दादी के पास सोने लगे.

अब भी बच्चे दादी के पास ही सो रहे हैं, फिर भी रवि का शीला के प्रति वह खिंचाव नहीं रहा, जो पहले हुआ करता था. माना कि रवि उम्र के ढलते पायदान पर है, लेकिन आदमी की उम्र जब 40 साल की हो जाती है, तो वह बूढ़ा तो नहीं कहलाता है. बिस्तर पर पड़ेपड़े शीला सोच रही थी, ‘इस रात में हम दोनों के बीच में कोई भी तो नहीं है, फिर भी इन की तरफ से हलचल क्यों नहीं होती है? मैं बिस्तर पर लेटीलेटी छटपटा रही हूं, मगर ये जनाब तो मेरी इच्छा को समझ ही नहीं पा रहे हैं. ‘उन दिनों जब मेरी इच्छा नहीं होती थी, तब ये जबरदस्ती किया करते थे. आज तो हम पतिपत्नी के बीच कोई दीवार नहीं है, फिर भी क्यों नहीं पास आते हैं?’

शीला ने सुन ही नहीं रखा है, बल्कि ऐसे भी तमाम उदाहरण देखे हैं कि जिस आदमी से औरत की ख्वाहिश पूरी नहीं होती है, तब वह औरत दूसरे मर्द के ऊपर डोरे डालती है और अपने खूबसूरत अंगों से उन्हें पिघला देती है. फिर रवि के भीतर का मर्द क्यों मर गया है?

मगर शीला भी उन के पास जाने की हिम्मत क्यों नहीं कर पा रही है? वह क्यों उन की चादर में घुस नहीं जाती है? उन के बीच ऐसा कौन सा परदा है, जिस के पार वह नहीं जा सकती है?

तभी शीला ने कुछ ठाना और वह रवि की चादर में जबरदस्ती घुस गई. थोड़ी देर में उसे गरमाहट जरूर आ गई, मगर रवि अभी भी बेफिक्र हो कर सो रहे थे. वे इतनी गहरी नींद में हैं कि कोई चिंता ही नहीं.

शीला ने धीरे से रवि को हिलाया. अधकचरी नींद में रवि बोले, ‘‘शीला, प्लीज सोने दो.’’ ‘‘मुझे नींद नहीं आ रही है,’’ शीला शिकायत करते हुए बोली. ‘‘मुझे तो सोने दो. तुम सोने की कोशिश करो. नींद आ जाएगी तुम्हें,’’ रवि नींद में ही बड़बड़ाते हुए बोले और करवट बदल कर फिर सो गए. शीला ने उन्हें जगाने की कोशिश की, मगर वे नहीं जागे. फिर शीला गुस्से में अपनी चादर में आ कर लेट गई, मगर नींद उस की आंखों से कोसों दूर जा चुकी थी.

सुबह जब सूरज ऊपर चढ़ चुका था, तब तक शीला सो कर नहीं उठी थी. उस की सास भी घबरा गईं. सब से ज्यादा घबराए रवि. मां रवि के पास आ कर बोलीं, ‘‘देख रवि, बहू अभी तक सो कर नहीं उठी. कहीं उस की तबीयत तो खराब नहीं हो गई?’’

रवि बैडरूम की तरफ लपके. देखा कि शीला बेसुध सो रही थी. वे उसे झकझोरते हुए बोले, ‘‘शीला उठो.’’

‘‘सोने दो न, क्यों परेशान करते हो?’’ शीला नींद में ही बड़बड़ाई.

रवि को गुस्सा आ गया और उन्होंने पानी का एक गिलास भर कर उस के मुंह पर डाल दिया. शीला घबराते हुए उठी और गुस्से से बोली, ‘‘सोने क्यों नहीं दिया मुझे? रातभर नींद नहीं आई. सुबह होते ही नींद आई और आप ने उठा दिया.’’

‘‘देखो कितनी सुबह हो गई?’’ रवि चिल्ला कर बोले, तब आंखें मसल कर उठते हुए शीला बोली, ‘‘खुद तो ऐसे सोते हो कि रात को उठाया तो भी न उठे और मुझे उठा दिया,’’ इतना कह कर वह बाथरूम में घुस गई. यह एक रात की बात नहीं थी. तकरीबन हर रात की बात थी.

मगर रवि में पहले जैसा खिंचाव क्यों नहीं रहा? या उस से उन का मन भर गया? ऐसा सुना भी है कि जिस मर्द का अपनी औरत से मन भर जाता है, फिर उस का खिंचाव दूसरी तरफ हो जाता है. कहीं रवि भी… नहीं उन के रवि ऐसे नहीं हैं.

सुना है कि महल्ले के ही जमना प्रसाद की पत्नी माधुरी का चक्कर उन के ही पड़ोसी अरुण के साथ चल रहा है. यह बात पूरे महल्ले में फैल चुकी थी. जमना प्रसाद को भी पता थी, मगर वे चुप रहा करते थे. रात का सन्नाटा पसर चुका था. रवि और शीला बिस्तर में थे. उन्होंने चादर ओढ़ रखी थी.

रवि बोले, ‘‘आज मुझे थोड़ी ठंड सी लग रही है.’’

‘‘मगर, इस ठंड में भी आप तो घोडे़ बेच कर सोते रहते हो, मैं कितनी बार आप को जगाती हूं, फिर भी कहां जागते हो. ऐसे में कोई चोर भी घुस जाए तो पता नहीं चले. इतनी गहरी नींद क्यों आती है आप को?’’

‘‘अब बुढ़ापा आ रहा है शीला.’’

‘‘बुढ़ापा आ रहा है या मुझ से अब आप का मन भर गया है?’’

‘‘कैसी बात करती हो?’’

‘‘ठीक कहती हूं. आजकल आप को न जाने क्या हो गया,’’ यह कहते हुए शीला की आंखों में वासना दिख रही थी. रवि जवाब न दे कर शीला का मुंह ताकते रहे.

शीला बोली, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हो? कभी देखा नहीं है क्या?’’

‘‘अरे, जब से शादी हुई है, तब से देख रहा हूं. मगर आज मेरी शीला कुछ अलग ही दिख रही है,’’ शरारत करते हुए रवि बोले.

‘‘कैसी दिख रही हूं? मैं तो वैसी ही हूं, जैसी तुम ब्याह कर लाए थे,’’ कह कर शीला ने ब्लाउज के बटन खोल दिए, ‘‘हां, आप अब वैसे नहीं रहे, जैसे पहले थे.’’

‘‘क्यों भला मुझ में बदलाव कैसे आ गया?’’ अचरज से रवि बोले.

‘‘मेरा इशारा अब भी नहीं समझ रहे हो. कहीं ऐसा न हो कि मैं भी जमना प्रसाद की पत्नी माधुरी बन जाऊं.’’

‘‘अरे शीला, जमना प्रसाद तो ढीले हैं, मगर मैं नहीं हूं,’’ कह कर रवि ने शीला को अपनी बांहों में भर कर उस के कई चुंबन ले लिए.

फौजी का प्यार: क्या हो पाया सफल

हमारी यह कहानी एक फौजी के प्यार पर बुनी गई है, जिस का नाम रमन था. वह बिलासपुर गांव का रहने वाला था. उस के सपने बहुत बड़े थे. वह अपनी जिंदगी में बहुतकुछ करना चाहता था. एक दिन रमन सो रहा था. उस ने एक सपना देखा कि वह अपने देश के लिए शहीद हो गया. तभी से उस ने फौजी बनने की ठान ली. जब उस ने यह बात अपने मांबाप को बताई, तो वे चिंतित हो गए. उन्हें लगा कि अगर उन का बेटा फौजी बन कर उन से दूर चला गया, तो वे अकेले कैसे रहेंगे?लेकिन रमन का यही कहना था कि उसे अपने देश के लिए फौजी बनना ही है, क्योंकि वह अपने देश से बहुत प्यार करता है.

इस के बाद वह फौज में भरती होने के लिए कड़ी मेहनत करने लगा और एक दिन उस ने फौज में भरती होने का फार्म भी भर दिया. कुछ समय बाद रमन की फौज में भरती की लिखित परीक्षा हुई, जिस में उस ने पहला स्थान हासिल किया. परीक्षा पास करने के बाद उस ने फौज की ट्रेनिंग की. आखिरकार वह दिन आ ही गया, जिस का रमन को बेसब्री से इंतजार था और वह फौजी बन गया.इस बात से रमन के परिवार वाले ज्यादा खुश नहीं थे. पर जब उन की एक न चली, तो उन्होंने रमन की शादी करनी चाही. उन्होंने गांव की ही स्नेहा नाम की एक लड़की उस के लिए पसंद कर ली, जो रमन के बचपन की दोस्त थी.जब रमन को इस बात का पता चला, तो वह बहुत नाराज हुआ.

उस ने अपने फौजी दोस्तों को इस बारे में बताया, तो वे बोले कि अगर वह लड़की अच्छी है और तुम्हारी दोस्त भी है, तो तुम्हें उस के साथ शादी कर लेनी चाहिए.रमन को यह बात समझ में आ गई और उस ने इस रिश्ते के लिए हां कर दी.एक दिन रमन को जहां तैनात किया गया था, वहां बौर्डर पर उस ने 2 ऐसी लड़कियों को देखा, जो बकरियां चरा रही थीं. उस ने उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और अपने क्वार्टर में चला गया, पर थोड़ी ही देर में उसे किसी के तेज बोलने की आवाज सुनाई दी.रमन अपने क्वार्टर से बाहर आया, तो देखा कि बकरी चराने वाली एक लड़की के साथ एक फौजी बदतमीजी कर रहा था, जबकि दूसरी लड़की वहां से शायद भाग गई थी.

रमन ने उस फौजी को लताड़ा और उस से भिड़ गया. इस बात से वह लड़की डर गई. रमन ने उस लड़की से पूछा, ‘‘तुम कौन हो और यहां क्या कर रही हो?’’उस लड़की ने अपनी लड़खड़ाती आवाज में बताया, ‘‘मैं तो अपनी सहेली की मदद करने के लिए यहां आई थी. उस की तबीयत ठीक नहीं थी.’’रमन ने उस लड़की को बड़े ध्यान से देखा, तो उस की मासूम आंखों में खो गया. उस के दिल की धड़कनें तेज हो गईं. उसे लगा कि वह पहली ही नजर में उस लड़की से प्यार कर बैठा है.तभी उस लड़की के होंठों से धीमी आवाज में ‘शुक्रिया’ निकला और वह वहां से चली गई.

रमन उस लड़की को ले कर परेशान हो गया, जबकि उसे मालूम था कि उस के घर में उस की शादी की तैयारियां चल रही थीं. इस सब के बावजूद वह हर रोज उस लड़की का इंतजार करता था.एक दिन रमन को वही लड़की अपनी सहेली के साथ दिखाई दी. वह हिम्मत जुटा कर उस के पास चला गया और उस से पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’उस लड़की ने पलट कर सवाल किया,

‘‘आप को मेरा नाम क्यों जानना है?रमन के ज्यादा गुजारिश करने पर उस लड़की ने अपना नाम जन्नत बताया.रमन बोला, ‘‘तुम्हारा नाम तो बहुत अच्छा है. ऐसा लग रहा है, जैसे मुझे जन्नत नसीब हो गई.’’जन्नत ने रमन को टोकते हुए कहा, ‘‘आप ऐसी बात मत कीजिए. मुझे अच्छा नहीं लगता.’’रमन ने कहा, ‘‘मैं तो सिर्फ तुम्हारी और तुम्हारे नाम की तारीफ कर रहा हूं.

’’जन्नत चुप रही, तो रमन ने पूछा, ‘‘तुम कहां रहती हो?’’‘‘लाहौर में…’’ जन्नत बोली.‘‘तो यहां बौर्डर पर क्या करने आती हो?’’जन्नत ने बताया, ‘‘यहां मेरी सहेली बकरियां चराने आती है. बहुत दिनों से उस के अब्बू बीमार हैं. मैं सहेली की मदद कर रही हूं.

’’रमन जन्नत को अपने दिल की बात कहना चाहता था, पर डरता था कि कहीं इस के बाद वह यहां आना ही न बंद कर दे. लिहाजा, उस ने खुद को रोक लिया.उधर जन्नत भी रमन को मन ही मन पसंद करने लगी थी, मगर वह भी कुछ नहीं बोली और चुपचाप वहां से चली गई.एक दिन रमन ने अपना दिल मजबूत कर के जन्नत को बोल दिया,

‘‘जन्नत, जिस दिन से मैं ने तुम्हें पहली बार देखा है, तब से मैं तुम्हारा दीवाना हो गया हूं. मैं तुम्हें पसंद करने लगा हूं. तुम हर समय मेरे दिलोदिमाग पर छाई रहती हो…’’यह सुन कर जन्नत बोली, ‘‘आप भी मुझे पसंद हैं. आप ने पहली मुलाकात में मुझे उस फौजी से बचाया था,

तभी से आप मुझे बहुत अच्छे लगने लगे थे.’’‘‘जन्नत, क्या तुम मुझ से प्यार करती हो?’’ रमन ने पूछा.‘‘हां,’’ जन्नत ने जवाब दिया.इस के बाद वे दोनों रोजाना मिलने लगे. रमन जानता था कि उस की शादी कहीं और पक्की हो गई है और वह जन्नत से प्यार करने लगा है, तो उस ने काफी सोचविचार कर के एक दिन जन्नत से पूछा, ‘‘क्या तुम मेरे साथ शादी करोगी?’’जन्नत ने कहा, ‘‘इस बात के लिए मेरे अब्बू कभी नहीं मानेंगे, क्योंकि तुम एक हिंदुस्तानी फौजी हो और मैं लाहौर के मेयर की बेटी.’’यह सुन कर रमन बोला, ‘‘अगर तुम्हारे अब्बू नहीं मानेंगे, तो हम यहां से दूर जा कर शादी कर लेंगे.’’जन्नत बोली, ‘‘अच्छा, मैं अपने अब्बू से एक बार बात कर के देख लेती हूं…’’ इतना कह कर वह चली गई.कुछ दिन के बाद रमन को जन्नत का लिखा एक खत मिला कि ‘मेरे अब्बू को मुझ पर शक हो गया है कि बकरी चराने के बहाने मैं किसी से मिलने जाती हूं, इसलिए आप को जो करना है जल्दी कीजिए’.खत पढ़ कर रमन परेशान हो गया. उस ने अपने एक साथी को बताया कि वह एक लड़की से प्यार करने लगा है और उसी से शादी करना चाहता है.लेकिन जब उस साथी को यह पता चला कि वह लड़की पाकिस्तानी है, तो वह दंग रह गया. उस ने रमन को यह सब भूलने के लिए कहा और इस का बुरा अंजाम भुगतने की भी बात की. पर रमन पर तो इश्क का भूत सवार था. वह कहां मानने वाला था.

उस दोस्त ने फिर समझाया, ‘‘चलो यह माना कि तुम दोनों का प्यार सच्चा है, लेकिन न तो तेरे घर वाले इस रिश्ते के लिए राजी होंगे और न ही जन्नत के घर वाले मानेंगे. दोनों देशों की सरकारें भी इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करेंगी. ‘‘सब से बड़ी बात तो यह है कि तुम हिंदुस्तानी फौजी हो और वह लड़की हमारे दुश्मन देश में रहती है. तुम दोनों का कभी मेल नहीं हो सकता.’’यह सुन कर रमन कशमकश में पड़ गया. एक तरफ उस का प्यार था, तो दूसरी तरफ परिवार और देश. फिर उस ने फैसला लेते हुए अपने प्यार के बारे में परिवार को बताने की ठानी.पर जब मांबाप को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने कहा कि तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे, जिस से उन के खानदान की नाक कट जाए.

वह एक पाकिस्तानी लड़की है और इस घर में कभी बहू बन कर नहीं आएगी.इस सब के बावजूद रमन ने जन्नत का साथ चुनना पसंद किया. उधर जन्नत के अब्बू को रमन के बारे में किसी रिश्तेदार ने सबकुछ बता दिया. वे गुस्से में आगबबूला हो गए और उन्होंने जन्नत को कमरे में बंद कर दिया.जन्नत ने किसी तरह रमन के लिए एक खत लिख कर उसे अपनी सहेली से रमन तक पहुंचाने को कहा. रमन ने वह खत पढ़ा, ‘मेरे अब्बू ने किसी और के साथ मेरी शादी पक्की कर दी है. जल्द ही मेरा निकाह भी हो जाएगा…’यह पढ़ कर रमन का खून खौल गया. अब उसे न देश की परवाह रही और न ही परिवार की. वह हर नियम ताक पर रख कर चोरीछिपे पाकिस्तान चला गया. वहां वह जन्नत से मिलने में भी कामयाब रहा और उसे बौर्डर पार करा कर भारत ले आया.

उस ने सेना से इस्तीफा दे दिया.रमन अपनी जन्नत को घर ले आया, पर वहां उस का विरोध हुआ. उस के मांबाप ने जन्नत को अपनाने से साफ मना कर दिया.इस बात से गुस्साया रमन जन्नत को ले कर वहां से चला गया. उधर पाकिस्तान में जन्नत के अब्बू को रमन और जन्नत की पूरी खबर लग गई. वे अपने रुतबे का फायदा उठा कर भारत आए और रमन के घर जा कर उन दोनों की छानबीन की.रमन के मांबाप ने उन्हें बताया कि वे दोनों यहां आए जरूर थे, पर हम ने उन्हें घर से निकाल दिया.जन्नत के अब्बू गुस्से में इतना पागल हो चुके थे कि उन्होंने रमन के मांबाप का कत्ल कर दिया.

तभी उन्हें अपने किसी खुफिया एजेंट से पता चला कि वे दोनों अपने गांव से दूर किसी कौटेज में छिपे हुए हैं. जन्नत के अब्बू ने उन दोनों को ढूंढ़ लिया और एक चाल चलते हुए कहा, ‘‘मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है. मैं तुम दोनों के रिश्ते को मंजूरी देता हूं.’’यह सुन कर जन्नत बड़ी खुश हुई. उस का डर दूर हो गया और उस ने रमन को खानेपीने का सामान लाने को कहा.जैसे ही रमन खाने का सामान लाने के लिए जाने लगा कि तभी जन्नत के अब्बू ने उसे गोली मार दी.

रमन बुरी तरह से जख्मी हो गया.गोली की आवाज सुन कर जन्नत भागीभागी वहां आई. उस ने देखा कि रमन खून में लथपथ जमीन पर पड़ा हुआ है. उस की सांसें रुक चुकी थीं.रमन को मरा हुआ देख कर जन्नत बोली, ‘‘अब्बू, आप ने यह क्या कर दिया… मेरी पूरी दुनिया ही खत्म कर दी. अब मैं जी कर क्या करूंगी…’’ इतना कह कर उस ने खुद को छुरा मार लिया और रमन के पास ही बेजान हो कर गिर पड़ी.

 

बेवफा सनम: जब कुंआरी लड़की पर फिसला शादीशुदा अनिल

कई तरह के पकवान बनाने मे माहिर नीलिमा एक बहुत अच्छी डांसर भी थी. वे दोनों एकदूसरे पर जान छिड़कते थे. दोनों की शादीशुदा जिंदगी पिछले 10 साल से बेहद सुकून और प्यार से चल रही थी.इधर, अनीता ने हाल ही में एमए और कंप्यूटर कोर्स किया था. वह किसी नौकरी की तलाश में थी. वह एक मिडिल क्लास परिवार से थी. पिछले कई दिनों से वह स्कूटी चलाने की प्रैक्टिस कर रही थी.

अनिल की कंपनी 3 शिफ्ट में चलती थी और उस की ड्यूटी सुबह 8 बजे से शाम 4 बजे वाली शिफ्ट में थी. सुबह घर से सवा 7 बजे निकल कर दफ्तर पहुंचना अनिल का रोज का नियम था. और अब क्योंकि यह उस की आदत में आ चुका था, इसलिए वह साधारण रफ्तार से कार चलाते हुए अपने औफिस की 10 किलोमीटर की दूरी महज 20 मिनट में नाप लेता था.हमेशा की तरह बेखयाली में कार में बजते म्यूजिक का मजा लेते हुए अनिल औफिस की तरफ जा रहा था.

अनीता अपनी स्कूटी ले कर सुबहसुबह सड़क पर थी. मालवीय नगर के पास के एक स्कूल के बाहर स्कूल बस खड़ी होने के चलते अनीता ने थोड़ी तेज रफ्तार में स्कूटी को साइड से निकालना चाहा, पर सामने दूसरी ओर से अनिल की कार आ गई और अनीता घबराहट में उस कार से भिड़ कर बीच सड़क पर औंधे मुंह जा गिरी.यह देख अनिल के होश फाख्ता हो गए. उस ने कार से उतर कर अनीता को टटोला, फिर घायल और बेहोश अनीता को किसी तरह से उठा कर अपनी कार में लिटाया और थोड़ी दूरी पर अनुराग अस्पताल में ले गया.सुबहसुबह इमर्जैंसी में अनीता को भरती किया गया.

उस के पास किसी तरह का पहचानपत्र नहीं मिलने के चलते अनिल उस के घर वालों को खबर करने में नाकाम था. अस्पताल में जानपहचान होने से उस ने अनीता को अपना निकट संबंधी बता कर भरती करा दिया.थोड़ी देर बाद जब अनीता को होश आया, तो उस ने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. पास बैठे अनिल को उस ने सवालिया निगाह से देखा.

अनिल ने उसे बताया कि कैसे वह उस की कार से टकरा कर बेहोश हो गई थी. बात करने पर पता चला कि अनीता के घर में और कोई नहीं था. उस के मांबाप और एकलौते भाई की एक हादसे में 2 साल पहले मौत हो चुकी थी.शाम तक अनीता के पास बैठा अनिल कब उस की सादगी पर मरमिटा, यह दोनों को ही नहीं पता चला. अनिल ने अपने शादीशुदा होने की बात अनीता से छिपा ली थी.

शाम को 5 बजे के आसपास नीलिमा का फोन आया, तो अनिल को होश आया कि उस का खुद का घर पर इंतजार हो रहा है. उस ने नीलिमा से झूठा बहाना बना दिया कि औफिस के किसी जरूरी काम के लिए उसे 2 दिन के लिए गुड़गांव जाना पड़ गया है और वह रास्ते में है.शाम तक अनीता को प्राइवेट रूम में शिफ्ट कर दिया गया और डाक्टर की सलाह पर और 2 दिन तक भरती रहने के लिए कहा गया.रात को अनीता के साथ प्राइवेट रूम में रुकने पर थोड़ा असहज महसूस करते हुए अनिल को अनीता ने देखा, तो वह बोली, ‘‘देखिए अनिलजी, आप ने मेरे लिए इतना किया, तो आप मेरे साथ रात को रूम में रुकने में शरमा क्यों रहे हैं, बल्कि घबराना तो मुझे चाहिए.’’अनिल ने रातभर अनीता का ध्यान रखा और अगले दिन शाम को अनीता को अस्पताल से छुट्टी मिल गई.

अस्पताल से डिस्चार्ज करा कर अनिल अनीता को उस के घर छोड़ने गया. थोड़ी देर बाद उस ने अपने घर के लिए निकालना चाहा, तो अनीता ने बेहद प्यार से उसे रोका और कहा, ‘‘मेरे लिए इतनाकुछ किया है, तो 2-4 दिन मेरे घर पर रह कर मुझे संभाल लो.’’अनिल भी अनीता के मोहपाश में बंधा जा रहा था, लेकिन उसे अपनी पत्नी का खयाल भी आ रहा था. खैर, आज की रात तो उस ने वहां रुकना मंजूर कर ही लिया. अनीता रात के खाने के बाद नहा कर गाउन पहन कर अपने बिस्तर पर लेट गई. रात के 10 बजे अनीता ने अनिल से घुटने की मालिश करने को कहा.

अनिल बाम ले कर मालिश करने लगा.अनीता ने घुटने से ऊपर भी दर्द की शिकायत की तो अनिल के हाथ उस की जांघ की मालिश भी करने लगे. अनीता के मुंह से मीठी आह निकलने लगी. उस ने बाएं कंधे पर भी मालिश करने को कहा और गाउन के ऊपर के 3 बटन खोल दिए. कंधे के साथ ही अनीता के बड़े उभारों की थोड़ी सी झलक अनिल को दिखने लगी.

अनिल के हाथ कंधे के नीचे सरकने लगे. उस ने अनीता से कहा कि अगर वह गाउन के और बटन खोल देगी तो मालिश करने में और आसानी होगी.अब तक अनीता पूरी तरह अनिल को अपना मान चुकी थी और खुद भी ऐसा ही कुछ चाह रही थी. नीचे के 2 बटन और खोलने के साथ ही उस ने अपनी फ्रंट ओपन ब्रा के हुक भी खोल दिए. अनीता के मादक शरीर की छुअन, उस का ताजा खिला हुआ मदमाता जोबन अनिल को और कुछ न सोचने के लिए काफी था.

अनिल जवानी से भरपूर अनीता के हर नाजुक अंग पर अपनी छाप छोड़ते हुए उस के गुलाबी होंठों को चूमता गया. कुछ ही समय में उन दोनों के जिस्म एक हो चुके थे. सुबह होने तक वे दोनों 4 बार सैक्स का मजा ले चुके थे. अनिल ने महसूस किया कि अनीता की जवानी नीलिमा से कई कदम आगे थी.जहां अनीता को अनिल एक जीवनसाथी और सहारे की तरह नजर आ रहा था, वहीं अनिल को ऐसा लग रहा था कि उसे देहसुख पाने का एक नया और कमसिन जरीया मिल गया है.

अनीता का देहसुख पाने की चाह में अनिल ने नीलिमा को झूठ कह दिया कि औफिस के काम के चलते उसे महीने में 15 दिन जयपुर से बाहर रहना पड़ेगा. अब अनिल का आधा समय अनीता और बाकी समय नीलिमा के साथ बीतने लगा और एकसाथ 2 जिस्मों का सुख उसे अलग ही मजा दे रहा था. अनीता की जवानी ने अभी अंगड़ाई लेनी शुरू की थी. वह अनिल के साथ सारीसारी रात सैक्स करने का मजा लेती थी. ऐसे में अनिल के पास नीलिमा के लिए ज्यादा कुछ बचता नहीं था.

नीलिमा के शिकायत करने पर अनिल बहाना बना देता कि काम ज्यादा होने के चलते थकान बहुत होने लगी है.4-5 महीने यों ही बीत गए. इधर अनीता बारबार अनिल पर शादी करने के लिए दबाव डाल रही थी. पर कभी उसे महंगे गिफ्ट दे कर, तो कभी और थोड़े दिन इंतजार का बहाना बना कर अनिल उस की जवानी का भरपूर मजा लेता रहा.पर एक ही शहर में 2 अलगअलग जगह ‘पत्नीसुख’ कितने दिन चलना था. एक दिन कुछ सामान लेने के लिए अपनी सहेली के साथ घर से निकली नीलिमा ने अनिल की कार एक घर के बाहर खड़ी देख ली. यह देख कर उस का माथा ठनक गया.

अनिल को फोन लगाया, तो उस ने कहा कि वह गुड़गांव के रास्ते में कार में ट्रैफिक में फंसा है, बाद में बात करेगा.पड़ोस में तहकीकात करने पर पता लगा कि बगल वाले घर में 4-5 महीने पहले प्रेम विवाह कर के अनीता नामक एक लड़की अपने पति के साथ रह रही है. जल्द ही ये लोग खुद के फ्लैट में शिफ्ट होने वाले हैं.यह बात अनीता ने ही फैलाई थी, ताकि अनिल उस के पास बेरोकटोक आजा सके और किसी को कोई शक न हो. यहां तक कि उस ने घर में अनिल के साथ जोड़े समेत खिंचवाई गईं बहुत सारी तसवीरें फे्रम करा कर दीवार पर टांग रखी थीं. एक गहरे सदमे के साथ नीलिमा अपने घर लौटी.

उस ने सारी रात करवटें बदलते हुए बिताई.अगले दिन नीलिमा ने अनिल के औफिस के समय के दौरान अनीता से मिलने का फैसला किया. अनीता के घर नीलिमा को आसानी से प्रवेश मिल गया, क्योंकि अनीता काफी सरल स्वभाव की थी. यह बात और थी कि वह अब अनिल के मोहपाश में पूरी तरह से बंधी हुई थी.घर की दीवारों पर अनिल और अनीता की ढेरों तसवीरें देख कर नीलिमा को चक्कर से आने लगे. जब उस ने तसवीर में उस के साथ वाले आदमी के बारे में अनीता से पूछा, तो उस ने बताया कि उन दोनों ने कुछ महीने पहले ही मंदिर में प्रेम विवाह किया है और अनिल के घर वालों की रजामंदी मिलते ही वे दोनों पूरे रीतिरिवाज के साथ शादी कर लेंगे.

नीलिमा अपने साथ अपनी शादी के बाद का फोटो अलबम वहां ले गई थी. उस ने अनीता के सामने वह फोटो अलबम रख दिया. वह अलबम खोलते ही चक्कर आने की बारी अनीता की थी. धीरेधीरे अनिल के झूठ के सारे पुलिंदे खुलते चले गए.अनीता गहरे सदमे में आ चुकी थी. उस ने अनिल के खिलाफ पुलिस में धोखाधड़ी का केस दर्ज करने की बात कही. नीलिमा को पता था कि ऐसा होने पर न केवल अनिल को जेल हो जाएगी, बल्कि उस की नौकरी भी चली जाएगी, खुद की शादीशुदा जिंदगी तो उस की बिगड़ ही चुकी थी.नीलिमा यह सब नहीं चाहती थी, पर वह अनिल को कड़ा सबक भी सिखाना चाहती थी.

अनीता ने स्वीकार किया कि अनिल ने उस के ऊपर अभी तक लाखों रुपए खर्च किए हैं और अनिल को अपने घर में बिना उस के बारे में अतापता किए  इतने दिनों से आनेजाने की छूट देने की वह खुद जिम्मेदार थी. साथ ही, खुद के पड़ोसियों को यह झूठ कह कर कि अनिल से उस की शादी हो चुकी है, गुनाह में वह बराबर की हिस्सेदार थी.अनिल को सबक कैसे सिखाया जाए, इस पर अगले दिन साथ बैठ कर विचार करने की कह कर नीलिमा घर चली गई.

अनीता के भविष्य के सपनों पर जो बिजली गिरी थी, उस का अंदाजा लगाना आसान नहीं था.थोड़ी देर बाद अनीता किसी को बिना कुछ कहे, घर पर ताला लगा कर निकल गई. शाम को अनिल को घर बंद मिला, तो उस ने अनीता को फोन किया, लेकिन वह भी स्विच औफ था.आखिरकार अनिल ने खुद के घर की ओर रुख किया. नीलिमा को अनिल की शक्ल से नफरत हो चुकी थी.

नीलिमा का बदलाबदला बरताव अनिल को समझ नहीं आ रहा था.जो नहीं होना चाहिए था, वही हुआ. अगले दिन अखबार में 25-26 साल की एक जवान लड़की की जगतपुरा रेलवे स्टेशन पर रेल से कट कर मौत होने की खबर आई. वह अनीता ही थी.अनिल और नीलिमा का रिश्ता दोबारा कभी नहीं सुधर सका. अनिल की हवस और अनीता की नासमझी ने 3 जिंदगियां हमेशाहमेशा के लिए बरबाद कर दी थीं.

वे नौ मिनट: बुआजी का अनोखा फरमान

“निम्मो,  शाम के दीए जलाने की तैयारी कर लेना. याद है ना, आज 5 अप्रैल है.”– बुआ जी ने मम्मी को याद दिलाते हुए कहा.

” अरे दीदी ! तैयारी क्या करना .सिर्फ एक दिया ही तो जलाना है, बालकनी में. और अगर दिया ना भी हो तो मोमबत्ती, मोबाइल की फ्लैश लाइट या टॉर्च भी जला लेंगे.”

” अरे !तू चुप कर “– बुआ जी ने पापा को झिड़क दिया.

” मोदी जी ने कोई ऐसे ही थोड़ी ना कहा है दीए जलाने को. आज शाम को 5:00 बजे के बाद से प्रदोष काल प्रारंभ हो रहा है. ऐसे में यदि रात को खूब सारे घी के दीए जलाए जाए तो महादेव प्रसन्न होते हैं, और फिर घी के दीपक जलाने से आसपास के सारे कीटाणु भी मर जाते हैं. अगर मैं अपने घर में होती तो अवश्य ही 108 दीपों की माला से घर को रोशन करती और अपनी देशभक्ति दिखलाती.”– बुआ जी ने अनर्गल प्रलाप करते हुए अपना दुख बयान किया.

दिव्या ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि मम्मी ने उसे चुप रहने का इशारा किया और वह बेचारी बुआ जी के सवालों का जवाब दिए बिना ही कसमसा कर रह गई.

” अरे जीजी! क्या यह घर आपका नहीं है ? आप जितने चाहे उतने दिए जला लेना. मैं अभी सारा सामान ढूंढ कर ले आती हूं.” —मम्मी की इसी कमजोरी का फायदा तो वह बरसों से उठाती आई हैं.

बुआ पापा की बड़ी बहन हैं तथा विधवा हैं . उनके दो बेटे हैं जो अलग-अलग शहरों में अपने गृहस्थी बसाए हुए हैं. बुआ भी पेंडुलम की भांति बारी-बारी से दोनों के घर जाती रहती हैं. मगर उनके स्वभाव को सहन कर पाना सिर्फ मम्मी के बस की ही बात है, इसलिए वह साल के 6 महीने यहीं पर ही रहती हैं . वैसे तो किसी को कोई विशेष परेशानी नहीं होती क्योंकि मम्मी सब संभाल लेती हैं परंतु उनके पुरातनपंथी विचारधारा के कारण मुझे बड़ी कोफ्त होती है.

इधर कुछ दिनों से तो मुझे मम्मी पर भी बेहद गुस्सा आ रहा है. अभी सिर्फ 15- 20 दिन ही हुए थे हमारे शादी को ,मगर बुआ जी की उपस्थिति और नोएडा के इस छोटे से फ्लैट की भौगोलिक स्थिति में मैं और दिव्या जी भर के मिल भी नहीं पा रहे थे.

कोरोना वायरस के आतंक के कारण जैसे-तैसे शादी संपन्न हुई.हनीमून के सारे टिकट कैंसिल करवाने पड़े, क्योंकि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विमान सेवा बंद हो चुकी थी. बुआ को तो गाजियाबाद में ही जाना था मगर उन्होंने कोरोना माता के भय से पहले ही खुद को घर में बंद कर लिया. 22 मार्च के जनता कर्फ्यू के बाद स्थिति और भी चिंताजनक हो गई और  25 मार्च को लॉक डाउन का आह्वान किए जाने पर हम सबको कोरोना जैसी महामारी को हराने के लिए अपने-अपने घरों में कैद हो गए; और साथ ही कैद हो गई मेरी तथा दिव्या की वो सारी कोमल भावनाएं जो शादी के पहले हम दोनों ने एक दूसरे की आंखों में देखी थी.

दो कमरों के इस छोटे से फ्लैट में एक कमरे में बुआ और उनके अनगिनत भगवानों ने एकाधिकार कर रखा था.  मम्मी को तो वह हमेशा अपने साथ ही रखती हैं ,दूसरा कमरा मेरा और दिव्या का है ,मगर अब पिताजी और मैं उस कमरे में सोते हैं तथा दिव्या हॉल में, क्योंकि पिताजी को दमे की बीमारी है इसलिए वह अकेले नहीं सो सकते. बुआ की उपस्थिति में मम्मी कभी भी पापा के साथ नहीं सोतीं वरना बुआ की तीखी निगाहें  उन्हें जला कर भस्म कर देंगी. शायद यही सब देखकर दिव्या भी मुझसे दूर दूर ही रहती है क्योंकि बुआ की तीक्ष्ण निगाहें हर वक्त उसको तलाशती रहती हैं.

“बेटे ! हो सके तो बाजार से मोमबत्तियां ले आना”, मम्मी की आवाज सुनकर मैं अपने विचारों से बाहर निकला.

” क्या मम्मी ,तुम भी कहां इन सब बातों में उलझ रही हो? दिए जलाकर ही काम चला लो ना. बार-बार बाहर निकलना सही नहीं है. अभी जनता कर्फ्यू के दिन ताली थाली बजाकर मन नहीं भरा क्या जो यह दिए और मोमबत्ती का एक नया शिगूफा छोड़ दिया.”   मैंने धीरे से बुदबुताते हुए मम्मी को झिड़का, मगर इसके साथ ही बाजार जाने के लिए मास्क और गल्ब्स पहनने लगा. क्योंकि मुझे पता था कि मम्मी मानने वाली नहीं हैं .

किसी तरह कोरोना वारियर्स के डंडों से बचते बचाते  मोमबत्तियां तथा दिए ले आया. इन सारी चीजों को जलाने के लिए तो अभी 9:00 बजे रात्रि का इंतजार करना था, मगर मेरे दिमाग की बत्ती तो अभी से ही जलने लगी थी. और साथ ही इस दहकते दिल में एक सुलगता सा आईडिया भी आया था. मैंने झट से मोबाइल निकाला और व्हाट्सएप पर दिव्या को अपनी प्लानिंग समझाई, क्योंकि आजकल हम दोनों के बीच प्यार की बातें व्हाट्सएप पर ही बातें होती थी. बुआ के सामने तो हम दोनों नजरें मिलाने की भी नहीं सोच सकते.

” ऐसा कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि बुआ जी हमे बहू बहू की रट लगाई रहती हैं” दिव्या ने रिप्लाई किया.

” मैं जैसा कहता हूं वैसा ही करना डार्लिंग, बाकी सब मैं संभाल लूंगा. हां तुम कुछ गड़बड़ मत करना. अगर तुम मेरा साथ दो तो वह नौ मिनट हम दोनों के लिए यादगार बन जाएगा.”

” ओके. मैं देखती हूं.” दिव्या के इस जवाब से मेरे चेहरे पर चमक आ गई .

और मैं शाम के नौ मिनट की अपनी उस प्लानिंग के बारे में सोचने लगा. रात को जैसे ही 8:45 हुआ कि मम्मी ने मुझसे कहा कि घर की सारी बत्तियां बंद कर दो और सब लोग बालकनी में चलो. तब मैंने साफ-साफ कह दिया–

” मम्मी यह सब कुछ आप ही लोग कर लो. मुझे आफिस का बहुत सारा काम है, मैं नहीं आ सकता.”

” इनको रहने दीजिए मम्मी जी ,चलिए मैं चलती हूं.” दिव्या हमारी पूर्व नियोजित योजना के अनुसार मम्मी का हाथ पकड़कर कमरे से बाहर ले गई. दिव्या ने मम्मी और बुआ के साथ मिलकर 21 दिए जलाने की तैयारी करने लगी. बुआ का मानना था कि 21 दिनों के लॉक डाउन के लिए 21 दिए उपयुक्त हैं. उन्हें एक पंडित पर फोन पर बताया था.

“मम्मी जी मैंने सभी दियों में तेल डाल दिया है. मोमबत्ती और माचिस भी यहीं रख दिया है. आप लोग जलाईए, तब तक मैं घर की सारी बत्तियां बुझा कर आती हूं.”— दिव्या ने योजना के दूसरे चरण में प्रवेश किया.

वह सारे कमरे की बत्तियां बुझाने लगी. इसी बीच मैंने दिव्या के कमर में हाथ डाल कर उससे कमरे के अंदर खींच लिया और दिव्या ने भी अपने बाहों की वरमाला मेरे गले में डाल दी.

” अरे वाह !तुमने तो हमारी योजना को बिल्कुल कामयाब बना दिया .” मैंने दिव्या की कानों में फुसफुसाकर कहा .

“कैसे ना करती; मैं भी तो कब से तड़प रही थी तुम्हारे प्यार और सानिध्य को” दिव्या की इस मादक आवाज ने मेरे दिल के तारों में झंकार पैदा कर दी .

“सिर्फ 9 मिनट है हमारे पास…..”— दिव्या कुछ और बोलती इससे पहले मैंने उसके होठों को अपने होठों से बंद कर दिया. मोहब्बत की जो चिंगारी अब तक हम दोनों के दिलों में लग रही थी आज उसने अंगारों का रूप ले लिया था ,और फिर धौंकनी सी चलती हमारी सांसों के बीच 9 मिनट कब 15 मिनट में बदल गए पता ही नहीं चला.

जोर जोर से दरवाजा पीटने की आवाज सुनकर हम होश में आए.

” अरे बेटा !सो गया क्या तू ? जरा बाहर तो निकल…. आकर देख दिवाली जैसा माहौल है.”– मां की आवाज सुनकर मैंने खुद को समेटते हुए दरवाजा खोला. तब तक दिव्या बाथरूम में चली गई .

“अरे बेटा! दिव्या कहां है ?दिए जलाने के बाद पता नहीं कहां चली गई?”

” द…..दिव्या तो यहां नहीं आई . वह तो आपके साथ ही गई थी.”— मैंने हकलाते हुए कहा और  मां का हाथ पकड़ कर बाहर आ गया.

बाहर सचमुच दिवाली जैसा माहौल था. मानो बिन मौसम बरसात हो रही हो.तभी दिव्या भी खुद को संयत करते हुए बालकनी में आ खड़ी हुई.

” तुम कहां चली गई थी दिव्या ? देखो मैं और मम्मी तुम्हें कब से ढूंढ रहे हैं “— मैंने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहा.

” मैं छत पर चली गई थी .दियों की रोशनी देखने.”— दिव्या ने मुझे घूरते हुए कहा “सुबूत चाहिए तो 9 महीने इंतजार कर लेना”. और मैंने एक शरारती मुस्कान के साथ अंधेरे का फायदा उठाकर और बुआ से नजरें बचाकर एक फ्लाइंग किस उसकी तरफ उछाल दिया.

प्यार का रिश्ता: कौनसा था वह अनाम रिश्ता

‘‘लक्ष्मी, एक अच्छी खबर है.’’ ‘‘क्या…?’’ लक्ष्मी ने पूछा. ‘‘मैं ने अपनी रीना का रिश्ता पक्का कर दिया है.’’ ‘‘अभी वह 14 साल की ही तो है.’’ ‘‘चुप रह. ज्यादा जबान न चलाया कर. 1-1 कर के 4-4 बेटियां पैदा कर दीं और अब मुझे कानून पढ़ा रही है. ‘‘बैजनाथ अपने भतीजे रमेश के लिए अपनी रीना का हाथ मांग रहे थे. मैं ने हां कर दी. शाम को 4-5 लोग रिश्ता पक्का करने के लिए आएंगे. रीना  को तैयार कर देना. यह पकड़ मिठाई  का डब्बा.’’ ‘‘कैसी बात कह रहे हैं रीना के बापू. कहां हमारी नाजुक सी बेटी और कहां तुम्हारी उमर का दुहाजू रमेश.’’ ‘‘बस, अब आगे जबान मत खोलना. आदमी की उम्र नहीं देखी जाती है, उस की कमाई देखी जाती है. मुंबई में तुम्हारी बेटी राज करेगी.

‘‘पूरीसब्जी बना लेना. खाना अच्छी तरह बनाना, कुछ गड़बड़ मत करना. रमेश वहां टैक्सी चलाता है. 1,000 रुपए तो रोज के आसानी से कहीं गए नहीं हैं. वह बता रहा था.’’ शाम को रमेश अपने काकाकाकी को ले कर आया. लाल चमकीली कढ़ी हुई साड़ी, पायलचूड़ी और सोने की अंगूठी पहना कर रीना की शादी पक्की कर दी. ढोलक पर गीत गाए गए, खानापीना और रात में शराब का पीनापिलाना भी हुआ. रीना के लिए शादी का मतलब केवल सजनासंवरना, बढि़या साड़ी, चूड़ी, पायल, महावर, सिंदूर, पाउडर और लिपिस्टिक था. उस की निगाहें तो उस सामान से हट कर रमेश की तरफ गई ही नहीं. अम्मां आंसुओं से रोई जा रही थीं.

बापू गाली दे कर बोल रहे थे, ‘‘असगुन मना रही है रोरो कर.’’ रीना तो अपनी शादी के बाद मुंबई जाने की खुशी में फूली नहीं समा रही थी. उस ने जल्दीजल्दी चूडि़यां पहन लीं, पाउडर और लिपिस्टिक लगा कर वह खुद को बारबार आईने में देख रही थी.  तभी रीना की सहेलियां सोनाली और गौरी आ गईं और उस की साड़ी, पायल और अंगूठी को लालची निगाहों से छूछू कर देखने लगीं. उन लोगों की निगाहों में उस के लिए जलन थी. ‘‘क्या री रीना, अब तू मुंबई में रहेगी?’’  ‘‘और नहीं तो क्या. मैं वहां फिल्म देखने जाऊंगी.’’ रीना दिनरात मुंबई नगरी के ख्वाबों में खोई रहती. कैसा होगा मुंबई शहर? वह तो कभी रेलगाड़ी में भी नहीं बैठी थी. कभी गांव से बाहर ही नहीं गई थी.

यहां तो उसे हर 2-4 दिन के बाद भूखे पेट सोना पड़ता था. बापू को मजदूरी न मिलती तो रोटी कैसे पकती या वह शराब पी कर आते तो अम्मां को मारते और गाली देते थे. रोतेरोते वह डर के मारे कोने में दुबक कर सो जाती. रीना रंगबिरंगे सपनों की दुनिया में खोई हुई थी, तभी उस के मन में खयाल यह आया कि कहीं रमेश भी नशा कर के उसे पीटेगा तो नहीं? लेकिन सुखद भविष्य के बारे में सोच कर उस का मन बोला, ‘नहींनहीं…’ एक दिन शाम को रीना अपनी सहेली गौरी के पास जा रही थी, तभी पीछे से किसी ने उसे बांहों में भर लिया. वह घबरा कर चिल्ला पड़ी, तो उस ने उस के मुंह पर अपनी हथेली रख दी. रमेश को पहचान कर रीना शरमा गई थी. गोराचिट्टा रमेश उसे अच्छा लगा था. टीशर्ट और पैंट पहना हुआ, हाथ में घड़ी बांधे हुए वह किसी फिल्मी हीरो से कम नहीं लग रहा था.

8-10 दिन के अंदर ही रीना ब्याह कर के रमेश के साथ मुंबई आ गई थी. वह आंखें फाड़फाड़ कर ऊंचीऊंची इमारतों पर सजी हुई रंगबिरंगी रोशनियों को देख कर हैरानी से भर उठी थी. अपनी आंखों में सुनहरे भविष्य के अनगिनत सपने संजोए हुए रीना अपने घर पहुंची थी. वहां सासू मां ने उस का आरती कर के स्वागत किया था. ‘‘रमेश की बहू तो सुंदर है, लेकिन उम्र में अभी छोटी है,’’ किसी ने कहा. आसपास की औरतें, बच्चे रीना को झांकझांक कर देखने की कोशिश कर रहे थे. सासू मां ने उसे खाने के लिए पूरीसब्जी और खीर दी थी.

रीना को तो शादी बड़ा फायदे का सौदा समझ में आ रहा था. बढि़या खाना, बढि़या कपड़े, सजनासंवरना, उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. लेकिन रात में जब रमेश ने उस के तन को घायल किया तो उस का मन भी घायल हो  उठा था. वह तड़प कर चीख उठी थी और सासू मां के आंचल में आ कर दुबक गई थी.  अगली सुबह रीना देर तक सोती रही थी. जब उस की आंखें खुली थीं, तो दिन चढ़ आया था. सासू मां रमेश को धीरेधीरे कुछ समझा रही थीं. रमेश को देखते ही रीना डर के मारे कांप उठी थी. रात की बातों को याद कर के वह घबरा उठी थी. रमेश अपने काम पर चला गया था. सासू मां ने उस के लिए आलू का परांठा बनाया था, फिर उसे प्यार से समझाने लगीं कि शादी का मतलब ही यही होता है, इसलिए रमेश से डरो नहीं, अब वह तुम्हारा पति है.

रमेश शाम को घर लौट कर आया, तो रीना के लिए रसगुल्ले ले कर आया. उस ने आहिस्ता से रीना की हथेली को चूम लिया था. फिर उस ने उसे अपनी बांहों में भर लिया था.  धीरेधीरे रीना को रमेश अच्छा लगने लगा था. उस की प्यार भरी छेड़छाड़ से उस के मन में गुदगुदी हो उठती थी. वह रोज ही उस के लिए कुछ न कुछ खाने के लिए ले आता था. सासू मां भी काम पर चली जाती थीं. वे घर का काम करती थीं. झाड़ूबुहार, बरतन, कपड़ा, सब काम उन के लिए नया नहीं था.  एक दिन सुबह ही रमेश ने रीना को कह दिया कि शाम को तैयार रहना, आज तुझे घुमाने ले जाऊंगा. रीना सुबह से ही बहुत खुश थी. रमेश उसे अपनी आटोरिकशा में बिठा कर जुहूचौपाटी ले कर गया. वहां लोगों की भीड़ देख ऐसा लग रहा था कि जैसे मेला लगा हो. वहां रीना ‘बर्फ का गोला’ खा कर बहुत खुश हुई थी. सब तरफ लोग कुछकुछ खापी रहे थे. उस ने तो कभी नदी भी नहीं देखी थी, इतना  बड़ा समुद्र देख कर वह हैरानी से भर उठी थी.  रमेश ने उसे ठंडी बोतल पिलाई, गोलगप्पे खिलाए. वे दोनों घंटों समुद्र के किनारे बैठे रहे थे.

रमेश उस की हथेलियों को पकड़ कर बैठा हुआ मीठीमीठी बातें कर रहा था. रीना सजधज कर अपनेआप को महारानी से कम नहीं समझती थी. अब वह रमेश के लौटने का इंतजार करती, क्योंकि उस की प्यारभरी छेड़छाड़ उसे अच्छी लगती थी. यहां पर रीना के घर में गैस का चूल्हा था, टैलीविजन था और पानी ठंडा करने वाली मशीन भी थी. गांव में तो लकड़ी जला कर रोटी बनाती तो धुएं  के मारे रोतेरोते उस की आंखें लाल हो जाती थीं.

जब रीना को अपनी अम्मां की याद आती, तो रमेश अपने फोन से अपने बापू से बात करवा देता था. फिर रीना पेट से हो गई थी. सासू मां भी खुश थीं और रमेश भी बहुत खुश था. वह उस के इर्दगिर्द घूमता रहता. कभी काम पर जाता, कभी नहीं जाता. कभी उसे फिल्म दिखाने ले जाता, कभी बाजार ले जाता. वह बहुत खुश थी. सासू मां भी कोठी से उस के खाने के लिए कुछ न कुछ जरूर ले कर आतीं. रमेश की एक बात से रीना को गुस्सा आता था कि वह उसे किसी से बात करते हुए नहीं देख पाता था. वह कहीं भी किसी औरत से भी बात करे तो वह नाराज हो जाता था.

रीना ने परेशान हो कर एक दिन सासू मां से पूछा, तो उन्होंने बताया कि रमेश की पहली बीवी किसी दूसरे के चक्कर में पड़ कर उस के साथ भाग गई थी, इसीलिए वह हर समय उसे अपनी आंखों के सामने रखना चाहता था. समय आने पर रीना छोटी सी उम्र में जुड़वां बच्चों की मां बन गई. अस्पताल में आपरेशन और दवा में काफी खर्चा आया. 2 नन्हें बच्चों के दूध, दवा, डाक्टर, रोज के खर्चे बहुत बढ़ गए. वह बच्चों के साथ ज्यादा बिजी रहती. कमजोरी के चलते जल्दी थक जाती थी. अब वह रमेश की ओर ध्यान नहीं दे पाती थी. वह बातबात पर चिड़चिड़ाने लगा था.

रीना समझ गई थी कि रमेश शराब पी कर आने लगा है, क्योंकि वह उस के साथ भी जब जाता था तो कुछ चुपचाप से पी कर आता था. जब वह पूछती, तो कह देता कि यह उस की ताकत की दवा है. लेकिन रीना जानती थी कि रमेश शराब पीता है, क्योंकि नशा करने के बाद वह जानवर की तरह उस पर टूट पड़ता था और अब जबकि वह बच्चों के चलते उस के काबू में नहीं आती तो वह गालीगलौज और उस के कुछ बोलने पर पिटाई करने के लिए हाथ उठाने लगा था. रीना के सपने और खुशियां दफन होने लगी थीं. एक तरफ 2 नन्हें बच्चे तो दूसरी तरफ रमेश का रोजरोज नशा करना. वह कभी काम पर जाता, कभी नहीं जाता. पैसे की तंगी होने लगी. घर का माहौल बिगड़ने लगा. लड़ाईझगड़ा, कलह, गालीगलौज और मारपीट रोज की कहानी हो गई थी.

एक दिन रमेश नशा कर के घर आया, तो सासू मां ने उसे डांटा. उस ने बिगड़ कर खाने की थाली उठा कर फेंक दी और जब रीना रोने लगी तो उस ने उसे जोर से धक्का दे दिया था, ‘‘टेसुए बहाती है, मेरा पैसा?है, तुम कौन होती हो मुझे रोकने वाली?’’ उस दिन रीना को अपनी अम्मां की बहुत याद आई थी. वह तो कह भी नहीं सकती थी कि अम्मां के घर जाना है. वहां तो खाने का भी ठिकाना नहीं था. तकरीबन महीनाभर हो गया था, रमेश दिनभर घर पर पड़ा रहता और चार समय खाना मांगता.  ‘‘काम पर क्यों नहीं जाता है?’’ ‘‘बस… मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’ ‘‘नशा करने के समय तबीयत ठीक हो जाती है. एक पैसा दे नहीं रहे हो, चार समय रोटी खाने को चाहिए, कहां से आएगी रोटी?’’ ‘‘मेरी रोटी गिनती है,’’ फिर गाली देते हुए रमेश बोला, ‘‘तेरे चलते ही मैं बरबाद हो गया. बैंक वालों की किस्त नहीं दे पाया तो वे लोग मेरा आटोरिकशा उठा कर ले गए. तुझे खुश करने के लिए कभी सिनेमा ले जाता, तो कभी आइसक्रीम खिलाता. ‘आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपया’.

बस अब तो ठनठन गोपाला.’’ रमेश गुस्से में पैर पटकता हुआ घर से चला गया था. बच्चे 4 साल के हो गए थे, उन्हें स्कूल भेजना था. रीना ने मन ही मन काम करने का निश्चय कर लिया. अब वह रमेश की एक भी न सुनेगी. अगले दिन से ही सोसाइटी में उसे 3 घरों में काम मिल गया था. एक अंकल तो बुजुर्ग थे. वे घर में बिलकुल अकेले रहते थे. उन के यहां उसे खाना, झाड़ूबरतन, कपड़ा सब करना था. उन्होंने 10,000 रुपए महीना देने को बोला, तो उस की तो बांछें खिल गई थीं. इसी तरह से 2 घरों में और उसे काम मिल गया. मुंबई के छोटेछोटे घर, साफसुथरे, उन घरों में काम करने में उसे मजा आता. अब रीना जितनी देर घर से बाहर रहती, वहां के झंझट और कलहक्लेश से दूर रहती. वहां जा कर मैडम मान्या के 2 छोटेछोटे बच्चे थे. उन को देख कर, उसे अपने फटेहाल बच्चे आंखों के सामने घूम जाते.

लेकिन रीना चुपचाप अपना काम करती थी. जैसे ही उन्हें पता लगा कि उस के 2 बच्चे हैं, वह चौंक उठी थीं, ‘‘तुम तो लड़की सी लगती हो. तुम्हारे बच्चे हैं?’’ उन्हें बड़ी हैरानी हुई थी. मैडम मान्या ने अपने कई सूट निकाल कर दे दिए थे. जब बच्चे की बात सुनी तो बच्चे के भी कपड़े दे दिए. अंकल के यहां से खाना तय था वह उस के बच्चों के काम आता. महीनेभर में ही रीना की हालत सुधर गई. अब उस ने रमेश की फिक्र करना बिलकुल बंद कर दिया. उन दोनों के बीच बस अब एक ही रिश्ता बचा था. वह नशे में उस के शरीर पर टूट पड़ता और अपनी भूख मिटा कर बेहोशी की नींद सो जाता. अब वह रमेश को एक देह ही समझती, उस के मन के कोने में उस के लिए नफरत बढ़ती जा रही थी.

रमेश का शराब का चसका इतना बढ़ गया था कि बक्से, अलमारी में उस का छिपाया हुआ पैसा, सब चुरा कर ले गया. रीना ने तकिए के अंदर अपनी सोने की अंगूठी और पायल छिपा कर सिल दी थी. वह भी नशे के लिए रमेश चुरा कर ले गया था. शराब के नशे में रमेश कभी नाली में पड़ा मिलता, तो कभी ठेके पर. जब चाल वाले रीना को खबर करते, तो वह पकड़ कर ले आती. लेकिन अब जब वह गाली देता तो वह भी चार सुनाती.

अगर मारने को वह हाथ उठाता, तो वह भी जो हाथ में आता उठा कर मार देती. जिस दिन रीना को पता लगा कि वह उस की अंगूठी, रुपए, पायल चुरा ले गया?है, उस दिन उस ने उसे चुनचुन कर गाली दी और धक्के मार कर घर से निकाल दिया था.

सरिता मैडम बैंक में काम करती थीं, उन्होंने रीना का अकाउंट बैंक में खुलवा दिया. उस की एक रैकरिंग की स्कीम भी चालू करवा दी. अब वह अपने पैरों पर खड़ी थी. इस के अलावा कपड़ेत्योहार वगैरह अलग मिल जाते थे. अब वह रमेश से नहीं डरती थी और न ही उस की परवाह करती थी. सोसाइटी में दूसरी बाइयों के साथ खूब बातें होतीं, सब की एक सी परेशानी रहती, लेकिन आपस में हंसीमजाक कर  के सब अपना दिल हलका कर लेती थीं. वहीं पर रीना की मुलाकात सुनील से हुई थी.

वह वहां पर प्लंबर था. छोटी सी आपसी मुसकान दोस्ती में बदल गई थी.  ‘‘काहे री छम्मकछल्लो, आज बड़ी सुंदर लग रही हो,’’ सुनील बोला. रीना मुसकरा कर शरमा गई. अभी वह 23-24 साल की ही तो थी. उस के मन में भी तो अरमान थे. इधर रमेश की हालत बिगड़ती चली जा रही थी. उस का लिवर खराब हो रहा था. वह उस के लिए दवा ले आती, लेकिन उस से कोई फायदा नहीं होता.

रीना और सासू मां दोनों मिल कर रमेश को ‘नशा मुक्ति सैंटर’ ले गईं. सुनील ने बताया था कि पहले वह भी शराब पीने लगा था, लेकिन वहां से इलाज करा कर ठीक हो गया. रमेश भी वहां भरती रहा. उस का नशा छूट भी गया था, लेकिन वहां से लौट कर आते ही उस ने फिर से शराब पीना शुरू कर दिया था. अब उस की हालत पहले से ज्यादा बिगड़ गई थी. रीना रमेश की हरकतों से तंग हो चुकी थी, इसलिए वह अपने काम पर खूब सजधज कर जाती.

सुनील उस के लिए चूड़ी ले आया था. वह पहन कर अपने हाथों को निहारती हुई निकल  रही थी. तभी रमेश गाली देते हुए चिल्लाया, ‘‘काम पर जाती है कि अपने यार  से मिलने जाती है. ऐसे सजधज कर निकलती है, जैसे मेला देखने जा रही हो.’’ ‘‘काहे गाली दे रहे हो. मुझे भरभर हाथ चूड़ी अच्छी लगती है तो पहनती हो. काहे को गुस्सा हो रहे हो. तुम्हारे नाम की ही तो चूड़ी पहनती हूं,’’ इतना कह कर रीना जल्दीजल्दी अपने काम पर जाते के लिए निकल पड़ी थी.

चाल में आतेजाते अखिल मिल जाता था. वह भी देवर बन कर उस से हंसीमजाक करता. पहले तो रमेश के डर से रीना बाहर निकलती ही नहीं थी. अब वह आराम से उस से भी बात करती.  ‘‘भाभीजी, बड़ी लाइट मार रही हो,’’ अखिल बोला. तारीफ भला किसे नहीं पसंद. वह भी उस के समय से ही निकलती. वह रमेश के सामने भी कई बार उस के घर चाय पीने आ जाता. ‘‘रमेश भैया, बड़े किस्मत वाले हो, जो ऐसी पत्नी मिली, घर भी संभाल रही है और बाहर भी,’’ अखिल जब यह बोलता, तब रमेश कुढ़ कर रह जाता. रीना खूब सजधज कर अपने काम पर जाया करती, जो रमेश को बहुत नागवार गुजरता, लेकिन अब वह उस की परवाह नहीं करती थी. दूसरा, वह शारीरिक रूप से बहुत कमजोर हो चुका था.

रमेश अपनी अम्मां से चुपचाप पैसा ले लेता और शराब पी आता. अब तो डाक्टर ने भी मना कर दिया था. रीना कभी डाक्टर के हाथ जोड़ती, तो अस्पताल भागती. उसे काम से भी छुट्टी लेनी पड़ती, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल रहा था. मैडम से रोजरोज छुट्टी मांगती तो वे चार बातें सुनातीं. इधर बच्चों की अलग स्कूल से शिकायत आई थी. रीना तो पढ़ीलिखी नहीं थी. उस ने सुनील के सामने अपनी समस्या रखी तो वह पढ़ाने को राजी हो गया. उस ने पैसे की बात पूछी, तो उस ने मना कर दिया. सुनील रोज सुबहसुबह बच्चों को पढ़ाने के लिए आने लगा. कभी वह तो कभी सासू मां सुबह उस को चायनाश्ता करवा देतीं. यह आपसी तालमेल अच्छा बन गया था.

बच्चों के इम्तिहान में नंबर अच्छे आए, तो उस का मन खुश हो गया था. रमेश की हालत बिगड़ती जा रही थी. वह समझ रही थी कि अब रमेश ज्यादा दिन नहीं रहेगा. एक दिन रीना काम पर गई हुई थी, तभी उस के फोन पर खबर आई कि तेरा रमेश हिचकी ले रहा है. वह भाग कर घर आई थी. पीछेपीछे सुनील भी आ गया था. रमेश सच में इस दुनिया से विदा हो गया था. फिर शुरू हो गया चाल की औरतों का जुड़ना, रिश्तेदारों का आना और रोनाधोना, सासू मां पछाड़ें खा रही थीं. दोनों बच्चे भी ‘पापापापा’ कह कर रो रहे थे.

सब रीना से रोने को बोल रहे थे, लेकिन उसे रोना ही नहीं आ रहा था. कोई रोने को बोल रहा, कोई चूड़ी तोड़ रहा तो कोई मांग से सिंदूर पोंछ रहा था. रीना मन ही मन सोच रही थी, ‘मैं क्यों रोऊं? चला गया तो अच्छा हुआ. मेरी जान का क्लेश चला गया. कभी चैन नहीं लेने दिया, कभी कोठी के अंकल के साथ नाम जोड़ देता तो कभी सुनील तो कभी अखिल के साथ. जिस से भी मैं दो पल बात करती, उसी के साथ रिश्ता जोड़ देता. गाली तो हर समय जबान पर रहती…’ रमेश की अर्थी उठनी थी, इसलिए पैसे की जरूरत थी. उस ने मान्या मैडम को फोन कर के बताया था कि उस का आदमी नहीं रहा है, इसलिए पैसे की जरूरत है.

सुनील जा कर पैसे ले आया था. रीना मन ही मन सोच रही थी ‘वाह रे पैसा, जब बच्चा पैदा हुआ था, तो आपरेशन, दवा के लिए पैसा चाहिए, इनसान की मौत हो गई है तो दाहसंस्कार के लिए भी पैसा.’  रमेश की अर्थी सज चुकी थी. सुनील घर के सदस्य की तरह आगे बढ़ कर सारे काम जिम्मेदारी से कर रहा था. सासू मां और चाल की औरतें चिल्लाचिल्ला कर रो रही थीं. तीसरे दिन हवन और शांतिपाठ हो कर शुद्धि हो गई थी. अगली सुबह जब वह काम पर जाने के लिए निकलने लगी, वैसे ही सासू मां उस पर चिल्ला उठी थीं ‘‘कैसी लाजशर्म छोड़ दी है. शोक तो मना नहीं रही और देखो तो काम पर जा रही है. ऐसी बेशर्मबेहया औरत तो देखी नहीं.’’ बूआ ने नहले पर दहला मारा था, ‘‘कैसी सज के जा रही है, किसी के संग नैनमटक्का करती होगी. इसी बात से रमेश दुखी हो कर शराब पीने लगा होगा.’’

रीना अब किसी की परवाह नहीं करती. वह रंगबिरंगे कपड़े पहनती, हाथों में भरभर चूडि़यां पहनती, पाउडर, लिपिस्टिक और बालों में गजरा भी लगाती. देखने वाले उसे देख कर आह भरते. ‘किस पर बिजली गिराने चल दी.’  ‘अब तो रमेश भी नहीं रहा. किस के लिए यह साजसिंगार करती हो…’ ‘‘मैं अपनी खुशी के लिए सजती हूं.’’ ‘‘रीना कुछ तो डरो. विधवा हो, विधवा की तरह रहा करो,’’ पीछे से सासू मां की आवाज थी, पर वह अनसुनी कर के चली जाती. सुनील उस के लिए चांदी की झुमकी ले आया था. वह पहनने को बेचैन थी. उस ने सासू मां से कहा, ‘‘मैडम ने दीवाली के लिए दी है.’’ हाथ में पैसा रहता, रीना तरहतरह की सजनेसंवरने की चीजें खरीदती और मैडम लोगों के कपड़े भी मिल जाते.

उसे बचपन से शोख रंग के कपड़े पसंद थे. अब वह अपने सारे शौक पूरे कर रही थी. अब उसे न तो सासू मां के निर्देशों की परवाह थी और न ही चाल वालों के तानों की. सासू मां को रमेश का जाना और रीना की मनमानी बरदाश्त नहीं हो रही थी. वे कमजोर होती जा रही थीं. एक दिन वे रात में बाथरूम के लिए उठीं तो गिर पड़ीं.

मालूम हुआ कि उन्हें लकवे का अटैक आ गया है. रात में तो किसी तरह बच्चों की मदद से उन्हें चारपाई पर लिटा लिया, लेकिन सुबह जब डाक्टर बुला कर सुनील लाया तो पता चला कि उन का आधा शरीर बेकार हो गया है.  ऐसे मुश्किल समय में सुनील रीना की मदद को आगे आया था. वह भी परेशान था, सोसाइटी की नौकरी छूट गई थी, कहीं रहने का ठिकाना भी नहीं था. उस ने उसे अपने घर में रख लिया. वह रिया और सोम को पढ़ाता. घर के लिए सागसब्जी ले आता.

सब से ज्यादा तो सासू मां के काम में सहारा करता. रीना को उस के रहने से सहूलियत हो गई थी. दोनों के बीच एक अनाम रिश्ता हो गया था. वह पढ़ालिखा था, नौकरी छूटने के चलते वह आटोरिकशा चलाने लगा था. लोग तरहतरह की बातें बनाते. रीना एक कान से सुनती दूसरे से निकाल देती. एक दिन सासू मां सोई तो सोती रह गई थीं. खबर सुनते ही लोगों की भीड़ तरहतरह की कानाफूसी कर रही थी. सासू मां के जाने का गम रीना सहन नहीं कर पा रही थी, इसलिए वह रोरो कर बेहाल थी.  सुनील ने ही आगे बढ़ कर सारा काम किया था. रिश्तेदार ‘चूंचूं’ कर  रहे थे. ‘‘यह कौन है?

दूसरी बिरादरी का है.’’ ‘‘यह रीना का नया खसम है. इसी के चक्कर में तो रमेश को नशे की लत लग गई थी और सास भी इसी गम में चली गई,’’ कहते हुए रिश्ते की एक ननद रोने का नाटक कर रही थी. रीना के लिए चुप रहना मुश्किल हो गया था, ‘‘इतने दिन से सासू मां खटिया पर सब काम कर रही थीं, तो कोई नहीं आया पूछने को कि रीना अम्मां को कैसे संभाल रही हो. सुनील ने उन की सारी गंदगी साफ की. अम्मां तो उसे आशीर्वाद देते नहीं थकती थीं.

आज सब बातें बनाने को खड़े हो गए.’’ सब तरफ सन्नाटा छा गया था. अब रीना को किसी की परवाह नहीं थी कि कौन क्या कह रहा है. कई दिनों से सुनील अनमना सा रहता. वह देख रही थी कि वह बच्चों से भी बात नहीं करता. सुबह जल्दी चला जाता और देर रात लौटता. ‘‘क्यों सुनील, कोई परेशानी है तो बताओ?’’ ‘‘नहीं, मैं अपने लिए खोली ढूंढ़  रहा था. पास में मिल नहीं रही थी, इसलिए दूर पर ही लेना पड़ा. आज एडवांस दूंगा.’’ ‘‘क्यों? यहीं रहो, मुझे सहारा है  और बच्चों के भी कितने अच्छे नंबर आ रहे हैं.’’ ‘‘लोगों की उलटीसीधी गंदी बातें सुनसुन कर मेरे कान पक गए हैं.

अब बरदाश्त नहीं होता. अब अम्मां भी नहीं रहीं. मेरा यहां क्या काम?’’ ‘‘लोगों का तो काम है कहना. आज एडवांस मत देना. शाम को बात करेंगे,’’ कह कर रीना अपने काम पर चली गई थी. सुनील अभी लौटा नहीं था. बच्चे सो गए थे. उस ने सुहागिनों की तरह अपना सोलह सिंगार किया था. वही लाल साड़ी पहन ली, जो सुनील उस के लिए लाया था. सिंगार कर के जब आईने में अपने अक्स को देखा, तो अपनी सुंदरता पर वह खुद शरमा उठी थी.  तभी आहट हुई थी और सुनील उस को देखता ही रह गया था. रीना ने कांपते हाथों से सिंदूर का डब्बा सुनील की ओर बढ़ा दिया. उस रात वह सुनील की बांहों में खो गई थी. अनाम रिश्ते को एक नाम मिल गया था ‘प्यार का रिश्ता’.

बेशरम: गिरधारीलाल शर्मा के बेटों के साथ क्या हु्आ?

पारिवारिक विघटन के इस दौर में जब भी किसी पारिवारिक समस्या का निदान करना होता तो लोग गिरधारीलाल को बुला लाते. न जाने वह किस प्रकार समझाते थे कि लोग उन की बात सुन कर भीतर से इतने प्रभावित हो जाते कि बिगड़ती हुई बात बन जाती.

गिरधारीलाल का सदा से यही कहना रहा था कि जोड़ने में वर्षों लगते हैं और तोड़ने में एक क्षण भी नहीं लगता. संबंध बड़े नाजुक होते हैं. यदि एक बार संबंधों की डोर टूट जाए तो उन्हें जोड़ने में गांठ तो पड़ ही जाती है, उम्र भर की गांठ…..

गिरधारीलाल ने सनातनधर्मी परिवार में जन्म लिया था पर जब उन की विदुषी मां  ने पंडितों के ढकोसले देखे, छुआछूत और धर्म के नाम पर बहुओं पर अत्याचार देखा तो न जाने कैसे वह अपनी एक सहेली के साथ आर्यसमाज पहुंच गईं. वहां पर विद्वानों के व्याख्यान से उन के विकसित मस्तिष्क का और भी विकास हुआ. अब उन्हें जातपांत और ढकोसले से ग्लानि सी महसूस होने लगी और उन्होंने अपनी बहुओं को स्वतंत्र रूप से जीवन जीने की कला सिखाई. इसी कारण उन का परिवार एक वैदिक परिवार के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था.

आर्ची को अच्छी तरह से याद है कि जब बूआजी को बेटा हुआ था और  उसे ले कर अपने पिता के घर आई थीं तब पता लगातेलगाते हिजड़े भी घर पर आ गए थे. आंगन में आ कर उन्होंने दादाजी के नाम की गुहार लगानी शुरू की और गानेनाचने लगे थे. दादीमां ने उन्हें उन की मांग से भी अधिक दे कर घर से आदर सहित विदा किया था. उन का कहना था कि इन्हें क्यों दुत्कारा जाता है? ये भी तो हाड़मांस के ही बने हुए हैं. इन्हें भी कुदरत ने ही बनाया है, फिर इन का अपमान क्यों?

दादी की यह बात आर्ची के मस्तिष्क में इस प्रकार घर कर गई थी कि जब भी कहीं हिजड़ों को देखती, उस के मन में उन के प्रति सहानुभूति उमड़ आती. वह कभी उन्हें धिक्कार की दृष्टि से नहीं देख पाई. ससुराल में शुरू में तो उसे कुछेक तीखी नजरों का सामना करना पड़ा पर धीरेधीरे सबकुछ सरल, सहज होता गया.

मेरठ में पल कर बड़ी होने वाली आर्ची मुंबई पहुंच गई थी. एकदम भिन्न, खुला वातावरण, तेज रफ्तार की जिंदगी. शादी हो कर दिल्ली गई तब भी उसे माहौल इतना अलग नहीं लगा था जितना मुंबई आने पर. साल में घर के 2 चक्कर लग जाते थे. विवाह के 5 वर्ष बीत जाने पर भी मायके जाने का नाम सुन कर उस के पंख लग जाते.

बहुत खुश थी आर्ची. फटाफट पैकिंग किए जा रही थी. मायके जाना उस के पैरों में बिजलियां भर देता था. आखिर इतनी दूर जो आ गई थी. अपने शहर में होती थी तो सारे त्योहारों में कैसी चटकमटक करती घूमती रहती थी. दादा कहते, ‘अरी आर्ची, जिस दिन तू इस घर से जाएगी घर सूना हो जाएगा.’ ‘क्यों, मैं कहां और क्यों जाऊंगी, दादू? मैं तो यहीं रहूंगी, अपने घर में, आप के पास.’

दादी लाड़ से उसे अपने अंक में भर लेतीं, ‘अरी बिटिया, लड़की का

तो जन्म ही होता है पराए घर जाने के लिए. देख, मैं भी अपने घर से आई हूं, तेरी मम्मी भी अपने घर से आई हैं, तेरी बूआ यहां से गई हैं, अब तेरी बारी आएगी.’

13 वर्षीय आर्ची की समझ में

यह नहीं आ पाता कि जब दादी और मां अपने घर से आई हैं तब यह उन का घर कैसे हो गया. और बूआ अपने घर से गई हैं तो उन का वह घर कैसे हो गया. और अब वह अपने घर से जाएगी…

क्या उधेड़बुन है… आर्ची अपना घर, उन का घर सोचतीसोचती फिर से रस्सी कूदने लगती या फिर किसी सहेली की आवाज से बाहर भाग जाती या कोई भाई आवाज लगा देता, ‘आर्ची, देख तो तेरे लिए क्या लाया हूं.’

इस तरह आर्ची फिर व्यस्त हो जाती. एक भरेपूरे परिवार में रहते हुए आर्ची को कितना लाड़प्यार मिला था वह कभी उसे तोल ही नहीं सकती. उस का मन उस प्यार से भीतर तक भीगा हुआ था. वैसे भी प्यार कहीं तोला जा सकता है क्या? अपने 3 सगे भाई, चाचा के 4 बेटे और सब से छोटी आर्ची.

‘‘क्या बात है भई, बड़ी फास्ट पैकिंग हो रही है,’’ किशोर ने कहा.

‘‘कितना काम पड़ा है. आप भी तो जरा हाथ लगाइए,’’ आर्ची ने पति से कहा.

‘‘भई, मायके आप जा रही हैं और मेहनत हम से करवाएंगी,’’ किशोर आर्ची की खिंचाई करने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते थे.

‘‘हद करते हैं आप भी. आप भी तो जा रहे हैं अपने मायके…’’

‘‘भई, हम तो काम से जा रहे हैं, फिर 2 दिन में लौट भी आएंगे. लंबी छुट्टियां तो आप को मिलती हैं, हमें कहां?’’

किशोर को कंपनी की किसी मीटिंग के सिलसिले में दिल्ली जाना था सो तय कर लिया गया था कि दिल्ली तक आर्ची भी फ्लाइट से चली जाएगी. दिल्ली में किशोर उसे और बच्चों को टे्रन में बैठा देंगे. मेरठ में कोईर् आ कर उसे उतार लेगा. एक सप्ताह अपने मायके मेरठ रह कर आर्ची 2-3 दिन के लिए ससुराल में दिल्ली आ जाएगी जबकि किशोर को 2 दिन बाद ही वापस आना था. बच्चे छोटे थे अत: इतनी लंबी यात्रा बच्चों के साथ अकेले करना जरा कठिन ही था.

किशोर को दिल्ली एअरपोर्ट पर कंपनी की गाड़ी लेने के लिए आ गई, सो उस ने आर्ची और बच्चों को स्टेशन ले जा कर मेरठ जाने वाली गाड़ी में बिठा दिया और फोन कर दिया कि आर्ची इतने बजे मेरठ पहुंचेगी. फोन पर डांट भी खानी पड़ी उसे. अरे, भाई, पहले से फोन कर देते तो दिल्ली ही न आ जाता कोई लेने. आजकल के बच्चे भी…दामाद को इस से अधिक कहा भी क्या जा सकताथा.

किशोर ने आर्ची को प्रथम दरजे में बैठाया था और इस बात से संतुष्ट हो गए थे कि उस डब्बे में एक संभ्रांत वृद्धा भी बैठी थी. आर्ची को कुछ हिदायतें दे कर किशोर गाड़ी छूटने पर अपने गंतव्य की ओर निकल गए.

अब आर्ची की अपनी यात्रा प्रारंभहुई थी, जुगनू 2 वर्ष के करीब था और बिटिया एनी अभी केवल 7 माह की थी. डब्बे में बैठी संभ्रांत महिला उसे घूरे जा रही थी.

‘‘कहां जा रही हो बिटिया?’’ वृद्धा ने पूछा.

‘‘जी, मेरठ?’’

‘‘ये तुम्हारे बच्चे हैं?’’

‘‘जी हां,’’ आर्ची को कुछ अजीब सा लगा.

‘‘आप कहां जा रही हैं?’’ उस ने माला फेरती उस महिला से पूछा.

‘‘मेरठ,’’ उस ने छोटा सा उत्तर दिया फिर उसे मानो बेचैनी सी हुई. बोली, ‘‘वे तुम्हारे घर वाले थे?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘रहती कहां हो…मेरठ?’’

‘‘जी नहीं, मुंबई…’’

‘‘तो मेरठ?’’

‘‘मायका है मेरा.’’

‘‘किस जगह?’’

‘‘नंदन में…’’ नंदन मेरठ की एक पौश व बड़ी कालोनी है.

‘‘अरे, वहीं तो हम भी रहते हैं. हम गोल मार्किट के पास रहते हैं, और तुम?’’

‘‘जी, गोल मार्किट से थोड़ा आगे चल कर दाहिनी ओर ‘साकेत’ बंगला है, वहीं.’’

‘‘वह तो गिरधारीलालजी का है,’’ फिर कुछ रुक कर वह वृद्धा बोली, ‘‘तुम उन की पोती तो नहीं हो?’’

‘‘जी हां, मैं उन की पोती ही हूं.’’

‘‘बेटी, तुम तो घर की निकलीं, अरे, मेरे तो उस परिवार से बड़े अच्छे संबंध हैं. कोई लेने आएगा?’’

‘‘जी हां, घर से कोई भी आ जाएगा, भैया, कोई से भी.’’

वृद्धा निश्ंिचत हो माला फेरने लगीं.

‘‘तुम्हारी दादी ने मुझे आर्यसमाज का सदस्य बनवा दिया था. पहले ‘हरे राम’ कहती थी अब ‘हरिओम’ कहने लगी हूं,’’ वह हंसी.

आर्ची मुसकरा कर चुप हो गई.

वृद्धा माला फेरती रही.

गाड़ी की रफ्तार कुछ कम हुई. मुरादनगर आया था. गाड़ी ने पटरी बदली. खटरपटर की आवाज में आर्ची को किसी के दरवाजा पीटने की आवाज आई. उस ने एनी को देखा वह गहरी नींद में सो रही थी. जुगनू भी हाथ में खिलौना लिए नींद के झटके खा रहा था. आर्ची ने उसे भी बर्थ पर लिटा दिया और अपने कूपे से गलियारे में पहुंच कर मुख्यद्वार पर पहुंच गई.

कोई बाहर लटका हुआ था. अंदर से दरवाजा बंद होने के कारण वह दस्तक दे रहा था. आर्ची ने इधरउधर देखा, उसे कोई दिखाई नहीं दिया. सब अपनेअपने कूपों में बंद थे. आर्ची ने आगे बढ़ कर दरवाजा खोल दिया और वह मनुष्य बदहवास सा अंदर आ गया. वृद्धा वहीं से चिल्लाई, ‘‘अरे, क्या कर रही हो? क्यों घुसाए ले रही हो इस मरे बेशरम को, हिजड़ा है.’’

‘‘मांजी, मुझे दूसरे स्टेशन तक ही जाना है, मैं तो गाड़ी धीमी होते ही उतर जाऊंगा, देखो, यहीं दरवाजे के पास बैठ रहा हूं…’’ और वह भीतर से दरवाजा बंद कर वहीं गैलरी में उकड़ूूं बैठ गया.

आर्ची अपने कूपे में आ गई. वृद्धा का मुंह फूल गया था. उस ने आर्ची की ओर से मुंह घुमा कर दूसरी ओर कर लिया और जोरजोर से अपने हाथ की माला घुमाने लगी.

आर्ची को बहुत दुख हुआ. बेचारा गाड़ी से लटक कर गिर जाता तो? कुछ पल बाद ही आर्ची को बाथरूम जाने की जरूरत महसूस हुई. दोनों बच्चे खूब गहरी नींद सो रहे थे.

‘‘मांजी, प्लीज, जरा इन्हें देखेंगी. मैं अभी 2 मिनट में आई,’’ कह कर आर्ची  बाथरूम की ओर गई. उस का कूपा दरवाजे के पास था, अत: गैलरी से निकलते ही थोड़ा मुड़ कर बाथरूम था. जैसे ही आर्ची ने बाथरूम में प्रवेश किया गाड़ी फिर से खटरपटर कर पटरियां बदलने लगी. उसे लगा बच्चे कहीं गिर न पड़ें. जब तक बाथरूम से वह बाहर भागी तब तक गाड़ी स्थिर हो चुकी थी. सीट पर से गिरती हुई एनी को उस ‘बेशरम’ व्यक्ति ने संभाल लिया था.

वृद्धा क्रोधपूर्ण मुद्रा में खूब तेज रफ्तार से माला पर उंगलियां फेर रही थी. जुगनू बेखबर सो रहा था. उस बेशरम व्यक्ति का झुका हुआ एक हाथ जुगनू को संभालने की मुद्रा में उस के पेट पर रखा हुआ था. यह देख कर आर्ची भीतर से भीग उठी. यदि उस ने बच्चे संभाले न होते तो उन्हें गहरी चोट लग सकती थी.

‘‘थैंक्यू…’’ आर्ची ने कहा और एनी को अपनी गोद में ले लिया.

उस बेशरम की आंखों से चमक जैसे अचानक कहीं खो गई. हिचकिचाते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा स्टेशन आ रहा है. बस, 2 मिनट आप की बेटी को गोद में ले लूं?’’

आर्ची ने बिना कुछ कहे एनी को उस की गोद में थमा दिया. वृद्धा के मुंह से ‘हरिओम’ शब्द जोरजोर से बाहर निकलने लगा.

बारबार गोद बदले जाने के कारण एनी कुनमुन करने लगी थी. उस हिजड़े ने एनी को अपने सीने से लगा कर आंखें मूंद लीं तो 2 बूंद आंसू उस की आंखों की कोरों पर चिपक गए. आर्ची ने देखा कैसी तृप्ति फैल गई थी उस के चेहरे पर. एनी को उस की गोदी में देते हुए उस ने कहा, ‘‘यहां गाड़ी धीमी होगी, बस, आप जरा एक मिनट दरवाजा बंद मत करना…’’ और धीमी होती हुईर् गाड़ी से वह नीचे कूद गया. आर्ची ने खुले हुए दरवाजे से देखा, वह भाग कर सामने के टी स्टाल पर गया. वहां से बिस्कुट का एक पैकेट उठाया, भागतेभागते बोला, ‘‘पैसा देता हूं अभी…’’ और पैकेट दरवाजे के पास हाथ लंबा कर आर्ची की ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘‘बहन, इसे अपने बच्चों को जरूर खिलाना.’’

गाड़ी रफ्तार पकड़ रही थी. आर्ची कुछ आगे बढ़ी, उस ने पैकेट पकड़ना चाहा पर गोद में एनी के होने के कारण वह और आगे बढ़ने में झिझक गई और पैकेट हाथ में आतेआते गाड़ी के नीचे जा गिरा. आर्ची का मन धक्क से हो गया. बेबसी से उस ने नजर उठा कर देखा वह ‘बेशरम’ व्यक्ति हाथ हिलाता हुआ अपनी आंखों के आंसू पोंछ रहा था.

अनोखा प्रेमी : क्या हो पाई संध्या की शादी

पटना सुपर बाजार की सीढि़यां उतरते हुए संध्या ने रूपाली को देखा तो चौंक पड़ी. एक मिनट के लिए संध्या गुस्से से लालपीली हो गई. रूपाली ने पास आ कर कहा, ‘‘अरे, संध्याजी, आप कैसी हैं?’’
संध्या खामोश रही तो रूपाली ने आगे कहा, ‘‘मैं जानती हूं, आप मुझ से बहुत नाराज होंगी. इस में आप की कोई गलती नहीं है. आप की जगह कोई भी होता, तो मुझे गलत ही समझता.’’

संध्या फिर भी चुप रही. उसे लग रहा था कि रूपाली सिर्फ बेशरम ही नहीं, बल्कि अव्वल नंबर की चापलूस भी है. रूपाली ने समझाते हुए आगे कहा, ‘‘संध्याजी, मेरे मन में कई बार यह खयाल आया कि आप से मिलूं और सबकुछ आप को सचसच बता दूं. मगर सुधांशुजी ने मुझे कसम दे कर रोक दिया था.’’

सुधांशु का नाम सुनते ही संध्या के तनबदन में आग लग गई. वही सुधांशु, जिस ने संध्या से प्रेम का नाटक कर के उस की भावनाओं से खेला था और बेवफाई कर के चला गया था. संध्या के जीवन के पिछले पन्ने अचानक फड़फड़ा कर खुलने लगे. वह गुस्से से लालपीली हुई जा रही थी. रूपाली, संध्या का हाथ पकड़ कर नीचे रैस्तरां में ले गई, ‘‘आइए, कौफी पीते हैं, और बातें भी करेंगे.’ न चाहते हुए भी संध्या रूपाली के साथ चल दी.

रूपाली ने कौफी का और्डर दिया. संध्या अपने अतीत में खो गई. लगभग 10 साल पहले की बात है. पटना शहर उन दिनों आज जैसा आधुनिक नहीं था. शिव प्रसाद सक्सेना का परिवार एक मध्यवर्गीय परिवार था. वे पटना हाईस्कूल में मास्टर थे. 2 बेटियां, संध्या और मीनू, बस, यही छोटा सा परिवार था. संध्या के बीए पास करते ही मां ने उस की शादी की जिद पकड़ ली. उस की जन्मकुंडली की दर्जनों कापियां करा कर उन पर हलदी छिड़क कर तैयार कर ली गईं. एक तरफ पापा ने अपने मित्रों में अच्छे लड़के की तलाश शुरू कर दी तो दूसरी ओर मां ने टीपन की कापी हर बूआ, मामी और चाचियों में बांट दी.

दिन बीतते रहे पर कहीं भी विवाह तय नहीं हो पा रहा था. मां को परेशान देख कर एक दिन जौनपुर वाली बूआ ने साफसाफ कह दिया, ‘देखो, छोटी भाभी, मैं ने तो संध्या के लिए जौनपुर में सारी कोशिशें कर के देख लीं पर जो भी सुनता है कि रंग थोड़ा दबा है, बस, नाकभौं सिकोड़ लेता है.’

‘अरे दीदी, रंग थोड़ा दबा है तो क्या हुआ, कोई मेरी संध्या में खोट तो निकाल दे,’ मां बोल उठीं.
‘हम जानते नहीं हैं क्या, छोटी भाभी? पर जब ये लोग लड़के वाले बन जाते हैं, तब न जाने कौन सा चश्मा लगा के 13 खोट और 26 कमियां निकालने लगते हैं.’ मां और बूआ का अपनाअपना राग दिनभर चलता रहता था

इस के बाद तो हर साल, लगन आते ही मां मीनू से टीपन उतरवाने और उस पर हलदी छिड़क कर आदानप्रदान करने में लग जातीं और लगन समाप्त होते ही निराश हो कर बैठ जातीं. अगले साल जब फिर से नया टीपन तैयार होता तब उस में संध्या की उम्र एक साल बढ़ा दी जाती.

कहीं भी शादी तय नहीं हो पा रही थी. दिन बीतते गए, संध्या में एक हीनभावना घर करने लगी. हर बार लड़की दिखाने की रस्म के बाद वह मानसिक और शारीरिक दोनों रूप में मलिन हो जाती. उसे गुस्सा भी आता और ग्लानि भी होती. पापा के ललाट की शिकन और मां की चिंता उसे अपने दुख से कहीं ज्यादा बेचैन करती थी.

सिलसिला सालदरसाल चलता रहा. धीरेधीरे संध्या में एक परिवर्तन आने लगा. वह हर अपमान और अस्वीकृति के लिए अभ्यस्त हो चुकी थी. मगर मांबाप को उदास देखती, तो आहत हो उठती थी.
आखिर एक दिन मां को उदास बैठे देख कर संध्या बोली, ‘मां, मैं ने फैसला कर लिया है कि शादी नहीं करूंगी. तुम लोग मीनू की शादी कर दो.’

‘तो क्या जीवनभर कुंआरी ही बैठी रहोगी?’ मां ने डांटा.

‘तो क्या हुआ, मां, कितनी ही लड़कियां कुंआरी बैठी हैं. मैं बिन ब्याही रह गई तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा. देखो, स्मिता दीदी ने भी तो शादी नहीं की है, क्या हो गया उन्हें, मौज से रह रही हैं.’

‘हमारे खानदान की लड़कियां कुंआरी नहीं रहतीं,’ इतना कह कर मां गुस्से में पैर पटकती हुई चली गईं.
5 वर्ष बीत गए. संध्या ने एमए कर लिया और मगध महिला कालेज में लैक्चरर की नौकरी भी मिल गई. अपने कालेज और पढ़ाने में ही वह अपने को व्यस्त रखती थी. संध्या अकसर सोचा करती, यह कैसी विडंबना है कुदरत की कि रूपआकर्षण न होने की वजह से उस के साथसाथ पूरे परिवार को पीडि़त होना पड़ रहा है. वह कुदरत को अपने प्रति हुई नाइंसाफी के लिए बहुत कोसती थी. वह सोचती कि आखिर उस का कुसूर क्या है. शादी के समय लड़की के गुणों को रूप के आवरण में लपेट कर न जाने कहां फेंक दिया जाता है.

एक दिन पापा ने जब मनोहर बाबू से रिश्ते की बात चलाई तो मां सुनते ही आगबबूला हो गईं, ‘आप सठिया तो नहीं गए हैं. मनोहर अपनी संध्या से 14 साल बड़ा है. आप लड़का ढूंढ़ने चले हैं या बूढ़ा बैल.’

पापा ने मनोहर बाबू की नौकरी, अच्छा घराना, और भी कई चीजों का वास्ता दे कर मां को समझाना चाहा, मगर मां टस से मस नहीं हुईं.

एक दिन संध्या जब कालेज से घर लौटी तो उस ने देखा, बरामदे में कोई पुरुष बैठा मम्मीपापा के साथ बड़े अपनेपन से बातें कर रहा था. वह उसे पहचान पाने में विवश थी. तभी पापा ने परिचय कराते हुए कहा, ‘मेरी बड़ी बेटी संध्या. यहीं मगध महिला कालेज में लेक्चरर है, और आप हैं, शोभा के देवर, सुधांशु.’
संध्या ने देखा, बड़े ही सलीके से खड़े हो कर उस ने हाथ जोड़े. उत्तर में संध्या ने नमस्ते किया. फिर वह अंदर चली गई.

सुधांशु अकसर संध्या के घर आनेजाने लगा. बातचीत करने में माहिर सुधांशु बहुत जल्दी ही घर के सभी सदस्यों का प्यारा बन गया. पापा से राजनीति पर बहस होती, तो मां से धार्मिक वार्त्तालाप. मीनू को चिढ़ाता भी तो बहुत आत्मीयता से. मीनू भी हर विषय में सुधांशु की सलाह जरूरी समझती थी. कई बार मम्मीपापा उसे झिड़क भी देते थे, जिसे सुधांशु हंस कर टाल देता.

सुधांशु स्वभाव से एक आजाद खयाल का व्यक्ति था. वह साहित्य, दर्शन, विज्ञान या प्रेम संबंधों पर जब संध्या से चर्चा करता तब उस की बुद्धिमत्ता की बरबस ही सराहना करने को उस का जी चाहता था. उस की आवाज में एक प्रवाह था, जो किसी को भी अपने साथ बहा कर ले जाने में सक्षम था

सुधांशु, संध्या के कुंठित जीवन में हवा के ताजा झोंके की तरह आया. संध्या को धीरेधीरे सुधांशु का साथ अच्छा लगने लगा. अब तक संध्या ने अपने को दबा कर, मन मार कर जीने की कला सीख ली थी. मगर अब सुधांशु का अस्तित्व उस के मनोभावों पर हावी होने लगा था. और संध्या अपनी भावनाओं पर से अंकुश खोने लगी थी. अंजाम सोच कर वह भय से कांप उठती थी, क्योंकि प्रेम की राहें इतनी संकरी होती हैं कि इन से वापस लौट कर आने की गुंजाइश नहीं होती.

नारी को एक प्राकृतिक उपहार प्राप्त है कि वह पुरुष के मन की बात बगैर कहे ही जान लेती है. इसीलिए संध्या को सुधांशु का झुकाव भांपने में देर नहीं लगी. आखिर एक दिन इन अप्रत्यक्ष भावनाओं को शब्द भी मिल गए, सुधांशु ने अपने प्रेम का इजहार कर दिया. प्रतीक्षारत संध्या का रोमरोम पुलकित हो उठा.
संध्या में उल्लेखनीय परिवर्तन आने लगा. अपने हृदय के जिस कोने को वह अब तक टटोलने से डरती थी, उसे अब उड़ेलउड़ेल कर निकालने को इच्छुक हो उठी थी. संध्या हमेशा सुधांशु की ही यादों में खोई रहती. हमेशा खामोश, नीरस रहने वाली संध्या अब गुनगुनाती, मुसकराती देखी जाने लगी.

संध्या ने एक दिन मां को सबकुछ बता दिया. मां को तो सुधांशु पसंद था ही, वह खुश हो गईं. पापा भी उसे पसंद करते थे. आखिर एक दिन पापा ने सुधांशु से उस के पिताजी का पता मांग लिया. वे वहां जा कर शादी की बात करना चाहते थे. सुधांशु ने बताया कि अगले महीने ही उस के पिताजी पटना आ रहे हैं, यहीं बात कर लीजिएगा.

3 महीने बीत गए, सुधांशु के पिताजी नहीं आए. सुधांशु ने भी धीरेधीरे आनाजाना बहुत कम कर दिया. एक सप्ताह तक सुधांशु संध्या से नहीं मिला तो वह सीधे उस के औफिस जा पहुंची. वहां पता चला कि आजकल वह छुट्टी पर है. संध्या सीधे सुधांशु के घर जा पहुंची और दरवाजा खटखटाया. सुधांशु ने ही दरवाजा खोला, ‘अरे, संध्या, तुम. आओ, अंदर आओ.’

‘यह क्या मजाक है, सुधांशु, तुम एक सप्ताह से मिले भी नहीं, और…’ संध्या गुस्से में कुछ और कहती कि उस ने सामने बालकनी में एक लड़की को देखा, तो अचानक चुप हो गई.

सुधांशु ने चौंकते हुए कहा, ‘अरे, मैं परिचय कराना तो भूल ही गया. आप संध्याजी हैं, मेरी फैमिली फ्रैंड, और आप हैं, रूपाली मेरी गर्लफ्रैंड.’
इस से पहले कि संध्या कुछ पूछती, सुधांशु ने थोड़ा झेंपते हुए कहा, ‘बहुत जल्दी ही रूपाली मिसेज रूपाली बनने वाली हैं. अरे, रूपाली, संध्या को चाय नहीं पिलाओगी.’

संध्या को मानो काटो तो खून नहीं. उसे यह सब अजीब लग रहा था. उस का मन करता कि सुधांशु को झकझोर कर पूछे कि आखिर यह सब क्या कह रहे हो.
रूपाली रसोई में गई तो संध्या ने आंखों में गुस्सा जताते हुए कहा, ‘सुधांशु, प्लीज, मजाक की भी कोई सीमा होती है. यह क्या कि जो मुंह में आया बक दिया.’

‘यह मजाक नहीं, सच है संध्या, कि हम दोनों शादी करने वाले हैं,’ सुधांशु ने बेहिचक कहा. संध्या को लगा मानो वह फफक कर रो पड़ेगी. वह झटके से उठी और बाहर चली गई.

वह कैसे घर पहुंची, उसे होश भी नहीं था. घर पहुंच कर देखा तो सामने मां बैठी थीं. वह अपनेआप को रोकतेरोकते भी मां से लिपट गई और फफक कर रो पड़ी. मां ने भी कुछ नहीं पूछा. वह जानती थी कि रोने से मन हलका होता है.
इस घटना से संध्या को बहुत बड़ा आघात लगा. वह इस बेवफाई की वजह जानना चाहती थी. पर उस का अहं उसे पूछने की इजाजत नहीं दे रहा था. संध्या एक समझदार लड़की थी, इसीलिए सप्ताहभर में ही उस ने अपनेआप को संभाल लिया. वह फिर से शांत और खामोश रहने लगी थी. धीरेधीरे सुधांशु के प्रति उस की नफरत बढ़ती गई. उधर सुधांशु ने भी अपना तबादला रांची करवा लिया और संध्या से दूर चला गया.

इस समूची घटना से पूरे परिवार में सब से ज्यादा आहत संध्या के पापा थे. ऐसा लगता था जैसे मौत ने जिंदगी को परास्त कर उन्हें काफी पीछे ढकेल दिया है. मीनू भी इन दिनों संध्या का कुछ ज्यादा ही खयाल करने लगी थी. मां की डांट न जाने कहां गायब हो गई थी. संध्या को लग रहा था कि वह आजकल सहानुभूति की पात्र बन चुकी है. यह एहसास उसे सुधांशु की बेवफाई से कहीं ज्यादा ही आहत करता था.

एक दिन संध्या ने पापा से मनोहर बाबू के साथ रिश्ते की स्वीकृति दे दी.
संध्या की शादी हो गई. मनोहर बाबू के साथ एडजस्ट होने में संध्या को तनिक भी परेशानी महसूस नहीं हुई. संध्या ने पूरे परिवार का दिल जीत लिया.
आज शादी को 4 साल बीत गए हैं, मगर संध्या को पता है कि उस के लिए जीवन मात्र एक नाटक का मंच बन कर रह गया है. संध्या एक पत्नी, एक बहू, एक प्रोफैसर और एक मां बन कर तो जी रही थी, मगर सुधांशु के उस अमानवीय तिरस्कार से इतनी आहत हुई थी कि उसे पुरुष शब्द से ही नफरत हो गई थी. यही वजह थी कि वह मनोहर बाबू के प्रति आज तक भी पूरी तरह समर्पित नहीं हो पाई है.

बैरे ने कौफी ला कर मेज पर रखी, तब अचानक ही संध्या की तंद्रा टूटी. इस से पहले कि वह रूपाली से कुछ पूछती, एक पुरुष की आवाज पीछे से आई, ‘‘ओह, रूपाली, तुम यहां बैठी हो, और मैं ने सारा सुपर मार्केट छान मारा.’’
‘‘ये मेरे पति हैं, विक्रम,’’ रूपाली ने परिचय कराया, ‘‘और यह मेरी मित्र संध्या.’’

‘‘हेलो,’’ बड़े सलीके से अभिवादन करता हुआ विक्रम बोला, ‘‘अच्छा आप लोग बैठो, मैं सामान की पैकिंग करवा कर आता हूं,’’ और सामने वाली दुकान पर चला गया.

‘‘तुम चौंक गईं न,’’ रूपाली ने मुसकराते हुए संध्या से कहा.
‘‘तो तुम्हें भी सुधांशु ने धोखा दे दिया? इतना गिरा हुआ इंसान निकला वह?’’
‘‘नहीं संध्या, सुधांशुजी बेहद नेक इंसान हैं. उस दिन तुम ने जो कुछ देखा वह सब नाटक था.’’

‘‘यह क्या कह रही हो, तुम?’’ संध्या लगभग चीख उठी थी.
रूपाली संध्या को हकीकत बयां करने लगी.

‘‘सुधांशु मुझे ट्यूशन पढ़ाया करता था. एक दिन सुधांशु को परेशान देख कर मैं ने कारण पूछा. पहले तो सुधांशु बात को टालता रहा, फिर उस ने तुम्हारे साथ घटी पूरी प्रेमकहानी मुझे सुनाई कि मेरी बड़ी बहन शोभा ने पटना आते वक्त उसे तुम्हारे बारे में काफीकुछ बता दिया था कि तुम हीनभावना की शिकार हो.

‘‘मनोविज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते सुधांशु को यह समझने में तनिक भी देर नहीं लगी कि तुम्हारे इस हीनभावना से उबारने का क्या उपाय हो सकता है. पहले तो सुधांशु ने तुम्हारे मन में दबे हुए आत्मविश्वास को धीरेधीरे जगाया, जिस के लिए तुम से प्रेम का नाटक करना जरूरी था.’’

‘‘लेकिन इस नाटक का फायदा?’’ संध्या आगे जानने के लिए जिज्ञासु थी.
‘‘इसीलिए, कि तुम मनोहर बाबू से विवाह कर लो.’’

‘‘लेकिन तुम और सुधांशु भी तो शादी करने वाले थे. उस दिन सुधांशु ने कुछ ऐसा ही कहा था.’’

‘‘वह भी तो सुधांशु के नाटक का एक अंश था,’’ रूपाली ने कौफी का प्याला उठा कर एक घूंट भरते हुए आगे कहा, ‘‘संध्या, मैं भी तुम्हारी तरह उन की एक शिकार हूं, मैं रंजीत से प्रेम करती थी. रंजीत ने किसी और लड़की से शादी कर ली, तो मैं इतना आहत हुई कि अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठी थी. डाक्टरों ने मुझे मानसिक आघात का पहला चरण बताया. उन्हीं दिनों पिताजी को सुधांशुजी मिल गए और मुझे सुधांशुजी ने अपनी चतुराई से उस कुंठा से बाहर निकाला और जिंदगी से प्रेम करना सिखाया. उन दिनों सुधांशु से मैं प्रभावित हो कर उन से प्रेम करने लगी थी. लेकिन उन्होंने तो बड़ी शालीनता से, बड़े प्यार से मुझे समझाया कि वे मुझ से शादी नहीं कर सकते हैं.’’

‘‘हां, लड़कियों के दिलों से खेलने वाले लोग भला शादी क्यों करने लगे?’’ संध्या बोल पड़ी.

‘‘नहीं संध्या, नहीं,’’ बीच में ही बात काट कर रूपाली ने कहा, ‘‘उन्होंने मुझे कसम दिलाई थी, पर अब मैं वह कसम तोड़ रही हूं. आज मैं सबकुछ तुम्हें बता दूंगी. सुधांशुजी को गलत मत समझो. उन्होंने कभी किसी से कोई फायदा नहीं उठाया है.

‘‘असल में सुधांशुजी इसलिए शादी नहीं करना चाहते, क्योंकि उन की जिंदगी, मौत के दरवाजे पर दस्तक दे रही है. सुधांशु को ब्लड कैंसर है.’’
मौन, खामोश संध्या की आंखों से आंसू, बूंद बन कर टपक पड़े. रूमाल से आंख पोंछती हुई संध्या ने भरे गले से पूछा, ‘‘अब वे कहां हैं?’’

‘‘पता नहीं, जाते वक्त मैं ने लाख पूछा, मगर वह मुसकरा कर टाल गए,’’ रूपाली ने एक पल रुक कर फिर कहा, ‘‘सुधांशुजी जहां भी होंगे, किसी न किसी रूपाली या संध्या के जीवन का आत्मविश्वास जगा रहे होंगे.’’

रूपाली तो चली गई, पर संध्या को लग रहा था कि अगर आज रूपाली नहीं मिलती तो जीवनभर सुधांशु के बारे में हीनभावनाएं ले कर जीती रहती. सुधांशु जैसे विरले ही होते हैं जो अपनी नेकनामी की बलि चढ़ा कर भी परोपकार करते रहते हैं.

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