Short Story: औरत का दर्द

Short Story, लेखक- सुधारानी श्रीवास्तव

‘‘मैडम, मेरा क्या कुसूर है जो मैं सजा भुगत रही हूं?’’ रूपा ने मुझ से पूछा. रूपा के पति ने तलाक का केस दायर कर दिया था. उसी का नोटिस ले कर वह मेरे पास केस की पैरवी करवाने आई थी.

उस के पति ने उस पर चरित्रहीनता का आरोप लगाया था. रूपा की मां उस के साथ आई थी. उस ने कहा कि रूपा के ससुराल वालों ने बिना दहेज लिए विवाह किया था. उन्हें सुंदर बहू चाहिए थी.

रूपा नाम के अनुरूप सुंदर थी. जब रूपा छोटी थी तब उस की मां की एक सहेली ने रूपा के गोरे रंग को देख कर शर्त लगाई थी कि यदि तुम्हें इस से गोरा दामाद मिला तो मैं तुम्हें 1 हजार रुपए दूंगी. उस ने जब पांव पखराई के समय रूपेश के गुलाबी पांव देखे तो चुपचाप 1 हजार रुपए का नोट रूपा की मां को पकड़ा दिया.

रूपेश का परिवार संपन्न था. वे ढेर सारे कपड़े और गहने लाए थे. नेग भी बढ़चढ़ कर दिए थे. रूपा के घर से उन्होंने किसी भी तरह का सामान नहीं लिया था. रूपा के मायके वाले इस विवाह की भूरिभूरि प्र्रशंसा कर रहे थे. रूपा की सहेलियां रूपा के भाग्य की सराहना तो कर रही थीं पर अंदर ही अंदर जली जा रही थीं.

हंसीखुशी के वातावरण में रूपा ससुराल चली गई. रूपा अपने सुंदर पति को देखदेख कर उस से बात करने को आकुल हुई जा रही थी, पर रूपेश उस की ओर देख ही नहीं रहा था. ससुराल पहुंच कर ढेर सारे रीतिरिवाजों को निबटातेनिबटाते 2 दिन लग गए. रूपा अपनी सास, ननद व जिठानियों से घिरी रही. उस के खानेपीने का खूब ध्यान रखा गया. फिर सब ने घूमने का कार्यक्रम बनाया. 10-12 दिन इसी में लग गए. इस बीच रूपेश ने भी रूपा से बात करने की कोई उत्सुकता नहीं दिखाई.

घूमफिर कर पूरा काफिला लौट आया. रूपा की सास ने वहीं से रूपा के पिता को फोन कर दिया था कि चौथी की रस्म के अनुसार रूपा को मायके ले जाएं. जैसे ही ये लोग लौटे, रूपा के पिता आ कर रूपा को ले गए. रूपा कोरी की कोरी मायके लौट आई. सास ने उस के पिता को कह दिया था कि वे लोग पुरानी परंपरा में विश्वास रखते हैं, दूसरे ही दिन शुक्र अस्त हो रहा है इसलिए रूपा शुक्रास्त काल में मायके में ही रहेगी.

रूपा 4 माह मायके रही. उस की सास और ननद के लंबेलंबे फोन आते. उन्हीं के साथ रूपेश एकाध बात कर लेता.

4 महीने बाद रूपेश के साथ सासननद आईं और खूब लाड़ जता कर रूपा को बिदा करा कर ले गईं. ननद ने अपना घर छोड़ दिया था और उस का तलाक का केस चल रहा था. वह मायके में ही रहती थी. इस बार रूपेश के कमरे में एक और पलंग लग गया था. डबल बेड पर रूपा अपनी ननद के साथ सोती थी व रूपेश अलग पलंग पर सोता था. रूपेश को उस की मां व बहन अकेला छोड़ती ही नहीं थीं जो रूपा उस से बात कर सके.

1-2 माह तक तो ऐसा ही चला. फिर ननद के दोस्त प्रमोद का घर आनाजाना बढ़ने लगा. धीरेधीरे सासननद ने रूपा को प्रमोद के पास अकेला छोड़ना शुरू कर दिया. रूपेश का तो पहले जैसा ही हाल था.

एक दिन जब रूपा प्रमोद के लिए चाय लाई तो उस ने रूपा का हाथ पकड़ कर अपने पास यह कह कर बिठा लिया, ‘‘अरे, भाभी, देवर का तो भाभी पर अधिकार होता है. मेरे साथ बैठो. जो तुम्हें रूपेश नहीं दे सकता वह मैं तुम्हें दूंगा.’’

रूपा किसी प्रकार हाथ छुड़ा कर भागी और उस ने सास से शिकायत की. सास ने प्रमोद को तो कुछ नहीं कहा, रूपा से ही बोलीं, ‘‘तो इस में हर्ज ही क्या है. देवरभाभी का रिश्ता ही मजाक का होता है.’’

रूपा सन्न रह गई. वह आधुनिक जरूर थी पर उस का परिवार संस्कारी था. और यहां तो संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं थी. प्रमोद की छेड़खानी बढ़ने लगी. उसे सास व ननद का प्रोत्साहन जो था. एक दिन रूपा ने चुपके से पिता को फोन कर दिया. मां की बीमारी का बहाना बना कर वे रूपा को मायके ले आए. रूपा ने रोरो कर अपनी मां जैसी भाभी को सबकुछ बता दिया तो परिवार वालों को संपन्न परिवार के ‘सुदर्शन सुपुत्र’ की नपुंसकता का ज्ञान हुआ. चूंकि यह ऐसी बात थी जिस से दोनों परिवारों की बदनामी थी, इसलिए वे चुप रहे. 1 माह बाद सासननद रूपेश को ले कर रूपा को लेने आईं तो रूपा की मां व भाभी ने उन्हें आड़े हाथों लिया. सास तमतमा कर बोलीं, ‘‘तुम्हारी लड़की का ही चालचलन ठीक नहीं है, हमारे लड़के को दोष देती है.’’

रूपा की मां बोलीं, ‘‘यदि ऐसा ही है तो अपने लड़के की यहीं डाक्टरी जांच करवाओ.’’

इस पर सासननद ने अपना सामान उठाया और गाड़ी में बैठ कर चली गईं. इस बात को लगभग 8-10 माह गुजर गए. रूपा के विवाह को लगभग 2 वर्ष हो चुके थे कि रूपेश की ओर से तलाक का केस दायर कर दिया गया था. रूपा के प्रमोद के साथ संबंधों को आधार बनाया गया था और प्रमोद को भी पक्षकार बनाया था, ताकि प्रमोद रूपा के साथ अपने संबंधों को स्वीकार कर रूपा को बदचलन सिद्घ कर सके.

मेरे लिए रूपा का केस नया नहीं था. इस प्रकार के प्रकरण मैं ने अपने साथी वकीलों से सुने थे और कई मामले सामाजिक संगठनों के माध्यम से सुलझाए भी थे. इस प्रकार के मामलों में 2 ही हल हुआ करते हैं या तो चुपचाप एकपक्षीय तलाक ले लो या विरोध करो. दूसरी स्थिति में औरत को अदालत में विरोधी पक्ष के बेहूदा प्रश्नों को झेलना पड़ता है. मैं ने रूपा से नोटिस ले लिया और उसे दूसरे दिन आने को कहा.

मैं ने प्रत्येक कोण से रूपा के केस पर सोचविचार किया. रूपा का अब ससुराल में रहना संभव नहीं था. वह जाए भी तो कैसे जाए. पति से ही ससुराल होती है और पति का आकर्षण दैहिक सुख होता है. इसी से वह नई लड़की के प्रति आकृष्ट होता है. जब यह आकर्षण ही नहीं तो वह रूपा में क्यों दिलचस्पी दिखाएगा. इसलिए रूपा को तलाक तो दिलवाना है किंतु उस के दुराचरण के आधार पर नहीं. औरत हूं न इसीलिए औरत के दर्द को पहचानती हूं.

सोचविचार कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची कि अलग से नपुंसकता के आधार पर केस लगाने के बजाय मैं इसी में प्रतिदावा लगा दूं. हिंदू विवाह अधिनियम में इस का प्रावधान भी है. दोनों पक्षकार हिंदू हैं और विवाह भी हिंदू रीतिरिवाजों के अनुसार संपन्न हुआ है.

दूसरे दिन रूपा, उस की मां व भाभी आईं तो मैं ने उन्हें समझा दिया कि हम लोग उन के प्रकरण का विरोध करेंगे. साथ ही उसी प्रकरण में रूपेश की नपुंसकता के आधार पर तलाक लेंगे. इसलिए पहले रूपा की जांच करा कर डाक्टरी प्रमाणपत्र ले लिया जाए.

पूरी तैयारी के साथ मैं ने पेशी के दिन रूपा का प्रतिदावा न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया. साथ ही एक आवेदन कैमरा प्रोसिडिंग का भी लगा दिया, जिस में सुनवाई के समय मात्र जज और पक्षकार ही रहें और इस प्रक्रिया का निर्णय कहीं प्रकाशित न हो.

जब प्रतिदावा रूपा की सासननद को मिला तो वे बहुत बौखलाईं. उन्हें अपने लड़के की कमजोरी मालूम थी. प्रमोद को इसीलिए परिचित कराया गया था ताकि रूपा उस से गर्भवती हो जाए तो रूपेश की कमजोरी छिप जाए और परिवार को वारिस मिल जाए.

मैं ने न्यायालय से यह भी आदेश ले लिया कि रूपेश की जांच मेडिकल बोर्ड से कराई जाए. इधरउधर बहुत हाथपैर मारने पर जब रूपा की सासननद थक गईं तो समझौते की बात ले कर मेरे पास आईं. रूपा के पिता भी बदनामी नहीं चाहते थे इसलिए मैं ने विवाह का पूरा खर्च व अदालत का खर्च उन से रूपा को दिलवा कर राजीनामा से तलाक का आवेदन लगवा दिया. विवाह होने से मुकदमा चलने तक लगभग ढाई वर्ष हो गए थे. रूपा को भी मायके आए लगभग डेढ़ वर्ष हो गए थे. इसलिए राजीनामे से तलाक का आवेदन स्वीकार हो गया. दोनों पक्षों की मानमर्यादा भी कायम रही.

इस निर्णय के लगभग 5-6 माह बाद मैं कार्यालय में बैठी थी. तभी रूपा एक सांवले से युवक के साथ आई. उस ने बताया कि वह उस का पति है, स्थानीय कालिज में पढ़ाता है. 2 माह पूर्व उस ने कोर्ट मैरिज की है. उस की मां ने कहा कि हिंदू संस्कार में स्त्री एक बार ही लग्न वेदी के सामने बैठती है इसलिए दोनों परिवारों की सहमति से उन की कोर्ट मैरिज हो गई. रूपा मुझे रात्रि भोज का निमंत्रण देने आई थी.

उस के जाने के बाद मैं सोचने लगी कि यदि मैं ने औरत के दर्द को महसूस कर यह कानूनी रास्ता न अपनाया होता तो बेचारी रूपा की क्या हालत होती. अदालत में दूसरे पक्ष का वकील उस से गंदेगंदे प्रश्न पूछता. वह उत्तर न दे पाती तो रूपेश को उस के दुराचारिणी होने के आधार पर तलाक मिल जाता. फिर उसे जीवन भर के लिए बदनामी की चादर ओढ़नी पड़ती. सासननद की करनी का फल उसे जीवन भर भुगतना पड़ता. जब तक औरत अबला बनी रहेगी उसे दूसरों की करनी का फल भुगतना ही पड़ेगा. समाज में उसे जीना है तो सिर उठा कर जीना होगा.

Hindi Story: सौतेला बरताव – जिस्म बेचने को मजबूर एक बेटी

Hindi Story: चंपा को देह धंधा करने के आरोप में जेल हो गई. वह रंगे हाथ पकड़ी गई थी. वह जेल की सलाखों में उदास बैठी हुई थी. चंपा के साथ एक अधेड़ औरत भी बैठी हुई थी. थोड़ी देर पहले पुलिस उसे भी इस बैरक में डाल गई थी. चंपा जिस होटल में देह धंधा करती थी, उसी होटल में पुलिस ने छापा मारा था और उसे रंगे हाथ पकड़ लिया था. आदमी तो भाग गया था, मगर पुलिस वाला उसे दबोचते हुए बोला था, ‘चल थाने.’

‘नहीं पुलिस बाबू, मुझे माफ कर दो…’ वह हाथ जोड़ते हुए बोली थी, ‘अब नहीं करूंगी यह धंधा.’

‘वह आदमी कौन था ’ पुलिस वाला उसी अकड़ से बोला था.

‘मुझे नहीं मालूम कि वह कौन था ’ वह फिर हाथ जोड़ते हुए बोली थी.

‘झूठ बोलती है. चल थाने, सारा सच उगलवा लूंगा.’

‘मुझे छोड़ दीजिए.’

‘हां, छोड़ देंगे. लेकिन तू ने उस ग्राहक से कितने पैसे लिए हैं ’

‘कुछ भी नहीं दे कर गया.’

‘झूठ कब से बोलने लगी  चल थाने ’

‘छोड़ दीजिए, कहा न कि अब कभी नहीं करूंगी यह धंधा.’

‘करेगी… जरूर करेगी. अगर करना ही है, तो लाइसैंस ले कर कोठे पर बैठ. फिर हम तुझ से कुछ नहीं कहेंगे…’ हवलदार थोड़ा नरम पड़ते हुए बोला था, ‘तुझे छोड़ सकता हूं, मगर अंटी में जितने पैसे हैं, निकाल कर मुझे दे दे.’

‘साहब, आज तो मेरी अंटी में कुछ भी नहीं है,’ वह बोली थी.

‘ठीक है, तब तो एक ही उपाय है… जेल,’ फिर वह पुलिस वाला उसे पकड़ कर थाने ले गया था. चंपा दीवार के सहारे चुपचाप बैठी हुई थी. वह अधेड़ औरत न जाने कब से उसे घूर रही थी.आखिरकार वह अधेड़ औरत बोली, ‘‘ऐ लड़की, तू कौन है ’’

तब चंपा ने अपना चेहरा ऊपर कर उस अधेड़ औरत की तरफ देखा, मगर जवाब कुछ नहीं दिया.

वह अधेड़ औरत जरा नाराजगी से बोली, ‘‘सुना नहीं  बहरी है क्या ’’

‘‘हां, पूछो ’’ चंपा ने कहा.

‘‘क्या अपराध किया है तू ने ’’

‘‘मैं ने वही अपराध किया है, जो तकरीबन हर औरत करती है ’’

‘‘क्या मतलब है तेरा गोलमोल बात क्यों कर रही है, सीधेसीधे कह न,’’ वह अधेड़ औरत गुस्से से बोली.

‘‘मुझे देह धंधा करने के आरोप में पकड़ा गया है.’’

‘‘शक तो मुझे पहले से ही था. अरे, जिस पुलिस वाले ने तुझे पकड़ा है, उस के मुंह पर नोट फेंक देती.’’

‘‘अगर मेरे पास पैसे होते, तो उस के मुंह पर मैं तभी फेंक देती.’’

‘‘तुम ने यह धंधा क्यों अपनाया ’’

‘‘क्या करोगी जान कर ’’

‘‘मत बता, मगर मैं सब जानती हूं.’’

‘‘क्या जानती हैं आप ’’

‘‘औरत मजबूरी में ही यह धंधा अपनाती है.’’

‘‘नहीं, गलत है. मैं मजबूरी में वेश्या नहीं बनी, बल्कि बनाई गई हूं.’’

‘‘कैसे अपनी कहानी सुना.’’

‘‘हां सुना दूंगी, मगर आप इस उम्र में जेल में क्यों आई हो ’’

‘‘मेरी बात छोड़, मेरा तो जेल ही घर है,’’ उस अधेड़ औरत ने कहा.

‘‘आप आदतन अपराधी हैं ’’

‘‘यही समझ ले…’’ उस अधेड़ औरत ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘फिर भी सुनना चाहती है तो सुन. मैं अफीम की तस्करी करती थी. अब सुना तू अपनी कहानी.’’

चंपा की कहानी कुछ इस तरह थी: चंपा के पिता मजदूर थे. उन का नाम मांगीलाल था. उन्होंने रुक्मिणी नाम की औरत से शादी की थी.

शादी के 2 साल गुजर गए थे. एक दिन पिता मांगीलाल को पता चला कि रुक्मिणी मां बनने वाली है. उन की खुशियों का ठिकाना न रहा.

रुक्मिणी को बांहों में भरते हुए वे बोले थे, ‘पहला बच्चा लड़का होना चाहिए…’

‘यह मेरे हाथ में है क्या ’ रुक्मिणी उन्हें झिड़कते हुए बोली थी. 9 महीने बाद जब चंपा पैदा हुई, तो 4 दिन बाद उस की मां मर गई. पिता के ऊपर सारी जवाबदारी आ पड़ी. रिश्तेदार कहने लगे कि पैदा होते ही यह लड़की मां को खा गई. तब मौसी ने उसे पाला. मां के मरने पर पिता टूट गए थे. वे उदासउदास से रहने लगे थे. तब अपना गम भुलाने के लिए वे शराब पीने लगे थे. रिश्तेदारों और उन के बड़े भाई ने खूब कहा कि दोबारा शादी कर लो, मगर वे तैयार नहीं हुए थे. धीरेधीरे चंपा मौसी की गोद में बड़ी होती गई. जब वह 5 साल की हो गई, तब उसे स्कूल में भरती करा दिया गया. पिता को दोबारा शादी के प्रस्ताव आने लगे. चारों तरफ से दबाव भी बनने लगा. एक दिन पिता के बड़े भाई भवानीराम और उन की पत्नी तुलसाबाई आ धमके. आते ही भवानीराम बोले, ‘ऐसे कैसे काम चलेगा मांगीलाल ’

‘क्या कह रहे हैं भैया ’ मांगीलाल ने पूछा.

‘सारी जिंदगी यों ही बैठे रहोगे ’ भवानीराम ने दबाव डालते हुए कहा.

‘आप कहना क्या चाहते हो भैया ’

‘अरे देवरजी…’ तुलसाबाई मोरचा संभालते हुए बोली, ‘देवरानी को गुजरे 6-7 साल हो गए हैं. अब उस की याद में कब तक बैठे रहोगे. चंपा भी अब बड़ी हो रही है.’ ‘भाभी, मेरा मन नहीं है शादी करने का,’ मांगीलाल ने साफ इनकार कर दिया था. ‘मैं पूछती हूं कि आखिर मन क्यों नहीं है ’ दबाव डालते हुए तुलसाबाई बोली, ‘यों देवरानी की याद करने से वह वापस तो नहीं आ जाएगी. फिर शादी कर लोगे, तो देवरानी के गम को भूल जाओगे.’

‘नहीं भाभी, मैं ने कहा न कि मुझे शादी नहीं करनी है.’

‘क्यों नहीं करनी है  हम तेरी शादी के लिए आए हैं. और हां, तेरी हां सुने बगैर हम जाएंगे नहीं,’ भैया भवानीराम ने हक से कहा, ‘हम ने तेरे लिए लड़की भी देख ली है. लड़की इतनी अच्छी है कि तू रुक्मिणी को भूल जाएगा.’

‘नहीं भैया, मैं चंपा के लिए सौतेली मां नहीं लाऊंगा,’ एक बार फिर इनकार करते हुए मांगीलाल बोला.

‘कैसी बेवकूफों जैसी बातें कर रहा है. जिन की औरत भरी जवानी में ही चली जाती है, तब वे दोबारा शादी नहीं करते हैं क्या ’

‘अरे देवरजी, यह क्यों भूल रहे हो कि चंपा को मां मिलेगी. कब तक मौसी उस की देखरेख करती रहेगी  इस बात को दिमाग से निकाल फेंको कि हर मां सौतेली होती है. जिस के साथ हम तुम्हारी शादी कर रहे हैं, वह ऐसी नहीं है. चंपा को वह अपनी औलाद जैसा ही प्यार देगी ’ ‘भाभी, आप लोग क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हो ’

‘बिना औरत के आदमी का घर नहीं बसता है और हम तेरा घर बसाना चाहते हैं. लड़की हम ने देख ली है. एक बात कान खोल कर सुन ले, हम तेरी शादी करने के लिए आए हैं. इनकार तो तुम करोगे नहीं. बस, तैयार हो जाओ,’ कह कर भवानीराम ने बिना कुछ सुने फैसला सुना दिया. मांगीलाल को भी हार माननी पड़ी. भैयाभाभी ने जो लड़की पसंद की थी, उस का नाम कलावती था. मान न मान मैं तेरा मेहमान की तरह कलावती के साथ उस की शादी कर दी गई. जब तक कलावती की पहली औलाद न हुई, तब तक उस ने चंपा को यह एहसास नहीं होने दिया कि वह उस की सौतेली मां है. मगर बच्चा होने के बाद वह चंपा को बातबात पर डांटने लगी. उस का स्कूल छुड़वा दिया गया. वह उस से घर का सारा काम लेने लगी. पिता भी नई मां पर ज्यादा ध्यान देने लगे. इस तरह नई मां ने पिता को अपने कब्जे में कर लिया. धीरेधीरे चंपा बड़ी होने लगी. लड़के उसे छेड़ने लगे.

कलावती भी उसे देख कर कहने लगी, ‘लंबी और जवान हो गई है. कब तक हमारे मुफ्त के टुकड़े तोड़ती रहेगी. कोई कामधंधा कर. कामधंधा नहीं मिले, तो किसी कोठे पर जा कर बैठ जा. तेरी जवानी तुझे कमाई देगी.’ चंपा के पिता जब शादी की बात चलाते, तब सौतेली मां कहती, ‘कहां शादी के चक्कर में पड़ते हो. चंपा अब बड़ी हो गई है. साथ ही, जवान भी. रूप भी ऐसा निखरा है कि अगर इसे किसी कोठे पर बिठा दो, तो खूब कमाई देगी.’ तब पिता विरोध करते हुए कहते, ‘जबान से ऐसी गंदी बात मत निकालना. क्या वह तुम्हारी बेटी नहीं है ’

‘‘मेरी पेटजाई नहीं है वह. आखिर है तो सौतेली ही,’ कलावती उसी तरह जवाब देती. पिता को गुस्सा आता, मगर वह उन्हें भी खरीखोटी सुना कर उन की जबान बंद कर देती थी. इस गम में पिता ज्यादा शराब पीने लगे. रातदिन की चकचक से तंग आ कर चंपा ने कोई काम करने की ठान ली. मगर सौतेली मां तो उस से देह धंधा करवाना चाहती थी. आखिर में चंपा ने भी अपनी सौतेली मां की बात मान ली. जिस होटल में वह धंधा करती थी, वहीं सौतेली मां ग्राहक भेजने लगी. ग्राहक से सारे पैसे सौतेली मां झटक लेती थी. चंपा ने उस अधेड़ औरत के सामने अपना दर्द उगल दिया. थोड़ी देर के सन्नाटे के बाद वह अधेड़ औरत बोली, ‘‘तेरी कहानी बड़ी दर्दनाक है. आखिर सौतेली मां ने अपना सौतेलापन दिखा ही दिया.’’

चंपा कुछ नहीं बोली.

‘‘अब क्या इरादा है  तेरी सौतेली मां तुझे छुड़ाने आएगी ’’ उस अधेड़ औरत ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं तो अब जेल में ही रहना चाहती हूं. उस सौतेली मां की सूरत भी नहीं देखना चाहती हूं.’’

‘‘तू भले ही मत देख, मगर तेरी सौतेली मां तुझ से पैसा कमाएगी, इसलिए तुझे छुड़ाने जरूर आएगी,’’ अपना अनुभव बताते हुए वह अधेड़ औरत बोली.

‘‘मगर, अब मैं घर छोड़ कर भाग जाऊंगी ’’

‘‘भाग कर जाएगी कहां  यह दुनिया बहुत बड़ी है. यह मर्द जात तुझे अकेली देख कर नोच लेगी. मैं कहूं, तो तू किसी अच्छे लड़के से शादी कर ले.’’ ‘‘कौन करेगा मुझ से शादी बस्ती के सारे बिगड़े लड़के मुझ से शादी नहीं मेरा जिस्म चाहते हैं. वैसे भी मैं बदनाम हो गई हूं. अब कौन करेगा शादी ’’ ‘‘हां, ठीक कहती हो…’’ कह कर वह अधेड़ औरत खामोश हो गई. कुछ पल सोच कर वह अधेड़ औरत बोली, ‘‘हम औरतों के साथ यही परेशानी है. देख न मुझे भी मेरी जवानी का फायदा उठा कर तस्करी का काम दिया, ताकि औरत देख कर कोई शक नहीं करे. मगर जब पैसे मिलने लगे, तब धंधा मुझे रास आ गया. इस का नतीजा देख रही हो, आज मैं जेल में हूं.’’ फिर दोनों के बीच काफी देर तक सन्नाटा पसरा रहा. तभी एक पुलिस वाले ने ताला खोलते हुए कहा, ‘‘बाहर निकल. तेरी मां ने जमानत दे दी है.’’ चंपा ने देखा कि उस की मां कलावती खड़ी थी. वह गुस्से में बोली, ‘‘तू चुपचाप धंधा करती रही और मुझे बदनाम कर दिया. सारी बस्ती वाले मुझ पर थूक रहे हैं. आखिर मैं तेरी सौतेली मां हूं न, बदनाम तो होना ही है. वैसे भी सौतेली मां तो बदनाम ही रहती है.

‘‘चल, निकल बाहर. अब कभी धंधा किया न, तो तेरी खाल खींच लूंगी. मां हूं तेरी, भले ही सौतेली सही. मैं ने जमानत दे दी है.’’ चंपा कुछ नहीं बोली. वह अपनी सौतेली मां के साथ हो ली. वह जानती थी कि यह केवल लोकलाज का दिखावा है. अब यह कैसी साहूकार बन रही है. उलटा चोर कोतवाल को डांट कर.

Hindi Story: स्वयंसिद्धा – दादी ने कैसे चुनी नई राह

Hindi Story: रात 1 बजे नीलू के फोन की घंटी घनघना उठी. दिल अनजान आशंकाओं से घिर गया. बेटा विदेश में है. बेटी पुणे के एक होस्टल में रहती है. किस का फोन होगा, मैं सोच ही रही थी कि पति ने तेज कदमों से जा कर फोन उठा लिया. पापा का देहरादून से फोन था, मेरी दादी नहीं रही थीं. यह सुनते ही मैं रो पड़ी. इन्होंने मुझे चुप कराते हुए कहा, ‘‘देखो मधु, दादी अपनी उम्र के 84 साल जी चुकी थीं, आखिर एक न एक दिन तो यह होना ही था. तुम जानती ही हो कि जन्म और मृत्यु जीवन के 2 अकाट्य सत्य हैं.’’

उन्होंने मुझे पानी पिला कर कुछ देर सोने की हिदायत दी और कहा, ‘‘सवेरे 4 बजे निकलना होगा, तभी अंतिमयात्रा में शामिल हो पाएंगे.’’

मैं लेट गई पर मेरी अश्रुपूरित आंखों के सामने अतीत के पन्ने उलटने लगे…

मेरी दादी शांति 16 वर्ष की आयु में ही विधवा हो गई थीं. 2 महीने का बेटा गोद में दे कर उन का सुहाग घुड़सवारी करते समय अचानक दुर्घटनाग्रस्त हो कर इस दुनिया से हमेशा के लिए विदा हो गया.

वैधव्य की काली घटाओं ने उन की खुशियों के सूरज को पूर्णतया ढक दिया. गोद में कुलदीपक होने के बावजूद उन पर मनहूस का लेबल लगा उन्हें ससुरालनिकाला दे दिया गया.

ससुराल से निर्वासित हो कर दादी ने मायके का दरवाजा खटखटाया. मायके के दरवाजे तो उन के लिए खुल गए पर सासससुर की लाचारी का फायदा उठा कर उन की भाभी ने उन्हें एक अवैतनिक नौकरानी से ज्यादा का दर्जा न दिया.

मायके में दिनरात सेवा कर उन्होंने अपने बेटे के 10 साल के होते ही मायके को भी अलविदा कह दिया.

देहरादून में बरसों पहले ब्याही बचपन की सहेली का पता उन के पास था. बस, सहेली के आसरे ही वे देहरादून आ पहुंचीं.

सहेली तो मिली ही, साथ ही वहां एक कमरे का आश्रय भी मिल गया. सहेली और उस के पति दोनों उदार व दयालु थे. उन्होंने उन के बेटे यानी हमारे पापा का दाखिला भी एक नजदीकी स्कूल में करवा दिया.

दादी स्वेटर बुनने और क्रोशिए व धागे से विभिन्न तरह की चीजें बनाने में सिद्धहस्त थीं. स्वेटर पर ऐसे सुंदर नमूने डालतीं कि राह चलने वाला एक बार तो गौर से अवश्य देखता. उन के  बुने स्वेटरों और क्रोशिए के काम की धूम पूरे महल्ले में फैल गई. देखते ही देखते उन्हें खूब काम मिलने लगा. दिनरात मेहनत कर के वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो गईं. उन्होंने सहेली को तहेदिल से धन्यवाद दिया और उसी के घर के पास 2 कमरों का मकान ले कर रहने लगीं, पर सहेली का उपकार कभी नहीं भूलीं.

पापा भी 16-17 वर्ष के हो चुके थे. उन्हें भी किसी जानकार की दुकान पर काम सीखने भेजने लगीं. पापा होनहार थे, बड़ी मेहनत और लगन से वे काम सीखने लगे. मायका छोड़ते समय भाभी की नजर से बचा उन की मां ने एक गहने की छोटी सी पोटली उन्हें थमा दी थी. उन्होंने उसे लेने से स्पष्ट इनकार कर दिया था पर उन की मां ने अपनी कसम दे दी थी. अपनी मां की बेबसी और डबडबाई आंखें देख उन्हें वह पोटली लेनी पड़ी. दादी अपनी मां की निशानी बड़ी जतन से संभाल कर रखती आई थीं. कठिनतम परिस्थितियों में भी कभी उसे नहीं छुआ पर आज अपने होनहार बेटे का कारोबार जमाने की खातिर उस निशानी का भी मोलभाव कर दिया.

आज मैं स्वयं को और इस नई पीढ़ी को देखती हूं तो चारों और असहिष्णुता व आक्रोश फैला देखती हूं. छोटीछोटी बातों में गुस्सा, तुनकमिजाजी देखने को मिलती है. सारी सुखसुविधाएं होते हुए भी असंतुष्टता दिखाई देती है, पर दादी के जीवन में तो 16 वर्ष के बाद ही पतझड़ ने स्थायी डेरा जमा लिया था. जीवन में कदमकदम पर अपमान, अभाव व धोखे खाए थे पर इन सब ने उन में गजब की सहनशीलता भर दी थी. हम ने कभी घर में उन्हें गुस्सा करते, चिल्लाते नहीं देखा. अपनी मौन मुसकान से ही वे सब के दिलों पर राज करती थीं. मम्मीपापा को उन से कोई शिकायत न थी. वे उन को मां बन कर सीख भी देतीं और दोस्त बना कर हंसीमजाक भी करतीं.

दादीजी के बारे में सोचतेसोचते कब सवेरा हो गया, पता ही नहीं चला. पति टैक्सी वाले को फोन करने लगे. मैं ने जल्दी से 2 कप चाय बना ली. हम चल दिए दादी की अंतिमयात्रा में शामिल होने.

टैक्सी में बैठते ही मैं ने आंखें मूंद लीं. दादी की यादों के चलचित्र की अगली रील चलने लगी…

दादी स्वयं पुराने जमाने की थीं लेकिन पासपड़ोस और महल्ले की औरतों की आजादी के लिए उन्होंने ही शंखनाद किया. ससुराल में घूंघट से त्रस्त कई महिलाओं को उन्होंने घूंघट से आजादी दिलवाई. घरों के बड़ेबुजुर्गों को समझाया कि सिर पर ओढ़नी, आंखों और दिल में बुजुर्गों के लिए आदरसेवा यही सबकुछ है. हाथभर का घूंघट निकाल कर बड़ेबूढ़ों का अपमान करना, उन की मजबूरी और लाचारी

में उन्हें कोसना गलत है. घूंघटों से बेजार महिलाओं को जीवन में बड़ी राहत मिल गई थी. दादी की बातें लोगों के दिलोजेहन में ऐसे उतरतीं जैसे धूप व प्यास से खुश्क गलों में मीठा शरबत उतरता.

दादी स्वयं पढ़ीलिखी न थीं. पर उन्होंने मम्मी के बीए की अधूरी पढ़ाई को पूरा करवाने का बीड़ा उठाया. घरपरिवार की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले कर मम्मी को कालेज भेजा. मुख्य विषय संगीत था, इसलिए हारमोनियम मंगवाया. शाम के समय मां सुर लगातीं तो दादी मंत्रमुग्ध हो कर आंखें बंद कर बैठ जातीं और 2-3 गाने सुने बिना न उठती थीं.

हमारे भाई का जन्मदिन भी वे बड़े निराले तरीके से मनवातीं. न तो पार्टी न डांस, बस, मां का बनाया मिल्ककेक काटा जाता. दोपहर को बड़ेबड़े कड़ाहों और पतीलों में जाएकेदार कढ़ीचावल और शुद्ध देशी घी में हलवा बनवाया जाता. विशेष मेहमान होते अनाथाश्रम के प्यारेप्यारे बच्चे जो अपने आश्रय का सुरीला बैंड बजाते हुए पंक्तिबद्ध हो कर आते और बड़े ही चाव से कढ़ीचावल व हलवे के भोजन से तृप्त होते थे.

साथ ही, रिटर्नगिफ्ट के रूप में एकएक जोड़ी कपड़े ले कर जाते थे. उस के बाद होता था महल्ले के सभी लोगों का महाभोज. एक बड़े से दालान में बच्चेबड़े सभी भोजन करते थे. हम सब घर वाले तब तक पंगत से नहीं उठते थे जब तक सब तृप्त न हो जाते. हलकेफुलके हंसी के माहौल में भोज होता मानो एक विशाल पिकनिक चल रही हो.

मैं तब 10वीं कक्षा में थी. स्कूल से घर आई तो देखा दीदी रो रही हैं और मम्मी पास ही में रोंआसी सी खड़ी हैं. दीदी ने आगे पढ़ने के लिए जो विषय लिया था, उस के लिए उन्हें सहशिक्षा कालेज में दाखिला लेना था. पर पापा आज्ञा नहीं दे रहे थे. दादी उन दिनों हरिद्वार गई हुई थीं. दीदी ने चुपके से उन्हें फोन कर दिया.

दादी ने आते ही एक बार में ही पापा से हां करवा ली. उन्होंने पापा को सिर्फ एक बात कही, मीरा को हम सब ने मिल कर संस्कार दिए हैं. उन में क्या कुछ कमी रह गई है जो मीरा को उस कालेज में जाने से तू रोक रहा है. हमें अपनी मीरा पर पूरा भरोसा है. वह वहां पर लगन से पढ़ कर अच्छे अंक लाएगी और हमारा सिर ऊंचा करेगी. परोक्षरूप से उन्होंने मीरा दीदी को भी हिदायत दे दी थी और वास्तव में दीदी ने प्रथम रैंक ला कर घरपरिवार का नाम रोशन कर दिया. इसी क्षण टैक्सी के हौर्न की आवाज ने हमें यादों के झरोखों से बाहर निकाला.

टैक्सी रफ्तार पकड़े हुए थी. शीघ्र ही हम देहरादून पहुंच गए. घर में प्रवेश करते ही दादी के पार्थिव शरीर को देखते ही यत्न से दबाई हुई हिचकी तेज रुदन में बदल गई. सभी पहुंच चुके थे. बस, मेरा इंतजार हो रहा था. पापा ने मेरी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘मधु बेटी, इस प्रकार रो कर तुम अपनी दादी को दुखी कर रही हो. वे तो संसार के मायाजाल से मुक्त हुई हैं. एक 16 साल की विधवा का, साथ में एक दूधमुंहे बच्चे के साथ, इस संसाररूपी सागर को पार करना बहुत ही कठिन था. मुझे अपनी मां पर गर्व है. उन्होंने अपने आत्मसम्मान व इज्जत को गिरवी रखे बिना इस सागर को पार किया. वे तो स्वयंसिद्धा थीं. उन्होंने समाज की खोखली रूढि़यों, पाखंडों से दूर रह कर अपने रास्ते खुद बनाए. जो उन्हें अच्छा और सही लगा उसे ग्रहण किया और व्यर्थ की मान्यताओं को उन्होंने अपने मार्ग से हटा दिया. उन के मुक्तिपर्व को शोक में मत बदलो.’’

कुछ देर बाद दादी की अंतिमयात्रा आरंभ हो गई. बहुत बड़ी संख्या में लोग साथ थे. दादी की मृत्यु प्रक्रिया उन की इच्छानुसार की गई. न तो ब्राह्मण भोज हुआ न पुजारीपंडों को दान दिया गया. लगभग 200 गरीबों को भरपेट भोजन कराया गया और 1-1 कंबल उन्हें दानस्वरूप दिए गए. पापा ने दादी की इच्छानुसार अनाथाश्रम, महिला कल्याण घर और अस्पताल में 2-2 कमरे बनवा दिए.

देखतेदेखते दादी हम से बहुत दूर चली गईं. वे अपने पीछे छोड़ गईं संघर्षों का ऐसा अनमोल खजाना जो सभी नारियों के लिए एक सबक है कि कैसे कठिन से कठिनतम परिस्थितियों में भी अपने मानसम्मान व इज्जत को बचाते हुए आगे बढ़ें. वे इस युग की ऐसी महिला थीं जिस ने अपनी मृतप्राय जीवनबगिया को नवीन विचारों, दृढ़संकल्पों, कर्मठता व मेहनत के बलबूते फिर से हरीभरी बना दिया. वास्तव में वे स्वयंसिद्धा थीं.

Short Story: जरूरत है एक कोपभवन की

Short Story, लेखक- डॉ. अरुना शास्त्री 

आजकल के इंजीनियर और ठेकेदार यह बात अपने दिमाग से बिलकुल ही बिसरा बैठे हैं कि घर में एक कोपभवन का होना कितना जरूरी है. इसीलिए तो आजकल मकान के नक्शों में बैठक, भोजन करने का कमरा, सोने का कमरा, रसोईघर, सोने के कमरे से लगा गुसलखाना, सभी कुछ रहता है, अगर नहीं रहता है तो बस, कोपभवन.

सोचने की बात है कि राजा दशरथ के राज्य में वास्तुकला ने कितनी उन्नति की थी कि हर महल में कोप के लिए अलग से एक भवन सुरक्षित रहता था. शायद इसीलिए वह काल इतिहास में ‘रामराज्य’ कहलाया, क्योंकि उस काल में महिलाएं बजाय राजनीति के अखाड़े में कूदने के अपना सारा गुबार कोपभवनों में जा कर निकाल लेती थीं और इसीलिए समाज में इतनी शांति और अमनचैन छाया रहता था.

ठीक ही तो था. राजा दशरथ के काल की यह व्यवस्था कितनी अच्छी थी. पति अपनी पत्नियों को समान अधिकार देते थे. वे जानते थे कि कोप सरेआम, हाटबाजार में या कोई कोर्टकचहरी में करने की चीज नहीं है. इस के  लिए तो घर में ही अलग से कोपभवन का होना बहुत जरूरी है.

भला यह भी कोई बात हुई कि कुपिता हो कर बीवी बेचारी दिन भर मुंह फुलाए अपने 2 कमरों के छोटे से घर में काम करती रहे, पति को खाना खिलाए, बच्चों को स्कूल भेजे, शाम को फिर सभी को खिलापिला कर, बच्चों को सुला कर खुद भी अपना तकिया ले कर मुंह फेर कर लेट जाए.

पति के पास तो व्यस्तता का बहाना रहता है जिस के कारण वह जान ही नहीं पाता कि आज पत्नी अवमानिनी बनी हुई, कोप मुद्रा में दर्शन दे रही है या फिर वह इतना चतुर होता है कि जब तक हो सके, जानबूझ कर पत्नी के रूठने से अनजान बने रहने की ही कोशिश करता रहता है. तब क्या पत्नी खुद आ कर कहे कि सुनोजी, मैं रूठी हुई हूं, आप मुझे आ कर मना लीजिए.

पति अगर मनाने आ भी जाए तो आप क्या समझते हैं कि पत्नी ने कोई कच्ची गोलियां खेली हैं जो अपना रूठना छोड़ कर इतनी आसानी से मान जाएगी? रूठी पत्नी को मनाना इतना आसान काम नहीं है जितना आप समझ रहे हैं. न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं उसे मनाने के लिए. यदि कोई कुंआरा व्यक्ति वह दृश्य देख ले तो शादी के नाम से ही तौबा कर ले. राजा दशरथ समझदार थे कि इस के लिए उन्होंने एक कोपभवन का निर्माण करा रखा था, ताकि जब भी उन की तीनों पत्नियों में से किसी को भी रूठना होता था वह कोपभवन में चली जाती थी और राजा दशरथ भी झट अपना राजपाट छोड़ कर रूठी पत्नी को मनाने दौड़ पड़ते थे.

यह स्वर्ण अवसर देखते ही पत्नी चटपट 2-4 वर मांग लेती थी, उस का कोप भंग हो जाता था और पतिपत्नी सारा मनमुटाव भूल कर हंसतेगाते कोपभवन से बाहर आ जाते थे और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती थी. उन दिनों लोग पत्नी को तो सम्मान देते ही थे, साथ ही उस के कोप का भी भरपूर सम्मान करते थे.

अब तो हाल यह है कि तूफान के पहले की शांति देखते ही मेरे अबोध बच्चे कोप के आगमन की आशंका से ही सहम जाते हैं. सहमी हुई बबली मचल रहे गुड्डू को एक कोने में ले जा कर इशारे से समझाती है, ‘‘गुड्डू…मेरे भैया, देख, चुपचाप दूध गटक जा, आज मां का मूड ठीक नहीं है.’’ कोप के लक्षण देखते ही पतिदेव भी थाली में जो कुछ परोस दिया उसी को जल्दीजल्दी पेट में डाल कर भीगी बिल्ली की तरह दफ्तर भाग खड़े होते हैं और अतिरिक्त काम का बहाना बना कर रात को भी मेरे कोप के डर से देर से ही घर लौटते हैं.

मैं सांस रोके प्रतीक्षा करती हूं कि शायद अब वह मुझे मनाएंगे. यह जानते हुए भी कि मैं जाग रही हूं, मुझे सोई हुई समझने में अपनी खैरियत समझ कर वह खुद भी चुपचाप सो जाते हैं.

यह देख कर तो मुझे ही खिसिया कर रह जाना पड़ता है कि कौन सी कुघड़ी में रूठने का विचार मन में आया था. अलग से एक कोपभवन न होने के कारण ही तो कई बार कोप का कार्यक्रम स्थगित रखना पड़ता है. कितना अच्छा होता अगर आज भी कोपभवनों का अस्तित्व होता. कल्पना कीजिए, पत्नी रूठ कर कोपभवन में जा बैठी है.

अब पतिदेव को सुबह बिस्तर से उठते ही चाय नहीं मिलेगी तो कड़कड़ाती ठंड में उनींदी आंखों से मुंहअंधेरे उठ कर दूध वाले से दूध लेने और स्टोव से मगजमारी करने में ही उन महाशय को नानी और दादी दोनों साथ ही याद आ जाएंगी. यही नहीं वह बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने, उन का टिफन जमाने और स्वयं नहाधो, खापी कर दफ्तर के लिए तैयार होने की कल्पना से ही सिहर कर झटपट अपनी पत्नी को कोपभवन में जा कर मना लेने में ही अपना भला समझेंगे. कोपभवनों के अभाव में ही पत्नियों को एक अटैची हमेशा तैयार रखनी पड़ती है ताकि कुपित होते ही उस में कपड़े ठूंस कर पति को गाहेबगाहे मायके जाने की धमकी दी जा सके.

कितना अच्छा होता अगर आज भी कोपभवन होते तो पति की गाढ़ी मेहनत की कमाई रेलभाड़े में खर्च कर के पत्नी को मायके जाने की नौबत ही क्यों आती? पत्नी को अपने रूठने का इतना मलाल नहीं होता जितना मलाल पति द्वारा न मनाए जाने से होता है. पति का न मनाना कोप की आग में घी का काम करता है.

वह तो चाहती है कि पति कोपभवन में आ कर उस के चरणों में गिर कर गिड़गिड़ाए, ‘‘हे प्रियतमे, तुम अब मान भी जाओ, तुम्हारा चौकाचूल्हा संभालना मेरे बस की बात नहीं है. अब कान पकड़ कर कह रहा हूं जब तुम दिन कहोगी तो मैं भी दिन ही कहूंगा, तुम रात कहोगी तो मेरे लिए भी रात हो जाएगी.’’

इस के बाद पहली तारीख को तनख्वाह मिलते ही साड़ी लाने का वादा होता, शाम को फिल्म देखने जाने का कार्यक्रम बनता, पत्नी के अलावा किसी दूसरी सुंदरी की ओर आंख भी उठा कर न देखने की कसम खाई जाती और इस तरह पत्नी किसी फटेपुराने वस्त्र की तरह अपना कोप वहीं त्याग कर प्रसन्नवदना हो कर कोपभवन से बाहर आ जाती.

राम राज्य से ले कर इस 20वीं शताब्दी तक विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि अब तो कोपभवन साउंड प्रूफ (जिस में बाहर की आवाज अंदर न आ सके और अंदर की आवाज बाहर न जा सके) भी बन सकते हैं. फिर चाहे पति कोपभवन में दरवाजा बंद कर के पत्नी के सामने कान पकड़े या दंडबैठक लगाए या पत्नी के कोमल चरणों में साष्टांग दंडवत कर के अपने आंसुओं से उस के चरण कमल क्यों न पखारे और बदले में पत्नी उस से नाकों चने ही क्यों न चबवा दे, वहां उन्हें देखने वाला कोई न होगा.

पत्नी चाहे जितनी गरजेगी, बरसेगी मंथरा टाइप महरी या घर के नौकरचाकर कान लगा कर नहीं सुन सकेंगे और न उन के अबोध बच्चों की मानसिकता पर कोई बुरा प्रभाव पड़ेगा. तलाक की दर निश्चित रूप से कम हो जाएगी. आखिर पतिपत्नी का मामला है. कोपभवन में जा कर सुलझ जाएगा. उस में कोर्टकचहरी की दखलंदाजी क्यों हो?

Short Story: बर्मा के जंगलों में

Short Story: मैं 3 साल पहले अपने अखबार की ओर से दीमापुर,   इम्फाल के दौरे पर गया था. कुछ संसद सदस्य  असम, नागालैंड तथा मणिपुर के विकास कार्यों की समीक्षा करने वहां जा रहे थे. गुवाहाटी, दीमापुर के बाद हम लोग इम्फाल पहुंचे. वहां से हमारा काफिला मोरे के लिए रवाना हुआ.

मोरे, भारत और बर्मा की सीमा पर इम्फाल से 110 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा सा गांव है जो चारों तरफ पहाडि़यों से घिरा है. रास्ते में मेरी गाड़ी खराब हो गई और मैं काफिले से बिछुड़ गया. मोरे से 10 किलोमीटर पहले एक सैनिक छावनी पर हमें रुकना पड़ा. वहां हमारी तलाशी ली गई. पता चला कि आगे रास्ता अचानक खराब हो गया है. करीब 4 घंटे हमें वहां रुकना पड़ा फिर हम रवाना हुए.

हम अभी कुछ दूर ही चले थे कि बीच रास्ते में बड़ेबड़े पत्थर रखे दिखाई दिए. ड्राइवर और हम सभी यात्री उतर कर पत्थर हटाने लगे. इतने में 10-12 हथियारबंद लोगों ने हमें घेर लिया और बंदूक की नोक पर मुझे साथ चलने को कहा. ड्राइवर और बाकी यात्रियों को उन्होंने छोड़ दिया. मैं हाथ ऊपर कर के उन के साथसाथ चलने लगा.

करीब 2 घंटे तक जंगल में पैदल चलने के बाद, उन के साथ मैं एक पहाड़ी के नीचे पहुंचा तो देखा वहां

3-4 झोपडि़यां बनी हुई थीं. वहीं उन का कैंप था. एक झोंपड़ी में लकड़ी के खंभे के सहारे मुझे बांध दिया गया. थोड़ी देर बाद एक लड़की आई और उस ने मुझे चाय व बिस्कुट खाने को कहा. मेरे हाथ ढीले कर दिए गए. मैं ने चाय पी ली. अगले दिन सुबह उन का नेता आया और मुझ से प्रश्न करने लगा. शुद्ध हिंदी में उसे बात करते देख मुझे बहुत ताज्जुब हुआ.

‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘मंगल सिंह,’’ मैं ने जवाब में कहा, ‘‘मैं नई दिल्ली स्थित एक अखबार में संवाददाता की हैसियत से काम कर रहा हूं. यहां मैं संसद सदस्यों के दौरे की रिपोर्ट लिखने आया था. मैं पहली बार इस इलाके में आया हूं. यहां मेरा कोई जानपहचान का नहीं है.’’

‘‘लगता है हमारे लोग आप को गलती से उठा लाए हैं. हमारा निशाना तो कृष्णमूर्ति था जो इस इलाके में मादक पदार्थों की तस्करी करता है. आप का चेहरा थोड़ाथोड़ा उस से मिलता है. मुझे खबर मिली थी कि वह आप वाली गाड़ी में ही सफर कर रहा है. फिर भी आप के बारे में तहकीकात की जाएगी. यदि आप की बात सच होगी तो कुछ दिन बाद आप को छोड़ दिया जाएगा. तब तक आप को यहीं रखा जाएगा. आप को जो तकलीफ हुई उस के लिए मैं माफी चाहता हूं’’

‘‘क्या आप मेरे घर या संपादक तक मेरी खबर भिजवा सकते हैं बूढ़े मांबाप मेरी चिंता करेंगे.’’

‘‘आप एक पत्र लिख दें. दिल्ली में मेरे संगठन से जुड़े लोग आप के अखबार तक आप का पत्र पहुंचा देंगे पर पत्र पहले मैं पढूंगा. उस में इन सब बातों का जिक्र नहीं होना चाहिए. आप के हाथपांव मैं खोल देता हूं पर आप भागने की कोशिश न करें, क्योंकि अभी आप बर्मा के जंगलों में हैं. यदि आप भागेंगे तो हम आप को गोली मार देंगे और यदि आप कृष्णमूर्ति नहीं हैं तो आप को आजादी मिल जाएगी.’’

‘‘यदि आप बुरा न मानें तो मैं कृष्णमूर्ति के बारे में और ज्यादा जानना चाहता हूं आखिर यह किस्सा क्या है?’’ मेरा पत्रकार मन एक अनजान व्यक्ति के बारे में जानने को इच्छुक हो उठा था.

‘‘हमारा संगठन हर उस व्यक्ति के खिलाफ है जो मादक पदार्थों की तस्करी में लिप्त है. मैं ने उसे चेतावनी भी दी थी पर वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आता. अत: इस संगठन के कमांडर ने उसे गोली मारने का आदेश दिया है. इस बार फिर वह बच निकला है. लेकिन कब तक बचेगा. हमारे आदमी उसे ढूंढ़ ही लेंगे.’’

‘‘नशीले पदार्थों की तस्करी रोकने के लिए तो पुलिस है, कानूनव्यवस्था है. आप यह काम क्यों कर रहे हैं?’’ मुझ से रहा नहीं गया और पूछ लिया.

‘‘हम एक तरह से कानून की ही मदद कर रहे हैं. हमारे देश के लोग यदि नशे के गुलाम बनेंगे तो देश का भविष्य कैसा होगा. आप तो जानते ही हैं कि एक बार जिस को नशे की लत लग जाए फिर उस की बरबादी निश्चित है. हम अपनी मातृभूमि की सेवा करते हैं. किसी भी बाहरी व्यक्ति को यह हक नहीं है कि हमारे भाईबहनों को पतन के रास्ते पर ले जाए. चूंकि कानून की नजरों में हम बागी हैं इसलिए कानून से हमें भागना पड़ता है. हमारी अपनी न्याय व्यवस्था है जिस में कमांडर का आदेश ही सर्वोपरि है. इस में कोई अपील या सुनवाई नहीं होती. आप के देश के नियमकानून काफी लचीले हैं. कई बार व्यक्ति अपराध कर के साफ बरी हो जाता है और फिर उसी काम को करने लगता है. खैर, इस विषय को यहीं समाप्त करते हैं.’’

इतना कह कर संगठन का वह नेता चला गया और मेरे हाथपैर खोल दिए गए. मैं थोड़ा इधरउधर टहल सकता था. वहां कुल 15 आदमी और 3 लड़कियां थीं. लड़कियों का मुख्य काम खाना बनाना था पर उन्हें हथियार चलाना भी आता था. मैं ने अपने संपादक को एक छोटा सा पत्र लिख दिया था ताकि वह मेरे मांबाप को सांत्वना दे सकें. कुछ देर के बाद एक लड़की आई और मुझे खाना खाने के लिए कहने लगी. वहां जा कर देखा तो पूरा शाकाहारी भोजन का प्रबंध था. मैं खुश हो गया क्योंकि मैं शुद्ध शाकाहारी था. भोजन में चावल, दाल, आलूप्याज की सब्जी, रोटी और सलाद था. मैं ने सब चिंता छोड़ कर भरपेट खाया क्योंकि खाना मुझे काफी स्वादिष्ठ लगा.

अगले दिन सुबह 5 बजे मेरी नींद खुल गई. मैं नित्यकर्म से निबट कर बाहर आ कर  बैठ गया. सूरज धीरेधीरे पहाड़ी के पीछे उदय हो रहा था. इतना सुंदर नजारा मैं ने जीवन में कभी नहीं देखा था. वह जगह प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर थी. दूरदूर तक पेड़ ही पेड़ दिखाई पड़ रहे थे. उन पर तरहतरह के पक्षियों के चहचहाने की आवाजें आ रही थीं. मैं कुछ समय तक इन में खो गया.

मेरी तंद्रा तब टूटी जब एक लड़की चाय, बिस्कुट ले आई और उस ने मुझ से अंगरेजी में पूछा कि इस के अलावा और भी कुछ चाहिए. मैं ने  भी अंगरेजी में उसे जबाब दिया कि यहां और क्या- क्या मिल सकता है. वह बोली कि

ब्रेड, केक, पेस्ट्री आदि सभी चीजों का प्रबंध है और 8 बजे नाश्ता भी मिल जाएगा. नाश्ते में आलू का परांठा और टमाटर की चटनी होगी. उस के बोलने के अंदाज से मुग्ध हो कर मैं एकटक उसे ही देखता रहा तो वह चली गई.

थोड़ी देर बाद देखा कि कुछ बर्मीज औरतें सामान ले कर आ रही हैं. एक के पास बरतन में दूध था. किसी के पास सब्जी थी तो कोई चावल लाई थी. यानी जो भी खानेपीने का सामान चाहिए वह आप खरीद सकते हैं.

मैं भी उन के पास चला गया. कैंप की रसोई प्रमुख का नाम नीना था. उस ने अपनी जरूरत के हिसाब से सामान खरीद लिया. कल क्या लाना है, यह भी बता दिया. यह सब देख कर नीना से मैं ने पूछा, ‘‘क्या सब सामान ये लोग यहां ला कर दे देते हैं?’’

‘‘बर्मीज लोग बड़े शांत, सरल हृदय होते हैं. छल, कपट और झूठ बोलना तो जैसे जानते ही नहीं. यहां काम मुख्य तौर पर औरतें ही करती हैं. सभी तरह का व्यापार इन्हीं के हाथ में है. अभी जो औरतें यहां सामान ले कर आई

हैं, ये करीब 10 किलोमीटर की दूरी तय कर के आई हैं. शाम को फिर एक बार सामान ले कर आएंगी.’’

‘‘ये औरतें रोज इतना पैदल सफर कर लेती हैं.’’

‘‘नहीं,’’ नीना बोली साइकिल पर 50-60 किलो माल ले आती हैं. यहां अभी भी पूरी ईमानदारी से काम होता

है. मिलावट करना ये लोग जानते ही नहीं.’’

अब तक मैं समझ गया था कि नीना से मुझे और भी जानकारी मिल सकती है. बस, इसे बातचीत में लगाना होगा. तब मुझे इस संगठन के बारे में काफी नई बातें जानने को मिल सकती हैं और जितने दिन यहां रहना पड़ेगा थोड़ी परेशानी कम हो सकती है. अत: जब भी मौका मिलता मैं नीना से बातचीत करता रहता.

इस तरह 4-5 दिन गुजर गए. नीना कभीकभी गिटार पर कोई धुन भी बजाने लगती तो मैं भी जा कर साथ में गाने लगता. वह काफी अच्छा गिटार बजाना जानती थी. मुझे भी संगीत का काफी शौक था. मैं हिंदी गाने और भजन गाता और वह उसे गिटार पर बजाने की कोशिश करती. यह देख कर राजन नामक उस के साथी को भी जोश आ गया और वह बगल के किसी गांव से एक ढोलक ले आया. इस तरह हम लोग रोज रात में गानाबजाना करने लगे.

सच ही है, संगीत में कोई भेदभाव नहीं होता, मजहब की दूरी नहीं होती, कोई अमीरगरीब की सोच नहीं होती.

एक रात मैं सो रहा था कि एक बड़े काले सांप ने मुझे काट लिया और भाग कर झोंपड़ी के कोने में छिप गया. मुझे बहुत दर्द हुआ और मैं जोर से चिल्लाया. आवाज सुन कर नीना और 3-4 व्यक्ति दौड़ेदौड़े आए. मैं ने उन्हें बताया कि मुझे सांप ने काटा है और अभी भी वह झोंपड़ी में मौजूद है.

नीना दौड़ कर एक डंडा ले आई और सांप को खोज कर मार दिया. मैं उस का साहस देख कर आश्चर्यचकित रह गया. फिर नीना ने बताया कि यह सांप तो बहुत जहरीला है अब आप लेट जाइए इस का जहर निकालना पड़ेगा वरना यह पूरे शरीर में फैल सकता है. मैं लेट गया. नीना ने जहां सांप ने काटा था वहां चाकू से एक चीरा लगाया और मुंह से चूसचूस कर जहर निकालने लगी. फिर मुझे नींद आ गई. सुबह पता चला कि नीना रात भर मेरे पास बैठी रही. एक अनजान व्यक्तिके लिए इतनी पीड़ा उस ने उठाई.

अब धीरेधीरे नीना मुझ से खुलने लगी. हम आपस में विविध विषयों पर बातचीत करने लगे. उस के व्यक्तित्व के बारे में मुझे और जानकारी मिली. उस के मांबाप की मृत्यु एक सड़क दुर्घटना में हो गई थी. अब उस का दुनिया में कोई नहीं था. मणिपुर विश्व- विद्यालय से उस ने अंगरेजी में एम.ए. किया था और आगे उस का इरादा पीएच.डी. करने का है.

नीना ने बाकायदा संगीत सीखा था. वह बहुत अच्छा खाना बनाती थी. देखने में सुंदर थी. मैं उसे थोड़ीथोड़ी हिंदी भी सिखाने लगा. वह मेरी इस तरह सेवा करने लगी जैसे कोई ममतामयी मां अपने बच्चे की देखभाल करती है. मुझे जीवन- दान तो उस ने दिया ही था. अब तक कैंप के और लोग भी मुझ से थोड़ा खुल गए थे.

वहां कुछ नेपाली औरतें भी आती थीं जिन्हें हिंदी का ज्ञान था. उन से मैं ने बर्मा के बारे में काफी प्रश्न किए. तो पता चला कि बर्मा में भारत की तरह भ्रष्टाचार नहीं है. लोग घर पर ताला न भी लगाएं तो चोरी नहीं होती. दिन भर मेहनत करते हैं और रात को खाना खा कर सो जाते हैं. सब अनुशासन में रहते हैं. खेती वहां का मुख्य व्यवसाय है.

मेरा मन वहां लग गया था. पर बीचबीच में घर के लोगों की चिंता हो जाती थी. समय अच्छी तरह कट रहा था. इस तरह करीब 20-25 दिन गुजर गए. नीना मेरे साथ एकदम खुल गई थी. उस का संकोच पूरी तरह समाप्त हो गया था. मेरे मन में भी कैंप छोड़ कर दिल्ली लौटने की इच्छा समाप्त हो गई थी पर परिवार के प्रति मेरी जिम्मेदारी थी. जीने के लिए अखबार की नौकरी भी जरूरी थी.

एक दिन अचानक कैंप का वही नेता जो पहले आया था लौट आया. सब बहुत खुश हुए. उस ने मुझे बुलाया और कहा, ‘‘मेरे कमांडर ने आप को छोड़ने का आदेश दे दिया है. 1-2 दिन के बाद आप को मोरे गांव तक पहुंचा देंगे. वहां से आप को इम्फाल की बस मिल जाएगी. आप को जो कष्ट पहुंचा उस के लिए मैं अपने कमांडर की तरफ से क्षमा चाहता हूं.’’

‘‘क्षमा कैसी. मेरा तो जाने का मन ही नहीं कर रहा पर जाना तो पड़ेगा ही क्योंकि आप के कमांडर का आदेश है. आप के साथियों ने मेरा काफी ध्यान रखा जिस के लिए मैं इन सब का आभारी हूं. नीना ने तो मुझे नया जीवन दिया है. मैं उस का ऋणी भी हूं. हां, जाने से पहले मेरी एक शर्त आप को माननी पड़ेगी अन्यथा मैं यहीं पर आमरण अनशन करूंगा,’’ मैं ने कहा.

‘‘वह क्या? आप को तो खुश होना चाहिए कि आप आजाद हो  रहे हैं. हां, कमांडर ने आप के लिए 10  हजार रुपए भेजे हैं. रास्ते के खर्च के लिए और आप के एक मास के वेतन के नुकसान की भरपाई करने के लिए. इम्फाल एअरपोर्ट पर दिल्ली का टिकट आप को मिल जाएगा, इस का प्रबंध हो गया है. दिल्ली में हम ने आप के संपादक और आप के मातापिता तक खबर भेज दी थी और आप की पूरी तहकीकात हम कर चुके हैं. अब आप अपनी शर्त के बारे में बताएं,’’ थाम किशोर ने पूछा.

‘‘मैं नीना से शादी करना चाहता हूं यदि आप को और नीना को कोई एतराज न हो तो. यदि मैं नीना जैसी लड़की को पत्नी के रूप में पा सका तो अपने आप को धन्य समझूंगा. आप सोचविचार कर मुझे जवाब दें और नीना से भी पूछ लें,’’ मैं ने कहा.

पूरे कैंप में खामोशी छा गई. उन     लोगों को मेरी बात पर काफी आश्चर्य हुआ. खामोशी थाम किशोर ने ही तोड़ी.

‘‘भावुकता से भरी बातें न करें. आप की जाति, संप्रदाय, आचारविचार सब अलग हैं. नीना कैसे माहौल में

रह रही है आप देख ही चुके हैं. हम लोग मातृभूमि की सेवा का संकल्प कर चुके हैं. फिर भी मुझे नीना से तथा अपने कमांडर से पूछना होगा. आप

2-4 दिन और रुकें फिर मैं आप को फैसला सुना देता हूं.’’

बाद के दिनों में नीना ने मुझ से थोड़ी दूरी बढ़ानी चाही पर मैं ने उसे ऐसा करने नहीं दिया. नीना ने बताया कि वह भी मुझे पसंद करती है और शादी भी करने को तैयार है लेकिन क्या इस शादी से आप के घर वाले एतराज नहीं करेंगे?

मैं ने उस के मन में उठे संदेह को शांत करने के लिए समझाया कि मेरे मातापिता को ऐसी बहू चाहिए जो उन की सेवा कर सके. तुम्हारा सेवाभाव तो मैं देख चुका हूं. तुम को पा कर मेरा   जीवन सफल हो जाएगा. बस, कमांडर हां कर दे तो बात बन जाए.

3 दिन के बाद संगठन के नेता थाम किशोर सिंह ने यह खुशखबरी दी कि कमांडर ने हां कर दी है और कहा है कि धूमधाम से कैंप में ही शादी का प्रबंध किया जाए. वह भी आने की कोशिश करेंगे.

मेरी और नीना की शादी धूमधाम से वहीं कैंप में कर दी गई और एक झोंपड़ी में सुहागरात मनाने का प्रबंध भी कर दिया गया. अगले दिन सुबह कैंप से विदा होने की तैयारी करने लगे. सभी सदस्यों ने रोते हुए हमें विदा किया.

थाम किशोर ने एक लिफाफा दिया और कहा कि कमांडर ने नीना को एक तोहफा दिया है. वह तो आ नहीं सके. हम लोग मोरे इम्फाल होते हुए दिल्ली पहुंच गए. नीना पूरे सफर में बहुत खुश थी.

Hindi Story: आत्मनिर्णय – आखिर आन्या ने अपनी मां की दूसरी शादी क्यों करवाई

Hindi Story, लेखक- मीरा जगनानी

मैंने आन्या के पापा को उस के पैदा होने के महीनेभर बाद ही खो दिया था. हरीश हमारे पड़ोसी थे. वे विधुर थे और हम एकदूसरे के दुखसुख में बहुत काम आते थे. हरीश से मेरा मन काफी मिलता था. एक बार हरीश ने लिवइन रिलेशनशिप का प्रस्ताव मेरे सामने रखा तो मैं ने कहा, ‘यह मुमकिन नहीं है.

आप के और मेरे दोनों के बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा. पति को तो खो ही चुकी हूं, अब किसी भी कीमत पर आन्या को नहीं खोना चाहती. हम दोनों एकदूसरे के दोस्त हैं, यह काफी है.’ उस के बाद फिर कभी उन्होंने यह बात नहीं उठाई.

धीरेधीरे समय का पहिया घूमता रहा और आन्या अपनी पढ़ाई पूरी कर के नौकरी करने लगी. उसे बस से औफिस पहुंचने में करीब सवा घंटा लगता था. एक दिन अचानक आन्या ने आ कर मुझ से कहा, ‘‘मम्मी, बहुत दूर है. मैं बहुत थक जाती हूं. रास्ते में समय भी काफी निकल जाता है. मैं औफिस के पास ही पीजी में रहना चाहती हूं.’’

एक बार तो उस का प्रस्ताव सुन कर मैं सकते में आ गई, फिर मैं ने सोचा कि एक न एक दिन तो वह मुझ से दूर जाएगी ही. अकेले रह कर उस के अंदर आत्मविश्वास पैदा होगा और वह आत्मनिर्भर रह कर जीना सीखेगी, जोकि आज के जमाने में बहुत जरूरी है. मैं ने उस से कहा, ‘‘ठीक है बेटा, जैसे तुम्हें समझ में आए, करो.’’

3-4 महीने बाद उस ने मुझे फोन कर के अपने पास आने के लिए कहा तो मैं मान गई, और जब उस के दिए ऐड्रैस पर पहुंच कर दरवाजे की घंटी बजाई तो दरवाजे पर एक सुदर्शन युवक को देख कर भौचक रह गई. इस से पहले मैं कुछ बोलूं, उस ने कहा, ‘‘आइए आंटी, आन्या यहीं रहती है.’’

यह सुन कर मैं थोड़ी सामान्य हो कर अंदर गई. आन्या सोफे पर बैठ कर लैपटौप पर कुछ लिख रही थी. मुझे देखते ही वह मुझ से लिपट गई और मुसकराते हुए बोली, ‘‘मम्मी, यह तनय है, मैं इस से प्यार करती हूं. इसी से मुझे शादी करनी है. पर अभी ससुराल, बच्चे, रीतिरिवाज किसी जिम्मेदारी के लिए हम मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से परिपक्व नहीं हैं.

अलग रह कर रोजरोज मिलने पर समय और पैसे की बरबादी होती है. इसलिए हम ने साथ रह कर समय का इंतजार करना बेहतर समझा है. मैं जानती हूं अचानक यह देख कर आप को बहुत बुरा लग रहा है, लेकिन आप मुझ पर विश्वास रखिए, आप को मेरे निर्णय से कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.

‘‘और मैं यह भी जानती हूं, आप पापा के जाने के बाद बहुत अकेला महसूस कर रही हैं. आप हरीश अंकल से बहुत प्यार करती हैं. आप भी उन के साथ लिवइन में रह कर अपने अकेलेपन को दूर करें. फिर मुझे भी आप की ज्यादा चिंता नहीं रहेगी.’’

यह सब सुनते ही एक बार तो मुझे बहुत झटका लगा, फिर मैं ने सोचा कि आज के बच्चे कितने मजबूत हैं. मैं तो कभी आत्मनिर्णय नहीं ले पाई, लेकिन जीवन का इतना बड़ा निर्णय लेने में उस को क्यों रोकूं. तनय बातों से अच्छे संस्कारी परिवार का लगा. अब समय के साथ युवा बदल रहे हैं, तो हमें भी उन की नई सोच के अनुसार उन की जीवनशैली का स्वागत करना चाहिए.

उन पर हमारा निर्णय थोपने का कोई अर्थ नहीं है. और यह मेरी परवरिश का ही परिणाम है कि वह मुझ से दूसरे बच्चों की तरह छिपा कर कुछ नहीं करती. मैं ने तनय को अपने गले से लगाया कि उस ने आन्या के भविष्य की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले कर मुझे मुक्त कर दिया है. मैं संतुष्ट मन से घर लौट आई और आते ही मैं ने हरीश के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी.

Hindi Story: इज्जत की खातिर – क्यों एक बाप ने की बेटी की हत्या

Hindi Story: सरपंच होने के नाते इंद्राज की सारे गांव में तूती बोलती थी. उन के पास से गुजरते समय लोग सहम जाते थे. किसी की जोरू भागी हो, कोई इश्क या नाजायज संबंध का मामला हो या खेती का मामला हो, सब का फैसला इंद्राज ही करते थे. आसपास के 4 गांवों के मामले इंद्राज ही निबटाते थे.

‘‘मातादीन, नीम के नीचे चारपाई बिछाओ. हम अभी आते हैं,’’ इंद्राज ने आवाज लगाई.

‘‘जी मालिक, अभी बिछाते हैं,’’ हमेशा इंद्राज के आदेशों के इंतजार में रहने वाले नौकर ने जवाब दिया.

इंद्राज एक गिलास छाछ पी कर घर से निकलते हुए बेदो देवी को आदेश देते हुए बोले, ‘‘आज पुनिया गांव से बुलावा आया है. बाहर लोग बैठे हैं. एक दिन की भी फुरसत नहीं मिलती. तुम जरा सुमन का खयाल रखना. वह कहीं आएजाए नहीं,’’ इतना कह कर इंद्राज बाहर निकल कर चारपाई पर बैठ गए.

‘‘क्या है रे छज्जू, क्या बात हो गई?’’ इंद्राज ने चारपाई के पास खड़े लोगों में से एक से पूछा, जो फरियाद ले कर आया था.

‘‘हुजूर, कालू अहीर का लड़का हमारी लड़की को जबरन उठा ले गया था और उस ने एक रात उसे अपने पास रखा भी,’’ छज्जू ने हाथ जोड़ कर कहा.

‘‘तो यह बात है…’’ अपने सिर को हिलाते हुए सरपंच ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम सब गांव पहुंचो. वहां के पंच से कह देना कि हम वहां पर पंचायत करने आ रहे हैं.

‘‘और हां, कालू से कह देना कि गांव छोड़ कर कहीं बाहर न जाए.’’

‘‘बाबूजी, पास के गांव में मेला लगा है. सुषमा और सुमरन के साथ क्या मैं भी मेला देखने चली जाऊं?’’ जब पुनिया गांव के लोग चले गए, तो सुमन इंद्राज से इजाजत लेने आई.

‘‘हमारी बेटी मेले में जा कर इठलाएबलखाए, यह हमें मंजूर नहीं,’’ इंद्राज ने अपनी कटीली रोबदार मूंछों पर हाथ फेरते हुए कहा. बेचारी सुमन अपना सा मुंह ले कर लौट गई.

सुमन के जिद करने पर उस की मां बेदो देवी ने उसे अपने पिता से इजाजत लेने को कहा. वह अपनी तरफ से बेटी को भेज नहीं सकती थी, क्योंकि वह इंद्राज के सनकी दिमाग को अच्छी तरह जानती थी.

मातादीन मोटरसाइकिल को चमका रहा था. इंद्राज के आवाज लगाने पर वह मोटरसाइकिल ले कर उन के सामने खड़ा हो गया.

इंद्राज ने मोटरसाइकिल पर अपने पीछे 2 लठैतों को भी बैठा लिया और तेजी से पुनिया गांव की ओर चल पड़ा.

मोटरसाइकिल पंचों के पास जा कर ठहरी. सभी पंच पहले से ही सरपंच इंद्राज की राह देख रहे थे.

‘नमस्ते सरपंचजी,’ सभी पंचों ने कहा.

‘‘नमस्ते,’’ इंद्राज से उन लोगों ने हाथ मिलाया और बेहद इज्जत के साथ उन्हें बीच वाले आसन पर अपने साथ बैठाया.

‘‘कालू और छज्जू हाजिर हों,’’ गांव के एक हरकारे ने जोरदार आवाज लगाई. कालू और छज्जू हाथ जोड़े सामने आ कर खड़े हो गए.

पंचों ने उन से बैठने को कहा, तो वे दोनों सहमी बिल्ली की तरह बैठ गए.

पंचों का फैसला सुनने के लिए एक तरफ औरतें और दूसरी ओर मर्द खड़ेहो गए.

‘‘हां, तो अपनीअपनी शिकायत पेश करो…’’ इंद्राज ने हांक लगाई, ‘‘छज्जू की बात तो हम सुन चुके हैं, अब कालू की बारी है.’’

‘‘जी हुजूर, छज्जू की बेटी सुमतिया अपनी मरजी से गोलू के साथ भागी थी,’’ कालू ने गिड़गिड़ाते हुए उन से कहा.

‘‘सुमतिया को तुरंत हाजिर करो,’’ दाताराम पंच ने कहा.

सुमतिया और गोलू भी वहां पहले से मौजूद थे. सुमतिया सलवारसूट में थी. पंच की पुकार पर वह सामने आ कर खड़ी हो गई.

‘‘क्यों, तू अपनी मरजी से भागी थी?’’ इंद्राज ने कड़क आवाज में पूछा.

लेकिन सुमतिया शर्म की वजह से कुछ बोल नहीं पा रही थी. वह सिर झुका कर खड़ी रही.

पंचों के दोबारा पूछने पर सुमतिया ने ‘हां’ में जवाब दिया.

‘‘गोलू ने तुम्हारे साथ कुछ गलत तो नहीं किया?’’ इस सवाल पर सुमतिया झेंप गई और कोई जवाब नहीं दे पाई.

पंचों ने सजा देने के लिए आपस में सलाह करनी शुरू कर दी. आखिर में सरपंच ने फैसला सुनाते हुए कहा, ‘‘चूंकि दोनों की बिरादरी एक है, इसलिए इन दोनों की शादी कर देनी चाहिए.’’

इस के बाद सरपंच ने छज्जू से कहा, ‘‘सुमतिया अपनी मरजी से भागी थी. गोलू उसे जबरन नहीं ले गया था. लेकिन तुम ने पंचों से झूठ बोला. तुम को तो वैसे भी अपनी बेटी एक दिन ब्याहनी ही थी, इसलिए सजा के तौर पर तुम कालू को 2 बीघा जमीन, 2 बैल और 4 तोले सोना दोगे.’’

सजा सुन कर छज्जू को पसीना आ गया. वह गिड़गिड़ाते हुए बोला, ‘‘हुजूर, यह तो बहुत ज्यादा है. मैं इतना कहां से दे पाऊंगा?’’

‘‘लड़की को काबू में नहीं रख सकता, चला है बात करने…’’ इंद्राज ने जोर से झाड़ लगाई, ‘‘अगर नहीं दे सकते, तो जमीन गिरवी रख कर मुझ से कर्ज ले लेना.’’

कर्ज के नाम से छज्जू के पैरों तले जमीन हिलने लगी. उसे पता था कि एक बार का कर्ज पीढि़यों तक नहीं चुकता. उस के दादा ने एक बार कर्ज लिया था, तो वह अभी तक चला आ रहा था, पर पंचों का फैसला उसे मानना ही पड़ा.

कुछ महीने की मुहलत लेने के बाद एक दिन छज्जू खेत के कागजात ले कर इंद्राज के पास पहुंचा.

इंद्राज उस से अंगूठा लगवाने वाले ही थे कि अचानक वहां परेशान सा मातादीन आ गया.

‘‘देखिए माईबाप, सुमन बिटिया को क्या हो गया?’’ मातादीन हांफते हुए कहने लगा, ‘‘बिटिया उलटी पर उलटी किए जा रही है. जल्दी से डाक्टर को बुला लाऊं क्या?’’इंद्राज ने सुना तो फौरन घर के अंदर की ओर भागे.

‘‘क्या हुआ सुमन को?’’ इंद्राज ने अपनी बीवी बेदो देवी से सख्त लहजे में पूछा.

‘‘होना क्या है? किसी का पाप पेट में पाल रही है,’’ बेदो देवी सुमन को पीटते हुए बोली.

‘‘कुछ बताया इस ने किस का है?’’ इंद्राज की अकड़ अब कुछ हद तक ढीली हो गई.

‘‘मुरेना, चरण अहीर का लड़का. वही सरपंच, जिस से पिछले साल आप की ठन गई थी,’’ बेदो देवी ने याद दिलाते हुए कहा, ‘‘इस कलमुंही ने तो हमारी इज्जत को रौंद कर रख दिया. हम कहीं के नहीं रहे.’’

‘‘धीरे बोलो बेदो, आसपास और भी कान हैं. अब रात को ही इस का कुछ इंतजाम करते हैं.’’

‘‘हमारे खानदान की तो इस ने नाक कटा दी. इज्जत और न मिट्टी में मिला दिया. 4 गांवों के सरपंच को अब अपने घर का फैसला करना मुश्किल होगा,’’ बेदो देवी बड़बड़ाई.

रात होते ही लड़की के नाना को बुला लिया गया. वह भी अग्रोहा गांव के सरपंच थे. तीनों ने आपस में सलाह कर सुमन को सल्फास पीने पर मजबूर कर दिया. अपनी इज्जत बचाने का उन्हें और कोई रास्ता नजर नहीं आया.

सुबह तक सुमन जिंदगी और मौत के बीच छटपटाती रही. खुदकुशी का बहाना बना कर वे लोग उसे शहर के सरकारी अस्पताल ले गए. उस की हालत से लग रहा था कि वह रास्ते में ही मर जाएगी. मगर अस्पताल पहुंचने तक वह जिंदा रही.

डाक्टर ने उसे तुरंत भरती कर लिया, लेकिन डाक्टर ने पुलिस को फोन कर दिया. डाक्टर की नजर में वह पुलिस केस था.

पुलिस आई, तो सुमन के बयान पर तीनों को गिरफ्तार कर लिया गया. दूसरे दिन अखबारों में बड़ेबड़े अक्षरों में छपा, ‘इज्जत की खातिर जवान बेटी को मौत की नींद सुला दिया गया.’

Hindi Story: काशी वाले पंडाजी – बेटियों ने बचाया परिवार

Hindi Story: रबी की फसल तैयार होने के बाद काशी वाले पंडाजी का इलाके में आना हुआ. लेकिन इस बार पंडाजी के साथ एक पहलवान चेला भी था, जिस की उम्र तकरीबन 35 साल के आसपास थी. पर देखने में वह 21-22 साल का ही लगता था. हाथ में कई अंगूठियां, छोटेछोटे काले बाल, प्रैस की हुई खादी की धोती और पैर में कोल्हापुरी चप्पल उस पर खूब फबती थी. पंडाजी बांस की बनी एक छोटी डोलची ले कर चलते थे. डोलची के हैंडिल के सहारे 2 छोटीछोटी गोल रंगीन शीशियां बंधी रहती थीं.

पंडाजी बड़ी सावधानी से शीशी खोलते और बहुत ही थोड़ा जल निकाल कर यजमान के बरतन में डालते. इस के बाद पहलवान चेला शुरू हो जाता, ‘‘यह प्रयाग का गंगाजल है. पंडाजी ने नवरात्र के समय मंदिर में इसे कठिन साधना के साथ मंत्रों से पढ़ा है. ‘‘इस गंगाजल में शुद्ध जल मिला कर घर के चारों तरफ छिड़क दें. इस के बाद सारा उपद्रव शांत हो जाएगा. बालबच्चे खुश रहेंगे और यजमान का कल्याण होगा.’’

उस पहलवान चेले की बात खत्म होते ही लाल और पीले धागे वाले 2 तावीज वह पंडाजी की ओर बढ़ा देता और कुछ क्षण बाद तावीजों को ले कर यजमान के हाथों में रखते हुए कहता, ‘‘पंडाजी बता रहे हैं कि लाल धागे वाला तावीज यजमान बाएं हाथ में मंगलवार को पहनें और पीले धागे वाला तावीज बुधवार को यजमान दाहिने हाथ में पहनें. इस के बाद सब तरह की बाधा दूर हो जाएगी और हर काम में तरक्की होगी.’’

यजमान दोनों हथेलियों पर 2 रंगों वाले तावीजों को इस तरह देखने लगता, मानो वह तावीज नहीं, कुबेर के खजाने की कुंजी और दवा हो. चेला दक्षिणा उठा कर गिनता. अगर वह 51 रुपए होती, तो चुपचाप पंडाजी की दाहिनी जेब से पर्स निकाल कर उस में रख देता और अगर पैसा इस से कम होता, तो कहता, ‘‘यह तो नवरात्र का खर्च भी नहीं है. लौट कर भी तो अनुष्ठान करना होगा.’’

तब यजमान कुछ रुपए निकाल कर चेले को बढ़ा देता. चेला नोटों की गिनती किए बिना पर्स के हवाले कर देता. पंडाजी यजमानों द्वारा दी गई दक्षिणा के हिसाब से ही अपना कीमती समय देते थे. पर वे माई के घर पर घंटों आसन जमाते. माई बहुत दिनों तक परदेश में रही थीं और उन की तीनों कुंआरी बेटियां भी देखने में खूबसूरत थीं.

पंडाजी के गांव में पधारते ही माई के दरवाजे पर उन के आसन का इंतजाम हो गया था. तीनों बेटियां भी अच्छी तरह सजसंवर कर तैयार हो चुकी थीं. पंडाजी के पहुंचते ही माई ने उन की आवभगत की. पंडाजी आसन पर बैठने ही वाले थे कि एक लड़की ने आ कर उन के पैर छुए. उन्होंने पूछा, ‘‘हां, क्या नाम है?’’

‘‘जी… संजू.’’ ‘‘कुंभ राशि. कन्या के लक्षण तो अति विलक्षण हैं. यह तो पिछले जन्म में राजकन्या थी. कुछ चूक हो जाने के चलते इसे इस कुल में आना पड़ा, तभी तो यह इतनी सुंदर और चंचला है.’’

सुंदर और चंचला शब्द सुनते ही संजू के गाल और भी लाल हो उठे और वह रोमांचित हो कर पंडाजी के और करीब होने लगी. तभी दूसरी लड़की रंजू ने कहा, ‘‘पंडाजी, इस को घरवर कैसा मिलेगा? इस की शादी कब तक होगी? हम तो इसी चिंता में परेशान रहते हैं. इस साल ही इस के हाथ पीले होने का कोई जतन बताइए न.’’

रंजू की बातें सुन कर पंडाजी चेले की ओर देखने लगे. संजू के यौवन में भटकता चेला अचकचा कर पंडाजी की ओर देखता हुआ कुछ पल चुप रहने के बाद बोला, ‘‘बीते सावन में इस के हाथ से जो सांप मर गया, वह कुलदेवता था. कुलदेवता इस पर बहुत गुस्सा हैं. इस के लिए मंत्र और तंत्र दोनों की साधनाएं करनी होंगी. ‘‘अच्छा है कि आज मंगलवार है. आज रात यह अनुष्ठान हो जाए, तो सब बिगड़ा काम बन सकता है.’’

चेले का यह सुझाव माई को डूबते को तिनके का सहारा जैसा लगा. सभी समस्याओं का समाधान निकल आने से माई की जान में जान आई. ठीक 5 बजे अनुष्ठान शुरू करने की बात कह कर पंडाजी चेले के साथ कैथीटोला गांव की ओर चल पड़े.

रात 9 बजे से माई के आंगन में अनुष्ठान का काम पंडाजी और चेले ने शुरू किया. हर तरह से सजीसंवरी तीनों बहनें भी आ कर लाइन से बैठ गईं. कुछ देर तक मंत्र पढ़ने के बाद आग जला कर उन्होंने माई के साथसाथ संजू, रंजू और मंजू को भभूत मिला प्रसाद खाने को दिया. इस के बाद चेले ने वहां मौजूद पासपड़ोस के लोगों को बाहर जाने का इशारा किया.

इशारा पाते ही सभी वहां से चले गए. फिर उस के बाद रात में क्या हुआ, गांव वालों को इस का क्या पता… अगली सुबह माई के घर में हाहाकार मचा हुआ था. माई और उस की छोटी बेटी मंजू छाती पीटपीट कर चिल्ला रही थीं, ‘‘कोई हमारी संजू… रंजू को वापस ला दो. वह पंडा पुरोहित नहीं, ठग था.

‘‘हम दोनों को बेहोश कर के पंडा और चेला मेरी दोनों बेटियों को उठा कर कहां ले गए… कुछ मालूम नहीं. हमारी बेटियों को वापस ला दो. उन्हें बचा लो.’’

गांव वालों को माजरा समझते देर नहीं लगी. राजमणि काका ने तुरंत रेलवे स्टेशन और बसस्टैंड के लिए कुछ लोगों को भेजा, लेकिन वे सभी खाली हाथ निराश लौट आए. तब पुलिस में मामले को ले जाया गया. लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.

माई के पास कलेजे पर पत्थर रख कर संजू और रंजू को भूलने के अलावा कोई चारा नहीं था. इधर उन दोनों बहनों ने समझदारी से काम लिया. पंडा और चेले की गलत मंसा भांपते हुए चालाकी से संजू ने पंडाजी से और रंजू ने चेले से ब्याह कर मौजमस्ती से जिंदगी बिताने का प्रस्ताव रखा.

पंडा और चेला इस प्रस्ताव को सुन कर बहुत खुश हुए. रंजू ने कहा, ‘‘लेकिन, इस के लिए जरूरी है कि हमारे घरपरिवार, गांव के लोग आगे आएं. कोई कानूनी दांवपेंच नहीं लगाएं और हमें पुलिस के चक्कर में नहीं पड़ना पड़े, सो हम लोग बिना समय गंवाए कोर्ट मैरिज कर लें.’’ संजू और रंजू के रूपजाल में फंसे पंडा और चेला कोर्ट मैरिज के कागजात के साथ अदालत में जज के सामने हाजिर हुए.

जब जज ने संजू और रंजू से उन की रजामंदी के बारे में पूछा, तो संजू कहने लगी, ‘‘जज साहब, ये दोनों हमारे गांव में पंडापुजारी बन कर आए थे. भोलेभाले गांव वालों के सामने तंत्रमंत्र का मायाजाल फैला कर इन ढोंगियों ने उन्हें खूब लूटा. ‘‘हम तीनों बहनों पर तो ये लट्टू बने थे. माई को घरपरिवार पर देवी का प्रकोप बता कर तांत्रिक अनुष्ठान कराने के लिए इन दोनों ने इसलिए मजबूर किया, ताकि उस की आड़ में हमें भोग सकें.

‘‘इन की खराब नीयत को भांप कर हम दोनों बहनों ने आपस में विचार किया और इन दोनों को कानून के हवाले करने के लिए यह नाटक खेला है, ताकि कानून इन ढोंगियों को ऐसी सजा दे, ताकि फिर कभी इस तरह की घटना न होने पाए.’’ संजू और रंजू के बयान को दर्ज करते हुए अदालत ने पंडा और चेले को जेल भेजने का आदेश दिया.

संजू और रंजू ने जब गांव वालों को यह दास्तान सुनाई, तो सभी कहने लगे, ‘सचमुच, तुम्हारी दोनों बेटियां बड़ी बहादुर हैं माई. इन दोनों ने वह कर दिखाया है, जो बहुत कम लोग ही कर पाते हैं. पूरे गांव को इन पर नाज है.’ माई की आंखों में भी खुशी और संतोष के आंसू छलछला रहे थे.

Hindi Kahani: गहरी चाल – क्या थी सुनयना की चाल

Hindi Kahani: सुनयना दोनों हाथों में पोटली लिए खेत में काम कर रहे पति और देवर को खाना देने जा रही थी. उसे जब भी समय मिलता, तो वह पति और देवर के साथ खेत के काम में जुट जाती थी.

अपनी धुन में वह पगडंडी पर तेज कदमों से चली जा रही थी, तभी सामने से आ रहे सरपंच के लड़के अवधू और मुनीम गंगादीन पर उस की नजर पड़ी. वह ठिठक कर पगडंडी से उतर कर खेत में खड़ी हो गई और उन दोनों को जाने का रास्ता दे दिया.

अवधू और मुनीम गंगादीन की नजर सुनयना की इस हरकत और उस के गदराए जिस्म के उतारचढ़ावों पर पड़ी. वे दोनों उसे गिद्ध की तरह ताकते हुए आगे बढ़ गए.

कुछ दूर जाने के बाद अवधू ने गंगादीन से पूछा, ‘‘क्यों मुनीमजी, यह ‘सोनचिरैया’ किस के घर की है?’’

‘‘यह तो सुखिया की बहू है. जा रही होगी खेत पर अपने पति को खाना पहुंचाने. सुखिया अभी 2 महीने पहले ही तो मरा था. 3 साल पहले उस ने सरपंचजी से 8 हजार रुपए उधार लिए थे. अब तक तो ब्याज जोड़ कर 17 हजार रुपए हो गए होंगे,’’ अवधू की आदतों से परिचित मुनीम गंगादीन ने मसकेबाजी करते हुए कहा.

‘लाखों का हीरा, फिर भी इतना कर्ज. आखिर हीरे की परख तो जौहरी ही कर सकता है न,’ अवधू ने कुछ सोचते हुए पूछा, ‘‘और मुनीमजी, कैसी है तुम्हारी वसूली?’’

‘‘तकाजा चालू है बेटा. जब तक सरपंचजी तीर्थयात्रा से वापस नहीं आते, तब तक इस हीरे से थोड़ीबहुत वसूली आप को ही करा देते हैं.’’

‘‘मुनीमजी, जब हमें फायदा होगा, तभी तो आप की तरक्की होगी.’’

दूसरे दिन मुनीम गंगादीन सुबहसुबह ही सुनयना के घर जा पहुंचा. उस समय सुखिया के दोनों लड़के श्यामू और हरिया दालान में बैठे चाय पी रहे थे.

गंगादीन को सामने देख श्यामू ने चाय छोड़ कर दालान में रखे तख्त पर चादर बिछाते हुए कहा, ‘‘रामराम मुनीमजी… बैठो. मैं चाय ले कर आता हूं.’’

‘‘चाय तो लूंगा ही, लेकिन बेटा श्यामू, धीरेधीरे आजकल पर टालते हुए 8 हजार के 17 हजार रुपए हो गए. तू ने महीनेभर की मुहलत मांगी थी, वह भी पूरी हो गई. मूल तो मूल, तू तो ब्याज तक नहीं देता.’’

‘‘मुनीमजी, आप तो घर की हालत देख ही रहे हैं. कुछ ही दिनों पहले हरिया का घर बसाया है और अभीअभी पिताजी भी गुजरे हैं,’’ श्यामू की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘मैं तो समझ रहा हूं, लेकिन जब वह समझे, जिस की पूंजी फंसी है, तब न. वैसे, तू ने महीनेभर की मुहलत लेने के बाद भी फूटी कौड़ी तक नहीं लौटाई,’’ मुनीम गंगादीन ने कहा.

तब तक सुनयना गंगादीन के लिए चाय ले कर आ गई. गंगादीन उस की नाजुक उंगलियों को छूता हुआ चाय ले कर सुड़कने लगा और हरिया चुपचाप बुत बना सामने खड़ा रहा.

‘‘देख हरिया, मुझ से जितना बन सका, उतनी मुहलत दिलाता गया. अब मुझ से कुछ मत कहना. वैसे भी सरपंचजी तुझ से कितना नाराज हुए थे. मुझे एक रास्ता और नजर आ रहा है, अगर तू कहे तो…’’ कह कर गंगादीन रुक गया.

‘कौन सा रास्ता?’ श्यामू व हरिया ने एकसाथ पूछा.

‘‘तुम्हें तो मालूम ही है कि इन दिनों सरपंचजी तीर्थयात्रा करने चले गए हैं. आजकल उन का कामकाज उन का बेटा अवधू ही देखता है.

‘‘वह बहुत ही सज्जन और सुलझे विचारों वाला है. तुम उस से मिल लो. मैं सिफारिश कर दूंगा.

‘‘वैसे, तेरे वहां जाने से अच्छा है कि तू अपनी बीवी को भेज दे. औरतों का असर उन पर जल्दी पड़ता है. किसी बात की चिंता न करना. मैं वहां रहूंगा ही. आखिर इस घर से भी मेरा पुराना नाता है,’’ मुनीम गंगादीन ने चाय पीतेपीते श्यामू व हरिया को भरोसे में लेते हुए कहा.

सुनयना ने दरवाजे की ओट से मुनीम की सारी बातें सुन ली थीं. श्यामू सुनयना को अवधू की कोठी पर अकेली नहीं भेजना चाहता था. पर सुनयना सोच रही थी कि कैसे भी हो, वह अपने परिवार के सिर से सरपंच का कर्ज उतार फेंके.

दूसरे दिन सुनयना सरपंच की कोठी के दरवाजे पर जा पहुंची. उसे देख कर मुनीफ गंगादीन ने कहा, ‘‘बेटी, अंदर आ जाओ.’’

सुनयना वहां जाते समय मन ही मन डर रही थी, लेकिन बेटी जैसे शब्द को सुन कर उस का डर जाता रहा. वह अंदर चली गई.

‘‘मालिक, यह है सुखिया की बहू. 3 साल पहले इस के ससुर ने हम से 8 हजार रुपए कर्ज लिए थे, जो अब ब्याज समेत 17 हजार रुपए हो गए हैं. बेचारी कुछ और मुहलत चाहती है,’’ मुनीम गंगादीन ने सुनयना की ओर इशारा करते हुए अवधू से कहा.

‘‘जब 3 साल में कुछ भी नहीं चुका पाया, तो और कितना समय दिया जाए? नहींनहीं, अब और कोई मुहलत नहीं मिलेगी,’’ अवधू अपनी कुरसी से उठते हुए बोला.

‘‘देख, ऐसा कर. ये कान के बुंदे बेच कर कुछ पैसा चुका दे,’’ अवधू सुनयना के गालों और कानों को छूते हुए बोला.

‘‘और हां, तेरा यह मंगलसूत्र भी तो सोने का है,’’ अवधू उस के उभारों को छूता हुआ मंगलसूत्र को हाथ में पकड़ कर बोला.

सुनयना इस छुअन से अंदर तक सहम गई, फिर भी हिम्मत बटोर कर उस ने कहा, ‘‘यह क्या कर रहे हो छोटे ठाकुर?’’

‘‘तुम्हारे गहनों का वजन देख रहा हूं. तुम्हारे इन गहनों से शायद मेरे ब्याज का एक हिस्सा भी न पूरा हो,’’ कह कर अवधू ने सुनयना की दोनों बाजुओं को पकड़ कर हिला दिया.

‘‘अगर पूरा कर्ज उतारना है, तो कुछ और गहने ले कर थोड़ी देर के लिए मेरी कोठी पर चली आना…’’ अवधू ने बड़ी बेशर्मी से कहा, ‘‘हां, फैसला जल्दी से कर लेना कि तुझे कर्ज उतारना है या नहीं. कहीं ऐसा न हो कि तेरे ससुर के हाथों लिखा कर्ज का कागज कोर्ट में पहुंच जाए.

‘‘फिर भेजना अपने पति को जेल. खेतघर सब नीलाम करा कर सरकार मेरी रकम मुझे वापस कर देगी और तू सड़क पर आ जाएगी.’’

सुनयना इसी उधेड़बुन में डूबी पगडंडियों पर चली जा रही थी. अगर वह छोटे ठाकुर की बात मानती है, तो पति के साथ विश्वासघात होगा. अगर वह उस की बात नहीं मानती, तो पूरे परिवार को दरदर की ठोकरें मिलेंगी.

कुछ दिनों बाद मुनीम गंगादीन फिर सुनयना के घर जा पहुंचा और बोला, ‘‘बेटी सुनयना, कर लिया फैसला? क्या अपने गहने दे कर ठाकुर का कर्ज चुकाएगी?’’

‘‘हां, मैं ने फैसला कर लिया है. बोल देना छोटे ठाकुर को कि मैं जल्दी ही अपने कुछ और गहने ले कर आ जाऊंगी कर्जा उतारने. उस से यह भी कह देना कि पहले कर्ज का कागज लूंगी, फिर गहने दूंगी.’’

‘‘ठीक है, वैसे भी छोटे ठाकुर सौदे में बेईमानी नहीं करते. पहले अपना कागज ले लेना, फिर…’’

वहीं खड़े सुनयना के पति और देवर यही सोच रहे थे कि शायद सुनयना ने अपने सोने और चांदी के गहनों के बदले पूरा कर्ज चुकता करने के लिए छोटे ठाकुर को राजी कर लिया है. उन्हें इस बात का जरा भी गुमान न हुआ कि सोनेचांदी के गहनों की आड़ में वह अपनी इज्जत को दांव पर लगा कर के परिवार को कर्ज से छुटकारा दिलाने जा रही है.

‘‘और देख गंगादीन, अब मुझे बेटीबेटी न कहा कर. तुझे बेटी और बाप का रिश्ता नहीं मालूम है. बाप अपनी बेटी को सोनेचांदी के गहनों से लादता है, उस के गहने को उतरवाता नहीं है,’’ सुनयना की आवाज में गुस्सा था.

दूसरे दिन सुनयना एक रूमाल में कुछ गहने बांध कर अवधू की कोठी पर पहुंच गई.

‘‘आज अंदर कमरे में तेरा कागज निकाल कर इंतजार कर रहे हैं छोटे ठाकुर,’’ सुनयना को देखते ही मुनीम गंगादीन बोला.

सुनयना झटपट कमरे में जा पहुंची और बोली, ‘‘देख लो छोटे ठाकुर, ये हैं मेरे गहने. लेकिन पहले कर्ज का कागज मुझे दे दो.’’

‘‘ठीक है, यह लो अपना कागज,’’ अवधू ने कहा.

सुनयना ने उस कागज पर सरसरी निगाह डाली और उसे अपने ब्लाउज के अंदर रख लिया.

‘‘ये गहने तो लोगों की आंखों में परदा डालने के लिए हैं. तेरे पास तो ऐसा गहना है, जिसे तू जब चाहे मुझे दे कर और जितनी चाहे रकम ले ले,’’ अवधू कुटिल मुसकान लाते हुए बोला.

‘‘यह क्या कह रहे हो छोटे ठाकुर?’’ सुनयना की आवाज में शेरनी जैसी दहाड़ थी.

अवधू को इस की जरा भी उम्मीद नहीं थी. सुनयना बिजली की रफ्तार से अहाते में चली गई. तब तक गांव की कुछ औरतें और आदमी भी कोठी के सामने आ कर खड़े हो गए थे. वहां से अहाते के भीतर का नजारा साफ दिखाई दे रहा था.

लोगों को देख कर नौकरों की भी हिम्मत जाती रही कि वे सुनयना को भीतर कर के दरवाजा बंद कर लें. अवधू और गंगादीन भी समझ रहे थे कि अब वे दिन नहीं रहे, जब बड़ी जाति वाले नीची जाति वालों से खुलेआम जबरदस्ती कर लेते थे.

सुनयना बाहर आ कर बोली, ‘‘छोटे ठाकुर और गंगादीन, देख लो पूरे गहने हैं पोटली में. उतर गया न मेरे परिवार का सारा कर्ज. सब के सामने कह दो.’’

‘‘हांहां, ठीक है,’’ अवधू ने घायल सांप की तरह फुंफकार कर कहा.

सभी लोगों के जाने के बाद अवधू और गंगादीन ने जब पोटली खोल कर देखी, तो वे हारे हुए जुआरी की तरह बैठ गए. उस में सुनयना के गहनों के साथसाथ गंगादीन की बेटी के भी कुछ गहने थे, जो सुनयना की अच्छी सहेलियों में से एक थी.

‘अब मैं अपनी बेटी के सामने कौन सा मुंह ले कर जाऊंगा. क्या सुनयना उस से मेरी सब करतूतें बता कर ये गहने ले आई है?’ सोच कर गंगादीन का सिर घूम रहा था.

अवधू और गंगादीन दोनों समझ गए कि सुनयना एक माहिर खिलाड़ी की तरह बहुत अच्छा खेल खिला कर गई है.

Hindi Story: वही खुशबू – आखिर क्या थी उस की सच्चाई

Hindi Story: बहुत दिनों से सुनती आईर् थी कि भैरों सिंह अस्पताल के चक्कर बहुत लगाते हैं. किसी को भी कोई तकलीफ हो, किसी स्वयंसेवक की तरह उसे अस्पताल दिखाने ले जाते. एक्सरे करवाना हो या सोनोग्राफी, तारीख लेने से ले कर पूरा काम करवा कर देना जैसे उन की जिम्मेदारी बन जाती. मैं उन्हें बहुत सेवाभावी समझती थी. उन के लिए मन में श्रद्धा का भाव उपजता, क्योंकि हमें तो अकसर किसी की मिजाजपुरसी के लिए औपचारिक रूप से अस्पताल जाना भी भारी पड़ता है.

लोग यह भी कहते कि भैरों सिंह को पीने का शौक है. उन की बैठक डाक्टरों और कंपाउंडरों के साथ ही जमती है. इसीलिए अपना प्रोग्राम फिट करने के लिए अस्पताल के इर्दगिर्द भटकते रहते हैं. अस्पताल के जिक्र के साथ भैरों सिंह का नाम न आए, हमारे दफ्तर में यह नामुमकिन था.

पिछले वर्ष मेरे पति बीमार हुए तो उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा. तब मैं ने भैरों सिंह को उन की भरपूर सेवा करते देखा तो उन की इंसानियत से बहुत प्रभावित हो गई. ऐसा लगा लोग यों ही अच्छेखासे इंसान के लिए कुछ भी कह देते हैं. कोई भी बीमार हो, वह परिचित हो या नहीं, घंटों उस के पास बैठे रहना, दवाइयों व खून आदि की व्यवस्था करना उन का रोज का काम था. मानो उन्होंने मरीजों की सेवा का प्रण लिया हो.

उन्हीं दिनों बातोंबातों में पता चला कि उन की पत्नी भी बहुत बीमार रहती थी. उसे आर्थ्राइटिस था. उस का चलनाफिरना भी दूभर था. जब वह मेरे पति की सेवा में 4-5 घंटे का समय दे देते तो मैं उन्हें यह कहने पर मजबूर हो जाती, ‘आप घर जाइए, भाभीजी को आप की जरूरत होगी.’ पर वे कहते, ‘पहले आप घर हो आइए, चाहें तो थोड़ा आराम कर आएं, मैं यहां बैठा हूं.’

यों मेरा उन से इतनी आत्मीयता का संबंध कभी नहीं रहा. बाद में बहुत समय तक मन में यह कुतूहल बना रहा कि भैरों सिंह के इस आत्मीयतापूर्ण व्यवहार का कारण क्या रहा होगा? धीरेधीरे मैं ने उन में दिलचस्पी लेनी शुरू की. वे भी किसी न किसी बहाने गपशप करने आ जाते.

एक दिन बातचीत के दौरान वे काफी संकोच से बोले, ‘‘चूंकिआप लिखती हैं, सो मेरी कहानी भी लिखें.’’मैं उन की इस मासूम गुजारिश पर हैरान थी. कहानी ऐसे हीलिख दी जाती है क्या? कहानी लायक कोई बात भी तो हो. परंतु यह सब मैं उन से न कह सकी. मैं ने इतना ही कहा, ‘‘आप अपनी कहानी सुनाइए, फिर लिख दूंगी.’’

बहुत सकुचाते और लजाई सी मुसकान पर गंभीरता का अंकुश लगाते हुए उन्होंने बताया, ‘‘सलोनी नाम था उस का, हमारी दोस्ती अस्पताल में हुई थी.’’

मुझे मन ही मन हंसी आई कि प्यार भी किया तो अस्पताल में. भैरों सिंह ने गंभीरता से अपनी बात जारी रखी, ‘‘एक बार मेरा एक्सिडैंट हो गया था. दोस्तों ने मुझे अस्पताल में भरती करा दिया. मेरा जबड़ा, पैर और कूल्हे की हड्डियां सेट करनी थीं. लगभग 2 महीने मुझे अस्पताल में रहना पड़ा. सलोनी उसी वार्ड में नर्स थी, उस ने मेरी बहुत सेवा की. अपनी ड्यूटी के अलावा भी वह मेरा ध्यान रखती थी.

‘‘बस, उन्हीं दिनों हम में दोस्ती का बीज पनपा, जो धीरेधीरे प्यार में तबदील हो गया. मेरे सिरहाने रखे स्टील के कपबोर्ड में दवाइयां आदि रख कर ऊपर वह हमेशा फूल ला कर रख देती थी. सफेद फूल, सफेद परिधान में सलोनी की उजली मुसकान ने मुझ पर बहुत प्रभाव डाला. मैं ने महसूस किया कि सेवा और स्नेह भी मरीज के लिए बहुत जरूरी हैं. सलोनी मानो स्नेह का झरना थी. मैं उस का मुरीद बन गया.

‘‘अस्पताल से जब मुझे छुट्टी मिल गई, तब भी मैं ने उस की ड्यूटी के समय वहां जाना जारी रखा. लोगों को मेरे आने में एतराज न हो, इसीलिए मैं कुछ काम भी करता रहता. वह भी मेरे कमरे में आ जाती. मुझे खेलने का शौक था. मैं औफिस से आ कर शौर्ट्स, टीशर्ट या ब्लेजर पहन कर खेलने चला जाता और वह ड्यूटी के बाद सीधे मेरे कमरे में आ जाती. मेरी अनुपस्थिति में मेरा कमरा व्यवस्थित कर के कौफी पीने के लिए मेरा इंतजार करते हुए मिलती.

‘‘जब उस की नाइट ड्यूटी होती तो वह कुछ जल्दी आ जाती. हम एकसाथ कौफी पीते. मैं उसे अस्पताल छोड़ने जाता और वहां कईकई घंटे मरीजों की देखरेख में उस की मदद करता. सब के सो जाने पर हम धीरेधीरे बातें करते रहते. किसी मरीज को तकलीफ होती तो उस की तीमारदारी में जुट जाते.

‘‘कभी जब मैं उस से ड्यूटी छोड़ कर बाहर जाने की जिद करता तो वह मना कर देती. सलोनी अपनी ड्यूटी की बहुत पाबंद थी. उस की इस आदत पर मैं नाराज भी होता, कभी लड़ भी बैठता, तब भी वह मरीजों की अनदेखी नहीं करती थी. उस समय ये मरीज मुझे दुश्मन लगते और अस्पताल रकीब. पर यह मेरी मजबूरी थी क्योंकि मुझे सलोनी से प्यार था.’’

‘‘उस से शादी नहीं हुई? पूरी कहानी जानने की गरज से मैं ने पूछा.’’

भैरों सिंह का दमकता मुख कुछ फीका पड़ गया. वे बोले, ‘‘हम दोनों तो चाहते थे, उस के घर वाले भी राजी थे.’’

‘‘फिर बाधा क्या थी?’’ मैं ने पूछा तो भैरों सिंह ने बताया, ‘‘मैं अपने मांबाप का एकलौता बेटा हूं. मेरी 4 बहनें हैं. हम राजपूत हैं, जबकि सलोनी ईसाई थी. मैं ने अपनी मां से जिद की तो उन्होंने कहा कि तुम जो चाहे कर सकते हो, परंतु फिर तुम्हारी बहनों की शादी नहीं होगी. बिरादरी में कोई हमारे साथ रिश्ता करने को तैयार नहीं होगा.

‘‘मेरे कर्तव्य और प्यार में कशमकश शुरू हो गई. मैं किसी की भी अनदेखी करने की स्थिति में नहीं था. इस में भी सलोनी ने ही मेरी मदद की. उस ने मुझे मां, बहनों और परिवार के प्रति अपना फर्ज पूरा करने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया.

‘‘मां ने मेरी शादी अपनी ही जाति में तय कर दी. बड़ी धूमधाम से शादी हुई. सलोनी भी आई थी. वह मेरी दुलहन को उपहार दे कर चली गई. उस के बाद मैं ने उसे कभी नहीं देखा. विवाह की औपचारिकताओं से निबट कर जब मैं अस्पताल गया तो सुना, वह नौकरी छोड़ कर कहीं और चली गई है. बाद में पता चला कि  वह दूसरे शहर के किसी अस्पताल में नौकरी करती है और वहीं उस ने शादी भी कर ली है.’’

‘‘आप ने उस से मिलने की कोशिश नहीं की?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ भैरों सिंह ने जवाब दिया, ‘‘पहले तो मैं पगला सा गया. मुझे ऐसा लगता था, न मैं घर के प्रति वफादार रह पाऊंगा और न ही इस समाज के प्रति, जिस ने जातपांत की ये दीवारें खड़ी कर रखी हैं. परंतु शांत हो कर सोचने पर मैं ने इस में भी सलोनी की समझदारी और ईमानदारी की झलक पाई. ऐसे में कौन सा मुंह ले कर उस से मिलने जाता. फिर अगर वह अपनी जिंदगी में खुश है और चाहती है कि मैं भी अपने वैवाहिक जीवन के प्रति एकनिष्ठ रहूं तो मैं उस के त्याग और वफा को धूमिल क्यों करूं? अब यदि वह अपनी जिंदगी और गृहस्थी में सुखी है तो मैं उस की जिंदगी में जहर क्यों घोलूं?’’

‘‘अब अस्पताल में इतना क्यों रहते हैं? और यह कहानी क्यों लिखवा रहे हैं?’’ मैं ने उत्सुकता दिखाई.

भैरों सिंह ने गहरी सांस ली और धीमी आवाज में कहा, ‘‘मैं ने आप को बताया था न कि मैं उस का अधिक से अधिक साथ पाने के लिए उस की ड्यूटी के दौरान उस की मदद करता था, पर दिल में उस की कर्मनिष्ठा और सेवाभाव से चिढ़ता था. अब मुझे वह सब याद आता है तो उस की निष्ठा पर श्रद्धा होती है, खुद के प्रति अपराधबोध होता है. अब मैं मरीजों की सेवा, प्यार की खुशबू मान कर करता हूं और मुझे अपने अपराधबोध से भी नजात मिलती है.’’

भैरों सिंह की आवाज और धीमी हो गई. वह फुसफुसाते हुए से बोले, ‘‘अब मैं सिर्फ एक बात आप को बता रहा हूं या कहिए कि राज की बात बता रहा हूं. इस अस्पताल के समूचे वातावरण में मुझे अब भी वही खुशबू महसूस होती है, सलोनी के प्यार की खुशबू. रही बात कहानी लिखने की, तो मेरे पास उस तक अपनी बात पहुंचाने का कोई जरिया भी तो नहीं है. अगर वह इसे पढ़ेगी तो समझ जाएगी कि मैं उसे कितना याद करता हूं. उस की भावनाओं की कितनी इज्जत करता हूं. यही प्यार अब मेरी जिंदगी है.’’

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